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अनुसन्धान-७५(२)
'जाख-सेख परमेसर सहू,
___जेहू गुरु तेहनइ घरि वहू। जेहू गुरु तेहनइ धण-ढोरु,
तेह जि वउलावा तेह जि चोरु ॥३॥ वारू माणस करइ विकर्म,
पशु मारइं पोकारई धर्म । विष्णु अनइं मुखि शंकर भणइं,
जीव विणासइं भंडपणइं ॥४॥ माहि कहिइं नइ बाहिरि नाहई,
नइ-नाला भणी धसमसइं। जल ऊलालई लोक-प्रवाहि,
ते किम धोसिइं कसमल माहि ॥५॥ चटपट करइं पखालई अंग,
__ भीतरि मइला बाहरि चंग। जे मल लागा चित्त विनाणि,
ते किम फीटइं गंगा-नाणि ॥६॥ कर्म-विसेषिइं जीव चिहुं गति फिरइ,
पितर तणां तिहां त्रिपण करई। गंगा-तडि जल ऊखेइं,
गूजरातथ्या आंबा पीइं (?) ॥७॥ लिई पाप-घट तिल-गुल-गाइ,
सिब करि भोजन तिहां कराइ । एक भणइं रे मारउ हरउ,
पर-भव तणु भउ काई मनि धरउ ॥८॥
१. यक्ष-शेख २. स्नाने ३. तर्पण