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अनुसन्धान-७५(२)
वरणसंस्था जो तेहनी कहिई, दीसइ साठि ने आठ; हूस्व-दीरघ इगसठि साते, पंच वरणनो ठाठ,
रे पंडित०४ पांडव संख्या कहो सी कहीइं, गुरुने किम कही नमीइं; पृथवीसुत नामिइं अनुभवीइं, परममित्र इम स्तवीइं,
रे पंडित० ५ भाव धरी भवियण आराधई, ते होइं शिवगति वासी; वाचक जयसौभाग्य नितु भजतां, सिद्धि लहे शाबासी,
रे पंडित०६
[नवकार मन्त्र]
अचलसुतापति तसु रिचिइं रे, रिपुधा कंत वखाणि; तसु रिपु भज्जा नाम छइ रे, तसु प्रथमाक्षर जाणि, गुणियण सेवउ सुह गुरु पाय, तसु नामई दुरित पलाइ, जसु जपतां सिवसुख थाइ...
गुणि० १ तसु सह नामइं जे अछइ रे, तासु तणउ मल्हार; तसु नामई मन उल्हसइ रे, पामउं हरख अपार गुणि० २ वनरिपु तसु रिपु तेहनी रे, धूय तणा तनुवान; महियलि महिमा महमहइ रे, धइ इन्द्रादिक मान गुणि० ३ समुद्रसुतासुततनु तुलई रे, निर्मल दीपइ जासु; अखंड कीरति छइ तेहनी रे, कीधउ अतिहि प्रकास गुणि० ४ जासु नाम प्रगटउ जगि रे, हेलिइं जीतउ मार: संजमसिरि सहजई वरी रे, तरिया भवसंसार गुणि०५ सहगुरु दीठइ ऊपजइ रे, हरि सिरि जेणि सोभंति; ए गूढारथ तिणि कीयउ रे, पंडितजण बूझंति
गुणि०६