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अनुसन्धान-७५(२)
आइन्नं उक्कोसं हत्थसयंतो घरेउ तिन्नि तहिं ।
एगत्थ भिक्खग्गही जीउ दुसु कुणइ उवओगं ॥४७॥
आइन्न० ॥ हाथ सउ माहिथिकंउ आणिउं महात्माहुइं आकीर्ण कहीइ कल्पतउंहु । त्रिहुं घरमाहिलू आणिउं महात्मा प्रतिइं कल्पइ । पुण जउ ते त्रिहुं घरमाहि एकई घरि भिक्षा ग्राही आगिलउ विहरणहार महात्मा उपयोग दिइ, दृष्टि दिइ । अनइं बीजे बिहुं घरे जउ बीजु पाछिलउ महात्मा उपयोग दियइ । आवतां मार्गि विराधनादिक हुइ ते चीतवइ । तउ ते त्रिहुं घरिमाहिलूं आणिउ कल्पई । बीजी परि न कल्पई । एतलई इग्यारमउं अभ्याहृत दोष कहिउ ॥४७॥
हिव बारमउ उद्भिन्नदोष वखाणइ छइ -
जउ-छगणाइ विलित्तं उभिदिय देइ जं तमुन्भिन्नं ।
समणाणमपरभोगं कवाडमुग्घाडिअं वावि ॥४८॥
जउ० ॥ जतु-लाख अथवा छगणा-छाण मृत्तिकादिक, तेहे करी जे भाजन लीपिउं मूद्रिउं हुइ, दाटउ दीधउ हुइ । ते उखडीनइ जे वस्तु महात्मा प्रतइं दीजइ, ते उद्भिन्न कहीइ । ते महात्माहुई अपरिभोग्य-अकल्पतउं जाणिवउं । अथवा महात्मानिमित्त कमाड ऊघाडीनइ कोई आहार दिइं, ते उद्भिन्न कहीइं । ईहाइ भाजन ऊघाडतां बार हलावतां जीवविराधनादिक घणा दोष ऊपजइं । तेह भणी एहइ दोष गाढउ-भारी जाणीनइ महात्माइ वर्जिवउ । एतलइ बारमउ उद्भिन्न दोष कहिउ ॥४८॥
हिव तेरमउ मालापहृत दोष वखाणइ छइ - उड्ड-महो:-भय,-तिरिएसु, माल, भूमिहर, कुंभि, धरणि-ठिअं। करदुब्भिज्झंदलई जं तं मालोहडं उ8 ॥४९॥
उड्ड० ॥ ऊपरली भुंइ अथवा छींकई काई मूकिउ हुइ । अथवा अहोहेठली-नीचउं भुंइहरामाहि कांई कांई मूकिउ हुइ । अथवा उभय विचालइ कुंभिकोठी-गुढादिकमाहि काई मूकिंउं हुइ । अथवा तिरछउं धरणि-भूमिकाइ विषमस्थानकि कांई मूकिउं हुइ । तिहां थकउ लेई महातमा प्रतिइं दिइ । तथा जे वस्तु हाथे लेतां गाढी दोहली लवरायि पग ऊपाडीनइ गाढइ कष्टि लेईनइ महात्मा प्रतिइं दिइ, ते मालापहृतदोष कहीइ । इम ए मालापहृत बिहु प्रकारे