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फिरिउ अनंती भवनी कोडि,
अजी न फीटइ तुझ ए खोडि ।
नव नव जनसि नवउ तुझ लोभ,
मनसिउं चोरी करिसि केतली,
धर्म तणी कांइं छांडई थोभ ||२९||
एह वात परणामि' नहीं भली ।
कांई साचेरी वाटइं चालि,
ठगविद्या पर मन कांई रंग,
हुसिइ पिया आज कि कालि ॥३०॥
पर-मन-रंजनि वडउ च्छ्इ जंग ।
आपिइं आप ज रंजिसि किमइ,
घणा बोल बोलउं केतला,
१. परिणामे २. प्रयाण
कासवे सरिसिई तुझ तिमइ ॥३१॥
एकेक एहिं च्छई अतिभला ।
आगमग्रन्थ सविहुं ए सार,
जीव- अजीवहं तणउ विचार,
गुरु-मुखरं सांभलि सविवार । परिसाचा लाभ मर्म,
केवलि - भाषित धर्माधर्म ||३३||
अनुसन्धान-७५ ( २ )
समकित सील रखे तउं हारि ||३२||
जत्थे जीव-दया ते धर्म,
जीव-विधिइ लाभइ दुःकर्म ।
एउ विचार जो जोइ अभंग,
अमर - भवनि तीहं अविहड रंग ||३४||
॥ इति मिथ्यात्वविरह - सम्यक्त्वकुलं समाप्तम् ॥
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