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सप्टेम्बर - २०१८
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अव्याबाधपणै रहै ए, अगुरुलघु भगवंत । पुनरावर्ति नही जेहनै ए, अड गुण सिद्ध कहंत ।।९।। ए गुण० वीस थया बिहुना मिली ए, अरिहंत सिद्ध उछाह । गुण गुंथ्या ए गणधरु ए, नवकरवाली मांहि ॥१०॥ ए गुण०
ढाल २
(सील कहै जगि हुं वडौ एहनी) छत्तीस गुण ग्रह्या सूरिना, ए नवकरवाली मांहे रे । रूपवंत तेजवंत हुवै, वलि आगम सहु अवगाहै रे ॥११॥ छत्तीस० मीठो बोलै मुख थकी, गुरु सायर जेम गंभीरो रे । बुद्धिवान द्यै देसना, तिम अपरश्राव सुधीरो रे ॥१२॥ छत्तीस० सौम्य प्रकृत हुवै सूरिजी, संग्रहना सील कहीजै रे । अविग्रहै विण न रहै घडी, अवकच्छन सत्य वदीजै रे ॥१३॥ छत्तीस० अचपल सत्य हृदय सदा, ए पडिरूवादिक चवदे रे । खंत्यादिक दस ध्रम जती, वीर विवरो तसु इम प्रवदै रे ॥१४॥ छत्तीस० क्षमावंत मार्दव महा, किण वातनौ ए अहंकारो रे। माया न करै लोभ तजै, तप संजम साचौ उचरै रे ॥१५॥ छत्तीस० सदा रहै सुचि साधुजी, अणदीधो कांइ न लेवै रे । परिग्रह अलगो परिहरै, ब्रह्मचर्य सदा ते सेवै रे ॥१६॥ छत्तीस० ए दस यतीध्रम मेलतां, गुण चौवीस थायै गुरुवा रे ।। बारह भावन भावना, इम छत्तीस गुण गुरु हुवा रे ॥१७॥ छत्तीस० प्रथम अनित नित को नही, ए असरण भावना बीजी रे । सरूप विचारै संसारनो, ए संसार भावना तीजी रे ॥१८॥ छत्तीस० एक जावै आवै एकलो, ए एकत्व भावन भावै रे । जीव थकी छे जूजूया, धन परीयण अन्य कहावै रे ॥१९॥ छत्तीस० देह अशुचि कर पूरीओ, अशुचि करी उतपन्नो रे । छट्ठी ए असुचि भावना, धन परियण छोडै ते धन्नो रे ॥२०॥ छत्तीस० पांच आश्रव दुखदायगा, पंच इंद्री तिम पिण राखै रे । संवर भावन आठमी, मन समाधि मांहि राखै रे ॥२१॥ छत्तीस०