________________
२१८
अनुसन्धान-७५(२)
जे रसीओ पापनें मारगें, तेहनो संग मुक्यो छोडि रे जे धर्ममारग रसीउ थउ, तेहनें मिलवानी कोडि रे २ ओ० कापुरुषपणुं दूरइ तज्युं, सुपुरुस धराव्युं नाम रे सात व्यसन थकी जे वेगलो, न करइ अकारज काम रे ३ ओ० जे उद्धतपणुं सवि परिहरइ, राखें निज कुलनी लाज रे जे महाजनमां शोभा वधइ रे, तेहवां करइ रूडां काज रे ४ ओ०
ओ कामणगारी कामिनी, ठगारी कपट- ठाण रे तेहनां पासामें नवि पडइ, जांणइ दुखनुं मंडाण रे ५ ओ० परस्त्रीस्युं नयण न जोडतो, परस्त्रीस्युं न करइ हासि रे । परस्त्री हुइ जिहां एकली, बइसी न करइ तिहां लबासि रे ६ ओ० जे परस्त्रीस्युं राता थया, मुंज रावण जेहवा राण रे तेहनां दुख जाणीने करइ, निज स्त्री संतोष सुजाण रे ७ ओ० ओ स्त्री साकरनी सेलडी, हेजालां सुंदर नेत्र रे देखीने मनमें चिंतवइ, सात धातु अशुचिनुं क्षेत्र रे ८ ओ० मोटी स्त्री मानइ थानकें, नाही गणइ बहिन समान रे नारीनां अंग उपांगमें, न करइ नयणां संधान रे ९ ओ०
ओ जगि स्त्री संग दुल्लंघ छइ, तजवा रस जाग्यो योग रे विषयथी मन वाल्युं जिणें, मिथ्यातनो नाठो भोग रे १० ओ०
ओ शीलनी वाडि सोहामणी, पालवा रसीउ निस दीस रे मन वचन कायाथी नवि डगइ, जगमां लीध जगीस रे ११ ओ०
ओ जैन धर्म साचो जगें, तेहनो सेवा रस जांण रे नवतत्त्व सद्दहण नवि तजइ, घटमांहि जिहां लगें प्राण रे १२ ओ०
ओ देव ते अरिहंत मन धरइ, गुरु ते सुसाधु महंत रे जिनभाषित धर्म भलो जगें, नित्य रिदयमांहिं समरंत रे १३ ओ० ओ चैत्य करावइ सुंदरू, ओ पूजें श्री जिनराय रे ओ संघ काढइ तीरथतणा, साहमीवच्छल वरताय रे १४ ओ० ओ पांच प्रकारना दान जे, तात्त्विक पणि रसीओ तास रे धरइ धीरज सत्त्व मुंकइ नही, जन कहइ तेहनें स्याबासि रे १५ ओ०