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सप्टेम्बर - २०१८
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बंधन मरण भयादिदुख, नही तीक्षण दुख जांण, जे अविनय प्रभु-वचननो, ते दुख दोष-निधान १५४ वीर-वचन विधिसार लखि, जब निज आतम जोय, तो कहां ते गृहीधर्म जे, ग्रह्यो धीर पुरुषोय? जदपि शुश्रावक-सेढीए, चरण-करण-असमर्थ, तदपि मनोरथ मुझ हिये, कब हुं करूं तदर्थ ? तो शुभ भावे प्रभु नमत, चरणे जाचूं एक, होय सदा मुझ तुम वचन-रतन-लोभ अतिरेक मिथ्यावाससु मलिन मन, गत-विवेक हम मांहि, कहांथी सुख संभाविये, स्वपन विषे पण नाह ! धरूं जो जीवित मात्र पिण, नाम श्राद्धनो सार, ते पिण अति अचरिज प्रभू !, दूषम काल मझार १५९ इम विचार करि तिम सुगुरु, हमने करो सनाथ, सुलभ होय जिम नर-पणो, शिव-सामग्री-साथ १६० नेमिचंद भंडारि कृत, गाथा केइक एम, विधि-मग-मग्न भविक भणो, लखो लहो शिव-क्षेम १६१ सष्टिशतक प्राकृत थकी, दोधक किया सुभास, दोधक-सोधक बुधिजन, सेवक मोहन तास
वक माहन तास १६२
॥ इति श्रीषष्टिशतकभाषादूहा समाप्तं ।। ग्रं. १८५ ॥ लि. पुनमचंदः ।
शब्दकोश
१. फुन् = पुनः २. मुस्यो = लूटायो ३. मेलीव = मूंकी ४. नाक = स्वर्ग ५. गिराय = वाणी (देशना)
६. थितीव = स्थिति ७. पायकर = पामीने ८. प्रादि = सौथी पहेलां(?) ९. शिर नाय = मस्तक नमावे १०. गडर = घेटां