SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्टेम्बर - २०१८ २०७ कारज इच्छइ कारण छांडइ, ते मिथ्यामत कहीइ रे मरुदेवीना लाडकडानु, वयण एह सद्यहीइ रे ६ ओ० अह्मे अपूरव छु ब्रह्मचारी, अह्म अंगि जेह लोडाणी रे ते वस्तु जिननें चढइ जो तुं कोन कहइ भोगवाणी रे ७ ओ० तिं तो वात कही सवि ताणी, छीदरी मति महिलानी रे दीर्घ आलोच नही को तुझमई, रहिस्यो आप हारीने रे ८ ओ० मुझ विण भोग लीइ कोइ ताहरो, तो तुं कुंयारी न कहीइ रे जिणपूजाइं काम न आवइ, तिणि मुझ संगम सहीइ रे ९ ओ० केसरादिक सुगंध क्रियाj, जो पणि कुटंब ए ताहरुं रे पणि तुझ कथन ए कोइ न मानइ, मांनइ वयण ए माहरुं रे१० ओ० गंधनी छाकी क्लेसनी माती, क्लेशवल्लभ स्त्री जाति रे घरनो संप घडीमें भाजइ, जगि वनितानी वाति रे ११ ओ० यतः स्त्रियां त्रिणइ वल्लहां, कलि कज्जल सिंदूर पुनरपि त्रिण्यइ वल्लहां, दूध जमाई तूर परमानंद आनंद कहइ, सगपण भलो कइ संप रेह पडी गिरि पत्थरई, तउ जड घाली लंप जिहां तें वरस लगें लड्या, जिमणो डाबो हाथ । आहार कर्यो नही तिहां लगें, आदीसर जगनाथ पूर्वढाल जब तई मुझस्युं संप नही तुझ, भेली कोई न विचइ रे तव तं सुगंध क्रियाणुं जूदं, खोटी मति कां खिचइ रे १२ ओ० स्वार्थभंगे सगपण नासइ, नासइ भूतड्या मार रे अन्न विना जिम काया नासइ, प्रीति नासइ चढ्यइ खार रे १३ ओ० देश विणसइ जिम नृप विहूणो, नासइ रंग मन भंगें रे नासइ सुख त्यां क्लेश थयो तव, विण शक्ति नासइ संगे रे १४ ओ० ते तो घर नाळु जांणीजइ, जस घर बाहिर वात रे तिम सुकडि तुं काइ न समझइ, करतां ए अवदात रे १५ ओ०
SR No.520577
Book TitleAnusandhan 2018 11 SrNo 75 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages338
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy