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________________ १३२ अनुसन्धान-७५(२) १४० १४२ १४३ १४४ १४६ तो मध्यस्थ मनेयि इक, युगप्रधान श्रुत-न्याय, रूडी रीते परिखवो, तजि प्रवाह हलवाय अब दशमचरज नाम गणि, जनित-नीच-जन-कर्म, लोकप्रवाहे निपुण पिण, पडिआ तजि शुभ धर्म पडनालंबन आचरे, मिथ्यादृष्टि तेय, जे समदृष्टि तेहनो, मन चडते पगथेय सुलभ सकल पि कनक मणि, आदि वस्तु-विस्तार, मार्ग-निपुणनो संग जग, अति दुर्लभ अवधार मान-विषोपसमाववा, सुद्ध देव गुरु धर्म, ते सेवे पण मद थयो, हा ! ते पूर्व कुकर्म जिन-आचरण थकी जुदो, जे जण तसु आचार, रे ! सठ करतो किम कहे, हुं जिन-भगत उदार जाकू माने लोक तसु, माने लोक अनेक, माने जास जिनेंद्र तसु, माने कोईक छेक सार्मिथी अधिक जसु, परिजन ऊपर प्रेम, तास न समकित मानिये, आगम नीति एम जिनपति लोकाचारथी, जो तूं जांणे भिन्न, तो किम लोकाचारने, तुं मांने ? प्रभु-मन्न जिनवरने प्रणमी वली, जे प्रणमे अन देव, सन्निपात मिथ्यातहत, तस कुंण वैद इहेव? गुरु इक वली श्राद्ध इक, चैत्य विविध चित्रैव, तामे तो जिन-द्रव्य ते, दिए परस्पर नेव .. ते गुरु नहि श्रावक नही, नही प्रभु-पूजक तेय, मोह-थिती मूढो तणी, जाणी श्रुत-निपुणेण चैत्य भुवन वलि श्राद्धजन, साधारणद्रव्यादि, । तास भेद जसु वचनमे, ते गुरु छे झगडादर प्रगटे न विधि-विवेक अब, प्रभु-वचने पिण जाव, ताव निवड मिथ्यात्वनी, गंठि तणो अनुभाव १४७ १४८ १४९ १५० । १५१ १५२ १५३
SR No.520577
Book TitleAnusandhan 2018 11 SrNo 75 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages338
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size22 MB
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