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सप्टेम्बर - २०१८
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धरु धनुष तूं करउ संधान, अधिसंधि ऊरधि जोउ ठाण, षट्चक्र भेदि जो करइ मनसा, बल-पद निश्चई मरणा. ४७ (?) नाद निरंतर निरखी जोइ, स्वर्गि मृत्यु पातालि न होइ, स्वर व्यंजन न दीसइ नादि, मुगति मारगि ए उबाहि (?) ४८ पद तो पंडित बिंदु विचारी ....
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सुर मुरइं तूं जोइ(?), लोकालोकि तूं अवर न होइ, त्रिहुं भवनि हिउं जि दीसइ तेज, रूप करम सिउं म करिसि हेज. ५० बइठा लाभइ ज्ञान विचार, सरस बहत्तरि नाम प्रचार, तीहं सारी दस बोलउं साधु, इड पिंगलमइ सुखमन लाध. ५१ भेल पडी राखीतइ खेत्रि, बां(वां?)झि बाई अणलाधइ वेत्रि, जाणउ तेह नवि नाम न रूप, ते तो अवगत ज्ञान सरूप. ५२ मन जलि मन थलि मन अंधारि, स्वर्ग मृत्यु मु(म)नि फिरइ पयालि, भू अप तेउ वाउ सिउं रंग(रम)इ, एकाकाश किमू(म)इ त(न?)विगमइ. ५३ योगी सो जे जाणइ योग, मन आकासि करइ संभोग,
....................... ५४ रवि ससि बालइ अंतरालि, वाय अगनि वहइ शुभ कालि, पुढवि अप मुनि शुभ संयोगि, गगन वहंतइ मुगति-पयोगि. ५५ लहइ बिंदु मुनि गुरु आदिसइ, अंगुलि थिरु करि जगह-प्रवेस. लहइ बिंदु करि वर्ण विचार, पीलु धउलउ ए बे सार. ५६ विगत थाइ विचारी जोइ, नीलइ कालइ निवृत्ति न होइ, गुरु आदेसिइं गगन विचार, तिहां तूं केवलि-कर्म निवारि. ५७ सहजिइं जोउ वस्तु विचार, जं दीसइ ते सहू असार, पुढवि आउ तेउ वाउ कर्मरूप, गगनि निहालइ मुगति-सरूप. ५८ खंड-ग्यान जो बाला कर्म, मन-मृग मरिवा सघला मर्म, एकेकइ क्रमि सिद्धा हूया, प्राणायामि जीवंता मूआ. ५९ हीयडा भोलिम बोल्या बोल, जोगी न कहइ जि मरइ निटोल, अनुभव जोइ घटमई कहिया, जे साधइ ते त्रिभुवनि रह्या. ६०