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सप्टेम्बर
जी भाजनि आधाकर्मी आहार पचिउ हुई, तीणइं भाजनि त्रित्रिवार जउ अनेरउं धान रांधिउ हुइ, तउ तिणइ भाजनि विहरिउं सूझइ । बीजी परिइ न सूझइ । तथा जीणई पात्रइ पूतिकर्म आहार विहरिउ हुइ ते पात्रूंइ त्रिणिवार घस्या पूठिंइ जउ त्रिणिवार धोईइ तउ सूझइ । बीजी परिहं न सूझई । एतलई त्रीजउ पूतिकर्म कहिउ
॥३६॥
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२०१८
हिव चउथउ मिश्रजात दोष वखाणइ छइ
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जं पढमं जावंति, पासंडि, जईणइ अप्पणो विकए । आरंभइ तं तिमीसं तु मीसजायं भवे तिविहं ॥ ३७ ॥
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जं पढमं० ॥ जे आहार पहिलू जि को याचक आविसिइ तेहनइ काजिई -१ | अथवा पासंडि - सन्यासी प्रमुखहुई - २ । अथवा यति चारित्रीयाऋषिहुइं देवाहुइं अनइं आपणहूं काजि हुसिइ । इम विकल्प चींतवीनइ जे पाकनउ आरंभ करइ, ते याचक - १ । पाखंडी - २ । यति - ३ ए त्रिहुंने विकल्पे करी अनइ आपणइ विकल्पइं करी मिश्र हुई ते 'मिश्रजात' दोष कहीइ । इम बिहुंनइ विकल्पे करी मिश्रजातदोष त्रिहुं प्रकारे हुई । हिव जे पहिलू आंपणइ का आरंभ माड्या पूठिउं विचालइ वली भिक्षाचरादिकनउ जे उद्देस विकल्प आवइ ते औद्देशिकदोष कहीइ । अनइ पहिलूं आरंभ करतां धुरि जि जे पाचकादिकनउ विकल्प आवइ, ते मिश्रजात दोष कहीइ । इस्युं भावा ॥३७॥ हिव पांचमउ स्थापनादोष कहइ छइ
सट्ठाण, परट्ठाणे, परंपराऽणंतरं, चरि, (चिरि ) तरिअं दिविह-तिविहा विठवणाऽसणाइ ठवइ [जं] साहुकए ॥ ३८ ॥
सा० ॥ स्वस्थानकि अथवा परस्थानकि जे अशनादिक स्थापइ । तथा परंपर१ अथवा अनंतर२, तथा चिर - घणउ काल राखीइ अथवा इत्वरथोडा काल लगइ राखीइं । इम त्रिहुं प्रकारे बिहु भेदे जाणिवी । जे गृहस्थ महात्माहुइ विहरवानइ काजिई जि काई अशनपानादिक स्थापई - राखीनइ मूंकइ ते स्थापना दोष कही ||३८||
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हिव स्वस्थान परस्थाना१ परंपरानंतर२ चिर इत्वर३ ए त्रिहुं प्रकारे जे स्थापना कही । ते त्रिणि भांगा वखाणइ छइ