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सप्टेम्बर - २०१८
अनइ अनेरा पाहिं कांई कराविउं नथी । अनइ अनुमोदिउई काई नथी । पुण गृहिस्थिई आपणी बुद्धिइं आपहिणी ते आहार नीपायुं छइ । तउ त्रिकरण सुद्ध - मन वचन कायनइ सुद्धपणाई जे महात्माहुइं ते आहार लेतां स्युं दोष हुइ ? इम शिष्यई पूछिउं ॥२७॥
हिव गुरु ए वातनउ ऊतर कहइ छइ -
सव्वं तह वि मणतो, गिण्हंतो वट्टए पसंगं से । निद्धंधसो अ गिद्धो न मुअइ सजीअं पि सो पच्छा ॥२७॥
[सव्वं०॥] हे शिष्य ! ए वात साची । पुण तुहइ जउ महात्मा जाणतउ हूंतउ आधाकर्मी आहार लिइ, तउ घणउ प्रसंग वधारइ । ते किम् ? । गृहस्थ इम जाणइ एम महात्मा ए आहार लिइ छइ । निषेधउ कांई नथी। तेह भणी हं किस्या भणी न दिउं?-इम ते महात्मा वारइ नही अनइ गृहस्थ करतउ रहइ नही । इम आघउ घणउ प्रसंग वाधइ । अनइ महात्माइ मउडइ निद्धंस निस्सूग थाइ । तथा गृध-लोभिई वाहिउं हूंतउ पछइ सजीव-सचित्तइ आहार न मूकइ । सच्चित्तइ लेतउ कांई काण न करइ । तेह भणी आधाकर्मी आहार सर्वथा वजिवउ । एतलइ पहिलउ आधाकर्मदोष नव द्वारे वखाणिउ ॥२७॥
'हिव बीजओ औद्देशिकपिंड वखाणइ छइ ।
उद्देसिअमोह१ विभागउ अ२ ओहे सए समारंभे । भिक्खाउ कइ वि कप्पइ जोएही तस्स दाणट्ठा ॥२८॥
मनेषणीयभयाद् ग्रामांतरं ययौ । तत्रैका श्राविका विज्ञाततत्पारणा दानश्रद्धया झटितिकृतपरमान्ना प्रगुणितघृत-गुडा आधाकर्माऽऽच्छादनाय बहिःक्षिप्तपायसोपलिप्तपत्रादिपुटिका 'नित्यं न रोचते इद'मिति शिक्षितक्षीरान्नभोजिबालका तं क्षपकं गृहमायातं वीक्ष्य क्षीरान्नपूर्णभाजन-सघृतगुडमुत्पाट्य बालकपरिवेशनछद्मनाऽभ्युत्थिता तेषां शिक्षावशादगृह्णता क्षपको जल्पिको(तो) भो ! यदि तव रोचते तदा गृहाणेत्युक्ते शुद्धधिया विहत्येतदशुद्धमप्यमूर्छितो भुञ्जानः शुद्धाऽध्यवसायवशात् तदनेके च (तदन्ते केवल)
ज्ञानमाप । एवमसावशुद्धभोज्यपि शुद्धान्वेषणाच्छुद्ध इति । १. हिव उद्देसिकपिंडनउ विभागरुप बीजउ भागउ वखाणइ छइ-उद्देश-१, समुद्देस-२,
आदेस-३, समादेस-४ । एकेका बोलना त्रिणि भांगा । केहा?-उद्दिष्टोद्दिष्ट-१, उद्दिष्ट-२ समादेस-३ एवं बारह भांगा हुवइ ।