Book Title: Alpaparichit Siddhantik Shabdakosha Part 3
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः तृतीयो विभाग: सङ्कलयिता आगमोद्धारक आचार्य श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी म. चित्र परिचयहिन्दुस्तानना नकशामां आवेला तीर्थोना ख्याल १ श्री सिध्धाचलजी २ श्री तारंगाजीनु जिनालय ३ श्री चीतोडगडनो कीर्तिस्तभ प्रकाशकशेठ देवचंद लालभाइ जैन पुस्तकोध्धारक फण्ड कार्यवाहक चोकसी मोतीचंद मगनभाइ सूरत For Private & Personal use only . www.antay ang Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOO000000000000seeeee* ॥ णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ॥ ॥ श्रेष्ठि-देवचन्द्रलालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ११ आगमोद्धारक-आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः । ('ट'तः 'प'पर्यन्तो तृतीयो विभागः ) LooOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO सम्पादकौ-आगोद्धारक-आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरान्तेवासिनौ गणिकञ्चनसागर-प्रमोदसागरौ । పం.0000000000000000000000000000 संग्राहकः-आगमोद्धारकान्तेवासी मुनिगुणसागरः । प्रकाशकः-सुरतवास्तव्य-श्रेष्ठि-देवचन्द्रलालभाई--जैनपुस्तकोद्धारकोशस्य कार्यवाहकः-चोकसी मोतीचन्द मगनभाई । वीराब्दः २४९५ । विक्रमाऽब्दः २०२५ । शाकाब्दः १८९१। ख्रिस्ताब्दः १९६९ प्रथमं संस्करणम् ] निष्क्रयः रूप्यसप्तकम् [प्रतयः ५०० र yoooooooocceleeeeeeeeeex Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदं पुस्तकं ललितपुरे श्रेष्ठि-देवचन्द्रलालभाई जैनपुस्तकोद्धारसंस्थाया कार्यवाहक मोतीचन्द मगनभाई चोकसी इत्यनेन जैनेन्द्रमुद्रणालये पं० परमेष्ठिदास जैन न्यायतीर्थ द्वारा मुद्रापितम् । अस्य पुनर्मुद्रणायाः सर्वेऽधिकारा एतद्भाण्डागारकार्यवाहकैरायत्तीकृताः । All Rights Reserved By The Trustees of the Fund. Printed by : Pt. Parmeshthidas Jain at the Jainendra Press, LALITPUR, U. P. Published by Sheth Devchand Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund, Surat. By the Hon : Managing Trustee, Motichand Maganbhai Choksi. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sheth Devchand Lalbhai Jain Pastakoddhar Fund Series No. 116 Shree Alpaparichit Saidbantik Shabda-Kosh THIRD PART -: Author :Agmoddharak Acharya Shree Anandsagarsurishwarji BALLFLL OWF -: Editor :Agmoddharak Shree Anandsagarsurishwarji's Antewasi Gani Kanchansagar and Muni Pramodsagar. Collected: SHREE GUNSAGARI SHREE ANANDSAGARSURISHVARJI'S ANTEVASI -: Publisher :Motichand Maganbhai Choksi *** Managing Trustee For :Sheth DEVCHAND LALBHAI JAIN PUSTAKODDHAR FUND SURAT , | Vikram Samvat 2025 First Edition Copies 500 pies 500 Christation Era 1969 ] Price Rs. 7.00 etsoft * P M laza Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Board of Trustees : Shri Nemchand Gulabchand Devchand Zaveri Talakchand Motichand Ratanchand Sakerchand Amichand Zaverchand Keshrichand Hirachand Motichand Maganbhai " " "9 13 "3 Hon. Managing Trustee. " 卐 99 "" 22 Choksi संस्थानुं ट्रस्टीमंडल: श्री नेमचन्द गुलाबचन्द देवचन्द झवेरी तलकचन्द मोतीचन्द रतनचन्द सारचन्द ," अमीचन्द झवेरचन्द केशरीचन्द हीराचन्द मोतीचन्द मगनभाई मेनेजिंग ट्रस्टी "" " " "2 "" "2 33 95 चोकसी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE LATE SHETH DEVCHAND LALBHAI JAVERI Born 1853 A. D., Surat Death 13th January 1906 A. D., Bombay એ ઠિ દે વ ચ દ લા લ ભા ઈ ઝ વે રી * જન્મ : વિક્રમ સંવત ૧૯૦૯ કારતક સુદ ૧૧ સુરત. સ્વર્ગવાસ : વિક્રમ સંવત ૧૯૬૨ પોષ વદ ૩ મુંબઈ. * * Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आ अवसर्पिणी कालना दुःषम आरामा चरमशासनपति श्रमण भगवान महावीर स्वामीना शासनमां शासनना पुण्यप्रतापे ते ते समये आचार्य भगवंतोए 'आगम' वगेरे साहित्यनो उद्धार, पुनरुद्धार करीने आ कलिकालमां वीसमी सदीमा जे विद्यमान राख्युं छे ते आपणु अहोभाग्य छे, तेथी तेवा साहित्यने प्रकाशन करवा माटे अमारी आ संस्था सं० १९६४ मा प० पू० आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीना उपदेशथी स्थपाई हती. आ संस्था मारफत अमे आज सुधी ११० ग्रन्थो प्रकाशित करी चूक्या छीए अने अमे ११६मा ग्रंथाङ्क तरीके श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषना भाग ३ नामे आ प्रन्थने सहर्ष प्रगट करीओ छीए. ___ तारक आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीए आ कलिकालना विषम वातावरणमा आगमोनो बोध दुर्बोध न थई जाय ते हेतुए आगमोदयसमितिनी स्थापना करावी अने आगमवाचना आपववानु शरू कयु. तेथी ते समितिए आगमो छपाववानु कार्य शरू कयु तेमज आ संस्थाए पण अनुयोगद्वार वगेरे आगमो छपाव्या. ते वखते अने पछीथी आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीए आगमोना जुदा जुदा विषयो तारवतां 'आगमकोष'नो पण एक विषय तारव्यो हतो अने कोष छपाववो हतो. आ विचारोत्पत्ति आजथी ४६ वर्ष पहेलां थई हती. ते हेतुए प० ता० गुरुदेवश्रीना सदुपदेशथी नीचेना सद्गृहस्थो तरफथी नीचेनी रकमो अमारी संस्थाने पूर्व मली हती. ते आ प्रमाणे १. अमदावाद निवासी शाह डाह्याभाई पितांबरदास रु० १५०१) २. सुरत निवासी झवेरी सोभागचन्द सूरचन्द रु० १००१) ३. सुरत निवासी झवेरी साकेरचन्द सूरचन्द . रु० ५०१) ___ आचार्यदेवनो विहार मालवा, बंगाल तरफ लंबायो होवाथी ते काय घणी मुदत सुधी पडी रह्य हतु ( ते छपाववानु कार्य ) अमे आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीनी संमतिथी शरु कयु. आ निर्णय सं० २००४मां थयो अने कार्य आरम्भायु हतु. आथी ५० ता० गुरुदेवश्रीनी आज्ञानुसार पू० मुनिमहाराज श्रीगुणसागरजी पासेथी श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषनु प्रेस मेटर अमे मेलव्यु. ते श्रीसरस्वतीमुद्रणालय, सुरतमां छपाववा माटे आप्यु अने तेनु संपादन करवा माटे मुनि महाराज श्रीकंचनविजयजी तथा श्रीक्षेमकरसागरजीने विनंति करी. तेओश्रीए आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीना अनन्य पटधर, विद्याव्यासंगी, श्रुतस्थ विर, आचार्य महाराज श्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वरजी महाराजनो संयोग मल्यो त्यां सुधी प्रूफ वंचाववा पूर्वक अने ते पछीथी स्वतन्त्रपणे (ते मुनिवर्योए) आ संपादनकार्य छयु, तेथी अमो आ अद्वितीय आगमतलस्पर्शीज्ञाता, आगमतत्वपारदृश्वा, आगमज्योतिर्धर, शासनसंरक्षणबद्धकक्ष, तत्वशिरोमणि, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमान्युछित्तिकर, शिला ताम्रपत्रोत्कीर्णागमकारापक, गंभीर नेकप्रन्थप्रणेता, अन्त्यसमये पक्षावधि अर्द्धपद्मासनस्थायी, ध्यानस्थस्वर्गत आगमोद्धारक आचार्यवर्य श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजे 'संकलित' करेलो श्रीअल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषनो 'ट थी प' सुधीनो त्रीजो भाग सहर्ष प्रकाशित करीए छीए. आ संस्थाना प्रथम पुस्तकना संपादक तरीके पण आचार्यदेव श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरजी म० हता अने बीजा सेंकडानी शरुआतना प्रथम पुस्तक तरीके पण तेओश्रीनो संकलित अमूल्य कोष नो प्रथम भाग २०१२मां प्रसिद्ध थयो. कोषनी विशिष्टता अंगे संपादकीय निवेदनमां घणु कहेवानु छे ते कहयु नथी ते भविष्यमां कहेशे. छतां अमारी संस्थाए आना प्रकाशनमा वधारे रस लीधो तेनु मुख्य कारण ए छे के आज सुधी छपायेला प्राकृत कोषोमां अभिधान राजेन्द्रकोष, पाइयसद्दमहणणवो आदि केटलाक कोषो छेपण मां न्यूनाधिकरूपे विचार करतां उपयोगितामां बाध आवे छे – जेमके अभिधानराजेन्द्र कोष प्रमाणमां एटलो बधो मोटो छे के तेमांथी कोई शब्द शोधवा माटे वधारे परिश्रम पडे अने छपाईमां के संपादनां त्रुटी रहेवाने लीधे सूत्रो अने ते ते प्रकरणो घणा परिश्रम पछी पण जडतां नथी. पाईयसहमहावोमां जैनसैद्धान्तिक शब्दो उपर वधारे भार मूक्यो होय तेम जणातु नथी. पण प्रस्तुत ग्रन्थमा कोई पग जैन के जैनेतर विद्वान् प्रचलित जैन पारिभाषिक शब्दोनो यथार्थ परिचय टू कमां अने सहेलाइथी प्राप्त करी शके एवी तक छे, तथा मुनिराजो पण ग्रन्थसम्पादनना कार्योमां सहायता लह शके तेम पण छे. अमे इच्छिए छीए के आना प्रकाशनने विद्वज्जनो योग्य आदर करशे ज. आ कोषने अंगे संज्ञाओनी समजणो तथा ते ते ग्रन्थोनां पानांओनी सूची पण संपादक पू० महाराजोए आपी छे. ते अंगे 'संपादकीय' वांचवा वांचकवर्गने अमारी विनंति छे. प्रस्तावना संयोगवशात् अत्यारे आपी शक्या नथी, पण आ पछीना चोथा भागमां जरूर आपशे एवी आशा राखीए छीए. आ त्रीजा भागना प्रकाशन कार्यमा जे जे महानुभावोए अमने अने संपादकने मदद करी होय ते बधानी संस्था ऋणी छे. वि० सं० २०२५ ज्येष्ठ सुद ८ ता० २५-५-६९ लि० भवदीय मोतीचंद मगनभाई चोकसी विगेरे ट्रस्टिओ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम भागनु संपादकीय वक्तव्य 5 “ॐ णमो उवीसाए तित्थयराणं उसभाई महावीरपज्जवसाणाणं । णमो गोयमाई हामुणीणं । इक्कारस अंगाई, बारसुवंगा पयन्नगा दस य । छेया छ चऊ मूला, नंदी अणुओगाय पण न्याला ॥ १॥" साहित्यमा ऊंडा ऊतरेला रसिकोने विविध विषयोना बोधनी आवश्यकता रहे हे. जे विषयनो बोध जे मनुष्यने होवो जोइए ते बोध सिवायनो मनुष्य ते विषयने ग्रहण करवा जाय तो अज्ञानी वांदरानी जेम "मने पकडयो-मने पकडयो" जेवी एनी दशा थाय. तेथी ते विषयना बोध माटे ते विषयमा शब्दना ज्ञाननी, अर्थना ज्ञाननी अने तेना भावार्थना ज्ञाननी, अर्थात् ते पदार्थना शब्दार्थ, भावार्थ अने ऐदपर्यायनी जरूर छे. जो ते समझ्या सिवाय प्रवृत्ति कराय तो भोजन करवा बेठेलो 'सैंधव' मगावे अने 'घोडो' लावे तेना जेवु थाय. शब्दना बोधने करनारु जे साहित्य होय तेने 'शब्दकोष' आदि शब्दथी संबोधी शकाय. एवा 'शब्दकोषोनी उत्पत्ति कां तो आगमोमां आवेला पर्यायो रूपे आपी होय कां तो निघण्टु जेवा 'शब्दकोषो' रूपे होय, अथवा बीजा घणाए 'शब्दकोषो' रूपे होय, आथी दरेक भाषावार अनेक 'शब्दकोषो' योजाया छे अने योजाय छे. जैन दर्शन माटे तो ते शब्दोना अर्थ टीकाकारोए प्रकरणना आधारे जे रीते मंजूर कर्या छे ते रीते ज लेवा योग्य छे. शब्दो यौगिक, रूढ अने मिश्र एम साहित्यकारोए मान्या छे. ते यथार्थ छे. आथी जैन दर्शनमां अंडा उतरवावालाने पण ते बोधनी जरूर तो ले ज, तेथी तेवा प्रकारना 'शब्दकोष'नी जरूरियात मानवी'ज पडे. आ उद्देश लक्ष्यमां लइशु तो जैनदर्शनमां आवता शब्दोना अर्थवाला अनेक कोषो होवा छतां पण आ नवा कोष माटे स्थान छे ज संकलनाकारः—प्रन्थकार स्वतन्त्र लेखिनीथी जे ग्रन्थ करे ते तेमनी ज कृति कहेवाय छे. परन्तु बीजा ग्रन्थोमांथी एकत्रित करेलु' होय तो आ बधु बीजा ज ग्रन्थोमांनु छे, एम जणाववा माटे पोते संकलना करी छे एम जगावे छे. तेथी महत्वपूर्ण अनेक जैन ग्रन्थोना संपादक अने संशोधक, तेमज संस्कृत, प्राकृत अने गुजरातीमां विविध विषयोनी कृतिओ रचनारा, आगमोद्धारक आचार्यश्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजे सैद्धान्तिक शब्दोनी आ कोषमां संकलना करी छे, आथी आ ग्रन्थना 'संकलनाकार ' प० ता० आममोद्धारकगुरुदेवश्री छे. आगमोनु मुद्रण- बांचना :- आ कलिकालमां विक्रमनी वीसमी सदीमां एवो पण एक समय आव्यों के ज्यां शास्त्रीय बोध ओछो थवा लाग्यो अने हस्तलिखित प्रतो वांचवानी तेमज वांचवा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माटे तो मेलववानी पण मुश्केलीओ ऊभी थई. आथी जो लखाण छापेलु मली जाय अने तेनो जो बोध अपाय तो ते हितावह निवडे. आ हेतुथी आगमो छपाववा अने तेनी वाचताओ आपवी एम प० पू० आगमोद्धारकगुरुदेव श्रीनी प्रेरणाथी नक्की थयु अने संपादननु कार्य अने वाचनानु कार्य आगमज्योतिर्धर, अप्रमादी, आगमोद्धारकश्रीने ज करवानु' थयु. आथी जेम जेम आगमो छपाता तेम तेम पाटण आदि स्थलोए 'वाचनाओ' अपाई अने ततो सेंकडो साधुसाध्वीओए लाभ लीधो. आगमो रूपी सागर अने तेमां आवता विषयो पण ए सागरना उपसागरो जेवा छे. परंतु ते अखात रूपे छूटा छूटा पडया होय तो उपसागर रूपे देखाय, तेथी ते बधा प्रवाहो एकत्र करी जुदा जुदा उपसागरो बनाववा. आ मुद्दाए जेम आगमो छपाता गया तेम तेम वर्तमान श्रुतना ज्ञाता आगमोद्धारक गुरुदेव श्रीए – आगमोमां जुदा जुदा विषयो जगावनारा बावन (५२) अंको पडया अने 'शब्दकोष' माटेना शब्दो अंगे पण 'फूल' नु एक निशान कयु ए निशानो एवां हतां के—अमां कया शब्दथी क्यां सुधीनो भाग लेवानो छे ते जणाववा माटे आदिमां अने अन्तमां निशाननी साथै अङ्क मूकवामां आवतो हतो. ज्यारे आ कोषना शब्दोने अंगे फूलनु निशान मूकवामां आवतु हतु तेषां पण खूबी करवामां आवती हती के जो शब्द एक अक्षरनो होय तो एकनी नीचे, बेनो होय तो बे नी बच्चे, यावत् जेटला अक्षरनो होय तेना मध्यबिन्दुए निशान मूकवामां आवतु तु. आवी रीते शब्दोनी संकलना थई, आ बधा विषयो अने शब्दो लहिया द्वारा उतराईने एकत्रित करावता हता. नाम – आ कोषनु' नाम 'श्रीअल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोष' राखवामां आव्यु छे. कारण एले के आ कोषमा आगमोमां वपरायेला तमाम शब्दो नथी, परंतु जे शब्दनो परिचय अल्प छे, तेवा आगमगत – सैद्धान्तिक शब्दोनो आमां संग्रह करवामां अवेलो छे. फ्र Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અર્પણ થિી આગમ દ્વારક આપે અવનની અંદર પ્રભુના માર્ગની શ્રદ્ધામાં સ્થિર કરવાનું સાધન એવું જ્ઞાન, જગતને આપવાને માટે અને ઉદ્યમ કર્યો અને ગતને શબ્દ અને અર્થથી લેખિત અને મૌખિક તે આપ્યું અને આપવાની અમારા જેવી અનેક સંસ્થાઓ સ્થપાવીને જગતના જીવને સમ્યગ્દર્શન, જ્ઞાન અને ચારિત્રના માર્ગમાં સ્થિર કરવાનું પ્રબળ બળ આપ્યું, એવા આપશ્રીને અમે આ ગ્રંથ અર્પણ કરીએ છીએ. : દ્રસ્ટીઓ : Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આચાર્ય શ્રી રામાનંદસાગરસૂરીશ્વરજી મહારાજ સંપાદિત આગમીક કૃતિઓ છેઃ સૂત્રાણિ કલ્પકમુદિ ૧૯૭૦ ૧૯૯૩ કલ્પસૂત્ર (બારસા) ક૯પસુબોધિકા કાસમર્થન ક૬૫સુબોધિકા ૧૯૯૪, ૧૯૯૫ , અંગાનિ આચારાંગચૂણિ ૧૯૯૮ આચારાંગસટીક ૧૯૭૨ સૂત્રકૃતાંગચૂણિ ૧૯૯૮ સૂત્રકૃતાંગસટીક ૧૯૭૩ સ્થાનાંગસટીક ૧૯૭૫ સમવાયાંગસટીક ૧૯૭૪ ભગવતીસટીક (અભય૦) - ૧૯૭૪ ભગવતીટીકા (દાનશેખર) ૧૯૯૨ જ્ઞાતાધર્મ કથા સ, ૧૯૭૫ ઉપાસકદશા સ. ૧૯૭૬ અંતગડુ-અનુરાર-વિપાર્ક સટીક ૧૯૭૬ પ્રવ્યાકરણસટીક ૧૯૭૫ અંગ- અકારાદિ ૧૯૩ ઉપાંગાનિ ઔપપાતિકસટીક ૧૯૭૨ રાજપ્રનીયસટીક ૧૯૮૧ જીવાજીવાભિગમ ૧૯૭, પ્રજ્ઞાપનારતકસીમલય) : ૧૧ીયસ પ્રજ્ઞાપનાસટીક (હારી) | ૨૦૦૩ સૂર્યપ્રજ્ઞપ્તિસટીક ૧૯૭૬ જંબૂઢીપપ્રજ્ઞપ્તિ સટીક ૧૯૭૬ ઉપાંગપ્રકીર્ણક વિષયાનુક્રમાદિ ૨૦C) પયત્નો નંદુલવૈચારિકસટીક ) ચતુ:શરણસાવચૂરિક | મૂલસૂત્રાણિ આવશ્યક સટીક (હારી) : ૧૯૭૨ આવશ્યક સટીક (મલય0). ૧૯૮૪ આવશ્યકચૂણિ ૧૯૮૪ થડાવશ્યકસૂત્રાણિ ૧૯૯૨, પાક્ષિકસૂત્ર સ. ૧૯૬૭ વિશેષાવશ્યક (કો. ) - ૧૯૯૩ ઓઇનિર્યુકિત ટીક - ૧૯૭૫ દશવૈકાલિકર [ણ ૧૯૮૯ દશવૈકાલિકસટીક ૧૯૭૪ પિંડનિર્યુકિત ટીકા - ૧૯૭૪ ઉત્તારાધ્યયનગુણિ ૧૯૮૯ ઉત્તરાધ્યયનસટીક ૧૯૭૨ ૧૯૭૮ ચતુ:શરણાદિમરણ- | સમાધ્યત્તપ્રકીર્ણદશક | ૧૯૮૩ ગચ્છાચારપ્રકીર્ણક સટીક ૧૯૮૦ નંદીસૂત્રચૂર્ણિ , ૧૯૮૪ શ્રીઆગમરત્નમંજુષા (૪પ આગ મૂળ નિયુક્તિયુક્ત સં. ૧૯૯૯) અનુયોગદાર ચૂર્ણિ ] નંઘાઘકારાદિ ૧૯૮૪ નંદીસૂત્રવૃત્તિ (હારી) | 1 અયોગદ્વારવૃત્તિ (ધારી) ૧૯૮૪ આગમીયસુતાકવલ્યાદિ ૨૦૦૫ નંદીસૂત્રસટીક (મલયC) ૧૯૮૦ અનુયોગદ્વાર સટીક મ૦ હેમ. ૧૯૭૨. (શે. દે. લા. જે. પુ.) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ 'श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोष' माटे हवे पछी 'अ. सै. श. ' एवी संज्ञानो उपयोग कराशे. जे शब्द अने तेना अर्थो-अ. सै. श. मां जे शब्दो जणाव्या छे ते शब्दो घणे भागे तो जेवा वाज राखवामां आव्या छे. अर्थात् अकार अने थोडा आकार सिवायना बाकी बधा शब्दो मूलना छे ते अर्धमागधीमां छे अने टीकाकारोए टीकामां आपला जे शब्दों जे भाषामा छे ते भाषामा मोटे भागे कायम राख्या छे, एटले के अकार अने थोडा आकारमां आवेला संस्कृत शब्दो अर्धमागधीमां पण आप्या छे. शब्दोना बहुश्रुत टीकाकारोए भिन्न भिन्न टीकाओमां भिन्न भिन्न अर्थो कर्या छे, तेथी भिन्न भिन्न स्थलोमाथी ते ते अर्थो लईने ते ते टीकाकारोना अर्थाने कायम राख्या छे. आ कारणथी आ अ. सै. श. मां छेदना त्रगना ज शब्दो लेवामां आव्या छे तेमज बृहत्कल्प जेवा को कमां आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीना हाथना उतारेला शब्दों छे. तेमां टीकाकारोना आधारे अर्थोनु टुंकाववा - पण पण छे. आ अ सै. श. मां भिन्न भिन्न शब्दो व्याकरणना प्रयोगो रूपे, कोई तेवां नामो रूपे, कोई इतिहास तरीके, कोइ भूगोल तरीके तथा कोई पर्यायो तरीके पण आव्या छे. काचो खरडो -- शरुआतमां लहियो एकेक आगम लईने कापलीमां ते शब्दने ऊतारतो अने टीकाकारनो बतावेल अर्थ लक्ष्यमां आवे तो ते अर्थ लखतो. आवी रीते ऊतारेली छुटी कापलिओने प० पू० आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीना विनयगुणसंपन्न, तीक्ष्णबुद्धि, स्वर्गस्थ मुनिराज श्रीमहेन्द्रसागरजीए अकारादि क्रममा गोठवी कागलमां सलंग चोटाडीने तैयार करी ते उपरथी ए लखाण लहिया आदि द्वारा लखावीने तेमज तेओश्रीए ( श्रीमहेन्द्रसागरजीए) पोते पण लखीने काचो खरडो तैयार कर्यो. प्रकाशननी तैयारी - -आ अ. सै. श. ने छपाववानी पर ता० आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीनी घणी इच्छा हती. तेथी लगभग ऋण दशका उपर सद्गृहस्थो पासेथी अ. सै. श. ना प्रकाशनने अंगे रूपिइया शेठ देवचन्द्रलालभाई जैन पुस्तकोद्धारक फंडने अपाव्या हता. ते पछी वि० २००४ मां ते संस्थाए आ अ० सै० श० छपाववा माटे ठराव कर्यो. आथी मुद्रणपुस्तिका करवा कार्य पू० स्व० मुनिश्रीमहेन्द्रसागरजी म० ना शिष्य मुनिश्री सौभाग्यसागरजीने ( ते ओश्रीना लघुबन्धुने ) सोपा'. तेथी तेओ दरेक आगमना ते ते पत्रमां ते ते शब्दो मेलवता अने तेना अर्थाने पण मेलवता. तेमज ज्यां टीकाकारना शब्दो लेवाना हता त्यां प० ता० आगमोद्धारकगुरुदेवश्री पाथी तेना मूल शब्दो बनावी लेता अने जे शब्दोना अर्थ टीकाकारे न आप्या होय तेना अर्थो पण पूछी लेता. आवी रीते तेमाणे लगभग बार फर्मा सुधीनु मेटर तैयार कर्यु. उपर जगावेली संस्था ( दे + ला ) ना ट्रस्टीओए प० ता० आगमोद्वारकगुरुदेवश्रीनी जीवन पर्यंत सेवा करनार मुनिराज श्रीगुणसागरजी महाराज पासेथी आ (कोपीनु) लखाण मेलव्यु अने Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] छपाववा माटे प्रबंध को. तेमज अमने संपादन माटे विज्ञप्ति करी. तेथी अमे आ संपादनk कार्य शरू कयु. साथे साथ मेटर पण तैयार करवा मांडयु सम्पादन पद्धति-दरेक दरेक शब्द ते ते आगमनी साथे मेलववो अने तेमां जणावेल अर्थ मेलवी लेवो. ते रीते कार्य करतां केटलाक आगमोना अंगे शब्दोना प्रश्नो उभा थया. तेमां श्रीव्यवहारसूत्र ना त्रीजा उद्देशाना शब्दो हता पण ते सिवायना बाकीना उद्देशाना शब्दो न हता. तेथी प० ता० आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीए व्यवहारनी आखी प्रतमां निशानो करी आप्यां आथी तेनी कापलीओ उतारी तेना शब्दोनो उमेरो कर्यो. आगल जतां बीजा पण आगमोना शब्दो नथी एम देखायु, तेनी तपास करतां नंदी, अंतगड, अणुत्तरोववाइय, उपासकदसा, रायपसेणीय अने निरया वलिना शब्दो न हता. तेथी तेना शब्दो पण उतार्या. अने ते शब्दो धीरे धीरे मेलववामां आव्या. आगल चालतां नायाधम्मकहाना शब्दो बिलकुल नथी एम मालम पडयु. नायाधम्मकहानी प्रत तो प० ता० आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीनी निशानवाली प्राप्त न थई. तेमज जे समये शब्दो नथी तेवी शंका थई ते समये तो अमारू पुण्य पण न हतु के पू० गुरुदेवश्री 'विद्यमान' होय, आथी अमे अमारी मंदमति अनुसारे आ आगमनी सटीक प्रतमां निशानो कों, शब्दो तारख्या अने ते तारवेला शब्दोने कोषमां स्थान आप्यु. आ अ० सै० श० मां अग्यार अंग ११ बार उपांग, त्रण ( बृहत्कल्प, व्यवहार अने निशीथ ) छेदसूत्र, चारमूल, ओघनियुक्ति, विशेषावश्यक, नंदी, अनुयोगद्वार अने दशवैकालिकचूर्णीना शब्दोनो संग्रह करवामां आवेल छे. तेमज दशाश्रुतस्कंध, दशप्रकीर्णक, पउमचरिय, उपदेशमाला अने तत्त्वार्थसूत्रना केटलाक शब्दो पण लेवामां आवेल छे. संज्ञापत्रक-अ० सै० श० मा जे शब्दोनो संग्रह करवामां आव्यो छे अने तेमां आगमो शास्त्रो वगेरेनी जे संज्ञाओ आपवामां आवेली छे, ते संज्ञाओना स्पष्टीकरण माटे तेमज लीधेली प्रत-टीका वगेरे शेनी छे ते जणाववा अने तेना संपादक तथा प्रकाशक जगाववा एक संज्ञापत्रक नामथी प्रकरण राख्यु छे. तेमज बीजी बीजी प्रतोनी साथे पण शब्दो मेलववानुशक्य बने ते उद्देशथी पत्रांकसूची नामथी एक प्रकरण आप्यु छे. वर्णक्रम-अ० सै० श० मां अनुस्वारने पहेलु स्थान आपवामां आव्यु छे. कारण के शरूआतमां प० ता० आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीए आ रीते शरू करवानुजगाव्यु हतु. आथी ए पद्धति कायम राखी छे. पण आनो हेतु हमे जाणी शक्या नथी, तेथी अत्रे हेतु आप्यो नथी. विद्वज्जनो प्रत्ये-सुज्ञ विद्वज्जनो ? अमो गुर्जर भाषाना संपादनना कार्यमा अनुभव मेलवतां संपादनमा आगल वध्या छीए. ते रीते संस्कृत अने प्राकृतना संपादनमा प्रवेश करता थया. एवा समयमा प० ता० गुरुदेवश्रीनी सेवाना प्रतापे अमने 'अ० सै० श.' नुसंपादन......"मलयु आथी अमे ते कार्यमां रस लीधो ने संपादन कार्य शरु कयु. आथी पंडितोनी अपेक्षाए के विद्वानोनी अपेक्षाए अमारा आ संपादनना अंगे जे सूचनाओ करवी उचित छे ते अमे विद्वज्जनोनी समक्ष रजू करिए छीए. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १ ] १ मूल शब्दो विभक्तिवाला तेम विभक्ति वगरना अम बन्ने प्रकारना छे. तेथी ते जे लिंगनो शब्द होय ते शब्द तेवी तेवी विभक्तिथी ते ते लिंगमां समजी लेवो. जेमके - - अंकुर ( पृ० १,२ ) अंकृसयं ( पृ० १, २, ) इत्यादि (कोई एक शब्दकोषमां विभक्ति सहित शब्दो नथी तेवु पण प्राये अमारा जाणवामां छे.) २ जो के शब्दो बधा एक जातना विभक्ति विगर अगर एक विभक्तिथी भेगा लेवा जोईए, परंतु आमां भिन्न भिन्न लेवाया छे. जेमके - अंकावर ( पृ० १, २) अंकावइओ ( पृ० १, १ ) इत्यादि. ३ वैकल्पिक शब्दोना विकल्पनो साचववा माटे अर्थात् तेवा प्रयोगोने साचवी राखवा माटे आमां भिन्न लेवाया छे. जेमके - अंकवडेंसए ( पृ० १, १ ), अंकावडिसए ( पृ० १, १ ) इत्यादि. ४ टीकाकार महाराजे जे शब्दोना प्रयोगो टीकामां कर्या छे ने ते शब्दो मूलमां नथी तेवा शब्दो प्राकृत जे कौसमां अपायुं छे ते प० पू० आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीने पूछीने मुनिश्री सौभाग्यसागरजीए आपेलुं छे. वली तेवा शब्दो कोई बखत शरुआतमां अपाया छे अने कोई वखत संस्कृत शब्दनी पछी पण अपाया छे. तेनी बन्ने बाजुओ बनतां सुधी कौंस आप्यो छे. जेमके ( अंकील्ल ) नर्तकः ( पृ० १ १ ) अंगारः ( इंगाल ) ( पृ० , २ ) इत्यादि. ५ शरुआतमां तो शब्दोनां अर्थो अने शब्दोना संग्रहनी शैली नियमित रही नथी. पण जेम जेम अनुभव थतो गयो अने तेना अभ्यासमां वधारो थतो गयो तेम तेम पद्धतिमा सुधारे थतो गयो छे. छतां एटलु कहेवानी जरूर छे के पहेला भाग करतां बीजा भागमां पद्धती इत्यादिनो सुधारो मलेला अनुभव प्रमाणे करी शकीशु एवी आशा छे. ६ (१) अध्ययन, (२) विशेषनाम, (३) वनस्पतिना नामना अंगे तेनी साथे अर्थना रूपमा संस्कृतम अपायुं छे. जेमके ( १ ) अंडे - विपाकश्रुताद्यश्रुत० ( पृ० २, २ ), ( २ ) अंगारवई - अंगारवती संवेगोदाहरणे० ( पृ० २, २), (३) अंकोल्ल - वृक्ष विशेष: ( पृ० २ १ ) इत्यादि. ७ टीकाकारोए शब्दोना जे जगो पर अर्थ नथी कर्या तेवा शब्दो पण अत्रे अर्थ वगर अपाया है. जेमके ओल्ली ( पृ० २२४, २), उवट्टगा ( पृ० २०७२ ) इत्यादि, वली आ शब्दोना अर्थो जो कदाच मेलवी शकीशु तो परिशिष्टमां आपका विचार छे. ८ देशी शब्दोना अंगे 'देशीय' अगर 'देशी' एवं ' कौसमां लखायुं छे. अर्थात् टीकाकारे आपेलु कायम राख्यु ं छे, जेमके उत्तइउ ( देशी० ) - गर्वे ( पृ० १८७, १ ) ९ चूर्णिकार महाराज चूर्णिनी अंदर प्राकृत अने संस्कृत एम बन्ने भाषाना प्रयोगो करे छे. तेथी चूर्णिना शब्दाना अर्थोमां प्राकृतना अने संस्कृतना बन्नेना प्रयोगो छे. परन्तु बहुधा तो प्रकृ ज होय छे. १० अ० से० श० मां एवा पण शब्दों छे के जे अभिधानराजेन्द्र के पाइयस महावोमां न पण होय. अ० सै० श० नु' संपादन कार्य शरू थतां सुरतमां हता त्यां सुधी एक वखतनुं प्रुफ जोई Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] आपवा प० ता० आगमोद्धारकगुरुदेवश्रीना एकैव पट्टधर, श्रुतवारिधि, शास्त्रतत्त्वदर्शी, श्रीगच्छनायक, आचार्यश्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वरजी महाराजे कृपा करी हती. ए रीते संपादननु कार्य चालतु हतु, तेमां प्रथम भागनु पंदर आनी काम थई गया पछी सूरतथी दक्षिण तरफ बिहार थवाना कारणे अने प्रेस आदिना प्रतिकूल संयोगोमां अमारी अनिच्छाए पण नहि जेवा कार्यमां वर्षोनां वर्षों वीती गया बाद आजे आ श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषनो 'प्रथम भाग' विद्वानोना करकमलमां उपस्थित करी शक्या छीए. आ प्रथम भागमा 'सम्पूर्ण स्वरो' आपवामां आवेला छे. स्वरोमां तेमज बीजा रही गयेला 'शब्दो' तथा देशीनाममालाना शब्दो श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष पूर्ण थतां 'परिशिष्ट' तरीके आपवा विचार छे. ५० पू० आगमवाचनादाता, देवसूरतपागच्छसामाचारीसंरक्षणकटिबद्ध, अनेकग्रन्थोना प्रणेता, वादीमानमर्दक, चरमशासनपति महावीर परमात्माना शासनमा आगममंदिरोना संस्थापक, जैनआनन्दपुस्तकालयादि संस्थाना संस्थापक, सैलानानरेशप्रतिबोधक, युगप्रधानसदृश, वर्तमान श्रुतना ज्ञाता, स्वआराधनार्थे आराधनामार्गकरनारा, मौनपणे रही अर्धपद्मासने स्वर्गे संचरनार, प० पू० आगमोद्धारक आचार्यवर्यश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजनी पुनित सेवाना प्रतापे जे कई बोध शक्ति मेलवेल छे, ते आधारे अमे अमारी बुद्धि केवलीने कालजीपूर्वक आ श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषनु संपादन कयु छे. मुनिराज श्रीअभयसागरजी महाराजे संजोग मलतां आमां मार्ग बताव्यो छे. तेओत्रीने तेमज प्रो० हीरालाल र० कापडियाने पण हमे अत्रे भूलता नथी. आमां जे अशुद्धिओ जणाई छे तेनु शुद्धिकरण पण आप्युछे, छतां विद्वजनो प्रति अमारी प्रार्थना छे. के क्षति देखाय तो जगाववा उदारता दाखवे. वीर सं० २८८०, वि० सं० २०१० जेष्ठ पूर्णिमा हींगनघाट ( मध्यप्रदेश) आगमोद्धारकउपसंपदाप्राप्त शिष्याणु कंचनविजय तथा आगमोद्धारक शिष्यलव क्षेमकरसागर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] द्वितयभागगतं स्वल्पम् ॥ णमो उवीसाए तित्थयराणं उसभाइमहावीरपज्जवसाणाणं ॥ अमोने जणावतां हर्ष थाय छे के आगमोद्धारकश्रीए संकलित अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोपना प्रथम भाग संपादन कार्य अमोने ( मने तथा स्व० मुनिश्री क्षेमंकरसागरजीने ) मल्यु हतु' अने ते प्रथम भागनु' कार्य अमे पूर्ण कर्यु हतु तेना बाकी रहेला बीजा भागोनु संपादन करवानु' कार्य मने सं० २०१५ मां मल्यु. ते कार्य में यथाशक्य शरु कर्यु, एना परिणामे आजे तेनो बीजो भाग 'क थी झ' सुधीनो पूर्ण कर्यो छे अने तेनी आगलनु सम्पादन कार्य पण चालु राख्यु छे. अमो यत् किंचित् आ कोषना अंगेनु मार्गदर्शन प्रथम भागमां सम्पादकना वक्तव्यमां आयु छे, तेथी अत्यारे ते अंगे कांई विशेष कहेवु नथी, पण त्रीजा के चोथा भागमां ज्यारे प्रस्तावना आपीशु ते वखते लखवानी इच्छा छे. प्रसंगवशात् एटलु' जणाववु जोइए के- अमारी सम्पादक बेलडिए 'क थी झ' सुधीनु मेटर लगभग तैयार कर्यु तु पण नवी प्रेस कोपी बनाववानी हती अने कांईक सुधारो करवानो हतो. एटला पूरंतु ज ते अधूरू हतु एटले आ बीजा भागनी अंदर तो रंधायेलु खावानु हतु पण दथी मांडीने मेल्वेला, अधूरा मेल्वेला, नहि मेलवेला, बधाय अक्षरोनु कार्य मारे करवानु हतु कारण के मारा जोडीदार मुनिश्रीक्षेमंकरसागरजी म० सं० २०११ ना चैत्र वदि: ०, नी रात्रे पोणा अगिआर वागे झेरी जानवरना करडवाथी काल धर्म पाम्या, एटले वैशाख महिनाथी जवाब - दारी मारा एकलाने शिरे आवी. परंतु गुरुदेवश्रीना पुण्य प्रतापे ते जवाबदारी हुं उठावी शक्यो अ आ बीजा भाग संपादन करी शक्यो. एटले हवे ट थी पचास टका तैयार करेला मेटरने तैयार कर अने सम्पादन करवु ए बधीए जवाबदारी मारे शिर रही. आ भागनी अंदर 'क थी झ' सुधीना अक्षरो आपेला छे. पण त्रीजा अने चोथा भागमां 'ट थी ह' सुधीन अक्षरो अने ज्ञाताजी विगेरेना तेमज बीजा मेलवतां भिन्न भिन्न निकलेला शब्दो तेमज व्याकरणना 'उणादिशब्दो' अने देशी नाममालाना शब्दो परिशिष्टमां आपवानु विचायुं छे. संज्ञापत्र, पत्रांकसूची अने शुद्धिपत्र आमां आपवामां आव्यां छे. वली शेठ देव चन्द लालभाई० ( आ फंडना ) नो देवानंदाङ्कमांनु मेटर पाना १ थी ४४ आपवामां आव्यां छे तेमां पाना १ थी १० भेट प्रचार योजना, पाना १ थी ३९ प्रसिद्ध थपला ग्रन्थोनी यादी अने ४० थी ४४ ग्रन्थ प्रकाशन नवी योजना एटलु आपवामां आव्युं छे. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] संकलनकार परमगुरुदेवना चरणे तो आ सरजः मस्तक सदाए नमेलुज छे. मने आ संपादननी अंदर मदद करनार मुनिश्रीप्रबोधसागरजी तथा मुनिश्रीप्रमोदसागरजी ने ( गुरुशिष्य वेलडीने ) याद करू छु. तेमज बीजाओए मने सहाय करी होय ते बधानो हुँ ऋणी छु. एक वात जरूर याद देवी घटे छे के मने उत्साह आपवामां भाई श्रीकेशरीचन्द झवेरी तो छ ज. सं० २०२० पोष वद १ मंगलवार ठि. नवरंगपुरा, पोस्ट पासे, जैन उपाश्रय अमदावाद नं० ९ आगमोद्धारक उपसंपादप्राप्त चरणरेणु कंचन. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] तृतीय भागस्य यत्किंचित् नमो वीतरागाय आशा अमर छे पण धारेलु कार्य थतु नथी पण थाय तेनाथी संतोष मानवो ज पडे छे. ए हिसाबे 'श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषनो त्रीजो भाग' अमे अत्रे तैयार करी संपादन करि शवया छीए. आ कोषना पहेला बीजा भागमां आपेल 'संपादकीय अने स्वरूपम्' पूर्वनो सम्बन्ध जोडवा अत्रे आपेल है. जो के प्रस्तावना जेवु लखवु छे, उमंग छे, तेवु साहित्य पण भेगु क छे पण अनुकुल सकरना अभावे तेने मुलखी राखी चोथा भागमां लखवानो विचार राख्यो छे. P आ भागमा 'ट' थी 'प' शुद्धिना शब्दो आव्या छे, ज्यारे चोथा भागमां 'फ' थी 'ह' शुद्धिना शब्दो उपरांत 'रहि गयेला शब्दो' तेमज 'देशी नाममाला वगेरेना' शब्दो पण लेवाना छे. जो चोथा भागमां न समाय तो आगल विचाराय. केशरीचन्द हीराचन्द झवेरीए तैयार करावेल 'श्रुतस्थवीरोनु लखो अत्रे लेवाया छे. सम्पादन कार्यमांमुनि प्रमोदसागरने जोडीमा जोडी दीधो छे. तेथी ते धीरे धीरे तैयार a. शुद्धिपत्रक तैयार करवानो परिश्रम गणिश्रीप्रबोध सागरजीए लीधो के. बाकी जेओ जेओए मारा आ संपादन कार्यनी पूर्व भूमिकाथी अत्यार सुधीमां जे सहकार आप्यो छे ते बधाने अत्रे याद करु छु. वाचक महाशयोने शुद्धिपत्रको उपयोग करवा नम्र विनंति छे. नवरंगपुरा जैन उपाश्रय अमदाबाद नं० ६ सं० २०२५ जे०सु०८ २५-५-६९ इत्यलम् लि० भवदीय आगमोद्धारक उपसंपदाप्राप्त गणिकंचन Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ३ ४ ५ ६ ८ श्रीआचाराङ्गम् अध्ययनानि आपत्र अध्ययनानि आपत्रं अध्ययनानि आपत्रं शतकानि प्रथमः श्रुतस्कंध : चूला - १ १ २ ३ ५ ६ ७ ६ द्वितीयः श्रुतस्कंधः चूला-२ ३ ४ " 39 १ २ ३ ८१ १४८ १७४ १६५ २३१ २५८ २६६ ३१७ ३५८ ३७४ ३८४ ३६१ ३९८ ४०१ श्रीसूत्रकृताङ्गम् प्रथमः श्रुतस्कंधः अध्ययनानि आपत्रं ५२ ७७ १०१ otur १ २ ३ ४०६ ४ ४२७ ५ ४२६ ६ ४३२ ७ १ ४ ३ ४ ५ ६ ७ 5 ε १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ द्वितीयः श्रुतस्कंधः १२१ १४१ १५३ १६५ १७५ ५ ६ १८६ १६५ २.७ २२६ २४० २१२ २६० २६६ श्रीस्थानाङ्गम् ४१५ १६ ४४३ १७ ૪૬૨ १८ ५२८ १६ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ श्रीभगवतीजी २८ शतकानि आपत्रं २६ १०८ ३० १५२ ३१ २०२ ३२ २०६ ३३ २४६ ३४ २८६ ३५ ३२७ ३६ ३७ ३८ ३६ ४० ७ ८ S १० ३५२ ३८० ३०३ १ ३४२ २ ३६० ३ ३७० ४ ३८५ ४०५ ४२७ श्रीसमवायाङ्गम् आविषयं आपत्रं सागरोवम कोटाकोटी १०५ गणिपिटक १३३ अवसरर्पिणि १५२ निगमनम् १६० पत्रांकसूची ५. ६ ७ ५ ६ ३८ १० १०१ ११ १७९ १२ २८६ १३ १४ १५ ४२४ ४६२ ५०८ ५५२ ५६२ ६२ε ६५८ ६६६ ४१ आपत्रं ७१६ ७३१ ७६० ७७३ ८०० ८०२ ८०४ श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम् अध्ययनानि आपत्रं प्रथमः श्रुतकं १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ८०५ ८५१ ६२८ १० ६३७ ११ ६३८ १२ ९३६ १३ ६४१ १४ ૨૪૬ १५ ६५० १६ ६५३ १७ ૨૬૪ १८ २४२ ६७० १९ २४५ ६७१ द्वितीयः श्रतस्कंध : ६७१ १-१० २५४ ६७१ ६७१ ६७१ ६७५ ९८१ | श्रीअन्तकृदृशांगम् ह ७७ ६० ६६ && ११३ ११४ १२० १५५ १६९ वर्गाः १-८ १७० १७३ १७७ १८२ १९२ १९५ २२६ २३४ श्री उपासक दशांगम् १-१० ५४ आपत्रं ३२ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७] अनुत्तरोपपातिक | श्रीराजप्रश्नीयं दशांगम् वर्गाः आपत्रं | आविषयः आपत्रं पदानि बापत्रं पदानि आपत्रं श्रीजंबुद्वीपप्रज्ञप्तिः | बक्षस्काराः आपत्रं ५३५ १७८ २०३ २१८ ५४२ सूर्याभः यानविमानादि ४४ / ५ श्रीप्रश्नव्याकरणाङ्गम् कुटाकारदृष्टान्तः ५६ स्नानपूजादि ११३ । ७ अध्ययनानि आपत्रं मोक्षवर्णनं १५० । २५ १७५ ३८०. २२० २२३ ३८२ ४२४ ४३२ २२७ २४५ २६८ २८३ २८८ श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिः ५४६ ६८ प्राभृतकानि आपत्र २६२ ४४ १२१ १२६ श्रीजीवाजीवाभिगम ३१६ ३२९ ३७३ ६२ | श्रीनिरयावलिका १४१ प्रतिपत्तयः आपत्रं ३९४ वः आपत्र WWC ३६५ श्रीविपाक ताङ्गम् ४०७ ४०७ प्रथमः श्रुतस्कंधः ४०६ ४२६ Y५२ २-१० द्वितीयः श्रु तस्कंधः ४३२ ४६४ ४६७ २०१ २३३ २४३ २४४ २५५ ४९६ श्रीऔपपातिकसूत्रम् | श्रीप्रज्ञापनोपांगम् ४६७ २५६ ५२४ आपत्रं आविषयः आपत्रं राजधान्यादि २४ | पदानि साधुगुणा: ४८ पर्षनिर्गमनम् ७७ | २ सिद्धवर्णनं ११६ | ३ ५२७ २५७ २६७ २८४ ५३१ ५३४ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सचूर्णिकं श्री निशीथसूत्रम् हस्त पोथी लीथोप्रिन्ट मुद्रितम् श्रीवृहत्कल्पसूत्रम् हस्त पोथी मुद्रित: भागः उद्देशक: आप भाग: आपत्रं भाग: आपत्रं भागः उद्देशकः आपत्रं आगाथाः भागः उद्देशकः आपत्र उद्देशक: आप २ १ १२९ २ ३ ४ १८२ १९४ २२२ ५ २४७ ६ २५३ २५७ ८ २७० ९ २७७ १० ३६१ ११ ५८ १२ ८२ १३ १०३ १४ १२३ १५ २७३ ५६ ६२ ६५ ६ ८४ १७२ ७ I w 2 2 8 ३ १६ १७ १८ १९ २० १ २ ३ ४ ५ २०२ ३०८ ३३४ ४०४ ४४५ ४६३ ४७८ १ १७६ २ ६६ १९७ २२६ ३०५ ३७० ३८६४ ४१३ ४४७ ५०५ ५३३ ६६५ ७७३ ८३२ ८७५ ९१६ १००८ ११४१ ४ ११६० ११६७ १२१२ १३३८ +२ +३५ m ४७० १७० ३१३ ३७४ ४२६ ४७७ ५९४ १६३ २०३ २१८ २६९ ४११ [१८] ४४३ १ १ २ ७७ ५०० १६६ १००० २३५ १५०० ३१७ २३३० १११ ३००० १५५ ३२९२ २ २०३ ४६४ ३ २९३ ७२८ ६४ ११९२ ८०५ ३७५ ४३० ३ ४ १६८ ५ २१२ ६ २६७ मुद्रितं १ १ २५४ ८०५ २ ६१० २१२४ ३ ९२१ ३२८९ ४ २ १०२२ ३६७२ ३ १३०६ ४८७६ ५ ४ १५०२ ५६८१ ५ १५९९ ६०५९ ६ ६ १७१२ ६४९० १ २ १ २ ३ ४ ५ ६ श्री व्यवहारसूत्रम् हस्तपोथी ७ ८ ९ १० चू०१ चू०२ १ (१७४ ७ ० १० 0 टोका चूर्णि मुद्रितः हस्त० मु० अध्ययनानि आपत्रं आपत्रं आपृष्ठं २ २१९ ३ २५८ ४११० ५ १३५ ६ १९९ ७ २८३ ८ ३३६ ई ३५५ ४५८ १ १-६१ १-९९ १-३७० २ १-८७ ३ १-७३ ४ १-१०४ ५ १-२९ ६ १-७१ १-९५ १-६० ९ १-२३ १० १-११४ श्री दशकालिकम् ९९ ११९ १६० १९० २०६ २२३ ८१ ३२ ७० ४१ ९२ ५२ ११७ ७२ १५८ ८९ २०६ १०१ २३४ ११५ २६५ २३८ १२८ २९४ २५८ १४३ ३२९ २६८ १५२ ३४८ १६० | ३६६ २७७ २८६ १६६ ३८० Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९ ] श्रीआवश्यकसूत्रम् श्रीउत्तराध्ययनानि आविषयः आपत्र । अध्ययनानि आपत्रं अध्ययनानि आपत्रं श्रीपिण्ड नियुक्तिः ७० १९ १४०/२० १३५ ४६५ ४८१ ४८७ १८८ • आपत्रं १८६ २२८ २५६ ४ - ४९६ पिठिका प्रथमवरवरिका द्वितीयवरवरिका गणधरवादः नह्नववादः नमस्कारनियुक्तिः १ सामायिकनियुक्तिः २ अध्ययनम् २२ २३ ५१२ आविषयः पिण्डनिरुपणम् उद्गमादिदोषाः उत्पादनादिदोषाः ग्राषषणाः ३२५ ४५२ ४६५ ५१० २१४ २७० ११६ १४६ १७८ २४ ५१६ २५ २६७ ५५० श्रीनंदीसूत्रम् ७६३ ८०१ आविषयः आपत्रं ८६६ पर्षद् ५३१ ५४७ ५५३ ५६९ ५९७ ६०९ ६१८ ६३९ ६४८ ६६२ ६६८ ७१४ श्रीविशेषावश्यकम् ३४१ ३६३ ३० ३९२ ३१ ३२ ३३ ४३० ३४ ४३६ / ३५ ४४६/ ३६ १२१ ४१६ अवधिज्ञानम् मनःपर्यवज्ञानम् केवलज्ञानम् मतिज्ञानम् श्रुतज्ञानम् आपत्रं २४६ २६६ ६६२ १२९ १८४ २४७ आविषयः आभिनिबोधिकज्ञानं केवलज्ञानं उद्देशादिद्वारव्याख्या गणधरवादः निह्नववाद: अर्हनमस्कारः सिद्धनमस्कारः प्रशस्ति: श्रीअनुयोगद्वाराणि १०४४ ११८० १२२७ १३६० आपत्र श्रीओघनियुक्तिः आविषयः आवश्यकभ तस्कंध निक्षेपा आनुपूर्वी दशनामाधिकारः प्रमाणद्वाराधिकारः निक्षेपाधिकारः अनुगमाधिकारः नयाधिकारः आविषयः प्रतिलेखनादि पिण्डद्वारम् आपत्रं १२७ २०७ २३७ २४१ २५७ २६२ २६७ विशुद्धिद्वारम् Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शुद्धि-पत्रकम् - गोत्रम् भरणम् रौद्राः ० पृष्ठं कोलम पंक्ति: अशुद्ध शुद्धं | पृष्ठं कोलम पंक्तिः अशुद्धं शुद्धं ४५७ २ .यप्लुत्य व्योरप्लुत्य | ४८५ २ २६ न उद्विग्नः उद्विग्नः ४६. १ २ स्थितिः स्थितः ४८७ । १४ नाकराणां नारकाणां YEY ०दीक्ष। दीक्षी (?।। |, २ १७ पुननि० पुम्रिय तृयीयः तृतीयः | ४६० २ १३ बन्धः •बन्ध. ४६८ १ २७ ऽप्यवं ऽप्येवं | ४९३ १ ६ भवन्तिः भवन्तः , २५ ज्ञानमहो ज्ञानमोहः | ४६६ २ १५ नाद्याः नयाः जानना ज्ञानानां | ४६६ २ ३४।। गन्तरोऽपि गन्तारोऽपि " . २ २५ प्रत्यो - प्रत्ययो० ४६७ १ १० गोत्रनाम् ४७२ २ ३१ निपेक्षो निरपेक्षो भावात भावात ४७३ १ २४ वध्य वध्यं त्रिष्वषेषु त्रिष्वर्थेषु w७ २ २१ विरहतः विरहितः ४७५ २ २७ लोभतः लाभत: ५०२ १ ३४ रोद्राः राज्ञा. •रामः १ ३५ तीव. तीवा० ४७८ १ १२ नारके. नारक. , २ १३ पिय० निश्भवयन निश्रावयन् कला. काला० वरण कर्मनिर्जयनु वरणं कर्म | ५०५ . २३ हदटस्थः हृदयस्थः निरयन " , कोष. कोप० ४८२ २ ६ तजाए तज्जाए ५०६ २८ तूषण्णीका तूष्णीका ., २ २६ मख० मुख० ५०७ १ ६ ०मध्य. ०मय्य० ४८३ २ २८ रा ४५ ण्यतृण. रालका४ऽरण्य. ५८८ , १३ विद् ०वट. लक्षणम् तृणलक्षणम् ५ ५०६१ ४ प्रभावा ०प्रभवा ४६४ . १ १४ बादरा. बादर. १ २२ त्रिनी. विभी , २ १७ घऽस्थायी ०धःस्थायी २ ११ बीया० शीता. ४८५ १ १ प्राप्ताद्रग्यस्या- प्राप्तद्रव्यस्या. ! ५१. २ १६ दि. •रादि. ध्येच्छा व्ययेच्छा १३ । १४ दर्पण. दर्पणा . २ वञ्छिा वाम्छा | , २ ६ मेदनीका •मेदनीका १-अनुस्वार, दीईई, दीर्गी, बे माभ, रेफ इत्यादिमां जीना टाइपना कारणे बाकस्मिक भूल पाना संभव छे. बर, अभय के 4 ध के घ व के बा पण भूल- बवा संभव छे. तेथी ते क्षन्तव्य गवि जोइए. प्रिया Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] ५२० १ गह्वरम् कृष्णरावे रष्टम ज्ञप्तिः ० रात्रिनाम दर्शनममि० ०काला० देशेन मवग्र० निश्चितं राणां स्योपायम् बाह्वो० . चम्पायां पतन्तं ध्ययनम् ०कामा: राणं ५२८ 0 ० 0 पृष्ठं कोलम पंक्तिः अशुद्धं शुद्ध । पृष्ठं कोलम पंक्तिः अशुद्धं ५१४ २ २२ परिणा० पारिणा० | ५४६ २४ गह्वारम् ५१५ । २६ जातिश्रत. जातिश्रुतः । ५५० १ ३३ तमुकायस्य ५१७ २ ४ विपाण. विषाण. द्वादशमं ५१६ १ १२ वृधव - शुधव ५५१ " ज्ञातेः आष्टा० अष्टा रात्रीनाम् ५२१ १ २१ मियभ्याल मिन्या. दर्शनाभि १ २४ आपद्यति "- आपाप काल. ०पलया वल्या : ५५३ २ दशेन ५२२ १ २२ वीथी: नवीथी: मविग्र० ५२३ दगभारंका दमगा-आरम्भगः | ५५५ १ . ३५ निश्रितं सर्वा सर्व० ५५६ . २ ११ दव०३६८। + ० | ५५७१ ३१ स्मोपायम् विद्या विधा , २ १७ ०कत्दा० कत्वा० | ५१८ १ २४ चम्पयां ग्रहार्थं • ग्रहणार्थ | ५६० २ , प्रतपन्तं दातुः दातुं | ५६१ : १ २६ ०ध्ययम् ५३१ २ २४ नयां न्यां | ५६२ १ ३१ ०कामः सारा धन्म० एसणा विधि एसणाविधि ५६७ , १४ मानसो. आचारोदयो आचारादयो १ २७ ०कृग्द. ४ . चिन्यन्ति चिन्वन्ति अनित्य ५३७ १ २७ दीणाजाती दोणजाती १ २० ज्ञानादि जाठजठ चित्वात् •गता. ०गत० आन्तप्रान्ता१४० ०श्चा० ०श्वा० दाता. दुखा. ५७० पाशुः ५४३ दुर्दशं दुर्दशं धायः अशुभः अशुभ० | ५७२ र १६ ।। ०को बुद्ध पदात्व. पदान्य० दीप: २ १६ बाह्यो० बाह्वो , २४ नियं ५४७ ०खद्वा० खट्वा० , गो ५४८ , १४..दूयरत्नं दृष्यरत्नं । ५७५ ।। २४ दृश्यो "२६०वपर्या० विपर्याः ५७७ , १७ सश्चेति D" . .. विपर्या० विपर्या० ] ५८० २२ ण. ० सारो धम्म 3 ५३४ ५३६ ५३८ ५४१ दुःखा० मानसा ०कृद्० नित्य ज्ञानादि दिस्वात अन्तप्रान्तादावा० पांशुः धार्थः की बुद्धयो द्वीपः • निर्गम मग्गो दृश्य. साश्चति ६८५० | ५७४ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठको ५८० ५८२ ५८३ ५८५ ५६६ " " " 99 ५६५ "" ५३८ ५८८ ५८६ २ ५६३ २ " 11 19 ६०३ ५०४ २ " " ६०५ ६०६ ६०७ ५६६ ५६७ " ५६१ १ 91 ६०८ 13 २ " १ ११ २ १२ १ २ ૧૪ 19 19 १ ov 39 ५६६ १ ६०१ २ ६०२ "" "" २ २८ १५ २७ २ ६ १ ३ 13 ::: 19 १ २ 12 पंक्तिः अशुद्धं विभावक ३४ " ३० " २० ६ ३३ ११ १३ २४ १७ २७ ३४ १० ५ 39 १६ २५ २३ १५ ११ १ .२० २४ 99 १ १६ " ० मगस्य ● येता• •हार निरावणा काङ्क्षित ०दसम० ० दैव्य० M ० णवासी ०क्षदा उद्धत ० जद्वीपभरते श्रागामी० साधवा: आत्याद० ० विशेषः ० पश्चमः शाश्व९ ० शत० निदान निरणकर विषते निर्मिण ० भ्युयत ० निपन्न: निवण्ण धम० ० सव निवृद्धि: ० प्रतिनि० निसाम० नसालोढे निषधेन [३] शुद्धं विर्भावक ० गमस्य व्यतो •हारं " निरावरणा ६१२ काङ्क्षितं ०दशम० ● देव्यं ● कट्ट ० णभासी ० क्षुदा० उद्वत्तं • जम्बूद्वीप भरते आगामि० सावव: अत्याद० विशेषाः ० पश्चम० शाश्वत० ० शस निदानं निरशुकंप विद्यते निर्माण पृष्ठ कोलम पंक्ति: अशुद्धं ६०६ २ ०वशगां ६१० २ ० पर्थ ६११ १ ० क्रान्त ज्ञाता० द्विन्द्रिय ० भ्युदत ० निष्पन्न: निव्वण्ण धर्म ० "" ६१४ " ६१५ 19 ६१६ "1 ६१७ ६१८ ६१६ "" ६२० ६२३ "" " ६२४ ६२५ ६२७ ६२८ " 33 " 31 २ "" १ २ २ २ १ 17 २ ", 19 १ २ १ १ " २ 13 13 " o ० सस्त्र निर्वृद्धिः | ६२९ ● प्रति० निशाम० निसालोढे ६३० २ निपेधेत ६३१ १ " २४ २६ १ १८ २८ ३५ १० १४ २६ ७ ३२ 23 "" 19 " ५ ४ ८ २४ ३३ ३० ३५ ५ ४ १८ २६ ४ १० € १६ ४ २६ ७ २२ १० ३५ २६ भूमि० तद्योगा वचन ० कषायः चतुश्रुष्वपि भक्षु० द्विप० जन्मादिक ल्याण० अन्त० पाण्डरो प्रलोकितं छेदसुता० विविक्त ० रपिभ्यां व्यापरण ० राधप्रहरः बन्धाति ● दश: यत्र ० कल्पदि० प्राया० ० मुख निषिध्यम् व्यार्थी ० प्रत्ययः eas ० दे० चरमाः शुद्धं वशगा पथ • क्रान्तं ज्ञाता० २४२ । द्वीन्द्रिय० भूमे ० तद्योगात् वचनो कषायाः चतसृश्वपि भिक्षु० द्वीप० चवनादिकल्या णक ० अन्तः पाण्डुरो प्रलोकितुं छेदसूत्रा विविक्तं ०पिण्यां व्यापारणं राद्यत्रहरः बति • देश: यत्र ०कल्पादि० प्रत्ग मुखं निषिद्धम् ●यार्थी ० प्रस्ययाः हेर ०० चरमः Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध पृष्ठं कोलम पंक्ति: ६३१ ७ , , १५ ६३३ १ १८ , २ २६ ६३५ १ १९ अशुद्ध साङ्क ६६७ अक्षरार्थः क्षुराय. ध्यक्तम् प्रदत्तः जन्तोः २३३ प्रस्फोट येत् प्रय विजयस्य देर्मानम् नुचमा० •ध्ययने स्थितिक. प्रकर्षे भाजन ६१८ १ याकम् निष्ठरं २ भावता नुमा० ६३६ , ३२ ६४० ६४१ १ १ ५ ७ २४ ६६२ पदसमम् सितं घोष. ०ऽयोग प्रति पयोण. कुलक. शिष्ट माद्यभिविध्वसन्ते कुलेश्यामिति त्रियो ६४३ २ १८ [४] ___ शुद्ध पृष्ठ कोलम पंक्तिः अशुद्ध साकु. ६५३ २ १८ प्रदतः ७६७ ६५५ , २१ जन्तो अक्षरार्थ शुर इब ६५६ २२ प्रस्फाटयेत् वाग्गमी , २ १५ त्रीणि. विजस्य निष्ठुरं दिर्भानम् भावतो ६५९ १ तितमं २९ ध्यवने घोषर. १२ स्थितिका अर्थाग. प्रकर्ष प्रति तेषु , , भाजना० पर्याण , २० पदसम् •कुलकर० , २२ स्त्रयो शिष्टं ६६३ २ ३२ विषयो ०(माद्यभि). " , ३२ पर्ययो. विध्वंसन्ते ६६५ , २ भर० कुल परग. श्यमिति ६७० , २३ ०पाद. परिवदधे आषढ निष्ठतता नाविते व्यत्तियं षीक: | ६७४ २ १५ शक्य० बिन्दुः तथा , ३२ ०क्षमेन अर्थोंs ६७५ .रागा० अवन्ि प्रज्ञापयन्ति २ १५ अनुम्यु वत्तिनो , २८ णाम भयकर लणाम द्वया •णामतः प्रार्थयति- ६७६ १ १६ भागा० याचते , २३ भुते औप० २४ ।। , २ २० ०णामम् २८ ६४३ हार्यः " ६४५ ६४७ •स्वविषयो वीर्ययो पर० परम० ०पादान परिविदधे निष्ठितता वत्तियं शक्त्य . तथा शमेन रोगा० आवर्तान् इनभ्यु ६४ , २ , द्विन्दुः वर्जनम् १९ वाषाढ प्लामिते २८ षिक: २१ २२ वर्जण ऽर्थाs •युष्य. प्रज्ञापन्ति १२ वतिनो १७ मकर २६ द्रव्या० ३२ प्राथयति वाचते । ओप० १४ । युष माणं माणं ६५० , ६५१ ६५२ १ २ १ २ माणतः भोगा. ०माणम् Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहा० दास्यामी . . . . . . .* पाद पुगे दर १ - शेषव्रती मायामा प्रासादा० श्रावस्ती भाजनम् बाधिषु प्रेमकर्ता आस्थाने प्रीयवादी स्पृष्टः - - पुढवी० पृष्ठं कोलम पंक्तिः अशुद्धं शुद्धं । पृष्ठं कोलम पंक्तिः अशुद्ध ६७७ , १० लोभ. लोमा० , २ ग्रह पर्यापन पर्यापानं दास्वामी लोकादि. लोका. ७०५ , ५ पाद भामणिः भामण्यः ७०८ पत्रो , २६ सह पर्युषितः-स० पर्युषितः-सं शेषततिः २ ८ पञ्चम् पञ्चम | ७११ २८ बायामा. दशः दक्षः | , २ १९ प्रासाद वतंन्त वर्तन्ते श्रावसती. ०पर्या ०पर्याय • भाजम् ६०४ , २० वासी० वासि० वाधिषु पायन्ते पादयन्ते २ २४ प्रेमकतः पलय० पल्य० अस्थाने प्रलिङ्घनम् प्रलङ्घनम् ७१६ प्रीयावादी आखतं अखातं ७२२ स्पष्टः ६८८ १ २४ प्रवत्तीनि प्रवत्तिनी ७२३ पुडवी० , २ २७ वर्णा वर्ण ७२४ श्रमणानानां ६८६ , ६ भृगवो भृगुः •स्थिक. मुमूर्षवो मुमूर्षु: पुप्फरासा ६९० १ २२ ०मयान्य० ०मयम. तागेन ०धान्याद्वि. धान्यदि ७२८ १ ०व्रतम् ६६० १ ३४ विभूति विभूति ७२६ , २५ काड० नगर नगार- ७३० , १६ नातिधि ६६३ २ २६ भिलाषी ०षाभिलाषी ६९४ १ २६ प्रश्नान:- प्रभाप्रश्नः- ७३१ । २० वादी वीरली. विरली० , २ ३२ चूर्णन सम. प्रहसति. प्रहसित० Cः लब्धे. ०मल्या० मण्या० सजीवनेन ६६८ १ १६ तद्योगो० तयोगा. चार पादक पादप० पव्वंब वान् बलवान | ७३४ , ७ पुष्पकेतुः ६६९ २ १३ पत्रं पुत्रं | ७३७ १ १२ पूरावेरयं ७.० १ २८ शितोष्ण. शितोष्णा० ७३८ २ १० पेच्छयण ७.१ , ५ स्थि. स्थित० ७३६ १ १ बागमि० * * * * : - ४ ५ ६ ८ . पृरुषः श्रमणानां स्थितिक. पुप्फवासा त्यागेन वृतम् कड नातिधि० पुरुषः ०वादि उ० चूर्णनसमर्थायाः लब्धे. रुपजीवनेन ०चारा. पब्र्वपुष्पकेतोः * * * * * पूरावरेय पेच्छणय आगामि० Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठं कोलम पंक्तिः अशुद्धं ७३१ १ २५ प्राप्तिः सूक्ष्मचर्म पक्षोः चर्म सुक्ष्मपक्ष दोषा० प्रेष्यते प्रेक्षमाणः पेड्डुण शुद्धं | पृष्ठ कोलम पंक्तिः अशुद्ध प्राप्तः | ७४२ १ ४ मासम् चर्म सूक्ष्म |" , १८ यवता पक्ष्म० अन्त० व्यायम् • होषावि० पौरपत्य प्रेष्यते । ताङ्गलो. प्रेक्षमाणः , २ २६०सता. पेण शुद्धं मसम् यावता अनन्त. यामम् पौरपत्यं ० ताङ्गुलो साता. " ७४१ , १ २४ १४ | सम्पादकः । प्रकाशकः आगमोद्धारकः' दे.' ला. जै. आ स. संज्ञा-पत्रकम् । क्र० संज्ञा | सूत्रनाम १। अनु. मल्लधारगच्छीयश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितवृत्तियुक्तं । श्रीअनुयोगद्वारसूत्रम् । २ अनुत्त. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुत श्रीअनुत्तरोपपातिकदशाङ्गम् ।। ३ | अन्त. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुत श्रीअन्तकृदशाङ्गम् । आउ. श्रीआतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णकम् (गाथा )। आचा नियुक्तिकलितशीलाङ्काचार्यविहितवृत्तियुत - श्रीआचाराङ्गसूत्रम् । | आव. नियुक्तियुतभाष्यकलितश्रीभव विरहहरिभद्रसूरि . विहितवृत्तियुत श्रीआवश्यकसूत्रम् । | नियुक्तियुतानि वादिवेतालश्रीशान्तिसूरिसूत्रित - वृत्तियुतानि श्रीउत्तराध्ययनानि । | उप.मा. श्रीधर्मदासगणिहब्धा श्रीउपदेशमाला (गाथा)। आ. दे. ला. जै. आ. स. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुत __श्रीउपासकदशाङ्गम् । १० । ओच. भाज्यतां श्रीद्रोणाचार्यत्रितवृत्तिविभूषिता . श्रीओघनियुक्तिः । १ दे. ला. जं.= शेठ देवचन्द लालभाई जैनपुस्तकोद्धार फण्ड २ आ. स.-श्रीआगमोदयसमिति । | आ. स. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमोद्धारकः आ स. आ. स. आ स. आ. स. ११ | औप. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रित विवरणयुत श्रीऔपपातिकोपाङम। १२ ग. श्रीगच्छाचारप्रकीर्णकम् ( गाथा)। श्रीगणिविद्याप्रकीर्णकम् ( गाथा ) । श्रीचतःशरणप्रकीर्णकम ( गाथा )। १५ज. प्र. उपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रवि हितवृत्तियुत श्रीजम्बूद्वीप प्रज्ञप्त्युपाङ्गम् । श्रीमलयगिर्याचार सूत्रितविवरणयुत श्रीजीवाजीवा भिगमोपाङ्गम् । ज्ञाता. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुत श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम् । | ठाणा. | श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं ___श्रीस्थानाङ्गसूत्रम् । श्रीतन्दुलवैचारिकप्रकीर्णकम् ( गाथा )। तत्त्वा. | भाष्योपेत श्रीतत्त्वार्थसूत्रम् ( अध्यायः, सूत्रम् )। दश. | नियुक्तिभाष्योपेत श्रीभवविरहहरिभद्रसूरिविरचित विवरणयुतं श्रीदशवैकालिकसूत्रम् । दशचू. श्रीदशवकालिकचूर्णिः * आ. स. आ. स. ऋ. के. दे. ला. जै. स्तपोथी | जै. पु. नं. १६७३ आगमोद्धारकः आ. स. " आ स. दिशाश्रु. श्रीदशाश्रुतस्कन्धः । | देव. श्रीदेवेन्द्रस्तवप्रकीर्णकम् । २५ नंदी. | श्रीमल्यगिर्याचार्यविहितवृत्तियुतं श्रीनन्दीसूत्रम् ।। | निरय. | श्रीचन्द्रसूरिविरचितवृत्तियुत श्रीनिरयावलिकापंचकम् | *भाष्यचूण्युपेतस्य श्रीनिशीथसूत्रस्य प्रथमो विभागः नि.चू. " द्वितीयो ,, श्रीदा.वि.गणी वीर.' हस्तपोथी | जै. पु नं. ४८३ जै पु नं.४८४ tr तृतीयो , जैपु नं. ४८५ प्रो.हर्मनजेकोवी 'जै. ध. श्रीविमलाचार्यविरचितं 'पउमचरियं' ( उल्लासः) । ऋ. के. शेठऋषभदेवजीकेशरीमलजी, रतलाम २ जे. पु. नं० श्रीजनआनन्दपुस्तकालय, सूरत, हस्तपोथी नम्वर ३ वीर. श्रीवीरसमाज, अमदावाद. ** सूत्र, निर्यक्ति अने भाष्यगाथानां मात्र प्रतीक छ. ४ ज. ध. श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा, भावनगर. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] | बृ. ४ आ. स. ३१ पिंड भाष्यश्रीमलयगिर्याचार्यविहितवृत्तियुता पिण्डनियुक्ति आगमोद्धारकः | दे. ला. जे. पिण्ड. | प्रज्ञा. श्रीमलयगिरिसूरिविहितविवरणयुतं श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गम् । " आ. स. | प्रश्न श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीप्रश्नव्याकरणाङ्गम् । | आ. स. | बृ. प्र. | नियुक्तिभाष्यटीकोपेतस्य श्रीबृहत्कल्पसूत्रस्य प्रथमोविभागः | हस्तपोथी जै. पु. नं. ३०३ ३५ बृ. द्वि. द्वितीयो , जै. पु. नं ३०४ तृतीयो , जै. पु. नं ३०५. | भक्त. | श्रीभक्तपरिज्ञाप्रकीर्णकम् ( गाथा )। आगमोद्धारक | भग. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं ___ श्रीभगवतीसूत्रम् (श्रीव्याख्याप्रज्ञप्तिः)। आ. स. श्रीमरणसमाधिप्रकीर्णकम् (गाथा )। आ. स. |मरण. श्रीमहाप्रत्याख्यानप्रकीर्णम् ( गाथा )। आ. स. श्रीमलयगिर्याचार्यसूत्रितविवरणयुतं श्रीराजप्रश्नीयोपांगम् | विपा. | श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं ___श्रीविपाकशुलाङ्गम् । ४३ / विशे. | मल्लधारिश्रीहेमचन्द्रसूरिविरचितबृहद्वृत्तियुतं श्रीविशेषावश्यकभाष्यम् । हरगोवनदास य' जे. ४४ / व्य प्र. | नियुक्तिभाष्यटीकोपेतस्य श्रीव्यवहारसूत्रस्य प्रथमो विभागः | हस्तपोथी जै. पु. नं.४८७ ४५ व्य. द्वि , , द्वितीयो , ] जै. पु. नं. २६६ ४६ / स. श्रीसंस्तारकप्रकीर्णकम् (गाथा)। ४७ सम. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीसमवायाङ्गम नियुक्तिभाष्यशीलाङ्काचार्यविरचितविवरणयुतं श्रीसूत्रकृताङ्गम् । | श्रीमलयगिरिसूरिविहितविवरणयुतं श्रीसूर्यप्रज्ञप्त्युपांगम् महाप्र आ. स. आ. स. " । य. जे.= श्रीयशोविजयजी जैनग्रन्थमाला. * सूत्रादिना मात्र प्रतीक ज छै. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ Guidi ક ૪૫ પ્રતHIJIB ગ ત્ર હાકાર ફી નોદિજૂનું AS પાલીતાણા સુરત Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ अहम् * णमोऽत्यु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स । श्रेष्ठि-देवचन्द्रलालभाई-जैन-पुस्तकोद्धारे-ग्रन्थाङ्कःआगमोद्धारक-आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितःअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः तृतीयो-विभागः टकार: | टिट्टिआविति-परस्परं ताडनेन टिट्टीतिशब्दोत्पादनपूर्वक टंक-उपकरणविशेषः । प्रज्ञा०२७ । टळु-नतिदोषे दृष्टान्तः।। वादयन्ति । जं० प्र० ३६ । आव० ५२६ । छिन्नटङ्कम् । अनु० १७३ । छिन्नतटं टिट्टियावेति-शब्दायमानं करोति । ज्ञाता०६६ । टकम् । नंदी० २२८ । टङ्कः-छिन्नटङ्कः । आव० ६६ । रिन्द्रियजन्तुविशेषाः । जीवा० ३२ । भग० २३८ । एकदिशि छिन्नः । ज्ञाता० ६७ । टेम्बरूपं-फलविशेषः । आचा० ३४६ । टंकण-अनापविशेषः । भग०१७० । उत्तरापथे म्लेच्छ- टोप्परिकया । आचा० ३४६ । देशे क्वचिद् टंकणाभिधाना म्लेच्छा: । विशे० ६२४ । टोप्परिया-टोप्परिका । आव० ४१२ । टङ्कणः-मिलेच्छविशेषः । सूत्र० ६३ । टोलगइ-टोलगति-टोलगतय:-उष्ट्रादिसमप्रचाराः । भग० टंकणओ-टङ्कणक:-म्लेच्छजातिविशेषः, आचार्य शिष्ययो- ३८ । येन तिड्डवदुत्प्लुत्यप्लुत्य विसंस्थुलं वन्दते तत् । कृति दृष्टान्ते नामविशेषः । आव० ६६ । कर्मणि पञ्चमो दोषः । आव० ५४३, ५१२ । टंकणा-टकणा-उत्तरापथे टऋणानामानो म्लेच्छाः ।। टोलगति-टोलाकृतयः-अप्रशस्ताकाराः । जं० प्र० १७०।. भाव. ६६ । टोलागइ-टोलाकृति:-अप्रशस्ताकारः । भय० ३०८ । टकारठकारडकारढकारणकारप्रविभक्तिनामा- . टोलगतयः-उष्ट्रादिसमप्रचाराः । जं. प्र. १७० । सप्तदशो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ । दाइ-तिष्ठति । आव० ५७८.। टक्क।नि० चू० प्र० १३३ आ । ट्राण-स्थानं-अवस्थारूपकालः । व्य० द्वि० ४४६अ। टक्करा-खड्डुका । उत्त० ६२ । स्थान-तेषामेव स्थिति परिणामः । विधे० २९७ । टगकं-अवचूलम् । औप० ६३ ।। टप्पर-मनालीनः । प्रश्न. ८२। जीवा० २७३ । ठप्पाइं-स्थाप्यानि-असंव्यवहार्याणि । अमुखराणि स्वस्वरूपजं० प्र० ११३ । प्रतिपादनेऽप्यसमर्थानि । गुर्वनधीनत्वेनोद्देशाविषयभूटाल-टालं-अबास्थि, कोमलफलादि । दश० २१६ ।। तानि । अनु० ३ । टाला-टालानि-अनवबद्धास्थीनि, कोमलास्थीनि । आचा. ठवण-पात्रकं च निक्षिप्यते-एकदेशे स्थाप्यते । ओघ. ३६१ । ११८ । टिठियावेति-आस्फालयति । आव• १२३ । | ठवणकुलं-स्थापनाकुलम् । (अल्प० ५८ ) २७८. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठवणकुला] आचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ ठाणं %3 ठवणकुला-सेज्मातरमामगाइ कुला ठवणकुला । नि० चू० | ठवितं-न्यस्तम् । उत्त० ३४८ । प्र० २०७ अ । स्थापनाकुलानि, लोके गहितानि कुलानि। ठवियं-स्थापितम् । भग० २३१ । स्थापित-प्रयोजने व्य० प्र० १६० अ । स्थापनाकुलानि । ओघ० ६५ ।। याचितं गृहस्थेन च तदर्थं स्थापितं यत् । प्रश्न० १५४ । ठवणकुलापुच्छणया-स्थापनाकुलानि पृच्छति भिक्षार्थम् । ठविय-यत्प्रायश्चित्तमापन्नस्तत्तस्य स्थापितं कृतं, न वाहओघ० ५६ । यितुमारब्ध इत्यर्थः । ठाणा० ३२५ । ठवणसच्चा-स्थापनासत्या-पर्याप्ति सत्याभापायास्तृतीयो | ठवियगो-विस्मृतः । आव० ४१६ । भेदः । प्रज्ञा० २५६ । - ठविया-आवण्णो । नि० चू० तृ० १३६ आ । मासाठवणा-पज्जुसणा, वासावासो, पढमंसमोसरणं, जेट्रोग्गहो। दीय छद्धं, जं पूण भासादी आवणं णिक्खित्तंति वेयानि० चू० प्र० ३३६ आ । अणागाढजोगणिक्खेवो। वच्चटुया ठवियं कज्जति सा। नि० चू० तृ० १३६ आ। नि. चू० प्र० १९८ आ। स्थाप्यत इति स्थापना । ठवेति-गृण्हाति । नि० चू० प्र० ३३७ अ । सत्याभाषायास्तृतीयो भेदः । ठाणा०४८६ । प्रज्ञापना-ठाइउं-स्थातुम् । आव० ७७८ । मात्रम् । नि० चू० प्र० २८३ अ । व्यवस्था । बृ० | ठाओ-अवकाशः । बृ० द्वि० २६३ अ । नि० चू० प्र० तृ० १४७ अ । तिष्ठतीति स्थापना । विशे० २४ ।। ५१ अ । स्थापना-वस्तुसंस्थानरूपा । जं० प्र० ११ । स्थापना- ठागं-अवकाशम् । ६० तृ० ६१ अ । उदाहरणस्य तृतीयो भेदः । दश० ३५ । स्थापनालक्षणं- ठाणं-स्थानम् । सम० ३६ । स्थापनं एषणा दोष इत्यर्थः। लकारादिवर्णानामाकारविशेषः। आव०२८१ । सद्भावा- नि० चू० प्र० २०२ अ। कायोत्सर्गः । बृ० द्वि० सद्भावरूपा प्रतिकृतिः स्थापना । आचा०६१। तिष्ठ- ११२ अ । कायोत्सर्गः । ओध० ५८ । तिष्ठत्य. तीति स्थापना इति स्थापनात्वेन समये निर्दिष्टमेव ।। नेनेति स्थानं कारणम् । प्रज्ञा० २६० । स्थान-ऊर्ध्वस्थापना-यद् वस्तु सद्भतेन्द्रार्थशून्यं सत् तद्बुद्धया स्थानं, निषीदनस्थानं, त्वग्वर्तनस्थानं च । प्रश्न० १०७ । तादृशाकारं वा निराकारं वा, स्तोककालं यावत्कथिक तिष्ठन्त्येऽतेषु सत्सु शाश्वते स्थाने प्राणिन इति वा स्थाप्यते सा । विशे० २३ । स्थानानि महाव्रतानि । आव० २६४ । स्थानं-ऊर्ध्वठवणाकप्पो-स्थापनाकल्पः । बृ० तृ०२६० आ। स्थानं कायोत्सर्ग: । आव २६६ । स्थीयतेऽस्मिन्निति ठवणाकम्मे-स्थापनं-प्रतिष्ठापन स्थापना तस्याः कर्म- स्थानं दुर्गतिगमनादिकम् । पक्षमभ्युपगतमित्यर्थः । सूत्र० करणं स्थापनाकर्म येन ज्ञातेन परमतं दूषयित्वा स्व- १५२ । तिष्ठन्ति-विशेषा अस्मिन्निति स्थानं सामान्यम् । मतस्थापना क्रियते तत् स्थापनाकर्म । ठाणा० २५३ । प्रज्ञा० ५०१ । कायोत्सर्गः । औप० ४० । तिष्ठन्त्यठवणापाहुडिया-या भिक्षाचरेभ्यः स्थापिता भिक्षा स्था- | स्मिन्नितिस्थानं क्षीणकर्मणो जीवस्य स्वरूपं लोकाग्रं वा। पनाप्राभृतिका । आव० ५७५ ।। औप०१५। कायोत्सर्गस्थान निषीदनस्थानं वा । ज्ञाता० ठवणादिणं-पर्युषणादिवसः । बृ० तृ० २७७ अ । । २०६ । पदार्थः, सङ्ख्यास्थानं वा । प्रज्ञा० १४७ । ठवणिज्जा-परूवणिज्जा । नि० चू० तृ० १३२ अ। तिष्ठति-विशेषा अस्मिन्निति स्थान सामान्यमेकवर्ण द्विवर्ण ठवणिज्जाइं-स्थापनीयानि । अनधिकृतानि । अनु० ३ । त्रिवर्णमित्यादि रूपम् । जीवा० १६ । उस्सग्गो । नि० ठवयंति-पर्युवासयंति । नि० चू० प्र० ३२२ आ । चू० प्र० ५६ आ । दारं । नि० चू० प्र० ६७ अ। ठवितगदोसो-स्थापनादोषः । आव० ८३८ । तिष्ठति-अनवस्थाननिबन्धनकर्माभावेन सदाऽवस्थितो ठविअगदोसा-स्थापनाकृताश्चैवं दोषा भवन्ति । ओघ० भवति यत्र तत् स्थानं-क्षीणकर्मणो जीवस्य स्वरूप १४८ । लोकाग्रं वा। भग० ७ । स्थान-प्रदेशवृद्धया विभागः । ठविएल्लग-स्थितः । आव० ६६८ । भग० ७१ । पादन्यासविशेषलक्षणम् । भग० ३२३ । (४५८) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठणsaा ] अवगाहः । पिण्ड० २२ । ऊर्ध्वस्थानम् । आव ० ५२६ । अवकाशलक्षणम् । आव० ५६२ । आश्रयः । आव ० ६४५ । निमित्तं भेदः पर्यायः । आव० ६६१ । कायोत्सर्गः | आव० ७३४ । ऊर्ध्वस्थानम् । आव ० ७८० । व्यवहारतः सिद्धक्षेत्र, निश्चयतो यथाऽवस्थितं स्वं स्वरूपम् । जीवा० २५६ । स्थानं आलयः । दश० ७६ । स्थानं एकत्रैव स्थितिः । दश० १५५ । तिष्ठन्त्य स्मिन्निति स्थानं - सामान्यं यथैकवर्णं द्विवर्णमित्यादि । भग० २० । आसनम् । भग० १२५ । भेदः । भग० २३६ । उत्कटादि । पिण्ड० १२९ | स्थानम् । आचा० ४२४ । कारणम् । ठाणा० १८७ । कायोत्सर्ग उपवेशनं वा । ठाणा० ३१४ । अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ १६३ । ठाणपालया। नि० चू० द्वि० ११ आ । ठाणा - स्थानानि - स्वस्थानादीनि । प्रज्ञा० ७२ । ठाणाइं-स्थानानि - प्रज्ञापनायां द्वितीयं पदम् । प्रज्ञा० ६ । ठाणाइए - स्थानं कायोत्सर्गादिकमतिशयेन ददाति गच्छ " तीति वा स्थानातिदः, स्थानातिगः । भग० ६२४ । ठाणाइया - ऊर्ध्वस्थानं निषीदस्थानं त्यग्वर्त्तनस्थानं तद भिग्रहविशेषेणाददति विदधति । प्रश्न० १७२ ठाणातिते - स्थानायतिकः स्थानातिगः, स्थानातिदो वा कायोत्सर्गकारी । ठाणा० ३९७ । ठाणादीएठाणिजा ठाणइल्ला - गोमिया । नि० चू० द्वि० ११ आ । ठाणगुणे - स्थानं वा स्थितिर्गुणः कार्यं यस्य स स्थानगुणः, स हि स्थिति परिणतानां जीवादिनामपेक्षाकारणतया स्थानं कार्यं करोति, स्थाने वा स्थितो गुण:उपकारो म्मात् स तथा । ठाणा० ३३४ ॥ ठाणपदे-स्थानपदं- प्रज्ञापनायां द्वितीयपदम् । भग० १४२ ठिइचरमे - स्थितिचरमः । प्रज्ञा० २४५ । भग० २० । ठिक्खएणं ε६१; ६४ । ठिपदं - प्रज्ञापनायां चतुर्थं पदम् । भग० ५३५ । ठाणपयं - स्थान पदं - प्रज्ञापनायां द्वितीयं पदम् । जीवा० ठिएपागो-स्थितिपाको नामानुभागः । प्रज्ञा० ३३० । fosबंधभवसाण- स्थितिबन्धस्य कारणभूताध्यवसायस्थानम् । अनु० २४० । ठिsaडिया - स्थिती - कुलमर्यादायां पतिता - अन्तर्भूता या प्रक्रिया पुत्रजन्मोत्सवसम्बन्धिनी सा स्थितिपतिता । ज्ञाता० ४१ । स्थितिपतिता - कुलक्रमागता वर्द्धमानकादिका पुत्रजन्मक्रिया । विपा० ५१ । | ठिइवडिवाए - स्थिती - कुलस्य लोकस्य वा मर्यादायां पतितागता या पुत्रजन्ममहप्रक्रिया सा स्थितिपतिता । भग० ५४४ । ठिई स्थितिः - अभावः । जीवा० ३४६ । जं० प्र० ४६२ । सूर्य० २५१ । स्थिति:- वेदनाकालः । प्रज्ञा० ६०२ । मर्यादा | भग० ५४५ । स्थितिः - प्रज्ञापनायाश्चतुर्थं पदम् । प्रज्ञा० ६ । स्थीयते - अवस्थीयते अनया आयुः कर्मानुभूत्येतिस्थितिः, आयुः कर्मानुभूति जीवनमिति । प्रज्ञा० १६६ | आहारयोग्यस्कन्धपरिणामस्वेनावस्थानम् । प्रज्ञा ० ( ४५६ ) । भग० ६२१ । । निरया० ११ । पुतालगन रूपं ठाणुक्कुडुए - स्थानं आसनमुत्कुटुकं - आधारे यस्यासी स्थानोत्कुटुकः । भग० १२५ । पाइयो - अपूर्वः कोऽप्युत्सवः । ज्ञाता० ७३ ।' [ ठिई बृ० प्र० २८१ आ । ठामि तिष्ठामि करोमि । आव० ७७६ । ठायंतओ-तिष्ठन् । आव० ६३१ । ठायंति - स्वपन्ति । ओघ १२ । ठावका-स्थापका :- गृहस्थधर्मे दारादिसङ्ग्रहणात् । ज्ञाता० २४२ । ठावणं- अपुनर्ग्रहणं तथा स्थापनं, न्यासः, परित्यागः । जं० प्र० १४८ । ठासि स्थितवान् । आव २२८ । ठाहि-स्थितिः स्थानम् । आव० ७०८ | ठिअप्पाण-स्थितात्मा - महासत्त्व । दश० २०३ । ठिs - स्थितिः । विशे० १४ । स्थितिशब्देन देवभवो जीवितं च । जं० प्र० १५४ । स्थितिः क्वचिद्विवक्षित भवे जीवेनायुः कर्मणा वा यत् स्थातव्यं सा । भग० २८ । स्थितिः - आहारयोग्य स्कन्धपरिणामेनावस्थानम् । । आचा० ४२१ । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठिओ ] ५०१ । ठिओ-स्थिति:- कायोत्सर्गेणेषन्नतादिना । आव० ५६४ । ठिक्करिय-ठिक्करिका कपालम् । आव० ३६६ । ठिच्चा-स्थाता-आसीनो भवति । सम० ५६ ठितकप्पा - स्थितकल्पिका:- प्रथमचरम जिनसाधवः । बृ० तृ० २५४ आ । ठिति - ठिति - नरकावस्थानरूपा नरकायुष्करूपा । भग० आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः ६४३ । ठितिपए - प्रज्ञापनायाश्चतुर्थपदम् । भग० २६, ८४२ । ठितिपकप्पं- स्थिती - अवस्थाने बलिचञ्चाविषये प्रकल्प: २१७ । संकल्पः स्थितिप्रकल्पः । भग० १६७ । ठिती-साद्यपर्यवसितमुक्तिस्थितेर्हेतुत्वात् स्थितिः, अहिंसाया डंडपरिहारो - महंता जष्णकंबली सरडिता डंडपरिहारो । द्वाविंशतितमं नाम । प्रश्न० ६६ । ठितीओ-स्थितः । आव० ८३८ । ठितिणामं यद्यस्मिन् भवे उदयमागतमवतिष्ठते तद् गतिजातिशरीरपञ्चकादिव्यतिरिक्तं स्थितिनाम | प्रज्ञा० प्रज्ञा० ६४ । ठियनिसन्नो - स्थित निषण्णः । उत्त० २१६ । ठियप्पा - स्थित आत्मा यस्याऽसौ स्थितात्मा । ७५२ । ठियलेसा - स्थित लेश्या - अवस्थिततेजोलेश्याकाः । ६६ । ड डंको - डङ्कः - भक्षणदेश: । आव ० ६०५ । डंगरा - लाकुटिधारका: स्तेनाः । नि० चू० प्र० ३५८ आ । डंड - दण्ड: - दण्डिकः । आव ० ६६० बाहुप्पमाणो । नि० चू० प्र० २१३ अ ! डंडगि- उत्तरापथे कुंभकारकडस्स नगरे रण्णो । नि० चू० आव ० प्रज्ञा० [ डगलं तृ० ४४ आ । डंडपणगं। नि० चू० प्र० १८१ अ । डंडपती - डडउग्गमेति जो सो डंडपती । नि० चू० प्र० १५८ आ । नि० चू० प्र० २२६ आ । डंडाइतिउ - दण्डायतिकः । ठितीणामनिहत्ताउए-स्थितिर्यत्तेन भवेन स्थातव्यं तत्प्रधानं नाम तेन सह निघत्तमायुः स्थितिनामनिधत्तायुः । प्रज्ञा० २१७ । डंडिए - राजा । नि० चू० द्वि० १५१ आ । ठितीपए- स्थितिपदं - प्रज्ञापनायां चतुर्थं पदम् । जीवा० डंडिमं - दण्डेन - निग्रहेण निर्वृत्तं राजदेयतया व्यवस्थापितं ३८५ । दण्डमम् । विपा० ६३ । इंडियपरिग्गहे ठितो- णिसण्णो, उब्भतो । नि० चू० प्र० ३५ आ ! ठिय-स्थितं हृदिव्यवस्थितम प्रच्युतमित्यर्थः । विशे० ४०५ । ऊर्ध्वस्थित उपविष्टो वा । बृ० द्वि० ३२ आ । ठिकप्प - स्थितकल्पः प्रथमपश्चिमतीर्थकर तीर्थ कालः । बृ० द्वि० २७३ आ । डंडाइए - दण्डायतिकः - दण्डस्येवायतं - संस्थानं स: दण्डायतिकः । प्रश्न० १०७ । डंडार क्खितो - रण्णो वयणेण इत्थि पुरिसं वा अंतेपुरं ति पवेसेति वा एस डंडारक्खिओ । नि० चू० प्र० २७१ अ । इंडिया डंडिसिव्वणी डंबइल्ला - देशविशेष: । आव० १४७ । डंभणा - येरग्निप्रतापितैर्लोहशलाकादिभिः परशरीरेऽङ्क उत्पाद्यते तानि दम्भकानि । विपा० ७१ । दम्भ:मायाप्रयोगः । प्रश्न० १०६ । डक्को - दष्टः । उत्त० २१३ । नि० चू० प्र० ५२ अ । आव० ५६६ । प्रश्न० २१ । डगरं - बोलं । नि० चू० प्र० १३२ आ । ठियलेस्सा-स्थितलेश्या - अवस्थित तेजोलेश्याकाः । जीवा० डगलं- अदीहं विसमं चक्कलियागारेण जं खंड तं डगलं १७५ । ठियओ-स्थितः । उत्त० १६८ । भण्णति । नि० चू० प्र० ३४४ अ । नि० चू० द्वि० १२४ आ । नि० चू० ३५७ आ । ( ४६० ) यस्यास्ति । नि० चू० प्र० ११८ अ । । नि० चू० प्र० ७८ आ । । नि० चू० प्र० १२७ अ । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उगलका ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ . [ डाला - डगलका-इष्टकाखण्डाः । ओघ० १३३ । पुतनिर्लेपनाय | डसेखा-दशेत् । आव० ४०५ । लेष्टुकाः । बृ० प्र० ६८ आ । अधिष्ठानप्रोञ्छानार्थ- | डहणं-दहनं-उल्मुकादिभिः । आव० ५८८ । मिष्टकाखण्डका लघुपाषाणकाः । ओघ० १२२ । प्रोञ्छ- डहणो-दहन:-आचारविषये हुताशनब्राह्मणलघुपुत्रो मायानलेष्टुकाः । ६० प्र० ३०६ अ । बहुल: । आव० ७०७ । डगलग-डगलक:- पुरीपोत्सर्गानन्तरमपानप्रोञ्छनकपाषा- डहर-लघुतरम् । बृ० तृ० १५८ आ। डहरकम् । ओघ० णादिग्खण्डरूपः । पिण्ड०१। डगलक:-अपानप्रोञ्छ २१५ । लघुः । सूत्र० ३५६ । डहर:-अपरणित: बालः । नार्थ लघुपाषाणः । ओघ० १३० । दश० २४४ । आषोडशवर्षीयः । व्य० प्र० २४५ । डगलगसरक्खसूइय- ठाणा० ३३६ । क्षुल्लकः । ओघ० ७७ । लघवः । कुन्थ्वादयः सूक्ष्मा वा । डगलगा-उबलमादि । नि० चू० प्र० ७३ अ । सूत्र० २२३ । डगला-पुतप्रोञ्छनोपयोगिनो लेष्टवः । बृ० द्वि० २५३ | डहरए-डहरक-लघु । ओघ० १६६ । अ। डहरओ-डहरकः । ओघ० १५६ । लघुः । आव० ३०२, डत्ति-ड इति । आव० ७८२ । ३७१, ४१५ । डब्ब-वामः । बृ० तृ० १४८ अ । उहरगं-यावत् परिपूर्णानि पञ्चदशवर्षाणि षोडशावर्षाडमर-स्वराष्ट्रक्षोभः। सूत्र० २७८ । परराजकृत उपद्रवः । दर्वाक वा तडहरकम् । व्य० प्र० २४५ अ । आसोलजीवा० २८३ । कायवाङ्मनोभिस्ताडनादिगहनम् । सगं तु डहरगं जन्मपर्यायेण । व्य० द्वि० ११२ आ। आव० ३६६ । दुरितविशेषः । भग० ८ । परकीयग्रा- डहरक:-बालकः । उत्त० ३६५ । डहरकः । ओघ० मादिदाहकरणरतिकं राज्यम् । बृ० द्वि० ८१ आ । १६३ । व्य० द्वि० २४८ अ । क्षुलकः । आव० ८२३ । प्राणिघातादिभिस्तद्वर्जकः । उत्त० ३५७ । विड्वरस्था- | डहरतरतो-लघुतरः । नि० चू० प्र० ३५० आ । नम् । प्रश्न० ३६ । राजकुमारादिकृतवैराज्यादि विड्वरः। डहरिआ-लघ्वी । आव० ६६६ । औप० १२ । डमरः-स्वदेशोत्थो विप्लवः । व्य० प्र० डाइणि-डाकिनी-शाकिनी । प्रश्न० ५२ । १७२ अ। डमर:-विड्वरः । प्रश्न० ४३ । डमराणि- डाए-डाय-शाकम् । पिण्ड० ८४ । परराजकृतोपद्रवाः । जं० प्र०६६ । राजकूमारादि- डाग-शाकम् । आचा० ३३६ । डालप्रधान शाकम् । कृतविड्वराः । ज्ञाता० ६ । निरया० ४। डमर:- | आचा० ४११ । एकराज्य एव राजकुमारादिकृतोपद्रवः । भग० १९८ । डागो-पत्तसागो । नि० चू० प्र० १२८ आ, १९२ आ। राजकुमारादिकृतविकृतविड्वराः । राज० ११ । वस्तुलादिजिका । प्रश्न० १६३ । डाक:-वास्तुइमरकर-विड्वरकारिणः । भग० ४७६ । परस्परेण लका दिजिका । भग० ३२६ । कलहविधायकाः। ज्ञाता०५८ । डमरकर:-विड्वरकारी।। डामरिओ-डामरिकः-विग्रहकारी । प्रभ० ३६ । औप०६६ । कायवाङ्मनोभिस्ताडनादिगहनकरणशीलः। डायं-पत्रशाकः । आव० ७२६ । . आव० ४६६ । डायालो- ।नि० चू० प्र० १२० आ । इमराई-डमरकानि-अशोभनानि । आव० ५५७ ।। डालं-वृक्षशाखा । दश० १५४ । हमराणि-कुमारादिव्युत्थानादीनि । ठाणा० ४६३ । डालंडालिओ-इओ इओ पडिहिंडइ डालंडालिओ । नि० ल्ला-गवां चरणार्थं यद्वंशदलमयं महद्भाजनं डल्लेति प्रसिद्ध । चू० प्र० २८७ आ। 'द् गोकलिञ्चमुच्यते । जं० प्र० ५८ । डालगं-आम्रश्लक्षणखण्डानि । आचा० ४०५ । शाखकस-पच्चंतिया आरुदा दंतेहिं दसति तेण डस । नि० देशः । आचा० ३५४ । चू० तृ० ४३ अ । .. डाला-वृक्षशाखा । दश० २१८ (४६१ ) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिंगरा ] . आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [डंक डिंगरा-पादमूलिया । नि० चू० द्वि० १४४ अ । बिलं । नि० चू० द्वि० ७० अ। नि० चू० द्वि० ४२ डिडिम-कंशकास्यभाजनम् । आचा० ३५७ । डिण्डिम:- आ । ड्रङ्गरा:-शिलोच्चयमात्ररूपाः। जं. प्र.१६८ । प्रथमप्रस्तावनासूचकः पणवविशेषः । जं० प्र० १०१ । डोजर:-पर्वत: । ओष० २० । जीवा० २६६ । प्रथमप्रस्तावनास्तम्बकः पणवविशेषः । डोंडिणि-ब्राह्मणी, नोआगमेऽप्रशस्ते दृष्टान्तः । आव० राज० ५० । गर्भः । ६० द्वि० २५८ आ। डिंडीर-फेनः प्रचुरधवल: । प्रश्न ५० । डोंब-डोम्ब:-मातङ्गः । उत्त० १०२ । मंठो । नि० डिडीरोत्कर-फेनपुञ्जः । जं० प्र० ५५ । चू० द्वि० १०७ अ । डिब-स्वदेशोत्थो विप्लवः । जीवा०२५३ । डिम्बानि- डोंबा-जातिभेदः । नि० दि० ४३ आ । येषां गृहाणि स्वदेशोत्थविप्लवाः । जं० प्र०६६ । डिम्ब:-परानीक- सन्ति गीतं च गायन्ति ते । व्य० प्र० २३१ अ । शृगालिकः । सूत्र० २७८ । डिम्ब: । औप० १२ । डोम्बा:-लङ्घकाः-चाण्डालविशेषगायका: । व्य. द्वि० ज्ञाता० ६। भग० १९८ । ठाणा० ४६३ । राज०११ । ४१६ आ । डिभ-डिक्करूवं । नि० चू० तृ० १३ अ । अर्भकरूपाणि । डोंबिल-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । ओघ० ५१ । अर्भकः । ओघ० ५१ । डिम्भः-लघुबालः। डोए-दर्वी-वर्द्धकिः। कर्मजायां बुद्धौ चतुर्थो दृष्टान्तः । आव० ७१७ । नंदी० १६५। डोय:-बृहदारुमस्तकः । महांश्चटुकः । डिभक्खोभ-डिभक्षोभ:-गन्त्रीक्षोभः । ओघ० १४२।। पिण्ड० ८४ । डिक्करिका-दारिका । आचा० ४१३ । डोओ-डोवः-कुण्डिका । आव० ४२७ । डिक्करओ-पुत्र: । आव० ८६३ । डोग्गरं-पव्वओ । नि० चू० प्र० २६३ आ। डिक्करूवं-डिभो । नि०चू० त०१३ अ । डिम्भरूपम् । डोडकिता-वल्लयः, फलाभिमुखवल्लयः । जं० प्र० २०६ । उत्त० ३०१ । डोडिणि ब्राह्मणी अप्रशस्तभावोपक्रमे दृष्टान्तः । अनु० डित्थं-अनर्थक शब्दं निरर्थकमभिधीयते तत् । आव० ३७५ । डोडिनी-अप्रशस्तभावोक्रमे दृष्टान्तः । ठाणा० १५५ । ढुंग-डुङ्गः-शिलावृन्द, चौरवृन्दं वा । भग० ३०७ । डोब-डोम्बः-चिलातदेशवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्न० १४ । जं० प्र० १६८ । डोबा-हस्तिमिठः । बृ० द्वि० २५६ आ। डुंब-सुस्वराः । जं० प्र० १६६ । डुम्बो-मिण्ठः । पिण्ड० | डोबिलग-डोबिलक:-चिलातदेशवासोम्लेच्छविशेषः । प्रश्न १४ । । अन्त० १७ । डोल.-तिडकाः । बृ० द्वि० २५६ आ। चतुरिन्द्रियजन्तुडूसग-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । विशेषः । जीवा० ३२ । चतुरिन्द्रियजन्तुभेदः । उत्त. डेपन-लखनम् । व्य० प्र० २२३ अ । डेरगं-लघु । आव० ४०४ । डोल्लति-कम्पते । नि० चू० प्र० ३४६ अ । डेवणं-उत्प्लवनम् । गच्छ० । लखनम् । ओघ० ३४ । डोवलियं-दर्वी । आव० ८४४ । इङ्गुदीतैलान्वितम् । देहल्यादेः उल्लंघनम् । ठाणा० ४०६ । आव० ८५७ । डेविती-गच्छन्ति-परि जन्ति । वृ० द्वि० ३६ आ। डोहलो-दोहद:-स्त्रिया गर्भस्थिती या इच्छा । आव० डेवेमि-लड़यामि-अतिक्रमामि । आव० २६४ । ५०४ । डोंगर-डुङ्गराः-डुङ्गानां शिलावृन्दानां चौरवृन्दानां चास्तित्वात् डुङ्गरा:-शिलोच्याथमात्ररूपाः । भग० ३०७ ।। हंक-काकः । भग० ३०६ । हवः-लोमपक्षिविशेषः । (४६२) डुहे Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढंकयित्वा ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [णंदज्झयं जीवा० ४१ । ढङ्क:-प्रियदर्शनाप्रतिबोधकः कुम्भकार- | वेक्कियं-हप्तम् । आव० ७१९ । विशेषः । उत्त० १५६ । ढङ्क:-कुम्भकारविशेषो यः | ढेणिकालः-तिड्डः । अनुत्त० ४ । धमणोपासको जातः । प्रियदर्शनाप्रतिबोधकः । आव० ढेणिया-ढेणिका- कणिका, पक्षिविशेषः । अनुत्त०४। ३१३ । सुदर्शनासंबुद्धः श्रावकविशेषः। विशे० ६३६ ।। ढेणियालग-ढेणिकालक:-पक्षिविशेषः । प्रश्न. ८ । ढंकयित्वा-पिधाय । ओघ० १५० । ढोंढसिवा-हेलना । आव० २१६ । ढंका-ढङ्कार:-काकविशेषः । जं० प्र० १७२ । लोमपक्षि- | ढोक्कति-ढोकयति । बृ० तृ० ७८ अ । विशेषः । प्रज्ञा० ४६ । ढोयं-गमनं-मिलितुम् । आव० ६८३ ।। हंकादी-ढङ्कादिः । आव० ३४८ । .. डंकि उ-छादित्वा । आव० ६६१ । गं-एनम् । आव० १७५ । पिण्ड० १२२ । एतम् । उत्त० ढंकुण-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । १८५ । इमं भरतराजा इत्यर्थः । ज० प्र० २३३ । ढंढो-खण्ड:-ढण्ढकुमारः, जन्मान्तरनाम्ना कृषिपारासरः निश्चितम् । प्रज्ञा० ३०३ । निश्चये । प्रज्ञा० ३०३ । वासुदेवसुतः, अलाभपरीषहे दृष्टान्तः । उत्त० ११८ । तम् । बृ० प्र० १२३ आ । ढक्का-भेरी । राज० २५ । विशे० ३५३ । णंगलई-साधारणबादरवनस्पतिकायः । प्रज्ञा० ३४ । हक्कित-ढक्कयताम् । बृ० द्वि० २५ आ। णंगला-नङ्गला-ग्रामविशेषः । आव २०५। ढक्कितो-स्थगितद्वार: । व्य० द्वि० १३८ अ । | णंगलिअ-लाङ्गलिका-गलकावलम्बितसुवर्णादिमयहलधाढक्कियं-स्थगितम् । दश० १४ । रिणो भविशेषाः । जं० प्र० १४२ । हर्केति-स्थगयन्ति । बृ० द्वि० १६७ अ । गंगोला-नाङ्गोलिक नामा अन्तरद्वीप: । प्रज्ञा० ५० । ढक्केउ-स्थगयित्वा । आव० ५६१ । णंगोलाभंगसिरोधरे-लाङ्लाभङ्गवत्-सिंहादिपुच्छवक्री. ढङ्करं-यत् महता शब्देनोच्चारयन् वन्दते, कृति कर्मणि करणमिव शिरोधरा-ग्रीवा यस्य स । ज्ञाता०६६ । एकत्रिंशत्तमो दोषः । आव० ५४४ । गंगोलियदीवे । ठाणा० २२५ । । सूर्य० २८७। गंगोलिया । ठाणा० २२५ । हड्डरं-महान्तं स्वरम् । ओघ० १३७ । णतं-( देशी० ) वस्त्रशिल्पम् । आव० १३२ । हड्डरसरो-ढड्ढरस्वर:-महास्वरेण भाषकः । बृ० द्वि० ५४ | णतंए-गच्छमपेक्ष्य सदौपग्रहिकं , नन्तकं-मृताच्छादनसमर्थ आ । वस्त्रम् । आव० ६२६ । ढड्डराभासा-ढड्ढरभाषा-स्थूरस्वरभाषा। व्य० प्र० ५४ णंतगं-अणंतर्ग-कम्बलादिवस्त्रम् । ओघ० ३४ । वस्त्रम् । आ। बृ० तृ० ६८ आ। - हडरेण-उच्चः । ओघ० १७७ । णंद-नन्द:-पाटलीपुत्रे राजा । उत्त० १०५ । राजगृहे ढाविकक-ढक्कावादकः । मणिकारश्रेष्ठी। ज्ञाता० १७८ । नन्द:-कुसुमपुरराजा। ढिक-ढिङ्कः पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८ । दश० ५२ । नन्द:-चन्द्रगुप्तनिष्काशितः। दश०६१ । ढिकणे-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः। उत्त० ६६६ । नन्दः-गङ्गायां नाविकविशेषः । आव० ३८६ । नन्द:ढिंकुणा-ढिकुणा, मत्कुणाः । जं० प्र० १२४ । परिणामिकीबुद्धिदृष्टान्ते वणिगविशेषः । आव० ४३६ । हुक्कइ-ढोकते । आव० ३६६ । सम० २६ । ज्ञाता० १७८, १५२ । हुक्काहि-वज। आव० ३६६ । णदकंतं । सम० २१ । ढुक्को-स्पृष्टः । आव० ३५१ । आश्रितः । आव० ३६६ ।। णंदकूडं । सम० २१ । दुक्कोमि-आगतोऽस्मि । आव० ८१२ ।.. गंदज्झयं । सम० २१ । (४६३ ) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंदग ] आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः [ णंदोत्तरा गंदग-नन्दकः - खङ्गविशेषः । प्रश्न० ७७ । साधुजुगुप्सक: णंदिकर - नन्दिकरः - वृद्धिकरः । ज्ञाता० १८ | दिघोसा - नन्दिघोषा - स्तनितकुमाराणां घण्टा । जं० प्र० कौशाम्ब्यां जन्मदीक्षे । णंदण - सप्तमो बलदेवः । आव० १५६ | मायोदाहरणे कोशलपुरे श्रीमतीकान्तिमती पिता । आव० ३९४ । ज० प्र० ३५६ | णंदणवण - नन्दनवनं - विजयपुरनगर उद्यानम् । विपा० णंदियगो-नन्दितकः । उत्त० २७२ । ६५ । रैवतके उद्यानम् । ज्ञाता० ६६ । णंदनवणकूडे - नन्दनवन कूटं, नन्दनवन कूटनाम । जं० प्र० ३६७ । णंदणवणाणंदणवने-नन्दनवनं नन्दयति-आनन्दयति देवादीनिति । ठाणा० ८०/ नन्दनम् । णंदपभं नंदलेसं णंदवणं नंदसिंगं ४०७ । णंदिकला - वृक्षविशेषाः । ज्ञाता० ११४ । दिमित्ते जं० प्र० ३६१ । णंदावत- महाशुक्रं कल्पे विमानम् । सम० २६ । दृष्टिवादे सूत्रस्य द्वादशमभेद: । सम० १२८ । नि० चू० प्र० ५५ अ । नन्द्यावर्त :- गृहविशेषः । जं० प्र० २०९ । नन्द्यावर्त्तः - अष्टमङ्गलेषु अष्टमं मङ्गलम् । जं०प्र० ४१९ । मंदि - द्वादशतूर्यसंघातः । जं० प्र० ५३ । नन्दिः । राज । सम० २६ । | सम० २६ । । सम० २६ । | सम० २६ । दस । सम० २६ । ४०७ । गंदा - नन्दति नन्दयतीति वा नन्दः - समृद्धः समृद्धि प्रापको णंदी - नन्दी- भगवत्प्रियमित्रम् । आव० २२२ । ठाणा० वा । ज्ञाता० ५५ । ठाणा० २३०, २३१ । नन्दा - पूर्वदिगुरूचकवास्तव्या दिक्कुमारो । आव० १२२ । नन्दा - सुगुप्सामात्यपत्नी मृगावतीवयस्या च । आव० २२२ । नन्दा-अचलभ्रातृमाता । आव० २५५ । नन्दा - दक्षिणदिग्भाव्यञ्जन पर्वतस्य दक्षिणस्यां पुष्करिणी । जीवा० ३६४ । नन्दा - उत्तरपूर्व रतिकरपर्वतस्य दक्षिणस्यामीशान देवेन्द्रस्य कृष्णराजस्य राजधानी । जीवा० ३६५ । नन्दा - पौरस्त्यरुचकवास्तव्या द्वितीया 'दिक्कुमारी । । ज्ञाता० १५२ । नंदियावत्ते। ठाणा० १६८ | मंदिरुवखे - नन्दिवृक्षः - बहुबीजकवृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । दिवद्धणा- नन्दिवर्धना पूर्वदिग्रुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । १२२ । नन्दिवर्धना- पौरस्त्यरूचकवास्तव्या चतुर्थी दिक्कुमारी । जं० प्र० ३६ । नन्दिवर्द्धना-दक्षिणदिग्भाञ्जनपर्वतस्योतरस्यां पुष्करिणी । जीवा० ३६४ । दिवद्धणे - नन्दिवर्द्धनः- श्रीदामराजस्य कुमार: । विपा० आव ० ७० । णंदिसेणा । ठाणा० २३० । णंदिस्सरा - नन्दिस्वरा - वायुकुमाराणां घण्टा । जं० प्र० ३६३ । | सम० १५२ । । ठाणा० २२९ । णंदीतूरं नन्दीतूयं मङ्गलतूर्यम् । उत्त० ३०२ । णंदीफले - नन्दीफलं - षष्ठाङ्गे पश्चदशं ज्ञातम् । उत्त०६१४ । |णंदीरुक्खेणंदोसरवरणंदीसरो-नन्द्या - समृद्धघा ईश्वरः - स्फातिमानु नंदीश्वरः । जीवा० ३६५ । णंदीसरोदे-नन्दीश्वरोद :- नन्दीश्वरे द्वीपे समुद्रः । नन्दीश्वरयोरुदकं यत्रासी, नन्दीश्वरवरं द्वीपं परिवेष्टय स्थित इति नन्दीश्वरं प्रतिलग्नमुदकं यस्या सौ वा । जीवा● ३६५ । णंदुत्तर्खाडसगं - | सम० २६ । गंदुत्तरा - नन्दुत्तरा पूर्वदिग्रूचकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव० १२२ । नन्दोत्तरा - पौरस्त्य रूचकवास्तव्या प्रथमा दिक्कुमारी । जं० प्र० ३९१ । ठाणा० २३०, २३१ । ६८ । मंदिआवत्त - नःद्यावर्त्तः - प्रासादविशेषः । जं० प्र० १०६ । णंदोत्तरा - नन्दोत्तरा-दक्षिणदिग्भाव्यञ्जन पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि पुष्करिणी । जीवा० ३६४ । उत्तरपूर्व रतिकर पर्वतस्म ( ४६४ ) नन्द्यावर्तः । जं० प्र० ४०५ । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [णडवलंब पूर्वस्यामीशानदेवेन्द्रस्य कृष्णाऽभिधानमहिष्याः राजधानी। मध्ययनम् । उत्त० । जीवा० ३६५ । णग्गई-न्यग्गतिः-क्षत्रीयपरिव्राजके तृयीयः । औप० ६१ । ज-वाक्यालङ्कारे । विशे० ६८७ । वाक्यालङ्कारे । जग्गती-नग्गतिः-द्रव्यव्युत्सर्गे गान्धारजनपदे परिमपुरनगउत्त० १८१ । णगारो देसिवयणेण पादपूरणे । नि० चू० रेऽधिपतिः, यः पुष्पितानं दृष्ट्वा संबुद्धः सः । आव० ७२० । प्र० २१ अ। . णग्गभावे ज्ञाता० २२७ । उअंगाति । ठाणा० ८६। णग्गोधपरिमंडलं-न्यग्रोधपरिमण्डलं-न्यग्रोधवत् परिमण्डलं णउआति । ठाणा० ८६। यस्य यथा न्यग्रोध उपरिसम्पूर्णः प्रमाणोऽधस्तु हीनपउए । भग० २१० । स्तद्वत् यत्संस्थानं, नाभेरुपरि संपूर्णमधस्तु न तथा, उपरिणउलओ-नकुलकः । दश० ३५। विस्तारबहुलमिति भावः, द्वितीयं संस्थानम् । जीवा. णउलग-नकुलकम् । उत्त० २७६ । ४२ । णउलो-नकुलः । प्रश्न० ८ । णग्गोह-न्यग्रोधः, वृक्षविशेषः । प्रज्ञा०३२ । भग० ८०३ । णओ-नयः । प्रज्ञा० २८४ । सम० १५२ । णकर-ण करा जत्थ तं णकरं । नि० चू० द्वि० ७० । णग्गोहमंडले-न्यग्रोधमण्डलं- विस्तारबहुलं संस्थानम् । णक्का-मत्स्यविशेषाः । प्रज्ञा० ४४ । आव० ३३७ । णक्खत्तं-नक्षत्राणि । सूर्य० १०० । नक्षत्र-राज्याभिषे. णच्चाविय-नर्तयितव्यः ! ओघ० १०८ । कोपयोगि श्रुत्यादित्रयोदशनक्षत्राणामन्यतरत् । जं० प्र० | | णज्जति-ज्ञायते । आव० ३०० । २७३ । ण-गीतेण विरहितं णटुं । नि० चू० तृ० १ अ । णक्खत्तविजये-विचयनं-विचयो नक्षत्राणां नक्षत्रविचय:- नटा:-नाटयितारः । नृत्यन्ति स्म नृत्ता:-नृतविधायिनः । नक्षत्राणां स्वरूपनिर्णयः । सूर्य० १७५ । जं० प्र० १२३ । णक्खत्तसंवच्छरे-यावता कालेनाष्टाविंशत्यपि नक्षत्र:- गट्टमालए-नृत्तमालक:-खण्डप्रपाताधिपतिः । जं० प्र० सह क्रमेण योगपरिसमाप्तिस्तावान् कालविशेषो द्वादशभि- ७४ । गुणितो नक्षत्रसंवत्सरः । सूर्य० १५३ । ठाणा० ३४४ । । णट्टमालगे-नाट्यमालकः, नृत्तमालकः । जं० प्र० २५५ । णक्खत्तसीमच्छेए-नक्षत्रसीमाछेदः । सूर्य० २४७ । । णमाला-नृत्तमालाः । जं० प्र० ९८ । एकोरुकद्वीपे णक्खत्ता-नक्षत्राणि-अश्विन्यादिरेवत्यन्तानि, सोमस्या- | वृक्षविशेषः । जीवा० १४५ । ज्ञोपपातवचन निर्देशवतिन्यो देवताः । भग० १६५। णट्टवाइत्तं-नर्तकीत्वम् । बृ० तृ० २४७ आ । णगधारा-पर्वतनितम्बः । नि० चू० प्र० ३४५ आ । णविही-नाट्यविधिः- सामान्यतो नर्तनविधिः । जीवा० णगरं-करो जत्थ न विज्झति णगरं । नि० चू० प्र० २४७ । नृत्यविधि:-नाट्यकरणप्रकारः । जं० प्र० २५६ । २२६ अ । नगरम् । सूत्र० ३०६ । णहि-द्वात्रिंशत्पात्रोपलक्षित ट्यैः । उत्त० ३८६ । जगरगुत्तिय-नगरगुप्तिकः । विपा० ५२ । णमतीते-चक्षुर्ज्ञानस्य विषयानिश्चायकत्वात् । ज्ञाता० णगरनिद्धमण । प्रज्ञा ५० ।। णगररक्खिओ-कोटवालो । नि० चू०प्र० १६५ अ । -नष्टसंज्ञो मनसो भ्रान्तत्वात् । ज्ञाता० २३० । गरविणट-नगरविनष्टः । आव० ६६ । -नष्टश्रतिको-निर्यामकशास्त्रेण दिगादिविवेचगराति-नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि । ठाणा० ८६ । नस्य करणे अशक्तत्वात् । ज्ञाता० २३० । णगा-पव्वता । नि० चू० प्र० १९ आ। णड । नि० चू० तृ० १८ अ । णगारमग्गे-अनगारमार्ग:-उत्तराध्ययनेषु पञ्चत्रिशत्तम- डवेलंबं-बालरोदनादि । नि० चू० द्वि० १०६ अ । (अल्प० ५६) (४६५ ) . ३० Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा ] गडा - णाडगाणि णट्टे वा । नि० चू० द्वि० ४३ आ । नि० चू० प्र० २८४ अ । डेइ - बाधते । आव ० २१५ । णत आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः । सम० ३७ । तावगोज्जोआ । नि० च० ७ । णत्तं भागा - नक्तं भागानि - चन्द्रस्य समयोगीनि । ठाणा० ३६८ । वा । प्रश्न० ७० । पत्ता - नसा- पुत्रपुत्रः । जं० प्र० १४६ तिण्णो- गिलाणो । नि० चू० तृ० ८२ आ । णत्ती-ज्ञप्तिः, आदेश: । बृ० प्र० १६२ आ । जयमाला - एकोरुकद्वीपे वृक्षविशेषः । जीवा० १४५ । यरगुत्तिय - नगरगुप्तिकः । आव० ३७१ । जयरमयहरो - नगर महत्तरः | आव० ४२६ । " तुणिअत्ति- नप्तः । दश० २१५ । यरिबाहिरिया - नगरी बाहिरिका । आव० ४२६ । णत्थं न्यस्तं - साध्वर्थमुपकल्पितं अर्द्धदत्तं वा । सूत्र० णयवादसुहुमया - णेगमादिसत्तणया एक्केक्कते सत्तविधो १०६ । तेहि सभेदा जा दव्वपरूवणा दिट्टिवाए कज्जति । नि० चू० तृ० ६७ आ । नरकन्ता - नरकान्तानदीदेवीकूटम् । जं० प्र० ३८० । णरवाम- पुरुषव्यामः- सुप्रसारितः । जं० प्र० २ε। णरवाहण। नि० चू० प्र० २५७ आ । णरसीहरूव-नरसिंहरूपः । ज्ञाता० २१६ । णल - पर्वतविशेषः । प्रज्ञा० ३३ ॥ लगिरि - प्रद्योतनस्य हस्तिः । नि० चू० प्र० ३४८ आ । जलदाम - नलदामा कुसुमपुरे कोलिकः । दश० ५२ । लिअंगे - नलिनाङ्ग चतुरशीत्या लक्षः पद्मः । अनु० १०० । । सूर्य० २८७ । णलिणंगं- नलिनाङ्ग - चतुरशीतिः पद्मशतसहस्राणि । जीवा० ३४५ । लिगंगाति णदिणिसेज्जा-नदीतीरे नषेधिकी । मर० । । नि० चू० द्वि० ७८ अ । । ठाणा० ८६ । दिमुहणदीतिनदीम हो - नदीमहः - नदीसत्क उत्सवः । जीवा० २८१ । | पुंगवेदो-तणकट्टमहासंचय चिविधिघणघोरजणियमणुव संतो तत्तलक्खणो महाणगरड्डाहसमाणो । नि० चू० द्वि० ३१ अ । णपुंसगवेय- नपुंसक वेदः - स्त्रीपुंसोरप्यभिलाषः । जीवा० १५ । णभसूरए - णभसेणो - नभःसेनः - उग्रसेनपुत्रः । आव० ९४ । णमंसइ - नमस्यति - प्रणमति । जं० प्र० १५९ । णमंसण - नमस्यनं - प्रणमनम् । ज्ञाता० ४५ । णमंसमाणे - नमस्यन्- प्रणमनु अभिमुखः । ज्ञाता० १० । णमइ - नमति - प्रव्हीभवति । उत्त० ६५ । मि- नमिः - श्री ऋषभस्वामि महासामन्तकच्छसुतः । जं० प्र० २५२ | आव० १५१ । नमिः - परीषहोपसर्गादिनमनात्, एकविंशतितमो जिन: । आव० ५०६ । मिपव्वज्जा - नमिप्रव्रज्या - उत्तराध्ययनेषु नवममध्ययनम् । उत्त० ६ । णमुदए । भग० ३७० 1 णमोक्कार - नमस्कारः - नमस्करणम् 'णमो अरिहंताणं' [ णलिणा अयम् । दश० १८० । आव० ६८५ । णमोक्कारसहिता - नमस्कारसहितः । आव० ८३८ 1 णय गई- नयगतिः - यनयानां नंगमादीनां स्वस्वमतपोषणं, यद्वा यन्नानां सर्वेषां परस्परसापेक्षाणां प्रमाणाबाधितवस्तुव्यवस्थापनं सा । प्रज्ञा० ३२६ । णयणकता - नयनकान्ताः - लोचनाभिरामाः परिणयनभर्तारो । ठाणा० ८६ । लि- नलिनं - ईषद्रक्तं पद्मम् । राज० ८ नलिनं चतुरशीतिर्न लिनाङ्गशतसहस्राणि । जीवा० ३४५ । नलिनं चतुरशीत्या लक्षैर्नलिनाङ्गः । अनु० १०० । नलिनो विजयः । जं० प्र० ३५७ । जलरुहविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । णिकूड - नलिनकूटं वक्षस्कारपर्वतः । जं० प्र० ३४६ | नलिनकूट नाम वक्षस्कारपर्वतः ॥ जं० प्र० ३४६ । ठाणा० ३२६ । णलिणा- नलिना, पुष्करिणी नाम । जं० प्र० ३३५ । ठाणा० ८० । जं० प्र० ३६० । ( ४६६ ) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलिणावई 1 अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ णागदत्ते णलिणावई-नलिनावती विजयः । सलिलावतीति पर्यायः ।। जं० प्र० १४१ । जं० प्र० ३५७ । णवयए-नवत्वक्-दुष्प्रतिलेखितष्यपञ्चके चतुर्थो भेदः । णलिणिगम्म-नलिनिगुल्म-सौधर्मकल्पे विमानविशेषः । आव० ६५२ । उत्त० १६० । आव० ३१६ । पुष्कलावतीविजये पुण्ड- णवरी-केवल इत्यर्थः । नि० चू० प्र० १० अ । रोकिणीनगर्यामुद्यानविशेषः । उत्त० ३२६ । णवायए-नवायत:-नव हस्तायतः । ज्ञाता० ६६ । पलिणिवणे-पुण्डरीकिणोनगर्या उद्यानविशेषः । ज्ञाता. णविया-नविका:-अग्रेतन भवभाविनी। ज्ञाता० २४१। २४२ । णहरणी- ।नि० चू० द्वि० १८ अ। णल्लग-नल्लकः । जं० प्र० १०१ । णहसिहा-नखाग्राः । नि० चू० प्र० १६० अ। णवं-नव-अभिनवम । सर्य०१८ । णहा-नखा-नखराः । ज्ञाता० १३६ । णवंतेपुरं-जोब्वणयुत्ता परिभुञ्जमाणीओ । नि० चू० प्र० णांगोली-नाङ्गोलिक:-अन्तरद्वोपविशेषः । जीवा० १४४ । २७१ अ । णाइ-ज्ञाति:-सजातीयः । भग० १६३ । ज्ञाति:-समानणवग-पासत्यादि पंच काहिकादी चउरो। नि० चु० द्वि० जातीयाः । विपा० ५८ । ६२ अ । णाइए-नादितं, प्रतिरवः । जं० प्र० १६२ । णवग्गाई-प्रत्यासन्नानि । बृ० तृ० ४३ अ । णाइलो-नागिल:-श्रमणोपासकः,चम्पायां सुवर्णकारकूमारणवणोइआगुम्मा-नवनीतिका गुल्माः । जं० प्र०६८।। नन्दिनो मित्रम् । आव० २६६ । णवणीतं-नवनीतं-म्रक्षणम् । जीवा० १६२ । णाई-ज्ञाति:-मातुलादिस्वजन: । औप० ८९ । ज्ञाति:णवणीयं-नवनीतं-म्रक्षणम् । सूर्य० २६३ । सजातीयः । औप० १०३ । ज्ञाता:-क्षत्रिया ज्ञातं वा णवतगच्छई- । नि०चू० प्र० ३२६ आ।। वस्तु जातं विद्यते यस्य स ज्ञाती, विदित समस्तवेद्य इति । णवपज्जए-नवं-प्रत्यग्रं प्रतापितस्यायोधनकुट्टनेन तीक्ष्णं । सूत्र० ३६६ । कृतस्य पायनं-जलनिबोलनं यस्य तन्नवपायनम् । भग० | णाए-ज्ञातं-प्रसिद्धं दृष्टान्तभूतं प्रधानं वा। सूत्र० १५० । ६५० । णाओ-निश्चये नायनं-विशिष्टस्थानप्राप्ति लक्षणं यस्मिन् णवपज्जगए-नवं-प्रत्यग्रं पायनं-जोहकारेण तापितं कुट्टितं | सति सः न्यायः-सम्यकचारित्रावाप्तिरूपः चारित्रयोगः । तीक्ष्णधारीकृतं पुनस्तापितानां जले निबोलनं यस्य तत् । सूत्र० १९७। ज्ञाता० ११६ । .णाग-द्रमविशेषः । जं० प्र० ४६ । नाग:-भवनपति णवमिआ-नवमिका-पाश्चात्यरूचकवास्तव्या षष्ठी दिक्कु- विशेषः । जं० प्र० १२३ । नागो-वक्षस्कार: पर्वत । मारीमहत्तरीका । जं० प्र० ३६१ । जं० प्र० ३५७ । नाग:-द्रुमविशेषः । जीवा० २०० । णवमिका-नवमिका-पश्चिमरूचकवास्तव्या षष्ठी दिवकु- नाग:-द्वीपविशेषः समुद्रविशेषश्च । जीवा० ३७० । मारी । आव० १२२ । नाग:-नागवंशप्रसूतः । औप० २७ । णवमिता। ठाणा० २०४ ।। णागजत्ता ।नि० चू० प्र० २६१ अ। णवमिताते । ठाणा० २३१ । णागदंतगा-नर्कटिको, अङ्कुलिको । जं० प्र० ५० । पवमिया-नवमिका दक्षिणपश्चिमरतिकरपर्वतस्यापरस्यां | णागदंत-नागदन्त:-अङ्कुटक: । राज० ६४ । जीवा. गोस्तूपराजधान्यधिष्ठात्री शकदेवेन्द्रस्य तृतीयाऽग्रमहिषी।। ३६१ । जीवा० ३६५ नवमोत्क्षेपस्य षष्ठमध्ययननाम । ज्ञाता. णागदत्ता । सम० १५१ । २५३ । णागदत्ते-नागदत्तः-मणिपुरनगरे गाथापतिः । विपा. पवमीपक्ख-नवमीपक्षः-अष्टमीदिवसः, नवमीदिवसः । ६५ । ( ४६७ ) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णागदारे] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [णाम णागदारे । ठाणा० २३० । णाणपुलात-ज्ञानपुलाक:-पुलाकस्य प्रथमो भेदः, ज्ञानणागनत्त-नागनप्ता वरुणनामा। भग० ३२० । निस्सारत्वं य उपति स पुलाकः । उत्त० २५६ । णागपवता । ठाणा० ८०। स्खलितमिलितादिभिरतिचारनिमाश्रित्यात्मानं असारं णागपन्वते । ठाणा० ३२६ । कुर्वनु ज्ञानपुलाकः । ठाणा० ३३७ । णागपुर-नगरविशेषः । ज्ञाता० २५२ । मोहयति आगच्छतीति ज्ञानमहः-ज्ञानाणागपुष्फ-नागपुष्पं नागकेसरकुसुमम् । जं० प्र० १८३ । वरणोदयः । ठाणा० ६६ ।। णागभद्दो-नागभद्र:-नागद्वीपे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० | णाणसंकिलेसे-ज्ञानस्य सङ्क्लेश:-अविशुद्धयमानता स ३७०। ज्ञान सङ्क्लेशः । ठाणा० ४८६ । णागमहामहो-नागमहाभद्रः नागद्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । णाणविणए-ज्ञानविनयो-मत्यादिज्ञाननां श्रद्धानभक्तिबहुजीवा० ३७० । मानतदृष्टार्थभावनाविधिग्रहणाभ्यासरूपः । भग० ६२४ । णागमहावरो-नागमहावर:-नागसमुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । णाणायरे-ज्ञानाचार:-श्रुतज्ञान विषयः कालाध्ययनविनय. जीवा० ३७० । ध्यानादिरूपो व्यवहारोऽष्टधा । सम० १०८ । णागरगो-नागर:-पौरः । आव० ४०६ । णाणायारे-आचरणमाचार:-व्यवहारो ज्ञान-श्रुतज्ञानं णागरुक्खे । सम० १५२ ।। तद्विषय आचार: कालादिरष्टविधो ज्ञानाचारः । ठाणा० णागलया-लताविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । वल्लोविशेषः ।। ६४ । आचरणमाचारो ज्ञानादिविषयाऽसेवेत्यर्थः । ज्ञानाप्रज्ञा० ३२ । चार:-कालादिरष्टधा । ठाणा० ३२६ । . णागवरो-नागवरः-नागसमुद्दे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० णाणिवे-ज्ञानेन्द्रः-ज्ञानेन ज्ञानस्य ज्ञाने वा इन्द्रः परमेश्वरो ३७० । ज्ञानेन्द्रः अतिशयवच्छ्रुताद्यन्तरज्ञानवशविवेचितवस्तुविणागवोहो । ठाणा०४६८ ।। स्तार:-केवली वा । ठाणा० १०४ । णाडइज्जो-नाटकीयः-नाटकप्रतिबद्धपात्रः । ज्ञाता०४०।। णाणिड्डी-ज्ञानद्धिः-विशिष्टश्रुतसम्पत् । ठाणा० १७३ । आव० ३५६ । णाणुप्पयं-ज्ञानस्योत्पादनमुत्पत् ज्ञानोत्पत् । उत्त० ३२२, णाडगविही-नाटकविधिः अभिनयप्रबन्धप्रपञ्चनप्रकारः । २८४, ३०६ । जं० प्र० २५६ । णात-दृष्टान्तः । नि० चू० प्र० २८५ आ। ज्ञातंणाढाइ-नाद्रियते । आव० ३७४ । ज्ञायते अस्मिन् सति दान्तिकोऽर्थ इति अधिकरणे णाणं-ज्ञानम् । आव० ७६३ । कप्रत्त्योपादानात् ज्ञात-आख्यानकरूपं उपमानमात्र उपणाण-ज्ञान-श्रुतज्ञानम् । ठाणा० ६४ । ज्ञातम् । ठाणा० मिति मात्रम् । ठाणा० २५४ । ३२७ । णातगं-ज्ञातकं-स्वजनम् । ६० द्वि० १८८ आ । णाणकुशील-कषायकुशीलोऽप्यवं नवरं क्रोधादिना विषया- णाता-समत्थो गीयत्थो वा । नि० चू० प्र० २२१ । दिज्ञानं प्रयुज्जानो ज्ञानकुशीलः । ठाणा० ३३७ ।। णाभी-लोकनाभिः, मेरुनाम । जं० प्र० ३७५ । ऋषभणाणत्तं-विसेसो । नि० चू० प्र० १३३ मा। वर्णादि- देवपिता । सम० १५० । नाभि:-मध्यः । आव० ४३७ । कृतं नानात्वम् । भग० ७४१ ।। नाभि:-चतुर्दशं कुलकरनाम । जं० प्र० १३२ । सगडर. णाणनाणोपगए-ज्ञानज्ञानोपगतः-ज्ञानमिह श्रुतज्ञानं तेन | हाइण भवइ । दश० चू० १११ । ज्ञानं-अवगमः प्रक्रमाद् यथावक्रियाकलापस्य तेनोपगतो. णाभोगे-अनाभोगः-विस्मृतिः । ठाणा० ४८४ । युक्तः । उत्त० ४८७ । | णाम-यथाभूतार्थनिरपेक्षमभिधानमात्र नाम । आचा. णाण पवायं-पञ्चमं पूर्वनाम । ठाणा० १६६ । । ६१। नामपदं-अव्युत्पन्नेतरभेदाद् द्विधा । प्रभ० ११७ । ( ४६८ ) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णामगं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [णाविया नामकर्मणउत्तरप्रकृतिविशेषरूपम् । प्रज्ञा० २१७ । कृष्णः । आव० ६४ । विभक्तिपरिणामेन नाम्नेति । जं० प्र० प्रस्ता० १५।णारी-नारीकूट-नारीकान्तानदीसुरीकूटम् । जं० प्र. प्राकृतत्वात् विभक्तिपरिणामेन नाम्ना । जं० प्र० ३७७ । प्रस्ता० ४७ । नाम-शास्त्रीयउपक्रमः । आचा० ३ । | णारीकन्ता-नारीकान्ता-नदीविशेषः । जं० प्र० ३७६ । णाम इति पादपूरणे, अहवा णाम इत्युपसर्गः, अयं वार्थः | ए-नारीकान्तायाः । जं० प्र० ३७६ । विशेषे। नि० चू० द्वि० ६६ अ । पादपुरणे, अवधारणे। णालंद-सूत्रकृताङ्गस्य त्रयोविंशमध्ययनम् । उत्त० ६१६ । नि० चू० प्र० २१२ अ । शिष्यामन्त्रणे । जं० प्र० णालंदइज्ज-सूत्रकृताङ्गे त्रयोविंशमध्ययनम् । सम०४२ । णालंदा-नालंदा-राजगृहे शाखापुरम् । आव० १६६ । मामगं-नामकं प्रतिज्ञा । उत्त० १०१ ।। णालबद्धं-नालबद्धम् । जीवा० १३६ ।। णामधेज्जा-सार्थकाणीत्यर्थः । नि० चू० प्र० ५ अ । णालबद्धा-माता-पिता-भ्राता आदि । नि० चू० तृ० णाय-निश्चित आयः । लाभ: न्यायः मूक्तिः । उक्त०२१३ । ३० अ। ज्ञातं-सामान्येनावगतम् । भग० ६५ । ज्ञातं सामान्यतः। णालातिबद्धणं- ।नि० चू० प्र० २११ आ। भग० ३१६ । ज्ञातं-ग्रन्थः। आव०६७७ । उदाहरणम् । णालिआ-नालिका-यधिविशेषः । जं० प्र०१४ ।। ज्ञाता० १० । दृष्टान्तः । ६० तृ० २६ अ । ज्ञातः- णालिएरिवणं-नालिकेरवनम् । जीवा० १४५ । इक्ष्वाकुवंशविशेषभूतः । औप० २७ । ज्ञातः-उदार- णालिएरी-वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । क्षत्रियः । उत्त० २७० । नावः । उत्त० १५० । णालि-घडिया । नि० चू० प्र० २२ आ । णायए-नायकः प्रणेता, यथावस्थितवस्तुस्वरूपप्रणेतृत्वम् | णालिआ-नालिका । आव० ३६० । च । सूत्र० २५४ । प्रधानः न्यायको वा । ज्ञाता० णालिउ-घडिउदग गलेणो व लक्खितो कालो । नि० चू० ६७ । ज्ञाति-बन्धुः। सूत्र० १७१ । ज्ञातक:-स्वजातीयः तृ० ११८ आ। यद्वा ज्ञातक:-संवासादिना ज्ञात:-सहज परिचितः । जं०णाले-नालं-कन्दोपरिमध्यवर्त्यवयवः । जं० प्र०२८४ । प्र० १२३ । | णावणिज्जुत्तीए-एतेहिं सुत्तपदेहिं सव्वे उग्गमुप्पादणणायग-स्वामिनो ज्ञानादि प्रापका वा । व्य० प्र० २३५।। एसणा दोसा य सूचिता तेण । नि० चू० तृ० ६३ अ । णायगो-स्वजनः । नि० चू० प्र० २६८ आ । स्वजन: | णावत्ति-पसत्ती । नि० चू० प्र० १२१ आ । नातगो-प्रज्ञायमानः । नि० चू० द्वि० २५ अ । णावमज्जे-(णायमेज्जा) नाचमेत-न निर्लेपनं कुर्यात् । णायज्झयणा-ज्ञातानि-दृष्टान्तास्तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि सूत्र० १८१ । षष्ठाङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धवर्तीनि । सम० ३७ । णावाकडए-नावाकटकं-नौशकलम् । आव० ४०१ । णायपुत्ते-ज्ञातपुत्रः-वर्तमानतीर्थाधिपतिर्महावीर इति ।। णावाकडओ-नावाकटकं नौशकलम् । आव० २१४ । उत्त० २७० । णावागती-नावागतिः यन्नावा महानद्यादौ गमनं, विहाणाया-ज्ञाता:-उदारक्षत्रियाः । बृ० द्वि० १५२ अ।। योगतेः सप्तमो भेदः । प्रज्ञा० ३२७ । कुलार्यभेदः । प्रज्ञा० ५६ । णावाभूयं-नोभूतं-नौतुल्यम् । जं० प्र० २२० । णारए-नारदः । औप० ९१ । णावावाणियगा-नौवाणिजका:-पोतवणिजः । ज्ञाता० णारदो-द्वारकायां ऋषिः । आव० ६४ । १३६ । णारायं-नाराचम् । जीवा० ११७ । नाराचा:-सर्वलोह- णावासंठिते-नौसंस्थितम् । सूर्य १३० । बाणः । जं० प्र० २०६ । णाविय-नाविक:-कैवर्तः । ज्ञाता० १५६ । णारायणो-कमलामेलोदाहरणे द्वारकाधिपतिः, नारायण:- । णाविया-नौका-द्रोणिका । भग० २१९ । ( ४६६) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णासकरणं ] आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ णक्खुडाजि णास करणं - णासारिसादिरोगणासणत्थं णासकरणं । नि० णिओदणं - भिक्खकुरो । नि० ० प्र० ३२८ अ । णिकट्ठा - निकृष्टा - कोशाद्वहिष्कृता असियष्टिः । २३६ । चू० द्वि० ८६ अ । ज्ञाता• णासिऊणं- नंष्ट्रा । दश० ११ । णासिककं - नासिक्यं, पारिणामिकी बुद्धिदृष्टान्ते नगरम् । णिकसो -सद्भावः । उप० गा० ४१५ । णिकाईयं - निकाचितम् । उत्त० १७४ | आव० ४३६ । णासो - नियतं निश्चितं वाऽऽसनं नामादिरचनात्मकं क्षेपणं णिकायकाय - निकायकाय :- षड्जीवनिकायः । दश ० १३४ । णिक्कंकड - निष्कवचा, निरावरणाः । जं० प्र० २१ । न्यासः - निक्षेपः । उत्त० ७२ । निष्कङ्कटा: - निष्कवचा निरावरणा: । औप० ११५ । णिक्कतारं - निर्गतः कान्तारान्निष्कान्तारस्तन्निष्क्रमितारं णाह - नाथ:- योगक्षेमकारिनु । ज्ञाता० १६७ । नाहरा- सणफया । नि० चू० तृ० ८ आ । णित-निर्गच्छन् । ओध० १० । निन्तो निर्गच्छन् । आव० णिताणं-निर्गच्छत् । नि० चू० प्र० १२० आ । २६५ । णिदणया - निन्दनं - आत्मनैवात्मदोषपरिभावनम् । उत्त० ५७६ । आव० २०५ । णि दुयं - निर्दुतं निर्यातं मृतमिति । विपा० ५१ | णिदू - निन्दु: - म्रियमाणप्रजनिका स्त्री । fe:- मृतापत्यप्रसूः । आव० ३६७ । fra - निम्ब:, एकास्थिकवृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । णिवोलियाए- निम्ब गुलिका - निम्बफलं निर्दोलिता निम ज्जिता । ज्ञाता० १६६ । णिअं सेइ - निवासयति परिधापयति । जं० प्र० १६१ । णिअग - निजकाः - मातापितृभ्रात्रादयः । जं० प्र० २७० ॥ णिअमो - नियमः शौचादिः । जं० प्र० ५२२ । णिअल्लओ - निजक: । दश० ११ । णिइंति-निर्यान्ति-निर्गच्छन्ति । प्रश्न० ११५ । णिइयं - नैत्यिक-सार्वदिकमवस्थितं मनुष्यपोषादिप्रमाणम् । प्रश्न० १५४ । णिउडुक्कुडिया - निकृत्युत्कटता । आव० २०६ । णिउण- निपुणम् । प्रश्न० ३६ । सुमो । नि० ० १३ अ । ० णिउत्तो नियुक्त: । आव० ८१६ । णिउर - वृक्षविशेष: । ज्ञाता १६१ । णिओइओ - चोदितो । नि० चु० द्वि० ९१ अ । णिओगी - नियोगी - कृत्यकरः । उत्त० ३०५ । णिओगे - नियोगः- उपकरणम् । जं० प्र० ४०३ । वा । ठाणा० ११५ । णिक्क - सर्वथा विगतमलः । ज्ञाता० ५३ । fuaa लिस्सति णिक्कसाए | सम० १५३ । णिक्का-सारणी । नि० ० प्र० ७२ आ । अनेकaisiजुत्ताओ णिक्का । नि० चू० द्वि० ७० आ । णिक्किव - निष्कृपः - मम दुःखिताया अप्रतीकारात् । ज्ञाता• १६७ । । नि० चू० प्र० १७२ अ । णिक्कोडणं-निष्कोटनं बन्धनविशेषः । प्रश्न० ५६ । णिक्कोरणं-मुहस्स अवणयणं णिक्कोरणं । नि० चू० द्वि० १२१ आ । णिक्खमइ - निक्षिप्यते । दश० ५४ । णिक्खमणं - निष्क्रमणम् । आव० ५१४ । णिप्फेडणं । नि० चू० प्र० २५८ आ । णिक्खमे - निष्क्रामेत् गच्छेत् । उत्त० ५६ । णिक्खित्तं - णाम गरलिगाबद्धं स्थापयति । नि० चू० प्र० ८३ आ । णिक्खित्तचरगा - गोचरचर्यायामभिग्रहविशेषः । नि० चू० तृ० १२ आ । णिक्खिवति गोपयति । नि० चु० प्र० ८ ३ आ । पहे मुंचति । नि० ० प्र० २१३ अ । गोपयति । नि० प्र० ८३ अ । णिक्खुडं - निष्कुटं भागम् । जं० प्र० २५५ । निष्कुटं - कोण वर्ति भरत क्षेत्र खण्ड रूपम् । जं० प्र० २१८ । णिक्खुडाण - निष्कुटानि - अवान्तरक्षेत्रखण्डरूपाणि । जं० प्र० २१८ । ( ४७० ) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिक्खेवगणक्खित्तं ] अल्पपरिचित सैद्धान्तिक्शब्दकोषः, भा० ३ णिक्खेवगणक्खित्तं - निक्षेपकनिक्षिप्तम् । आव ० ६७ । गिगओ - निगम :- वणिग्जननिवास: । प्रश्न० ५२ । निगमः कारणिकः, वणिग् वा । औप० १४ । निगमः - प्रभूततरवणिग्वर्गावासः । प्रज्ञा० ४७ । णिगमण निगमनं प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचनं निगमनम् । दश० ६२ । णिगमा निगम :- कारणिका:; वणिजः । जं० प्र० ११० । वणिग्विशेषा: । बृ० द्वि० ४५ अ । णिगरिअ - निगरितं - सारीकृतम् । जं० प्र० १११ । णिगिणं जग्गं । नि० चू० द्वि० ३८ अ । णि गिणाउ - मुक्तपरिघाना | आच० ३७१ । णिगिणिणं - नाग्न्यम् । उत्त० २५० । णिगुंजमाणी - विगुञ्जन्ती - अव्यक्तशब्दं कुर्वन्ती । ज्ञाता ० [ णिज्जितं णिग्घोसो - निर्घोषः महाध्वनिः । औप० ७३ । निर्घोषः महाध्वनिः । प्रश्न० २० । णिच्चरिणयंसणं-जं दिया रातो य परिहिज्जेइ । नि० चू० द्वि० १६२ अ । णिच्चालोए - अष्टाशीतौ महाग्रहे चतुष्षष्ठितमः । ठाणा० ७६ । णिच्चालोयं - नित्यमालोको - दर्शनं - दृश्यमानता यस्य तत् नित्यलोकम् । जीवा० ३६८ । णिच्छउ - परमार्थ: । नि० चू० प्र० ६७ अ । निच्छय-निश्चय:- निर्णयः निर्गतकर्मचयो निश्चयः - मोक्षः । प्रश्न २ । तत्त्वानां निर्णयः । ज्ञाता० ७ । णिच्छल्लेति-त्वचं अवणेति, महामणि प्रकाशयति । नि० १५८ । णिगुणं - निगुणं निहतगुणम् । प्रश्न० ३६ । णिगुहिज्जा - अवगूहयेत्- प्रच्छादयेत् । आचा० ३५४ । णिगोय - निगोदा: - कुटुम्बानि । जं० प्र० १७१ । णिग्गंथा-खमणा । नि० चू० द्वि० ६८ अ । णिग्गमं - वणिया जत्थ केवला वसंति तं निग्गमं । नि०णिजुता नियुक्ता स्थापिता । जं० प्र० ५१ । णिग्धायण - निर्घातनं विश्लेषणम् । जं० प्र० १५० । णिग्विण - निर्घृण:- निर्दयः । शाता० १६७ । चू० प्र० ११६ आ । णिच्छाणं - निःस्थानं स्थान वर्णितम् । विपा० ५७ । णिच्छुभते - आददाति तुदति । आव० १०२ । णिच्छुहति - निस्पृशति । उत्त० २७७ । णिच्छूढं - निष्ठ्यूतम् । दश० ३८ । भितिघाडयति । नि० चू० प्र० ३०३ अ । चू० प्र० २२६ अ । २१२ । णिजुद्धं - नियुद्धम् । उत्त० १६२ । सव्वसंधिविक्खोवणं णिजुद्धं । नि० चू० द्वि० ७१ अ । णिज्जं तो - नीयमानः । आव० ६३१ । णिग्गमए - प्रस्थानम् । नि० च० प्र० १५८ अ । णिग्गयरिणो - कृत प्रत्युपकारा । नि० चू० प्र० २६२ आ । णिग्गया - निर्गता - जे तवं वोलीणा छेदादिपत्ता । नि० चू० तृ० १२२ अ । णिज्जरापोग्गलो- निर्जरापुद्गलः - अपगतकर्मभावः -परमाण: । प्रज्ञा० ३०३ । णिज्जाणं णगर गाय वा जं ठियं तं । नि० चू० प्र० २६५ अ । निर्याणं - अनावृत्तिकगमनम् । औप० ८० । णिज्जयि केणाइ - नगरनिर्गमगृहाणि । भग० ६१७ । णिग्गिलिओ - निगिलितः । आव० ३६५ । णिग्गुणा - निर्गुणा:- उत्तरगुणविकलाः । जं० प्र० १७१ । णिग्गू - गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । णिग्गोहवरपायव - न्यग्रोधवरपादपः । जं० प्र० १५० । णिज्जानिया - रायादियाण निगमणं ठाणं । नि० चू० णिग्धरिस - कषपट: । नि० चू० प्र० २४२ आ । णिग्घा - निर्घात:- वै क्रियाशनिप्रपातः । प्रज्ञा० २६ । णिग्धाएति - गालयति । नि० चू० प्र० ११७ आ । णिग्धाओ - निर्घातः - गगने व्यन्तरकृतो महाध्वनिः । प्रश्न० प्र० २६५ अ । णिज्जामिय-निर्यामितः । उत्त० १३३ । णिज्जास - निर्यासः रसः । जं० प्र० १०० । निर्यासः । ओघ ० १०० । णिज्जाहि-निर्यास्यति - निर्गमिष्यति । ठाणा० ४५६ ॥ णिज्जिए - निर्जितः भग्नबलम् । जं० प्र० २७७ । णिज्जितं - उपार्जितम् । नि० चू० द्वि० १०६ अ ( ४७१ ) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ती] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [णिद्धमण णिज्जुत्ती-नियुक्ति: निश्चयेन आदी वा युक्ता अस्तेिषां-णिण्हए । नि० चू० प्र० २६० आ। युक्ति: नियुक्तार्थव्याख्या वा । आव० ६७ । णिण्हवो-जो पुच्छिओ संतो सव्वहा अवलवइ । दश. णिज्जूढा-कालावधीए जे ठप्पा कया ते णिज्जूढा । नि० चू० १२४ । चू० प्र० १६६ अ । जे ठप्पा कया । नि० चू० तृ० ४५ आ । णितावादी-नियतं-नित्यं वस्तू वदति यः स । ठाणा. णिज्जह-गवक्खो । नि० चू० द्वि० ८४ अ । निर्यहो- ४२५ । द्वारोपरितनपार्श्वविनिर्गतदारुः । जं० प्र० १०७। णिज्जू- | णितितो-णिच्चमवत्थाणातो णितितो । नि० चू० द्वि० हक-नियंहक-द्वारपार्श्वविनिर्गतदारुः । | ६१ आ । एते संथारगादि दवे कालदुगातीतं अपरि-परित्यजन् । पिण्ड० १७६ । हरंतो । नि० चू० प्र० १४३ अ ।। णिज्जूहिऊण-परित्यज्य । उत्त० ६६८ । णितियं-धुवं, सासतं । नि० चू० प्र० १४२ अ । णिच्चणिज्झर-निज्झरा:-गिरितटादुदकस्याधः पतनानि तान्येव । णिमंतं । नि० चू० द्वि० ६० आ।। सदावस्थायीनि । जं० प्र० ६६ ।। | णितियादि-नित्यवासादि । ओघ० ५६ । णिज्झवणा-नि:-आधिक्येन यान्ति प्राणिनः प्राणास्तेषां- णित्थक्क-अनबसरज्ञ अनुरक्ता या ममाकाण्डे एव त्यागानिर्माता-निर्गच्छतां प्रयोजकत्वं निर्यापना. प्राणवधस्याष्ठा- दित्यर्द्धम् । ज्ञाता० १६७ । विंशतितमः पर्यायः । प्रश्न. ६ । णित्थरहल्लेज्ज-फोडणं । नि० चू० तृ० ५७ अ। इवियं-निष्ठितम् । आव० ५५८ । णित्थरिउ-पारं प्राप्तुम् । महाप० । णिटुवेतित्ति-मारेज्जा । नि० चू० द्वि० १३३ आ । णित्थरिहिह । ज्ञाता० २४० । णिट्राण-णिप्फत्ती । नि० चू० प्र० ३३ आ । जं सव्व- णित्थारणा-निस्तारणा-तत्पारप्रापणा । ज० प्र० २३७ । गुणोववेयं सव्व संभरसंभियं तं । दश० १२२ । णिदाणा-भवान्तरीयाः धर्मोत्साहपराकृताः प्रार्थनाविशेषा:णिढाणकहा-निष्ठानकथा शतपञ्चशतरूपका, निष्ठानं यावत् | दुर्लभबोध्यादिफलाः नवभेदाः । दशा० । शतसहस्रमिति, भक्तकथायाश्चतुर्थ भेदः । आव० ५८१ । णिदाहो-निदाघः एकादशं मासनाम । सूर्य० १५३ । णिटावेति-व्यापादयति । नि० चू० प्र० ३०३ अ। |णिदोच्च-निर्भयम् । नि० चू० तृ. ७१ अ । णिटिए-निष्ठितोऽपनेतव्यद्रव्यापनयनमाश्रित्य निष्ठां गतः | णिद्दा-निद्रा-सुखप्रतिबोधलक्षणा । भग० २१८ । विशिष्टप्रयत्नप्रभाजितकोष्ठागारवत् । जं० प्र० ६६ । णिहारो-निर्धारः । आव० ८५५ । णिट्टियं-परिसमत्तणं । दश० चू० ११२ आ। णिदेज्ज-पुव्वं पडिहारितो दत्तो इदाणि णिद्देज्ज देहित्ति । णिट्रिया-कालगता । नि० चू० प्र० २०७ आ । नि० चू० प्र० १७७ आ। णिठुरं- । नि० चू० प्र० २६६ आ । गिद्ध-स्निग्धं-मनोहरम् । जीवा० २६७ । स्निग्धंणिठुहति-निष्ठीवति । उत्त० ३५६ । स्नेहलम् । जीवा० २६६ । णिड्डुगालति- । नि० चू० प्र० २२० आ। णिद्धधस-अत्यन्तमैहिकामुष्मिकापायशङ्काविकलः अत्यंत णिणाए-निनाद:-प्रतिशब्दः । औप० ७३ । निनादः- | जन्तुबाधनिपेक्षो वा परिणामोऽध्यवसायो वा । उत्त. प्रतिध्वनिः । जं० प्र० १६२ । णिण्णं-खड्डा । नि० चू० द्वि० १२६ अ । णिद्धमा-पासत्था । नि० चू० प्र० ७६ आ । णिण्णओ-निर्नयः-निर्वचनम् । बृ० तृ० १२५ अ । । णिद्धबंधणपरिणामे-स्निग्धबन्धनपरिणामः-स्निग्धस्य सतो णिण्णय-निर्णयः । आव० ६७ । बन्धनपरिणामः । प्रज्ञा० २८८ । णिण्णाई-(देशी) अधोगच्छति । उत्त० २६३ । णिद्धमण-निर्धमनम् । आव० ६४ । ( ४७२) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिद्धमहुर०] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [णियडि णिद्धमहरणिवायविणीयववहारा-घृतगुडसवसतिविनया- णिब्बंधो-निर्बन्धः । आव० ५६५ । दिजातपक्षव्यवहाराः । व्य० प्र० २५३ । णिब्बुडो-निमग्नः । आव० १८२ । णिद्धम्मो-निर्गतो धर्मात्-श्रुतचारित्रलक्षणादिति निर्धर्मः । । णिन्भरा-मत्ता । नि चू० द्वि० २२ आ । प्रश्न. ५ । णिमग्गजला-निमग्नं जलं यस्यां सा निमग्नजला । णिद्धा-स्निग्धा । आव० २६२ । जं० प्र० २३० । णिद्धाइऊण-निर्गत्य । आव० २१६ । णिमित्तं-निमित्तं-अङ्गस्फूरितादि । प्रश्न० ४० । निमित्तं णिद्धाइस्संति-निर्धाविष्यन्ति-शीघ्रयागत्या निर्गमिष्यन्ति। अनागतार्थपरिज्ञानहेतुर्ग्रन्थः । ओघ १४ । जं० प्र० १७१ । निर्गमिष्यन्ति । जं०प्र० १७६ । णिमित्ति-नैमित्तिकः । आव० ५६० । णिद्धणे-निर्धनोति-नितरामपनयति । उत्त० १८५।। णिम्मंसा-निर्मासा । ज्ञाता० ३३ । णिद्धो-स्निग्धः स्वस्मिन् रूपेऽत्यर्थमुत्कटः। जीवा १८७। णिम्मला-निर्मला-आगन्तुकमलरहिता । जं० प्र०२१ । णिधणं-निधन-पर्यवसानम् । प्रश्न० ५। फूला। नि० चू० तृ० १०३ आ। अमिला। निचू० णिनामए-निश्चयेन नामयेत् निर्नामयेत-अपनयेत् । सूत्र | प्र० २५५ अ । २३७ । णिम्मलो-निर्मल:-कठिनमलरहितः । औप० ११५। णिपुरो-नन्दीवृक्षः। आचा० ३४८ । णिम्माया-निष्णाता-निपुणा । आव० ६७४ । णिप्पंका-कलङ्कविकला कईमरहिता वा। जं० प्र० २१। णिम्मिय-न्यस्तः । ज्ञाता० १४ । णिप्पंको-निष्पङ्कः-आर्द्रमलरहितः अकलङ्को वा । औप० णिम्मेरा-निर्मयादा:-अविद्यमानकुलादिमर्यादा: । जं० प्र० ११५॥ १७१ । णिप्पच्चक्खाणपोसहोववासा-निष्प्रत्याख्यानपोषधोप-णिम्मोअणं-संठवणं । नि० चू० प्र० १२३ अ । वासा-असत्पौरुष्यादिनियमा अविद्यमानाष्टम्यादिपर्वोपवा- प्रियंठ-निर्गतो ग्रन्थात्-मोहनीयकर्माख्यादिति निम्रन्थः । साश्चेत्यर्थः । जं० प्र० १७१ । भग० ८९01 अमितरबाहिरगंथणिग्गतो । उत्त० २५७ । णिप्पडिकम्मया-प्रशस्तयोगसङ्ग्रहायव निष्प्रतिकर्मशरी-णियंसेइ-नियस्ते-परिधत्ते । जीवा० २५३ । रता सेवनीया, योगसङ्ग्रहे षष्ठो योगः । आव० ६६३ । णियइयाओ-नयतिवयः-नियता न तु त्रिप्रभृतय इति णिप्पिवासो-निर्गतः पिपासाया वध्य प्रति स्नेहरूपाया । पञ्चैवेत्यर्थः । भग० ४४ । इति निष्पिपासः । प्रश्न. ५ । णियए-नियतः एकस्वरूपत्वात् । भग० ११६ । णिप्फडइ-निःसरति । दश०६१ । णियगो-निजकः । उत्त० २२६ । निजक:-गोत्रीयः । णिप्फाव-औषघिविशेषः। प्रज्ञा० ३३ । निष्पावा:-वल्लाः । औप० ८६ । ज० प्र० १२४ । वल्ला । नि० चू० प्र० १४४ आ । नि.णियच्छति-नियच्छति निश्चयेन यच्छति-अवतरति-युज्यते चू० द्वि० १२० अ । । सूत्र० ३५ । गच्छति-प्राप्नोति । बृ० तृ० ७६ आ। णिफिडति-निस्सरति । आव०१६ । णियट्टिबायरो-क्षपकश्रेण्यन्तर्गतः क्षीणदर्शनसप्तको जीवणिफिडिओ-निष्काशितः । आव० ४२६ । ग्रामो निवृत्तिबादरः, भूतग्रामस्याष्टमं गुणस्थानम् । आव० णिफिडिता-निर्गता । आव० ३५० । ६५० । णिप्फिडिया-निर्गता । दश०६८ । णियडि-निकृतिः-बकवृत्त्या कुर्कुटादिकरणेन दम्भप्रधानणिप्फेडओ-निस्फेटः स्थानं स्वातन्त्र्यं वा । आव० ५१५ ।। वणिकश्रोत्रीयसाध्वाकारेण परवञ्चनाथं गलकर्त्तकाना. णिप्फेडियं-निष्कासितं भूमौ पातितम् । आव० ३६६ । मिवावस्थानम् । सूत्र० ३२६ । परस्य व्यञ्जकत्वेन अधिका णिप्फेडो-निर्गमः । आव० ३५५ । कायक्रिया णियडी। नि० चू० प्र० २८६ आ । (अल्प०६०) (४७३ ) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णियमपगं] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [णिवाय - णियमपगंप-नियमप्रकम्प:-कायोत्सर्गः । वृ० द्वि० १३० विहारित्वात् । ज० प्र० १४६ । आ। णिरालोआ-निरालोका:-निरस्तप्रकाशा निरस्तदृष्टिप्रसरा णियमसा-नियमेन-अवश्यभावेन । उत्त० ६५१, ५३५, | ५४४ । णिरुभिऊण-निरुध्य । महाप० । णियमसो-नियमश:-नियमात् । उत्त० ७६ । णिरुच्चारो-निरुच्चार:-निरुद्धपुरीषोत्सर्गः, अविद्यमानणियमारक्खिओ-सव्वपगईओ जो रक्खति सो णियमा- सञ्चरणः नष्टवचनोच्चारणो वा । प्रश्न० ५७ । प्राकाररक्खिओ । नि० चू० प्र० १६५ अ । स्योवं जनप्रवेश निर्गमजितः। उच्चार:-पूरीषं तद्विसगार्थ णियमो-निगम:-वणिग्जनप्रधानस्थानम् । प्रश्न० ६६ ।। यजनानां बहिनिगमनं तदपि सः । ज्ञाता० १४६ ।। नियमः-पिण्डविशुद्धयादिः उत्तरगुणः । द्रव्याद्यभिग्रहः । | णिरुद्धपरियागो-जस्स तिण्णि वरिसाणि परियायस्स प्रश्न० १३२ । अवश्यम्भावी । प्रश्न०.१३३ । संपुण्णाणि । नि० चू० तृ० ८४ अ । णियवित्ती-नियतवृत्तिः । व्य० द्वि० ३६१ अ। णिरुद्धा-निरुद्धा । आव० ३४५ । निरुद्धा-मूछिता निरुद्धणियया-सदैव स्वस्वरूपा । जं० प्र० २७ ।। चेष्टा । उत्त० १६० । णियाग-णियगः-स्वजनः । नि० चू० प्र० १४० आ । णिरुवकिट्ठ-निरुपक्लिष्टः-व्याधिना प्राक् साम्प्रतं वाऽनियाग:-मोक्षमार्गः सत्संयमो वा । सूत्र० २६६ । संयमो | नभिभूतः । जं० प्र०६० । विमोक्षो वा । सूत्र० ३०२ । णिरुवद्दवा-निरुपद्रवा-अविद्यमानराजादिकृतोपद्रवा । णियाणमरणे-ऋद्धिभोगादिप्रार्थना निदानं तत्पूर्वकं मरणं | औप० २ । निदानमरणम् । ठाणा० ६३ । णिरुवमा-णिग्गया उवमा जत्थ अत्थो दृष्टान्ताभावः । नि० णियोग-नियोग:-आज्ञा । जं० प्र० १६६ । चू० द्वि० १४६ आ। णिरंगणो-निरञ्जन:-कौशाम्ब्यां राजमल्लः । उत्त० १९३| णिरुवहत-ण अजणखजणोवलित्तं ण वा अग्गिविदड्ढं गिरंतरता-निरन्तरभूमिस्पर्शिता । बृ० द्वि० २२३ आ। णिरई-निरति देवानन्दाया नामान्तरम् । जं० प्र० ४६२। | णिरुवह्य-निरुपहतः-स्फोटादिदोषविरहतः । ज्ञाता०६७ । गिरक्किय-निराकृता-अपास्ता । उत्त० ३१६ । णिलुक्क-निल्लुकः-अन्तहितः । ज्ञाता० १५३ । णिरणुग्गहकसिणं-छम्मासिए पटुविए पंचमासा चउवीसं णिलुक्का-निलीना: । आव० ६० ।। च दिवसा बूढा, ताहे अण्णं छम्मासियं आवणो ताहे तं पिल्लेव-निर्लेपः-अत्यन्तसंश्लेषात्तन्मयतागतवालाग्रलेपापवहति पुविल्लिस्स छद्दिणा जो सो। नि०चूतृ० १३५ आ। हारादपनीतधान्यलेपकोष्ठागारवत् । जं० प्र० ६६ । णिरति-निसजति । ब० द्वि० १४४ आ । णिल्लेवगो-रजकः । आव० ५६२। रयगो। नि० चू० णिरभिग्गहो-दसणसावगो ।' नि० च० प्र० १२० अ । तृ० १२६ आ । णिरयपडिरूविया-निरयप्रतिरूपिका नरकसदृशी। ज्ञाता० । णिल्लेवणं-णिग्गंध । नि० चू० प्र० २२२ अ । णिल्लेवेति-धोवति । नि० चू० प्र० २११ अ । णिरयविभत्ति-सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चममध्ययनम् ।उत्त०६१४। | णिवज्जति-निष्पद्यन्ते । मर० । णिरवच्चो-निरपत्यः-शिष्यगणरहितः। आव० २४० । णिवज्जे-स्वपिति । ओघ० ८४ । हिरवलावे-निरपलाप:-आचार्य स्यापरिश्रावित्वम् । प्रश्न णिवण्णेति-अवलोकयति-पश्यति । आव० ६८८ । १४६ । णिवन्ना-निवन्ना:-सुप्ताः । ज्ञाता० १२६ । णिरवेक्खो-निरपेक्षः । आव० ८२० । णिवाणतडं-निपानतटम् । दश० ६४ । णिरालए-निरालयः-वसतिप्रतिबन्धवन्ध्यः, यथोचितं सतत- णिवाय-निपात:-पतनम् । ज्ञाता० २६ । ( ४७४ ) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिवायगंभीरा ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [णिवेढे णिवायगंभीरा-निवाता-वायोरप्रवेशात् किल महद् गृह सूत्र० १९८ । सम० १५४ । निवातं प्रायो न भवति तत आह निवातगम्भीरा, निवाता णिवाय-निर्वात:- निर्याघातः । ज्ञाता० ४१ । सती गम्भीरा निवातगम्भीरा, निवाता सती विशाला | णिव्वाव-निर्वापकथा-दशपञ्चरूप्यका इयञ्च व्यञ्जनभेदाइत्यर्थः । राज. ५८ । दिरिति प्रशंसनं द्वेषणं वा। भक्तकथाया द्वितीयो भेदः । णिवायग भग० ८०३ ।। आव० ५८१ । नि० चू० प्र० ३३ आ । णिवारणं-नितरां वार्यते- निषिध्यतेऽनेन शीतवातादीति णिवावकहा-पक्वापक्वान्नभेदा व्यञ्जनभेदा वेति निर्वा निवारणं सौधादि । वस्त्रादि वा । उत्त० ८८ । पकथा । ठाणा० २०९ । णिवारितो-निवारयन्तम् । उत्त० ३०५ । णिग्वि-निविष्ट ससेवम् । दश० १५१ । णिविजए-शेते । उत्त० ५५१ । | णिन्विटकप्पट्टिती-निविष्टा-आसेवितविवक्षितचारित्रा णिविजणं-निविजनम् । आव० ५०६ । अनुपहारिका इत्यर्थः, तत्कल्पस्थितियथा प्रतिदिनमायाणिविदो-परिणीओ । नि० चू० प्र० १४५ अ । ममात्रं तपो भिक्षा तथैवेति । ठाणा० १६७ । णिविण्णो-निविर्ण:-निविष्टः । उत्त० २२४ । णिविणकामभोगो-निविण्णकामभोगः। आव० ५१२। णिज्झमाणि-अश्वादीनां नीयमाना । आचा० ४१३ । णिविण्णो-निविण्णः । आव० ३४३ णिवुद्धित्ता-निर्वेष्टय-हापयित्वा । सूर्य० १२ । णिविन्नवरा-निविण्णा वरा: परिणेतारो यस्याः सा णिवुड्डेमारणे-निर्वेष्टयन्-हापयन् । सूर्य १२, ३८ ।। निविण्णवराः । ज्ञाता० २५० । णिवेएति-समर्पयति । नि० चू० प्र० ३३२ अ। णिग्वितिए-निविकृतिक:-निर्गतघृतादिविकृतिकः । औप० णिवेदनं-आख्यानम् । नि० चू० प्र० ७३ आ। ४० । णिवेदे-निवेदयित्वा । ओघ ५७ । णिविसओ-निविषयः । आव० ५२ । णिवेसण-महाघरस्स परिवारघरा णिवेसणं । नि० चू० णिव्विसताणि-निविषयीकृतौ । आव० ३५१ । प्र० १८७ अ । आसमंतावसा समादि सत्थट्ठाणं । नि० | णिविसति-प्रविशति । नि० चू० प्र० २९४ आ । चू० प्र० २२६ अ । नि० चू० वि० १२७ आ । गृहम् । णिविसमाणो-पच्छित्तं वहंतो। नि० चू० तृ० १३६ नि० चू० तृ० ७३ अ । णिव्वक्खा-णिल्लज्जा । नि० चू० तृ० १७ अ । | णिव्विस्सो-अमंसमक्खी । नि० चू० द्वि० १४० अ । णिव्वण-निर्वणः छिद्रग्रन्थ्यादिदोषरहितः । जं०प्र० २४१। णिव्वूइ-निवृतिहेतुत्वात् निर्वृत्ति:-क्षीणमोहावस्थेति । णिवणा- । नि० चू० प्र० १२१ अ। सूत्र० १६७ । निर्वृत्तिः-निर्वाणं-सकलकर्ममलापगमनेन णिवत्तणाहिकरणिया-यच्चादितस्तयोनिवर्तनं सा निर्व- स्वस्वरूपलोभतः परमं स्वास्थ्यं तद्धेतुः सम्यग्दर्शनाद्यपि र्तनाधिकरणिकी । ठाणा० ४१ । कारणे कार्योपचारात् निर्वृत्तिः । प्रज्ञा० ४ । णिव्वया-निर्वताः महाव्रताणुव्रतविकलाः । जं० प्र० १७१ । णिव्वुड्डी-निर्वृद्धि वृद्धेरभावः । जं० प्र० ४३७ । णिववितियं-उण्हवेऊण । नि० चू० तृ० ६० अ । णिव्वुती-निवृत्तिः-मथुरायां पर्वतराज्ञाः सुता । आव० णिव्वहणा-निर्वहणा-वधूवरम् । बृ० त० २४ आ । । ३४४ णिव्वहति-विफलीभवति । नि० चू० प्र० ८ अ । णिव्वुतो-निर्वृतः-मुक्तिपद्वीमधिरूढः । ६० तृ० २३१ णि वाघाइम-णिरुअस्स-अखुतदेहस्स णिव्वाघाइमं । नि० अ । चू० द्वि० ५३ अ । नियाघातिम-व्याघातिमान्निर्गतं | णिव्वुया-निवृता-स्वस्थीभूतेन्द्रिया। बृ० द्वि० २१७ अ । स्वाभाविकम् । सूर्य २६६ । | णिवेढेइ-निर्वेष्टयति-मुञ्चति । सूर्य० ४६ । णिव्वाण-घनघातिकर्मचतुष्टयक्षयेण केवलज्ञानावाप्तिः ।। णिवेढेउं-उत्तरं दातुम् । आव० ७०६ । ( ४७५) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिसंतं] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [णिस्संसो - णिसंतं-निशान्तं-अवधारितम् । सूत्र. १४४ । णिसंत-णिरय । नि० चू० प्र० २०८ आ । णिसामिअ-निशम्य-आकर्ण्य तत्राक्षिप्तचित्ततयेतिभावः । णिसंते-नितरां-अतिशयेन शान्तः-उपशमवान्, अन्तः । उत्त० ४३४ ।। क्रोधपरिहारेण बहिश्च प्रशान्ताकारतया निःशान्तः। उत्त णिसासमणो-निःश्वसन्तीव अधोगमनसाधात् तद्गत जननि:श्वाससाधाद्वा निःश्वसन्ती। ज्ञाता० १५८ । णिसंतपडिणिसंत-निशान्तप्रतिनिशान्ते-अत्यन्तं भ्रमणा- णिसिटुं-निषेधनं-निषेधम् । वृ० तृ० २२३ आ । द्विरते निशान्तेषु वा गृहेषु प्रतिनिशान्ते-विश्रान्ते- निसृष्टम् । आव० ३६७ । अनुज्ञातम् । पिण्ड ० ११३ । निलीने-अत्यन्तजनसञ्चारविरह इत्यर्थः । ज्ञाता०१८0 णिसिभत्तं । नि० चू० प्र० ६१ आ। णिसग्ग-परिछावणियासमिती । नि० चू० प्र० ३१ अ । णिसिरणा-परिद्वावणिया । नि० चू० प्र० ८७ आ । णिसज्जकरणं- ।नि चू० प्र०२३७ आ। णिसिरामो-प्रयच्छामः । आचा० ३५० । णिसज्जण-जंघा । नि० चू० प्र० १५५ आ। णिसिरिय-निसृज्य-पातयित्वा । सूत्र० ३१४ । णिसज्जा-निषद्या-समपुतोपवेशनादिका । प्रश्न० १०७। णिसोयणं-उवविसणं । नि० चू० प्र० ६० अ । णिसटुं-णदत्तं । नि० चू० प्र० २४६ आ, २६१ अ।। णिसीयति-निषीदति-उपविशति । जीवा० २०१ । जं णिदेज दिण्णं तं णिसट्रं । नि० चू० द्वि० १०५ णिसीयवं-निषीदितव्यं-उपवेष्टव्यं संदंशकभूमिप्रमाणआ। नादिन्यायेनेत्यर्थः । ज्ञाता० ६१।। णिसट्टतेण-अक्कंतिया वेला अवहरंति । नि० चू० तृ० | णिसीहं-अप्रकाशम् । नि० चू० प्र० २३ अ, १८७ अ । १६ आ । णिसीहादि-छेदसुत्तं । नि० चू० तृ० ३० आ । णिसट्टा-खरा । नि० चू० प्र० २४५ आ । निसृष्टा- णिसीहिया-समणट्ठाण णिमित्तं णिसीहिया । नि० चू० निर्लज्जा । बृ० द्वि० १७६ आ ।। प्र. २२३ अ । नैषेधिको-निषीदनस्थानम् । जीवा० णिसढे-निषध:-वृषभः। जं० प्र०३०८। यादवविशेषः।। २०५ । निषदनस्थानम् । जं० प्र० ५१ । ज्ञाता० २०३ । निषधः-वर्षधरपर्वतः । जं० प्र० ३०८। णिसुदंते-आद्रीभवत्सु । नि० चू० प्र० ३५४ आ । णिसण्णो-निषण्णः-उपविष्टः । ओघ० २२। णिसेगो-शुक्रपुद्गलाहरणलक्षण ओजः । बृ० तृ० १०४ णिसम्म-निशम्य-हृदये परिणमय्य । जीवा० २४३ । णिसह-निषधः-उत्तरकुरी प्रथमद्रहनाम । जं० प्र० ३५५, | मिसेजणा-पुत्ता। नि० चू० प्र० २४७ अ । ३०४ । नितरां सहते स्कन्धे पृष्ठे वा समारोपितं णिसेज्जा-निषद्या । आव० २२७ । निषद्या स्त्रीभिः-कृता भारमिति निषधो-वृषभः, तत्संस्थानसंस्थितानि-वृषभ- माया, स्त्रीव सती वा। सूत्र० ११० । निषद्या-प्रणिपत्य संस्थितानि निषधाश्चात्र देवाधिपत्यं परिपालयति, पृच्छा (गौतमस्य तिसुः अनियताः शेषाणां । आव० चू०) तेन निषधाकारकूटयोगान्निषधदेवयोगाद्वा निषधः ।। एगाए निसज्जाए एक्कारस अंगा चोदसहि । चोद्दसजं० प्र० ३१० । पूव्वाणि नं० चू०) णिसहकुडे-निषधकूट-नन्दनवनकूटनाम । जं० प्र० ३६७ । | णिस्संचार-द्वारापद्वारैः जनप्रवेशनिर्गमवर्जितः । ज्ञाता० निषधवर्षधराधिपवास कूटम् । जं० प्र० ३०८ । १४६ । णिसा-निशेव नित्यान्धकारत्वात् निशा-नर्कभूमिः । सूत्र० णिस्संसो-नृशंसा:-निःशूकः; निष्क्रान्तो वा शंसायाः ४०१ । श्लाघाया इति । प्रश्न० ५ । नृशंस:-निस्तूंशो जीवानू णिसाओ-निषादः-ब्राह्मणेन शूद्रयां जातः । उत्त० १८२।। विहिंसन् मनागपि न शङ्कते,निशंसो वा परप्रशंसा रहितः। णिसाते-निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् स निषादः । ठाणा० उत्त० ६५६ । (४७६) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिस्सरणं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [ णीलीमेए णिस्सरणं-प्रस्खलम् । बृ० द्वि० १५८ आ। आव० ११२ । निस्सरति । आव० १०२ । णिस्सरणणंदी-निःसरणेन-गच्छादेनिर्गमेन नन्दति यो । णीइआ-गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । नन्दि, यस्य सः । ठाणा० २१७ । णोणति-प्रापयन्ति । बृ० द्वि० १४२ आ । णिस्साकरउ-जो किंचि अववादपदं लभित्ता मुसलं जीणाविता-आनायिता । आव० ३५७ ।। पक्विवइ । नि० चू० तृ० १४६ अ । णोणावितो-निष्काशित:-दापितः। उत्त० १६८। निष्काणिस्साणं-आलंबणं । नि० चू० प्र० १०२ आ । शितः । आव० ३१८ । णिस्सारो-निस्सारः । आव० ३५३ । णीणाविय-अपनायितः । आव० ४३४ । णिस्सासनिरंभण-निःश्वासं निरुणद्धि-नासिकां दृढं । णोणिओ-नीतः । आव० २०४ । . गृण्हाति निःश्वास निरोधार्थम् । ओघ० ८४ । णीणितो-णिवूढो-धाडितेत्यर्थः । नि० चू० प्र० ३१ णिस्सीला-निश्शीला:-गताचाराः । जं० प्र० १७१ । आ । णिस्सेस-निःश्रेयसो-मोक्षः । उत्त० ३०५ । निःश्रेयस:- णोणियं-निष्काशितम् । आव० ४०६ । आनीतम् । निश्चितकल्याणः । राज० १०२ । उत्त० १५६ । णिहए-निहतः-अपहृतसर्वसमृद्धिः । जं० प्र० २७७ । णीणिया-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषाः। प्रज्ञा० ४२ । णिहट्ठ-निहत्य-निवेश्य । जं० प्र० १८७ । णोणेइ-निष्काशयति । उत्त० ४५५ । णिहणाहि-निजहि । आव० ३६६ । णोणेऊण-निष्काश्य । उत्त० ११८ । णिहणिऊण-निहत्य । दश० ५६ । णोणेति-निष्काशयति । आव० २६७ । णिहया-णिक्खाया। नि० चू० तृ० ७२ आ। गोणेतुं-निर्गमितुम् । आव० ३४८ । णिहरति-निहरति-अपनयति उद्धरति । सूत्र० ३१३ । जीणेहि-व्यपनय । आव० २२६ । णिहा-कोहमाणादि । दश० चू० ३३ आ । णीता-नेत्रा-स्वस्थान प्रापिता । ज्ञाता० २२१ । णिहाणपउत्तं-निधानप्रयुक्तम् । आव० ३५७ । णीति-णिग्गच्छति । नि० चू० प्र० ३४ आ । णिहाय-निधाय-परित्यज्य । सूत्र० २४० ४१० । णीती-नीतिः निर्गमप्रवेशरूपा । आव० ३४६ । णिहालेयव्वं-निभालयितव्यः । उत्त० ५१ । णोध-निर्गच्छत । आव० १६१ । णिहिअ-निहितः-उप्तः । जं० प्र० २४३ । णीमे-नीपः, वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । णिहिणिउं-निहितुम् । उत्त० २२१ । । णीरए-नीरजाः निर्गतरजः कल्पसूक्ष्मवालाग्रोऽपकृष्टधान्यणिहितं-पक्खितं । नि० चू० तृ० ८२ आ । रजः कोष्ठागारवत् । जं० प्र० ६६ । णिहिरणो-निहिरण्य:-असारः । ओघ० १८८ । णोरते ।ठाणा० ३६७ । णिहुए-निभृत-अनुयुक्त: । सूत्र० १७३ । णील-नीलः, मरकतमणिः । जं० प्र० ११३ । प्रशान्तवृत्तिः । औप० ४८ । णोलवंतद्दहे-उत्तरकुरुषु नीलवद्रहो नामद्रहः । जं० णिय-उपशान्तः । प्रश्न. ४३ । प्र० ३२६ । णिहुया-करचरणिदिएसु जे सत्था अच्छंति ते णिहुया। णीलवंते-नीलवान दिग्हस्तिकूटं द्वितीयः । जं०प्र० ३६० । नि० चू० तृ० ६अ। जम्बूद्वीपे द्वीपे नीलवन्नाम्ना द्वितीयः वर्षधरपर्वतः । जं० णिहे-निहा-माया । सूत्र० १७३ । प्र० ३७७ । णिहोडणा-निवारणम् । व्य० प्र० २५३ । णीली-गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । जीअदुवार-नीचद्वारं-नीचनिर्गमप्रवेशः । दश० १६७ ।। णोलीगुलिया-नीलीगुलिका-नीलीगुटिका । जं०प्र० ३३ । णीइ-निर्गच्छति । ओघ० १५६ । निरेति-निर्गच्छति । ' णीलीभेए-नीलीभेदो-नीलीच्छेदः । जं० प्र० ३३ । ( ४७७ ) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णीले ] णीले - अष्टाशीतौ महाग्रहे पञ्चविंशतितमः । ठाणा ०७६ । नीलवत्कूटं—नीलवद्वक्षस्काराधिपकूटम् । जं० प्र० ३७७ । णीलोभासे - अष्टशीतो महाग्रहे पञ्चविंशतितमः | ठाणा० ७६ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः णोवातय-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ । णीवट्टमाणो - निवर्त्तमानः । उत्त० १३६ । णी वारे-निवारः - सूकरादीनां पशूनां वध्यस्थानप्रवेशन भूतो भक्ष्यविशेषः । सूत्र० २५८ । निवारः - भक्ष्यविशेष: । सूत्र० ११४ । मए- आच्छादयेत् । बृ० प्र० १७७ अ । णूमगिहं भूमिधरं । नि० चू० द्वि० ६६ आ । णूमियं - गोपितम् । उत्त० ११५ । मेंति - नुमन्ति - गोपयन्ति । ज्ञाता० २२७ । मेस्सति स्थापयिष्यति । नि० चू० द्वि० १५४ अ ॥ र्णेति - निर्गच्छन्ति । आव ० ६३२ । उप० मा० ३५६ । - आत्मनिर्देशः । नि० चू० प्र० ३३० आ । अस्माकम् । बृ० द्वि० ८८ । नो अस्माकम् । विशे० ६८४ ॥ सूत्र० ११३ । नः । भग० १०० । जीसन्दं - निष्पन्दः । प्रज्ञा० ६ । णीसरइ - निःसरति । दश० ६१ । उणिअ - नैपुण्यं - आलेख्यादिकला लक्षणम् । दश० २४६१ णीसवमाणो - निभवयन् - यस्मात्सामायिकं प्रतिपद्यते तदा णेउणियवत्थु-निपुणं वस्तु - अनुप्रवादपूर्वे आलापकवि वरण कर्मनिर्जयन् । आव ० ३४० । शेषः । उत्त० १६३ । णीसहो - निस्सहः । उत्त० १९३ । हट्टु - निःसार्य | आचा० ४०१ । जो संकं - निशङ्क - अविद्यमानसन्देहम् । भग० ५४ । णीस - निसृष्टं - प्रकामम् । बृ० तृ० १२६ आ । निसृष्ट:नारविमुक्त आत्यन्तिको वा । प्रश्न० २० । निष्प्रसरम् । [ णेगामोसा तर्क प्रश्नहेतुषु । प्रज्ञा० २४६ । निश्चितम् । ज्ञाता० ६६ । णूमं - दवियं भिन्नं । नि० ० द्वि० ७० आ । माया । सूत्र० ३४ । गहनं, मायेति । सूत्र० ५२ । प्रच्छन्नं गिरिगुहादिकम् । सूत्र० ८६, ३०७ । न्यवमम् । सम० ७१ । सूत्र० ३०७ । उरं - नुपुरं - पादभूषणम् । आव० ३४६ । उरपंडिया - नुपुर पण्डिता । उत्त० ४९६ । नोहारि - निहारि - प्रबलो गन्धप्रसरः व्यापि वा । आव ० णेउरा - द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । २३१ । नोहारिम-निहारिमा - दूरदेशगामिनी । औप० ८ । यद्व सतेरेकदेशे विधीयते तत्ततः शरीरस्य निर्हरणात् - निस्सारणान्निहरिमम् । ठाणा० ६४ । यत्पादपोपगमनमाश्र यस्यैकदेशे विधीयते तन्निहरिमम् । भग० ६२५ । नोहारी - नीहारी - अतिक्रामी । औप० ७८ । णीहि-निर्गच्छ । आव० ३९४ । णीहू - अनन्तकायभेदः । भग० ३००, ८०४ । णीहूय - कन्दविशेषः । उत्त० ६६१ । णीहूया - निर्व्यापारा । व्य० प्र० २५४ । णु-वितर्के । विशे० ३० । शुभ - नुद्य - सौंदर्य म् । व्य० द्वि० १७३ अ । शुवन्नो- अनुपन्नस्त्वग्वतितः । वृ० द्वि० २२७ आ । वोहेज्जा - उपबृंहयेत् परिणामवृद्धि कुर्यात् । दश० ४८ ॥ गुणं - नूनं एवमर्थे । भग० १४ । नूनं - उपमानावधारण कुंतितो- व्यतिक्रमः । नि० चू० प्र० २०२ अ । णेक्कारो - जुगुच्छितो, कोलिगजातिभेदो णेक्कारो । नि० चू० द्वि० ४३ आ । णेगमं - वणियवग्गो जत्थ वसति तं णेगमं । नि० चू० द्वि० ७० आ । निगमेषु वा भवो नंगमः, निगमा:-पदार्थपरिच्छेदाः । आव० २५३ । न एकं नैकं प्रभूतानि, नैकैर्मानि :- महासत्तासामान्यविशेषज्ञानं मिमीते मिनोतीति वा नैकम: । आव ० २८३ । नैकेन - सामान्यविशेषग्राहकत्वात् तस्यानेकेन ज्ञानेन मिनोति परिच्छिनत्तीति नैकमः, अथवा निगमाः - निश्चितार्थबोधास्तेषु कुशलो भवो वा नैगमः, अथवा नैको गमः - अर्थमार्गो यस्य स प्राकृतत्वेन नैगमः । ठाणा० १५२ । नैगमः । प्रज्ञा० २८४ । नयविशेषः । प्रज्ञा० ३२७ । गामोसा-न एके आमशः अनेकामर्शाः, अनेकस्पर्शाः । ओघ ० ११० । (805) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ण्हारुणि जेड्डु-नीडम् । आव० १८६ । गृहम् । आव० ३६५ । णेहावगाढ-स्नेहावगाढं-स्नेहव्याप्तम् । ज्ञाता० १६६ । ति-उत्पादयति, करेति । नि० चू० प्र० २०५ आ। हि-तै:-एतैः । उत्त० ३५६ । तैः। आव० ११६ । जेतियंति। नि० चू० प्र० ३४७ आ। होवरते ।नि० चू० प्र० १६७ आ । गेत्तं-नेत्रम् । सूत्र० ३१२ । णोइंदियओ-मणो । नि० चू० द्वि० ८५ आ। दूर-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ ।। णोथलेण ।नि० चू० द्वि० ७६ अ । णेमा-भूमेरूध्वं निष्क्रामन्तः प्रदेशाः । जं० प्र० ४२ णेमा णोमालिआगुम्मा-नवमालिकागुल्माः । जं० प्र०६८ । नाम भूमिभागादूर्ध्वं निष्क्रामन्तः प्रदेशाः । जं० प्र० २३ । णोमालिय-गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । मि-बाह्यपरिधिः । ज० प्र० ३७ । नेमिः-बाह्यपरिधिः।। । भग० ६८६ । जीवा० १६२ । णोलिय-नोदिता-स्वदेशगमनवैमख्येन यमपरीगमनाभिणेमिपासेसु-नेमिपार्श्वेषु । जं० प्र० २०६ । | मुखीकृता । ज्ञाता० १६८ । मो-नेमिः-कृतिकर्मदृष्टान्ते भगवान् । आव० ५१५ । णोसद्दो-नोशब्दः, एकदेशवचनः । विशे० ६२० । नेमिः-धारा । जं० प्र० २०४ । श्रुतं प्रत्याख्यानम् । आव० ४७६ । जेम्म-निर्भ-सदृशम् । प्रश्न० १३४ । विज्जादिएहिं हं-निपातः पूरणार्थो वर्तते । आव० १६७ । वाक्यारुक्खादी णमिज्जंतीति जेम्म बट्ट सिक्खा विज्जतस्स | लङ्कारे अवधारणे वा । सूत्र. ४१० । प्रश्न० २० । अंगाणि णमिति । नि० चू० द्वि० ७१ अ । ण्हवणं-स्नपनं-सौभाग्यपुत्राद्यर्थ वध्वादेर्मज्जनम् । प्रश्न यगहणत्तणं-ज्ञायते इति ज्ञेयं-धर्मास्तिकायादि तद्ग नत्वं गह्वरत्वं ज्ञेयगहनत्वम् । आव० ५६७ । हाण-स्नानम् । आव० ४१, ८३१ । रथयात्रा स्नानं जयवं-नेतव्यं-संवेदनविषयतां प्रापणीयं प्रापयितव्यम् । वा । बृ० द्वि० १८७ अ । अर्हत्प्रतिमास्नपनम् । बृ० उत्त० ८। नेतव्यं-स्मृतिपथं प्रापणीयः । जं० प्र०२७। तृ० ६१ आ। याउय-न्यायेन चरति-प्रवर्तत इति नैयायिक:-ग्यायो- हाणगोल्लो-स्नानीयाः । उत्त० २१६ । पपन्नः । उत्त० १८५ । निश्चित आयो-लाभो न्यायः- हाणपीढं-स्नानपीठम् । आव० ३५६ । ओवारा, काममुक्तिरित्यर्थः स प्रयोजनमस्येति नैयायिकः । उत्त० । जलं । नि० चू० द्वि० ८३ आ । स्नानपीढं-स्थान योग्यं आसनम् । जं० प्र० १८६ । गेवत्थं-नेपथ्यं-देशनेपथ्यं-स्त्रीपुरुषाणामाभूषणसम्बन्धीवि- हाणमल्लिआ-स्नानयोग्या मल्लिकाविशेषः । जं० प्र० चारः । देशकथायाश्चतुर्थो भेदः । आव० ५८१ । ३५ । वत्थकहा-तासामेव अन्यतमाया: कच्छाबन्धादिनेपथ्य- ण्हाणाई-स्नानादि । ओघ० १५१ । स्य यत्प्रशंसादि नेपथ्यकथा । ठाणा० २०९ । | हाणि-स्तापय । पिण्ड० १२४ । वालं-नेपालं-देशविशेषः । उत्त० १०६ । ण्हाणिओ-स्नपितः । आव० ३५८ । वे । नि० चू० प्र० २३२ आ। ण्हाणोवदाइ-स्नानोदकदायिका । ज्ञाता० ११७ । सजिते-नैषधिकः-समपदपुतादिनिषद्योपवेशी। ठाणा हायंते- । नि० चू० द्वि० ७७ आ। ३६७ । ण्हारु-स्नायवः शरीरान्तर्वर्धाः । ज्ञाता० २२२ । भग० सथिएसु-सालिमादियं पोतिएसु । नि० चू० प्र० ४६६ । स्नायूनि । सम० १५० । स्नायु-शेषशिरा । ३२७ आ । जीवा० ३४। सप्प-निधो नैसर्प नामनि । जं० प्र० २५८ । नसर्पः- हारुणि-स्नायुः । प्रश्न० ८। स्नायवः-शरीरान्तर्वाः । नवनिधौ प्रथमः । ठाणा० ४४८ । । जं० प्र० २०१ । ( ४७६ ) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हारू ] हारू । भग० २२६ । हा विई - नापिती । आव० ३९६ । हाविओ - नापित: - क्षौरकारः । आव० ४२६ । हाविता - कम्मर्जुगिता विसेसो । नि० चू० द्वि० ४३ आ । हाविय - नापित: । आव० २२४ । नापितः - मुण्डनकारः । दश० १०५ । नि० ० प्र० महावियपसेवओ ६ आ । । उपा० हा वियसालिग - नापितशाला । आव० ६६० । हुया - स्नुषा - वधूः । दश० ६७ । ण्हे - अनयोः । उत्त० ३६४ । होरगं - निहोरकम् । बृ० तृ० १२ अ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलित : त त तावत् । प्रज्ञा० ७ । तदा । आव० ३५८ । तंगंध - तद्गन्धं तादृग्गन्धवत् । ओघ० २२३ ॥ तं जहा - तद्यथा-वक्ष्यमाणभेदकथन प्रकाशनार्थः। प्रज्ञा० ७ तद्यथा-प्रतिज्ञातार्थोदाहरणम् । आचा० १३ । तद्यथा । सम० १५० । तद्यथा उपप्रदर्शनार्थः । आचा० १३० । तंडवेति- ताण्डवयति ताण्डवरूपं नृत्यं करोति । जीवा० | २४७ । तंडुल - यूपविशेष: । सूर्य ० २६३ । तंडुलीयक - हरितविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । तंत - तन्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वा अर्थ इति तन्त्रम् । आव० ८६ । तन्त्रं - तुरीवेमादिः । भग० २५४ । तान्त:- कायेन खेदवान् । ज्ञाता० १३६ । तान्तः-तरकाण्डकाङ्क्षावान् । ज्ञाता० २२७ । तान्ता - मनःखेदेन । विपा० ४१ । 'तनु विस्तारे,' तन्यते - विस्तार्यते यद् यस्मादनेन, अस्मात् अस्मिन् वाऽर्थ इति तन्त्रम्, तन्यते विशिष्टरचनया तदेव विस्तार्यत इति तन्त्रम्, सूत्रस्य द्वितीय पर्यायः । विशे० ५६१ । तंतमस्सति - आक्रन्दति । दश० ११ । तंतयं - तन्त्र-वेमविलेखन्याञ्छनिकादि, तस्माज्जातं तन्त्रजं, उभयत्र वस्त्रं कम्बलो वा । उत्त० १२२ । तंतवा - चतुरिन्दियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । प्रज्ञा० ४२ । [ तंबयागर तंतागार। नि० चू० प्र० १०४ आ । तंतिचरता। नि चू० द्वि० ४३ आ । तंतिसमं - नट्टभेओ । नि० चू० तृ० १ अ । तन्त्रीसमंवीणादितत्रीशब्देन तुल्यं मिलितं च । ठाणा० ३९४ । तंती - तन्त्री वीणा । जं० प्र० ६१ । सूर्य० २६७ । प्रज्ञा० ८६ । जीवा० २१७ | तन्त्री - वीणाविशेषः । प्रश्न० १५६ । संतु- तन्यते भवोऽनेनेति तन्तुः - भवतृष्णा । उत्त० ५०५१ तंतुअं - तन्तुकम् । आव० ३५५ । तंतुग्गयं-रिवेमारुतीर्णमात्रम् | भग० ३७६ | तंतुवा - तन्तुवाय: । अनु० १४६ । तंतुवाय- पटकारकः । प्रश्न० ३० । तन्तुवायः शाटिका कारः । आव० ४२१ । तंतुवायसाला - कुविन्दशाला | भग० ६६३ । तंतुवाया - तन्तुवाया:- कुविन्दाः । प्रज्ञा० ५६ | तंतू सूत्राष्टिका । बृ० तृ० ९ आ । तंदुल - तन्दुलं औषधिः । आव० १३१ । तन्दुला - निस्स्वचितकणाः । जं० प्र० १०४ । तंदुलकणिया- तन्दुलकणिका । आव० ८५५ । तंदुल लम्बं - भुग्न शाल्या दितन्दुलानिति । आचा० ३५७ । तंदुलमच्छो-तन्दुलमत्स्यः मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ ॥ जलचरविशेषः । जीवा० १२६ । प्रज्ञा० ४४ । तंदुलमत्स्य - निरपेक्षितायां दृष्टान्तः । विशे० ७४८ । तंदुलीयकं - हरितभेदः । आचा० ५७ । हरितविशेषः । जीवा० २६ । तंदुलेज्जग - वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ । तंदुलेज्जगतणे - हरितविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । तंदुलेयकं - हरितविशेषः । उत्त० ६९२ । तंदुलोदयं तन्दुलोदकम् । आव० ६२० । तंबं - ताम्र - शुभ्रं (शुल्) । प्रश्न ०१५२ । ताम्रं - पृथिवीभेद: आचा० २६ । ताम्रा-रक्ताः । जं० प्र० ११० । ताम्रम् । प्रज्ञा० २७ । तंबकरोडयं - ताम्रकरोटकम् । प्रज्ञा० ३६० । तंबगाइ - चतुरिद्रियजीवभेदः । उत्त ० ६६६ । तंबयागर ( ४८० ) । भग० १६६ 1 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बागर ] संबागर - ताम्राकरः - यस्मिनिरन्तरं महामूषास्वयोदलं प्रक्षिप्य ताम्रमुत्पाव्यते सः । जीवा० १२३ । तंबायं - तम्बाकं ग्रामः । आव २०७ । तंबिता - ताम्रमयाः । नि० चू० द्वि० ४३ आ । तंबिया - ताम्राः | आव० ३५६ । तंबे - ताम्रम् । प्रज्ञा० ३६० । तंबोलिआ - नारुकाया नवमभेद: । जं० प्र० १९३ । तंबोली - ताम्बूली - नागवल्ली । ज०प्र० ४६ । जीवा० २०० । तंसबलं। नि० चू० प्र० १२५ आ । तं ससण्ठाणपरिणया- त्र्यत्रसंस्थानपरिणताः I प्रज्ञा० ११ । तं से- संस्थानविशेषः । भग० ८५८ । व्यस्रः संस्थानविशेषः । प्रज्ञा० २४२ । तअ - ततः - विस्तीर्णः, विस्तृतनामकः । जं० प्र० २१६ । तइओ - तृतीय: । बृ० तृ० २२५ अ । तइयकसाया - तृतीयकषायाः - अप्रत्याख्यानावरणः । आव ० ७८ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ तक्षः प्रायः शिरः कण्डूयनादयः पुरुषधर्मा । ठाणा० २१ । तर्क:- विमर्शस्तत्स्वभावेहा । विशे० १६४ । तर्क-तक्रा ख्यम् । पिण्ड० १६८ । तक्कणं - तर्कणं प्रार्थनम् । वृ० प्र० ३१२ अ । तक्कर - तस्कराः - सर्वदा चौर्यकारिणः । जं प्र० ६६ । चौरः । ज्ञाता० ८० । तदेविक्कं करोतीति तक्करो । नि० चू० द्वि० ३८ आ । तदेव कुर्वन्तीति तस्करा :सर्वकालं चौर्यकारिणः । उत्त० ३१२ । तक्करघराणि - तस्करगृहाणि तस्करनिवासान् शृङ्गाटकादीनि प्राग् व्याख्यातानि । ज्ञाता० ८१ । तक्करद्वाणाणि तस्करस्थानानि शून्यदेव कुलागारादीनि । ज्ञाता० ८१ । तक्करत्तणं - तस्करत्वं - अधर्मद्वारस्य नवम नाम । प्रश्न० ४३ । तक्करपओगे - तस्करप्रयोगः चौराणा हरणक्रिया प्रेरणम् । आव० ८२२ । तक्कलि - वलयाकारवृक्षविशेषः । भग० ८०३ । तक्कलि मत्थए-तक्कली - कन्दली तन्मस्तकं तन्मध्यवर्तीगर्भः । आचा० ३४६ । तइया - सञ्जातत्वचः । ज्ञाता० ११६ । तउअ - पृथिवीभेदः । आचा० २६ । तउयं-त्रपुकं वङ्गम् । प्रश्न० १५२ । त्रपु । प्रज्ञा० २७ । तज्यागरा। भगं० १६६ । तउस-त्रपुषः । दश ० ६१ । त्रपुषम् । प्रज्ञा० ३७ १ तउर्णा मजगा-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । उत्त० ६६५ । तउसमिजिया - पुषभिञ्जिका श्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा ० ३२ । तउसी - वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । वनस्पतिविशेषः । भग० ५०३ । तओ - तकः । उत्त० ८६ । तदनन्तरं तको वा प्राणी । उत्त० १५२ । ५१८ । तक्का - तर्का स्वकीयविकल्पना । सूत्र० ३७ । तर्कः एवमेव चायमर्थ उपपद्यते इत्यादिरूपा । दश ० १२५ । तक्कारो - तदेव चौर्यं करोतीत्येवंशीलः तस्करः । प्रश्न० ४६ । तक्कि - याचा | बृ० द्वि० १८० अ । तक्किया- तर्कयित्वा पर्यालोच्य । आचा० २७३ । तक्की - उपजीवकः । बृ० प्र० २६९ अ । तक्कोयणं-तक्रोदनं तक्रसहितमोदनम् । ओघ० ४६ । दशो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ । - तक्खणओलुग्ग-तत्क्षणमेव प्रव्रजामीतिवचनश्रवणक्षण एव तकेत - परम्परतो । नि० चू० द्वि० २१ आ । अवरुग्णं - म्लानम् । भग० ४६७ । तक्क - तर्क :- विमर्शः । भग० ५६ । ठाणा० ४६६ । तक्खलम्हासती - तत्स्थानवर्ती । नि० चू० प्र० २०८ अ । तर्कणं तक्क - विमर्शः अवायात् पूर्वा इहाया उत्तरा तक्षः - रथः । उत्त० ४१३ । सूत्रधारः । अनु० २२३ । ( अल्प ० ६१ ) ( ४८१ ) तओसिमि जिया - त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । तकारयकारवकारधकारनकारप्रविभक्ति-नामा अष्टा तक्कली - वलयविशेषः । आचा० ५७ । प्रज्ञा० ३३ कन्दली । आचा० ३४६ । तक्क सेणे - अतीतायां उत्सर्पिण्यां पञ्चमः कुलकरः । ठाणा ० Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक्षकः ] तक्षकः - रथकारः । अनु० ४१३ । तक्षशिलातलं तगर - सुगन्धिद्रव्यम् । अनु० १५४ । तगए - गन्धद्रव्यविशेषः । भग० ७१३ ज्ञाता० २३२ । गन्धद्रव्यम् । जीवा० ३५ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः यस्य स तच्चितः । विपा० ५३ । । आव ० १४७ | | तच्छण-तक्षणं क्षुरादिना स्वचस्तनूकरणम् । विपा० ४१ । त्वच:- क्षुरप्रादिना तनुकरणम् । ज्ञात० १८३ । । प्रश्न० १६२ | | तच्छमान-तक्ष्णुवानु तनूकुर्वन् । अनु० २२३ । १६१ । जं० प्र० तच्छिओ-तक्षितः त्वमपनयनतः । उत्त० ४६१ । तजाए - तज्जातः सदृक् शब्दः आचार्यं प्रत्युत्तरदाता शिष्यः । आव० ७२६ । तगरसमुग्गयं - तगरसमुद्गकम् । जीवा० २३४ । तगरा - सुव्यवहारकाचार्यस्थानम् । व्य० प्र० २५७ अ । तज्जइ - तर्जयति - अङ्गुलिशिरचालनेन तिरस्करोति । भग० नगरी विशेषः । उत्त० ६०, १०० । ४११ । तच्चणिय - तच्चनीकः वौद्धः । दश० ४७ । तच्चणियसड्डो - नच्चनीकश्राद्धः । आव० ७९६ । तच्चण्णिओ - तच्चनीकः बौद्ध: । आव० ४१६ । तच्चनीकः बौद्धः । आव ० २६५ । दश० ५३ । तच्चनिक:- बौद्धः । आव० ५६५ । तच्चन्नि - तच्चनीकः बोद्धः । औप० ७४ । तच्चा-तत्त्वानि वस्तूनामैदम्पर्याणि । ठाणा० ४६१ । तच्चावातो-तत्त्ववादी - शतानीकराज्ञो धर्मपाठकः । आव ० तगरायडं - तगरासमीपं नगरम् । अनु० १४६ तग्गयं तद्गतं - तत्संसूचकम् । जीवा० २६६ तच्चपि - त्रिरपि । आव० २६२ । तच्च - तथ्यां-अविपरिता । उत्त० ४७२ । अवितथा । उत्त० ५५५ । तत्त्वरूपः ऐदम्पर्यसमन्वितः । ज्ञाता० १७७ । तच्चकम्म- तथ्यानि - सत्फलानि अव्यभिचारितया यानि कर्माणि क्रियास्तत् । उपा० ४० । भणनरूपा । प्रश्न० १०६ । तच्चणिओ - तच्चनीकः बौद्धः । दश० ५४ | आव० | तजना तर्जना - अंगुलिभ्रमण भ्रूत्क्षैपादिरूपा । उत्त०४५६ । तज्जमाणे - कृतावष्टम्भान् तर्जयन् ज्ञास्यथ रे यन्मम इदं च इदं च न दत्स्वेत्येवं भेषयन् । विपा० ४० । तज्जा-तर्जा - हस्तादिना चोयं प्रति प्रेषणादि संज्ञा २२२ । तच्चावातेति-तत्वानि वस्तूनामंदम्पर्याणि तेषां वादस्तववाद:, तथ्यो वादः - सत्यो वादस्तथ्यवादः । ठाणा० ४६१ । तच्चासत्तराइं दिया- सप्त रात्रिन्दिवानि - अहोरात्राणि यासु ताः सप्तरात्रन्दिवास्ताच तिस्रो भवन्तीति । सम० २१ । तचिण्णा - चरगविसेसो । नि० चू० तृ० ३१ अ । तच्चित्ते तस्यामेव चित्तं - भावमन: सामान्येन वा मनो [जायसंसकप्पिय १६६ । तण - तर्जनं - शास्यसि रे ! इत्यादि वचनम्, वचनविशेष: 1 प्रश्न ५६ । परं प्रति ज्ञास्यसि रे ! जाल्मेत्यादि भणनम् । औप० १०७ । तजना तर्जना - शिरोऽङ्गुल्यादिस्फोरणतो ज्ञास्यसि रे जाल्मेत्यादिभणनम् । औप० १०३ । तर्जना असूयादिभिः । दश० २६७ । ज्ञास्यसि रे जाल्मेत्यादि भणनम् । अन्तः १८ | तर्जना - वर्जनीचालनेन ज्ञास्यसि रे दुष्ट इत्यादि करणम् । प्रश्न० ५८ । तज्जाइणी-वजातीया-त्वग्दोषा । आव ० ७१० । तज्जातं - वेच्चं । । राज० ३७ । द्रव्यप्रकारः । ठाणा० २६८ । तज्जात दोसे-तस्य गुर्वादिजतं - जातिः प्रकारो वा जन्ममर्मकर्मादिलक्षणः तज्जातं तदेव दुषणमितिकृत्वा दोषस्तज्जातदोषः, तथाविधकुलादिना दूषणमित्यर्थः अथवा तस्मात् प्रतिवाद्यादेः सकाशाज्जातः क्षोभान्मखस्तम्भादिलक्षणो दोषस्तज्जातदोषः । ठाणा० ४६२ । तज्जात पारिस्थापनिकी - पारिस्थापनिक्याः प्रथमो भेदः आव० ६१६ । तज्जातीयरूवं तज्जातीयरूपम् । आव० ६७६ । तज्जायं तज्जातं - तुल्यजातीयम् । आव० ६२२ । तज्जायसं सटुकप्पिय-यत्प्रकारं देयं द्रव्यं तज्ज्ञान ( ४८२ ) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ तणपूलिअं तडाग - खननसम्पन्नमुत्तानविस्तीर्णजलस्थानम् । उपा० १० । तडागं- तडागं । प्रज्ञा० २६७ । सरः । जं० प्र० १२३ । जीवा० १८६ । तडागः - कासारः । भग० २३७ । तडागमहो-त - तडाकमहः - तडाकसत्क उत्सवः । जीवा० २८१ । तडि-तटी-पार्श्वम् । अनुत्त० ६ । तडिओ-आरामिकः । आव० २६५ । बद्धः । आव०४२१ । तडिग - तटिकः । आव ३८४ । ८६ । | तज्जियं - तजितं यत् न कुप्यसि नापि प्रसीदसि काष्ठ शिव इवेत्यादि तर्जयन् निर्भर्त्सयत् वन्दते, अंगुल्यादिभिर्वा तर्जयन्, कृति कर्मणि एकोनविंशतितमो दोषः । आव ० ५४४ । तडिगा - उपानहौ । ओघ० ३४ । तडिगादिडेवणय - उपानही परिधाय डेवनं - लङ्घनमग्नेः कृत्वा व्रजति । ओघ० ३४ । तडितं - पिजितं रुतं । बृ० द्वि० ११६ आ । तडिय - नि० चू० प्र० १८६ अ । तडियकपडिओ-तटिककापटिकः । आव ० ११५ । । नि० चू० प्र० ३४४ अ । तडी- चिंचणी । बृ० द्वि० ३० अ । तटी नद्यादीनां तटम् । ज्ञाता० ६७ । आव० २७४ । छिण्णटेका । नि० ० प्र० ३० अ । तड्डेति - लाएति । नि० चू० प्र० तण - तृणं विरणादि । उत्त० ३७० । कार्जुनादीनि । प्रज्ञा० ३० । तृणं २२६ | आचा० ३० । वीरणादि । तणइओ - तनूजः । आव० ३४४ । तणकटु-तृणकाष्ठ: । आव० ४२३ । तणगं - तृणविशेषः । सूत्र० ३०६ । । नि० चू० द्वि० १६६ अ तणपणए - तृणपञ्चकं-शालि १ व्रीहि २ कोद्रव ३ रान ४५ रण्यतृणलक्षणम् । आव० ६५२ । तलायसंस० ] तत्प्रकारेण-द्रव्येण ये संसृष्टे हस्तभाजने ताभ्यां दीयमानं ग्राह्यमित्येवंरूपः कल्पः समाचारो यस्य सः तज्जातसंसृष्टकल्पिकः । प्रश्न० १०६ । तज्जायसं सट्टचरए - तज्जातेन देयद्रव्याविरोधिना यत् संसृष्टं हस्तादि तेन दीयमानं यश्चरति स तज्जातसंसृष्टचरकः । औप० ३६ । तज्जिओ-तजित: भर्सिंतोऽत्यन्तपीडित इति । उत्त० अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ तज्जिय- तर्जयित्वा भयमुपदर्थं । आच० ३४१ । तज्जेज्जा - तर्जयामि । उपा० ४२ । तज्जेति ज्ञास्यसि पापे ! इत्यादि भणनतः । ज्ञाता० तडिया २०० । तत्कंतिया - समानकुल गणसंघवर्तिन्यः भगिनी वा । व्य० प्र० २४८ । तटाक - कासारः । नंदी० १५३ । तट्ट-तट्ट - स्थालम् । प्रज्ञा० ७६ । तट्ट-स्वष्टा - द्वादशं मुहूर्त नाम । सूर्य० १४६ । तष्टं - घट्टितम् । सूत्र० १६५ । स्वष्टा - स्वष्टनामको स्वाष्ट्री चित्रेत्यपरनाम । जं० प्र० ४६९ । तडं-तीरं देवस्तेन । नि० चू० प्र० १८ अ । तडउडा-तडवडा-आउली । जं० प्र० ३४ | तडउडाकुसुमं - आउली तस्याः कुसुमं तडवडाकुसुमम् । तणणं जं० प्र० ३४ । ज्ञाता० १५६ । तडफडता भृशं आकुलतया गमनागमनं कुर्वाणाः । वृ० तडतडं - टत् । उत्त० ११३ । तडतडेंत-तटतटायमाना:- तथाविष ध्वनि विदधानाः । तणपणगं - तृणपञ्चकम् । ठाणा० २३४ । तृ० । । बृ० तृ० ५५ आ । तडफडा - गमनैः तडफडेति - विवदति । तडवडा - आउली । जीवा० १६१ । राज० ३३ । नि० चू० प्र० ११२ अ । १२४ आ । तडिगा - तृणपिण्डिका- तृणभार:, तृणपूलिका वा । तृणानि - कुशजंजुदर्भादि । दश० भग० ३०६ । आव० ६६७ । तडियं - तृणपिण्डिका । आव० ६८२ | तणपीढगं - एलालमयं तणपीढगं । नि० चू० द्वि० ६२ आ । तणपूलिअं - तृणपूलम् । आव० १५२ । ( ४८३ ) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तणफासा] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ तम्हाएत्तो १२२ । तणफासा-तृणस्पर्शः अशुषिरतृणस्य दर्भादेः परिभोगः, | तणुइ-तन्वी-शेषपृथिव्यपेक्षयाऽतितनुत्वाद, ईषत्प्राग्भाराया सप्तदशपरीषहः । आव० ६५७ । तृतीयं नाम । प्रज्ञा० १०७ । तणवेटका-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । तणुए-तनुकं लघु सुजरम् । शाता० १७७ । तणबेटिया-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । तणुओ-तनुक:-कृशम् । आव० ७६४ । तणमूल-तृणमूलम् । प्रज्ञा० ३४ । तणुतणूइ-अतितनुत्वात्तनुतनुरिति, ईषत्प्राग्भारायाश्चतुर्थ तणय-सत्कम् । आव० ३१४ । उत्त० १६० । __ नाम । ठाणा० ४४० । तनुम्योऽपि तन्वी मक्षिकापत्रतोतणवणस्सइकाइए-तणवनस्पतिकायिकाः बादरवनस्पति- ऽपि पर्यन्तदेशेऽतितनत्वात तनतन्वी. ईषप्रारभारायाकायिकान् । जं० प्र० १६८ । श्वतर्थ नाम । प्रज्ञा० १०७ । तणनमियं-तन-कृशं नतं तनुनतमीषन्नतम् । जीवा० । भग० ३०६ । . २७५। तणवणस्सहगणों-तणवनस्पतिगण:-बादरवनस्पतीनां समू- तणुय-तनुकं, सुजरम् । भग० ६७२ । तनुक:-दरिद्रः । दायः । प्रश्न. १२ । __ भग० १०१ । प्रतलम् । ज्ञाता० १३८ । तणवणस्सति-तृणवद्वनस्पतयः तृणवनस्पतयः । ठाणा | तणुया-तनु:-शरीरं तत्र जाता तनुजा । उत्त० ४०७ । ५२१ । बादरावनस्पतयोऽप्रबीजादयः । क्रमेण को- तणुल-तनुः-शरीरं सुखस्पर्शतया लाति-अनुगृह्णाति इति रण्टका उत्पलकन्दा वंशाः शल्लक्यो वटा एवमादयः। | तनुलं तनु सुखादि । जं० प्र० १०७ । ठागा० ३२५ । तृगवनस्पतयो बादरा इत्यर्थः । ठाणा तणुवाए-तनुवात:-विरलपरिणामो धनवातस्याधस्थायी । जीवा० २६ । तनुवातः-विरलपरिणामो घनवातस्याघs तणवणस्सतिकातिता-वनस्पतिः स एव कायः शरीरं स्थायी । प्रज्ञा० ३० । येषां ते वनस्पतिकायाः त एव वनस्पतिकायिकाः तृण- | तणुवाएसु । प्रज्ञा० ७७ । प्रकारा वनस्पतिकायिकास्तृणवनस्पतिकायिका बादरा तणुवायवलएस । प्रज्ञा०७७ । इत्यर्थः । ठाणा० १८६ । तणू-तनु:-बोन्दिः शरीरम् । प्रज्ञा० १०८ । तणवत्थुल-वनस्पतिविशेषः ।भग ८०२ । तणूइ । सम०२२। तणसाला-दन्भादितणाणं अवोपगासं तणसाला । नि. तणूति-तनु:-ईषत्प्रारभारायास्तृतीयं नाम । ठाणा०४४० । चू० प्र० २६५ अ । तणूयतरिति ।सम०२२ । तणसूए-तृणसूकं-तृणाग्रम् । भग० ६७७ । तण्डुल-युष उपयोगी। सूर्य ० २६३ ।। तणसूर्य-तृणाग्रम् । भग० ३७६ । तण्णगाई-तर्णकाणि-वत्सरूपाणि । बृ०प्र० ३१७ अ । तणसोल्लिअ-मल्लिकापुष्पम् । जं० प्र० २१२ । ज्ञाता० ! तण्हा-तृष्णा-प्राप्तानामव्ययेच्छा । भग० ५७३ । - २२२ । तृष्णा-प्राप्तार्थसंरक्षणरूपा । ०६२ । धनाद्या. तणहार-तृणहारकः त्रीन्द्रियजीवभेदः, श्रीन्द्रियजन्तु- कांक्षा-परिग्रहस्य सप्तविंशतितमं नाम । । प्रश्न० ६२ । जीवा ३२ । उत्त०६६५। प्रज्ञा०४२ । तृष्णा-द्रव्याव्ययेच्छा । प्रभ०६७। तृष्णा-विद्यमानतणहारिगो-तृणहारकः । आव० ६७६ । द्रव्याव्ययेच्छा । प्रश्न० १२४ । प्राप्तद्रव्यस्याव्ययेच्छा। तणु-तनु-तनुकम् । तनवः प्रतलाः। जं० प्र० ११०। प्रश्न ४४ । तृष्णा-द्रव्यादिविषया । उत्त० ५६० । तनु-कृशम् । सति मुर्छा । उत्त० ६२३ । तणुअंत-प्रश्रवणपरिणामि ! तं० । तण्हाइओ-तृष्णादित:-पिपासितः । प्रभ० १६ । तणुअ-तन्तुक:-सूक्ष्मोर्णा । जं० प्र० १०७ । | तण्हाएत्तो-तृषितः । उत्त० ८७ । ( ४८४ ) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तव्हा गेहि ] तण्हा गेहि - तृष्णा राद्धिः - तृष्णा- प्राप्ताद्रव्यस्याव्येच्छा वृद्धिः अप्राप्तस्य प्राप्तिर्वाञ्छा, तृतीयाधर्मद्वारस्याष्टाविंशतितमं नाम । प्रश्न ० ४४ । म्यामिति । उत्त० ४६० । तत्तडिया - सरचनाका । ग० । आव ० तत्ततो- तप्तं तपो येन स तप्ततपाः । सूर्य ० ४ । तव्हावुच्छेअ णं- तृम्यच्छेदनं तद्विषयावभिलाषनिवृत्तिः । तत्तऽनिव्वुडं - तप्ता निर्वृतं अप्रवृत्तत्रिदण्डम् । दश० १८५ ॥ आव० ८५१ । तत्तफा सुअ-तप्तप्रासुकं तप्तं सरप्रासुकं त्रिदण्डोवृत्तं, aroutaकमात्र प्रतिगृह्णीयाद् वृत्त्यर्थम् । दश० २२८ । तत्तमासगाइनो - तप्तमाषकादिः - द्रव्यप्रत्ययः । २८० । तत्तवती - अर्जुनराज्ञी । विपा० ९५ । तत्तानिव्वुडमोइत्तं तप्तानिर्वृतभोजित्वं तप्तञ्च तदनिर्वृतञ्च - अत्रिदण्डोद्वृत्तं चेति विग्रहः, उदकमिति विशेषणान्यथानुपपत्त्या गम्यते, तदभोजित्वं मिश्रसचितोदकभोजित्वम् । दश० ११७ । तत्ति-तप्तिः । पिण्ड० ७३ । व्यापारः बृ० द्वि० ४० अ । तत्तिला - अर्थिनः । अध० ७१ । यत्नवती, परायणा । नंदी० ६४ । तत्तिल्लो - दक्षः | आव० २११ | तत्ती - तप्तिः चिन्ता । आव० ६८३ | तप्तिः तापः । उत्त० ४३३ । गवेषणं पालनं वा । प्रश्न० ६७ । तप्तिःसारा । व्य० प्र० १७१ अ । तत्त्वज्ञः सर्वज्ञस्तीर्थकृत् । आव ० । तत्वार्थश्रद्धानं - तत्तत्थसद्द हाणं तत्त्वानां निश्चितं वाऽर्थानां प्रत्ययः । तत्त्वा०१-२ । प्रशमादिपश्ञ्चलक्षण व्यंग्यः । तत्वानुरूपं विवक्षितवस्तुस्वरूपानुसारिता, पञ्चदशो वचनातिशयः । सम० ६३ । तत्थ - तस्मात् । व्य० द्वि० ७७ आ । त्रस्तः-न उद्विग्नः । उत्त० ४६१ | त्रस्तम् । भग० १६६ । तत्थगए- तत्रगतः । आव० ७२६ । तत्था - त्रस्ता उद्विग्नाः सञ्जातभया भयप्रकर्षाभिधानायैकार्थाः । विपा० ४३ । ज्ञाता० ६४ । नष्टाः । जं० प्र० २३६ । तत्पदं तस्य पद्यते - गम्यते येनार्थस्तस्पदं - अभिधानम् । अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषः, मा० ३ तत-तत वीणादि । प्रश्न०८ । ततं - वादिविशेषः । जं० प्र० ४१२ । आउज्जविसेसो । नि० चू० तृ० १ अ । तन्त्रीवर्धादिबद्धमातोद्यम् । ठाणा० ६३ । वीणाविपश्वीबद्धीसकादिं तन्त्रीवाद्यम् । आचा० ४१२ । ततं वीणादिकम् । जं० प्र० १०२ । तकः ततो वा । उत्त० २५६ | ततः-तको बालः । उत्त० २८० । तत्र । उत्त १५६ । ततगइ - ततस्य ग्रामनगरादिकं गन्तुं प्रवृत्तत्वेन तच्चाप्राप्तस्वेन तदन्तरालपथे वर्त्तमानतया प्रसारितक्रमतया विस्तारं गतस्य गतिस्ततगतिः, ततो वाऽवधिभूतग्रामा देनं गरादी गतिः । भग० ३८१ । सतगती - तता- विस्तीर्णा सा चासो गतिश्च ततगतिः, यं ग्रामं सन्निवेशं वा प्रति प्रतिष्ठितो देवदत्तादिस्तं ग्रामादिकं यावदद्यापि न प्राप्नोति तावदन्तरा पथि एकैकस्मिनु पदन्यासे तत्तद्देशान्तरप्राप्तिलक्षणा गतिरस्तीति ततगतिः । प्रज्ञा० ३२६ । तता - विस्तीर्णा । प्रज्ञा० ३२८ । ततोपाए - ततः प्रभृति | ओघ० ७३ । ततोहुत्तो - ततः सकाशात् । उ० १५६ । तत् - सर्वलिङ्गवचनेष्वव्ययम् । प्रज्ञा० ८ । तत्करा- आसङ्गः सम्बन्धः -- तत्कराः - रागद्वेषकारिणः । आचा० २१६ । तत्त- तप्तं तापितम् । ज्ञाता० ६ । तप्तं तापितम् । विपा० ३४ । तत्वं वस्तुस्वरूपम् । प्रश्न० ३५ । तप्तं संक्रान्ततापम् । भग० १६६ | तापः । भग० ३०७ । तत्तकवल्लकब्भूय। भग० १६६ । तत्तजला - तप्तजला, अन्तरनदी नाम । जं प्र० ३५२ । तत्तजलाओतत्तजुत्त-तोत्र योग्क्रः- प्राजनकबन्धन विशेषः मर्माषट्टनाहना । ठाणा० ८० । आचा० २३१ । तत्परं तत्र द्रव्यपरं तावत्तद्रूपतयैव वर्त्तमानं परमन्यत्तत्परम् । आचा० ४१५ । ( ४८५ ) [ तत्परं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वं ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [तपआचार तत्वं-शब्दार्थरूपम् । विशे० २२ । लक्षणम् । विशे० । तदेकदेसो-तदेकदेशः द्रव्यहेतुभूतः । आव० ३२७ । १०७ । तहवं-तद्रव्यं-पटादेव्यं तन्स्वादि । आव० २७८ . सत्रस्था-स्वरूपस्था । आव० ३३८ । तद्दव्वसुद्धो-यद् द्रव्यमन्येन द्रव्येण सहासंयुक्तं तच्छुद्ध तत्समध । उपा० ७ । भवति क्षीरं दधि वा असौ तद्रव्यशूद्धिः । दश० २११ । तथा-आनन्तर्ये । आव० १० । अवधिज्ञानसारूप्य- तद्दव्वकरणं-तव्यमिति तस्यैव पटादेव्यं तद्रव्यंप्रदर्शनार्थः । आव० ८।। तन्त्वादि, तदेव कारणमिति द्रष्टव्यम् । आव० २७८ । तथाकार:-गुर्वादिषु ब्रुवाणेषु यथाऽदिशत यूयं तथैवेति तद्रव्यनानाता-द्रव्यनानाताया भेदः । आव० २८१ । भणनम् । बृ० प्र० २२२ अ। तद्दिट्टी-तस्य आचार्यस्य दृष्टिस्तदृष्टिः । सततं वत्तितव्यं तथाज्ञान:-जानत्प्रश्नः । ठाणा० ३७६ । हेयोपादेयार्थेषु, यदि वा तस्मिन् संयमे दृष्टिस्तदृष्टिः स तथाभव्यत्वं-भव्यत्वभेदः । प्रज्ञा० ११२ । एव वाऽऽगमो दृष्टिस्तदृष्टिः । आचा० २१५ । तथारूप:-तथाविधोऽविज्ञातव्रतविशेष इत्यर्थः । भग० तद्दिवसं-प्रतिदिनम् । बृ० प्र० २९३ अ । प्रतिदिवसं. दिने दिन इत्यर्थः । व्य० द्वि० २९७ आ । तदंतरे-यवनिकान्तर इत्यर्थः । उत्त० ४२५ । | तहेक्कदेसेणं-तेषां-द्रव्याणामेकदेशेन इत्यर्थः । ठाणा० तदझवसाणे-तस्यामेवाध्यवसानं-भोगक्रियाप्रयत्नविशेष- २६० । रूपं यस्य स तदध्यवसानः । विपा० ५३ । तसे-तस्य देशस्तद्देशः । दश० ३५ । तदट्टोवउत्ते-तदर्थ-तत्प्राप्तये उपयुक्त:-उपयोगवान् यः तद्दोस-त्वग्दोषः-कुष्ठी । ओघ० १६३ । तद्दोषः । दश. स तदर्थोपयुक्तः । विपा० ५३ ।। ३५ । नि० चू० प्र० १८८ आ । तदन्नं-तदन्यत्-तस्मात् घृतादेः अन्यत्-क्षीरगुडादि । तद्दोसाई-त्वग् दोषा त्वग्दोषं क्षयव्याध्यादिः। व्य० द्वि० ओघ० १७० । १६० आ । तदन्नवत्थुते-तस्मात्-परोपन्यस्ताद् वस्तुनोऽन्यदुत्तरभूतं तद्दोसी-स्वग्दोषी-कुष्ठी । पिण्ड० १३९ । वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तदन्यवस्तुकः । ठाणा० | तद्धितो-तद्धितः-तस्य हितः । आव० १५५ । २५४ । तद्धिय-तद्धितः-तस्मै हितं तद्धितमित्याद्यर्थाभिवायको यः तदन्नवयणे-तदन्यवचनम्, तस्माद्-विवक्षितघटादेरन्यः । प्रत्ययः । प्रश्न० ११७ । पटादिस्तस्य वचनम् । ठाणा० १४१ । तद्यक्तं-बलीवादिभिः । ठाणा० २४० । तप्पियकररणे-तस्यामेवापितानि - ढोकतानि करणानि तनु-स्तोकं मन्दं यतनयेति । उत्त० ४११ । इन्द्रियाणि येन स तदर्पितकरणः । विपा० ५३। तनुवर्गणा-ध्रुवानन्तरं वर्गणानामुपरि प्रत्येकमेकोत्तरतदुपरि-तत्र जङ्घार्द्धप्रमाणे उदकसंस्पर्श संघट्टः, नाभि- | वृद्धियुक्तानन्तवर्गणात्मिकाश्चतस्र एव तनुवर्गणा भवन्ति । प्रमाणे उदकसंस्पर्श लेपः, तत उपरि उदकसंस्पर्श विशे० ३३१ । भेदाभेदपरिणामाभ्यामौदारिकादियोग्यतदुपरि । व्य० प्र० २५आ। ताऽभिमुखा । आ० ३५ ।। तदुग्भवो-तदुद्भवः-शरीरोद्भवो गण्डादिः । आव० | तन्नगं-बालवच्छं । नि० चू० द्वि० ५६ अ । ७६४ । तन्त्रपाल:-दण्डनायकः । भग० ३१८ । तदुभयपतिट्टिए-तदुभयप्रतिष्ठितः-आत्मपररूपोभयप्रति- | | तन्निवेसणे-तस्य-गुरोनिवेशनं-स्थानं यस्यासौ तनिवेशनः, ठितः । प्रज्ञा० २६० । सदागुरुकुलवासी । आचा० २१५ । तदेक्कदेसभाए-तदेकदेशमामे मंदरादिवाप्यादिषु । प्रश तपआचार:-अनशनादिभेदो द्वादशधा । ठाणा० ३२५, ७१। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ तमं तपः-सिदत्वे दशमः भेदः । ठाणा० २५ । लिङ्गः । ठाणा तब्भत्तिय-तद्भक्तिकः-तत्र सोमे भक्ति:-सेवा बहुमानो वा प. प्रायश्चित्त:-त्रिविषे प्रायश्चित्ते द्वितीयम् । यस्य स तद्भक्तिकः । भग० १६६। बृ० प्र० ४८ आ। तब्भवं-तद्भवमरणं, मरणस्य सप्तमो भेदः । उत्त० २३० । सपः-संयमरक्षणार्थ कर्मनिर्जराथं च चतुर्थषष्ठाष्टमादि तस्मिन् भवे जीवितं तद्भवजीवितम् । आव० ४८० । सम्यगनशनम् । तत्त्वा० १-१६। तस्थेवकाए उन्भवो । नि० चू०प्र० १८८ आ। सपाक्षपणं-सम्यगुपक्रमेणानुदीर्णोदीरणदोषक्षपणवदन्यनिमितम्भवजीवियं-तद्भवजीवितं तस्यैव पूर्वभवस्य समानत्तप्रक्रमेणापरिक्लेशम् । दश० २७४ । जातीयतया सम्बन्धि जीवितम् । ठाणा० ७ । तद्भवसपति-दुनोति । ठाणा० ३६४ । जीवितम् । दश० १२२ । तपसढं-जं बहु देवसियं । दश० चू० ८१ आ। तब्भवजीवो-तद्भवजोवः तद्भव एवोत्पन्नः । दश० । यश्चित्तविशेषः । व्य० प्र० १८७ आ । १२१ । सप्प-तप्र: काष्ठसमुदायविशेषः । प्रज्ञा ५४२ । नंदी० तब्भवमरणं-जंमि भवे वट्टइ तस्सेव भवस्स हेउसु वट्ट८८ । उडुपकः । भग० ५२४ । तप्र:-मत्स्यग्रहणार्थ माणो आउयं बंधित्ता पुणो तत्थोववजिउकामस्स जं तरकाण्डविशेषः । प्रश्न० १३ । तप्र-उडुकस्तस्येवा- मरणं तब्भवमरणं । नि० चू० द्वि० ५२ आ । ऽऽकारो यस्याऽसौ तप्राकारोऽवधिर्नाकराणां मन्तव्यः, यस्मिन् भवे-तिर्यग्मनुष्यभवलक्षणे वर्त्तते जन्तुस्तद्भतप्रश्च किलाऽऽयतयस्रो अवति । विशे० ३५३ । वयोग्यमेवायुर्बध्वा पुनः तत्क्षयेण म्रियमाणस्य यद्भसप्पक्खिओ-तपाक्षिकः-तस्य हितैषी । बृ० द्वि० १६५ वति तत्तद्भवमरणम् । सम० ३३ । यस्मिनु भवे वर्त्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवायुर्बवा पुननिमाणस्य मरणं तप्पक्खिय-तस्पाक्षिकः-तस्य सोमस्य प्रयोजनेषु सहायः ।। तद्भवमरणम् । ठाणा० ६३ । भग० १९६ । तत्पाक्षिक:-केवलिपाक्षिक: स्वयंबुद्धः । तभविय-तद्भविकमरणं-यस्मिन्नेव मनुष्यभवादी मृतः । भग० २२२ । पुनस्तस्मिन्नेवोत्पद्य यन्म्रियते इति । उत्त० २३० । तप्पडिरूवगववहारे - तत्प्रतिरूपकव्यवहारः - अधिकृतेन तब्भारिया-तस्य सोमस्य भार्या इव भार्या अत्यन्तं सदृशस्य प्रक्षेपः । आव ८२२ । वश्यत्वात्पोषणीयत्वाच्चैति तद्भार्याः, तद्भारो वा येषां तप्पढ़म-तत्प्रथमं तत्कालम् । जीवा० २७१ । वोढव्यतयाऽस्ति ते तद्भारिकाः । भग० १६६ । तप्पण-वण्णवलादिणिमित्तं घयादिणेहपाणं तप्पणं । नि० तब्भाव-तभावः । ठाणा० ३३१ । तस्य भावस्तद्भावः चू० द्वि० ८६ । तर्पणं-स्नेहादिभिः शरीरबृंहणम् । पुंवेदः । व्य० द्वि० १७५ आ ।। विपा० ४१ । स्नेहद्रव्यविशेषबृंहणम् । ज्ञाता० १८३। तब्भावणाभाविए-तद्भावनया-कामध्वजाचिन्तया भा. तप्पणादृयालिया-मथ्यमानसाक्तकः । दश० ५६ । । वितो-वासितो यः स तदभावनाभावितः । विपा० तप्पती-तप्यते-पीड्यते क्लेशभाग्भवति । सूत्र० १८३ ।। ५३ ।। तप्पभेएण-तेषां मूलजातिभेदानां येऽन्ये प्रकृष्टाः सूक्ष्मतरा तमतमेति-तमस्तमा यत: प्रबलान्धकारतया परिणमते । भेदास्तरित्यर्थः । विशे० ९२२ । बृ० द्वि० १६७ आ । तप्पागारे-तप्राकार:-उडुपकाकारः । आव० ४१ । तमंपविट-तमःप्रविष्ट इव तमःप्रविष्टः । भग० ३१२ । तप्पूरक्कारे-पुरस्करणं पुरस्कार:-सर्वकार्येष्वग्रतः स्थापनं, | तमंपविटा-तमःप्रविष्टा:-अज्ञानमग्नाः । प्रश्न० ९८ । तस्य-आचार्यस्य पुरस्कारस्तत्पुरस्कारः । आचा० २१५ । तम-तमयति-खेदयति जनलोचनानोति तमः । उत्त० नप्रादिरूपः-आकारविशेषः । प्रज्ञा० ५३६ । ३८ । दुःखस मुद्धातेन सदसद्विवेक प्रध्वंसित्वाद्यातनातबरि-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । स्थानम् । अज्ञानरूपं, ज्ञानावरणादिरूप महत्तरं तमः । ( ४८७ ) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमतमप्पभा ] सूत्र० २२ । कण्हचउदसीए राओ भास रदव्वाभावो । नि० चू० प्र० ३०२ आ । तमः - अज्ञानम्, बद्धस्पृष्टनिधत्तं ज्ञानावरणीयं वा । आव० ७८८ | अकायपरिणामरूपोऽन्वकारः । ठाणा० २१७ । तमः - अंधकाररूपत्वात् । भग० २६६ । नरकः । उत्त० ४०० । कृष्णचतुर्दशी रात्री ध्वान्तम् । बृ० तृ० १५४ आ । न किंचि स्पश्यतीत्यर्थः । नि० चू० प्र० ३०२ आ । तमतमप्पभा - तमः तमः प्रभा । प्रज्ञा० ४३ । तमतमा - अतिशयतमोरूपद्रव्ययुक्ता पृथ्वी । अनु० ८६ । प्रकृष्टं तमस्तमस्तमः । तमस्तमः प्रभेत्यर्थः | भग० ६- । तमस्तमः प्रभा नाम्नी सप्तमी पृथिवी । भग० आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ तय तमा - रात्रिस्तदाकारत्वात्तमाऽन्धकारेत्यर्थः । भग० ४६३ । ठाणा० १३३ । तमा-अन्धकारयुक्तत्वेन रात्रितुल्यस्वादधोदिशश्च । ठाणा० ४७८ । अधोदिक् । आव ० २१५ । तमोरूपद्रव्ययुक्ता पृथ्वी । अनु० ८९ । तमाल-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ । तमालपत्तं - तमालपत्रम् । उत्त० १४२ । तमालपत्र - पत्र विशेषः । जीवा० २३६ । तमाले - वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । तमिति - । ठाणा० २१७ 1 ठाणा० ७१ । तमिश्रा गुहा - तमिसगुहा - तमिश्र गुहा । आव० १५० । तुमुए - भगवतोसूत्रस्य षष्ठशतकस्य तमस्कायार्थनिरूपणार्थ: पञ्चमः । पञ्चमोद्देशकः । भग० २५० । तमुकाए-तमस्कायः अन्धकारराशिरूपत्वात् । भग० २७०। तमुक्काए तमसां तमिश्र पुद्गलानां कायोराशिस्तमस्का । ६८ । भग० २६८ । तमतिमिरं- रातो जदा रयरेणु घूमिगा भवति तदा तमतिमिरं । नि० चू० प्र० ३०२ आ । सरजो धूमि कादिकं कृष्णचतुर्दशी रात्रि तमः । बृ० तृ० १५४ आ । तमतिमिर पडलं समेध दुर्दिनरजोधूमकादिकं कृष्णचतुर्दशी रात्रिध्वान्तं तदा तमतमिरपडलम् । वृ० तृ० १५४ | तमुक्कातेति तमसः - अप्पकाय परिणामरूपस्यान्धकारस्य आ । रातीए रायादिआ मेह दुद्दिणं व भवति, अंधकार • विशेषः । नि० चू० प्र० ३०२ आ । तमतिमिरपडलविद्धंसणं तमस्तिमिरपटल विध्वंसन:-अज्ञानतिमिरवृन्दविनाशनम् । आव० ७८८ । तमपडल मोहजाल परिच्छन्न - तमः पटलमिव तमःपटलंज्ञानावरणं मोहो - मोहनीयं तदेव जालं मोहजालं ताभ्यां प्रतिच्छन्ना - आच्छादिता ये ते तमःपटल मोहजालप्रतिच्छिन्नाः । भग० ३१२ । तमप्पभा - तमः प्रभा । प्रज्ञा० ४३ । तमबल पलज्जणे - तमो बलेन - अन्धकारबलेन सञ्चरन् प्रलज्जते इति तमोबलप्रलज्जनः प्रकाशचारी । ठाणा० २४६ । तमो - मिथ्याज्ञानं अन्धकारं वा तदेव बलं तत्र वा अथवा तमसि - उक्तरूपे बले च सामर्थ्यं प्ररज्यते - रति करोति इति तमोबलप्ररञ्जनः । ठाणा० २४६ । तमरय - तमोरजसी - अज्ञानपातके । सम० ११५ । तमस - तमसं तमोवत् । दश० १६७ । तमः प्रभा - नरकपृथ्वी । आव ० लक्षिता पृथ्वी । अनु० ८६ । ३६३ । कृष्णद्रव्योप काय:- प्रचयस्त मस्कायः । ठाणा० २१७ । तमूयत्ता - तमस्त्वं अत्यन्तान्घतमसत्वं जात्यन्धता, अत्यन्ताज्ञानवृतता वा । सूत्र० ३१६ । तमोक सिय-तमसि काषी तमसि कषितुं शीलं यस्य सः 1 पराविज्ञाताः क्रियाः कुर्वन्तीत्यर्थः । सूत्र० ३१३ । तमोरूवत्ता - तमोरूपता - अन्धबधिरता । सूत्र० ४२२ । तम्प्रति-तमाश्रित्य - तद्व्यवच्छेदायेत्यर्थः । विशे० ३३२ । तम्मण - तन्मनाः द्रव्यमनः प्रतीत्य विशेषोपयोगं वा । विपा० ५३ । ओप० ६० । तत्रैव अर्थादौ मन:विशेषोपयोगरूपं यस्य सः । भग० ८६ । तम्मुती-तेनोक्ता सर्वसङ्गेभ्यो विरतिर्मुक्तिः । आचा० २१५ । तम्मुहो- तन्मुखः । आव० ४११ । तय-सतं - मृदङ्गपटहादि । जीवा० २४७ । ततं वीणादिकम् । भग० २१७ | जीवा० २६६ । ततं विस्ती र्णम् । उत्त० ४०७ । श्वक् वल्कलम् । औप० ७ । बाह्यवल्कम् | ठाणा० १८६ | तिलतुसतिभागमेत्तं । नि० चू० प्र० ३५५ अ । (855) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तया] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [तरुणा तया-त्वक्-छल्ली । जं० प्र० २६ । त्वचः-छल्लयः । प्रज्ञा० तरपन्नं-तारणमूल्यम् । नि० चू० द्वि० ७८ अ । ३१ । त्वक् । सूत्र० ३१२ । त्वक्-त्वगिवासारं भोक्त- तरमल्लिहायणा-तरो-वेगो बलं वा तथा 'मल्लमल्लिव्यमित्यर्थसूचकत्वात् त्वगुच्यते, साधोरूपमानम् । दश० धारणे' ततश्च तरो धारको वेगादिकृत् हायन:-संवत्सरो .१८ । स्वक्-चातुर्जातकाङ्गम् । उत्त० १४२ । त्वचा वर्तते येषा ते तया यौवनवन्तः । भग० ४८० । जं. सनादिकम् । जं० प्र० १४७ । प्र० २६५। तयापाणए। भग० ६८० । तरमाण । नि० चू० प्र० २६ अ । तयाहारा-तृणाहाराः । निरय० २५ । तरसि-शक्नोषि। आव० ३०५। तयाविस-त्वग्विषः । आव० २७४, ४२६ । तरा-त्वरा-मानसौत्सुक्यम् । जं० प्र० ३८८ । तयाविसा-स्वचि विषं येषां ते त्वविषाः । जीवा० ३६ । प्रज्ञा० ४६। तरियव्वो-तरणीयः । ज्ञाता० १६६ । तरंगवइक्कारे । अनु० १४६। तरो-तरिका-उडुपः । पिण्ड० १०२ । तरंगवती-कामकथायां अनुभूतमधिकृत्य निजानुभवनिवेद- तरुगणा-तरुगणा: नालिकेर्याचारामाः । दश० १६३ । यित्री । दश० १६० । मिश्रकथाव्याख्याने स्त्री । तरुगणगणो-तरुगणगण:-वृक्षगुच्छादिवृन्दसमूहः । प्रश्न दश० ११४ । धर्मकथाविशेषः । व्य० द्वि० ११३ आ। २४ । बृ० तृ० १६ अ। तरुण-प्रवर्द्धमानवयाः । अनु० १७६ । नवम् । जीवा० तरंड-पोतः । ओघ० ३१ । २७१ । प्रत्ययः । ज्ञाता० २२२ । तरुण:-उद्गच्छत् । तरंति-शक्नुवन्ति । ओघ० ७५ ।। जं० प्र० १८३ । तरुणः-प्रवर्द्धमानवयाः विशिष्टवर्णादितर-तरः वेगो बलं वा । जं प्र० ५३० । भग० ४८० । गुणोपेतमभिनवं वस्तुजातम् । जीवा० १२१ । यद् औप०७० । शय्यातरः । बृ० द्वि० १४७ आ। द्रव्यं विशिष्टवर्णादिगुणोपेतमभिनवं च तत्तरुणम् । तरइ-तरति-शकुनोति । विशे० ९४ । राय० २२ । वर्धमानवयाः, वर्णादिगुणोपचितः । उपा० तरई-तरति-क्षेमेण वर्तते । पिण्ड० १२३ । ४६ । अर्वाक चत्वारिंशतो वर्षेभ्यः । व्य० प्र० २४५ । तरच्छ-तरक्षवः मृगादनाः । जं० प्र० १२४ । तरक्षुः चत्ता सत्तरुणो । ब्य० द्वि० ११२ आ। जन्मपर्यायेण व्याघ्रविशेषः । भग० १६१, ३०६ । ज्ञाता० ७० । षोडशवर्षाण्यारभ्य यावश्चत्त्वारिंशद्वर्षाणि तावत्तरुणः । तरक्षुः-व्याघ्रजातिविशेषः । प्रज्ञा० २५४ । तरक्ष:- ध्य० प्र०२४५ अ। तरुण:-प्रथमकुमारत्वे वर्तमानः । व्याघ्रविशेषः । प्रश्न. ७ । तरक्षः-सनखपदश्चतुष्पद- व्य० प्र० १४३ अ। विशेषः । जीवा० ३८ । तरच्छ-वनजीवाः । मर० । तरुणइत्ते-तरुणः युवा । दश० १०५। तरणं-बाह । आव० ५६ । णित्थारणं । नि० चू० प्र० तरुणगं-अभिनवम् । भग० ६८४ । अहुणुट्टियं । दश० ९५ अ। चू० ८६ अ। तरणीयं-उडुप नद्यादि । आव० ५६ । तरुणदिवायरनयणो-तरुणदिवाकरनयन:-रक्ताक्षः । आतरतमजोगो-तरतमयोग:-साकारोपयोगः । विशे० व० ५६६। ११९८ । तरुणधम्मो-तस्य तावन्तं कालमसमापयन तरुणधर्मा तरति-शक्नोति । नि० चू०प्र० २७ अ । अविपक्वपर्यायः । बृ० प्र० १२६ आ। जस्स वा सुत्तस्स तरत्थम । नि० चू० द्वि० १३३ आ। जो कालो भणितो तं अपूरेतो तरुणधम्मो भर्वा तरपणट्टा । ओघ० ३३ । चू० तृ० ८१ अ। तरपण्णं-तरपण्यम् । बृ० तृ० १६० आ। तरुणा-तरुणा अभिनवा कोमलेति । अनुत्त०४। . . (अल्प० ६२) (४८९) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरुणरहस] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः तिलाग तरुणरहस-रोगः । ओघ० ६४ । तलपत्त-तलपत्राणि-तालाभिधानवृक्षवर्णानि । ज्ञाता० तरुणसहयरि-तरुणसहचरी-युवतिमयूरा । ज्ञाता० २६ । । २३१ । तरुणा-असञ्जाता । दश० १८५ ।। तलभंगय-तलभङ्गकम् । ओप० ५५ । तलभङ्गक-भूषण. तरुणिमान:-तारुण्यम् । नंदी० १६१ । विधिविशेषः । जीवा० २६६ । तलभङ्गक-बाह्वाभरणम् तरुणी-अपरिपक्वा । आचा० ३२३ । । औप० ४६ । तलभङ्गक:-बाह्वाभरणविशेषः । प्रज्ञा० तरुणीपडिकम्म ।ज्ञाता० ३८ । ६१ । जीवा० १६४ । तलभङ्गक-बाह्वाभरणम् । तरुणीपरिकम्म-तरुणीपरिकर्म यूवतीनामङ्गसस्क्रिया व- ज० प्र० १०६ ।। र्णादिवृद्धिरूपा । जं० प्र० १३८ ।। तलवर-परितुष्टनरपतिप्रदत्तरत्नालङ्कृतसौवर्णपट्टविभूषिततरुपडणे-तरुपतनम् । ठाणा० १३ । शिराः । अनु० २३ । परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धतरुपतनस्थानानि-यत्र मुमूर्षव एवानशनेन तरुवत्पति- भूषितः । ठाणा० ४६३ । प्रभूस्थानीयो नगरादिचिन्त तास्तिष्ठन्ति तरुभ्यो वा यत्र पतन्ति । ठाणा० । कः । उत्त० ३४३ । तलवर:-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टतरोमल्लिन-बलाघायिनो वेगाधायिनोवा । ज्ञाता० ५८ । बन्धविभूषितः राजस्थानीयः । प्रज्ञा० ३२७ । भग तरोमलिहायणे-तरोमल्लिहायन: तरोधारको - वेगादि- ३१८, ४६३ । तलवर:-प्रतुष्टनरपतिवितीर्णपट्टबन्ध:धारको हायनः संवत्सरो यस्य सः यौवनवानिति । जं. विभूषितो राजस्थानीयः । भग० ११५ । तलवर:प्र. ५३०। सन्तुष्टनरपतिप्रदत्तसौवर्णपट्टालङ्कृतशिरस्कचौरादिशुद्धय. तरोमल्लो-तधारक: वेगादिकृत् । जं० प्र० २६५ ।। धिकारी । जं० प्र० १२२ । तलवर:-राजवल्लभः, तर्कणं-मनसा यदि मह्यमसौ ददातीति विकल्पनम् । उत्त० राजसमानः । अन्त० १६ । राजप्रतिमाचामरविहितो ५८७। तलवरो । नि० चू० प्र० २७० अ । तलवर:-परितुष्टतकुंक:-वनीपकः । प्रश्न० १५४ । नरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूषितः । औप० १४ । तलवर:तर्कणवृत्तोनि । ठाणा० ४२० । परितुष्टनरपतिवितीर्णपट्टवन्धविभूषितः राजस्थानीयः । तर्णकं । उत्त० ३०५ । औप० ५८ । तलवर:-कृतपट्टबन्धराजस्थानीयः। प्रश्न तप्पणालोडिकयेति-सक्त्वालोडनेन जलाद्यालोडितसक्तु- ६६ । तलवर:-राजप्रसादवान राजोत्थासनिकः । विपा. भिरित्यर्थः । ठाणा० २६१ । ४० । तलवर:-परितुष्टनरपतिप्रदत्तरत्मालङ्कृतसौवर्णतर्षः-तृष्णा । उत्त० १८३ । पट्टविभूषितशिराः । जीवा० २८० । परितुष्टनरपतितलं-रूपम् । औप० १६ । उपरितनो भागः। जीवा० दत्तसौवर्णतलवरपट्टालंकृतशिरस्कः । बृ० तृ० २५५ आ । १८६ । प्रतिष्ठानम् । प्रश्न० ६३ हस्तपुटम् । जीवा० राजबल्लभः । भग० ४६३ । २६६ । भूमिका । जीवा० १०३ । तालवृक्षः । अनु० | तलवरा-तलवरा:-परितुष्टनृपदत्तपट्टबन्धविभूषिता राज१७७ । घुटिकाकाल: । बृ० द्वि० ७ अ । हस्ततलः । स्थानीयाः । जं० प्र० १६० । परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टजं० प्र० ६३ । तल:-तालवृक्षः । जीवा० १२२ । तल:- बन्धविभूषिताः । राज० १२१ । हस्तक: । जोवा० १६० । तल:-हस्ततलः । जीवा० | तला-तलौ-हस्ततली । जीवा० १६२ । प्रज्ञा ८६ । २१७ । तल:-उपरितनो भागः । सूर्य० ६६ । हस्तका: । प्रज्ञा० ८६ । सम० १३८ । जं० प्र० तलउदाडा-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । ७६ । औप० ५। तल भूमिका । प्रज्ञा० ८० । हस्ततलणं-जलनम् । प्रश्न० १४ । तालाः । प्रश्न० १५६ । तलताला-हस्ततालाः । सूर्य० २६७ । ज्ञाता० २३३ । तलाग-तडागः । प्रश्न० ८ । तडाग:-पुरुषादिकृतो जला. प्रश्न० १५६ । शविशेषः । प्रभ० १३४ । तडाग:-कृतको जलाशय(४६) | Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलागमह ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [तवस्सी विशेषः । प्रश्न० १६१ । तडाग:-खानितो जलाशय- आव० ७६४ । तप:-ध्यानम् । ज्ञाता०६ । विशेषः । अनु०.१५६ । तवए-तक्कं-सूकुमारिकादितलनभाजनम । विपा० ५८ । तलागमह- आचा० ३२८ । तवकरणं-तपःकरणं तपःकृतिः । आव० ४६६ । तलागाति-तडागादीनि । ठाणा० ८६ । तवर्ग-तापिका । प्रश्न० १४ । तलानि-मध्यखण्डानि । ठाणा० ४३५। तवणा-तपनं रविकरनिकरसन्तापरूपम् । उत्त० ५६६ । तलाय-तडागम् । प्रज्ञा० ७२ । तडाग:-कृत्रिमजला. तवणि-घृतपात्रविशेषः । औप० ६६ । शयविशेषः । भग० ३७३ । तवणिज्ज-तपनीय-आरक्तं सुवर्णम् । जं० प्र० २४ । तलाहणा- ।नि० चू० तृ० ८० अ । जीवा० १८१, १६४ । तपनीयं-सुवर्णविशेष: । सूर्य ० तलिगा-सोपानका: उपानद्रू ढपादाः । ओघ० ५५ ।। २६४ । प्रज्ञा० ६६ । जीवा० २७३, १७५ । तपनीयं तलिका-चर्मपञ्चके प्रथमो भेदः । आव० ६५२ । रक्तसुवर्णम् । जं० प्र० ५४ । । तलिणो-तलिनः प्रतलः । औप० १६ । जीवा० २७२ । तवणिज पट्ट-तपनीयपट्टः-रक्तस्वर्णमयपट्टका: लोके महलू प्रश्न० ८१ । इति प्रसिद्धौ । जं० प्र० २११ । तलिना-सूक्ष्मा । बृ० प्र० ११३ अ । तवणिजमया-तपनीयमयानि रक्तस्वर्णमयानि ! जं० प्र० तलिय-तल्पं-शयनीयः । ज्ञाता०.२०५ । २८४ । तलिया-उवाहणा । नि० चू० प्र० ६० अ । तलिका। तवणिज्जुज्जल्लंबूसगं-तपनीयोज्ज्वललम्बूसकम् । आव० ठाणा० २३४ | तलिका-उपानहः । ६० द्वि० १.१ १२४ । अ । पात्रीविशेषाः । भग० ५४८ । तरणोयपवरलंबूस-पलंबंतमुत्तदामम् । आचा० ४२३ । तल्लग-तल्लक:-सुराविशेषः । जं० प्र० १०० । तवति-तपति-तप्तो भवति । जीवा० २४८ । तल्लिच्छा-तत्तद्विवक्षितं वस्तु लब्धुमिच्छत इति तल्लिप्सः। तवतेणे-तपस्तेन:-क्षपकरूपकल्पः । दश० १८६ । तपज्ञाता०६८ । स्तेन:-परसम्बन्धि तप आत्मनि परप्रतिपत्तितः सम्पादयंतल्लेश्य:-प्रत्युपेक्षणाभिमुखः । औध० ११६ । स्तपस्तेनः । प्रश्न० १२५ ।। तल्लेस-तल्लेश्यः कामध्वजा शुभात्मपरिणामविशेषः । तवतेयसिरी-तपस्तेजःश्री: । आव० ७६३ । विपा०५३ । तल्लेश्य:-तञ्चितः । ओघ०११७ । तल्लेश्य:- तवनियम-तपोनियमो-नियन्त्रितं तपः । सम० ११७ । भगवद्वचनगतशुभात्मपरिणामविशेषः । लेश्यादि-कृष्णादि तवविणय-तपोविनयः-अपनयति तपसा तमः-अज्ञानं द्रव्यसाचिव्य जनित आत्मपरिणामः । औप० ६० । उपनयति च स्वर्ग-मोक्षं यः स विनयः । दश० २४१ । तव-नपः-अनशनादि । प्रश्न. १३२ । तपः-उत्तराध्य- तवसंजमपडियारं-तपःसंयमप्रतिकार:-तप: संयमावेव यनेषु त्रिंशत्तममध्ययनम् । उत्त०६ । तप:-भद्रमहा- प्रतिकारः। आव० ५८६ । भद्रादि । उत्त० १२८ । तपोमदः-यत्तपसो मानम् । तवसंजमो-तप:संयमः तप:प्रधान: संयमः । आव० ३२६ आव० ६४६ । तपस्त्यागयोः सतो निर्वतितवान् । तप:पंयम:-तप:-अनशनादिस्तत्प्रधानः संयमः पञ्चाज्ञाता० १२३ । ठाणा० २०० । तपः-अनशनादिपूर्व- श्रवविरमणादिः । उत्त० १४४ । कर्मनिर्जरणफलम् । प्रश्न० १०२ । तपः-धर्मध्या. तवसमाहो-तपःसमाधिः-तृतीयं विनयसमाधिस्थानम् । नादि । सूर्य० ४। तपः-अनशनादि । सूर्य० ४ । जं० दश० २५५ । प्र० ५२२ । दश० ११०। तप:-भक्तपरिज्ञानादिकमन-तवसा-अनशनादिना । जं० प्र० १६ । शनम् । उत्त० ७०७ । तपः-धर्मध्यानादि । भग० तवस्सी-विकिट्ठतवकारी । नि० चू० प्र० १४ आ। १२ । तपः-पृथिव्यादिसंघटनादौ निविंग(कृ)तिकादि । अनशनादि विचित्रतपो युक्ताः सामान्यसाधवो वा। ( ४६१) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तवाइसओ ] ज्ञाता० १२३ । तपस्वी-उग्रतपश्चरणरतः । दश० ३१। तपस्वी - विवृष्टक्षपकः । दश० २०५ । तपस्वी तपोऽस्यास्तीति विकृष्टाष्टमादि तपोऽनुष्ठानवान् । उत्त० ८४ । तपस्वी निदानादिविरहिततथा प्रशस्ततपोऽन्वितः । उत्त० १८५ । करवीरलताभ्रामक: कश्चित् । उत्त० २९५ । शिष्यः । औप० ३३ । विचित्रानशनादिलक्षणं तपोविद्यते यस्य सः सामान्यसाधुर्वा । आव० ११६ । तवाइसओ - तपोऽतिशयः । दश० १०५ । तवारिहे - तपोऽहं- निविकृतादिकं तपः । औष० ४२ । निविकृतिकादि तल्लक्षणां शुद्धि यदर्हत्यतिचारजातं तत्तपोऽहम् । भग० ९२० । तर्वेति - तापयन्ति । सूर्य • ६३ । तपन्ति मन्दाङ्गाररूपता प्रतिपद्यन्ते । जं० प्र० ४१६ । तवे - उपति अनीतशीतं करोति यथा वा सूक्ष्मं पिपीलिकादि दृश्यते तथा करोति । भग० ७८ । १८८ । तपः कर्म - तपोऽनु तवोकम्मं - कर्म । आव ष्ठानम् । दश० १६६ । तवमग्गो सम० ६४ । तोवहाणे - तपउपधानं विशिष्टतपोविशेषः । सूत्र० १४६ । तप उपधानं अनशनादिकम् । बृ० प्र० २१५ आ । तप उपाधानं द्वादशविधं तपः । सम० १०७ । तथ्यं (च्च) णिगि - रत्तपडा । नि० चू० प्र० ७७ आ । तव्वइरित्तदंसणे - तद्व्यतिरिक्तदर्शने अभिग्रहीत मिथ्या दर्शन प्रत्ययिकी क्रियायाः द्वितीयो भेदः । आव० ६१२ । तब्वज्जं तद्वर्जः बुबुदवजं - वर्षम् । आव० ७३३ । तथ्वणिय - सुगतः । विशे० ४८२ । रक्तपट्टलिङ्गः । आव० ६२८ । तद्वणिकः तच्चणिक:- बौद्धः । आव० आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलित: ६३६ । तवणिगिणी - तद्वर्णिकी । आव० ६४० । तव्वणि सडगा - तच्च निकश्राद्धी | आव० ७६६,८०० ॥ तव्वत्थुए - तदेव - परोपन्यस्तसाधनं वस्त्विति - उत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तद्वस्तुकः । ठाणा० २५६ तव्वत्थू पन्नास- तद्वस्तूपन्यासः, उपन्यासस्य प्रथमो भेदः । दश० ५५ । तव्वन्निए । नि० चू० द्वि० ३३ अ । [ तस्सेवी तव्विवरीए - यादृशं वस्तु स्वप्ने दृष्टं तद्विपरीतस्यार्थस्य जागरणे यत्र प्राप्तिः स तद्विपरीतस्वनो यथा कश्चिदात्मनं मेध्यविलिप्तं स्वप्ने पश्यति जागरितस्तु मध्यमर्थं कंचन प्राप्नोतीति । भग० ७०६ । तव्विहायरियविरहो- तद्विधः सम्यगविपरीततत्वप्रतिपादनकुशलः आचर्यतेऽसावित्याचार्यः सूत्रार्थावगमार्थं मुमुक्षुभिरासेव्यत इत्यर्थः, तस्य विरहः - अभावः तद्विधाचार्यविरहः । आव ० ५६७ । तस-तस्य । उप० मा० गा० ४२४ । तसरेणु - त्रस्यति - पौरस्त्यादिवायुप्रेरितो गच्छति यो रेणुः स त्रसरेणु । अनु० १६३ । पौरस्त्यादिवायुप्रेरितस्त्रस्यति गच्छतीति त्रसरेणुः । ठाणा० ४३५ । त्रस्यतिपौरस्त्यादिवायुप्रेरितो गच्छति यो रेणुः स त्रसरेणुः । भग० २७७ । जं० प्र० ६४ । तसवाइया - त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । तसा - श्रसाः तेजोवायुद्वीन्द्रियादिकाः । सूत्र० १५५ । सा:- सन्ति afrefर्वमभिसन्धिपूर्वकं वा ऊर्ध्व मधस्तिर्यक् चलन्तोति श्रसा:- तेजोवायवो द्वोन्द्रयादयश्च । जीवा० ६ । तसा - त्रसन्ति - उष्णाद्यभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानादुद्विजन्ते गच्छन्ति च छायाद्यासेनार्थं स्थानान्तरमिति त्रसा:- द्वीन्द्रियादयाः । प्रज्ञा०४७४ । त्रस्यन्तीति श्रसा:- चलनधम्मर्णिः श्रसनामकर्मोदयवत्तस्वात् श्रसाः । ठाणा० १३४ । प्रस्यन्ति - तापाद्युपतन्ती छायादिकं प्रत्यभिसर्पन्तीति साः- द्वीन्द्रियादयः । उत्त ० २४४ । त्रसा:- तेजोवायवो गतियोगात् श्रसाः । ठाणा० १.४ । तसिए - शुष्क : - आनन्द रसशोषात् । ज्ञाता० ६८ । तसिया - त्रसनं त्रस्तं दुःखादुद्वेजनम् । दश० १४१ । उद्विग्नः । ज्ञाता० ६४ | भग० १६६ । तस्करावस्कन्दः - चौरावपातः । नंदी० ६३ तस्सन्नी-तस्य संज्ञा तत्संज्ञा तज्ज्ञानम् । आचा० २१५ । तस्साभवइ-तस्या भवति । आव० २२५ । तस्सेवी - यमपराषमालोचयिष्यति तमेवासेवते यो गुरुः स तत्सेवी तस्मै यदालोचनं तदपि तत्सेवीति । भग० | दोषा आलोचयितव्यास्तत्सेवी यो गुरुस्त १ ( ४६२ ) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तह ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ तामलि स्य पुरतो यदालोचनं स तत्से विलक्षण आलोचना- तहारुव-तयारूपं सङ्गतरूपम् । भग० १५५ । दोषः । ठाणा० ४८४ । तहारुवा-तत्प्रकारस्वभावा:-महाफलजननस्वभावाः । नितह-तथा तथैव । भग० १२१ । सेवक: सन् यथैवादि- रय०७ । ष्यते तथैव यः प्रवर्तते सः । ठाणा० २२४ , २१४ । तहिंगोलं । नि० चू० २२ अ । तहक्कार-सूत्रव्याख्यानादौ प्रस्तुते गुरुभिः कस्मिश्चिद् तहितहि-तत्र यत्र देशे एकः । जीवा० १८१ । तस्यैव वचस्युदीरिते सति यथा भवन्तिः प्रतिपादयन्ति तथैवै- देशस्य तत्र-तत्रकदेशे । जं० प्र० ४४ । तदित्येवं करणं तथाकार:-अविकल्पगुर्वाज्ञाभ्युपगमः । तहिए-तथ्या:-सत्या: । शाता० १७७ । अनु० १०३ । भग० ६२० । तथाकरणं तथाकारः, स तहिया-तथ्या:-अवितथा निरूपचरितवृत्तयः । उत्त० च सूत्रप्रश्नादिगोचरः, यथा भवद्भिरुक्तं तथैवेदमित्येवं ५६२ । स्वरूपः वाचनाप्रतिश्रवणयोः उपदेशे सूत्रार्थ कथने ता-तावत्-कमार्थः । सूर्य० ६। अवितथमेतदिति तथाकारः, प्रतिश्रवणे च तथाकार: । ताइ-त्राता-आत्मारामः साधुः । दश० २०६ । ठाणा० ४६६ । ताइणं-तायिनां त्रायिणां वा । उत्त० ४६६ । सहणाणे-यथा वस्तु तथा ज्ञानं यस्य तत्तथाज्ञानं सम्य- । ताई-तायी'बायी वा । उत्त० ३५३ । तायी वा पायी. ग्दृष्टिजीवद्रव्यं तस्यैवावितथज्ञानस्वात, अथवा यथा मोक्षम् । भगवान् सर्वस्य परित्राणशीलः। सूत्र. ३६४ । तद्वस्तु तथैव ज्ञानं-अवबोधः प्रतीतिर्यस्मिस्तत्तथाज्ञानम्। ताए-तायः सुदृष्टमार्गोक्तिः । दश० २६२ । ठाणा० ४८१ । ताओ-तातेत्यामन्त्रणम् । ज्ञाता० ३४ । तहत्ति-यथापूर्वसाधवो गृह्णन्ति । ओघ० १५५ । ताडणं-ताडनं उरःशिरःकुट्टनकेशलुञ्चनादि । आव० ५८७ । तहनाणे-यथा प्रच्छनीयार्थे प्रष्टव्यस्य ज्ञानं तथैव प्रच्छ- ताडनं-वधः । आव० ५८८ ।। कस्यापि ज्ञानं यत्र प्रश्न स तथाज्ञानः जानत्प्रश्नः । ताडिओ-ताडित:-आहतः। उत्त० ४६१ । ठाणा० ३७६ । ताणं-त्राणं-बन्धुभिः पालनं जरातो वा रक्षणम् । तहमेय-यद्भवद्भिः प्रतिपादितं तत्तथैवेत्यर्थः । ज्ञाता० उत्त० १६३ । त्राणं-स्वकृतकर्मणो रक्षणम् । उत्त० । ४७ । आप्तवचनावगतपूर्वाभिमतप्रकारवत् । भग | २२१ । तान:-तानकः । भग० ५४२ । आव० ४६७ । तहा-तथाशब्द:-अनुक्तसमुश्चयार्थः । उत्त० ५१५। तथा तात्पयं-आसेवां विदितकर्मपरिणामो विदध्यात् । आचा. निर्देशे । आव० ४६६ । ११८ । तहाकारो-तथाकार:-सूत्रप्रश्नगोचरः यथा भवद्विरुक्तं तान-तता तन्त्री तानो भण्यते । ठाणा० ३६७ । अनु० तथेदमित्येवस्वरूपः । आव० २५६ । तहाभाव-यथा वस्तु तथा भाव:-अभिसन्धि यत्र ज्ञाने तत्तथा ताप-सविता । ठाणा० १३३ । तपतीति ताप इह सविता । भावं, अथवा यथैव संवेद्यते तथैव भावो-बाह्य विशे० १०७४। यत्र तत्तथाभावम् । भग० १६३ । तापक्षेत्रं-उदयास्तान्तरं, प्रकाशक्षेत्रम् । जं० प्र०४५५ । तहामुत्ति-तथामूत्ति-कथञ्चित्तत्स्वरूपम् । दश० २१४ । उदयास्तान्तरम् । जं० प्र० ४४२ । तहारूवं-तथारूपं तथाविधिस्वभावं भक्तिदानोचित- तापिका-कटकद्वितयोपेता लोहस्थाली (तवी)। भग०८५। पात्रमित्यर्थः । भग० २२६ । तथारूपं-उचितस्वभावः | तापोदक-राजगृहनगरभाविस्वभावादेवोष्णं । कश्चनपुरुषः श्रमणा वा तपोयुक्तः। उपलक्षणत्वादस्यो- तामरसे-जलरुहविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । तरगुणवान्नित्यर्थः । भग० १४१ । । तामलि-तापसविशेषः। उत्त०६८ । भग० ५१४ । (४६३) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामलित्त ] तामलित्त - ताम्रलिप्तः - ईशानेन्द्रस्य वैक्रियरूपकरणादिसामर्थ्योपदर्शने बालतपस्वी | भग० १६४ | तामलित्तग-तामलित्तिकः सैन्धवः । व्य० द्वि० २०४ अ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः तामलित्ती-सिन्धुसौवीरदेशे नगरी । बृ० द्वि० २२६ आ । वङ्गेषु ताम्रलिप्ती आर्यक्षेत्रम् । प्रज्ञा० ५५ । ताम्रलिप्तीईशानेन्द्रस्य वैक्रियरूपकरणादिसामर्थ्योपदर्शक तापसनगरी । भग० १६१ । तामली - तामलतानगर्यां गाथापतिः । भग० १६१ । तामसबाणा: - यः पर्यन्ते सकलसंग्रामभूमिव्यापि महान्धतममरूपतया परिणमन्ते । जीवा० २८३ । सकलसंग्रा मभूमिव्यापि महान्धसरूपतया परिणताः प्रतिवैरिवाहिag विनोत्पादका भवन्ति । जं० प्र० १२५ । ताम्रलिप्तिः- नगरविशेषः । उत्त० ६०५ । तायओ - तायते - सन्तानं करोति पालयति च सर्वापद्भ्य इति तातः स एव तातकः । उत्त० ३६८ । तायत्तीस - त्रास्त्रिशः महत्तरकल्पः पूज्यस्थानीय: । औप० 1 ५३ । तायत्तीसए - त्रास्त्रिशक: गुरुस्थानीयाः देवाः । जं० प्र० १५६ । तायत्तीसगा-त्रास्त्रशाः मन्त्रिविकल्पाः । भग० ५०२ । मन्त्रिकल्पाः । भग० १५४ । महत्त रकल्पाः पूज्याः । ठाणा० ११७ । तायत्तोसा-त्रास्त्रशाः पूज्या महत्तरकल्पाः । उपा० २७ । तार-तारा: तारकाः अर्धचन्द्राः । जं० प्र० २१६ । तारए - संसारसागरमिति गम्यते तेन तथा तारयति परानप्युपदेशवर्त्तिन इति तारकः । सम० ५ । तारओ-तारक:-अन्यांस्तारयतीति । जीवा० २५६ । तारगा- पूर्ण भदयक्षेन्द्रस्य चतुर्थी अग्रमहिषी । ठाणा० २०४ । तार (य) ग्गं - ताराग्रं तारापरिमाणमभिषेयम् । सूर्य ० ६ । तारग्गहा-तारकाकाराग्रहाः तारकग्रहाः । ठोणा० ३५५ । नारय-तारक:- द्विपृष्ठवासुदेवशत्रुः । आव ० १५६ । तारया - यक्षेन्द्रस्य चतुर्थी अग्रमहिषी । भग० ५०४ । नारा-तारा:-ज्योतिष्कभेदविशेषः । प्रज्ञा० ६६ । ताराः [ तालपर्लव अश्वित्यादिनक्षत्राणि । सूत्र० ४०२ । सुभूममाता । आव० १६१ । कार्त्तवीर्यपत्नी । आव ० ३६२ । ज्योतिष्कविमानानि अधिकारान्नक्षत्रजातीयज्योतिष्कानां वि. मानानीत्यर्थः । जं० प्र० ४६६ । ज्योतिर्विमानरूपा । ठाणा० ३६ । भग० १६५ । भरतक्षेत्रे सप्तमचक्रवतिमातृनाम | सम० १५२ । ताराइणे। निरय० ३६ । तारारूपाणि-तारका एव । सम० १४० । तारारूव- तारारूपं तारकजातीयम् । सम० १६ | ठाणा० ४४८ । तारारूपा:-तारिकारूपाः । जं० प्र० २६२ । तारकमात्रम् | ठाना० ११५ । तारारूप: तारिकरूपः । जीवा० १६६ । तारावलि - पञ्चमनाट्यभेदः । जं० प्र० ४१६ । तारुवता - तद्रूपता - नीललेश्यास्वभावः । भग० २०५ । ताल-तालाभिधान एकः । भग० ३६६ | कंशिकादिशब्द विशेषः । ठाणा० ३६६ । वृक्षविशेषः । ठाणा ० १८५ ५०० । हस्ततालः । ठाणा० ६३ । हस्ततालासमुत्थ उपचाराच्छब्दः । अनु० १३२ । तालवृक्ष फलविशेषः । बृ० प्र० १३५ आ । तालः - हस्तगमः । दश० ८८ | ताडः । भग० ८०३ । कंशिका | जं० प्र० ६३ । गीतादिमानकालः । जं० प्र० १३७ । ताल:- घनवाद्यविशेषः । जं० प्र० २०६ । वलयविशेष: । प्रज्ञा० ३३ । तालः । जीवा० २६६ | कंसिका । जीवा० १६२, २१७ । प्रज्ञा० ८६ । तालउड - तालपुटं तालमात्र व्यापात्तिकरविषकल्प महितमि ति । विषविशेषः । दश० २३७ । ज्ञाता० १६० । तालए- आवत्तणपेढियाए । नि० चू० तृ० ५६ आ । तालजंघ - तालो वृक्षविशेषः स च दोर्घस्कन्धो भवति ततस्तालवज्जङ्घे यस्य तत् । ज्ञाता० १३७ । तालणा - ताडना चपेटादिदानानि । औप० १०३ । चपेटादिदानम् । प्रश्न० १०६ । ताडना - करादिभिराहननम् । । उत्त० ४५६ । तालतोयाणि-तालतोयानि । नृ० द्वि० १७३ अ । तालनं चपेटादिना हननम् । औप० १०७ । ताल पलंब - फलविशेषः । आचा० ३४८ । तालप्रलम्बः । ( ४६४ } Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तालपिशाच ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ तावस भग० ३६६ । तालपिशाच-पिशाचविशेषः । ठाणा० ५०२ । पिशाच-Lतालाद्यादि-विद्याविशेषः । नि० चू० द्वि०१६७ आ। भेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । तालायर-तालाचर:-तालादानेन प्रेक्षाकारी। औप० ३ । तालपिसाय-तालवृक्षाकारोऽतिदीर्घत्वेन पिशाचः ताल- तालाचरा नटाः । ६० प्र० १०३ अ । तालाचरः तालापिशाचः । ज्ञाता० १३७ । दानेन प्रेक्षाकारी दण्डपाशिको वा । औप०७२। ताला. तालपुट-विषविशेषः । उत्त० ३१८ । सद्यो घाति यत्रो. । चरः प्रेक्षाकारिविशेषः । प्रश्न. १४१ । ष्ठपुटान्तर्वत्तिनि तालमात्रकालविलम्बतो मृत्युरुपजायते । तालायरा-तालाचराः प्रेक्षाकारिविशेषः । जं० प्र० तत् । उत्त० ४२६ । ११४ । चारणा: । औष० २२३ । नर्तकचट्टादयः । तालपूडं-तालपुटं विषविशेषः । आव० ३७४ । जेणं ताला । बृ० द्वि० २७३ आ। भडचेडणडादिया । नि० चू० प्र० सडिजाइ तेणं भरेणं मारयतीति । दश०० १२७ अ । ३५८ अ ।। तालफलं-प्रलम्बं फलविशेषः । दश० १७६ । तालिअटे-तालवन्तं व्यजन विशेषः । दश० १५४, २२८ तालवट-ताल पत्रशाखेत्यर्थः । नि० चू० प्र०६० आ। जं० प्र० १६१ । " तालमत्थकडं- । भग० ४३६ । तालिज्जंताणं-ताडनम् । राज० ५२ । तालयंट-तालवृन्तं-वायूदीरकमेव द्विपुटादि । प्रश्न० ८। तालियंट-तालवृन्तं मयूरपिच्छकृतव्यजनमित्यर्थः । तालवंट-तालवृन्तं तालाभिधानवृक्षपत्रवृन्तं पत्तछोट आचा० ३४५ । तालाभिधानवृक्षपत्रं वृन्तं तत्पत्रच्छोट इत्यर्थः । ज्ञाता० ४८ । इत्यर्थः । भग० ४६८ । तालवृन्तं-व्यजनकम् । आव० तालवृन्तं-वीजनकम् । उत्त० ६० । व्यजनम् । जं० १२२ । तालवृन्त-वीजनकम् । प्रभ० १६३ । प्र० ४११ । तालियंटक-तालवृन्तकं व्यजनविशेषः । प्रश्न० १५२ । तालवेंट-तालवृन्तं विद्याविशेषः । व्य० द्वि० १३३ आ। तालु-काकुदम् । जीवा० २७३ । काकुन्दम् । ज्ञाता. भग० ४७४ । १३८ । आचा० ३८ । सालसमं-नट्टविशेषः । नि० चू० तृ० १ अ । यत्परस्परा- तालुगागारो- । ओघ० २०६ । हतहस्ततालस्वरानुवत्ति भवति तत् तालसमम् । ठाणा तालुग्घाडणीए-विद्याविशषः । नि० चू० तालुग्घाडणीए-विद्याविशेषः । नि० चू० प्र० ७६ अ । ३६६ । यत्परस्पराभिहतहस्ततालस्वरानुसारिणा स्वरेण तालेइ-ताडयति हस्तादिना । भग० १६६ । गीयते तत् । अनु० १३२ । तालोदगं- । नि० चू० तृ० १५ आ। तालसुसंपउत्तं-परस्पराहतहस्ततालस्वरानुवत्ति यद् गीतं | तालोदा-तालोदकानि । बृ० द्वि० १७३ अ । तत्,यद् मुरजकंशिकादीनामातोद्यानामाहतानां यो ध्वनिर्यश्च ताव-तावत् । ठाणा ४६७ । ताप:-आतापनामकर्मोदयानृत्यन्त्या नर्तक्याः पादोत्क्षेपस्तेन समं तत् तालसुसंप्रयु- द्रविमण्डलानामुष्ण: प्रकाशः । जं० प्र० ४३३ । क्तम् । जं० प्र० ४० । तालसुसंप्रयुक्त-परस्पराहतहस्तता- तावखित्तं-तापक्षेत्रं सूर्यातपव्याप्ताकाशखण्डम् । जं० प्र० लस्वरानुवत्ति यद् गीतं तत् । यत् मुरजकंसिकादीनामा.! ४५३ । तोद्यानामाहतानां यो ध्वनिर्यश्च नृत्यन्त्या नर्तक्याः तावखेत्तपुव्व-तापक्षेत्रपूर्व आदित्योदयमधिकृत्य यत्र पादोत्क्षेपस्तेन समं तद्वा । जीवा० ११५ । या पूर्वादिक । दश० ८५ । साला-कंसिका: । प्रश्न. १५६ ।। तावणिज्ज-तापनीयं-तापपहम् । भग०६७२ । तालाचरा-तालाद्यादिभिःविद्याविशेषैःचरन्ति तालाचरा। | तावण्णत्ता-तस्या इव नीललेश्या इव वर्णो यस्याः सा नि० चू० द्वि० १६७ आ । तालादानेन प्रेक्षाकारिणः। तद्वर्णा तद्धावस्तत्ता तद्वर्णता। भग० २०५।। राज० २ । ज्ञाता० ४० । प्रेक्षाकारी । विपा० तावस-तवेदिओ। दश० चू० ३३ आ । तापस:- कौशा ( ४६५) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तावसपल्लि ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ति म्यां श्रेष्ठिविशेषः । उत्त० ६९ । तापसः-परिशटित-तिउडग-त्रिपुटका: धान्यविशेषः । दश० १९३ । पत्राद्युपभोगवान् बालतपस्वी । प्रज्ञा० ४०५ । पतित- तिउण-त्रिगुणं त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य । आव० २३३ । पत्राद्युपभोगवान् बालतपस्वी । भग० ५० । तिउलं-त्रीन् मनः प्रभृतीनु-तुलयति तुलामारोपयति कष्टाताबसपल्लि-तापसपल्ली । आव० ३९१ । वस्थीकरोतीति त्रितुलम् । प्रश्न० १५६ । तोदक: तावसा भक्षुविशेषः । नि० चू० द्वि०६८ अ । व्यथकः । उत्त० ४७५ । ताविया-तापिका । आव० ८५४ । तिउला-त्रीन् मनोवाक्कायांस्तुलयति अभिभवति या सा तावेह-तापयति अपनीतशोतं करोति । जं० प्र० त्रितुला । प्रश्न० १७ । श्रीनपि मनोवाक्कायलक्षणाननि० चू० तृ० १५ अ। स्तूलयति, जयति तूलारूढानिव वा करोति त्रितुला तासणं-त्रासनं फेकारादिवचनं भयकारि । प्रश्र० १६० । । ज्ञाता० ६८। तासणओ-त्रासः आकस्मिकं भयं अक्रमोत्पन्नशरीरकम्प. तिकटू-इतिकृत्वा । आव० ७९३ । मनःक्षोभादिलिङ्गितकारकत्वात् त्रासनक: । प्रश्न० ५। तिकडुय-त्रिकटुकं शुण्ठीमरिचपिप्पल्यात्मकम् । उत्त. ताहो-तदा तस्मिन् काले । ओष० ११५ । ६५३ । तिता-उल्ला । नि० चू० प्र० ४६ अ। भिन्ना क्लिन्ना तिकणइयाई-नयत्रिकाभिप्रायाच्चिन्त्यन्ते यानि तानि नय. आर्द्रा । दश ६६ । त्रिकवन्तीति त्रिकनयिकानि । सम० ४२ । तितिण-सखेदं वचनम् । भग० ९१९ । | तिकूडा-शीतामहानाद्याः दक्षिणतटे स्थित: वक्षस्कारतितिणि-तितिणी यत्र तत्र वा स्तोकेऽपि कारणे कर- पर्वतविशेषः । ठाणा० ८० । करायणं । व्य० प्र० २३० अ । तिकूडे । ठाणा० ३२६ । तितिणिए-तितिणिकोऽलाभे सति खेदाद् यत् किश्चनाभि- तिक्ख-तीक्ष्णा भेदिका । भग० ५४० । तीक्ष्णः कटुः । धायी । ठाणा० ३७४। उत्त० ६५३ । तीक्ष्णा वेगवती। भग० ३०६ । तीक्ष्णा तितो-क्लिन्नः । नि० चू० द्वि० ८१ आ। छेदकरणात्मकम् । दश० २०१। तीक्ष्णा निशिताः । तिदुका उत्त० ५७१। उत्त० ३४६ । तिदुग-एकादशतीर्थंकरस्य चैत्यवृक्षनाम । सम० १५२। तिक्खदाढ-तीक्षणाः निशिता दंष्ट्रा एव यस्य स तीक्ष्ण तिन्दुक:-श्रीन्द्रियजीवविशेषः । उत्त० ६९५ । तेन्दुकं । दंष्ट्रः। उत्त० ३४६ । श्रावस्त्यामुद्यानम् । विशे० ९३५ । तिक्खसिगे-तीक्ष्णे निशिताने शृङ्गे विषाणे यस्य स तिदुगुजाणं-तिन्दुकोद्यानं श्रावस्त्यामुद्यानविशेषः । उत्त० | तीक्ष्णशृङ्गः । उत्त० ३४६ । तिक्खा -परुषा । भग० ७६७ । तिदुयं--तिन्दुकं तेंदुरुकीफलम् । दश० १७६ । प्रज्ञा० तिक्खुत्तो-त्रि:कृत्व: । आव० १२४, ३५६ । त्रोन् ३६४ । तिन्दुकं श्रावस्त्यामुद्यानविशेषः । उत्त० ४९८ । वारान् विकृत्वा । भग० १४ । फलविशेषः । प्रज्ञा० ३७. ३२८ । वनस्पतिविशेषः । | तिखुत्तो-सिण्णिवारा । नि० चू० प्र० २१८ अ । भग० ८०३ । तिग-त्रिकं यत्र रथ्याश्रयं मिलति । औप० ४ । त्रिकम् । तिदुसय-तेन्दूसकः । आव० १८१ । ज्ञाता० १८४ । आव० १३६ । त्रिकं यत्र स्थाने रथ्यात्रयमीलको भवति । ति-तृतीया सप्तरात्रिकी । आव० ६४७ । औप० ५७ । त्रिक-रथ्यात्रयमीलनस्थानम् । भग० १३७, तिअं-त्रिक-कटिभागः । उत्त० ४७४ । २००, २३८ । त्रिक:-जीवाजीवनोजीवराशित्रयं तदभ्युतिउट्टई-त्रुट्यति अपगच्छति । आचा० २६० । पगन्तरोऽपि तथैव त्रिकाः । उत्त० १५२ । श्रराशिक:तिउड-त्रिकूटनामवक्षस्कारपर्वतः । जं० प्र० ३५२ । । राशियख्यापकः । आव० ३११ । त्रिक-त्रिपथसमा (४ ) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिगडुगाईयं] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [तितिक्खया गमः । अनु० १५६ । यत्र रथ्यानां त्रयं मिलति । श्रुत्वावधिरूपं दर्शनं च अवधिदर्शनरूपं यो धारयति ठाणा० २६४ । कटिभागम् । उत्त० ४७५। वहति स तथा य एवंभूतः सः चक्षुरिन्द्रियपरमश्रुतावधितिगडुगाईयं-त्रिकटुकादिकं सुण्ठीपिप्पलीमरिचकादिकम् । भिरिति वक्तव्यं स्यात् । ठाणा० १७१ । पिण्ड० ६५ । . तिजमलपदं-त्रयाणां यमलपदानां समाहारस्त्रियमलपदम्, तिगपरिहोणो-त्रिकेण ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणेन होनः । चतुर्विशत्यङ्कस्थानलक्षणं अथवा तृतीयं यमलपदं षोडशा ओघ० १७३ । नामङ्कस्थानानामुपरितनाङ्काष्टकलक्षणमिति वर्गषट्कल. तिगिछि-किंजल्क: । ठाणा० ४८२ । क्षणम् । अनु० २०६। तिगिछिकूडे-तिगिछी-किंजल्कस्तत्प्रधानकूटत्वात्तिगिच्छि- तिइ-तिष्ठति वर्तते आसेवते । दश० २४३ । कूट: । ठाणा० ४८२ । तिट्ठाणं-तिस्रो वाराः । ओघ० १६३ । मणिबंधहस्ततिगिछी । ठाणा० ७३ ।। तलभूमिकालक्षणम् । बृ. १०७ मा । तिस्रो वारा: आ। तिगिच्छ-विमानविशेषः । सम० ३८ । चिकित्सा । आव० ६४२ । ज्ञाता० ११३ । आव० ३४८ । तिद्वाणकरण सुद्ध-त्रीणि स्थानानि उर:प्रभृतीनि तेषु करतिगिच्छकूडे-उत्पातपर्वत: । भग० १७२ । णेन क्रियया शुद्धं त्रिस्थानकरणशुद्धम् । जीवा० १६५ । -रोगप्रतिकारः । नि० चू० द्वि० ६५ आ । त्रीणि स्थानानि उरःप्रभृतीनि तेष करणेन क्रियया रोगप्रतीकारः । पिण्ड० १२१, १३२ । चिकित्सा । व्य० विशुद्धम् । अथवा उर:कण्ठशिरस्सु श्लेष्मणा अव्याकुद्वि० १६५ अ । मतिविभ्रमः । आव० ८१५ । प्रश्न लेषु विशुद्धेषु प्रशस्तेषु यद्गीयते तदुरःकण्ठशिरोविशुद्ध त्वात् त्रिस्थानकरणविशुद्धम् । जं० प्र० ४० । तिगिच्छायणसगोत्ते-ज्येष्ठागोत्रनाम् । सूर्य० १५०। तिट्ठाणकरणसुद्धा-त्रिस्थानक रणशुद्धा:-आदिमध्यावसानतिगिच्छायणे-चिकित्सायनं-ज्येष्ठागोत्रम् । जं प्र० ५००। करणेन क्रियया यथोक्तवाहनक्रियया तिगिच्छि-प्राकृते पुष्परजःशब्दस्य तिगिछि इति निपातः शुद्धा अवदाता न पुनरवस्थानव्यापारणरुपदोषलेशेनापि देशी शब्दो वा। जं० प्र० ३०७ । कलङ्किताः । जीवा० २६६ । तिगिच्छिकूट-शिखरिणिवर्षधरे एकादशकूटनाम । ठाणा० तिणय-त्रिनतं मध्यपार्श्वद्वयलक्षणे स्थानत्रयेऽवनतम् । ७२ । उत्पातपर्वतः ।,प्रभ०६६ । उत्पातपर्वतः। ठाणा. भग० १९४ । ३७६ । चमरेन्द्रस्य उत्पातपर्वतनाम । ठाणा० ४६२। तिणहत्थय-तृणपूलकः । भग०६८४ । सम०३३ । तिगिच्छिद्रहपतिकूटम् । जं०प्र० ३८१। तिणिस-तिनिशाभिधानतरुसम्बन्धि । भग० ४८१ । तिगिच्छिद्दह-तिगिछिः पौष्परजस्तत्प्रधानो द्रहस्तिगिछि. तिनिशः वृक्षविशेषः । ठाणा० २१९ । तैनिशं तिनिशदाद्रहो नाम द्रहः । जं० प्र० ३०६ ।। रुसम्बन्धि । जीवा० १६२ । तिनिशद्रुमसम्बन्धि । जं. तिगिच्छिते-चकित्सिक आयुर्वेदः । ठाणा० ४५१ ।। प्र. ३७ । वृनविशेषः । नि० चू० प्र० १४४ आ। तिगिच्छी-नगरीविशेषः जितशत्रुराजधानी । विपा०६५।। तिनिशः वृक्षविशेषः । दश० २३६ । उत्त० १७ । तिगुणं-तिस्रवाराः । ओघ० ११७ । . तिण्ण-तीणः भवार्णवं स्वयमवतरितः । जीवा० २५६ । तिगुणक्कंडो-त्रिगुणं त्रीन् वारान् यावत् उत्-प्राबल्येन वीर्णः शक्तः । आव० ६१७ । तीर्ण इव तीर्णः । सम० कण्डनं-छटनं यस्य स त्रिगुणोत्कण्डः । पिण्ड० ६५। ४। तिघरंतरं-गृहत्रयात्परतः तृतीयान्तरात्परतः । नि० चू० तितिक्खइ-तितिक्षते देन्याभावात क्रमेण वा मनःप्रभृतिप्र० १८७ । भिः । भग० ४६८। तिमबखू-त्रिचक्षुः उत्पन्नमावरणमयोपशमेन ज्ञानं च | तितिक्खया-तितिक्षार्थ सहनार्थम् । ओष० १६० । (अल्म• ६३) (४६७) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तितिक्खसि ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [तित्वनर तितिक्खसि-तितक्षसे दैन्यावलम्बनेन । ज्ञाता० ७१।। इति सङ्घः प्रथमगणधरो वा । प्रज्ञा० १६ । त्रिषु वा तितिक्खा-तितिक्षा परीषहजयः । प्रभ० १४६ । तितिक्षा | क्रोधाग्निदाहोपशमलोभतृष्णानिरासकर्ममलापनयनलक परीषहजयः, योगसंग्रहे नवमो योगः । आव० ६६४। । णेषु ज्ञानादिलक्षणेषु वा अर्थेषु तिष्ठतीति विस्थम् । तितिक्खेमि-तितिक्षामि । ठाणा० २४७ । ठाणा० ३३ । तीर्थ पवित्रताहेतुः, तरणोपायश्च । तित्त-तिक्तः कोसातक्यादिवत् । उत्त० ६७६ । श्लेष्म- प्रश्न० १३६ । प्रभ० १३६ । तीर्थ भूतदेवद्रोण्यादि । नाशकृत् तिक्तः । ठाणा० . २६। तिक्त:-यदुदयात ज्ञाता० ८१ । तीर्थम् चातुर्वणः श्रमणसङ्गः । आव. जन्तुशरीरेषु तिक्तो रसो भवति यथा मरिचादीनां ति- १३४ । तीर्थ गणधरः । आव० २३३ । तीयं वा क्तरसनाम । प्रज्ञा० ४७३ । गणधरः । आव० २८७ । तरन्ति तेन संसारसागरतित्तगं- ।नि० चू० प्र० १६५ अ । तिक्तकं मिति तीर्थ प्रवचनम् सङ्घः । भग०७। चाउवण्णो एलुकवालुङ्कादि । दश० १८०।। समणसंघो दुवालसंघ वा गणिपिडगं । नि० चू० प्र० तित्तालाउयं-कटकतुम्बकम् । ज्ञाता० १९६।.. ७७ अ । तीर्थम्, त्रिस्थम् व्यथं वा, जनं तीर्थमभिप्रेतार्थतित्तिय-तित्तिकः चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः। प्रश्न साधकम् । विशे० ४८१ । यद् यस्माद् यथोक्तदाहो१४। पशमतृष्णाच्छेदमलक्षालनरूपेषु यदि वा सम्यग्दर्शनतित्तिर-तित्तिर: पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८ । ज्ञानचारित्रलक्षणेषु विष्वषेषु स्थितं ततस्त्रिस्थं संघ तित्तिरा-लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । प्रज्ञा० ४६ । एव । विशे० ४८० । तीर्थ-क्रोधाग्निदाहोपशमतित्ती-गृप्तिः तृप्तहेतुत्वात्तृप्तिः अहिंसाया दशमं नाम । प्रभ० लोभतृष्णाव्यवच्छेद-कर्ममलक्षालनलक्षणास्त एवानन्तरो. १९ । तृप्तिः ध्राणिः । ठाणा० १३ । ध्राणिः बुभुक्षा- क्तास्त्रयोऽर्थाः फलरूपा यस्य तत् त्र्यथं तच्च संघः तदद्यपरमल क्षणा। विशे० १३६ । व्यतिरिक्तं ज्ञानादि त्रयं वा यथं प्राकृते 'तित्थं' उच्यते। तित्थंकरो-तीर्थकरः जिनः प्रशस्तभावकरविशेषः । आव० विशे० ४८० । तरन्ति येन संसारसागरमिति तीर्थं प्रव४६६ । चनं सङ्घः । सम० ३ । पुण्यक्षेत्रम् । उत्त० ३७३ । तित्थं यद् यस्मात् तारयति पारं प्रापयति तेन तत् संघलक्ष. गणधरः प्रवचणं श्रुतमित्यर्थः । उत्त० ५८४ । तीयंते णं भावतस्तीर्थम् । विशे० ४७६ । जन्मजरामरणसलिलस- संसारसागरोऽनेनेति तीर्थ-यथावस्थितसकलजीवाजीवादिम्भृतं मिथ्यादर्शनाविरतिगम्भीर महाभीमकषायपातालं पदार्थसार्थप्ररूपकं परमगुरुप्रणोतं प्रवचनं सङ्गः प्रयदरवगाहमहामोहावतभीषणं रागद्वेषपवनविक्षोभितं विवि- मगणधरो वा । नंदी० १३० । त्रयो वा क्रोधाग्निधानिष्टेष्ठसंयोगवियोगवीचीनिचयसकूलं उच्चस्तरमनो- दाहोपशमादयार्थाः कलानि यस्य तत् व्यर्थम्, त्रयोरथसहस्रवेलाकलितं संसारसागरं तरन्ति येन तत्तीर्थ ।। ज्ञानदयोऽर्थाः वस्तूनि यस्य तत् व्यर्थम् । ठाणा ३३ । सकल जीवाजीवादिपदार्यसार्थप्ररूपकं अत्यन्तानवद्यं शेष- जीवाजीवादिपदार्थसाथ-अत्यन्तानवद्यशेषतीर्थान्तरीया:तीर्थान्तरीयाविज्ञात चरणकरणक्रियाधारं सकलत्रैलोक्यान्त- | विज्ञातचरणकरणक्रियाघारं त्रैलोक्यान्तर्गतविशुद्धधर्मगतविशुद्धधर्मसंपत्समन्वितमहापुरुषाश्रयमविसंवादि प्रवच- सम्पत्समन्वितमहापुरुषाश्रययं अविसंवादि प्रवचनं च । नम् । नंदी० २१ । तीयतेऽनेनेति तीर्थम । ठाणा० ३२।। तीर्थ श्रतज्ञानम् । आव० २३५ । तीर्यते संसारसम्द्रोतीर्थ-घट्टः न । जं० प्र० २०० । तीर्थ तीर्यतेऽनेनेति ऽनेनेति तीथं प्रवचनम् । राज०१०६ । । तीर्थ सङ्कः । विशे० ५९१ । तीर्थ तीर्यतेऽनेनेति प्रवचनं तित्थगर-तीर्थ-प्रवचनं तदव्यतिरेकाच्चेह सङ्घस्तीर्ण सङ्को वा । आव २६ । तीर्यते संसारसागरो- तत्करणशीलत्वात् तीर्थकरः । भग० ७ । तीर्थकरः ऽनेनेति तीर्थ यथावस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थसार्थप्र- तीर्यते संसारसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थ तत्करणशीलः । रूपकं परमगुरुप्रणीतं प्रवचनम्, तच्च निराधारं न भवति । जीवा० २५५ । तरन्ति येन संसारसागरमिति तीर्थ ( ४६८) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तित्वगरनाम] अल्पपरिचितसेवान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [तिमिसा श्रत प्रवचनं तदव्यतिरेकादिह सङ्घस्तीर्ण तस्य करणशील- तिपरियल्लं-त्रिःपरिवत्तं त्रयः परावर्तकाः वेष्टनानि । स्वात्तीर्थकरः । सम० ३ । तीर्थकरः द्वादशाङ्गप्रणा- ओघ० २१४ । यक: । प्रभ० १०४ । तिपासियं-त्रिपासितं त्रीणि वेष्टनानि दवरकेन दत्त्वा. तित्थगरनाम-यदुदयवशात् अष्टमहाप्रातिहार्यप्रमुखाश्चतु- पासितं पाशबन्धेन । मोघ० २१४ । विशदतिशयाः प्रादुष्यन्ति तत् तीर्थकरनाम । प्रशा०तिपुड-धान्यविशेषः । दश० चू० ६२ । तिप्पंति-प्रतिजागरति । ग० । तीर्थकरनामगोत्र-तीर्थकरत्वनिबन्धनं नाम तीर्थकर- तिप्पइ-तेपते क्षरति ददाति । पिण्ड० ६३ । नाम तच्च गोत्रं च-कर्मविशेष एवेत्येकवद्भावात. तीर्थ- तिप्पइय-त्रिपदिका । जीवा० २४७ । करनामेति गोत्रं-अभिधानं यस्य त् । ठाणा० ४५५ । तिप्पणया-परिदेवनता । सूत्र. ३६८ । दश. चू० तित्थगरपडिरूवं-तीर्थकरप्रतिरूपम् । आव० १२४ । १५ । तित्थण्हायतो- । नि० चू० द्वि० १०१ अ। तिप्पति-तिप्यति सुखाच्च्यावयति.' मा० ३२५ । तित्थधम्म-तीर्थमिह गणघरस्तस्य धर्म:-आचारः तिप्पमान-भयात प्रयदेलालादि तर्गन् । शाता० १५६ । धर्मप्रदानलक्षणस्तीर्थधर्मः, यदि वा तीथं प्रवचनं श्रुतमि- तिप्पयंतो-नेन्दयन् । सम० ५४ । त्यर्थस्तद्धर्मः स्वाध्यायः । उत्त० ५९४ । तिप्पावणया-तेपापना 'तिपृष्ट प्रक्षरणार्थी' इति वचतित्यमेय-तीर्थभेदः तीर्थमोचक: । प्रश्न० ४६ । नात् शोकातिरेकादेवाशुलालादिक्षरण प्रापणा । भग तित्थमेयए-णाणाइमग्गविराहणाहत्यंति भणियं होइ । १८४ । आव० ६६२। |तिभाग-त्रिसंख्या भागास्त्रिभागाः । जं प्र०६८। तित्या-तीर्थानि चक्रवत्तिनः समुद्रशीतादिमहानद्यवतार- तिमासिआ-द्वादशे तृतीयभिक्षुप्रतिमा । सम० २१ । लक्षणानि तन्नामक देवनिवासभूतानि । ठाणा० १२३ । तिदंड-त्रिदण्डः । भग० ११३ । तिमि-तिमिः महामत्स्यः । प्रश्न० ७ । तिदंडो-त्रिदण्डी सुवर्णपुरुषकारीपरिव्राजकः । आव तिमितिमिगिला-मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४४ । ४५२ । तिमिरं-तिमिरसम्पाद्यो भ्रम: । प्रज्ञा० ३५६ । पित्तु. तिदिसं पगासगा-त्रिदिशं प्रकाशकानि । आचा० ४३० । दयविकारेण दवचरिवंदियस्य सवलीकरणं । नि. तिदिसि-त्रिदिशि तिसृषु दिक्षु । जीवा० २३६ । चू० प्र० ३०२ आ । वनस्पतिविशेषः । भंग ८०२। तिदला-तोदिका-चीन-प्रस्तावात मनोवाकायान दोलती. तिमिरं निकाचितं ज्ञानावरणीयम् । आव० ७८८ । व स्वरूपचलनेन त्रिदला । उत्त० १२१ । पर्वगविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । तिनयं-विनतं आदिमध्यावसानेषु नमन भावात् । जीवा. तिमिरविद्धंसे-तिमिरं अन्धकारं विध्वंसयति अपनयति २५६ । तिमिरविध्वंसः । उत्त० ३५१ । तिनिशलता-सञ्ज्वलनमानभेद: । दश० १०१। तिमिश्रगुहा-गुहाविशेषः । नंदी० २२८ । तिनिशवृक्षग्रहा- । व्य० द्वि० १८९ । तिमिसंधयारं-तमिस्रान्धकारं अत्यन्ततमः । प्रश्न०६०। तिन्नं-तिस्रो वाराः । ओघ० २१७ । स्तिमित आर्द्धता मिश्रगुहा । आव० १५०, ६८७ ।। मतः । ज्ञाता० ११४ । तिमिसगुहा-वैताढ्यनवकूटे सप्तमः । जं० प्र० ३४१ । तिपट्ट-एकः संस्तारकपट्टकः द्वितीय उत्तरपट्टकः तृतीय- तिमिसगुहाकूड-तमिसगुहाधिपदेवस्य निवासभूतं कूट श्वोलपट्टक: । ओघ० १३२ । | तिमिस्रगुहाकूटम् । जं प्र० ७७ । तिपडोलतित्तिएणं- । आचा० ४२३ । तिमिसा-तमिस्रा रजनी । प्रश्न०६८। (४EE) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिमिस्स] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ तिर्यग्मनुजान् तिमिस्स-तमिस्रगुहा । प्रभ० १६ । अनुदिशश्च । आचा० ६३ । तीरितं तीरं पारं प्रापितिमिस्सयावेएइ-शल्यायते । आव० ४२२ । तम् । प्रश्न० ११३ । तिमीतिमिगिलामच्छो-मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ । । तिरियलोए-रुचकस्याधस्तानवयोजनशतानि रुचकस्योप. तिम्मणं-व्यञ्जनम् । ओघ० १२३ । रिखान्नवयोजनशतानि तिर्यग्लोकः । प्रज्ञा० १४४ । तिम्मति । ओघ०२ तिरियलोयतट्ट-तटुं-स्थालं तिर्यग्लोके तट्टमिव तिर्यग्लोतिम्मिअ-तीमित । आव ० १३१ । कत, तस्मिश्च स्वयम्भूरमणसमुदवेदिकापर्यन्ते अष्टादतिय-त्रिपथयुक्तं स्थानं विकम् । ज्ञाता० २८ । त्रिक शयोजनशतबाहल्ये समस्ततिर्यग्लोके च । प्रा० ७६ । रथ्यात्रय मीलनस्थानम् । प्रश्न ५८ । त्रिकं यत्र रथ्या-तिरियलोयपयरं-रुचकसमाद्ध तलभागानवयोजनशतानि त्रयं मिलति तत् । जीवा० २५८ । गत्वा यज्ज्योतिश्चक्रस्योपरितनं तिर्यग्लोकसम्बन्धि एकप्रादेतियचउक्कं-त्रिकचतुष्कम् । आव० ६७५ । शिकमाकाशप्रतरं तत् तिर्यलोकप्रतरम् । प्रज्ञा० १४४ । तियभंगो-त्रिकरूपो भङ्गः त्रिकंभङ्गः भङ्गत्रयम् । भग० तिरिगवाए-तिर्य गुद्गच्छन् यो वाति वातः स तिर्यग्वातः । प्रज्ञा० ३० । यस्तिर्यग्वाति वातः स तिर्यग्वातः । तिरंजलो-तिरोहिताञ्जलिः । व्य० द्वि० २३. आ। जीवा० २६ । तिरवंडिय-त्रिखण्डक: स्तेनः । दश० ५२ । तिरीडंति-किरिटं च मुकूटं धारयन्ति ये ते । सम० तिराशिप-राशिम: गोशालकमतानुसारी निलबविशेषः। | १५८ । मूत्र० ४५ । तिरीड-तिरीटं मुकुटम् । प्रश्न० ७७ । तिरीटं शिखरत्रयोपेतं तिरिअवेइया-तियंग्वेदिका यत्र संडासमध्ये हस्तौ नीत्वा | मुकुटमेव । प्रश्न० ४८ । किरीटानि मुकुटानि शिखरप्रतिलिख्यते सा । ओघ० ११० । त्रयोपेतानि । जं० प्र० २०५ । तिरिक्ख जोणिया-तिर्यग्गतिप्रायतिर्यग्लोके योनयस्तत्र जा. तिरोडपट्टए-वृक्षविशेषस्य वल्कभवं वस्त्रम् । वृ० द्वि० ता: तिर्यग्लोके योनयः-उत्पत्तिस्थानानि ये ते तिर्यग- २०१ अ ।। योनिजा: तिर्यग्योनिकाः । जीवा० ३३ । त्वङ्मयम् । ठाणा० ३३८ । तिरिघट्टना-तिर्यग्घटना-प्रत्युपेक्षणां कुर्वन् वस्त्रेण तिर्यक् | तिरीडपट्टो- । नि० चू० प्र० १२१ आ । कुट्यादि घट्टयति । ओघ० १०६ । | तिरोडो-वृक्षविशेषः । बृ० द्वि० २०१ अ । तिरिच्छसंपाइ-तिर्यक् संपततीति तिर्यक्संपात: पतङ्गा- तिरीलोपट्रो-तिरोडरुक्खस्स वागो तस्स तंतू पट्टसरिसो दि: । दश० १६४ । सो तिरोलोपट्टो । नि० चू० प्र० २५४ आ। तिरिच्छा-तिरश्वीना अननुकूला सदनुष्ठानप्रतिघातिका । तिरो-तिरोहितम् । बृ० तृ० १५६ अ । सूत्र० ३१६ । तिरोभाव-प्रकाशः प्रकटत्वम, आविर्भावः । विशे० तिरियंकटु-तिर्यक्कृत्वा अपहस्त्य, हस्तयित्वा वा । १०६२ । सूत्र०६०। तिर्यक-पार्श्वतः । ओघ० १६८ । तिरियंकरेइ-तिर्थक्करोति । सूर्य० ४६ । तिर्यकशल्या । नंदी० १५५। तिरियं भित्ति-तिर्यग्भित्तिः शकटोद्धिवदादी सङ्कटामग्रतो तिर्यगानुपूर्वी-द्वितीयानुपूर्वी नाम । प्रज्ञा० ४७३ । विस्तीर्णा । आचा० ३०२ । तिर्यग्गामिनी-नदीति तिर्यक् छिनत्ति सा । व्य० प्र० तिरिय-नो प्रतिकुलं नो अनुकुलं वितिरिच्छं तिरियं ।। २५ आ । नि० चू० तृ० ६३ आ । तिर्यक् । सूर्य० ४५ । तिर्यग्मनुजान्-जातमात्रबालकान् तिरश्च अश्ववत्सकातिर्यभित्तिप्रदेशः । जीवा० २०६ । तिर्यक् दिशः। दीन् । ओघ० १६६ । ( ५००) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यग्वेदिका ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [तिवई तिर्यग्वेदिका-जानुनोः पार्श्वतो हस्ती नीत्वा वेदिकाया- तिलत्थंबओ-तिलस्तम्बः । आव० २१२ । स्तृतीयः प्रकार: । ठाणा० ३६२। तिलपप्पडओ-जो आगमेहि तिलेहि कीरइ । दश० चू० तिलंतिल-तिलश: । विपा०४७ । ८६ आ। तिलंबणा-त्रिलम्बन: त्रिकवल: कवलत्रयप्रमाणः । ओघ० तिलपप्पडग-तिलपर्पट: पिष्टतिलमयः । दश० १८५ । १६० । तिलपर्पटिका-शष्कुलिः । दश० १७६ ।। तिल-तिला: धान्यविशेष: । दश० १६३ । औषधिविशे- तिलपिट-तिलपिष्टः । तिललोट्टः । दश० १८५ । षः । प्रज्ञा ० ३३ ! तिल: अष्टाशितो महाग्रहे एकत्रिंश- तिलपोलगचक्क-तिला कीडगा वा छुटेज्जा । नि० चू० त्तमः । जं० प्र० ५३५ । ठाणा० ७६ । वनस्पतिविशेषः। द्वि० ६१ आ। भग० ८०२ । तिलपुप्फवण्णे -अष्टाशितौ महाग्रहे द्वात्रिंशत्तमः । जं० तिलए-तिलक: वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । तिलकः सप्त- प्र ५३५ । ठाणा० ७६ । दशतीर्थंकरस्य चैत्यवृक्षनाम । सम० १५२ । भविष्य. तिलमक्खियं-तैलम्रक्षितम् । औघ० १४० । कालिन: प्रथमवासुदेवस्य प्रतिशत्रुः । सम० १५४ । तिलक: । तिलय-तिलक एकोरुकद्वोपे वृक्षविशेषः । जीवा० १४५ । भित्त्यादिषु पुण्ड्रम् । सूर्य० २६४ । प्रज्ञा० ६६ । तिलकः। तिलको विशेषको भूषकत्वात् । भग० ५४१ । तिलकाः अनु० २१२ । भित्त्यादिषु पुण्ड्राणि । सम० १३६ । तिलक: वृक्षविशेतिलओ-तिलकः भित्त्यादिषु पुण्ड्रम् । जीवा० १७५, षः । जीवा० २२६ । ३७६। तिलयवणं-तिलकवनम् । आव० १८६ । तिलकटओ-तलकण्टकः कोकिलच्छदः । प्रज्ञा० ३६२। । तिललोम-तिलखलः । व्य० द्वि० ४०५ अ । तिलक-धान्यवान् श्रेष्ठी । सूत्र० १९४ । आधायाः तिलसंगुलिया-तिलफलिका । भग० ६६४ । परावर्तितद्वारे श्रेष्ठी, वसन्तपुरे श्रेष्ठिविशेषः । पिण्ड० तिलसक्कुलिया-तिलशष्कुलिका तिलप्रधाना पिष्टमयपो१०० । वृक्षविशेषः । कमनीयकामिनीकमलदलदीर्घशर- लिका । आचा० ५८ । दिन्दुधवललोचनकटाक्षविक्षेपात् कुसुमाद्याविर्भावश्चक्षुरि- तिलसिंगा-तिलफलिका उत्कटिकाभेदे तिस्रः । प्रज्ञा० न्द्रियज्ञानस्य व्यक्त लिङ्गं तरुः । विशे०६६। तिलकीडय-तिलकोटक: तिलकृमिः । आव० ६२४ ।। तिलसेंगलिया-तिलशिम्बा । आव० २१२ । तिलक्खागिया-तिलखादिका । आव० ६६७। तिलहारगकपट्ठगो-तिलहारकशिशुः । आव० ७८६ । . तिलग-तिलकं वृक्षविशेषः । आव० ५१३ । वनस्पति- | -त्रैलोक्यं भवनपतिव्यन्तरनरविद्याधरवैमानिकाविशेष: । भग० ८०३ । नि० चू० तृ० ६१ अ । तिलकः | दिसमुदायलक्षणः । अनु० ३७। विशेषको ललाटाभारणाम् । औप० ५५। . तिलोदक-तत्प्रक्षालनजलम् । ठाणा० । १४७ । तिलगचोद्दसं-तिलकं ललाटाभरणं रत्नमयं चतुर्दशं तिलोदगं-तिलोदकं तिलै: केनचित्प्रकारेण प्रासुकीकृतमुद. यत्र तत्तिलकचतुर्दशम् । जं० प्र० २१७ । कम् । आचा० ३४६ । तिलगचोद्दसगं-तिलकचतुर्दशकं अलङ्कारविशेषः । आव० | तिल्लपूयं-तैलप्रधानं पूपम् । आचा० ३५२ । ६५ । तिलकचतुर्दशकं आभरणविशेषः । आव०६८। तिवइ-त्रिपदी ।। आव० १६८ । त्रिपदी भूमौ पदतिलगरयण-तिलकरत्नं पुण्ड्रविशेषाः । जीवा० २०५।। त्रयः न्यायः पदत्रयस्योन्नमनं वा । ज० प्र० २६५ । भित्यादिषु पुण्ड्रविशेषाः । जं० प्र०५४ । पुण्ड्रविशेषाः। त्रयाणां पदानां समाहारस्त्रिपदी-मल्लस्येव रङ्गभूमी जं०प्र०४६। पदत्रयविन्यासविशेषः । अन्त०१६ । तिलगवणे-तिलकवनम् । भग० ३६ । तिवई-त्रिपदी मल्लस्येव रङ्गभूम्यां गतिविशेषः । ज्ञाता. (५०१) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिवग्गो] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: __ [तिही सजण. २३२ । तिव्वामिलासे-तोवाभिलाषः अध्यवसायिस्वम् । आव. तिवग्गो-त्रिवर्गः त्रैलोक्यं धर्मार्थकामा वा । आव० ८२५। ४२३ । वत्थव्वगसंजूया संजेतोओ आगंतुगसंजता य- | तिम्विटुं-अप्पफलं । दश० चू० ८३ आ। तिवग्गा । नि० चू० द्वि० १५५ आ । तिष्यगुप्तः-आत्मप्रवादपूर्वाधीयानकः । विशे० ९४६ ॥ तिवति-त्रयाणां पदानां समाहारस्त्रिपदी-मल्लस्येव रङ्ग- तिष्यगुप्त-अन्त्यावयववाचीनिवः । विशे० ६५० । भूमौ पदत्रयविन्यासविशेषस्ताम् । अन्त० १६ । तिसंधि-त्रिसन्धि आदिमध्यावसानेषु सन्धिभावात् । लिवलिय-त्रिवलिका । भग० १६७ । जीवा० २५९ । तिवायणं-त्रिपातनं-त्रीणि कायवाङ्मनांसि यद्वा त्रीणि तिसंधिय-त्रिसन्धितं त्रिषु स्थानकेषु कृतसन्धिकं नकाङ्गिदेहायुरिन्द्रियलक्षणानि पातनं चातिपातो-विनाशः त्रयाणां . कमित्यर्थः । भग० १९४ । कायवाङ्मतसां पातनं-विनशनं त्रयाणां देहायुरिन्द्रियरू. ।नि० चू०द्वि० १६६ अ. पाणां पातनं वा विनाशनम् । पिण्ड ० ३७ । तिसरय-त्रिसरिकम् । ज्ञाता० २२ । तिवायणा-त्रयाणां मनोवाक्कायानां त्रिभ्यो वा देहायुडके - तिसला-चतुर्विंशतितमतीर्थकरस्य माता । सम० १५१ ॥ न्द्रियलक्षणेभ्यः प्राणेभ्यः पातना-जीवस्य भ्रंसना त्रिपा- विदेहदिन्ना पियकारिणी महावीरस्वामिनः माता । तना अतिशयवती यातना प्राणेभ्यो जीवस्य वेति, प्राणव. आचा० ४२२ । त्रिशला सिद्धार्थक्षत्रियपत्नी। आचा. घस्य दशमः पर्यायः । प्रश्न ५ । ४२१ । आव० १७६ । त्रिशला वर्द्धमानमाता । आव. तिविट-त्रिपृष्ठः सिंहमारकः । व्य० द्वि० १६६ आ। १६ । त्रिशला महावीरजननी । भग० २६८ । त्रिपृष्ठः श्रेयांसजिनकालभावि प्रथमवासुदेवः । सम० | तिसाइओ-तृषितः । आव० ४२६ । । विष्ठ: जनपदोपद्रवकारी विषमगिरिगुहावासी | तिसाकालो-गिम्हो । नि० चू० द्वि०७५ आ । महाकेसरीमारकः । प्रभ० ७५ । तिसामासो-ज्येष्ठ आषाढो वा । बृ० द्वि० २४३ आ । तिविठू-भविष्यकालभावी नवमो वासुदेवः । सम०१५४ । तिसालयं-त्रिशालकं । जीवा० २६६ । त्रिपृष्ठः प्रथमवासुदेवः । आव० १५६ ।। तिसिरा-त्रिशालकम् मत्स्यबन्धविशेषः । विपा० ८१ । तिम्व-तोवा झगिति शरीरव्यापिका । भग० २३१ । तीव्रो | तिसूलं-त्रिशूलं प्रसिद्ध शस्त्रविशेषः । आव० ६५१ । विशुद्धो । विशे० ३०६ । तीव्रः दुःसहः । आचा० तिसोवाण-त्रयाणां सोपानानां समाहार: त्रिसोपानम् । १५० । बृहद्वारोपेतम् । आचा० ३३३ । तीव्रः प्र० ४२ । विशुद्धः । आव० २८ । तीव्र तिक्तं निम्बादिद्रव्यं । | तिसोवाणपडिरूवगं-त्रिसोपानप्रतिरूपकं त्रिसोपानं च तदिव तोवः । भग० ४८४ । तत् प्रतिरूपक-प्रतिविशिष्टरूपं यस्य तत् च । जीवा. तिव्वदेसिय-सीव बृहद्वारोपेतं देशिकं बृहत्क्षेत्रव्यापि १९८ । विसोपानप्रतिरूपकं प्रतिविशिष्टरूपकं त्रिसोपातीव्र च तद्देशिकं तोदेशिकम्, तोव्रदेशिका महतिदेशे- नम् । जीवा० २८६ । अन्धकारोपेता । आचा० ३३३ । तिसोवाणपडिरूवग-एकद्वार प्रति निगामप्रवेशार्थ त्रिदि. तिव्वप्परिणामा-तोवारिणामाः प्रबलाविर्भूतस्वरूपाः । गभिमुखास्तिस्रः सोपानपङ्क्तयः । ठाणा० २३२ । आचा० १५० । तिहि-तिथि:-रिक्तार्केन्दुदग्धादिदुष्टतिथिभ्यो भिन्ना तिथिः । तिव्वलज्ज-तोव नज्जः उत्कृष्टसंयमः । दश० १६० । जं० प्र० २७३ । तिव्ववेर-तोवर: अनुबद्धविरोधः । ज्ञाता० ८१ । तिहिपव्वणी-तिथिपर्व । आव. ४२२ । तिव्वा-तोवा रोद्राः । आव० १६१ । तीवाः । जीवा० | तिही-तिथिः मदनत्रयोदश्यादिः । प्रश्न० १५५ । मदन१८७ । तीव्रा-तीव्रनुभागवन्यजनिता । प्रश्न १६ । त्रयोदश्यादितिथिषु । भग. ४७३ । ज्ञाता० १. (५०२) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीत] अल्पपरिचितसवान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ तुंबेणउरेपडि मदनत्रयोदशीप्रभृतिः । ज्ञाता० ५६ । शपूर्विवसुनामाचार्यशिष्यः । आव० ३१४ । तिष्यगुप्तः होतं-अतीतम् । भग० ६६ । वसुनामाचार्यशिष्यः । आव० ३१५ । सीतद्धा-अनादावतीतः कालः । भग० ४७ । तुंगारो-तुङ्गारः दक्षिणपूर्वो वातविशेषः । आव० ३८६ । सीताए-अतीता । ठाणा० ७६ । तुंगिउद्देसए । भग० ५५० । तीमनं-शाक: । पिण्ड० १३५ । हुँगिक-तुङ्गिकगणो व्याघ्रापत्यगोत्रम् । नंदी० ४६ । लीयं-तं त्रिकम् । सूत्र० ६७ । तुंगीय-तुङ्गिकः सन्निवेशविशेषः । आव० २५५ । लोरं-तीरावत्तिजलापूरितं स्थानम् । जीवा० १९७ । तुंगीया-नगरी विशेषः । भग० १३४, १३६ । तटम् । जीवा० १२३ । तुंगीसिहरं-तुङ्गिशिखरम् । उत्त० ११७ । तीरइ-शक्यते । आव० ३२४ । तुंडं-मुखम् । आव०६३ ॥ तीरइत्ता-तीरयित्वा पारं नीत्वा । उत्त० ५७२ । तीर- तुंडिय-तुण्डिक: यात्रासिद्धो वणिग्विशेषः । आव० ४१४॥ यित्वा अध्ययनादिना परिसमाप्य । उत्त० ५७२ । द्रिल:-जातबृहज्जठरः । उत्त० २७५ । तीरट्री-संसारतीरभूतो मोक्षस्तदर्थी तीरार्थी। सूत्र०२६८।। तुंब-ज्ञातायां षष्ठाध्ययनम् । आव० ६५३ । तुम्बं अरतीरं पारं भवार्णवस्यार्थं यत इत्येवं शीलस्तीरार्थी तीर- कनिवेशस्थानम् । जं०प्र० २०४ । तुम्बं-षष्ठाने षष्ठं स्थायी वा ती रस्थितिः । ठाणा० १८१ । ज्ञातम् । सम० ३६ । उत्त० ६१४ । तुम्बं-अलाबुः । तोरा । ठाणा०४७७ ।। ज्ञाता० १० । तुम्बं फलविशेषः । प्रज्ञा० ३७ । तीरावेति-तीरयति समथं करोति । व्य० प्र० १४७ अ। तुंबक-तुम्बक:-अलाबुतुम्बयोलम्बत्ववृत्तत्वकृतभेदः । जं. तोरित्तं . । आव० ३२२ ।। प्र. २४४ । तोरियं-पूर्णेऽपि कलावधी किञ्चित्कालावस्थानेन तीरितं । तुंबभूओ-तुम्बभूतः । आव० २६३ । आव० ८५१ । तुंबभूयं-तुम्बभूतं आधारसामर्थ्यानाभिकल्पम् । प्रश्न० तोरियकज-तिरितकार्यः समाप्तकार्यः । व्य० प्र० १४५ | १३४ । अ। तंबरव:-गन्धर्वभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० ।। तीरिया-तीरं पारं नीता । ठाणा. ३८८ । तुंबवण-तुम्बवनं । उत्त० ३२१ । तुम्बवनं सन्निवेशतीरेइ-तीरयति पूर्णेऽपि तदवधी स्तोककालावस्थानात् । विशेषः । आव० २८६ ।। भग० १२४ । पूर्णेऽपि काले स्तोककालमवस्थानात् । तुंबवीणा-तुम्बा युक्ता वीणा येषां ते तुम्बवीणः तुम्बवी. ज्ञाता० ७३ । पूर्णेऽपि कालावधावनुबन्धात्यागात् । णावादकः । जीवा० २८१ । उपा० १५ । तुंबवीणिय-तुम्बवीणिक: । औप० ३ । प्रश्न० १४१ । तोथ-श्रुतम् । भग०६। अनु० ४६ । लोसइ-त्रिंशत् । आव० ६३४ । । तुंबा-तुम्बा ज्योतिष्केन्द्रसूर्यस्याभ्यन्तरिका पर्षत् । जीवा. तीसए-तिष्यकः शक्रसामानिकविकूर्वणाविवरणे अनागार: तिष्यकाभिधानोऽनगारः । भग० १५८ । . बाग-तुम्बाकं त्वग्मिज्जान्तर्वत्ति आर्दा वा तुलसीवेतीसगुत्त-निष्यगुप्तः जीवप्रदेशिका सम्बन्धी निह्नवः । त्यन्ये । दश० १७६ । ठाणा० ४१० । तिष्यगुप्तः श्रीमहावीरशासने चतुर्थों | तुंबी-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । वनस्पतिविशेषः । लिह्नवः । उत्त० १५३ । तिष्यगुप्तः वस्वाचार्यशिष्यः ।। भग० ८०३ । उत्त० १५८ । तिष्यगुप्तः यस्माज्जीवप्रदेशा उत्पन्नाः | तुंबुरु । ठाणा० ४०६ । स आचार्यविशेषः । आव० ३११ । तिष्यगुप्तः चतुर्द- तुंबेणउरेपडिअं-तुम्बेनोरसि पतितम् । आव० १७६ । ( ५०३ ) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुंबेति ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ तुणगं तुंबेति-मच्छियजालसरिसं जालं काऊण अलाबुगाण तुडिए-चतुरशीत्या गुणितं लक्षस्त्रुटिताङ्गः त्रुटितम् । भरिज्जति । नि० चू० प्र० ४५ अ। ___ अनु० १०० । सूर्य० ६१ । भग० २१०, २७५ ८८८ । तु-भव्यकर्मविशेषणार्थः । आव० ४३८ । पुनः । आव० तुटिकम् अन्तःपुरम् । सूर्य० २६७ । जीवा० ३८४ । २८५ । पुनः । आचा० २२६ । तु शब्दो भाषा- तुडिकं नाम वर्गः । भग० ५०५ । मात्रार्थः । सम० १२७ । हेतौ । व्य० प्र० ४७ था। तुडिओ-तुटिक: अभ्यन्तरपर्षत्सत्कस्त्रीजनः । जं० प्र० तु: भाषामात्रः । प्रभ० १५६ । अधिकारार्थसंसूचनार्थे । प्रज्ञा० ५५४ । तुडिसंगा-त्रुटितानि तूर्याणि तत्कारणत्वात् त्रुटिताङ्गाः तुअर्टति-त्वग्दर्शनं कुर्वन्ति वामपार्श्वतः परावृत्य दक्षिण- || तूर्यदायिनः । ठाणा० ५१७ । पार्श्वनावतिष्ठन्ते दक्षिणपावतो वा परावृत्य वामपाव- तुडियंग-चतुरशीत्या लक्षः पूर्वैः गुणितं त्रुटिताङ्गम् । नावतिष्ठन्ते इति । जं० प्र० ४६ । सूर्य ०६१ । भग० २१०, ८८८ । चतुरशीतिः पूर्ववर्षशत. तुअट्टणं-त्वग्वर्तनं निमज्जनम् । ओघ० ५८। . सहस्राणि एकं त्रुटिताङ्गम् । जीवा० ३४५ । तुच्छं-अल्पम् । प्रश्न० ६३, १०६ । ज्ञाता० ११३ । तुडियंगा-तूर्याङ्गसम्पादकाः । सम० १८ । अल्पं रिक्तम् । आव० ६४३ । द्रमकस्य काष्ठहारकादेः तुडियंगति-पूर्वाणि चतुरशीतिलक्षणगुणितानि त्रुटिताङ्गाकथ्यते, अथवा पूर्णो जातिकुलरूपाद्युपेतस्तद्विपरितस्तु णा० ८६ । च्छो, विज्ञानवान् वा पूर्णस्ततो अन्यस्तुच्छः । आचा० तुडिय-त्रुटिकः बाहुरक्षिकः । भग० १३२, ४४७ : त्रुटिका १४५ । तुच्छः उन्मादः । सूत्र० २५० । तुच्छः यहच्छा- शेषतूर्यम् । सूर्य० २६७ । भग १५४, ५०६ । वादित्र भिधायितया निःसारः । उत्त० २२७ । समुदयो त्रुटि: । नि० चू० द्वि० ७१ आ । सूर्य मणी मादयं तुच्छकुलं-असारकुलम् । आव० १७८ । तुडियं । नि० चू०प्र० २५४ अ । थिग्गलं देसी भासाए तुच्छकुलानि-अल्पमानुषाणि अगम्भीराशयानि वा । सामयिगी वा एस पडिभासा । नि० चू० प्र० १२४ अ । ठाणा० ४२० । तुटितं बाहुरक्षिकः । प्रज्ञा० ६१ । तुटितं बाहुरक्षकः । तुच्छतं-तुच्छत्वं निःसारता । प्रज्ञा० ३०३ । जीवा० १६२, १६४, २५३ । प्रज्ञा ८८ । वादित्रम् । तुच्छत्ता-निस्सारता । भग० ७४२ । जीवा० । २१७। आतोद्यम् । जीवा० २२७ । तुडितं तुच्छोसहिभक्खणया-तुच्छौषधिभक्षणता असारौषधि- भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६६ । चतुरशीतिस्त्रुटिताङ्गभक्षणता । आव० ८२८ । शतसहस्राणि एकं त्रुटितम् । जीवा० ३४५ । त्रुटिताङ्गः । तज्झंतो-त्वदीयः । आव०७०८ । आव० ११० । तुटितानि बाहुरक्षकाः । उपा० २६ । तुज्झ-भवन्तः । ओघ० ८० । तुडिया-असुरकुमारस्य लोकपालानां द्वितीयाऽयमहिषी, तुज्झच्चय-तावकीनम् । आव०६६। धरणस्य लोकपालानां द्वितीया अग्रमहिषी । ठाणा०१२७ । तुट्ट-तुष्टाः आन्तरप्रीतिभाजः । उत्त० ४४१ । तुष्टः-तोष | तुटिकाः बाहुरक्षिकाः । औप० ४६ । प्रश्न० ७१ । कृतवान् । जीवा० २४३ । तुष्टः हृष्टः सन्तोषवत् । भग० त्रुटिता-पिशाचकुमारेन्द्रस्य मध्यमिकापर्षत् । जीवा० ११६ । १७१ । त्रुटिता-ज्योति केन्द्रसूर्यस्य मध्यमिका पर्षत् । तुट्ठा-तुष्टा हृष्टा । दश० २५० । | जीवा० १७६ । तुट्टि-तुष्टि इच्छानिवृत्तिः । जं० प्र० १५१ । आचा० तुडियाणि-त्रुटितानि मृणालिकाः । आचा० ३६३ । ४२४ । तुडियाति ।ठाणा०६६। जुडिअंग-त्रुटिताङ्ग द्रुमगणविशेषः । जं प्र० १०२ । चतुर• तुणगं-वत्थच्छिद्दे पुणण्णवकरणं तुडियं । नि• धू० प्र० शोत्या लक्षः पूर्वैः गुणितं । त्रुटिताङ्गम् अनु. १००। । १४ा । (५०४) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुण्णए ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्बकोषः, मा० ३ [तुरुमिणिणगरी तुण्णए-तूणक: तान्त्रिक: तन्त्रीवादकः । अनु० १४६ । तुयावइत्त-तोदं कृत्वा तोदयित्वा व्यथामुत्पाद्य या प्रव्रज्या तुग्णाओ-तन्तुवायः । आव० ४२७ । दीयते । ठाणा० २७६, १२६ । तुण्णाग-सीवनकर्मकर्ता । नंदी०, १६५ । तुम्नवायः । तुरंति-स्वरन्ते । विशे० ५३८ । आव० १८७ । तुरंतो-स्वरयन् । आव० ६१७ । त्वरितम् । नि० चू० तुण्णागवारए-तूर्णकदारक: सूचिकः । अनु० १७६ । प्र० ३१६ आ। तुग्णागा-तुनाका: सूच्याजीविनः । प्रज्ञा० ५६ । तुरमाणभोज्जं-स्वराभोज्यम् । सं० । तुण्डिकको-तूष्णीकः । आव• १८८, २६२ । तुर्रामिणो-नगरीविशेषः । बृ० तृ० ११३ अ । तुत्त-तोत्रं प्राजनकः । उत्त० ५४८ । तुरली-णालिया अपव्वा । नि० चू० प्र०६० आ। तुत्तगो-पाइणगो । आव ० ७६७ । तुरिओ-त्वरितः । ओघ० १५५ । तुत्ततो-भग्गो । नि० चू० प्र० ३५१ अ। तुरितं-त्वरितं शीघ्रम् । आव० ६६ । त्वरितः शीघ्रम् । तुन्दपरिमृजः-द्रमकः । आचा० ३१४ । ज्ञाता० ३५ । तुन्नणं-तोदणम् । आव० ६५१ ।' तुरिमिणि-णगरीविसेसो। नि० चू० प्र० २५८ अ । तुनिए-कलाकौशलत-पूरितच्छिद्रम् । बृ० द्वि० ६२ अ । तुरियं चवलं-त्वरितचपलं अतिचटुलतया । ज्ञाता० १६२। तुपट्टणं-संस्तारकेशयनम् । बृ० द्वि० २०७ छा। | तुरियं-त्वरिता-आकुला न स्वाभाविक्या आन्तराकूततः । तुप्प-पुणमययकलेवरवसा । नि० चू०प्र० ४७ आ। ज्ञाता०३६। त्वरितं-वचनचापल्यतः । प्रश्न० १२० । स्व. तुप्पतरयं-स्निग्धतरम् । ओघ० १६६ । रितत्वं मनस औत्सुक्यात् । ज्ञाता० ६६ । स्वरितत्वं मनसतुप्पियं-स्नेहितम् । विपा० ४७ । मुखक्षेपे । प्रभ० १२६ । तुप्पोट्ठ-मृष्ठः । ओघ० ५५ । तुरियकरणं-त्वरितकायं जातम् । ओघ० १७७ । तुप्पोट्ठा-तुप्रा म्रशिता मदनेन वा वेष्टिताः क्षीतरक्षादि- तुरियगई-त्वरितगतिः मानसौत्सुक्यप्रवत्तित वेगवद्गतिः । निमित्तमोष्ठा येषां ते तुप्रोष्ठाः । अनु० २७ । भग० १७८। तुबरं-कषायद्रव्यं आमलकादि । ज० प्र० ४११। रियगति । ठाणा०.१६८। तुभच्चया-त्वदीया । आव० ६३२ । तुरियणिहा-त्वरितनिद्रा मरणनिद्रा । आव० ३४६ । तुमंतुम-तुमन्तुमः हृदटस्थः कोषविशेष एव । भग० । तुरिया-त्वरिता-आकुला । भग ५२७ । त्वरिता-आकु९२४ । तिरस्कारप्रधानमेकवचनान्तं बहुवचनोचारण- | लता न स्वभावजेत्यर्थः। भग० १६७ । त्वरितः स्वरायोग्ये। सूत्र. १८३ । वान् । भग० १७८ ।। तुयटुंतं-त्वग्वर्तनं स्वपनम् । दश० १५५ । तुरो-वस्त्रवननोपकरणः । आचा० २२८ । तुमटुंति-निषण्णा पासते । भग० ६१८ । तुरुक्कं-तुरुष्कं सिल्हकम् । प्रभ० ७७ । जीवा० १६०, तुयट्टणं-वरवर्तनम् । आव० ६५४ । निमजनं क्रियते ।। २०६ । जं० प्र० ५१, १४४ । प्रज्ञा० ८७ । औप० ५। ओष० १३० । आव० ६५४ । शयनम् । ओष०२१४ । ज्ञाता० ४० । शिल्हकाभिधानं गन्धद्रव्यम् । सम० ६१। तुयट्टति-त्वग्वर्तनं करोति । जीवा० २०१। तुरुक्कधूव-सेल्हकलक्षणो धूपः । उपा० ५। तुयट्टियव्वं-स्ववत्तितव्यं शयनीय, सामायिकाद्युञ्चारण- | तुरुक्का-तुरुरुकः सुगन्धिद्रव्यविशेषः । आव० १०१। पूर्वकं शरीरप्रमार्जनां विषाय संस्तारकोत्तरपट्टयोबाहूपधा- तुरुक्ख--गंधदव्वम् । नि० चू० प्र० २७६ आ । नेन वामपावंत इत्यादिना न्यायेनेत्यर्थः । शाता० ६१ । । तुरुतुंबगा-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । तुयट्टेख-शयीत । भय० ६० ।। तुरुमिणिवत्त-दारुणमिथ्यात्वः । भक्त० । तुयर-कुसुमोदकादि । बृ० द्वि० २४६ आ। . | तुरुमिणिणगरी-नगरोविशेषः । नि० चू० प्र० २५८ । (अल्प.६४) (५०५) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुरुविणी ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [तूलकं तुरुविणी-तुरुमिणी नगरी, यत्र जितशत्रुराजा । आव० तुससाला-सालिमादितुसट्ठाणं तुससाला । नि० चू० प्र. ३६६। २६५ अ । तुलना-भावना । विशे० ११। तुसा-कोद्रवादीनि । ठाणा० ४१६ । तुलयति-अभिभवति । प्रश्न० १७ । जयतीति । ठाणा० तुसारं-तुषारं हिमम् । ज्ञाता० ६६ । जीवा० ११६ । ४६६ । तुसार-तुषार: हिमम् । आव० २०४ । तुलसी-भूतानां चैत्यवृक्षः । ठाणा० ४४२ । भग० ८०२ । तुसारपुंज-तुषारपुञ्जम् । जीवा० ११६ । गुच्छविशेषः। प्रज्ञा० ३२ । आचा० ५७ । तुसिओ-तुषितः । आव० १३५ । तुलसे-हरितविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । तुसिणिया-तूषण्णीका मूका । दश० १०८ । तुला-इयत्तापरिच्छेदहेतुः । उत्त० ६८७ । अनु० १५४ । तुसिणी-तूष्णी मूकता । आव० ५४८ । तुलाकोटिकानि-मूपुराणि । औप० २५ । तुसिता-सुप्रतिष्ठाभविमानवासी षष्ठो लोकान्तिकदेवः । तुलासंठिए-तुलासंस्थितं पुनर्वसुनक्षत्रसंस्थानम् । सूर्य ठाणा० ४३२ । १३०। तुसिय-तुष्टः सुप्रतिष्ठाभविमानवासी षष्ठो लोकान्तिकतुलिया-तोलयित्वा गुणदोषवत्तया परिभाष्य । उत्त० देवः । भग० २७१ । ज्ञाता० १५३ । २८६ । परीक्षात्मानं घृतिदाढ्यादिगुणान्वितमिति । उत्त० | तुसोदए-तुषोदकं व्रीह्य दकम् । ठाणा० १४७ । २५३ । तुसोदगं-तुषोदकं पानकभेदः । आचा० ३४६ । तुल्यं-समचतुरस्रम् । जीवा० ४२। तुहगा-कन्दविशेषः । उत्त० ६६१ । तुजविसेसाहियं-परस्परापेक्षया तुल्यत्वेन विशेषेण असले तुह-तावकीनम् । आव० ५६५ । यभागादिनाऽधिकं पूर्वकालबद्धकर्मापेक्षयाऽधिकतरं तुल्यवि- | तुहिनं-हिमम् । ठाणा० २८७ । शेषाधिकम् । भग० ६६१ । तूडिअ-त्रुटिकं बाह्याभरणम् । जं० प्र० १०६ । तवरं-सकषायम । उत्त० ६५३ । तूणइल्ल-तूणाभिधानवाद्यविशेषवान् । औप० ३,४ । ।नि० चू० प्र०६०। प्रश्न० १४१ । अनु० ४६ । जोवा० २८१ । तुवर-धान्यविशेषः । नि० चू० तृ० ५२ आ। | तणइल्ला-तूणाभिधानवाद्यविशेषवन्तः । राज०२। ज्ञाता. तुवरपत्ते-पलाशपत्रादीनि । बृ० द्वि० १०६ । ४० । तुवरफल-हरीतक्यादयः । नि० चू० प्र० ४७ आ। तूणक-वाद्यविशेषः । प्रश्न. १५६ । तुवरफला-हरीतकीप्रभृतीनि । बृ० द्वि० १०६ अ। तूणोराः-तूणाः । जं० प्र० २०६ । तुवरिका-सौराष्टिका । दश० १७०। तमणया-देशी० स्थगनम् । व्य० प्र० १२१ आ। तुवरिमट्टिया-ते पुढविपरिणामा वणिया जेण सुवण्णं तयरी-तुवरी आढकी । पिण्ड० १६८ ।। वणिज्जाति, सोरट्ठिया तुवरिमट्टिया भण्णति । नि० चू० तुरंतो-स्वरयन् मर० । त्वरमाणः । ओघ० ६५ । प्र०२१८। तूर-वाद्य । आव० १४५ । तुवरी-तुवरी-धान्यविशेषः । दश० १६३ । भग० ८०२।। तरपत्ति- । नि० चू० द्वि० १६७ आ। तुषमुखं-बीजसूक्ष्मम् । ठाणा० ४३० । तूरपइ-तूर्यपतिः नटमहत्तरः । बृ० प्र० १०३ आ। तुषराशि:।ओघ० ४१ । । ओघ १६६। तुषाग्नि:-तुषसत्कोऽग्निः । जीवा० १२३ । तूल-तूलः अर्कतूलः । सूर्य० २६३ । अर्कतूलम् । ज्ञाता. तुष्टः-महितः । आव० ७५६ । ६ । अर्कतूलम् । जं० प्र० ५५ । जीवा० २१० । तुसण्णो- . . ।नि० चू०प्र० २६० आ। तूलकं-तूलम् । उत्त• ६५३ । (५०६) तुवट्टणं तणनं Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तूलकडं] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [तेच्छि तूलकडं-अर्कादितूलनिष्पन्नम् । आचा० ३६३ । तेउप्पगे । ठाणा० १९७। तलि-तूलिका । ठाणा. २३४ । तेउफासे-तेजःस्पर्शा: उष्णस्पर्शाः। आचा० ३१० । तूलि-तूलिका । ग० । तेउलेसा-तेजोरूपालेश्या येषां ते तेजोलेश्याः । ठाणा. तूलिया-तूली संस्कृतरुतादिभृताऽर्कतूलादिभृता वा । वृ० १०० । द्वि० २२० आ। तेउलेसे-तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा ते. तूलियाओ-तूलिका बालमध्यश्चित्रलेखनर्चिकाः । ज्ञाता० जोज्वाला यस्य सः । सूर्य० ५ । सेजोलेश्या विशिष्ट१४४ । तपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला । जं० प्र० तूली-तूली अप्रतिलेखितदूष्यपञ्चके प्रथमः । आव० ६५२ । एगबहुकमेरगा तूल्ली, अक्कडोडगाइतूलभरिया वा तूली। तेउलेस्से-तेजोलेश्या तपोविभूतिजं तेजस्वित्वं तेजसशरीर. नि० चू० द्वि० ६१ अ । परिणतिरूपं महाज्वालाकल्पम् । ठाणा० १४६ । तूवरो-तुवरः कषायः । जीवा० २४४ । तेउसिहे-अग्निशिखस्य द्वितीयो लोगपालः । ठाणा. तूष्णीका:-पिशाचभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । १६७ । तसोणिए-तृष्णीको वचनरहितः । ज्ञाता. ८५ । तेऊ-अग्निशिखस्य प्रथमो लोगपालः। ठाणा०१६७ । तुहं-तीर्थम् । बृ० द्वि० ३० आ । तीर्थं गवां जलपान- तेजोयोगात्तेजांसि-अग्नयस्तद्वतिनो जोवा अपि । उत्त० स्थानं निपानमित्यर्थः । बृ० तृ० ६२ आ। तृणशूकं । व्य० प्र० ११६ अ। तेऊलेसा-तेजो-वह्निस्तद्वीलेश्या लोहितवर्णीत्यर्थः तेजोतृणकचवर: ।जीवा० २८२ लेश्या । ठाणा० १७५ । -तिन्दुक: बहुबीजकवृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२। तेए-तेजः तेजोलेश्या । भग० ६७३ । तेजः-शरीरस्थतेंदुओ-गन्धर्वाणां चैत्यवृक्षनाम । ठाणा० ४४२ । कान्तिः । ठाणा० ४२१ । तेजः तपोमाहात्म्यम् । उत० दुगं-तिन्दुकं वाणारस्यां तिन्दुकवनोद्याने यक्षायतननाम । ३६५ । तेजः शरीराचिः। भग० १३२ । तेज:-शरीर. उत्त० ३५६ । तिन्दुकं श्रावस्त्यामुद्यानः । आव० ३१२ । प्रभवम् । प्रज्ञा०८८ । तेज:-तेजसं-उष्मलिङ्ग भक्ता. तेंदुयं-टेम्बरूयम् । आचा० ३४६ । हारपरिणमनकारणम् । प्रज्ञा० ४०६ । तेज:-ज्ञानं. तेंदुयवणं-तिन्दुकवनं वाणारस्यामुद्यानविशेषः । उत्त. भावतमो विनाशकत्वात् । प्रश्न० १५८ । तेजः शरीर३५६ । सम्बन्धिरोचिः प्रभावो वा । औप०५०। तेंदूसं-तिन्दुसं-फलविशेषः । प्रज्ञा० ३७ । तेंदूसए-कन्दुकः। तेएण-तेजसा कान्त्या । उपा० २६ । ज्ञाता० १५८ । तेओगकडजुम्मे-योजःकृतयुग्मे द्वादशादयः । भग० तेंबुरुमिजिया-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२। तेअ-तेजः-परासहनीयः पुण्यः, प्रतापः । जं० प्र० १८२ तेओगकलिओए-योजकल्योजे त्रयोदशादयः । भग. तेजस:-शारीरम् । जं० प्र० २१६। ९६४ । तेअतली-तेजस्तलीनः जातिवाचकः शब्दः । जं० प्र० तेओगतेओगे-योजश्योजराशी तु पञ्चदशादयः । भग. १२८ । तेआ-तेजाः त्रयोदशीरात्रिनाम । जं. प्र. ४६१। तेओगदावरजुम्मे-योजद्वापरे तु चतुर्दशादयः । भग. तेउ-तेजः उष्णः । आचा० २४५ । वृ. प्र. ३०९९६४ ।। आ। तेओय-तौबः । सूर्य० १६७ । तेउकते । ठाणा० १९७। तेगिन्छि-चिकित्सक: बंदः । बोध. १३ । ( ५०७ ) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेगिच्छिपुत्तो] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [तेयलेसे तेगिच्छिपुत्तो-चिकित्सकपुत्रः चिकित्सामात्रकुशलस्य पुत्रः। तेत्तली-षष्ठाङ्गे चतुर्दशं ज्ञातम् । सम० ३६ । विपा०४०। -स्तेनाहृतं-चौरानीतम् । आव. ८२२ । तेगिच्छियसाला-चिकित्साशालं आरोगशाला । ज्ञाता० तेनिस-तैनिशं-तिनिशानिधानवृक्षसम्बन्धि । भग० १८० । ३२२ । ते गिच्छी-चिकित्सकः चिकित्सामात्रकुशलः । विपा० तेपते-क्षरति सञ्चलति मर्यादातो भ्रश्यति निर्मर्यादो भव४०। तीति यावत् । आचा० १३६ । तेजः-विशिष्टसंवेदनप्रभवा धर्मदेशना । नं० अनु० वा। तेपन्नता-तेपनता तिपे:-क्षरणार्थत्वादश्रुविमोचनम् । ठाणा. तेजचन्द्रबुधः ।जं० प्र० ५४५।। १८९ । ते जिसं-उपचितम् । प्रज्ञा० ६१ । | तेप्पिऊण-कल्पयित्वा । ओघ० १२२ । तेजोनिसर्जन । ठाणा० ३३२। मिजिया-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । तेष-स्तेना: उपकरणापहारिणः । व्य० द्वि० १४ अ । तेमासिए-त्रैमासिकः । आचा० ३२७ । यः । ठाणा० ७ । स्तेन:-चौरः । ओष० २३ । स्तेनाः | तेयंसी-दीप्तशरीरत्वात् । सम० १५६ । तेजस्वी-तेजः चौराः । जं० प्र० ६६ । स्तेन:-भगवद्दत्तग्रहाणात् शरीरप्रभा तद्वांस्तेजस्वी । ज्ञाता. ६ । तेजस्विनः अन्यापदेशयाचनाद्वा न मां कश्चिज्जानातीति भावयन् शरीरप्रभायुक्ताः । भग०१३६ । चौरोऽसौ । दश०१८।। तेय-तेजः शरीरप्रभवम् । जीवा० १६२। माहात्म्यम् । तेणतेणो-अपड्रप्पन्नबालं हरतो तेणो स तेणो तं सेहं बाहिं बृ० द्वि० २१२ आ । गामादियाण ठवेत्ता अप्पणा भिक्खस्स पविट्ठो एत्यंतरे तेयए-तेजसोविकारः तैजसम् । प्रज्ञा० २६८ । तेजसंजो तं सेहं अण्णो उप्पोसेत्ता हरति सो तेणतेणो । नि• तेज:पुद्गलानां विकारः । जीवा० १४ । तेजसोभावचू० द्वि० ४५ अ । स्तैजसं उष्मादिलिङ्गसिद्धम् । ठाणा० २६५ । रसाद्या. तेणयबंधो-यत्रमध्ये व पात्रककाष्ठस्य दवरके याति तावद् हारपाकजननं तेजोनिसर्गलब्धिनिबन्धनं च तेजसो विकायावत्सा राजिः सीविता भवति सः स्तेनकबन्धः । ओघ० | रस्तै जसम् । अनु० १९६ । । तेयतली-तेजश्च तलं च रूपं येषां ते तेजस्तलिनः, भारततेणाहडे-स्नेहाहृतं चौरानीतम् । उपा० ७ । वर्षे मनुष्यभेदः । भग० २७६ । तेणिक्कं-स्तैनिक्यं स्तेयं, तृतीयाधर्मद्वारस्य त्रयोदशं नाम। तेयते-तेजते-दीप्यते । उत्त० १८६ । प्रश्न० ४३ । तेयनिसग्ग-तेजोनिसर्गः । आव० २१४ । भगवत्यां तेणियं-स्तैन्यं यत्परेभ्यः खल्वात्मनं गृहयन स्तेनक इव | पञ्चदशशते प्रकरणम् । भग० ६६५ । वन्दते, कृतिकर्मणि षोडशो दोषः । आव०५४४ । तेयफासं - तेजःस्पर्श:-उष्णरूपतापरिणतनरककुडयादिस्पतेणेव-तेन तस्मिन् । सूर्य० ६ । शः । जीवा० १२८ । तेतलि-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ । तेयलिणाए । ज्ञाता० २०४ । तेतलिपुरं-यत्र कनकरथो राजा । आव० ३७३ ।। -कनकरथभूपस्यामात्यः । ज्ञाता० १८४।। तेतलिसुओ-तेतलिसुतः कनकरथराज्ञोऽमात्यः । आव० | कनकरथनृपस्य नगरी । ज्ञाता० १८४। तेयली-तेतलिसुताभिधानोऽमात्यः । ज्ञाता० १० । ज्ञातायां तेतलिसुतः-अमात्यविशेषः । विपा० ८८। । चतुर्दशाध्ययनम् । आव० ६५३ । तेतलि:-षष्ठाङ्गे चतुतेतली- ।० प्र० ३१३ । ठाणा० ४०६ ।। र्दशं ज्ञातम् । उत्त० ६१४ । तेतलीतिय-तेतलिसुतः । ठाणा० ५१० । | तेयलेसे-तेजोलेश्या विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजो(५०८) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेयलेस्स] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [तोत्त ज्वाला। भग० १२। तेल्लदोणी-तलद्रोणी। आव० २२७ । तेयलेस्स-तेजोलेश्या सुखासिका। भग० ६५७ । शरीर- तेल्लभायणं-तैलभाजनम् । आव० ६४१ । दीप्तं सुखासिकां वा । ठाणा० १४५ । तेल्लसमुग्गया-तैलसमुद्गको सुगन्धितलाधारविशेषो । तेयलेस्सा-तेजोलेश्या विशिष्तपोजन्यलब्धिविशेषप्रभावा | जं० प्र० ५६ । तेजोज्वाला । औप०५४। तेल्लियं-तैलिक तिलपीडनकर्म । आव० ८२६ । ते यल्लेसे-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविषयप्रभवा तेजोज्वाला। | तेल्लिया-तेल्लं । नि० चू० प्र० २४४ अ । ज्ञाता०७। तेलुक्क-त्रयोलोकास्त्रिलोका: भवनपतिव्यन्तरविद्याधरज्यो. तेयसं-तैजसं यदुदयात्तैजसशरीरप्रायोग्यान् पुद्गलानादाय | तिष्कवैमानिकाः त्रिलोका एव त्रैलोक्यम् । नंदी० १९२। तंजसशरीररूपतया परिणमयति परिणम्य च जीवप्रदेशः | तेवच्छिवाडिया-कृष्णलेश्यामा वर्णदृष्टान्तः । प्रज्ञा सह परस्परानुगमरूपतया सम्बधयति तत् । प्रज्ञा० ४६६।। ३६० । तेजस-तेज:पुद्गलानां विकारः तैजसम् । प्रज्ञा० ४०६ । । तैजसं-तेज:-स्वतत्त्वं शीयानुग्रहप्रयोजनम् । तत्त्वा०२.४६ । तेयस्सि-तेजस्वी दीप्तिमानू । आचा० ३६४ ।। तेजसबन्धनं-यदुदयात् तेजसपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमातेया-तेजोमयं तेजसम् । आव० ३६ । तेजा त्रयोदशीरात्रि. णानां च परस्परं कार्मणपुद्गलैः सह सम्बन्धस्तत्तैजसबनाम् । सूर्य० १४७ । न्धननाम । प्रज्ञा० ४७० । तेयालगपट्टण-पट्टणविसेसो। नि० चू० प्र० ४४ आ। तैजससङ्घातनाम-यदुदयवशात् तेजसशरीररचनाऽनुकारितेयाहिय-ज्वरविशेषः । भग० १९८ । | सङ्घातरूपा जायते तत्तैजससङ्घातनाम । प्रज्ञा० ४७० । तेयोए- यस्तु त्रिपर्यवसितः स त्र्योजः । ठाणा० २३७। तैजससमुद्धातः-तैजसेन हेतुभूतेन समुद्धातः तेजसशरीरतेयोगे-त्रिभिरादितः एव कृतयुग्माद्वोपरिवत्तिभिरोजो वि- नामकर्माश्रयः । जीवा० १७ । षमराशि विशेषस्त्र्योजः । भग०७४४ । तैतिलं-स्त्रीविलोचना परनाम, चतुर्थं करणम् । जं० प्र० तेरासि-राशिक: नपुंसकः । पिण्ड० १५७ । ४६४। तेरासिओ-राशिक: नपुंसकम् । वृ० तृ० २५२ अ। तैलाग्नि:-तैलसत्कोऽग्निः । जीवा० १२३ । तेरासिय-त्रिनीराशिभिदिव्यन्ति जिगीषन्तीति राशि- तोंड-तुण्डं मुखविभागो भल्लीरूपः । जं० प्र० २०१ । काः । उत्त० १५३ । तो-तथा । विशे० ७५५ । तेरासिया-त्रीन राशीन जीवाजीवनोजीवरूपान् वदन्ति ये ते | तोए-तोयं सम्बन्धहेतुः स्नेहः । प्रश्न० १५७ । राशिकाः । औप० १०६। तोट्टा-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । तेलसमुग्गए-तैलसमुद्कः सुगन्धितलाधारविशेषः । जीवा० तोडे-पल्लवो । नि० चू० प्र० १७६ आ। २१४। तोडुकरूपे-यत्रागतावचलतया तिष्ठत इति । जं० प्र० तेला ।ठाणा० ३६० । २२४ । तेल्लं-लम् । आव० ८३१ । तोण-इषुधिः । निरय० १८ । इषुधिः-भस्त्रकम् । औप. तेलकुडो-तैलकुट: तैलकुम्भः । आव० ३१० । ७१। बाणाश्रयः । जीवा० १६३ । तोण:-शरधिः । तेल्लकेला-तैलकेला तैलाश्रयो भाजनविशेषः । भग०६६४।। भग० ३२२ । तूणा:-तूणीराः। जं० प्र० २०६ । भस्त्रतैलकेला सौराष्ट्रप्रसिद्धो मृन्मयस्तैलस्य भाजनविशेषः ।। काः । जं० प्र० २१२ । तूण:-शर-भस्वादिः । ज्ञाता. निरय० ४, ३४ । ज्ञाता० १४ । २३६ । बाणाश्रयाः । जं० प्र० ३७ । तोणशरषिः । तेल्लचम्म-तैलाभ्यक्तस्य यत्र स्थितस्य सम्बाधना क्रियते । प्रश्न. ४८ । तोणीर:-शरधिः । प्रश्न०४७।। तत् तैलचर्म । ओप०६५। । | तोत्त-तुद्यते-व्यध्यतेऽनेनेति तोत्रं प्राजनको व्यथोपजनके ( ५०६) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोत्तए] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [विकल्पपर्युषितः वचनं वा । उत्त०६२। जं० प्र० २२५ । तोसलिविसए-देशविशेषः । नि० चू० प्र० ३१५ आ, तोत्तए-तोत्रकम् । दश० ८६ । २५४ आ। तोत्तगवेसए-तोत्रं प्राजनको व्यथोपजनक वचनं वा गवे. तोसलिविसयं-देशविषयः । नि० चू० वि० १५२ छ। षयति:-अन्वेषयतीति तोत्रगवेषकः । उत्त० ६२ । तोसलीए-नगरविशेषः । नि० चू० तृ० १५ अ । तोत्र-निहन्यमानानामश्वानां शब्दः । जं० प्र० २०६ । । तोहाडिका-खरमुही । आचा० ४१२ । तोमर-तोमर:-बाणविशेषः । प्रश्न० २१ । तोमरम् । तिकठ्ठ-इतिकृत्वा-इतिनिश्चयं विधाय सम्प्रलग्नाः योद्ध. जीवा ११७। तोमर:-गदाकारशस्त्रविशेषः । आव० मिति । ज्ञाता० २२१ । इतिकृत्वा-उच्चार्य । जं.प्र. ६५१ । तोमरं-आयुधविशेषः । भग० १८२ । तोमराः | १४३ । बाणविशेषाः । जं० प्र० २१२ ।। | स्थ- आव० ५६१ । अनया । विशे० ४०२ । अत्र । तोमरग्गं-तोमराग्रम् । जीवा० १०६ । विशे० ९३९ । तोयं-पूर्वाषाढा । जं.प्र. ४९९ । स्नेहः । औप०३५, | त्थिक्को-विश्रान्तः । आव ४०० । १६ । तोयमिव बन्धहेतुत्वात्तोयं स्नेहः । ठाणा० स्थिरंगलयं-पडिया। नि० चू० प्र० १२५ आ। ४६४ । स्थिमिए-स्तिमित-निर्भयम् । विपा० ३६ । तोयधारा-पञ्चमा दिक्कमारी। ज० प्र० ३८३ । ऊर्द्धव- | स्थिमिय-स्तिमित-स्थिरं स्वचक्रपरचक्रादिभयजितत्वात । लोकवास्तव्या दिक्कूमारी । आव० १२२ । भग०७ । स्तिमिता भयजितत्वेन स्थिरा । ज्ञाता०१। तोयपटुं-तोयपृष्ठं जलोपरितनभागः । औप० ४६ । प्रश्न० स्तिमिता-स्वचक्रपरचक्रातस्करडमरोदिसमूत्थमयकल्लोल मालाविवर्जिता । सूर्य० १। तोयलो-वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । स्थोभं-स्तोभक: निपातः । आव० ३७६ । तोरणं- । प्रश्न०८। द्वारादिसम्बन्धि । जीवा० | त्यक्तं-उज्झितं छदितम् । पिण्ड० १६६ । २५८ । तोरणानि प्रतोलीद्वारेषु । प्रज्ञा०८६। तोरणम् । त्यक्तद्रव्यसम्यक-जढं परित्यक्तं यद्धारादितत्यक्तद्रव्या अनु० १७ । तोरण: द्वारादिसम्वन्धिः । प्रज्ञा० ७१ ।। सम्यक् । आचा० १७६ । तोरणसंठिओ-तोरणसंस्थितः । जीवा० २७९ । त्यक्तारम्भा: वाचा०२७१। तोवुणति- नि० चू० प्र० १२१ आ। त्यागः-उपः । सम० १२१ । तोसणमादिनइ- ।नि० चू० द्वि० ११ । | पुषफलं-खादिमे फलविशेषः । आव० ८११ । तोसलि-आचार्यविशेषः । आचा० २६२ । देशविशेषः । -वल्लोविशेषः । प्रज्ञा० ३० । जीवा० २६, १३६ । नि० चू० तृ० २१ आ । बृ० द्वि० १७५ अ । नगर- उत्त० ६६२ । आचा० ३० । विशेषः । बृद्वि० २६७ अ । तोसलिग्राम । आव. त्रप्वाकरः-यस्मिन्निरन्तरं महामृषास्वयोदलं प्रक्षिप्य अपू. २१६ । उत्पाट्यते सः। जीवा० १२३ । तोसलिओ-तौसलिक: मणिप्रतिमारक्षको राजा। व्य सनाम-प्रसन्ति उष्णाभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थाद्वि० १५४ अ । नादुद्विजन्ते-गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थ स्थानान्तरतोसलिपुत्तो-तोसलिपुत्रः आचार्यः । आव० ३०१ । । मिति प्रसा:-द्वीन्द्रियादयस्तत्पर्यायपरिणतिवेद्यं नामकर्मा तोसलिपुत्ता-तोसलिपुत्राः आर्यरक्षितधर्माचार्याः । आव० पिसनाम । प्रशा० ४७४ । २९६ । आर्यरक्षितस्याचार्याः । उत्त० ९६ । असरितन्तु:-कौसेयम् । जीवा० २६६ । तोसलिविषय- ।बृ० द्वि० १७३ आ । त्रास्त्रिशग-मंत्रिपुरोहितस्थानीयाः । तत्त्वा० ४-४ । तोसलिविषयं-देश विशेषः । उ० प्र० १७५ आ। विकल्पपर्युषितः-स्थविरकल्पिको जिनकल्पिको बा । (५१०) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपिटकादि० ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [थणियकुमारीओ आचा० २८०। थंभ-स्तम्भ जात्याद्यभिमानम् । आव० ३४६ । स्तम्भः त्रिपिटकादिसमयवृत्तयः-सामायिकाः । दश० १२७ । । मानः । दश० २४२। स्तम्भः । आव० १९६ । स्तम्भ: ।नि० चू० प्र० १४४ आ। मानः । आव०८४८ । जात्यादिसमुत्थोऽहङ्कारः। उत्त. त्रियाम-पूर्वरात्रमध्यरात्रापररावलक्षणो यमाश्रित्य रात्रि | १५१ । स्त्रियामेत्युच्यते। ठाणा० १२८ । थंभण-ग्रीवायां घमण्यादीनां तिष्ठतो वाऽऽत्मनोऽङ्गप्रदेशात्रिलोकरेखा-आज्ञाराधनखण्डनादोषदोषदृष्टान्ते चन्दावतं- नां स्तम्भनम् । प्रज्ञा० ३२६ । सान्त:पुरिका । पिण्ड० ७६ । थंमणता-स्तम्भनता स्तम्भनया वा यथा तावदुपविष्टा त्रिवासरवटकं-कुथितस्वस्वभावचलिते दृष्टान्तः । जीवा० स्थितो यावत् सूप्तः पादादिः स्तब्धो जातः । ठाणा० २८२ । २८० । त्रिशला-वर्द्धमानस्वामिनः मातनाम । सम०८९ थंभणया-स्तम्भनं ऊवीकरणम् । औप० ६३ । स्तम्भनत्रिशूल-शक्तिः । सम० १५७ । ता-वङ्कगतेद्वितीयो भेदः। प्रज्ञा० ३२८ । स्तम्भनता-तावनि-वरशक्तयः । जं० प्र० २१२ । दुपविष्टः स्थितो यावत्सुप्तः स्तब्धो जातः, हनुयन्त्रादि । त्रुटितं-वादित्रम् । जीवा० १६२ । आव०४०५। प्रहः-अवश्यायः । प्रज्ञा० २८ । दश० १५३ । जीवा० थंभय-स्तम्भक:-आदर्शकगण्डप्रतिबन्धप्रदेशः. आदर्शकग२५ । उसा । नि० चू० द्वि० ८३ अ । ण्डानां मुष्टिग्रहणयोग्यः प्रदेशः । जीवा० २१३ । राशिक:-राशित्रयम् । सूर्य० १४ । थंभिज्जा-स्तम्नीयात्-स्तब्धो भवेत् मादित्यर्थः । ठाणा० त्रैराशिककरणं- । प्रज्ञा० ४८० । ४७३ । राशिका:-जीवाऽजीवनोजीवराशियख्यापकाः । विशे० थंभुग्गया-स्तम्भोद्गता-स्तम्भोपरिवत्तिनी । जीवा० २२७, ३५६ । विद्यब्राह्मणः-सामज्ञो ब्राह्मणः । औघ० २०४। थ-निपातः । आव० १३७ । वाक्यालङ्कारे । ज्ञाता० विद्यवृद्धः-वैदिकः । दश० १२७ । १४६ । निपातः पादपूरणे । बृ० तृ० १७१ आ। त्वंगनिका-बाधाविशेषः । उत्त०७८ ।। थक्क-स्थितम् । ओघ० १३२ । अवसरः । आव० ४००। त्वक-छविः । जीवा० ११४ । छल्ली । जीवा० १८७।। उत्त०२१४ । थक्क:-देशः । विशे०८५२ । काले । निचू० त्वग्विष-धर्मविषः । नंदी. १६३ । प्र. १७८ अ । नि० चू० प्र० ६ आ । प्रस्तावः । व्य० त्वचा-त्वग्विशेषः । जीवा० १३६ । द्वि० १३६ आ। त्वरितग्राहिणी- बृ० प्र० ५८ आ। थक्कारेति-थक्क इत्येवं महता शब्देन करोति । जीवा. २४८ । थक्के थक्कावडियं-अवसरे अवसरानुरूपमापतति तत् । थंडिल-छारचितीवज्जितं केवलं मडयदट्टवाणं । नि० चू० पिण्ड० ६३ । प्र. १९२ आ । स्थण्डिलं उच्चारभूमिः । आव० थण-स्तनम् । आव० ७६८ । स्तनम् । आव० ५७८ । ५७८ । अचितभूमी । नि० चू०प्र० ३८ आ । यदुद- थणदुद्धगंधियमुहो-बालः । नि० चू० तृ० ८० बा। येन ह्यात्मा सदसद्विवेकविकलत्वात्स्थण्डिलवद्भवति स थणियकुमारा-स्तनितकुमारा:-भवनपतिभेदविशेषः । प्र. स्थण्डिल:-क्रोधः । सूत्र. १८०।। ज्ञा० ६६ । स्तनितकुमारा:-वरुणस्याज्ञोपपातवचन निर्देपंडिल्लं-स्थाण्डिल्यं-भूभागः । आव० ६४२ । स्थण्डि• शत्तिनो देवाः । भग० १६६ । लम् । आव० ३४८ । स्थण्डिलः । आव० १९५। । थणियकुमारीओ-स्तनितकुमार्यः वरुणस्याशोपपातवचन (५११) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणियाए] आचार्यश्रीआनन्यसागरसूरिसङ्कलितः [थावते निर्देशवत्तिन्यो देव्यः । भग० १६६ । पणियाए।निरय०३४ । थाणइल्लग-प्राहरिकः । आव० ६९० । थद्धं-स्तब्ध जात्यादिमदस्तब्ध-कृतिकर्मणि द्वितीयोः दोषः । थाणइल्ला-आरक्षकाः । नि० चू० द्वि० ११४ आ। आव० ५४३ । स्तब्धं-सुदृढम् । जं० प्र० २३५ । | थाणयं-स्थानम् । आव० ६० । स्तब्द्याय स्वभावत एव मानप्रकृत्या विनयभ्रंशकारिणे । थाणु-स्थाणुः । जीवा० २८२ । सूर्य० २६६ । थामवं-स्थामवान बलवान् शीतातपादिसहनं प्रति सामर्थ्यथपनिका । दश० २१० । वान् । उत्त० ६५, ११० । थप्पगा-स्थाप्या अवन्दनीयाः । बृ० प्र० ३०५ अ। थामो-प्राणः । ओघ० १८९ । थरथरंत-कम्पमानः । पिण्ड० १६३ । भृशं कम्पमानः । थारुकिणिया-थारुकिनिकाः । जं० प्र० १०१ । बृ० तृ०७१ अ। . थाल-स्थालः । जीवा० २३४, २७६ । जं० प्र० ४१०। थल-स्थलं आकाशः । ओष० ३२। आकाशः । वृ० तृ. | थालः । जं० प्र० १०१ । स्थालं-अन्तःपरिधिरूपम् । जं. १६१ आ। इहं कवलप्रक्षेपणाय मुखे विङविते यदाकाशं । प्र० २०४ । भवति तत् स्थलम् । व्य० द्वि० ३३३ आ । आगासं । थालइ-गृहीतभाण्डाः । औप० ६० । भग० ५१६ । नि० चू० प्र० ४६ आ। जलपरिहारेण स्थितो नदी- थालगं-स्थालक कोशकादि । सूत्र० ३२४ । कूर्परपथः । बृ० तृ० १६२ अ। स्थलं-धुल्युच्छ्रयरूपम् । थालपाणए-स्थालं अटुं तत्पानकमिव दाहोपशमहेतुत्वात् भग० ३०७ । स्थालपानकम् । भग०६८० । थलचर-स्थलचर: मनुष्यादिकः । दश० ५५ । थालिपागाइ-स्थालीपाकः । जं० प्र० १२३ । थलपटणं-थलेण जस्स भंडं आगच्छति । नि० चू० द्वि० | थाली-स्थाली । आव० २०० । उषा । जोवा० १०५ । ७० आ । आनंदपुराति । नि० चू० प्र० २२६ अ । स्थ- उखा । भग० ३२६ । स्याली पिठरी । सूर्य० २६३ । लपत्तनं-यत्र स्थलपथेन भाण्डानामागमस्तद्, द्वितीयं पत्त- | स्थाली-वृहद्भाजनविशेषः । ओघ० १६६ । मम् । प्रश्न० ३८ । थालीपागो-स्थालीपाकः । जीवा० २८१ । थलयं-स्थलजं कोरण्टकादि । जीवा० १३६ । विचकिला- थालीपागसुद्धं-स्थालीपाकशुद्धं स्थाल्यां उखायां पाको दि। जं० प्र० ३६० । यस्य तत्स्थालीपाक, अन्यत्र हि पक्वमपक्वं वान तथाविधं थलयरं-स्थलचरजं पुद्गलविशेषः । आव० ८५४ । स्यादितीदं विशेषणं, शुद्ध-भक्तदोषवर्जितं, ततः कर्मधारयः थलयर-स्थले चरन्तीति स्थलचराः । प्रज्ञा० ४३ । स्थालीपाकेन वा शुद्धम् । भग० ३२६ । ठाणा० थलाइं-स्थलानि तटभूमयः । जं० प्र० १७१ । .. ११७ । थली-देवद्रोणी । नि० प्र० ७५ आ । नि० चू० द्वि० थालोसंठितो-स्थालीसंस्थितः-आवलिकावाह्यस्य षष्ठं १४३ आ। वृ० प्र० १६५ अ । स्थलिका-देवद्रोणी ।। संस्थान, उषा संस्थितः । जीवा• १०४ । वृ० तृ० ६१ अ, १३० आ। थावग-स्थापक: विकल्पभेदः । दश० ५७ । थवइय-स्तबकवान् । ज्ञाता० ५ । औप० ७ । स्तबकितं थावच्चसुता-बारवइवणिया । नि० चू० द्वि० १०४ सजातपुष्पस्तबकम् । भग० ३७ । आ। थवइयाओ-स्तबकिताः सजातपुष्पस्तवकाः । जं० प्र० थावच्या-दारवत्या गाथापत्नी । ज्ञाता० १०० : २५ । थावच्चापुत्ते-थावच्चापुत्रः । अनुत्त० ३। द्वारवत्यां थवईरयणे-स्थपतिरत्नं वर्षकिरत्नम् । जं० प्र० २१० । सार्थवाहपुत्रः । ज्ञाता० १०० । अनुत्त० ३ । थाइणी-स्थायिणी प्रतिवर्षप्रसविनी वडया। . दि. २३६ । थावते-स्थापयति पक्षमक्षेपेण प्रसिद्धव्याप्तिकत्वात् सम. (५१२) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाव ] यति, यथा परिव्राजकवते लोकमध्यभागे दत्तं बहुफलं भवति तवाहमेव जानामीति मायया प्रतिग्राममन्यान्यं लोकमध्यं प्ररूपयति सति तनिग्रहाय कश्चित् भावको लोकमध्यस्येकत्वात् कथं बहुषु ग्रामादिषु तत्सम्भव इत्येवंविधोपपस्या स्वद्दर्शितो भो लोकमध्यभागो न भवतीति पक्षं स्थापितवानिति स्थापकः । ठाणा० २५४ । थावरं स्थावरं अप्रतिहारिकम् । बृ० द्वि० २४४ आ । स्थावरं च यद्भवति न परकीयोपस्करवद् याचितं कतिपयदिनस्थायि । ओघ ० २११ । थावरा - उष्णाद्यभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः सन्तस्तिष्ठन्तीत्येवं शीला: स्थावराः पृथिव्यादयः । जीवा अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ है । थासग -स्था सका: - दर्पणाकारा अश्वालङ्काराः । जं० प्र० २६५ । स्थासकाः-दर्पणकारा अश्वालङ्कारविशेषाः । जं० प्र० २३५ । स्थासक:- आदर्श काकारः । औप ० ७० । स्थासक: - दर्पणः । विपा० ४७ । स्थासक: - दर्पणाकार आभरणविशेषः । जं० प्र० ५३० । थासय-स्थासकः दर्पणाकृतिः स्फुरकादिषु भवति । अनुत्त० [ [ थिल्लि पिल्ली I थिमित- स्तिमितं-स्थिरं कायचापल्यादिरहितं च । प्रश्न० १३३ । स्तिमितः - अन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्य पश्चमम ध्ययनम् । अन्त० १ । थिमिया - स्तिमिता स्वचक्रपरचक्रादिसमुत्यभयकल्लोलमालावजिता । जं० प्र० १४ । थिमिमेयणिया- स्तिमितभेदनीका निर्भयत्वेन स्थिरविश्वम्भराश्रितजना | प्रश्न० ६६ । थिमिमेहणीय- स्तिमितमेदनीकं निर्भय मेदिनीनिवासजनम् । प्रश्न० ६२ । थिमिया - स्तिमिता भयवर्जितत्वेन स्थिरा । ओप० १ । थिर-सुप्रतिष्ठानं दृढं वा । बृ० द्वि० २४४ आ । दढसंघयणो । नि० चू० प्र० ५६ अ । स्थिरः- दृढसंहननः । ओघ० ३४ । स्थिरः - असङ्ख्यकालावस्थायी । सूत्र० ६ । स्थिर:- संहननघृतिभ्यां बलवान् । पौनःपुन्यकरणेन परिचितो वा कृतयोगः | आव० ५६३ । घितिसंघयणेहि बलवं अहवा दरिसणे पव्वज्जाए वा धिरो अचलेत्यर्थः । नि० चू० तृ० १३१ आ । यथास्थितम् । ओघ ० १०८ । अप्रकम्पः । ज्ञाता० १६ । स्थिरं च यद्भवति सुप्रतिष्ठानं तत् । ओघ ० २११ । स्थेयं अभ्युपगतापरित्यागः । दश० ३९ । स्थिर: निष्पन्नः । दश० २१६ | स्थिरः- धृतिसंहननाभ्यां बलवान् । व्य० प्र० ११३ अ । थिरइ-स्थिरति स्थिरीभवति । व्य० द्वि० १६ आ । थिरग्गहत्थे - स्थिरी अग्रहस्तो यस्य सः स्थिराग्रहस्तः । जीवा० १२१ । स्थिरः प्रकृतपटं पाटयतोऽकम्पोऽग्रहस्तोहस्ताग्रं यस्य सः । अनु० १७५ । थिरपइन्नो- स्थिरप्रतिज्ञः - यो न भवितमन्यथा करोति । ५ । थाह - जत्थ णासिया ण बुहुति तं थाहं । नि० चू० द्वि० ७८ आ । स्ताधं अर्वाक् नासिकाया यत् जलं । यत्र नासिका न बुहुति तत् स्थाघम् । बृ० तृ० १६१ अ । स्तो घे अगाधे । विशे० ५७५ । स्ताधः । आव ० ३७४ । थिइ - स्त्री पुरुषादिर्वा । भग० २५३ । थिग्गल - आकाशथिग्गल विषयम् । प्रज्ञा २६३ । प्रदेश - पतितसंस्कृतम् । आचा० ३४१ । जं घरस्स दारं पुब्वमासात डिपूरियं दारं । दारमेव संधारवत्तं पडिढक्किययं । दश ० चू० ७६ आ । थिग्गलं चित्तं द्वारादि । दश० १६६ । शकलम् । मर० । गिम्हे वातागमट्ठा गवक्खादिछि कति । नि० चू० प्र० २३२ आ । थिबुकं विदु । नि० चू० प्र० ६७ आ । थिबुगो-स्तिक: उत्सावि । आव० ८४५ । थिय - स्तिबुकम् । प्रज्ञा० ४११ । यिमिओदयं स्तिमितोदकं यस्याधः कर्दमो नास्ति । औप० थिरुगा- अनन्तकायभेदः । भग० ३०० । ६४ । ( अस्प० ६५ ) आव० ८६० । थिरपरिवाडी - स्थिरपरिपाटी स्थिरपरिचित ग्रन्थस्य सूत्रं न गलति । दश० ५ । स्थिरपरिपाटि, परिचित ग्रन्थस्य सूत्रार्थं गलनासम्भवात् । आचा० २ । थिरीकरण - स्थिरीकरणं-धर्माद् विषीदतां तत्रैव स्थापनम् । प्रज्ञा० ५६ । स्थिरीकरणं-धर्माद्विषीदतां सतां तव स्थापनम् । दश० १०२ । थिल्लि - थिली - वाहनविशेषः । उत्त० ४३८ । लाटानां ( ५१३ ) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थिल्लोओ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ थूलभद्द यदड्डपल्लाणं रूढं तदन्यविषयेषु थिल्लीत्युच्यते । अनु० थुल्लतो-स्थूरः । उत्त० ३२५ । १५६ । वेसरादिद्वयविनिर्मितो यानविशेषः । जं० प्र० थुल्लसमणओ-स्थूलश्रमणक: गौतमः । आव० २८७ । १२३ । थिल्ली-वेगसराद्वयविनिर्मितो यानविशेषः । सूत्र० थुवंति-स्तूयन्ते-अभिष्ट्रयन्ते अभिनन्द्यते । भग० ६७० । ३३० । थिल्ली-लाटानां यदश्वपल्यानं तदन्यविषयेषु थूणं-लेपं । नि० चू० प्र० ३३६ अ । थिल्लीत्युच्यते । भग० १८७, २३७ । लाटानां यद् थूणा-वेली। नि० चू० द्वि० ८३ आ । स्थूणा । प्रज्ञा० अडुपल्लाणं रूढं तदन्यविषये थिल्लिरित्युच्यते । जीवा० २६३ । स्थूणा नगरी । आव० १७१ । स्थूणा-ऊर्ध्व२८२ । तिर्थक्करणयोगात्सङ्घातशाटविरहादुभयशून्या । आव. थिल्लोओ-लाटानां यानि अड्डपल्यानानि तान्यन्यविषयेषु | ४६२ । थिल्लोओ । भम० ५४७ । थूणाति । व्य० प्र० १७ आ । थिवगा। भग० ८०४ । शृणादि । नि० चू० द्वि० ११६ आ। थिविथिवंत-गूजन् । तं० । अतिशयेन । २० । | थूण मंडव-स्थूणाप्रधानो वस्त्राच्छादितो मण्डपः स्थूणाथिथिवित-अनुकरणशब्दोऽयम् । विपा० ७४ । मण्डपः । ज्ञाता० ६३ । थिचोरो-स्त्रियाः सकाशात् स्त्रियमेव वा चोरयति स्त्रीरूपो | भं-स्तुपम् । ओघ० १३ । स्तूपः-पीठविशेषः । जं. वा यश्चौरः स स्त्रीचौरः । प्रश्न० ४६ । प्र० १२३ । इट्टगादिचिया विच्चा थूभो । नि० चू० थीणं-स्त्यानद्धिः स्त्याना-चैतन्य ऋद्धिर्यस्यां सा स्त्याना। प्र० १६२ अ । स्तूप:-चितिविशेषः । प्रश्न० ८ । स्तूप:आव० ८४ । इद्धं चित्तं तं थीणं । नि० चू० प्र० चैत्यस्तूपः । राज० १२१ । ३६ अ । थूभकरंडं-स्तूपकरण्डं ऋषभपुरे उद्यानम् । विपा० ६४ । थोणद्धी-स्त्याना-पिण्डीभूता ऋद्धि:-आत्मशक्तिरूपा यस्यां शुभमहो-स्तुपमहः स्तुपसत्क उत्सवः । जीवा० २८१ । स्वापावस्थायां सा स्त्यानद्धिः । प्रज्ञा० ४६७ । इत्थं आव० ३२८ । चित्तं तं थीणं जस्स अच्चंत दरिसावरणकम्मोदया सा | थूमसंठिओ-स्तूपसंस्थितः । जीवा० २७६ । थोणद्धी । नि० चू० प्र० ३६ अ। थूमा- । भग० २३७ । थोणा-स्त्याना-पिण्डीभूता । प्रज्ञा० ४६७ । थूभिदे-स्तूपः-परिणामिकबुद्धा एकविंशतितमो दृष्टान्तः । थीणागेद्धी ।ठाणा० ४४७ । | नंदी० १६५ । थीपरिणा-स्त्रीपरिज्ञा-सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे चतुर्थमध्य- थूभिया-स्तूपिका शिखरम् । राज० ३६ । यनम् । आव० ६५१ । उत्त० ६१४ । थूभियाए-स्तूपिका-शिखरम् । जं० प्र० ४७ । जीवा० थीपुरिससंजोए-अशुचिस्थानभेदः । प्रशा० ५०। ३७६ । प्रज्ञा० ६६ । सूर्य० २६४ । स्तूपिका-लघुथोविलोअचं-स्त्रीविलोचनं तैतिलमिति वा, चतुर्थ कर- शिखररूपा । जीवा० २०५, ३६० । णम् । बं. प्र. ४६३ । थूभियागे-स्तूपिका लघुशिखररूपा । जं० प्र० ४६ । थीहू-अनन्तकायनेदः । भग० ३०० । कन्दविशेषः । थूलते-उच्चारपरिणामि । २० । उत्त• ६६१ । भम० ८०४ ।। थूल-स्थूलः अत्यन्तमांसलोऽयं मनुष्यादिः । दश० २१७ । थंडइ-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । । स्थूल-एरण्डकाष्ठादि । दश० १४७ । . थुई-स्तुतिः । आव० ७६६ । थूलगं-परिस्थूलवस्तुविषयोऽतिदुष्टविवक्षासमुद्भवः स्थूलः । थुड-सन्धः । राज. ६ ।। आव. ८२० । थरम । भग• ८०२ । थूलभह-अन्तिमचतुर्दशपूर्वधरः । नि• चू० तृ० १४६ पुछ-स्थूलः । ओष० २१६ । । आ । स्थूलभद्रः-स्त्रीपरीषहे दृष्टान्तः । उत्त० १०४ (५११) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थूलमद्दसामी ] योग संग्रह - शिक्षादृष्टान्ते कल्पकवंशप्रसूतस्य नवमनन्दराजमन्त्रिशकटालस्य ज्येष्ठः पुत्रः यः शिक्षायोगवान् आचार्यो जात: । आव ० ६७० । संभूअस्स सीसो । नि० चू०प्र०२४३ अ । स्थू नभद्र:- बहुश्रुत आचार्य विशेषः । उत्त० १३० । स्थूलभद्रः - कल्पक वंशप्रसूत शकटालज्येष्ठपुत्रः । आव० ६९३ । स्त्रिया अजेता मुनिः । मर० । थूलभद्दसामो-स्थूलभद्रस्वामी । आव० ४२५ । थूलवया - स्थूलं - अनिपुणं यतस्ततो भाषितया वचो सः स्थूलवचाः । उत्त० ४६ । यस्य अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ थूला स्थूला । आव० ८५५ । थूले सरो-स्थूलेश्वर : - इहलोकगुणविषये व्यन्तरविशेषः आव० ८२४ । थूल्लं - स्थूलम् । आव ० ९० । [ थोवेति तथाभूतः सन् प्रचोदयति प्रकर्षेण शिक्षयति स स्थिरकरणात् स्थविरः । व्य० प्र० १७२ अ । स्थविर:- गच्छवासि साधुः । विशे० ८ स्थविर:- एकस सत्यादिवर्ष: । व्य० प्र० २४५ । थेरकंचुइज्ज - स्थविरकञ्चुकी - अन्तःपुरप्रयोजन निवेदक: प्रतीहारो वा । भग० ४६० । थेरपट्टि - स्थविरकल्पस्थितः । आव० २६२ । थेरा- स्थविरा - गच्छ्वासिनः । बृ० प्र० २३० अ । आयरिया । नि० ० प्र० ३०८ अ । आचार्यः । बृ० द्वि० ११२ आ । स्थविरा:- आचार्याः । बृ० द्वि० २६० आ । स्थविरा: श्रुतवृद्धा गीतार्थाः । विशे० ६३८ । आचार्याःवयः श्रुतपर्याय स्थविरा: । भग० ६७५ । थेरी-संजतीविसेसा । नि० चू० प्र० १३२ आ । स्थ विरा । आव० २२० । रोवधाई - स्थविरा:- आचार्यादिगुरवः तानाचारदोषेणशीलदोषेण च ज्ञानादिभिर्वो पहन्तीत्येवंशीलः स एव चेति स्थविरोपघातिकः । सम० ३७ । स्थेरोपघातीआचायोंपघाती, षष्ठमसमाधिस्थानम् । आव० ६५३ । थेव्वणं उपमर्दनम् । बृ० प्र० २४१ आ । थेहा-दट्ठूणं । नि० चू० द्वि० ६३ आ । थोर-स्थूलः । ज्ञाता० ६८ । थोवंदे - स्तोकं ददस्व-स्वल्पं प्रयच्छ । ओघ० ६७ । थोव स्तोकम् । भग० २८ । स्तोक:- स्वल्पः । आव ० ५६८ | स्तोक: गणना प्रमाणतो हीनः तुच्छो वा । विशे० १०३७ । स्तोकः-सप्तप्राणप्रमाणः । भग० २११ । स्तोक:- सप्तप्राणा उच्छवासा य इति गम्यते स स्तोकः । भग० २७६ । सप्तप्राणाः उच्छ्रत्रासनिःश्वास य इति गम्यते स स्तोकः । जं० प्र० १० । सप्तोच्छ्रासरूाः । ज्ञाता० १०४ । सप्तानप्राणप्रमाणः स्तोकः । सूर्य ० २९२ । स्तोक :- सप्तप्राणा एकः स्तोकः । जीवा० ३४४ । थोवय- स्तोकका :- चातकाः । ज्ञाता० २७ । भोवावसेस - स्तोकावशेषा - कालवेला उद्घाटावशेषा। आव ० थूह - स्तूपम् । आव० ५०५ । थेज्जे - स्थैर्यधर्मयोगात् स्थैर्यः । भग० १२२ । थेर-परिविसेसेणं जुन्नसरीरे । नि० चू० द्वि०६५ अ । स्थविर:- यो गच्छस्य संस्थिति करोति । जाति(जन्म) श्रुतपर्यायैर्वा स्थविरः । दश० ३१ । स्थविर:सीदतां स्थिरीकरणहेतुः । दश० २४२ । स्थविरः श्रुत पर्यायवृद्धः । प्रवचनगुरुः । दश० २८४ । स्थविर:जातिश्रुतपर्यायभेदभिन्नः । आव ० ११६ । चरगादिएहि दंसणातो परीसहोवसग्गेहिं वा चरणातो अतिकक्खड पच्छित्तणेण वा भावतो ण चालिञ्जति सो थिरो । नि० चू०तृ०१४३ आ । स्थेरः आचार्यो गुरुर्खा । आव ०६ ५४ । स्थिविर:- स्थविरकल्पिकः । ओघ० १६५ । धर्म रिणत्या निवृत्तासमञ्जसक्रियामतिः । स्थविर इव स्थविरः, परिणतसाधुभाव आचार्यः । जीवा० ४ । स्थविरः । प्रज्ञा० ३२७ । श्रुतादिभिर्वृद्धत्वात् स्थविरः । ज्ञाता • ७ । स्थविरः - श्रुतवृद्धः । भग० १३६ । जातिश्रतषर्यायभेदभिन्नाः स्यविर: । ज्ञाता० १२३ । स्थविर:गणधरः । दश० २५५ । स्थविर:- महावीरजिन शिष्यः श्रुतवृद्धः । भग० १०० । सीदमानानु साधूनु ऐहिका मुकापाय प्रदर्शनतो मोक्षमार्गे स्थिरी करोतीति स्थविर: । व्य० प्र० १७२ अ । प्रवत्तिव्यापारितेष्वर्थेषु मो यत्र यतिः सीदति सत् विद्यमानं बलं यस्य स सदुबलः ( ५१५ ) ७३२ । भोवेति । ठाणा० ८५ । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंड ] आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः | दंड प्राणिनो दण्डयतीति दण्डः परितापकारी । आचा० २७४ । दण्डनं दण्ड:- अपराधिनामनुशासनम् । ठाणा० ३६६ | सूत्रार्थकरणम् | ओघ० २०२ । दण्डनं दण्ड:अतिपातात्मकः । उत्त० २६३ । आज्ञा अपराधे दण्डनं वा सैन्यं वा । ठाणा० ३४३ । विनाशनम् । सम० २५ । बाहुप्पमाणो । नि० चू० प्र० १२३ आ । अपराधानुसारेण राजग्राह्यं द्रव्यम् । भग० ५४४ । दण्ड:ऊर्ध्वाध आयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशः । जं० प्र० २७१ । दण्ड: - दण्ड इव दण्डः ऊर्ध्वाधआयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशकर्म पुगलसमूहः । भग० १५४ । ज्ञाता० ३४ । तथाविधपरिक्लेशे धनहरणादिको दण्डः । ज्ञाता० ११ । दण्ड: - वंशयष्टादिः । कूप्पराभिघातः । उत्त०३६४ | दण्डिकः । आव ० ३६९ । दण्ड इव दण्डः - ऊर्द्धवाधआयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशसमूहः । जीवा० २४४ । दण्ड: । सामान्य ग्रामाधिपः । आव ० ८१९ । दण्डयति पीडामुत्पादयतीति दण्डः - दुःखविशेषः । सूत्र० १३२ । शरीरधनयोरपहारः । विपा० ६५ । दण्डयतीति दण्ड: - पापोपादान संकल्पः । सूत्र० ३०६ । दण्डनायकः । विपा० ६१ । बृ० तृ० २३६ आ । दण्ड: - योगसंग्रहे आपत्सु दृढधर्मस्वदृष्टान्ते अनगारविशेष: । आव ०६६७ | यमुनावक्रे ऋषिः । सं० । बाणघातसहो मुनिः । मर० । प्रायश्चित्तम् । व्य० द्वि० १७२ अ । दण्डः । प्रश्न० ५८ । दण्डिक:- राजदण्डघारी द्वारपालकः । उत्त० १७६ । दण्डकः । ओध० २१५ । आव० २७३ | चतुर्हस्तमानः । अनु० १५४ | दण्ड:सङ्घट्टन परितापनादिलक्षणः । दश० १४३ । यथापराधं राजग्राह्यं द्रव्यम् । जं० प्र० १६४ । दण्डः - उत्कालः । पिण्ड ० १० । दण्डः षण्णवत्यङ्गुलप्रमाणः । भग० २७५ ॥ दण्डो हि चतु:कर उक्तः, करश्वतुर्विंशत्यङ्गुलः एवं चतुविंशसी चतुर्गुणितायां षण्णवतिः स्यादेवेति । सम० ६८ । इंडई - कुम्भकारकडे नगरे राया । वृ० द्वि० १५३ छ । इंडई रण्णो-दण्डकी राजा - जिनशत्रु राजजामाता । उत्त० ११४ । दंड - दण्डकः । ओघ० २१७ । दंडिओ - नृपः । बृ० प्र० ३१३ आ । दंडकारण्यं - अरण्यविशेषः । प्रश्न० ८७ । दंडग - चित्रलतादण्डकै: । ओघ० ५५ । दंडगपमणी - दण्डकप्रमार्जणी - वसतिप्रमार्जनाय रजोहरविशेषः । बृ० द्वि० २५३ अ । दंडणायग - दण्डनायक:-तन्त्रपालः । राज० १४० । दण्डनायका:-तन्त्रपालाः । जं० प्र० १६० । दंडणी ई - दण्डनीतिः सामादिश्चतुविधा । जं० प्र० २५६ । दंडनायए - दण्डनायक : - तन्त्रपालः | औप० १४ | दंडनायक - प्रतिनियतकटकनायकः । प्रश्न० ७६ दंडनायग - दण्डनायकः - तन्त्रपालकः । भग० ४६३ । तन्त्रपालः । भग० ३१८ । आरक्षकः । दश० १६६ | दंडनिक्खेवो| आचा० ३२० । दंडनोई - दण्डनीति: हक्कारमक्कारधिक्कार भेदभिन्ना । आव ० ११३ । दंडनीति - दण्डनं दण्डः - अपराधिनामनुशासनं तत्र तस्य वा स एव वा नीति:-नयो दण्डनीतिः । ठाणा ० ३६८ । दंडपयारो - दण्डप्रचारः सैन्यविचरणं । दण्डप्रकारो वा आज्ञाविशेषः । प्रश्न० ७४ । दंडपरिहार - महती जीर्णकम्बलिका । बृ० द्वि० ११३ [ दंडय अ । दंडप हो - दण्डपथ: गोदण्डमार्गः, लघुमार्गः, प्रमुखोज्ज्वलो वा । सूत्र० २३४ । दंडपासगो - दंडपाशकः - खरकार्मिकः । ओघ० ८६ । दंडप्पयारा - दण्ड प्रकार : आज्ञाविशेषो नोतिभेदविशेषो वा । दण्डप्रचारा:- संन्यविचरणम् । सम० १५३ । दंडफरुस - दंडपारुष्य व्यसनं अनपराधे स्वल्पे वापरावे अत्युग्रदण्डं निर्वर्त्तयति तत् । बृ० प्र० १५७ अ । दंडभडभोइओ - दण्डभटभोजिक: । आव ० ३४४, ३७८ । दंडमाईया - दण्डादिका - घरणिपातच्छुसाङ्कयुद्धप्रभृतयः । पिण्ड० १३० । दंडय - दण्डकि:- कुम्भकारकृतनगरे राजा । व्य० द्वि० ४३२ अ । ( ५१६ ) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंडयगहियग्गहत्थो] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [दंतारा बंडयगहियग्गहत्थो-गृहीतदंडाग्रहस्तः । उत्त० १३५ । असमञ्जसचेष्टया व्यावर्णितः । उत्त० ५३ । गुरुभिर्दमदंडयत्ता-दंडयात्रा । आव० ३७८ । ग्राहितः विनयितः । औप० ३३ । दान्त:-इन्द्रियनोइदंडरक्खो-दण्डरक्षः । आव० ४०१ । न्द्रियदमनेन दान्तः । सूत्र० २९८ । दंडरयणे-चक्रवत्तिनश्चतुर्थ रत्नम् । ठाणा० ३६८। दंतकम्मे-दन्तकर्म-गजविपाणविषया रूपनिर्माणक्रिया । दंडवई-कटुककृतगोष्ठीदण्डोद्ग्राहकः । बृ० द्वि० १९१ अ । प्रश्न० १६० । दंडवासस्थाणं-दण्डावासस्थानम् । आव० ६७१। दंतकम्माणि-दन्तकर्माणि-दन्तपुत्तलिकादीनि । आचा० दंडवासिया-गामिया। नि० चू० प्र० १९४ अ । ४१४ । दंडविरिए-दण्डवीर्यः-पुरुषयूगे दृष्टान्तः । ठाणा० ४३० ।। दंतकारे-शिल्पभेदः । अनु० १४६ । दंडसंपुच्छणि-दण्डसंपुञ्छनी-दण्डयुक्ता सम्मानी। जं० दंतखजयं-मोदगासोगवट्टिमादी । नि० चू० तृ० ३७ प्र० ३८८ । आ । दंडसमादाणे-समादोयते कर्म एभिरिति समादानानि | दंतचक्को-दंतपुरणगरे राया । नि० चू० तृ० १२८ अ । कर्मोपादानहेतवः, दण्डा एव मनोदण्डादयः प्राणव्यपरो- दन्तपुरे नृपः। व्य० प्र० १०७ अ । दन्तचक्रः, द्रव्यव्युत्सर्गे पणाध्यवसायरूपाः समादानानि दण्डसमादानानि । जीवा. दन्तपुरनरेशः । आव० ७१७ । दन्तचक्रः, योगसंग्रहे निर१२१ । पलापदृष्टान्ते दन्तपुरनगराधिपतिः। आव० ६६६ । दन्तदंडातिते-दण्डायतिक:-प्रसारितदेहः । ठाणा० ३९७ । चक्रो दन्तपुरनृपतिः । उत्त० ३०१ । दंडादिपणगं-दंडविदंडयष्टिवियष्टिनालिकारूपं दंडादिप- दंतनिवाय-दन्तनिपातः-दशनच्छेदविधिः, संप्राप्तकामस्य श्वकम् । बृ० द्वि० २५३ अ । षष्ठो भेदः । दश० १९४ । दंडायतिते-दण्डस्येवायतिः-दीर्घत्वं पादप्रसारणेन यस्य दंतपहोयणा-दन्तप्रधावनं अङ्गुल्यादिना क्षालनम् । दश० स दण्डायतिक: । ठाणा० २९६। । ११७ । दंडिअ-दण्डिकः । आव० ६१, ६३६ । दंतपुरं-दन्तपुरं द्रव्यव्युत्सर्गे नगरम् । आव० ७१७ । दंडिका-राजकुलानुगता । बृ० प्र० ६५ अ। दन्तपुरं-योगसंग्रहे निरपलापदृष्टान्ते दन्तचक्रराज्ञो नगदंडिखंडवसणं-दण्डिखण्डवसनम् । विपा० ७४ । रम् । आव० ६६६ । णगरविसेसो । नि० चू० तृ० दंडिय-दण्डिकः । ओघ० ११८ । आव० ७३८ । उत्त० १२८ अ । दंतचक्करायाए नगरं। व्य० प्र० १०७ अ । १३६ । दंडिक:-करणपतिः । व्य० प्र० ६३ आ। दन्तपुरं-दन्तचक्रराजधानी । उत्त० ३०१ । दंडिया-दण्डिका-मुद्रा । बृ० प्र० ३३ आ । दण्डिका:- दंतमणि-दन्तमणिः-प्रधानदन्तः, हस्तिप्रभृतीनां दन्तजो अन्य राजानः । ओघ० ११६। वा मणि: । प्रश्न० १५३ । दंडो-दण्डी-कृतसन्धानं जीर्णवस्त्रम् । ज्ञाता० २०० । | दंतमाला-दन्तमालाः भरते द्रुमगणविशेषः । जं० प्र० दंडीयपद- व्य० द्वि० १५२ अ। ६८ । एकोहकद्वीपे बृक्षविशेषः । जीवा० १४५ । दंडेइ-शकटावयवविशेषः दण्डः । षण्णवतिरङ्गलानि । जं० दंतवक्के-दान्ता-उपशान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवः स प्र०६४ । दान्तवाक्यः चक्रवर्ती । सूत्र० १५० । दंत-दान्तः-य इन्द्रियनोइन्द्रियाणि दमयति । दश० १५७ । दंतवणं-दन्तवनम् । ओघ० १७२ । दान्तः-उपशमं नीतः । ज्ञाता० ७० । दश० ११६ । दंतवाणिज्ज-दन्तवाणिज्यं-हस्तिदन्तादिक्रयविक्रयक्रिया। दन्तः । आव० १९२ । गजादीनां दन्ताः । दश० आव० ८२६ । १९३ । दान्त:-क्रोधादिदमनावयन्तो वा रागद्वेषयोर- दंतवेयणा-दन्तवेदना-दशनपीडा । भग० १६७ । न्तार्थ प्रवृत्तत्वात् । भग० १२३ । दान्तः-दमं माहितः, दंतारा-शिल्पार्यभेदः । प्रज्ञा० ५६ । ( ५१७ ) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंताला ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [सणवापन्नग दंताला ।नि० चू० प्र० २२ अ। श्रद्धोयन्ते पदार्था अनेनास्मादस्मिन् वेति दर्शनं-दर्शदंतिक्कं-पुण्णो तंदुलोट्टो । नि० चू० तृ० ३६ आ। नमोहनीयस्य क्षयः क्षयोपशमो वा दृष्टिा दर्शनतंदुला, सव्वं वा दंतखज्जयं । नि० चू० तृ. ३७ अ । दर्शनमोहनीयक्षयाद्याविभूतस्तत्त्वश्रद्धानरूप आत्मपरिमोदकादिकं दन्तखाद्यं तन्दुलचूर्णो वा। मोदकमण्डकादिकं णामः । ठाणा० २४ । दृष्टि:-रूचिस्तत्त्वानि प्रति । यद्वहविध दन्तखाद्यकं तहन्तिकम् । ६० द्वि० १२६ अ । ठाणा० ३० । शुद्धाशुद्धमिश्रपुजत्रयरूपं-मिथ्यात्वमो. तन्दुलचूर्णः । बृ० द्वि० १२६ अ। हनीयम् । ठाणा० १५१ । अभिप्रायो यदि वा दृश्यते दंतिक्कचूण्णं-तन्दुललोट्टः। बृ० द्वि० १२६ अ । यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमनेनेति दर्शनं उपदेशः । आचा० दंतिचंडोणं । भग०८०४। १७१ । अभिप्रायः । आचा० २२७ । दर्शनं-रूपम् । दंतिलगं-दन्तुरः । आव० २११ । निरय० ४ । राज० ११ । दर्शनम् । ठाणा० ३३७ । दंतलिया-दन्तिलिका-स्कन्ददासी। आव० २०१ । प्रमेयस्य परिच्छेदनम् । भग० ६५६ । दर्शनं-क्षायिकदंतो-साधारणवादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ । भावापन्नं सम्यक्त्वम् । जं० प्र० १५१ । सेवनम् । बृ० दंतक्खलिय-फलभोजी । औप०६० । भग० ५१६ । प्र० २०३ अ । दृश्यते तत्वमस्मिन्निति दर्शनम् । उत्त० फलभोजिनः । निरय० २५ । ५५६ । दृष्टिदर्शनं-तत्त्वेषु रुचिः । ठाणा० ४८ । दंते-दति । पिण्ड० १६२ । दर्शन-प्रकाशनं उपनिबन्धनम् । सम० ११६ । आकारः । दंदिखंडो-दण्डीखण्डः । आव० ४२६ । जं० प्र० ५२ ।। दंश:-चतुरिन्द्रियजीवविशेषः । प्रज्ञा० २३ । दसणकसायकुसोल-दर्शनमाश्रित्य कषायकुशीलो दर्शनदंष्ट्रा-आशी । प्रज्ञा० ४७ । क्षुल्लहिमवदंष्ट्रा । जीवा० कषायकुशीलः । भग० ८६० । १४५ । दंसणपक्खो-दर्शनपक्ष:-योऽप्रत्याख्यानकषायोदयवति श्रा दंस-दर्शनं दर्शः । विशे० ५६१ । आव० ८२। पञ्चमः बके भवति । आव० ५३३ । परीषहः । आव० ६५६ । दसणपरोसह-दर्शनं-सम्यग्दर्शनं, सहनं चास्य क्रियादिवादंसणं-दर्शन-स्वस्वविषये सामान्यग्रहणं रूपसामान्यग्रहण- दिनां विचित्रमतश्रवणेऽपि निश्चलचित्ततया धारणम् । लक्षणम् । प्रज्ञा०५२७ । दर्शन-रूपम् । ज्ञाता०११। सामा. सम० ४० । दर्शनपरीषहः-दर्शन-सम्यग्दर्शनं तदेव न्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यप्रहणात्मको बोधः । प्रज्ञा क्रियादिवादिना विचित्रमतश्रवणेऽपि सम्यक परिषा४५३ । दर्शनं-आकारः । जीवा० २०७ । दर्शनं | माणं निश्चलचित्ततया धार्यमाणं परोषहः, दर्शनं दर्शनसम्यग्दर्शनम् । आव० ५८० । दश० १.१ । ओघ० व्यामोहहेतुरहिकामूष्मिकफलानुपलम्भादिः स एव परी. ६ । दर्शनम् । आव० ७९३ । दर्शनं-सामान्यविशेषा- षहः । उस० ८३ । त्मके वस्तुनि सामान्यावबोधः रूपसामान्यपरिच्छेदः । दंसणपुलाए-दर्शनमाश्रित्य पुलाकस्तस्यासारताकारी वि. जीवा० १८ । दर्शनं-सम्यक्त्वम् । ठाणा०६५। भग० । राधको दर्शनपुलाकः । भग० ८१.। ५१ । दर्शनं-वर्णादिपरिणतसूत्रानुसारः । दश० १७७ । दसणपुलाते-कुदृष्टिसंस्तवादिभिर्दर्शनपुलाकः । ठाणा० दर्शनं-प्रस्थातुईष्टिपथः । ६० प्र० २६२ । दर्शनं-सामा- ३३७ । न्योपलब्धिरूपं चक्षुरचक्षुरवधिकेवलाख्यम् । आचा०६८। दसणबलिया-परैरक्षोभ्यदर्शनाः । औप० २८ । दर्शनप्रतिमा श्रावकस्य प्रथमा प्रतिज्ञा । आव० ६४६ ।। निं मोहयतीति दर्शनमोहनीयं मिथ्यादर्शनं-रुचिरूप आत्मनः परिणामः । भग० ३५० ।। त्वमिश्रसम्यक्त्वभेदम् । ठाणा० १७ । अनुभवनम् । भग० ७१० । ईहावाही हि दर्शनं-सा- दसणवापन्नग-दर्शन-सम्यक्त्वं व्यापन-भ्रष्टं यस्य स मान्यग्राहकत्वात् भवामम् । ठाणा• २३ । दृश्यन्ते दर्शनव्यापञ्चक:-निह्नवः । भग० ५१ । (५१८) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंसणविणए ] अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, मा० ३ [ दक्खु तिसर्वास्थ्यादिकचव रेणापरचमं मय स्थिग्गलक स्थगितापानच्छिद्रेण सङ्कीर्णमुखीकृत ग्रीवान्तविवरेणाजापश्वोरन्यतस्य शरीरेण निष्पन्नश्वमंमयः प्रसेवकः कोत्थलकापरपर्यायो हृतिः । पिण्ड १८ । दडत - दयित: - वल्लभः । ज्ञाता० १६७ । दउदरे - दकोदरं - जलोदरम् । ज्ञाता० १८३ । दविए-दर्शन विणयः - सम्यग्दर्शन गुणाधिकेषु शुश्रूषा- दइओ - ऊर्ध्वम पाटितेनापनीतमस्तकेन निकर्षितचन्तर्वदिरूपः । भग० ६२४ । दंसणविणय-दर्शन विनयः विनयस्य प्रथमो भेदः । दश० ३१ | श्रद्धानः कर्म विनयति यस्मादु दर्शनविनयः, दर्शनाद्विनयः दर्शनविनयः । दश० २४१ । दंसण संकिले से - दर्शनस्य सङ्क्लेशः - प्रविशुद्धधमानता स दर्शनस क्लेशः । ठाणा० ४८९ । दंसणसावए - दर्शनं - सम्यक्त्वं तत्प्रतिपशः श्रावको दर्शन दओधसि - उदकौघे वा गङ्गादिनामुन्मार्गगामित्वेनागच्छश्रावक:, श्राद्धानां प्रथमा प्रतिमा । सम० १६ । ति सति तेन प्लाव्यमानानामित्यर्थः । ठाणा० ३०६ । दंसणा - दर्शना - उपदर्शका | सम० ११६ । दओदराइ - दकोदरं - जलोदरम् । जं० प्र० १२५ । दंसणाया रे - दर्शनं - सम्यक्त्वं तदाचारो - निःशङ्कितादिर- दकभवणं- उदकभवनं - उदकगृहम् । आचा० ३४१ । टद्यैव दर्शनाचारः । ठाणा ० ३२५ । दकरय - दकरज:- उदककणः । जीवा० २७२ । दकवारक:-भाजनविधिविशेषः । जीवा० २६६ । दक्खं - दक्षस्य भावो दाक्ष्यं - अविलम्बितकारित्वम् । उत्त• ४६ । सिग्धं करेति । नि० चू० प्र० ३३२ आ । ठाणा० ३०२ । दक्षः - कार्याणामविलम्बितकारी । औप ० ६५ । जीवा० १२२ । जं० प्रे० ३८८ । शीघ्रकारी । अनु० १७७ । भग० ६३१ । दक्षः-उत्तरस्यानां धरणेन्द्रस्य पादत्राणीकाधिपतिः औत्तराहाणं बलिव ज्जितानां दक्षो नाम्ना पदातिपतिः । जं० प्र० ४०८ । दक्खत्तं - दक्षत्वं - आशुकारित्वम् । आव० ३४६ । उत्त० १४४ । दंसण दे-दर्शनेन्द्र:- क्षायिकसम्यग्दर्शनी । ठाणा० १०४ । दंसणिज - दर्शनीयं द्रष्टुं योग्यं दर्शनेन तृप्तिरसम्भवात् । सूर्य ० २६४ । दर्शनीयं दर्शनयोग्यम् । प्रज्ञा० ८७ । आदेयदर्शनः । ज्ञाता ३५ । दंसपिड्डी - दर्शनद्धिः प्रशमादिरूपा । दश० ११३ । दर्शनद्धि: - प्रवचने निःशङ्कितादित्वं प्रवचन प्रभावक दक्खिण-दक्षिणा । आव० २०० । दंसिज्जं ति - उपमामात्रतः दर्श्यन्ते । सम० १०९ । दसिय दर्शिता - श्रवणगोचरं नीता उपदिष्टा । प्रज्ञा० ४ । दं से इ-तदभिधेयप्रत्युपेक्षणादिक्रियादर्शनेन दर्शयति । भग० दक्खिणकूला - येगंङ्गादक्षिणकूल एव वस्तव्यम् । निरय० दक्खिणकूल - येर्गङ्गाया दक्षिणकूल एव । भग० ५१६ । दक्षिणकूलकः यैर्गङ्गया दक्षिणकूल एवं वस्तव्यम् । औप० ६० । ७११ । दंसेति - तदभिधेयप्रत्युपेक्षणादिक्रियादर्शनेन दर्शयति 1 ठाणा० ५०२ । दइअ - दतिकः । अनु० १५२ । दइउ - दति उ-चक्खल्लाउडुओ जेण तरिज्जइ । ओघ ० ३३ । ६६ । दइए - हतिक: । ठाणा ० ३३६ | दमितः वल्लभः । उत्त० दक्खिण्णे- दक्षिणा | उत्त० २६६ । ४५१ । शास्त्रसम्पद्वा । ठाणा० १७३ । दंसणेण अइभद्दए- भद्रदर्शनः । ज्ञाता० २२० । दंसमसग - दंशाश्व मशकाच दंशमशका, उभयेऽप्येते चतुरिन्द्रिया महत्त्वा महत्वकृतश्चैषां विशेषोऽथवा दंशो दंशनंभक्षणमित्यर्थः, तत्प्रधाना मशका दंशमशकाः । पञ्चमः परीषहः । सम० ४१ । २५ । दक्खिणा - दक्षिणा | आव० ६३० । दक्षिणा-दक्षिण मथुरा। आव० ६८८ । दक्खिणाव हो - दक्षिणापथः । आव० १९७४ । नृ० द्वि० २२७ अ । दक्षिणपथ:-दक्षिणादिग्विभागः । आव ० दक्खु - पतीति पश्य:- सर्वशः । दक्षो वा निपुणः । सूत्र ० ( ५१६ ) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण ] आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः दगसीम ७३ । द्रष्ट्रा-अतीतानागतव्यवहितसूक्ष्मपदार्थदर्शी । सूत्र० । चू० प्र० २६५ अ । ७४ । दगपिप्पली-हरितविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । दक्षिण-दक्षिणपार्श्वनियुक्तत्वादनुकूलगुणत्वाद्वेति । ठाणा दगभवण-उदकभवनं-पानीयगृहम् । दश० १६६ । २१६ । दक्षिणत्वं-सरलत्वम्, पञ्चत्रिंशद्वचनातिशये दगभवनं-उदकभवनं-उदकगृहम् । आचा० ३४० । षष्ठः । सम० ६३। दगमंडवगा-दकमण्डपका:-स्फटिकमण्डपका: । जं० प्र० दक्षिणपूर्व-आग्नेयकोणः । सूर्य० २२ । ४४ । जीवा० २०० । दक्षिणा-दानम् । विशे० १२५० । दगमंडवा-स्फाटिका मण्डपा: । राज०७६ । दगंगुलिगा-वक्को। नि० चू० प्र० ४५ आ। दगमंडवो-उदकमण्डपः-उदकक्षरणयुक्तः । प्रश्न० १६३ । दग-आष्टाशीतो महाग्रहे त्रयत्रिंशत्तमः । जं० प्र० ५३५ । दगमग्गो-दगवाहो । नि० चू० प्र० २६५ अ । ठाणा० ७६ । दक-अप्कायः । आव० ५७३ । उदकम् । दगमट्टि-दकमृत्तिका-चिक्खलम् । आव० ५७३ । प्रज्ञा० ३६१ । उदक-जङ्घार्द्धप्रमाणम् । ओघ० ३२ । | दगमट्टिआ-दकसंयुक्तमृत्तिका-विवेचकद्रव्यप्रयोगपूर्विका तपाणियघरं प्रवादि । नि० चू० तृ. १० आ । उदकं- द्विवेचनकलाप्युपचाराद्दकमृत्तिका । जं० प्र० १३७ । उदजनार्द्धप्रमाणम् । ओघ० ३२।। कमृत्तिका अचिराप्कायार्दीकृता मृत्तिका । आचा० २८५। दगकलसं-दककलशम् । जं० प्र० ३८६ । उदकप्रधाना मृत्तिका । आचा० ३२२ । चिक्खल्ला । दगकुम्भयं-दककुम्भकम् । जं० प्र० ३८६ । नि० चू० द्वि० ८३ अ । बगगब्भा-दकस्य-उदकस्य गर्भा इव गर्भा दकगर्भाः- दगमास-वासा । नि० चू० द्वि० १०६ अ । कालान्तरे जलवर्षणस्य हेतवस्तत्संसूचका इति तत्त्व- दगरए-उदकरज:-उदकगणाः। प्रज्ञा० ३६१ । जीवा मिति । ठाणा० २८७ । २१० । पानीयकणा: । जीवा० १६४ । दकरज:दगघट्ठो-जत्थ अद्धजघा जाव उदगं । नि० चू० प्र० उदकविन्दुः । बृ• तृ० १६२ आ । ३४१ आ। दगरक्खसो-उदक राक्षस:-जलमानुषाकृतिर्जलचरविशेषः । दगच्छड्डणमत्तए-उदकप्रतिष्ठापनमात्रक-उपकरणघावनो- । सूत्र० १६० । दकप्रक्षेपस्थानम् । आचा० ३४० । दगरय-दकरज:-श्लक्ष्णोदककणिका । आव० ४४३ । दगतीरं-दगम्भासं । नि० चू० प्र० २६५ अ । सिंचन- दगलेव-उदकलेपो-नाभिप्रमाणजलावगाहनम् । सम. वोचिस्पृष्टानि न नयन दृष्टपूराणि मनुष्यादिस्थानं त्ववश्यं ३६ । सिंचनवीचिस्पृष्टलक्षणानि दगतोरम् । मनुष्यास्त्रियो वा दगवण्णो-दकवर्णः अष्टाशीती महाग्रहे चतुस्त्रिंशत्तमः । जं० जलार्थिन आगच्छन्तः साधु यत्र स्थितं दृष्ट्वा तिष्ठन्ति प्र० ५३५ । निवत्तं ते वा तद्दकतीरम् । बृ० द्वि० ३० अ । दगवार-उदककुम्भ:-पानीयघटः । दश० १७२ । दगतुंडो-दकतुण्डः पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८। दगवारओ-पाणयगड्डयओ । दश० ० ७६ । दगतूर-उदके मुरवादितूर्याणां शब्दकरणम् । बृ० द्वि० ३२ / दगवारग-दगवारक:-जलघटः । जं० प्र० १०१ । दगवाहो-दगमग्गो । नि० चू० प्र० २६५ अ । बगथालगं-दकस्थालक-कांस्यादिमयं जलपात्रम् । जं० प्र० दगसंसदहडा-दगसंसष्ठाहृता-उदकसम्बद्धानीता हस्तमा३८६ । श्रोदकसंसृष्टा वा भावना । आव० ५७६ । बगपंचवणे-अष्टाशीती महाग्रहे चतुस्त्रिंशत्तमः । ठाणा दगसोम-वेलंघरनागराजस्य चतुर्थ आवासपर्वतः । ठाणा० ७६ । २२६ । दकसीम:-मनःशीलाकभुजगेन्द्रस्यावासपर्वतः, बगपहो-जेण बणो दगस्स वच्चति सो दगपहो । नि० ' जीवा० ३११ । (५२०) अ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वगगरिया ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ दत्त दगगरिया-परिव्वायगा । नि० चू० द्वि० १७२ अ । दढमित्तो-दृढमित्र:-योगसंग्रहे निरपलापदृष्टान्ते दन्तपुरदगसोआरा । नि० चू० प्र० ३५६ आ। । नगरे धनमित्रवणिजमित्रम् । आव० ६६६ । घणमित्त. दगसोकरो-परिव्राजकः । आव० ४०० । स्स आलावंतस्स वयंसो । नि० चू० तृ० १२८ अ। दच्छतरो-सांयात्रिकयानपात्रेभ्यः सकाशात् दक्षतरो वेग- धणदत्तसार्थवाहस्य मित्रम् । व्य० प्र० १०७ अ। वाग्नित्यर्थः । प्रश्न० ५१ । दढरह-निरयावलया पञ्चमवर्गेऽष्टममध्ययनम् । निरय० दच्छिसि-द्रक्ष्यसि । आव० ५०६ । भग० ११३ । ३६ । भरतक्षेत्रे अतीतायामुत्सपिण्यां अहमः कुलकरः । ददा-दंष्ट्राः । व्य० प्र०२८ अ । ठाणा०५१८। भरतक्षेत्र अतीतायामवपिण्यां अष्टमः कुलबड़-दाहः-कर्मदलिकदारूणां ध्यानाग्निना तद्रूपापनयन- करः । सम० १५० । शीतलजिनपिता । आव० १६१। मकर्मत्वजननम् । भग. १६ । दग्ध-स्वस्वभावापन- सम० १५१ । लोकपालाममहिषीणां तृतीया पर्षद । ठाणा यनेन भस्मीकृतम् । आव० ५८२ । दाह:-अग्निना १२७ । दृढरथा-पिशाचकुमारेन्द्रस्य बाह्या पर्षत् । दा(िद्यर्था)दिविषयो दाहः । भग० १६ । जीवा० १७१ । . बाडच्छवी-दग्धच्छवि:-शीतादिभिरुपहतत्वक । प्रश्न०५२ दढाउ-दाढादालः । जीवा० १२१। बडप्पइण्णो-दृढप्रतिज्ञः । भग० ६५३ । दढाउणा-दृढायुरप्रतीतः । ठाणा० ४५६ । दडिलयं-दग्धम् । आव० ८३६ । दढाऊ-आगामिन्यामुत्सपिण्यां चतुर्विशति कायां पञ्चमतीर्थ. बढ-दृढः-विश्रोतसिकारहितः परीषहोपसग्गः निष्प्रकम्पो | करस्य पूर्वभवनाम । सम० १५४ ।। वा । आचा० १२२ । गाढः । उत्त, ३४६ । निष्प्र. | दण्ड:-दुष्प्रयुक्तमनोवाक्कायलक्षणो हिंसामात्र वा एकत्वं कम्पम् । नंदी०४६ । षण्मासी यावद् शक्यभोगम् । षण्मा- चास्य सामान्यनयोदेशाद् एवं सर्वकत्वमवसेयम् । सम. सानु यावत् ध्रियते तद् ईदृशं दृढम् । बृ० द्वि० २३८ अ ।। दृढं-अतिनिबिडचयापनम् । जीवा० १२१ । दण्डपादिका । उत्त०५५। बढक्खमाइया-महाश्वपत्यादयः । व्य० द्वि० १७६ आ। दण्डपाल:-नगररक्षकः । उत्त० ४६५ । बढघगू-आगामियन्यामुत्सपिण्यां भरतक्षेत्रे अष्टमः कुल- | दण्डपाशिक:-राजप्रेष्यः । आचा० ३३४ ।। करः। ठाणा० ५१८ । आगामिन्यामुत्सपिण्या ऐरावत- दण्डा:-दुष्प्रणिहितमनोवाकायलझणाः । प्रभ०६७। क्षेत्रे षष्ठः कुलकरः । सम० १५३ । दण्डिक:-राजा । ओघ० १२० । बढधम्म-दृढो धम्मो यस्य, आपद्यति तत्परिणामाविचलनात् दण्डिवस्त्रं ।नंदी० १६३ । अक्षोभत्वादित्यर्थः स दृढवमति । ठाणा. २४२ । दृढ. | दतिए-वायफूण्गो दतितो। नि० चू० प्र०४५ । । बर्मा य आपद्यपि धर्मान्न चलतीति । ठाणा० ४८४ । दत-क्रीडनधात्रोदोषविवरणे सिंहाचार्य शिष्यः । पिण्ड. दृढः-स्थिरो निश्चलो धर्मो यस्य स । ओघ. २०२। १२५ । भरतक्षेत्र आगामिन्यामपिण्यां पञ्चमः कुलकरः। बढनेमी-दृढनेमिः-अन्तकृद्दशानां चतुर्थवर्गस्य दशममध्य. सम० १५३ । ठाणा० ३६८ । दत्त:-संगमस्यविराचार्ययनम् । अन्त० १४ । दृढनेमिः-समुद्रविजयस्य चतुर्थः स्य शिष्यः । उत्त० १०८ । दत्तः-तगरानगयां वास्तव्यो सुतः । उत्त० ४६६। वणिक् । उत्त० १० । दत्त:-भद्राभिधधिरजातीयपुत्रः बढपइन्न-दृढप्रतिज्ञः। भग० ५४४, ६६५। अन्न०४ ।। धिरजातिनृपतिः । आव० ३६६ । दत:-नित्यवासदृष्टान्ते विपा० ५१ । दृढ पतिज्ञः-भव्यविशेषः । विपा० ४४।। सङ्गमस्थविरशिष्यः । आव०. ५३६ । संगमथेराणामायइढप्पहारी-दृढपहारी-कौशाम्ब्यां रथिकः । उत्त० २१४ । रियाणं सीसो । नि० चू० द्वि०६५ आ । कुलइरपुरे गाढप्रहारः । ज्ञाता० २३६ । दुश्शिष्यः । मर० । निरयावल्यां तृतीयवर्ग सप्तममपढभूमि-दृढभूमिः । आव० २१६ । ध्ययनम् । निरय०२१. ३६ | दत:-सममो. वासदेवः । (अप• ६६). (५२१) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दत्ताणुनायसंवरो] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ दन्तपुत्तलिका आव० १५९ । मेतार्यपिता । आव० २५५ । दत्त:- | यति-गोपायन्तमात्मस्वरूपपरं विलज्जीकरोतीति स दर्दरा. रोहीटकनगरे गाथापतिः । विपा०८२ । दत्तः-चम्पानगाँ पव्रोडकः । प्रश्न० ४६ ।। नृपतिः । विपा० ६५ । दहरग-दहरिको-यस्य चतुभिश्चरणैरवस्थानं भूवि स गो. दत्ताणुन्नायसंवरो-दत्तं च-वितीर्णमन्नादिकमनुज्ञातं च- धाचविनद्धो वाद्यविशेषः । जं० प्र० १०१। प्रतिहारिकपीठफलकादि ग्राह्य, इत्येवरूप: संवरो दत्ता ण-दर्दरपिधानं-वस्त्रबन्धनम् । ६० द्वि०२७ अ। नुज्ञातसंवरः । प्रश्र० १२३ । दद्दरमलयसुगंधे-दर्दरमलयसुगन्धः । जं० प्र० ४१० । दात्त-दत्ति: सकृद्भक्तादिपात्रपातलक्षणा। प्रश्न० १०६ । व्य-दर्दरसंस्थितः-आवलिका बाह्यस्य षोडशं दत्तिआ-दत्ता च कन्या पित्रादिना परिणीयत इति । संस्थानम् । जीवा० १०४। आव० १२६ । दद्दरियं-लिप्तम् । नि० चू० तृ० ५६ । दत्तिते-दत्तयः-सकृद्भक्तादिक्षेपलक्षणा । ठाणा० २६८ । | दद्दरेति-बध्नाति । नि० चू० द्वि० २२ अ । दत्तिय-दात्रिका । आचा० ६१ । दद्-दद्रु:-क्षु कुष्ठ विशेषः । भग० ३०८ । जं० प्र० दत्तिलायरिअ-आचार्य विशेषः । दर्श० ७ । १७० । दत्ती-यत्सिक्थकमप्येकशः क्षिपति एका दत्तिः । आव दददर-मणिकारश्रेष्ठिजीवः । भक्त० । राहोः पञ्चमनाम । ८४४ । दत्ति:-एकक्षेपभिक्षालक्षणा । औप०३६ । भग० ५७५ । देवविशेषः । ज्ञाता० १७८ । दर्दरट:दत्तीओ-इत्तयः-एक प्रक्षेपप्रदानरूपाः । ठाणा० १३६ । चविनद्धमुखः कलशः । प्रश्न १५६ । दक्ति:-स कृत्प्रक्षेपलक्षणा । ठाणा० १५० ।। इसए-सौधर्मकल्पे विमानविशेषः । ज्ञाता. दत्तसणा-दत्तं दानं तस्मिन् एषणा-तगतदोषान्वेषणात्मिका | १७८ । दत्तषणा। उत्त० ५६ । | दद्ध-पसिद्ध । नि० चू० प्र० १२७ आ। तभवो दोसो । दद्दर-चीवरावनद्धं कुण्डिकादिभाजनमुखम् । जं० प्र० नि० चू० प्र० १८८ आ । ५६ । दईर:-बहलः, दर्द राभिधानाद्रिजातश्रीखण्डो वा दद्-सप्तमं महाकुष्ठम् । प्रश्न० ३६१ । महाकुष्ठविशेषः । चपेटारूपः । ज्ञाता० ४० । धनं-चपेटाभिघातः, सोपा आचा० २३५ । त्वग्रोगविशेषः । पिण्ड०६ । वीथी: । सम० १३८ । गलदर्दर: वचनाटोप इत्यर्थः ।। । भग० ८०३। । प्रश्न० ४६। दईर:-आच्छादनम् । आव० ६२५ । बहलं दधिघटिका । आचा० १३८ । चपेटाकारः । राज० ३६ । मुखे घनेन चीवरेण बन्धनम् । दधिघणो-दधिधनः-घनीभूतं दधि । जं०प्र० ४६ । जीवा० बृ० प्र० २६६ अ । दईर:-वाद्यविशेषः । जीवा० २०५। १०५ । बहल: चपेटाप्रकारो वा । जीवा १६०,२२७ । | दधिमुहगपव्वया- । ठाणा० २३० । औप० ५ । प्रज्ञा० ८६ । दईर:-चीवरावनद्धं कुण्किादि- दधिमुहा-पर्वतविशेषः । सम० ७७ । भाजनमुखम् । जीवा० २१४, २४४ । लघुपटहः । जीवा० | दधिवासुया-दधिवासुका-वनस्पतिविशेषः । जं० प्र०४५। . २६६, २६६ । पर्वतविशेषः । ज्ञाता० २२२ । चन्दनो- जीवा० २०० । त्पत्तिखानिभूतः पर्वतः । जं० प्र० ४१२ । दईर:-निर- दधिवाहणो-दधिवाहन:-चम्पानगर्यधिपतिः । आव० न्तरकाष्ठफलकमयो नि:णिविशेषः । पिण्ड० ११० ।। २२३ । दद्दरए-दर्दरक:-मुखबन्धनं वस्त्रखण्डम् । पिण्ड० १०५। । दधिहण्डिका-जाम्बुवतीरूपम् । विशे० ६११ । दद्दरओवोलको-दर्दरेणोपपीडयति-जातमनो बाघं करो- | दधी-दधि । प्रज्ञा० ३६१ । तीति दईरोपपोडकः । प्रश्न ४६ । दन्तकाष्ठ ।आचा० ३१३ । दद्दरओवीलग-दर्दरेण गलदर्दरेण-वचनाटोपेन अपनोड- | दन्तपुत्तलिका-दन्तकर्मणि हटान्तः । आचा० ४१४ । (५२२) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दन्तवण] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ दरि - दन्तवण-दन्तपावनं-दन्तमलापकर्षणकाष्ठम् । उपा० ४ । | दमगभत्तं-दगभारंका तेसि भत्तं दमगभत्तं । नि० चू० दन्ताः -दशनाः । आचा० ३८ । प्र० २७२ अ । मवल्गनादिषु व्यापृततया यो निष्कारणेऽनादर | दमगा-जे पढमं विणयं गाहेंति ते दमगा । नि० चू० नपस्थापनाया: स दर्पः । व्य० द्वि० ६५ अ । दपिका-या प्र० २७७ अ । कारणमंतरेण प्रतिसेवा क्रियते सा । व्य० प्र० ४७ आ। दमगो-दरिदो । नि० चू० प्र० ३५० अ । दरिद्रः । नि० दर्पः । मनस्विनीमानदलनोत्थो गर्वः । उत्त० ४२८ । चू० द्वि० १६७ अ।। अकत्तव्वं । नि० चू० प्र० २५ आ । दर्प:-देहहप्तता।। । ज्ञाता० २०८ । सोभाग्याद्यभिमानः । अब्रह्मणोऽष्टमं नाम : प्रश्न० ६६ । दमण-दमनं-शिक्षाग्राहणम् । प्रश्न० २२ । दर्प:-वल्गनादिः । भग० ६१६ । ठाणा० ४६४। दर्पः- दमणको-दमनकः पूष्पजातिविशेषः । प्रश्न १६२ । दृप्तता । भग० ५७२ । दमणग-हरितविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । दप्पणं-दर्पणं अष्टममङ्गले प्रथमम् । जं० प्र० ४१६ । दमणगपुड-पुष्पजातिविशेषः । ज्ञाता० २३२ । दर्पणक:-आदर्शकदण्डः । औप० २० । दर्पण:-दर्पण- दमणा- । भग० ८०२ । गण्डः । जीवा० १७० । प्रश्न. ८० । दमदंत-पांडवकौरवसाम्यवान् । मर०। दमदन्त:-हस्तिदप्पणिज्जं-दर्पणीयं-बलकरः । औप०६५ । उत्साहवा द- शोषनगरे राजा । ज्ञाता० २०८ । आव० ३६५। हेतुत्वाद् दर्पणीयम् । जीवा० २७८ । दमसेणे-दमसेनः-कृष्णवासुदेवधर्माचार्यः । आव० १६३ । दप्पणिज्जे-दर्पणीयमुत्साहवृद्धिहेतुत्वात् । जं० प्र० दमिलि-द्राविडी । भग० ४६० । ज्ञाता० ४१ । ११६ । दर्पणीयं-बलकरमुत्साहवृद्धिकरमित्यन्य इति ।। दमीसरे-दमिन:-उद्धतदमनशीलास्ते च राजानस्तेषामी. ठाणा० ३७५ । श्वर:-प्रभुः । यद्वा दमिन:-उपशमिनस्तेषां सहजोपशमदप्पायमाणो-दायमाणः । उत्त० २११ । भावत ईश्वरो दमीश्वरः। उत्त० ४५१ । , दप्पिया-दप्परागदोसाणुगया दप्पिया । नि० चू० प्र० दम्मतो-दमितः । उत्त० ५३ । ७६अ। दम्म-दम्य:-दमनयोग्यः । आचा० ३६१ । दन्भ-समूलम् । निरय० २६ । दर्भः-मूलसहितः दर्भः। दम्मा-दम्य:-दमनीयः (गोरथकः) । दश० २१७ । भग० २६०, ८०२ । कुशः । प्रश्न० १२८ । समूलः । | दयइ-दयते-पालयति । आचा० २७५ । विपा० ७२ । दर्भमयी । प्रभ० १३ । अग्रभूतः । दया-देहिरक्षा, अहिंसाया एकादशं नाम । प्रश्न ६६ । ज्ञाता० ११४ । दयाधम्म-दयाप्रधानो धर्मो दयाधर्मः, दशविधयतिधर्मदब्भकम्मताणि-दर्भकर्मान्तानि । आचा० ३६६ । रूप: यतिधर्मः । उत्त० २५३ ।। दब्भकुरा-तृणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । भग० ८०२। दयाननका-वराकका। ओघ० १५७ । दब्भगयोइदल- ।भग ८०२ । दर-द्रुतम् । वृ० द्वि० १०५ आ । अर्धम् । ६० तृ० दब्भपुप्फय-दर्भपुष्पः-दर्वीकरसर्प विशेषः । प्रश्न । १२१ आ । अद्धं । नि० चू० तृ० ७७ अ । ईषद् । दब्भा-दार्भायन-चित्रानक्षत्रस्य गोत्रम् । जं०प्र०५००। व्य० प्र० ४६ अ । इषत् । विशे० ५४१ । अर्घविकसिदब्भेया-विद्याविशेषः । अन्या दर्भ-दर्भविषया भवति तम् । विशे० ६१७ ।। विद्या यथा दभरपमृज्यमान आतुरः प्रगुणो भवति । दरगय-दरगत-ईषत्प्राप्तः । विशे० ३३२ । व्य. द्वि० १३३ आ। दरदर-शोघ्रम् । नि० चू० तृ० १६ अ । दभियायणस्सगोते- । सूर्य० १५० । दरहिडिए-अर्दहिण्डिते । ओघ० १०४ । दमओ-द्रमकः । आव० ४२१। ए-दरी-पर्वतकन्दरा गुहा । भग० १७४ । श्रृंगाला (५२३ ). Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरिअ ] आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः दिकृतभूविवर विशेषः । भग० ६८३ । दम्य - गुहाः । जं० दर्पेण-कार्याभावे । वृ० प्र० २२२ अ । दर्भ - तृणविशेषः । आचा० २८५ । दव - वर्द्धकिः । नंदी० १६५ । प्र० ६६ । दरिअ - निम्नतरप्रदेश: अधोग्रामादिः । भग० ४३६ । दरिथेरा - दरिद्रस्थविरा: नाम पाषण्डस्था: । आव ० २०४ । दरिद्दो- कल्लो | नि० चू० द्वि० ४५ अ । दरिमहेसु | आचा० ३२८ । दरिय-द्रप्तः - बलोन्मतः । आव० ७१६ । गविष्ठः । आचा० दर्शनलालसं - अवलोकचलम् । आव० ७८४ | । आचा० ४१६ । ७५ । दरिसण दर्शनं सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको बोधः । ठाणा० ४४७ । मतं । नि० चू० प्र० ११ आ । दर्शन - आगमः । सूत्र० ३७ । दर्शनं - प्रकटनं, शब्दस्योच्चारणं - व्यापारणं प्रयोग इति । विशे० १११७ । दरिसणपुलाओ - दर्शन पुलाक:, पुलाकस्य द्वितीयो भेदः । | उत्त० २५६ । दरिसणावर णिज्ज - दर्शनावरणीयं- दर्शनमोहनीयमभिगृह्य ते । भग० ४३२ । अ । व्य० प्र० १७ अ । दरिसावे उ-दर्शयतु । दश० ४१ । दरी - कुसाराती । नि० चू० द्वि० १२६ अ । मूषिका दिकृता लध्वी खड्डा | जीवा० २०२ । जं० प्र० १२४ । शृगालादिकीर्णभूमिविशेषः । ज्ञाता० ३६ । कन्दरविशेषः । ज्ञाता० ६७ | दरी-सुरङ्गा गुफा च । आव ० ६७७ | आचा० ४११ । दर्दरिका - गोधिका - वाद्यविशेषः । अनु० १२९ । बद्दर - पर्वतविशेषः । भग० ४७७ । बद्दरक:बर्द्दरिका - वाद्यविशेषः । ठाणा० ३६५ । : राज० ५० । दलज्ज - दद्यात् । आचा० २८० । दरिसणिज्जं - दर्शनीयं -दर्शनयोग्यम् । जीवा० १६१ । दलनिकर-दलवृन्दम् । ज्ञात० १६८ । दर्शनीयः - नयनमनोहारी । जीवा० ३४३ | दरिसणिज्जा-दर्शनयोग्या, यां पश्यतश्चक्षुत्री श्रमं न गच्छतः । ज० प्र० २१ । यां पश्यच्चक्षुर्न श्राम्यति । ज्ञांता० १३ । दरिसाओ । नि० चू० प्र० ७ आ । दरिसावं - दर्शनम् । दश० १०३ । नि० चू० प्र० १५ दर्वोकरः - सर्पविशेषः । सम० १३५ | प्रश्न० १० । दर्शन - आर्यभेदः । सम० १३५ । दृष्टिः- चक्षुर्ज्ञानं नयमतं वा । ठाणा० १८३ । दर्शनतः - दर्शन ग्रन्थं प्रयुञ्जानो दर्शनतः । ठाणा० ३३७ । दर्शन विशुद्धि:दर्शनानि - नयाः । ठाणा० १९६ । दर्शनोपसम्पत्-दर्शन प्रभावनीयशास्त्रपरिज्ञानार्थमेव दर्शनोपसम्पदिति । आव ० २७० | दर्शनप्रभावकसम्मत्यादिशास्त्रविषया । ठाणा० ५०१ । दलं-चूर्णम् । जं० प्र० ४२२ । दलंति - प्रयच्छति । बृ० द्वि० २८१ अ । दलए - दलिकं - कारणम् । भग० ६६५ । [ दव दलयमाणे - ददत् न कृतप्रत्युपकारो भवेदिति । ठाणा० ११६ । दलामि-दलयामि तुभ्यं ददामि । ज्ञाता० ३६ । दलाह- ददध्वम् । उत्त० ३६१ । दत्त- प्रयच्छत । ज्ञाता• ११६ । दलिअं द्रव्यं वस्तु वा । ओघ० ३७ । दलियं - दलिकं - परममेधावी आचार्यपदयोग्यः । बृ० तृ० १३४ आ । दव- द्रवः - जलम् । पिण्ड० १२ । द्रवः - परिहासः । औप० ५१ । जीवा० १७२ । प्रज्ञा० ६६ । द्रवः - विकृतिवि शेषः । आव० ८५४ । द्रवः- कर्मग्रन्थिद्रावणाद् द्रवःसंयमः । सूत्र० ३१६ । द्रव - द्रुतार्थवाचकः । वृ० प्र० १२४ अ । द्रव - पानकम् । ओघ ११ । पानीयः । पिण्ड० १७५ | सौवीरद्रवादिकं अलेपकृतं, दुग्धतैलयसाद्रवघुतादि च । बृ० तृ० २०६ आ । द्रवः- संयमः । आचा० ७७, १९३ । द्रव - तण्डुलधावनादि । पिण्ड ६२ । ( ५२४ ) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवउदगं] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ दवउदगं-द्रवोदकम् । नि० चू० प्र० ४५ । मक्को । दश० चू० १४५ । दवए-द्रवति 'दुद्रगतो' इति धातुः, ततश्च द्रवति तांस्तान | दावा । दश० चू० ३३ । स्वपर्यायान् प्राप्नोति-मुञ्चति वा । विशे० २४ । दवियंसि ।सूत्र० ३०७ । दवकारगा-द्रवकारका:- लिकराः । जं० प्र० २६४ । दविय-वीयं, णमं । नि० चू० द्वि० ७० आ । द्रविकदवकारिओ-परिहासकारिणी: । भग० ५४८ । समुदाय: । भग० ६२ । विशिष्टि-रागद्वेषविरहाद्दवगुडो-द्रवगुड:-गुडभेदः, द्रवीभूतो गुडविशेषः । आव० | द्रव्यभूतः कर्मग्रन्थिद्रावणाद्वा द्रवः-संयमः स विद्यते ८५४ । यस्यासौ द्रविकः । आचा० ३०६ । द्रव्यं-संयमः दवग्गिडावणया-दवाग्निदापनता-प्रयोदशं कर्मादानम स विद्यते यस्यासो द्रविकः । आचा० २६२ । द्रव्य:आव० ८२६ । भन्यः-मुक्तिगमनयोग्यः । आचा० २४६ ।। स्वदव-द्रुतं द्रुतं तथाविधालम्बनं विना त्वरितम् । दवियणुजोगे-द्रवतीति द्रव्यं तस्यानुयोगः द्रव्यानुयोग:उत्त० ४३४ । द्रुतं द्रुतं । बृ० प्र० २८८ आ। अन्त० । सदसत्पर्यालोचनारूपः । ओघ० ८ । २० । दविया-द्रविका नाम रागद्वेषनिर्मुक्ताः, द्रवः-संयमः सप्तदवदवचार-दूतद्रुतचारः विंशत्यसमाधौ प्रथम स्थानम्।। दशविधानः कर्मकाठिन्यद्रवणकारित्वाद्-विलयहेतुत्वात आव० ६५३ । स येषां विद्यते ते द्रविकाः । आचा० ७७ । दवदवचारि-द्रुतंद्रुतं चरति-गच्छति; सोऽनुकरणशब्दतो | दवियाणि-अटव्या घासार्थ राजकुलावरुद्धभूमयः । आचा. दवदवचारि, असमाधौ प्रथम स्थानम् । सम० ३७ । ३८२ । स्वदवस्सं-अन्भुयं । दुयं । दश० चू० ७६ । दवियाणुओगे-अनुगोजनं-सूत्रस्यार्थेन सम्बन्धनं अनुरूपोस्वदन्व-द्रुतंद्रुतं त्वरितम् । दश० १६६ । ऽनुकूलो वा योगः-सूत्रस्याभिधेयार्थ प्रति व्यापारोऽनुयोगः, व्याख्यानमिति भावः, द्र व्यस्य-ज वादे'नुयोगो-विचारो स्वरकः-सूत्रम् । जीवा० २३७ । द्रव्यानुयोगः, यज्जीवादेई व्यत्वं वि वार्यते स द्रव्यानुयोगः, श्वरिका-जीवा-प्रत्यञ्चा । सूर्य० २३३ । द्रवति-गच्छति तांस्तान् पर्यायान् यते वा तेस्तैः पर्यायस्वविरोह-द्रवेण काजिकेन सह विरोधः । द्रवविरोधः | रिति द्रव्यं-गुणपर्यायवानर्थः, तत्र सन्ति जीवे ज्ञाना. द्रवं-उदकं तेन निर्लेपनं करोति सागारिकपुरत इति । दयः सहभावित्वलक्षणा गुणा: न हि तद्वियुक्तो जीवः विनाशः । ओघ ४८ । कदाचनापि सम्भवति, जीवत्वहानेः, तथा पर्याया अपि ववसोल-द्रवशोलं-भास इ दुयं दुयं गच्छए य दरिउव्व गो- मानुषत्वबाल्यादयः कालकृतावस्था लक्षणस्तत्र सन्त्येवेति, विसासरए सव्व दुयदुयकारी फुट्टइ व ठिोवि दप्पेण । अतो भवत्यसौ गुगपर्यायवृत्त्वात् द्रव्यमित्यादि द्रव्यानुबृ० प्र० २१३ अ । द्रवशील:-दो द्रुतगमनभाषणादि। योगः । ठाणा० ४८१ । ठाणा० २७५ । दविल-द्रविड:-चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः । प्रश्न दविए-रागादिभावरहितत्वाद् द्रव्यं, द्रवति-गच्छति तां१४ । स्तान ज्ञानादिप्रकारानिति द्रव्यं । साधोरूपमानम् । दव्यतो-द्रव्यायमाणः । उत्त० २७६ । दश० ८४ । द्रव्यकाय:-त्र्यादिघटादिद्रव्यसमुदायः । दव-द्रव्यं-वस्तु । आव० ७६८ । द्रव्यं-ओदनादि । दश० १३४ । द्रव्य काय:-रागद्वेषरहितः भिक्षुपर्यायः । आव० ८४४ । द्रव्य-त्रिकालानुगतिलक्षणं पृद्लादिदश० २६२ । द्रव्यः-द्रव्यानुयोगः । दश०४ । वस्तु । प्रश्न० ११७ । द्रव्यं-रिक्थम् । प्रश्न० ५२ । द्रव्यं इविए जीविय-द्रव्यमेव .सचेतनादिभेदं जीवितव्यहेतु- सामान्यम् । जीवा०६८ । इह द्रव्यतस्तुल्यत्व वदता । त्वाज्जीवितं द्रव्यजीवितम् । ठाणा० ७। रागदोसवि- समूच्छिमसर्वप्रभेदनिर्भदबीजं मयूराण्डकरसवदनभिव्यक्तदे ५२५) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कवमूढो दव्वट्टो- द्रवति गच्छति तान् तानु पर्यायान् विशेषानिति वा द्रव्यमिति व्युत्पत्ते द्रव्यमेवार्थः तात्विकः पदार्थों यस्य न तु पर्यायः स द्रव्यार्थ :- द्रव्यमात्रास्तित्वप्रतिपा दको नयविशेषः । जीवा० ६८ । कवणुमणं - द्रव्यगोपनम् । उत्त० २२१ । दव्वततिण-द्रव्यतितिणिकः । बृ० प्र० १२६ मा १ जं अग्गीए दढं तिडितिडेति तं दव्वतितिणं । नि० चू० तृ० ८० अ । दव्यतित्थ - द्रव्यतीर्थं मागधवरदामादि। आव० ४६८ । दव्वथओ - द्रव्यस्तत्रः - पुष्पगन्धधूपादिः । आव० ४९२ । दव्वदेवो-यो हि पुरुषादिर्मृत्वा देवत्वं प्राप्स्यति बद्धा. or: अभिमुखनामगोत्रो वा स योग्यत्वाद् द्रव्यदेवः | आव० ७६८ । दव्वधम्म- द्रव्यधर्मः । दश० २१ । द्रव्यधर्मः-धर्मास्तिकायः तिक्तादिर्वा द्रव्यस्वभावः गम्यादिर्वा धर्मः कुतो - थिको वा धर्मः । आव० ४६७ । दव्वपडिबद्धा - द्रव्यप्रतिवद्धा । नि० चू० प्र० १०६ : आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः दव्यकाल ] शकालक्रमं प्रत्यवबद्धविशेषभेदपरिणतेयग्यं द्रव्यम् । प्रज्ञा० १८४ । वर्त्तनादिलक्षणो द्रव्यकालः । आव० २५७ । द्रव्यजीवितं - सच्चित्तादि । आव० ४७६ । द्रव्यः - भव्यो मुक्तिगमनयोग्यः, रागद्वेषविरहाद्वा द्रव्यभूतोऽकषायी । सूत्र० १७० । सर्वात्रान्वयि सामान्यमुच्यते द्रवतिगच्छति तानु तानु पर्यायान् विशेषानिति वा द्रव्यम् । जं० प्र० २६ । द्रुः सत्ता तस्या एवाऽवयवो-विकारो वेति द्रव्यम् । विशे० २५ । द्रव्यं-पूर्वोपात्तं कर्म । दश० ६८ | द्रव्यं - जीवाजीवभेद: । अनु० १०५ । यत् सामान्य तद् द्रव्यम् । विशे० ८६६ । यत्रस्थास्त उत्पद्यन्ते उत्पद्य चावतिष्ठन्ते प्रलीयन्ते च तद् द्रव्यम् । उत्त० ५५७ । द्रव्यं - हिरण्यम् । नि० चू० प्र० ३५६ अ । द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायानिति द्रव्यं-अतीतभविष्यद्भवकारणं अनुभुतविवक्षितभाव मनुभविष्यद्विव क्षितभाव वा वस्त्वित्यर्थः । अनु० १४ । दव्वकाल - वर्तनादिरूपो द्रव्यकालः । विशे० ८३७ । दवा सार्द्धम् । ठाणा० ३६८ | द्रव्यकालः-वर्त्तना दिलक्षणः । दश० ६ । आ । दव्वगुणो- द्रव्यगुणः - द्रव्यम् । आचा० ८५ । दव्वचरणं गतिचरणं भक्खणाचरण आचरणाचरणं च । नि० चू० प्र० १ अ । coaपरंपरा- द्रव्यपरम्परा । दश० ४६ । दवपाणा - द्रव्यप्राणाः- आयुः प्रभृतयः । जीवा० १४० । दव्वग्भूय - द्रव्यभूत भावरहितः । विशे० १३१६ । Goa - शकटादिचक्राणामुद्धिमूले वा यो लोहमयः पट्टी दब्वभावभासा - तत्र द्रव्यं प्रतीत्योपयुक्तौर्या भाष्यते सा दीयते स द्रव्यार्त्तः । आचा० ३५ । द्रव्यभावभाषा । भावभाषाभेदः । दश० २०८ । Goa भावसं कोण पयत्थो - द्रव्यसङ्कोचनं करशिरः पादादिसङ्कोचः, भावसङ्कोचनं विशुद्धस्य मनसो नियोगः, द्रव्यभावसङ्कोचनप्रधानः पदार्थः द्रव्यभावसङ्कोचनपदार्थ: 1 दव्वट्टया - द्रव्यमेवार्थस्तस्य भावः द्रव्यत्वं वा द्रव्यार्थता । अनु०६७ | द्रव्यं च तदर्थश्चेति द्रव्यार्थस्तस्य भावो द्रव्यार्थता- प्रदेश गुणपर्यायाधारता अवयविद्रव्यतेति यावत् । ठाणा ० १० । द्रव्यार्थं ता- द्रव्यास्तिकनयमतम् । जीवा ०१८३ । द्रव्यमेवार्थ: तात्त्विकः पदार्थः प्रतिज्ञायां यस्य न तु पर्यायाः स द्रव्यार्थ:- द्रव्यमात्रास्तित्त्वप्रतिपादको नयविशेषः तद्भावो द्रव्यार्थता, द्रव्यमात्रास्तित्त्वप्रतिपादकनयाभिप्राय इति यावत् । जं० प्र० २६ । दव्वद्वाणाउय-द्रव्यं - पुद्गलद्रव्यं तस्य स्थानं भेदः परमा द्विप्रदेशिकादि तस्यायु:- स्थितिः, अथवा द्रव्यस्याणुत्वा दिभावेन यत्स्थानं तद्रूपमायुः द्रव्यस्थानायुः । भग० २३६ । आव० ३७६ । दव्वभिक्खु - क्रियाविशिष्टविदारणादिदारुसमन्वितो, द्रव्यं भिनत्तीति कृत्वा । द्रव्यभिक्षुः - अपारमार्थिकः । दश० २६० । दव्वभूतो - अणुवओोत्तो, भावशून्येत्यर्थः । नि० चू० प्र० ६४ अ । दव्वमंद - द्रव्यमन्दः - अतिस्थूलोऽतिकृशो वा । आचा०७० | दव्वमूढो बाहिरितो घूमेणाकुलितो मुज्झति, अंतो धत्तूरगेण मदणकोवोदणेण वा भुतंण मुज्झति । जो वा ( ५२६ ) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ दव्यरूवं ] पूव्वदिट्टं दव्वं कालंतरेण दिट्ठम्मि ण याणति सो दव्वमूढो । नि० चू० द्वि० ४१ आ । दव्वरुवं यत् मनः पर्याप्तिनामकर्मोदयतो मनः प्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमनं तत् द्रव्यरूपं मनः । प्रज्ञा० ३११ । दव्वले सं- द्रव्य लेश्यावर्णः । भग० ५७४ । दव्ववग्गण - समानजातीय द्रव्याणां राशिद्रव्यवर्गणा । भग० २४ । दव्व विसेसो- द्रव्यविशेषः - द्रव्यपरिणामः । भग० २३७ । दव्व विहंगम- धारयत्येवं तद्द्रव्यं यस्तं द्रव्यविहङ्गमं इति द्रव्यं च तद् विहङ्गमश्चेति द्रव्यविहङ्गमः । दश० ६६ । आचा० ३४२ । दव्वसंकोयणं - द्रव्यसङ्कोचनं करशिरः पादादिसंकोचः । दव्वीकरा - दर्वीकराः - फणभृतः । प्रश्न० ३७ | दर्जीव दवजं० प्र० १० । आव० ३७६ । फणा तत् कारणशीला दर्वीकराः, अहिभेदविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । [ दस दव्यायार-आचरण आचारः, द्रव्यस्याचारो द्रव्याचारः, द्रव्यस्य यदाचरणं तेन तेन प्रकारेण परिणमनमित्यर्थः । दश० १०१ । दव्वासण्णं - द्रव्यासनं - जं धवलघरआरामाईणं आसणे वोसिरइ | ओघ० १२३ । for दिया- द्रव्येन्द्रियाणि निर्वृत्युपकरणलक्षणानि । दव्वसम्म यथा अवयवलक्षणनिष्पत्तेः कर्तुः तन्निमित्तचि स्वास्थ्योत्पत्तेः यदर्थं वा कृतं तस्य शोभनानुकरणतया समाधानहेतुत्वाद्वा द्रव्यसम्यग् । आचा० १७५ । बव्वसाम-द्रव्यसाम । उत्त० ५३३ । दव्वुवहाण - उप- सामीप्येन धीयते - व्यवस्थाप्यत इत्युपधानं द्रव्यभूतमुपधानं द्रव्योपधानम् । आचा० २६७ । दधोवरम - द्रव्योपरमः - द्रव्यान्यथात्वम् । भग० २३६ । दव्वसारो - द्रव्यसारः - द्रव्यलक्षणसारः, परिग्रहस्य दशमं दव्वोवाय-द्रव्योपायः, उपायभेदः । दश० ४० । Goat सह- द्रव्यौषधं पिप्पल्यादि । दश० १९३ । दशकन्धरः- रावणः । प्रश्न० ८७ । दशदशकिकायाः - शतम् । व्य० द्वि० ३४७ आ । दशधासामाचारी - इच्छामिच्छेत्यादिका । ओघ० १ । दशरथः - अयोध्याधिपतिः, रामपिता । प्रश्न० ८७ । नाम । प्रश्न० ६२ . । दवसीले - तच्छील:- यो हि फलनिरपेक्षस्तत्स्वभावादेव क्रियासु प्रवर्त्तते सः तच्छील:- द्रव्यशीलः, प्रावरणाभरणभोजनादिषु । सूत्र० १५३ । बव्वसुद्धं - द्रव्यशुद्धं दव्यतः शुद्धेन प्राशुकादिनेति । विपा० १२ । द्रव्यं-ओदनादिकं शुद्धं उद्गमादिदोषरहितं यत्र | दशविध-चक्रवालसमाचारो, सामाचारीविशेषः । व्य०प्र० दाने तत् । भग० ६६१ । १९३ । वाभिग्गहचरए - भिक्षाचर्यायास्तद्वनश्वाभेदविवक्षणाद् द्रव्याभिग्रहचरको भिक्षचर्या । भग० ९२१ । व्वायं के द्रव्यातङ्कः - आतङ्कभेदः । आचा० ७५ । भग० ८७ । दव्विसोत्थिक । भग० ८०२ । दoat - दर्वी-फणा | जीवा० ३६ । प्रज्ञा० ४७ । दर्वीलघीयान् - दारुहस्तक: । पिण्ड० ८४ । दव- डोवसदृशा । दश० १७० । हस्तिविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । दव । वहलिया - कुहणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । २४७ । वापाय - अपायस्य प्रथमः प्रकारः । द्रव्यादपायो द्रव्यापायः, अपाय :- अनिष्टप्राप्तिः द्रव्यमेव वा अपायो द्रव्य'पायः अपायहेतुत्वादित्यर्थः । दश० ३५ । दव्वाभिओगो-द्रव्याभियोगः- द्रव्यसंयोगजश्चूर्णः । ओघ० | दशार्णभद्रः - दशार्णपुरे राजा दशार्णकूट वत्तिनि १६ आ । दशा - दशाध्ययन प्रतिबद्धा ग्रन्थपद्धतयः । प्रश्न० १ । दशारादयः - कुरूपागत श्रीप्रार्थनाप्रणयभङ्गकारिणः । दश० | आचा० ४१८ । ठाणा० ५१० । दसंग - दशानामङ्गानां समाहारो दशाङ्गी । उत्त० १८७ । दशाङ्गानि - भोगोपकरणानि वक्ष्यमाणान्यस्येति दशाङ्गः । उत्त० १५७ । दस- दशा - भागः । उत्त० १४४ । ( ५२७ ) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसउरं] . आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [बसारा - वसउरं-दशपुरं, प्रद्योतनमोचने नगरम् । उत्त० ६६ । | दसमुदिताणंतक-दशमुद्रिकानन्तकं - हस्ताङ्गुलिसम्बन्धि दशपुरं सप्तमनिह्नवोत्पत्तिस्थानम् । विशे० ९३४।। | मुद्रिकादशकम् । जीवा० २५३ । दसउरनगर-दशपुरनगरं-आर्यरक्षितदीक्षानगरम् । विशे० दसमुद्दियार्णतयं-दशमुद्रिकानन्तकं - हस्ताङ्गुलिमुद्रिकाद१००२ । शकम् । भग० ४७७ । दसकालिअं-दशवकालिकम् । आव० ६१ । दसरह-निरयावल्यां पञ्चमवर्गे सप्तममध्ययनम् । निरय. दसगुण-दशगुणः-एकगुणकालापेक्षया दशाभ्यस्तः । ठाणा० ३९ । भरतक्षेत्रेऽतीतायामवसपिण्यां नवमः कुलकरः । ५२७ । सम० १५० । दशरथ:-नारायणवासुदेवपिता। सम. दसण्णकड-दशार्णकूट-गजाग्रपदोत्पत्ती यत्र महावीरस्स १५२ । आव० १६३ । भरतक्षेत्रेऽतीतायामुत्सपिण्या समवसरणं जातम् । आव० ६६६ । दशार्णकूट:-पर्वत- नवमः कुलकरः । ठाणा० ५१८ । विशेषः । आव० ३५६ । दसहा-दशधा, समाचारीभेदाः । विशे० ८४१ । दशदसण्णपुरं-दशाणपुरं दशार्णभद्रराजधानी । आव०३५६ । । विद्या-इच्छाकारादिलक्षणा सामाचारी । आव० २५८ । दशार्णपुरं यत् परावर्त्य एडकाक्षनाम नगरं जातम् । दसहासामायारो-इच्छाकारमिथ्यादुष्कृतादिदशविवसाधुआव० ६६६ । समाचाररूपा दशधा सामाचारी । विशे० ८४२ । दसण्णभद्दो-दशार्णभद्रः दशाणपुरनगरे राजा । आव० दसा-दशा । आव० ६१ । अनुभागेन युक्तो विभागो ३५६ । दशार्णभद्रः-गजाग्रपदोत्पत्तिविषये दशार्णपुरनग- दशा । नि० चू० द्वि० २८ आ। दशा-वत्तिः । जं. राधिपतिः । आव०६६६ । प्र. १०२ । दशा-अवस्थाश्चरितगतिसिद्धिगमनलक्षणा। दसण्ण-दशार्णः, देशविशेषः । उत्त० ४४८ । नंदी० २०८ । दसण्णा-दशाः जनपदविशेषः। प्रज्ञा० ५५ । दसाउ-वर्षदशकप्रमाणः कालकृता अवस्थाः । ठाणा. दसतोण-औषषिविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । ५१६ । दशाधिकाराभिधायकत्दाहशा इति । ठाणा. वसदसमिया-दशदशमिका-भिक्षुप्रतिमाविशेषः । अन्त० २६ । दश दशमानि दिनानि यस्यां सा दशदशमिका । | | दसार-दशार्हाः-समुद्रविजयादयो दशवसुदेवान्ताः। सम• सम० १००। १३२ । दशाराः-वासुदेवाः । सम० १५६ । दशार:बसद्धवण्णं-दशार्द्धवर्ण-पञ्चवर्णम् । जं.प्र. ६८ । दशा. त्रिपृष्ठवंश: । आव० १६७ । दशार्हा:-बलदेववासुदेवाः। र्द्धवर्ण-कुसुमविशेषः । आव० २३१ । वासुदेवाः । जं० प्र० १६६ । वासुदेवः । ज्ञाता. सधण-निरयावल्यां पञ्चमवर्गे एकादशममध्ययनम् । २२० । निरय० ३६ । ठाणा० ५१८ । ऐरक्तक्षेत्र आगामिन्या | दसारकुलनंदणो-दशारकुलनन्दनः । ओघ० १७६ । मुत्सपिण्यां षष्ठः कुलकरः । सम० १५३ । दसारचक्क-दशाह चक्र-यदुसमूहः । उत्त० ४६० । दसपलयं-दशपलमानम् । आव० १६४ । दसारवग्ग-दशारवर्ग:-दशारस मुदायः हरिवंशराजानः । दसपुर-दशपुरम् । व्य० द्वि० ३१६ आ । णगरविसेसो। दश० ३६ । नि० चू० द्वि० १०६ अ । दशपुरं-आर्यरक्षितविहार- दसारसोह-दशारसिंहः-अरिष्टनेमिपितृव्यपुत्रः । प्रधानदस्थानम् । उत्त० १७३ । दशपुरं-पुरविशेषः । आव० शनवतोऽपि चारित्रेण विनाऽवरगतिप्राप्तिः । आव. २६२ । सोमदेवब्राह्मणवासतव्यं नगरम् । आव० ५३२ । दशाहसिंहः-कृष्णः। उत० ६६ । २९६ । दशपुरं-अबद्धिकनिह्नवोत्पत्तिस्थानम् । आव० दसारा-दसारा:-समयभाषया वासुदेवाः । ठाणा० ७६ । ३१२ । दशारा:-हरिवंशकुलोद्भवाः । सूत्र० २६६ । दशार्हाःदसपुरोहसे । नि०पू० प्र० ३४६ आ। समुद्रविजयादिकाः । अन्त० २ । ज्ञाता० १००,२२० । ( ५२८ ) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसुगावयाणि ] दशाह: - उत्त० ४९२ । द हिघणे - दघिघन: - दधिपिण्डः । प्रज्ञा० ३६१ । द सुगाययणाणि - दस्यूनां - चौराणामायतनाति - स्थानानि । दहिफोल्लइ वल्लीविशेषः । प्रेज्ञा० ३२ । आचा० ३७७ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ दस्युः - अदत्तहारः । आचा० १२३ । दहिमुहे - दधिमुखाः- प्रत्येकमज्ञ्जनकानां दिक्चतुष्टयव्यवस्थितपुष्करिणी मध्यवर्त्तिनः षोडशेति । ठाणा० ४८० | दधिमुख:- वरुणस्य पुत्रस्थानीयो देवः । भग० १६६ । दधिमुखा: - दधिवदुज्वलवर्णं मुखं शिखरं रजतमयत्वाद् येषां ते । जं० प्र० १६३ । पर्वतविशेषः । ज्ञाता० १५५ । दधिमुखाः-अञ्जन कचतुष्टयपार्श्ववत्तिपुष्करिणीषोडशमध्यभागवर्तिनः पर्वताः । प्रश्न० ६६ । दहियं दधि । आव० १९८ । दह - हृदः - नद्यादीनां निम्नतरः प्रदेशः । उपा० १० । हृदः - पद्महदादि । प्रज्ञा० ७२ । ह्रदा । प्रज्ञा० २६७ । भग० ६२, २३७ । सूत्र० ३०७ । ज्ञाता० ३६ । दहण - शरीराद्यवयवस्य वाताद्यपनयनार्थं दहनम् । आचा० दहगालणं - हदगलनं - ह्रदस्य मध्ये मत्स्यादिग्रह्णार्थ भ्रमणं, दहिवण्णे- धर्मनाथ जिनस्य चैत्यवृक्षः । सम० १५२ । जलनिःसारणं वा । विपा० ८० । दहिवन - दीपकुमारस्य चैत्यवृक्षः । ठाणा० ४८७ । भंग० ८०३ । दधिपर्ण वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । दहिवासुया-दधिवासुका - वनस्पतिविशेषः । राज० ८० । दहिवाहणो-दधिवाहन: - चम्पानगर्यां नृपतिः । उत्त० ३०० | दधिवाहनः - द्रव्यव्युत्सर्गे चम्पानरेशः करकण्डुपिता च । आव ० ७१६ । दाइंति दर्शयन्ति । बृ० प्र० १०४ आ । दाईतुच्चाराई - उच्चारप्रभवणस्थानानि । ओघ० ७७ । दाइ - विकल्पार्थो निपातः । बृ० द्वि० २४१ आ । अभिप्रायदर्शनम् । नि० चू० प्र० १३८ अ । दाइआ दर्शिता । आव० १५१ । दायिका - गोत्रिका: । जं० प्र० १४२ । द सुय - दस्युः - देश प्रत्यन्तवासी चौरः । उत्त० ३६६ । दसेज्ज - दशेत् । आव० ४०५ । ५० । दहनं - केवलिसमुद्घातध्यानाग्निना वेदनीयस्य भस्मसात्ककरणं, शेषस्य च दग्धरज्जुतुल्यत्वापादनम् । आचा० २६८ । दहपती - हृदपतिः - नदप्रधानो महाहृदः । प्रश्न० १६ । दहपवहणं-ह्रदपवहषं-हृदजलस्य प्रकृष्टं वहनम् । विपा० ८० । दहमलणं हृदमलनं हृदस्य मध्ये पौनःपुन्येन परिभ्रमणं, जले वा निःसारिते पमर्दनं वोहरादिप्रक्षेपेण हृदजलस्य विक्रियाकरणम् । विपा० ८० । दहमह - ह्रदमहः - ह्रदसत्क उत्सवः । जीवा० २८१ । दाइओ - दर्शितः । आव० ३६८ । दाइगो - दायादः | आव० ४८७ । दहमहणं - हृदमथनं - हृदजलस्य तरुश | खादिभिर्विलोडनम् । दाइतो- दर्शितः । उत्त० ३०३ । आचा० ३२८ । विपा० ८० । कहवतीओ । ठाणा० ८० । दयः । ज्ञाता० ५१ । दहवहणं - हृदवहनं स्वत एव हृदाजलनिर्गमः । विपा० वाइयविप्परद्धो- दायादघाटितः । आव० ५५७ । दाउं- स्वहस्तेन दातुम् । व्य० प्र० २२७ आ । ८०। दहाति - द्रहाः - हृदः । ठाणा० ८६ । दहावई - दहावती, कुण्डनाम । जं० प्र० ३४६ | दहावतो - दहा - अगाधजलाशयाः सन्त्यस्यामिति द्रहावती महानदीनाम । जं० प्र० ३४६ । दहिकूरं - दधिकरम् । आब ० ४३४ । ( अल्प० ६७ ) [ दाह दाइय- दर्शितम् । आव ० ६४, ७०० । दायदा:-पुत्रा दाए - दानम् । ज्ञाता० ३६ । दाएइ - दर्शयति । आव ० १६७ । दाएजसु दर्शयेः । उत्त० २१६ । दाएति दर्शयति । आव० ३४८ । दाएह दर्शवत । उत्त० १०० । ( ५२६ ) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाकलसं ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [दायग दाकलसं-कलशस्तु लघुतरः । भग० ६८४ । दाणामा-दानमयी । भग० १७४ । दाकुंभग-इह कुम्भो महान् । भग० ६८४ ।। दाणि-इटानी-सम्प्रति । भग० १७६ । इदानीम् । मर० । दाक्षपानक-पानक भेदः । आचा० ३४६ । इदानीम् । उत्त० ३८७ । दाडिम-फलविशेषः । प्रज्ञा० ३६५ । भग० ८०३। दाणिस-देशीयभाषयेदानीम् । उत्त० ३८७ । दाढा-दंष्ट्रा-आसी: । आव०५६६ । दंष्टा:-आस्यः। आव० दाण्डपाशिक: । नंदी० १६३ । ५६६ । सक्थि । जं० प्र० १६२ । दातारी । नि० चू० द्वि० १७० अ । दाढि-दंष्ट्रा-दशनविशेषः । प्रश्न० ८ । दाथालगं-उदकार्द्र-स्थालकम् । भग० ६८० । दाढिलि-दाढिकालि-सदशवस्त्रपरिधानरूपा दृश्यमाना दाथालय-उदकादं स्थालकम् । भग० ६८४ । धौतपोतं वा । बृ० द्वि० २२० अ। दानं-शुद्धिः । भग० ७६६ । शिष्येभ्यो निसर्गः । आव० दाढिगालो-दंष्ट्रागाली, दुष्प्रतिलेखितदूष्यपञ्चके पञ्चमो ६८ । अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गः । तत्त्वा० ७-३३ । भेदः । आव० ६५२ । ठाणा० २३४ । दानव-भवनपतिदेवविशेषः । ठाणा० ३५६ । दाढियाए-उत्तरोष्ठस्य । भग०६८४ । दानश्राद्ध-श्रावकविशेषः । उत्त० ६६७ । आव० ८४६।। दाढीयालो-धोयपुत्ती । नि० चू० द्वि० ६१ अ। दाम-पुष्पदामं रत्नविचित्रम्, चतुर्दशस्वप्ने पञ्चमः स्वप्नः। दानुड्डिअ-उद्धृतदंष्ट्र-उत्खातदंष्ट्रम् । दश०. २७६ । । __ आव० १७८ । ज्ञाता० २० । दाणं तराइए-यदुदयवशात् सति विभवे समागते च गुण- दामओ-रज्जुः । आव० १८८। । वति पात्रे दतमस्मै महाफलमिति जानन्नपि दातुः । दाम-दाम-रज्जुमयपादसंयमनम् । प्रश्न० ५६ । नोत्सहते तद्दानान्तरायम् । प्रज्ञा० ४७५।। दामगंठो-दामग्रन्थिः-रज्जुग्रन्थिः । आव० ८२० । दाणं-दान-अशनादिप्रदानम् । आव०६०४ । दान-लब्ध. दामड्डो-कुञ्जरानीकाधिपतिविशेषः । ठाणा० २०३ । स्यान्नादेपर्लानादिभ्यो वितरणम् । प्रश्न. १२६ । दानं- दामणि-दामनी-पशुनन्धनम् । सूर्य० १३० । स्वपरानुग्रहार्थमथिने दीयत इति दानम्। सूत्र० १५० दामणिसंठिते-दामनिसंस्थितम् । सूर्य० १३० । दान-दानं श्राद्धकः । ओघ० ४७ । दामणी-दामनि:-पशरज्जूसंस्थानम् । जं० प्र० ५०१ । दाणकम्मे-दानकर्म-अङ्कनाथ गिरिकरक्तसूत्रण रेखादा प्रश्न० ८४। नम् । जं० प्र० २०६ । दामण्णगो-दामनक:-परलोक फलविषये मणिकारश्रेष्ठिपुत्रदाणट्टा-दानार्थ-साधुवादनिमित्तं यो ददाति । दश० स्य उदाहरणम् । आव० ८३३ । १७३ । दामनो-द्वात्रिंशतलक्षणेषु लक्षणम् । जीवा० २७६ । दाणमाणसंगहिया-दानमानसंगृहीता | आव०६७७। दामा-दामा-पाशकविशेषः । विपा० ५६ । दाणमाणसंगहीता-दानमानसंग्रहीता । आव० ३४६। दामिओ-दामितः । आव० ३६६ । दाणरई-दानरुची । आव० ११० । दामिणि-दामिनी । प्रश्न. ७० । गवादीनां बन्धविशेष-. बाणव-दानवा:-भुवनपतयः । उत्त० ४३० । भूता रज्जुः । भग० ७१२ । • बाणवयं-दानवतं-वितरणनियमः । प्रभ०३२। दाय-दायः-सामान्यदानम् । औप०६। दानम् । विपा० वाणविप्पणासो-दानविप्रणाशः-दत्तापलापः । प्रभ. ७७ । पर्वदिवसादी दानम् । ज्ञाता० ८३ । दायं-धन विभागम् । जं० प्र० १४२ । दाणसट्ट-दाणरूयी । नि० चू० प्र० १९६ आ, २८२ | दायग-दायक-दायकदोषदुष्टं, षष्ठ एषणादोषः । पिण्ड. भ। १४७ । दाता-बालवृद्धाबयोग्यः । एषणादोषायाः षष्ठो वाणा-दाणसढा । नि० चू० प्र० ८९ मा। भेदः । आचा० ३४५ । (५३०) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दायगसुद्ध ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [दालियंबं दायगसुद्ध-दायकशुद्धं-यत्र दाता औदार्यादिगुणान्वितः । दारुए-दारुकः । उत्त० ३७६ । दारुक:-अन्तकृद्दशानां विपा०६२। यत्राशंसादिदोषरहितत्वात् दायक: शुद्धः ।। नृतीयवर्गस्य द्वादशममध्ययनम् । अन्त० ३ । भग० ६६ । | दारुकम्मगारो-दारुकर्मकर:-वर्धक्यादिः । दश० २६० । दायणा-निर्वचनरूपा दापना । विशे० ११५३ । दापना | दारुग-दारुक-काष्ठम् । उत्त० ४१३ । दारुकः । उत्त० दर्शना दापना वा, प्ररूपणाविशेषः । आव० ३८२। । ११८ । दायणे-दर्शयति । ओघ० ५३ । दारुगदंडे-दारुदण्डकम् । बृ० प्र० १७३ आ। दारं-अपत्यादिसमुदाओ। नि० चू० प्र० १४७ आ । दारुण-दारुणं-अनिष्टम् । दश० २३२। रौद्रः । ज्ञाता० द्वारम् । जीवा० २६६ । द्वारं-प्रासादादीनाम् । जीवा० ८०। असह्यम् । आचा० १९४ । दारुणसोलं-दारुणं २५८ । प्रश्न० ८ । द्वार-प्रतोलि: । आव० १३६ । कक्कसं वा । दश० चू० १२३ ।। ज्ञाता० ८१ । द्वार-उपायः । प्रश्न० ११२ । द्वारं- दारुणपरिणामो-दारुणपरिणामः-पापानां कर्मणां चौर्यादि प्रवेशमुखम् । प्रश्न० १३६, दश० १४ । द्वारं-व्याख्यान- कृतानाम शुभविपाक: । दश० ११३ । मुखम् । उत्त० ७३ । द्वारं-प्राकारद्वारिकाः । औप० दारुणा-दारयन्ति जनमनांसीति दारुणा:-विलपिताऽऽक३ । द्वारम् । ओघ० २३ । द्वारं-खडक्किका । भग० न्दितादयः । उत्त० ३०८ । दारयन्ति मन्दसत्वानां २३८ । द्वारं-ग्रामस्य मुखं, ग्रामप्रवेशः । बृ० द्वि० १, संयमविषयां धृतिमितिदारुणा: । उत्त० ११२ । अ। द्वारं-विजयादि । प्रज्ञा० ७१ । द्वार-प्रवेशमुखम् । दारुते-दारुक:-वासुदेवस्य पुत्रः, अरिष्ठनेमिनाथस्य शिष्यः । दश० ४ । द्वारं-शाखामयम् । दश० १८४ । ठाणा० ४५७ । दारए-दारयति-स्फोटयति । ज्ञाता० ८१ । दारुदंडयं-अग्रभागे उणिकादशायुतो दण्डः, दण्डस्यायभागे दारगरूवं-दारकरूपम् । आव. ३५३ । ऊणिकादशिका बध्यन्ते तत् दारुदण्डकम् । बृ० तृ० दारगसाला-लेखशाला । बृ० द्वि० १०७ अ । १०३ अ । दारगोउर-गोपुरद्वाराणि । सम० १३८ । दारुपवय-दारुनिर्मापित इव पर्वतकः दारुपर्वतकः । दारचेडाओ-द्वारपिण्ड्यौ-द्वारशाखे । जं० प्र० ४८ । जीवा० २०० । दारपाए-द्वारपात:-रन्ध्रकरणम् । पिण्ड० ९४ । दारुपन्वयगा-दारुनिर्मापिता इव पर्वतकः । जं० प्र० दारपिडी-द्वारपिण्डी-द्वारशाखा । जीवा० ३५६ । ४४ । दारवालो-द्वारपालः । आव० १७३ । दारुमडे-भरतक्षेत्रे आगामिनयां चतुर्विशतिकायां द्वाविदारसाहा-द्वारशाखा-द्वारपिण्डी । जीवा० ३५६ । शतितमतीर्थकरस्य पूर्वभवनाम । सम० १५४ । दारा-अणुओगा । नि० चू० तृ० ७६ आ । द्वाराणीव दारुय- । ज्ञाता० २१७ । द्वाराणि-प्रवेशमुखानि, एकस्थानकाध्ययनपुरस्यार्थाधिग- दारुसंकम-दारुसक्रमः । आचा० २०२ । मोपाया इत्यर्थः । ठाणा०४। द्वाराणि-उपायाः। ठाणा० दालः-सूपः । प्रश्न० १४१ । ३१६ । अर्थागमस्योपायः । सम० ११ । द्वाराणि । | दालाणि-अवट्टट्ठिगाणि । दश० चू० १११ । अनु० १७१ । दालित्ता-विदार्य । प्रज्ञा० ४८ । दलयित्वा-विदार्य । दाराई-प्रवेशमुखानि । बं० प्र. ५ । जीवा० ४० । दारिद्रयं-दरिद्रता । नंदी० १५५ । दालिम-दाडिम-फलविशेषः । प्रज्ञा० ३२८ । दाहिमदारिय-दारिका-डिक्करिका । आचा० ४१३ । दारिका। वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । आव० ३७१ । | दालिमपाणगं-पानकभेदः । आचा० ३४७ । दारुआ-दारुक-काठकम् । बं० प्र० ३६ । दालियंबं-दालिकाम्लं इडरिकादि । प्रश्न० १६३ । (५३१) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दालिय] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ दिक्खंति अ। दालिय-विदार्य । आचा० ३२६ । ज्ञाता० ८६ । गृहजातकाः । बृ० द्वि० ६० आ । दाली-राजः । ओघ० १२६ । दासि-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । दावए-दद्यात् दापयेद्वा । भग० ३७५ । दासी-चेटिका । प्रश्न० ३८ । घटयोषित् । सूत्र० १०६ । दावणं-दापयति । ओघ० ४३ । दास्य:-अङ्कपतिताः । उत्त० २६२।। दावदए-षष्ठाने एकादश ज्ञातम् । ज्ञातम् । उत्त० ६१४ । दासेइ-दास:-आमरणं क्रय क्रीतः, गृहदासी पुत्रो वा । जं. दावदविओ-द्रावद्रविकः-द्रुतद्रुतगामी । बृ० प्र० १२४ प्र० १२२। दाह-कषायाः । प्राव. ५६ । दाहः । भग० १९७ । दावद्दवे-षष्ठाङ्गे एकादशं ज्ञातम् । सम० ३६ । आव० दाहज्जरो-दाहज्वरः । आव० ६८ । ६५३ । ज्ञाता० १० । समुद्रतटे वृक्षविशेषः । ज्ञाता० दाहवक्कंती-दाहव्युत्क्रान्तिः-दाहोत्पत्तिः । ज्ञाता०२०० । १० । दाहा-प्रहरणविशेषः, दीर्घवंशाग्रन्यस्तदात्ररूपः । विषा० दावर-द्वापर:-समयपरिभाषया द्वितीयकलिः । बृ० प्र० १८० आ । द्वापर-द्विकम् । सूत्र० ६७ । दाहिण-दक्षिणादिग्भावी दक्षिणः । सूर्य• १६ । दावारगं-उदकवारकम् । भग० ६८० । दाहिणड्ड-दक्षिणाद्धं-दक्षिण भागः । जं० प्र०४८२ । दावरजुम्म-द्वाभ्यामादित एव कृतयुग्माद्वोपरिवत्तिभ्यां । | दाहिणभरहकूड़े-दक्षिणार्धभरतनाम्ना देवस्य निवासयदपरं युग्मं कृतयुग्मादन्यत्तनिपातनविधे द्वापरयुग्मम् । | भूतं कूट, दक्षिणाघभरत कूटम् । जं० प्र० ७७ । भग० ७४४ । द्विपर्यवसितो द्वापरयुग्मः । ठाणा० २३७ । दाहिणतुंगारो-दक्षिणतुङ्गार:-दक्षिणपूर्ववातभेदः । आव. द्वापरयुग्मे द्वाषष्टिः । सूर्य० १६७ । ३८७ । दावरजुम्मकडजुम्मे-द्वापरकृतयुग्मेऽष्टादयः। भग० ६६४। दाहिणदारिता- । ठाणा० ४१४ । दावरजुम्मकलियोगे-द्वापरकल्योजे नवादयः । भग० दाहिणपच्चस्थिमेल्लं-दक्षिणपश्चिमे । सूर्य० २१ । दाहिणपुरस्थि-दक्षिणपोरस्त्यः-दक्षिणपूर्वः, आग्नेयकोण दावरजुम्मतेओए-द्वापरयोजराशावेकादशादयः । भग० इत्यर्थः । सूर्य० २२ । दाहिणभुयंते-दक्षिणभुजान्तः-दक्षिणपावः । सूर्य० २८७ । दावरजुम्मदावरजुम्मे-द्वापरद्वापरे दशादयः । भग० | दाहिणमाहणकुडपुरसंनिवसाओ । आचा० ४२१ । १६४ । दाहिणवाए-यो दक्षिणदिशः समागच्छति वातः स दक्षिणदास-दास:-आजन्मावधिकिङ्करः । व्य० द्वि० ३३७ ।। वातः । प्रज्ञा० ३० । दक्षिणवात:-यो दक्षिणाया दिशः अहितः । व्य० द्वि० २७५ । दासः। उत्त० २२५ ।। समागच्छति वातः सः । जीवा० २९ । दास्यते-दीयतेऽस्मै इति दास:-पोष्यवर्गरूपः । उत्त० दाहिणवियावो-दक्षिगवी जायः । आव० ३८७ । १८८ । दासः-आमरणं क्रयकोतः । जीवा० २८० । दाहिणवेयालो-दक्षिणवतालो-दक्षिणसमुद्रतीरम् । प्रजा० दासा:-गृहजातादयः । उत्त० २६५ । चेटकः । प्रश्न । ३८ । दहिणतो-दक्षिणमुखः । आव० २१५ । दासचेड-दासचेटः । उत्त० १४८ । आव० ३४३ । । दाहिणा-दक्षिगा वाचाला सन्निवेशः । आव० १६५ । दासचेडए-दासस्य भृतकविशेषस्य चेट:-कुमारक: दास- | मथुरापुरीद्वयमव्ये एका । आव० ३५६ । चेटः । ज्ञाता० ८० । दिइय-दृतिः । आव० ६२१ । दासचेडी- ।नंदी १६० । दिक्करिगा-दुहिता । आव० ४०० । दासा-दासीपुत्रादयः । ठाणा० ११४ । गृहदासीपुत्रः । दिक्खंति-पश्यन्ति । नि० चू० प्र० २०५ अ । ( ५३२) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिक्खिओ ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ दिदिवाए दिक्खिओ त्ति वुत्तं भवति । नि० चू० प्र० ६७ आ। कृतिकर्मणि त्रयोविंशतितमो दोषः । आव० ५४४ । दिक्प्रोक्षक । ठाणा० ५१२। मते-दृष्टस्यैव भक्तादेर्लाभस्तेन चरतीति तव दिक्प्रोक्षिततापस- ठाणा० ४३१ । दृष्टलाभिकः । ठाणा०२८९ । दिगम्बर-मतविशेषः । प्रज्ञा०, ६० । भय-यो दृश्यमानस्थानादानीतं गुहाति सः दृष्टिदिगाई-दिशामादिः प्रभवो दिगादिः । सूर्य० ७८ । लाभिकः । प्रश्न० १०६ । दिगाचार्यः-आचार्यस्य द्वितीयो भेदः । ठाणा० २६६ । | दिटुसारा-सार:-विवक्षितः परमार्थः, उपयोगेन दृष्टः सारा दिगिच्छा-बुभुक्षा(देशो०) । उत्त० ८२ । यथा सः दृष्टसारः । नंदी० १६४ । दिगिछा-बुभुक्षा । भग० ३८६ । बृ० तृ. ७३ आ। दिट्ठसाहम्मवं-दृष्टेन पूर्वोपलब्धेनार्थेन सह साधम्यं दृष्टबृ० प्र० २०१ आ। आचा० ३१४ । क्षुधा। बृ० द्वि० साधम्यं तद्गमकत्वेन विद्येत यत्र तद् दृष्टसाधर्म्यवत् । १३१ आ । क्षुद्(देशी०) । विशे० १०३५। अनु० २१६ । दिगिछापरीसहे-दिगिछा-बुभुक्षा सैव मार्गाच्यवननिर्ज- दिट्ठा-दृष्टा-साक्षादर्भसाधकत्वेनोपलब्धा । दक्ष० १६६ । रार्थ परिषह्यते इति परिषहो दिगिञ्छापरीषहः । सम. दृष्टा-विहितत्वेनोपलब्धा । उत्त० ५३२ । ४० । दिट्टाभट्ठ-दृष्टाभाषितः । भग• १६७ । दिच्छसि-द्रक्ष्यसि । उत्त० ४६५ । दिदि-दर्शनवान् दर्शनी दर्शनमस्यातीति । आव० ५३० । दिजह-दद्यात् । दश० १०३ । दद्याः । दश० ५७।। दृष्टिः-स्वविषये लोचनप्रसारणलक्षणा । आव० ५३० । दिटुंत-दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः, अतीन्द्रियप्रमाणा विलोकितम् । ज्ञाता० १६८ । मतम् । ज्ञाता० ११० । दृष्टं संवेदननिष्ठा नयतीत्यर्थः । दश० ३४ । दृष्ट:- दिट्ठिपडिघाय-दृष्टिप्रतिघात:-दर्शनाभावः। भग० १७५ । अन्तः परिच्छेदो विवक्षितसाध्यसाधनयोः सम्बन्धस्या- | दिट्ठिपण्हव-दृष्टिप्रश्नवं ईषदश्रुविमोचनम् । पिण्ड ० १४० । विनाभावरूपस्य प्रमाणेन यत्र सः दृष्टान्तः । प्रज्ञा दिट्टिपरिचितो-जो एसणा विधि जाणति सो दिदी परि५३२ । दृष्टान्त:-उदाहरणम् । दश० ३३ । चितो भणति, अहवा सावगो गहियाणुवओ, अवती वा दिटुंतपरिणामगो-दृष्टान्तेन विवक्षितमथं परिणामयत्या- सम्मदिट्ठी दिट्ठी परिचितो भण्णति । नि० चू० द्वि० स्मबुद्धावारोपयतीति दृष्टान्तपरिणामकः । व्य० द्वि० ११५ आ। ४५० अ। दिटिप्पहाणे-दृष्टिप्रधान:-युगप्रधानः । व्य. हि० ३३७ दिदतिओ-दाान्तिकः-दृष्टान्तपरिच्छेद्यः। आव०८६२ । आ । दिटुंतियं-दान्तिक:-प्रथमोऽभिनयविधिः । जीवा० -दष्टि:-दर्शनं श्रद्धानं येषां ते दृष्टिका:, रुचित २४७ । दृष्टान्तिक-अभिनयविशेषः । जं० प्र० ४१२ । जिनवचनाः । ठाणा०.३० । दृष्टि जा-विंशतिक्रियामध्ये दिट्र-दृष्टः-प्रतिपादितः। वृ० द्वि० १५६ आ। दशितः । षष्ठी। आव० ६१२ । अश्वादिचित्रकर्मादिदर्शनार्थ गमनउत्त० ३५६ । दृष्टः-उपलब्धः । ओघ० ५४ । दृष्टं- रूपा । ठाणा० ३१७ । दृष्टेर्जाता दृष्टिजा दृष्टं-दर्शनं साक्षात् स्वयमुपलब्धः । औत्पात्तिक्यादिबुद्धिः । भग० वस्तु वा निमित्तया यस्यामस्ति सा दृष्टिका-दर्शनार्थं वा १०० । दृष्टः-वैद्यवद्दएक्रियः क्रियाकुशलः । ओघ० ४२। गतिक्रिया, दर्शनाद् वा यत्कर्मोदेति सा दृष्टिजा दृष्टिका उपलभ्यस्वरूपः । ज्ञाता० २०५। वा | ठाणा० ४२ । दिटुपाढी-दृष्टः-उपलब्धश्वरकसुश्रुतादि येन स दृष्टपाठी । दिट्टिवाइयं-दृष्टिवादिकं-पूर्वविशेषः । आव० ६१८ । भोघ० ४२ । आधीतवेज्जक इति । नि० चू० प्र.दिहिवाए-दृष्टयो-दर्शनानि -नयाः पतन्ति-अवतरन्ति २११ अ । यस्मिन्नसो दृष्टिपात:-द्वादशमङ्गम् । ठाणा० १६६ । दिद्वदिटुं-दृष्टादृष्ट, यत् तमसि व्यवहितो वा न वन्दते, दृष्टयो-दर्शनानि वदनं वादो दृष्टीना वादोष्टिवादः,दृष्टीनां (५३३) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्विवातअक्खेवणी] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [दित्तवयणं वा पातो यत्रासो दृष्टिपातः सर्वनयहष्टय एवेहाख्यायन्तः। जीवा० ३६ । सम० १२९ । श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवादिभावकथनं-अन्ये । वसलतिओ-दृष्टिविषलब्धिमान् । आव० ३८९ । त्वभिदधति । आचारादयो ग्रन्था एव परिगृहयन्ते सा-कृष्टौ विषं येषां ते दृष्टिविषाः। जीवा. आचाराद्यभिधानम् । दश० ११० । । ३६ । प्रज्ञा० ४६ । दिढिवातअक्खेवणी-दृण्टिवाद:-श्रोत्रपेक्षया नयानुसारेण दिट्ठीसूल-दृष्टिशूल:-नेत्रशूलम् । ज्ञाता० १८३ । सूक्ष्मजीवादिभावकथम्, आचारोदयो ग्रन्था एव परि- दिट्ठोसेवा-दृष्टिसेवा-भावसारं तदृष्टेइष्टिमेलनम्, संप्रागृह्यन्ते आचाराद्यभिधानादिति । ठाणा० २१०। प्तकामस्य द्वितीयो भेदः । दश० १९४ । दिट्टिवातेति-दृष्टयो-दर्शनानि वदनं-वादो दृष्टीनां वादो दिणयर-चतुर्दशस्वप्ने सप्तमम् । ज्ञाता० २० । दृष्टिवादः, दृष्टीनां वा पातो यस्मिन्नसो दृष्टिपातः । दिणारो-दीनार:-सुवर्णनिष्कविशेषः । आव० ६७१ । ठाणा० ४६१ । दिण्ण-दत्तः-तापसविशेषः। आव० २८७। पार्श्वजिनस्य दिट्रिवादीयं-दृष्टिवादिक-ग्रन्थविशेषः । आव० ६१७ । प्रथमः शिष्यः । सम० १५२ । दत्तं-वितीर्ण भूतिभक्तदिद्विविपरिआसिआदंडे-दृष्टे:-बुद्धेविपर्यासिका विपर्य- लक्षणं द्रव्यभोजनस्वरूपम् । ज्ञाता. १५३ । श्रेयांससिता वा दृष्टिविपर्यासिका दृष्टिविपर्यासिता वा मति- तीर्थंकरस्य पूर्वभवनाम । सम० १५१ । दत्त:-नमिजिनभ्रम इत्यर्थः तया दण्डो प्राणिवधो हष्टिविपर्यासिकादण्डो प्रथमभिक्षादाता । सम० १५१ । आव० १४७ । दृष्टिविपर्यासितादण्डो वा । सम० २५ । दिग्णविवारे-दत्तविचारं-यत्र कार्पटिकादिर्न कोऽपि वार्यते दिदिविसो-दृष्टिविषः । आव० १६५ । तत् । व्य. द्वि० ३०१ अ । दिट्रिसंपन्नया-दृष्टिसम्पन्नता-सम्यग्दृष्टिता। ठाणा०१२०. दिण्णेय-चन्द्रप्रभजनस्य प्रथमः शिष्यः । सम० १५२ । दित्तं-दीप्तम् । जीवा० ३८६ । दीप्त:-तेजस्वी हप्तो दिट्ठी-दृष्टि: चक्षुत्पिन्नदर्शनरूपा । अनु० १८२ । दृष्टिः वा दर्पवान् । भग० ४५६ । रक्तम् । ज्ञाता० ८०। दर्शनं, रुचिः तत्त्वानि प्रति । ठाणा० ३० । दृष्टि:- दृप्त:-उन्मत्तः। पिण्ड० १६३। दीप्तः, दृप्तः-मारकः । दर्शनं स्वतत्त्वमिति । राज. १३३ । दृष्टि:-सम्यग्दर्श- ओघ० १२० । दीप्त:-तेजस्वी । सूत्र०४०७ । दृप्ता:नात्मका हेतुभूताबुद्धिः । उत्त० ४४७ । दृष्टि:-सम्यग्दर्शन- मदोन्मत्ततया दध्मिाताः । जीवा० १८८। दीप्त:-दीप्यते रूपा । दश० १०२ । दृष्टि:-बुद्धिः । सम० २५ । स्म भास्करः । जीवा० ३४१ । दीप्त:-प्रसिद्धः हप्तो भग० ४७१ । उत्त० १५१ । दृष्टि:-अन्त:करण वा दर्पितो वा । अग० १३४ । प्रवृत्तिः । सूत्र. ३१८ । दृष्टि:-जिनप्रणीतवस्तुतत्त्व दित्तचित्ते-दृप्तचित्तः-पुत्रजन्मादिना दर्पवच्चितः उन्मत्त प्रतिपत्तिः । जीवा० १८ । प्रज्ञा० ३८७ । दृष्टिविपर्या एवेति । ठाणा० ३०५ । दृप्तचित्तो हर्षातिरेकात् । सक्रिया । क्रियायाः पञ्चमो भेद: । आव० ६४८ । ठाणा० ३१५ । दिट्रीएसंपाओ-दृष्टेः पुनः संपातः-स्त्रीणां कुचाद्यवलो- दित्तचित्ता-लाभादिमदेन परवशीभूत हृदया । हर्षातिरे. कनम् , संप्राप्तकामस्य प्रथमो भेदः । दश० १६४ । केणापहृतचित्ता सा दीप्तचित्ता । बृ० द्वि० २१०। दिट्टीवाय-दृष्टिवादः । आव० ३०१ । बृ० तृ० २३६ अ। दिदीविपरिआसि-दृष्टिविपर्यासदण्ड:-यो मित्रस्याप्य- दित्ततवो-दीप्तं जाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनमहनदहनमित्रोऽयमितिबुद्धया वधः सः । ठाणा० ३१६ । समर्थतया ज्वलितं तपो-धर्मध्यानादि यस्य सो दीप्तदिट्ठीविप्परियासो-स्त्रीदर्शनानुरामतस्तदावलोकनं दृष्टि- तपः । सूर्य० ४।। विपर्यासः । आव० ५७५ । दित्तरूवे-दीप्तं रूपमस्येति दीप्तरूपः । उत्त० ३५८ । । दिट्ठीविस-दृष्टिविष:-नेवचिषः, उर:परिसर्पविशेषः । दित्तवयणं-दीप्तवचनं-कुपितवचनम् । प्रभ० १६० । ( ५३४ ) ... Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दित्ता] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ दिसतु दित्ता-दीप्ता-रोषणा । आव० ७१९ । दीप्ता-उज्वला दिवप्तचरिम-दिवसचरमम् । आव० ८५३ । ज्वालाकराला वा । उत्त० ४५७ । दिवसतिही-तिथेयः पूर्वार्द्धभागः स दिवसतिथिः । सूर्य दित्ताई-दीप्तानि-प्रसिद्धानि हप्तानि वा-दर्पवन्ति ।। १४६ । ठाणा० ४२१ ।. दिवसदेवसिअं-दिवसदेवसिकम् । आव० ५२ । दित्ती-दीप्ति:-दीपनम् । ज्ञाता० १७० । दिवसदेवसिया-दिवसदेवसिकी। आव० ४१६ । दिन-अहोरात्रवाची । जं० प्र० १५० । दिवसभयगो- नि० चू० द्वि० ४४ अ। दिनारो-दीनार:-सुवर्णमुद्रा। आव० ४२२ । दिवसभयत-प्रतिदिवसं नियतमल्येन कर्मकरणार्थ यो दिन-दत्त:-न्यस्तः । ज्ञाता० ४० । उत्त० ३२१। गृह्यते स दिवसभृतकः । ठाणा० २०३ । दिप्पणिज्जे-दीपनीयं-अग्निवृद्धिकरं, दीपयति जठराग्नि- दिवा-दिवसः । भग० २४७ । मिति दीपनीयम् । जं० प्र० ११६ । | दिवागरे-दिवाकरः । सूर्यः । उत्त० ३५१ । दियग्गं-दिवाग्रं दिवपरिमाणम् । सूर्य० ११। दिविच्चिगा-द्वैप्या-द्वीपसम् धिनः । भग० २१२ । दियह-दिवस: । आव० २६२ । दिविट्ठ-द्विपृष्ठः-द्वितीयो वासुदेवः । आव० १५६ । दिया-द्विजः-पक्षी। आचा० २४८ । द्विजा:-संस्कारा- दिविय-द्वीपिनं-चित्रकम् । आचा० ३३८ । पेक्षया द्वितीयजन्मानः । उत्त० ५२३ । । दिव्व-द्यौः स्वर्गः तदासी देवोऽप्युपचाराद् द्यौस्तत्र भवो दियापोए-द्विजः-पक्षी तस्य पोत:-शिशः द्विजपोतः दिव्यो वैमानिकसम्बन्धी । ठाण०२७४ । दिव्य:आचा० २४८ । देवभवः । भग० ६७३ । दिवि भव: दिव्यः अतिप्रधानः दिरिकयपयारो-जं दिक्खियेण आयरियव्वंति । दश० इत्यर्थः । सूर्य० २६७ । दिव्य:-स्वर्गसम्बन्धी प्रधान चू० ३२ । इत्यर्थः । ठाणा० ४२१ । दिव्यम् । आव० १९८ । दिलि-ग्राहभेदः । सम० १३५ । दिवि भवं दिव्यम्, प्रधानं च । जीवा० १६२ । ज्ञाता. दिलवेढय-दिलिवेष्ट:-ग्राहभेदः । प्रश्न० ७ । ' १३१ । दिव्यं-व्य-त राघट्टहामादिविपयम् । आव० दिलो-ग्राहविशेषः । प्रज्ञा०.४४ । जीवा० ३६ । ६६० । देवीनामिदं देवं, अप्सरोऽमरसम्बन्धि । दश० दिवड-द्वे च अधिकमधं यस्मिन् तद् अध्यधं द्वयर्द्धम् ।। आव०३६ । दिव्वचूण्णं-दिव्यचूर्णम् । आव० २७७ । दिवड्डखेत्तं-सार्द्धक्षेत्रम् । आव० ६३४ । पुत्तलकद्वयं दिव्वतुडियं-दिव्य त्रुटितं-दिव्यतूर्यम् । जीवा० ६४५ । उत्तरात्रयं पनर्वसरोहिणीविशाखा इति षटपञ्चचत्वारि | दिव्वरयणपज्जत्तो-दिव्यरत्नपर्यास्त: । 'आव० ४१३ । शत्मुहूर्तानि नक्षत्राणि । पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तभोग्यम् । दिव्या-दिव्या स्वर्गसम्भवा प्रधाना वा । ठाणा० १४४ । बृ० तृ. १४८ अ । दिव्या-प्रधाना। भग० १६७ । देवगतिः । ज्ञाता० ३६॥ दिवड्डखेत्ता-द्वितीयमपाद्धं यत्र तत् द्वघपार्द्ध सार्द्धमित्यर्थः । दिवाइं-दिव्यानि । भग० ६६२ । अतिप्रधानाः । जं. क्षेत्र येषां तानि । ठाणा० ३६७ । - प्र. ६३ । दिवस-दिवस:-चतुष्प्रहरात्मकः यद्वा आकाशखण्डमादित्येन | दिव्वागा-मुकुलोअहिभेःविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । स्वभाभिप्तिं तत् दिवसः । आव २५७ । अहोरात्रं दिव्वाणुभाव-देवानुभावः-भाग्यमहिमाऽथवा दिव्येनसूर्यप्रकाशवतः कालविशेषः । जं० प्र० ४६१ । देवसम्बन्धिनाऽनुभाव:- अचिन्त्यर्वक्रिमादिकरणमहिमा । दिवसखेतं-दिवसक्षेत्रम् । सूर्य० १२ । जं० प्र० २०२। दिवसखेत्तस्स-दिवसलक्षणस्य क्षेत्रस्य दिवसस्यैवेत्यर्थः । दिशं-आचार्यलक्षणाम् । व्य० दि० २०४ आ । सम० ८६ । 1 दिसंतु-प्रयच्छन्तु । आव० ५१० । (५३५) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिस ] दिस - दिशेति व्यपदेशः प्रव्रजनकाले उपस्थानाकाले वा य आचार्य उपाध्यायो वा व्यपदिश्यते सा तस्य दिशा इत्यर्थः । नि० चू० प्र० २६० अ । भगवत्या दशमशतके प्रथम उद्देशकः । भग० ४६२ । दिसमूढो - विवरीत दिसा व्हति । नि० चू० द्वि० ४१ आ । आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः दिसा - दिसादाहरणं - दिग्दाहकरणम् । आव ० ७३५ । दिशतीति दिक्, अतिसृजति व्यपदिशति द्रव्यं द्रव्यभागं वा | आचा० १३ । दिसाकुमारा - दिक्कुमाराः - वैश्रमणस्थाज्ञोपपातवचननिर्देशवर्तिनो देवाः । भग० १६६ । भवनपतिभेदविशेषः । प्रज्ञा० ६६ । दिसाकुमारीओ - दिक्कुमार्यः - वैश्रमणस्याज्ञोपपातवचननिदेशवर्तिन्यो देव्यः । भग० १९६ । दिसाचक्कवाल - एकत्र पारण के पूर्वस्यां दिशि यानि फलादी न्याहृत्य भुङ्क्ते द्वितीये तु दक्षिणस्यामीत्येवं दिक्चक्रवालेन तत्र तपःकर्मणि पारणककरणं तत्तपः कर्म दिक्चक्रवालम् । निरय० २६ । एकत्रपारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि तान्याहृस्य भुङ्क्ते द्वितीये तु दक्षिणस्यामित्येवं दिक्चक्रवालेन यत्र तपःकर्मणि पारणककरणं तत्तपःकर्म्म दिक्चक्रबालम् । भग० ५२० । दिसाचरा-दिशं मेरां चरन्ति -यान्ति मन्यन्ते भगवतो वयं शिष्या इति दिक्चराः देशाटा वा । भग० ६५९ । दिसाजत्ता - दिग्यात्रा | आव० १५५ । दिव्यात्रा --यव [ दिसिदाचे दिसापेक्खिणो- उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुचिन्वन्ति । औप० ६० । दिसा पोक्खिणो- उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुपचिन्यन्ति । भग० ५१६ । उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुच्चिन्वन्ति । निरय० २५ । दिसापोक्खियतावसो- दिक्प्रोक्षिततापसः । आव० ३५६ । दिसाबंध- दिग्बन्धः - पदे स्थाप्यमानः । व्य ० प्र० २१२ आ । नि० चू० प्र० २६५ अ । दिसायत्तिए - दिग्यात्रा - देशान्तरगमनं प्रयोजनं येषां तानि दिग्याविकानि । उपा० ३ । दिसायरिओ-दिशाचार्य:- आचार्य विशेषः । दश० ३१ । दिसावाणिज्जं - दिशावाणिज्यम् । उत्त० २१० । दिसाविचारिणो-दिशासु विशेषेण मेरुप्रादक्षिण्यनित्यचारित लक्षणेन चरन्ति - परिभ्रमन्तीत्येवंशीला: दिशाविचारिणः । उत्त ० ७०२ । दिसासोत्थिअ- दिक्स्वस्तिक :- दक्षिणावसंस्वस्तिक: । ओप० १६ । दिसासोवत्थिअ-दिक्सौवस्तिको दिक्प्रोक्षक:- दिक् प्रधानः स्वस्तिको दक्षिणावर्तः स्वस्तिक इत्यन्ये । जं० प्र० ११२ | दिप्रधानः स्वस्तिको दिक्स्वस्तिको दक्षिणावर्त्तः प्रश्न० ८१ । दिक्सौवस्तिकः - दिक्प्रोक्ष को दक्षिणावर्त्तः स्वस्तिकः । जीवा० २७२ । दिसासोबत्थियं - आरणकल्पे देवविमानविशेषः । सम० ३८ । हार: । आव ०६८८, ७०५ | दिसासोत्थिया - दिक्प्रधानाः स्वस्तिकाः । जं० प्र० ४५ १ दिसाणुवाए - दिशामनुपातो-दिगनुपात: दिननुसरणं दिशो दिसासोवत्थियासणं- यस्याधोभागे दिक्सौवस्तिका आलिऽधिकृत्य वा । प्रज्ञा० ११४ । खिताः सन्ति तद् दिक्सौवस्तिकासनम् । जीवा० २०० । दिसासोवत्थियासणाइं येषामषोभागे दिक्सौवस्तिका - दिप्रधानाः स्वस्तिका: आलिखिताः सन्ति । जं० प्र० ४५ । दिसादाहा - दिग्दाहा:- अन्यतरस्यां दिशि छिन्नमूलज्वलनज्वालाकरालिताम्बरप्रतिभासरूपः । अनु० १२१ । जीवा० २८३ । दिशो दिशि वा दाहो दिग्वाहः । दिसादोअ - दिशामादिः प्रभवो दिगादिः तथाहि रुचकादिशां विदिशां च प्रभवो रुचकश्वाष्टप्रदेशात्मको मेरुमध्य वर्त्ती ततो मेरुरपि दिगादिरित्युच्यते, मेरोः पश्चदशमनाम | जं० प्र० ३७५ । दिसापालो - दिक्पालः । आव ० ४०० । दिसाहित्यिकूडा- दिक्षु ऐशान्यादिविदिक् प्रभृतिषु हस्त्याका/ राणि कूटानि दिगृहस्तिकूटानि । जं० प्र० ३६० । शीताशातोदयोरुभयकूल वर्त्तीनि पूर्वादिषु दिक्षु हस्त्याकाराणि कूटानि दिशाहस्तिकूटानि । ठाणा० ४३६ । दिसिदाघे - एकतर दिग्विभागे महानगर प्रदीपनकमिव य ( ५३६ ) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ बिसिवाह ] [ दीव उद्योत भूमावप्रतिष्ठितो गगनतलवर्ती स दिग्दाहः । ठाणा ० ४७६ । दीणववहारे - दीनव्यवहारः - दीनान्योऽन्यदान प्रतिदानादिक्रियः हीनविवादो वा । ठाणा० २०७ । दीणसीलाचारे - दीनशीलसमाचारः - हीनधर्मानुष्ठानः । विसिदाह - अन्यतमदिगन्तरविभागे उपरि प्रकाशोऽधस्ता- दीणसं कप्पे- दीनसङ्कल्पः - उन्नतचित्तस्वाभाव्येऽपि कथविदन्धकार ईदृक् छिन्नमूलो दिग्दाहः । आव० ७३५ । द्वीनविमर्शः । ठाणा० २०७ । दिग्दाहः - अन्यतमस्यां दिशि अघोऽन्धकाराः उपरि च प्रकाशात्मका दह्य मानमहानगरप्रकाशकल्पाः । भग० १६६ । दिशि पूर्वादिकायां च्छिन्नमूलो दाहः प्रज्वलन - दिग्दाहः । व्य० द्वि० २४१ आ । दिसि पडिवजावणं - दिक्प्रतिपादनं अचित्तसंयतपारिष्ठाप निकोविधि प्रतिदिक् प्रदर्शनम् । आव० ६३६ । दिसिविभागो - दिग्विभागः - अचित्तसंयतपारिष्ठापनिकों प्रति दोणारो-दीनार: । आव० ३४१ । नि० चू० प्र० ३३० दिप्रदर्शनं दिक्प्रतिपादनम् । आव० ६३६ । दिसिभाए - दिशां भाग: दिग्रूपो वा भागो गगन मण्ड. लस्य दिग्भागः । भग० ६ । दिसोदिसं दिसाश्च विदिसाच दिसोदिसं । नि० चू० प्र० २०४ आ । एकस्या दिशः सकाशादन्यां दिशं दिशोदिशम्। प्रश्न० १६ । दिशोदिशं सर्वास्वप्येकेन्द्रियादिषु भावदिक्षु । I आचा० ४३० । दिसोदिसि - दिशः सकाशादन्यस्यां दिशि अभिमतदिक त्यागाद्दिगन्तराभिमुखेनेत्यर्थः दिशोदिशः, अथवा दिगेवोपदिग् नाशनाभिप्रायेण यत्र प्रतिषेधने तद्दिगपदिक् । भग० ३१६ । दिस्स - दृष्ट्रा - अवलोक्य । उत्त० ४६० । दीइं - असूया । उप० मा० गा० २६२ । दीन-दोन :- द्रव्यदैन्यमङ्गीकृत्य म्लानवदनः । दश० १८६ । दीन- दीन: - शृगालत्वविहारी । आचा० २५३ । दोणा जाती- दीनं - दैन्यवन्तं पुरुषं दैन्यवद्वा यथा भवति तथा याचन इत्येवंशीलो दोनयाची दीनं वा, यातीति दीनयायी दीना वा - हीना जातिरस्येति दोनजातिः । ठाणा० २०६ | दीणपत्रे - दीनप्रज्ञः - हीनसूक्ष्मार्थालोचन: । ठाणा० २०७ । दीण मणे - दीनमनाः- स्वभावत एवानुनतचेत्ताः । ठाणा० २०७ । दीणरुवे - दीनरूपः - मलीनजीर्णवस्त्रादिनेपथ्यापेक्षया । ठाणा ० २०७ । ( अस्प० ६८ ) ठाणा० २०७ । दीणा - दीना- दैन्यवती । विपा० ४६ दीणार- दीनार - सुवर्णमुद्रा । दश० ३७ । दोणारमालिया - दीनारमालिका- भूषणविधिविशेषः 1 जीवा० २६६ । अ । वा दोणोभासी - दीनवदवभासते प्रतिभाति- अवभाषते इत्येवंशीलो दीनावभासी दीनावभाषी वा । याचत ठाणा० २०७ । | आचा० २४३ | दोनदिट्ठी - दीनदृष्टि :- विच्छायचक्षुः । ठाणा० २०७ । दीपका - रथवोरपुर उद्यानम् । विशे० १०२० । दीपिया - द्वीपिका :- चित्रकाः । ज्ञाता० ७० । दोप्त जिव्हा - दीप्तिमान्-पराधृष्यः । आचा० ३ । दीर्घ कालद्रव्य प्रसूतिप्ररूपी - बहुरतः । आव० ३११ । दीर्घकालिक -सञ्ज्ञायास्तृतीयो भेदः । सम० १८ । दीर्घ पृष्ट:। नंदी० १६७ । दीर्घबाहुः - नामविशेषः । सम० १५६ | दीर्घसेनः - नामविशेषः । सम० १५६ । दीर्घा स्थूला । जं० प्र० १७४ । दीव - द्वीपः । प्रज्ञा० ७१ । प्रदीपः - ज्योतिः । नि० चू० प्र० ४८ अ । द्वीपः दीपो वा । प्रश्न० १०३ । जीवा० २२१ । द्वाभ्यां मुखेन करेण च पिबतीति द्वीप:- हस्त्येव । जीवा० १२२ । द्वीपः - जलेनावृतं क्षेत्रम् | जं० प्र० २६३ । दीप्यत इति दीपः । उत्त० २१२ । द्वीपम् । जं० प्र० ५३८ । मोहनीयस्य स्थाने पश्चमम् । आव ० ६६१ । सुराष्ट्राद्दक्षिणसमुद्र स्थलम् । वृ० द्वि० २२७ अ । दीप:- प्रकाशकं वस्तु । ठागा० ५१७ । दीपशाखा:प्रदीपकार्यकारिणः । सम० १५ । द्विता आपोsस्मि ( ५३७ ) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीवकुमारा] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [दोहदंते निति द्वीपः । आचा० २४७ । द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां स्थान-दीविग-द्वीपिन:-चित्रकः । ज०प्र० १२४ । दातृत्वाहाराापष्टम्भहेतुत्वलक्षणाभ्यां प्राणिनः पान्तीति दोविच्चगा-द्वैप्या-द्वीपसम्भवाः । ज्ञाता० १७२ । द्वीपा:-जन्त्वाचासभूतक्षेत्रविशेषाः । अनु०१०। दीवित-द्वीपिक:-चित्रको मृगमारणाय । प्रश्न. १३ । दीवकुमारा-द्वीपकुमारा:-भवनपतिभेदविशेषः । प्रज्ञा० | दीवियंमि-दीपिते-कथिते । ओघ०६३ । ६६ । द्वीपकुमारा:-वैश्रमणस्याज्ञोपपातवचन निर्देशवत्तिनो | दीविय-द्वीप:-चित्रक: श्वापद विशेष: । जोवा० १०७ । देवाः । भग० १६६ । द्वीपीचित्रकः । जं० प्र० ३१ । शाकुनिकपुरुषसम्बन्धीदीवकुमारीओ-वैश्रमणस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवत्तिन्यो पञ्जरस्थतित्तिरो द्वीपिका उच्यते । ज्ञाता० २३३ । देव्यः । भग० १६६ । द्वोपिक:-चित्रकः । जीवा० २८२ । द्वीपिकेन चित्रण दीवगं-दीपक-रथवीरपुर उद्यानम्। उत्त० १७८। दीपकं- चरतीति द्वीपिकः । प्रश्न०१५। द्वीपिक:-चित्रकाभिधानो रथवीरपुरे उद्यानविशेषः । आव० ३२३ । अधिकार्थो- नाखरविशेषः । प्रश्न०७ । पोपीलियः-पिपोलिकः पीपो. द्दोपकम् । व्य० २५१ । - तिकारिकः पक्षिविशेषः । प्रश्न ८ । चतुष्पदविशेषः । दीवगचंपए-दीपकचम्पक:-दीपाच्छादनं कोशिकः । भग० भग० १६१। ३१३ । दीपस्थगनकम् । भग० ३७७ । दीवियमडे-द्वीपिमृतः-मृतचित्रकदेहः । जीवा० १०६ । दीवचंपए-दीपचम्पक:-दीपस्थगनकम् । राज० १४१ । दीविया-सनखपदश्चतुष्पदविशेषः। प्रज्ञा० ४५। जीवा दीवणं-आगमनकार्याविर्भावनम् । ओघ०४०। ३८ । नि० चू० प्र०८८ अ । दीवणिज्ज-दीपनीयं-अग्निवृद्धिकरं, दीपयति हि जाठ दीवियाचक्कवालवंदं-द्वस्वो दीपो दीपिका तासां चक्रराग्निमिति वा । जीव० २७८ । दोपनीयं-अग्निबल- वालं-सर्व परिमण्डलरूपं वृन्दं दीपिकाचक्रवालवृन्दम् । जनकम् । ठाणा० ३७५ । जीवा० २६६ । दोवत्तं-द्विधागतालवणोदस्य आपोऽस्मादिति अन्वर्थवशाद् दोवेइ-दीपयति । आव. २६० । दीपत्वम् । जं० प्र०६ । दोवेत्ता-दीपयित्वा-निवेद्य । ओघ० १५६ । दीवप्पण?-प्रकर्षण नष्टो दृष्टयगोचरतां गतः प्रणष्टो वेह-दीपयत-कथयत प्रकाशयत । व्य० प्र० १३४ बा। दीपोऽस्येति प्रनष्टदीपः । उत्त० २१२ । दोहंवेगे-दीर्घहृस्वयोः । ठाणा० ४३ । दीवर । भग० ८०२। दोह-दी? दीर्घवर्णाश्रितो दूरश्रव्यो वा मेघादिशब्दवत् । दीवसिहा-दीपशिखा इव दीपशिखाः । जं० प्र० १०२। ठाणा० ४७१ । दीर्घः-दीर्घपृष्ठः । उत्त० ३७७ । दीर्घदीपशिखा:-द्रुमगणविशेषः । जीवा० २६६ । जं० प्र० अनादी केषाञ्चिदपर्यवसिते चेति । उत्त० २३३ । दूरम् । १०२ । दीपशिखा:-ब्रह्मदत्तराशी सागरदत्तसुता । उत्त० व्य. द्वि० ३१२ अ। दीर्घ-प्रल्पपृथुलं बहुच्छ्रयम् । बृ० ३७६ । द्वि० २४६ अ । उलंबगं । नि० चू० तृ० ५४ आ। दीवा-द्वीपाः । अनु० १७१ । | दोहकालिगो-दीर्घकालिकी इव दीर्घशब्दस्य लुप्तदर्शनाद् दीवाति-दीपाः । ठाणा. ८६ । "कालिको" इत्युच्यते । विशे० २७७ । दीवायण-द्वैपायनः-महषिर्यः शीतोदकबीजहरितादिपरि- दोहगइपरिणाम-दीर्घगतिपरिणामः । विप्रकृष्टदेशान्तरभोगासिनः । सूत्र. १५ । बागामिन्यामुत्सपिण्यां प्राप्तिपरिणामः । प्रज्ञा० २८६ । चतुर्विशतिकायो विशतितमतीर्थकरस्य पूर्वभवनाम । सम. दोहजाइओ-दीर्घजातीयः । दश० ५० । १५४। द्वैपायन:-परिव्राजकविशेषः । ओप०६१। दोहडक्को-सर्पदृष्टः । आव० ७८३ । दीवि-दीपि-चित्रकः । प्रभ० १६२ । दोहदंते-भरतक्षेत्रे आगामिन्यामुत्सपिण्यां द्वितीयश्चक्रवर्ती। दीविए-चित्रकविशेषः । प्रशा० २५३ । सम० १५४ । दीर्घदन्त:-अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथम(५३८) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपिट्ठ वर्गस्य षष्ठममध्ययनम् । अनुत्त० १ । दीपिg - यवनामराजानस्य सचिव: । वृ० प्र० १६१ अ । दोहबाहु - चन्द्रप्रभजिनस्य पूर्वभवनाम | सम० १५१ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ दुंदुभी:- भेरी । प्रश्न० ४८ । दुंदुहि - दुन्दुभी - ढक्काविशेषः । भग० ४७६ | दुन्दुभि:देववाद्यम् । जं० प्र० १६२ । दुन्दुभिः देववाद्य विशेषः । भग० २१६ । सम० १५४ । दोह्मद्धं-दीर्घाद्धं-दीर्घकालं दीर्घाध्वं वा दीर्घमार्गम् । दुदुहिस्सरो - दुन्दुभिवत्स्वरो यस्य स दुन्दुभिस्वरः । जीवा० प्रश्न० ६१ । ज्ञाता० ८६ । दीर्घाद्धं दीर्घकालं दीर्घो वाsध्वा तत्परिभ्रमणहेतुः कर्मरूपो मार्गों यस्मिस्तत् । उत्त० ५८५ । भग० ६७२ । दीर्घाद्धं दीर्घा अद्धा कालो यस्य तद् दीर्घाद्धं, मकारआगमिकः दीर्घो वाऽध्वा मार्गो यस्मिस्तद्दीर्घाध्वम् । ठाणा० ४४ । दीर्घाद्ध दीर्घकालं दीर्घाध्वं वा दीर्घमार्गम् । भग० ३५ । दोहरत्तं - दीर्घ रात्रं- यावज्जीवम् । सूत्र० १५२ । दोहराय - दीर्घ रात्र: - मोक्षः । आव० ६५८ । दीर्घ रात्रं यावज्जीवम् | आचा० २०८ । दीहासणं - दीर्घासनं - शय्यारूपमासनम् । जीवा० २०० । दीहासणाई - शय्यारूपाणि । जं० प्र० ४५ । दोहिया - दोघिका - ऋजुलघुनदी । प्रज्ञा० ७२ । दीर्घिका सारणी । भग० २३८ । औप० ३, ३ । अनु० १५६ । जीवा० १९७ । जं० प्र० ४१ । ऋजुसारिणी । औप० ८ । प्रश्न० १६० । जीवा० १८८ | जं० प्र० ३० । ज्ञाता० ५ । दोर्घिका ऋज्वीनदी । प्रज्ञा० २६७ । दुंदुभए - दुन्दुभक:- अष्टाशितौ महाग्रहे अष्टादशः । जं० प्र० ५३४ । ठाणा० ७८ । दुंदुभि - दुन्दुभि: - भेर्याकारा सङ्कटमुखी । राज० २५ । भेर्याकारा सङ्कटमुखी देवातोद्यविशेषः । राज० ४६ । दुंदुभिसर - दुन्दुभिस्वर : - वर्चस्वरो नादः । सम० १५८ ॥ [ दुकूलं दुः प्रसभ: - तीर्थ व्यवच्छेदकाले सूरिः । व्य० द्वि० ४०२ अ । दीहलोग - दीर्घ लोकः - वनस्पतिः । आचा० ५२ । दीर्घ- दुःसंहृतं - दुःखेन संह्रियते-मील्यते स्मेति । उत्त० २७५ । लोकः - पृथिव्यादिः । आचा० ५३ । दी हत्तं - णामकतति । नि० चू० प्र० २२६ अ । दोहसेणे - दीर्घसेनः - अनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीय वर्गस्य प्रथममध्ययनम् । अनुत्त० २ । दीहामविपक्को - दीर्घाणि यानि -स्थितितः प्रक्रमास्कर्माणि तान्यामया इव-रोगा इव विविधबाधाविधा यितया दीर्घामयास्तेभ्यो विप्रमुक्तो दीर्घामयविप्रमुक्तः । उत्त० ६३६ । दुअं- द्रुतं यत् त्वरितं गीयते स्वरितगाने हि रागतानादिपुष्टिरक्षरव्यक्तिश्च न भवति । जं० प्र० ४० । द्रुतनाम नाट्यं, द्रुतमिति शीघ्र गीतवाद्यशब्दयोर्यमकसमकप्रपातेन पादतलशब्दस्यापि समकालमेव निपातो यत्र तत् द्रुतं नाट्यम् । जं० प्र० ४१७ । दुअक्खरिआ -द्वयक्षरिका । उत्त० १०७ । दुअद्धखित्तद्वक्षेत्रम् । जं० प्र० ४७८ । द्वितीयमर्द्ध यस्य तत् द्वद्धं - सार्वमित्यर्थः, द्वघर्द्धमर्द्धाधिकं क्षेत्रमहोरात्रप्रमितं चन्द्रयोगयोग्यं येषां तानि द्वघर्द्धक्षेत्राणि । सूर्य० १७७ । दुआइक्ख- दुराख्येयं कृच्छ्राख्येयं वस्तुतत्त्वम् । २६६ । दुआवत्तं । सम० १२८ । दुइओ - द्वितीयः । उत्त० २२३ । दुइज्जतो- द्वितीयान्तः - पाषण्डी गृहस्थः । आव० १८६ । दुइज्जमाणा - द्रवन्ति इतस्ततो दोलायमानानि । जं० प्र० २३५ । दुइज्जमाणो| आव० ७६३ । दुकूलं - वस्त्रविशेषः । भग० ४६० । कार्पासिक - अतसीमयम् । भग० ५४० । वृक्षविशेषः । भग० ४६० । ( ५३६ ) २०७ । दुही - दुन्दुभि: भेर्याकारा सङ्कटमुखी । जीवा० २४५ । दुंदुहोओ-दुन्दुभयो देवानकाः । उत्त० ३६६ । दुदुहे - दुन्दुभः सर्वविशेषः । उत्त० ३५४ । दु: - अभावार्थे | आचा० १३६ । दुःख - उष्णम् । आचा० १५१ । दुःखासिका - वेदना | ठाणा० १५१ । परितापना | ओघ० ६५ । आचा० १३६ । ठाणा ० Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुकोडी] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ दुगोत्तफुसिया दुकोडी-विसोहिकोडी अविसोहिकोडी। निचू० प्र० ६१ जुगुप्सते तत् । ठाणा० ४६६ । | दुगंधी-दुर्गन्धी-सुनन्दश्रावकस्य द्वितीयो भवः । उत्त दुक्कडगरिहा-ऐहिकान्यभविकपापनिंदनम् । चउ० ।। १२३ । दुक्कर-दुःखेन क्रियत इति दुष्कर-दुरनुष्ठानम् । उत्त० दुग-क्रियाविषयमेकसमयमनुभूयमानं उपचारात्तत्प्रतिज्ञाता११६ । दुष्करं-अपूर्वकरणतो ग्रन्थिभेदः । भग० २८६ । ऽपि द्विकः । उत्त० १५२ । एकसमये द्वे क्रिये समुदिते दुक्कराइं-दुःखेन क्रियन्ते करोतेः सर्वधात्वर्थत्वाच्छेक्यन्ते द्विक्रियं तदधीयते तद्वेदी वा द्वैक्रियः, कालभेदेन क्रियादुष्कराणि दुःशकानि । उत्त० ६६५ । द्वयानुभवप्ररूपी । आव० ३११ । दुक्काल-दुष्कालः धनधान्यादिसमृद्धिहीनःकालः। भ०१६६। दुगाउयं-द्विगब्यूतं-क्रोशद्वयम् । ओघ० ७८ । दुष्कालो-धान्यमहार्यतादिना दुष्टः कालः । जं०प्र० ६६ । दुगुंछणा-जुगुप्सा । आचा० ७५ । दुक्कुट्टिओ-दुष्कृष्टः । आव० ६२२ । दुगुछमाण-जुगुप्समान:-निन्दम्परिहरन् । आचा० ११४ । दुक्खं-दुःख-दुःखकारणं वा कर्म लोकसंयोगात्मकं वा।| जुगुप्समानः । उत्त० २२८ । आचा० १४५ । अज्ञानं मोहनीय वा। आचा० १५३ । दुगुंछा-जुगुप्सा प्रवचनखिसा । ठाणा० १३८ । विचिदुःखयतीति दुःख-संसारः। उत्त० ६२१ । दुःखहेतुम् । कित्सा अनेषणीयशङ्का । आचा० ३३२ । जुगुप्सा-अस्नाउत्त० ६२४ । दुःखयतीति दुःख-अष्टप्रकारं कर्म तत्फलं | नादिमलिनतनुसाधुहोलना । उत्त० २६१ । वाऽसातोदयादिरूपम् । सूत्र० १३ । दुःखयतीति दुःख-दुगुंछामि-जुगुप्सामि-निन्दामि । आव० २६४ । पापं कर्म । उत्त० २६२ । संसारिकं सुखमपि वस्तुतो दुगुंछामोहिणिज्ज-यदुदयवशात् पुनः शुभमशुभं वा वस्तु दुःखमिति दुःखहेतुत्वाद् दुःखं कर्म । भग० ३८ । दुःख- जुगुप्सते तत्, जुगुप्साजनकं मोहनीयं जुगुप्सामोहनीयम् । दुःखहेतु कर्म । भग० २६० । दुःखहेतुः । भग० ४८४ । । प्रज्ञा० ४६६ । दुःख-दुःखविषयको भगवत्याः प्रथमशतके द्वितीय उद्देशकः। दुगुंच्छिय-जुगुप्सितं-छिम्पकादि । ओघ० १५६ । भग० ६ । दुःखयतीति दुःखः । उत्त० ११६ । दुःखानि दुगुंच्छिया-जुगुप्सिकता:-निन्दिताः । ओघ० १२० । कर्माणि । उत्त० २६३ । दुगुल्ल-दुकुलं-कार्पासिकं वस्त्रम् । राज० ३७ । दुकूलं दुक्खसंभवा-दुःखं पापकर्म ततः संभवः उत्पत्तिर्येषां ते गोडविषयविशिष्टकासिकम् । आचा० ३६४ । कार्पा'दुःखसम्भवाः । उत्त० २६२ । इहान्यजन्मनि च दुःख- सिकं वस्त्रम् । जीवा० २१० । काप्पासिकमतसीमयं वा भाजनम् । उत्त० २६८ । वस्त्रम् । सूर्य० २६३ । वस्त्रम् । जं० प्र०२८५। ज्ञाता० दुक्खसावयाइण्ण-दुःखश्चापदाकीर्णः । ज्ञाता० १६६ । २७ । जीवा० २३२ । वृक्षविशेषः तद्वल्कलाज्जातं दुकुलंदुक्खाययणं-दुःखायतनम् । उत्त० ३२६ । वस्त्रविशेषः । ज्ञाता० २७ । दुकूलानीति दुकूलो वृक्षदुक्खावणा-दुःखापना-मरणलक्षणदुःखप्रापणा, अथवा इष्ट विशेषः, तस्य वल्कं गृहीत्वा उदूखले जलेन सह कुट्ट. वियोगादिदुःखहेतुप्रापणा । भग० १८४। यित्वा बुसीकृत्य सूत्रीकृत्य च वूयन्ते यानि तानि । दुक्खाविजइ-दुःख्यते । आव० ४०५ । प्रश्न० ७० । दुकूल:-वृक्षविशेषः । प्रश्न० ७० । ज्ञाता० दुक्खोला- ।नि० चू० प्र० १२७ अ । २७ । रुक्खो । नि० चू० प्र० २५४ आ । दुकूलंदुक्खुव्वेअ-दुःखाद् उद्वेगो यस्य स दुःखोद्वेगः । आचा० वस्त्रजातिविशेषः । जीवा० २६६ । | दुगल-गौडविषयविशिष्टं काासिकं दुकूलम् । वृक्षविशेषदखरा-द्विखरा:-गवादयः । उत्त० ६६६ । द्विखूरा:- स्तस्य वल्कं गृहीत्वा उदूखले जलेन सह कुट्टयित्वा बुसीउष्ट्रादिचतुष्पदाः । जीवा० ३८ । कृत्य च ब्यूयते यत्तद् दुकूलम् । जं० प्र० १०७ । दुगंछे-जुगुप्साकर्म-यदुदयेन च विष्ठादिबीभत्सपदार्थेभ्यो दुगोत्तफुसिया-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । ( ५४० ) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुग्ग ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ दुग्ग-दुर्गाणि-जलदुर्गाणि, पर्वता एव दुर्गाणि । बृ० प्र० दुचक्का-द्विचक्रा-गडिमा । ओघ० १३५ । १८६ अ । कष्टसाध्यः । भग० ४८४ । दुर्गाणि-खातवल-| दुचरिम-चरमाद् द्वितीयो द्विचरमः चरमो वा द्वितीयो यप्राकारादिदुर्गमाणि । जं० प्र० १६८ । दुरधिगमाः ।। यस्मादसौ द्विचरमः । विशे० ५७६ । सम० १११ । जं अटविमज्झे भिल्लपुलिंदचाउब्वन्नजणव- दुच्चय-दुष्ट:-कर्मद्रव्यसञ्चयः । भग० २८६ । यमिस्सं दुग्गं । नि० चू० द्वि० २१ अ । दुर्गम-स्थानम् । दुच्चिण्ण-दुश्चीर्णः-परस्त्रीगमनादिदुराचारः । बृ० तृ०१८ वृ० तृ० २२६ अ । दुर्ग-दुष्प्रवेशम् । विपा० ६२ ।। अ। दुश्चीणं-दुश्चरितं मृषावादनपारदार्यादि । ज्ञाता० दुर्ग-जलस्थलदुर्गरूपम् । प्रश्न. ५० । दुर्ग-व्यसनम् ।। । २०५ । प्रश्न० ६३ । दुर्ग-प्राकारः । आव० ७३२ । दुर्ग- दुच्चिन्न-प्रमादकषायजदुश्चरितजनितं दुश्चरितं, दुश्चरितदुखाश्रयणीयम् । भग० २३१ । दुर्ग:-जलदुर्गादिकः । हेतु वा, मद्यपानाश्लीलानृतभाषणादि वा । दश० २७४। भग० १७४ । दुर्ग-खातवलयप्राकारादिदुर्गमम् । भग० दुजडी-अष्टाशीतो महाग्रहे चतुरशीतितमः । ठाणा० ७६ । दुज्जंतु-दूयन्तां-लूयन्ताम् । प्रश्न० ३६ । दुग्गइवडणं-दुर्गतिवर्धन-संसारवर्धनम् । दश० २०० । दुज्जम्मजात-दुर्जन्मजातः । आव० ५७८ । । दुग्गए-दुर्गत:-दरिद्रः । ठाणा० २४६ । दुज्जोहण-दुर्योधनः । ज्ञाता० २०८ । दुग्गओ-दुगौ:-गलिबलिवईः । दश० २५० ।। दुज्झाओ-दुष्टो ध्यातो दुति:-आर्त्तरौद्रलक्षणः एकाग्रदुग्गता-दुर्गता:-दुःस्थाः । ठाणा० १४७ । चित्ततया । आव० ५७१, ७७८ । दुग्गतिप्पवाओ-दुर्गती नरकादिकायां करि-प्रपातय- दुट्ठगंडो-दुष्टवणः-कुष्ठी । उत्त० २१८ । । तीति दुर्गतिप्रपातः, दुर्गती वा प्रपातो यस्मात् सः; प्राण- दुट्ठस्सो-दुष्टाश्वो गर्दभः । बृ० प्र० २४० अ । वधस्याष्टादशमः पर्यायः । प्रश्न० ५ । दुट्ठऽस्स-दुष्टाश्वः गर्दभः । ओघ० ७१ । दुग्गम-दुःखेन गभ्यत इति दुर्गम भावसाधनोऽयं, कृच्छ- | दुट्ठाण-द्विः । ठाणा० ३३० । वृत्तिरित्यर्थः । ठाणा० २९६ । दुर्गमः-कृच्छ्रगतिकः । दुढे-दुष्टः-द्विष्टः तत्त्वं प्रज्ञापकं वा प्रति, स चाप्रज्ञापनीयो, प्रश्न. २० । द्वेषेणोपदेशाप्रतिपत्तेः । ठाणा० १६५ । दुग्गय-दुर्गत:-दरिद्रः । उत्त० २२६ । दुणापाणियं-दुर्गन्धपानीयम् । आव० ५५६ । दुग्गा-दुर्गा-कोट्रक्रिया सैव महिषारूढरूपा । ज्ञाता० दुणिसीहिया-दुनिषीधिका-कष्टस्वाध्यायभूमिः । प्रश्न १३६ । दुर्गा-महिषारूढाऽऽर्या । अनु० २६ । दुग्गासे-दुःखेन ग्रासो यत्र तद् दुर्गासः-दुर्भिक्षम् । पिण्ड | दुत-द्रुतं त्वरितम् । ठाणा० ३६६ । जं० प्र० ४१७ । ८८ । । आव० ७८२। दुग्गुच्चपव्वओ-दुर्गोच्चपर्वतः । आव० ३८४ । दुइंतदोस-दुष्टं दमनं दुर्दान्तं तच्च प्रक्रमाच्चक्षुषस्तदेव वृतम् । बृ० द्वि० ५५ आ । दोषो दुर्दान्तदोषः । उत्त० ६३१ । दुग्घट्टा-दुर्घटा-दुराच्छादा । प्रश्न० ६० । दुद्दाइ-उवसंपण्णाणवि न येइ । नि० चू० तृ० ८३ अ। दुग्घासं-दुसिं-दुर्भिक्षम् । बृ० द्वि० २३ अ । दुद्धं-दुग्धम् । आ० १९८ । दुघण-द्रुघणम् । राज० २२ । जीवा० १२१ । द्रुधगः- दुद्धकाओ-दुग्धकायो नाम दुग्धघटकस्य कापोती । आव० मुद्गरविशेषः । प्रश्न. ४८ । __५५५ । दुचक्कगं-द्विचक्रक-शकटम् । बृ० प्र० ७७ आ। द्विचक्रं- दुद्धजाई-दुग्धजाति:-आस्वादतः क्षीरसदृशी । जीवा० गन्त्रिका । ओघ० १४० । २६५ । दुचक्कलेवो-द्विचक्रलेपः-शकटलेपः । बृ० प्र० ८२ अ। दुद्धर-दुर्द्धराणि-प्राणातिपातादिनिर्वृतिलक्षानि पञ्च महा (५४१) दुत्ति Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुद्धरिसं ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ दुप्पडिलेहियदूस व्रतानि । प्रज्ञा० ५ । दुर्द्धर-गहनम् । ठाणा० ३६४ । दुप्पउत्तकार्याकरिया-दुष्टं प्रयुक्तो दुष्प्रयुक्तः स चासो दुद्धरः-प्रतिस्पद्धिनामनिवार्यः । प्रश्न. ७३ । __ कायश्च दुष्प्रयुक्तकायस्तस्य क्रिया दुष्प्रयुक्तकायक्रिया, दुद्धरिसं-दुर्द्धर्ष-अनभिभवनीयम् । प्रश्न० १३६ । । दुष्टं प्रयुक्तं-प्रयोगो यस्य स दुष्प्रयुक्तस्तस्य कायक्रिया दुद्धरिसतरा-दुष्प्रधृष्यतरो-भवतः-दुःखेन परिभूयेते दुर्ज- दुष्प्रयुक्तकायक्रिया । भग० १८२ । दुष्प्रयुक्तस्य-दुष्टप्रयतरो। ओघ० १४६ । योगवतो दुष्प्रणिहितस्येन्द्रियाण्याश्रित्येष्टानिष्टविषयप्राप्ती दुधोयतराए-दुष्करतरधावनप्रक्रियम् । भग• २५१ । । मनाक् संवेगनिर्वेदगमनेन, तथा अनिन्द्रियमाश्रित्याशुभदुनाम-द्विरूपं सत् सर्वस्य नाम द्विनाम । अनु० १०६ । मनःसङ्कल्पद्वारेणापवर्गमार्ग प्रतिदुर्व्यवस्थितस्य प्रमत्तद्वयोर्वा नाम्नोः समाहार द्विनामं वा । अनु० १०६ । संयतस्येत्यर्थः कायक्रिया दुष्प्रयुक्तकायक्रिया। ठाणा० ४१५ दुन्नरा-दुर्नयः-स्च्यादिसंसत्कस्थानवासः । बृ० द्वि०५ आ। | दुप्पउलि-दुष्पक्व:-अस्विन्नः । आव० ८२८ । दुन्निक्कमा-दुःखेन नितरां क्रमः,क्रमणं यस्यां सा दुनिष्क्रमा दुप्पउलिओसहिभक्खणया-दुष्पक्वौषधिभक्षणता-अस्विदुरतिक्रमणिया। जं. प्र. १६६ । नौषधिभक्षणता । आव० ८२८ । दुन्नियत्थं-दुष्परिहतम् । उप० गा० २२५ । दुप्पए-अधोभागाप्रतिष्ठिते-प्रतिष्ठानरहिते । ओघ० २११। दुन्नामधिज्ज-दुर्नामधेयं-पुराणः प्रतित इति कुत्सितनाम- दुप्पट्टियसुप्पट्ठिओ-दुष्टं प्रस्थितः-प्रवृत्तो दुष्प्रस्थितः धेयं च । दश० २७६ । दुराचारविधातेतियावत् सुष्ठ प्रस्थितः सुप्रस्थितः सदनुष्ठादुपओआरं-द्वयोः पदयोः-स्थानयोः पक्षयोविवक्षितवस्तु. नकर्तति । उत्त० ४७७ । तद्विपर्ययलक्षणयोरवतारो यस्य तद् द्विपदावतारम् । दुप्पडिकंत-मिथ्यादर्शनाविरतिजदुष्पराक्रान्तजनितं दुष्पठाणा० ३६ । राक्रान्त, दुष्पराक्रान्त हेतु वा, वधबन्धनादि वा । दश. दुपक्ख-द्वी पक्षावस्येति द्विपक्षं-कर्मबन्धनिर्जरणं प्रतिपक्ष- २७४ । द्वयसमाश्रयणात् । सप्रतिपक्षमनकान्तिकं, पूर्वापरविरुद्धा- दुप्पडिक्कतो-दुष्प्रतिक्रान्त:-दुःशब्दोऽभावार्थस्तेन प्रायर्थाभिधायीतया विरोधिवचनमिति । सूत्र० २१६ । दुष्टः | श्चित्तप्रतिपत्त्यादिना-अप्रतिक्रान्तः-अनिवतितविपाक इति पक्षो दुष्पक्षः असत्प्रतिज्ञाभ्युपगमः । सूत्र• ६१ ।। विपा० ३८ । दुपडिग्गह सम० १२८ । दुप्पडिताणंदे-दुष्प्रत्यानन्द:-उपकृतेन कृतमुपकारं यो दुपडोयार-द्वयोः प्रत्यवतारो यस्य तत् द्विप्रत्यवतारमिति, नाभिमन्यते । ठाणा० २४६ । स्वरूपवत् प्रतिपक्षवम्चेत्यर्थः । ठाणा० ३६ । द्विप्रकाराः | दुप्पडिबोहिणि-सद्धम्मे दुक्खं बुज्झति । नि० चू० तृ. जीवाश्चाजीवाश्च । आव० ४७७।। ४३ अ। दुपमज्जिय-दुष्प्रमाजितं-तृतीयमसमाधिस्थानम् । आव० दुप्पडियाणंदे-दुष्प्रत्यानन्द:-साधुदर्शनादिना नानान्द्यत इति । विपा० ३९ ।। दुपयं-द्विपदं-शकटम् । ओघ० १४१ । दासीमयूरहंसादि | दुप्पडियारं-दुःखेन-कृच्छ्रेण प्रतिक्रियते कृतोपकारेण पुंसाआव० ८२६ । प्रत्युपक्रियत इति खलप्रत्यये सति दुष्प्रतिकरं-प्रत्युपदुपयचउप्पयपमाणाइक्कमे-द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रमः। कर्तुमशक्यमिति यावत् । ठाणा० ११७ । आव० ८२५ । दुप्पडिलेह-दुष्प्रतिलेखितदूष्यपञ्चकम् , दूष्यपञ्चकस्य द्विदुप्पउत्त-अकुसलमणो । दश० चू० ६० । दुष्प्रयुक्त:- तीयो भेदः । पल्हवी १कौतपी२प्रावार३नवत्वक् ४दंष्ट्रागादुःसाधितः । ओघ० २२७ । ली५भेदभिन्नम् । आव० ६५२ । दुप्पउत्तकाइया-दुष्टं प्रयुक्त-प्रयोगः कायादीनां यस्य स | दुप्पडिलेहणा-दुष्प्रत्युपेक्षणा-दुनिरीक्षणा। आव० ५७६ । दुष्प्रयुक्तस्तस्य कायिकी दुष्प्रयुक्तकायिकी। प्रज्ञा० ४३६ । । दुप्पडिलेहियदूस-दुष्प्रतिलेखितदुष्यम् । ठाणा० २३४ । (५४२) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुप्पणिहिआ ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ दुभागप्पत्ते दुप्पणिहिआ-दुष्प्रणिहिता:-अनिरुद्धाः । दश० २२६ । विशेषः । सूत्र० ३१६ । दुप्पडिहियजोगी-दुष्प्रणिहितयोगी-सुप्रणिधिरहितः प्रव- दुब्भपुप्फो-उर:परिसप्प विशेषः । जीवा० ३६ । जितः । दश० २२६ । शुभ:-मनोज्ञो यो न भवति । ठाणा० २५ । दुप्पण्णवणिज्जा-दुक्खचरणकरणजातामाताओत्तिए धम्मं दुभिक्ख-दुर्भिक्ष-भिक्षाचराणां भिक्षादुर्लभत्वम् । जं० पण्णविज्जति । नि० चू० तृ० ४३ अ । दुप्पन्नवणिवाणि-दुष्प्रज्ञाप्यानि-दुःखेन धर्मसञोपदेशे- दुखिमक्खभत्तं-दुर्भिक्षकाले भिक्षुकाणां निर्वाहार्थं दुभिक्षनानार्यसङ्कल्पान्निवर्त्यन्ते । आचा० ३७७ । भक्तम् यद् विहितं भक्तं तद् । भग० २३१ । यद् दुप्पमजणा-दुष्प्रमार्जना-अविधिना प्रमार्जना । आव० । भिक्षुकार्य दुर्भिक्षे संस्क्रियते तत् । औप० १०१ । दुर्भि५७६ । क्षभक्तम् । ठाणा० ४६० । दुप्पमज्जियचारि-दुष्प्रमार्जितचारी, तृतीयमसमाधिस्था- दुभिक्खभत्तेइ । भग. ४६७ । नम् । सम० ३७ । दुभिक्खया-दुभिक्षता दुर्भिक्षभावः । आव० ८४४ । दुप्पयं-न पुष्पकमूले स्थितम् । बृ० द्वि० २४१ अ।। दुन्भिगंध-दुरभिगन्धः-तीव्रतरदुष्टगन्धः । ज्ञाता० १७७ । दुप्परक्कंत-दुष्पराक्रान्तं प्राणिघातादत्तापहारादिकृतानां दुब्भिसद्द-अशुभशब्दः । प्रज्ञा० २८६ । प्रकृत्यादिभेदेन । ज्ञाता० २०५ । दुभिसद्दत्ता-दुष्टशब्दता । ज्ञाता० १७७ ।। दुप्परिकम्मतराए-दुष्परिकर्मतरं-कष्टकर्तव्यतेजोजननभ- दुभिसद्दपरिणामे-अशुभ: शब्दपरिणामः । जीवा. ङ्गकरणादिप्रक्रियम् । भग० २५१ । ३७३ । दुप्पस्स-दुःखेन दर्यते इति दुर्दशं, उपपत्तिभिर्दःशकं दुब्भी-असुमं रसेण उववेयं पि भोयणं दुन्भिगंध ण पूजितं शिष्याणां प्रतीता वारोपयितु तत्त्वमिति । ठाणा० २६७ । । नि० चू० । दुप्पहंस-दुःखेन प्रधय॑न्ते-पराभूयन्ते केनापीति दुष्प्रवर्षाः। दुब्भुतिया-कृष्णवासुदेवस्य तृतीया भेरी । बृ० प्र० ५६ उत्त० ३५३। दुष्प्रघर्षक:-अन्यैर्दुरभिभवः । उत्त०३४६।। अ । दुप्पुत्तं-पुप्फगमूलेसु न पट्टितं । नि० चू० तृ० ४१ दुब्भूइ-दुर्भूति:- अशिवम् । वृ० द्वि० २६३ अ । आ । जं ठविज्जतं उद्धं ठायति चालियं पुण पलोट्टति दुब्भूए-दुः इति निन्दितं भूतं-भवनमस्येति दुर्भूतः दुरातं दुप्पुत्तं । नि० चू० प्र० १२५ आ । __ चारतया निन्द्यो भूत: । उत्त० ४३६ । दुब्बल-दुर्बल:-वाध्यादिरोगाक्रान्तः। ओघ० ५०। दुब्भूय-दुर्भूतं-अशिवम् । जीवा० २८४ । दुष्टा:-जनदुब्बलदेहो-दुर्बलदेहः-कृशशरीरः । ओघ० ७१ । धान्यादीनामुपद्रवहेतुत्वाद् भूता:-सत्त्वा: यूकामत्कुणोन्दुदुब्बलपञ्चामित्रो-अबलप्रातिवेशिकराजः । ठाणा० ४६३ ।। रतिडप्रभृतयो दुर्भूता इतय इत्यर्थः । भग० १९८ । दुब्बलयरो-दुर्बलतरः । आव० ४१६ । दुभगणामे-दुर्भगनाम यदुदयादुपकारकृदपि जनस्य द्वेष्यः दुब्बलसरीरो-रोगपीडिओ दुब्बलसरीरो तवसोसियसरीरो तत् । प्रज्ञा० ४७४ ।। वा। नि० चू० द्वि० ६५ अ । | दुभाग-ऊनोदरतायास्तृतीयो भेदः, त्रयोदशभ्य आरभ्य दुब्बलि-दुर्बलिका । आव० २३८ । यावत् षोडश तावद् द्विभागोनोदरता । दश० २७ । दुम्बलिय-दौर्बल्यं-श्रमम् । आचा० ३८० । विद्यायां द्विभागा। ठाणा० १४६ । योग्यः । नि० चू० तृ. ७६ अ। दुभागपत्तोमोअरिया-द्विभागप्राप्तावमोदरिका । औप. दुब्बलियपूसमित्तो-दुर्बलिकापुष्पमित्रः । आव० ३०८। ३८ । दुब्बलियापूसमित्त-दुबंलिकापुष्पमित्रः । उत्त० १७३ । दुभागप्पत्ते-द्विभागः अर्द्ध तत्प्राप्तो द्विभागप्रातः आहारः दुब्भगाकरा-सुभगर्माप दुर्भगमाकरोतीति दुर्भगाकरा,विद्या- द्विभागो वा प्राप्तोऽनेनेति द्विभागप्रातः साधुः। भग' Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुभिक्ख ] भाचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ दुरुक्क १ । २९३ । दुयक्खर-दासः । आव० ६६० । दुभिक्ख-दुभिक्षं-दुष्कालः भिक्षुकाणां भिक्षाचर्याऽक्षम:- दुयगाणि-द्वे । आव० ३५० । कालः । भग० २०० । दुयग्गावि-(देशीपदं) प्रक्रमाच्च द्वावपि दम्पती । उत्त० दुभिक्खभत्तं-अडविणिग्गयाणं मुक्खत्ताणं जं दुभिक्खे ३६४ । राया देति तं । नि० चू०प्र० २७२ अ । दुयडपोरिसी-धर्वपौरुषी-सार्द्धपुरुषप्रमाणा छाया। सूर्य दुम-असुरकुमारेन्द्रस्य सप्तमः सैन्याधिपतिः । ठाणा० ४०६ । द्रुमः-अनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य सप्त- दुयादुयं-अतिशयद्रुतम् । तं० । ममध्ययनम् । अनुत्त०२। पदास्वनीकाधिपतिः । जं० दुरंत-दुरन्तं-दुष्टफलम् । प्रश्न० ६६ । दुःखेनान्त:-पर्यन्तो प्र० ४०७ । दोसु माओ दुमो । नि० चू० प्र० १० यस्य तद् दुरन्तम् । उत्त० २३३ । दुरन्तानि-दुष्टावसा आ। आनतकल्पे देवविमानविशेषः । सम० ३५ । नानि । भग० १७४। दुमणं-दुवनमुपतापनम् । प्रश्न० ३८ । दुरंतपंतलक्खणे-दुरन्तप्रान्तलक्षणः-दुरन्तानि-दुष्टावसादुमपत्तयं-द्रुमपत्रक-उत्तराध्ययनेषु दशममध्ययन म्।उत्त० नानि अत एव प्रान्तानि अमनोज्ञानि लक्षणानि यस्य ६, ३३३ । सम० ६४ । सः । भग० १७४ । दुरन्तानि-दुष्टपर्यन्तानि प्रान्तानिदुमपुफिया-द्रुमपुष्पिका-दशवकालिके प्रथममध्ययन म् । अपसदानि लक्षणानि यस्य सः । ज्ञाता० १३६ । दश० १५ । द्रुमपुष्पिका-धम्मो मंगलं । ओघ० २०३ । दुरणुपालओ-दुःखेनानुपाल्यत इति दुरनुपालः, स एव दोसु माओ दुमो पुप्फ विकसणे दुमस्स पुष्पं दुमपुप्फ दुरनुपालकः । उत्त० ५०२ । तेण-दुमपुप्फेण जत्थ उवमा कोरइ तमज्झयणं दुमपु- दुरत्थाया-(देशी) बहिराभिधायकम् । वृ० द्वि० १७० फिया । नि० चू० प्र० १० आ । । अ। दुमसेणे-नवमबलदेववासुदेवयोः पूर्वभवीयधर्माचार्यः । सम. दुरप्पा-दुरात्मता-दुष्टाचारप्रवृत्तिरूपः । उत्त० ४७६ । १५३ । द्रुमसेनः-अनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य दुरमिगंधं-मृतकलेवरादिवत् । जीवा० २८२ । दुष्टगन्धः अष्टममध्ययनम् । अनुत्त० २।। ज्ञाता० १६१ । तोव्रतरदुष्टगन्धः । आव० ७७१ । ज्ञाता० दुमा-भूमोयागास य दोसु माया । दश० चू० ५। १७७ । दुम्मण-दुर्मना-दैन्यादिमान् द्विष्ट इत्यर्थः । ठाणा० १३१। दुरभिगंधनामे-दुरभिगन्धः-यदुदयाद् दुरभिगन्धः शरीरेदुम्मणिअ-दोर्मनस्य-दुष्टमनोभावः । दश० २५४ । । खूपजायते यथा लशूनादिनां तत् । प्रज्ञा० ४७३ । दुम्मेह-घोसंतस्स वि जस्स गंथो न ठायति स दुम्मेहो । दुरहिट्ठिअ-दुरधिष्ठि-दुराश्रयम् । दश० १६२ । नि० चू० प्र० ३६ आ । अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य दुरहियास-दुरधिसह्या । भग० २३१ । दुरधिसह्यः । दशममध्ययनम् । अन्त० ३। द्रव्यव्युत्सर्गे पाञ्चालजन- भग० ४८४ । पदे काम्पील्यनगराधिपतिः य इन्द्रकेतु दृष्ट्वा संबुद्धः । दुरारद्धं-दुरारब्धम् । आव० ६८७ । आव० ७१६ । उत्त० २६६, ३०३ । शाता० २१३ । | दुरासय-दुःखेनासाद्यतेऽभिभूयत इति दुरासदः दूरभिभवः । प्रश्न० ७३ । दश० ९५। दुम्मेहजड्डो- ।नि० चू० द्वि० ३६ आ। दुरासया-दुःखेनाश्रीयन्ते अभिभवबुद्धयाऽऽसावन्ते वा जेतुं दुम्मेहा-दुर्मेधसः-दुर्बुद्धयः । उत्त०.५३० । | सम्भावयन्ते केनापीति दुराश्रया दुरासदा वा । उत्त० दुय-द्रुतं-यत्त्वरितं गीयते, गीतस्य द्वितीयो दोषः । जीवा० ३५३ । । १९४ । दुरिटुं-दुरिष्टं दुर्नक्षत्रं दुर्यजनं वा । दश० ६५ । दुयओ-द्विका-द्विपरिणामो द्विपदो वा । भग० ३३१ । । दुरुक्कं-ईषत्पिष्टम् । आचा० ३४८ । (५४४ ) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुरुत्तर ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [दुधिभाव दुरुत्तर-दुरुत्तार:-अकुशलानुबन्धतोऽत्यन्तदीर्घः । दश । दुवग्गोवि-(देशीवचनस्वात्) द्वावपि । ६० प्र० २६० अ। २०६ । दुवामतराए-दुर्वाम्यतरक-दुस्त्याज्यतरकलङ्कम् । भग० दुरुवणियं-दुरुपनीतं-दुष्टमुपनीतं निगमितमस्मिन्निति । २५१ । दश० ५२ । दुवार-द्वारम् । नि० चू० द्वि० ६५ आ। सीसदुवारिया । दुरुवणीए-दुष्टमुपनीतं-निगमितं-योजितमस्मिन्निति दुरुप- नि० चू० प्र० १६१ अ । नीतं परिव्राजकवाक्यवत् । ठाणा० २५६ । दुवारपिंडो-द्वारपिण्ड:-द्वारशाखा । जीवा० २०४ । दुरुहइ-आरोहति । राज. ४१ । दुवारबाह-द्वारभागः । आचा० ३३८ । दुरुहिउं-आरोढुम् । आव० २६२ । | दवारवयण-द्वारमेव वदनं-मुखं द्वारवदनम्। भग० ३१३। दुरूतगं । नि० चू० प्र० ३४४ आ। दुवारा-गोपुच्छिकम् । व्य० प्र० १६५ अ । दुख्य-दुरूपाणि-विरूपाणि । ज्ञाता० ५१ । दुवालसंगे-द्वादशाङ्गानि-आचारादीनि यस्मिस्तदुद्वादशाङ्गम् दुरूवा-दुःस्वभावा: । भग० ३०८ । । सम० १०७ । दुरूहिज्जा-आरुहेत् । आचा० ३७६ । दुवासपरियाए-द्विवर्षपर्यायः । ज्ञाता० १५५ । दुरोदरं-द्युतम् । उत्त० ४२६ । दुविट्ठ-आगमिन्यामुत्सर्पिण्यां अष्टमो वासुदेवः । सम० दुर्गन्धा । नि० चू० प्र०२४ । १५४ । दुर्ध्यातः-दुष्टचिन्ताविषयीकृतः । शाता० १६२ । दुवित्तए-द्रोतुं विहर्तुम् । बृ० तृ० १५२ आ । दुर्भग जं० प्र० २०६ । विहनियत्ती-श्रावकत्वप्रव्रजतित्वाभ्यां निवृत्तिरिति । दुभिक्षं-दुरितविशेषः । भग० ८ । ठाणा० ३३० । दुर्बलिकापुष्पमित्रं-आर्यरक्षितप्रज्ञावान् शिष्यः । विशे• दुव्वए-दुर्बत:-व्रतवर्जितः । विपा० ३६ । असम्यग्वतो६२६ । प्रधानशिष्ये प्रथमः । विशे० १००२ । ऽथवा दुर्व्ययः आयनिरपेक्षव्ययः कुस्थानव्ययो वा । दुर्लक्षः-दुर्विभावः । विशे० १७६ । ठाणा० २४८ । दुर्वर्ण । जीवा० २७६ । दुव्वण्ण-दुर्वर्णः-दुष्टशरीरच्छविः । जं० प्र० ११६ । दुविनीतम् । आव० २६१ । एकस्मिन्नपि न पतति इत्यर्थः । नि० चू० प्र० १२५ दुलुडुलेमो-भ्राम्यामः । नि० चू० प्र० २९२ आ। आ। । दुल्लभ-दुर्लभ-अनिवृत्तिकरणम् । भग० २८६ । दुर्लभे दुव्वलचरित्तो-विणा कारणेन मुलुत्तरगुणपडिसेवणं दुभिक्षे । ओघ० १५० । करोति । नि० चू० प्र०.१०२ आ । दुल्लभदन्वं-सतपागसहस्सपागादि वा त्रिकदुकादि वा। दुव्वलिय- नि० चू० तृ० ७६ अ । नि० चू० प्र० ९६ अ । दुव्वा-चीया । नि० चू० प्र० २५५ आ । दूर्वा-हरित. दुल्लभदव्वागाढं- । नि० चू० द्वि० २१ आ। विशेषः । भग० ३०६ । दुल्ललियगोट्ठी-दुर्ललितमोष्ठी । आव० ३५३ । दुग्विअड्डा-दुर्विदग्धा-मिथ्याऽहङ्कारविडम्बिता । नंदी० दुल्लहलंभ-दुर्लभलाभः । आव० ३४५ ।। दुल्लु लेमि-गवेषयामि । नि० चू० प्र० १७७ अ। दुविचितिओ-दुर्विचिन्तितः । आव० ७७८ । दृष्टो दुवए-कांपिल्यपुरे राजा । ज्ञाता० २०७ ।। विचिन्तितो दुविचिन्तितः चलचित्ततयाऽशुभ एव । आव० दुवक्खरग-दासः । नि० चू० द्वि० ६५ अ । ५७१ । दुवखरियाओ-वेसस्त्रिया । नि० चू० प्र० ११८ आ। दुन्विभाव-दुःखेन विभाव्यते दुविभावो-दुर्लभस्तद्भावस्त. दुवक्खरिया-द्वयक्षरिका वेश्या । आव० ४२६ । । स्वं तेन दुर्विभावः । विशे० १७६ । (अल्प० ६९) (५४५) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुग्वियडा] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ दुहतोवेतिता दुन्दियडा-दुर्विवृता-परिधानजिता । १० द्वि० २५८ | दुस्सोला-दुःशीला-पारदारिकाः । ६० प्र० ३११ अ । अ । विवृता-अनावृता सा चोत्तरीयापेक्षयाऽपि स्यादतो दुह-दुःख-तापानुभवरूपं दुःखम् । दश० ३६ । दोह । दुःशब्देन विशेष्यते दुष्ठुविवृता-दुन्विवृता-परिधानवजिता, बृ० द्वि० ६२ आ । दुखं-प्रकृत्यैवासुन्दरा दुःखजननी। ‘विवृतोरुका दुन्विवृता । ठाणा० ३१३ । दश० २७७ । दग्विवडिया-दुविदग्धा । बृ० प्र० ५८ अ । दहओ-द्वौ । ठाणा० ५२२ । उभयतः । ज्ञाता० १६२। दुविसुज्झो-दुःखेन विशोध्यो-विशोधयितु निर्मलतां नेतुं रागद्वेषाम्यां हत:-द्विहतः । आचा. १६६ । दुष्टं हतो शक्यो दुर्विशोध्यः । उत्त० ५०२ । दुहंतः । आचा० १६६ । दुखुट्टी-दुर्वृष्टिः-धान्याद्यनिष्पत्ति हेतुः । भग० १६६ । दुहओखहा-नाड्या वामपार्थादेन डों प्रविश्य तदेव गत्वा कायिकी-प्रमत्तसंयतस्य क्रिया । कायिकी- ऽस्या एव दक्षिणपार्वादी ययोत्पद्यते सा द्विधाखा । क्रियाया द्वितोयो भेदः । आव० ६११ । __ भग० ८६६ । उभयतोऽङ्कुशाकारा । ठाणा० ४०७ । दुष्प्रत्युपेक्षणं-दुष्टं-उद्भ्रान्तचेतसा प्रत्युपेक्षणम् । आव० दुहओजण्णोवइयं- । भग० १६० । दुहओवंका-यस्यां वारद्वयं कुर्वन्ति सा द्विधावक्रा । दुष्प्रभ:-कार्पटिकः । पिण्ड० ७१ । भग० ८६६ । उभयतो वक्रा । ठाणा० ४०७ । दुष्प्रमार्जितचारित्वं-तृतीयमसमाधिस्थानम् । प्रश्न दुहओवत्ता-द्वीन्द्रियविशेषः । प्रशा• ४१ । १४४ । दुहओवि-द्वाभ्यां प्रकाराम्यां द्विधा,न शुद्धतादिना स्वसम्बदपवणादि:-कोकमद्रव्यदोषो-दृष्टवणादिः। आव० ३८६ । न्धिगुणलक्षणेने केनैव प्रकारेण, किन्तु स्वसम्बन्ध्याश्रयदसन्नप्पाणि-दुःसज्ञाप्यानि-दुःखेनार्यसञ्ज्ञां ज्ञाप्यन्ते । सम्बन्धिगुणद्वयलक्षणेन । प्रकारद्वयेनापीत्यपिशब्दार्थः । आचा० ३७७ । उत्त० ३४८ । दुसमयदिईयं-द्वौ समयो यस्याः सा द्विसमया तथाविधा दुहओवेइया-यत्र बाह्योरन्तरा द्वे जानुनी कृत्वा प्रतिलिख्यते स्थितिरस्येति, द्विसमयस्थितिकम् । उत्त० ५६५ । सा द्विधातो वेदिका । ओघ० ११० । दुसालयं-द्विशालक-द्रुमगणविशेषः । जीवा ० २६६ । दुहट्ट-दुर्घटो दुःस्थगो दुनिरोधः । उपा० २३ । ज्ञाता० दुस्संबोध-दुःखेन सम्बोध्यते-धर्मचरणप्रतिपत्ति कार्यत इति १३६ । दुःखित:-दुःखार्तो देहेन । विपा० ४१ । दुःखात:दुसम्बोधः । आचा० ३५ । देहेन दुःखितः । विपा० ४१ । दुस्सण्णप्पा-जदा सठ्ठा तदा दुवखं सण्णविज्जति दुस्स- दुहण-द्रुघणम् । अनु० १७७ । द्रुघणो-मुग्दरः । प्रश्न० २१। ण्णप्पा । नि० चू० तृ. ४३ आ । उपा० ४७ । दुहण:- टक्करः । प्रश्न ४८ । दुस्समसुसम-दुष्षमसुषमा-दुष्षमानुभावबहुलाऽल्पसुषमा- दुहत्ता-दुःखिता-दुःखितत्वं दुःखकारित्वं वा द्रोहकत्वं वा । नुभावेति । जं० प्र० ८६ । ठाणा० ३६६ । दुस्समा-दुरुषमा अधमकालः । दश० २७२ । | दुहतोणतए-द्विधा-आयामविस्ताराभ्यामनन्तकं । द्विधादुस्साहडं-दुःखेनात्मनः परेषां च दुःखकरणेन सुष्ठ आद- नन्तकं प्रतरक्षेत्रम् । ठाणा० ३४७ । रातिशयेनाहृतं उपाजितं दुःस्वाहतम् । उत्त० २७५। दुहतोनिसहसंठिया-उभयतो। निषधसंस्थिता । उभयतोदुस्सील-दुःशील:-शुभस्वभावहीनः । विपा०३६ । दृष्ट- रथस्योभयोः पार्श्वयोर्यो निषधौ । बलीवौं तयोरिव मिति रागद्वेषादिदोषविकृतं शीलं-स्वभावः समाधिराचारो संस्थितं संस्थानं यस्याः सा । सूर्य०७१। वा यस्या सौ दुःशोलः । उत्त० ४५ । दुहतोवत्तो-द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः। जीवा० ३१ । दुस्सोलंपरियागयं-दुःशोलमेव दुष्टशीलात्मकः पर्यायस्त- दुहतोऽवि-द्वावपि । उत्त० ५१७ । मागतं दुःशीलपर्यायागतम् । उत्त० २५० । तिता । नि० चू० प्र० १८२ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुहसिज्ज ] दुहसिज्ज - दुःखशय्यातः - नरकादिभवात् । आचा० ४३१ । दुहसेज्जा - दुःखदाः शय्या दुःखशय्याः ताश्च द्रव्यतोऽतथाविषखद्वादिरूपाः भावतस्तु दुःस्थचित्ततया दु:भमणता स्वभावाः-प्रवचनगश्रद्धान १ परलाभप्रार्थन २ कामाशंसन ३ स्नानादिप्रार्थन ४ विशेषिताः । ठाणा० २४७ । दुहिलं-द्रोहस्वभावं दुहिलम् । विशे० ४६४ । दुहिलंद्रोहस्वभावम् । सूत्रदोष विशेष: । कलुषं वा येन पुण्यपापयोः समताऽऽपाद्यते । आव० ३७५ | द्रोहवत् । प्रश्न० ११७ | द्रोणशीलो- द्रोग्धा । उत्त० ३४६ | दुआ - दूता:- अभ्येषां राज्यं गत्वा राजादेशनिवेदकाः । जं० प्र० १६० । अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ दुइ-दूती - परसन्दिष्टार्थ कथिका, उद्पादनादोषे द्वितीय | पिण्ड ० १२१ । जित्तए -द्रोतु विहर्तुमित्युत्सर्गः । ठाणा० ३१० । दुइ जित्ता - विहृत्य | सूत्र० ४१८ । दुइज्जत - परिभ्रमनु । उत्त० ५३१ । द्रवनु-वसतु । औप० ४८ । इज्जं तयगामं द्वितीयान्तकग्रामं पाखण्डिगुड्स्यग्रामम् । आव० १५६ । इज्जइ - विहरति । ओघ० ६० । इज्जति-इजति । नि० चू० प्र० १४६ अ । दुइज माण- द्रवन्नु - गच्छनु । भग० १० । आधा० ३२४, ३२६ । विहरनु । सूत्र० ८७ । गच्छन् । ज्ञाता० ८ । दूयमानः - अनेकार्थत्वाद्धातूनां विहरन्, एकाकीनः साधुः । | आचा० २१४ । गच्छन् । व्य० द्वि० २२ अ । दुइपलासए - वाणिग्ग्रामे चैत्यविशेषः । उपा० १ । दूइपलासे - वणिग्ग्रामे उद्यान विशेषः । विपा० ४५ । एक्काए - दूतकार्यम् । आव० २१४ । दूओ - दूतः । उत्त० ३०२ । दूढा - दुग्धा । व्य० द्वि० ३४५ वा । [ दूर्वा दूतििपंडो - गिहिसंदेसगं णेति आरोति वा जं तं णिमित् fus लभति सो दूतिपिंडो । नि० चू० द्वि० ε६ अ । दूब्ब लियापूस मित्तो- दुर्बलिकापुष्पमित्रः । आव० ३०७ । दूर्भाग- अणवकारी विदूभगणामकम्मोदयातो परस्स अरुइक दूभगो । नि० ० द्वि० ११७ अ । दूभगसत्ताए - दुर्भगः सत्त्वः प्राणी यस्थाः सा । ज्ञाता० १९९ दूभर्गानबोलियाए- निम्बगुलि के व- निम्बफलमिव अत्यनादेयत्वसाधर्म्यात् दुर्भगाणां मध्ये निम्बगुलिका दुर्भगनि मत्रगुलिगा । दुर्भगानां मध्ये निर्दोलिता निमज्जिता दुर्भगनिर्दोलिता । ज्ञाता० १६६ । दूता - द्रवन्तः - ग्रामानुग्रामं गच्छन्तः । बृ० तृ० १८४ अ । दूतिज्जंता। नि० चु० प्र० ३१४ अ । दूतिपलासए - वणिग्ग्रामे चेत्यविशेषः । भग० ५०१, ७५८ । वृतिपलासते - वणिग्ग्रामे चैत्यविशेषः । अन्त० २३ । दूति पलासे - वणिग्ग्रामे चैत्यविशेषः । भग० ४३६, ५३२ । दूमगं - दात्रकं - उपतापकम् । प्रश्न० ४१ । दूमण - दवनं - उपतापः । प्रश्न० २२ । दुर्मनसः - दुष्टमनः कारण उपतापकारिणो वा शब्दादयो विषयाः । सूत्र ६८ । धवलनम् । व्य० द्वि० ७ अ । दूमिय - दूमितं धवलितम् । भग० ५४० । सुधापङ्कधवलि - तम् । सूर्यं ० २६३ । दूमिया - सुकुमारलेपेन सुकुमारीकृतकुडया सेटिकया घवलीकृतकुड्या च । बृ० प्र० ६२ अ । । ठाणा ० ५०१ । दूय - दूतः - अन्येषां राजादेश निवेदक: । भग० ३१९ । दूयत्ता - दूतता । उत्त० ११५ । दूयमानदूयेत् गच्छेद् । आचा० ३८२ । दूर-अत्यर्थम् । प्रभ० ६३ । दूरं विप्रकृष्टम् । भग० १३ । विप्रकर्षः । ज्ञाता० ६ । दूरगती - दूरगति: । भग० १३२ । दूरमूलं - अनादिकम् । भग० २१७ । दूरमोगाढे - दूरमषोऽवगाह्य | ओघ० १२३ । दूरनकूविए- दूरीयकूपिका- भृगुकच्छहरण्यां ग्रामविशेषः । आव० ६६४ । दूरालय - दूरे - सर्वहेय धर्मेभ्य इत्यालयो दूरालयः मोक्षः । आचा० १६६ । दूरुल्ल कूविया - दूरीयकूपिका- भृगुकच्छहरण्यां ग्रामविशेषः । आव० ६६५ । दूरूव - दूरूपं विरूपम् । भग० ४७० । दूर्वा - हरितविशेषः । आचा० २८५ | ( ५४७ ) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूषणं ] दूषणं। बृ० प्र० १३६ अ । दूसं वस्त्रम् | आचा० ३४७ । भग० ७६ । दृष्यं वस्त्रजातिः । जीवा० २८० । वत्थं । नि० चू० प्र० ११८ आ । दूसणा-दूषणा- आम्लरसता । बृ० तृ० १९४ आ । दूसपणयं दूष्यपञ्चकम् । आव० ६५२ । दूसम दूसमा - दुःषमदुःषमः - एकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणः दृष्टिपात - नानाविद्यास्थानं शास्त्रम् । आच० ४१६ । दृष्टिराग:- अप्रशस्तपरिणामविशेषः, प्रावादुकशतानामात्मीयात्मीयदर्शनानुरागो दृष्टिरागः । आव० ३८७ । कालः । भग० २७६ । दूसमसमा - दुःषमसुषमः । भग० २७५ । दूसमा- दुष्ठु समा दुष्षमा दुःखरूपा । ठाणा० २७ । दुःषम: एकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणः कालः । भग० २७६ । दूसरनाम - दुःस्वरनाम यदुदयवशात् स्वर श्रोतॄणामप्रीतये तत् । प्रज्ञा० ४७४ । दूसमसूसमं - दुष्षम सुषमा चतुर्थारक प्रतिभागः ॥ ठाणा० ७७ | दृष्टिवाद-सञ्ज्ञाया द्वितीयो भेदः । सम० १८ । दृष्टिवपर्यासिका - दृष्टे :- बुद्धेविपर्यासिका दृष्टिविपर्यासिका मतिभ्रम इत्यर्थः । सम० २५ । दृष्टिविपर्यासिता - दृष्टे :- बुद्धेर्विपर्यासिता दृष्टिविपर्यासिता मतिभ्रम इत्यर्थः । सम० २५ । दृष्टिविपर्यासितादण्डः - मित्रादेरमित्रादिबुद्धया विनाशनम् आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः दूसरयण- दूयरत्नं- प्रधानवस्त्रम् । जं० प्र० १८६ । दूसह निसड्डू - दुस्सहदत्त | मर० । दूसि - देशी ० दुष्यं - मथितं तक्रम् । प्रज्ञा० ३५९ । दूसिकादि - अच्छिमलो । नि० चू० प्र० १६० आ । दूसियं - दूषितं - कलुषितम् । आव० ८४८ । दूसी - दूषित: - नपुंसकपुरुषयोः नपुंसकस्त्रीवेदयोनिन्दकः । बृ० ० ७ आ । दुसितो वेदो जस्स स दूसी भण्णति, दो वा थोपुरिसवे रज्जति जो सो वा दूसी, दो वा थोपुरिसवेदे सेवति जो सो दूसी, जो थोपुरिसवेदो दूसति सो वा दूसी । नि० चू० द्वि० ३१ अ । दूसेइ - दूष्यं - वस्त्रजातिः । जं० प्र० १२२ । दृतिः - वस्तिः । भग० ८२ । तिकाराः - देयाः । प्रज्ञा० ५८ । हप्तः- मत्तः । उत्त० २४६ । दृढप्रहारि:- कर्मवशकारके दृष्टान्तः । बृ० द्वि० ७० अ । दृढ मित्र: - धनमित्र सार्थवाहस्य मित्रम् । बृ० प्र० ३०८ आ । दृषत् - शिला । उत्त० ६८६ । दृष्टपरमार्थसारः - दृष्टः-- उपलब्धः परमार्थाय मोक्षाय सारः प्रस्तावात्क्षान्त्यादिरूपः प्रधानोपायः परमार्थानां वा ज्ञानादीनां सारः - प्रधानं येनासौ दृष्टपरमार्थसारः । उत्त० ५३२ । दृष्टपाठी - दृष्टः- उपलब्धश्वरकसु भुषादिर्येन स । बोध० ४२, ७४ । [ देव दृष्टसाधर्म्य वत्-त्रिविधानुमाने तृतीयमनुमानम् । भग० २२२ । दृष्टिपथप्राप्तता - चक्षुविषयः, चक्षुः स्पर्शः पुरुषच्छाया इत्येकार्थाः । जं० प्र० ४४२ । | प्रश्न० १४३ । देउल - देवकुलम् । व्य० प्र० २०५ अ । देउलदरिसणं - देवकुलदर्शनं युद्धप्रवेशे चामुण्डाप्रतिमाप्रणमनम् । पिण्ड० १२६ । देउलिअ - देवकुलपरिपालिका वेषमात्रधारिणः । ओघ० ४५ । देउलिया - देवकुलिकाः - यक्षादीनामायतनं तत् पार्श्ववत्तिनो वा मठाः । बृ० प्र० २३५ आ । देवकुलिका | आव० ३५४ । देज्जं देयं - अनाभवद्वातव्यम् । विपा० ३६ । देज्जा - दद्यात् तदग्रतो ढोकयेत् । उत्त० २७२ । देमो- दद्मभवदभिमतेभ्यः । भग० ४७६ । देयडा - देवडा :- हतिकारा: । प्रज्ञा० ५६ । देवंधकार तमस्कायस्य सप्तमं नाम । देवानामपि तत्रोद्योताभावेनान्धकारात्मकत्वाद् देवान्धकारम् । भग० २७० । देवंधगार - देवानामप्यन्धकारोऽसो तच्छरीरप्रभाया अपि तत्राप्रभवतादिति देवान्धकारः । ठाणा० २१७ । देव - भगवत्याः त्रयोदशशते देवप्ररूपणार्थी द्वितीय उद्देशक: । भग० ५९६ । दीव्यन्ति-स्वेच्छया क्रीडन्तीति देवाः । प्रज्ञा० ४३ । देवाः- वैमानिकाः । भग० १३५ । देव:- वैमानिक: ज्योतिष्कः । दश० २४६ । असंयतभाषायां दृष्टान्तः । आचा० ३८६ | देवशब्देन देवा देव्यश्च गृहीता । सम० ६ । भगवत्याः द्वादशशते देवभेदविषयो ( ५४८ ) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवई । अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [देवतमसेति नवम उद्देशकः। भग० ५५२ । वैमानिको ज्योतिको वा। गतः दक्षिणत: देवकुरुनामा विदेहः । जं० प्र० ३१० । बृ० द्वि० २६४ अ । सामान्यः । अनु० २५ । राजा । नंदी० | देवकुरु-वापीनाम । जं० प्र० ३७० । देवकुरं-देवकुरून् । १५१ । देवो गन्धिलविजये वक्षस्कारः । जं० प्र० ३५७ ।। जं० प्र० ३०८ । देवकुरुः द्रहनाम । जं० प्र० ३५५। देव: अकम्पितपिता । आव० २५५ । देवकुरुकूटं सौमनसवक्षस्कारपर्वते चतुर्थ कूटनाम । जं. देवई-देवकी-कृष्णवासुदेवमाता । सम० १५२ । आव. प्र० ३५३ । देवकुरु विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वते तृतीयः कूटः । १६२ । देवकी-वासुदेवमाता । आव० २७२ । आगामिन्या- जं० प्र० ३५५ । देवकुरुः द्रहनाम । जं० प्र० ३०८ । मुत्सपिण्यां एकादशस्य तीर्थकरस्य पूर्वभवनाम । सम० नमिजिनस्य दीक्षाशिबिका । सम० १५१ । देवकुरु:१५४ । देवकी-वसुदेवस्य द्वितीया राज्ञी। उत्त० ४८६ ।। अकर्मभूमिविशेषः । प्रज्ञा० ५० । देवउत्ते-जम्बूद्वीपद्वीपे ऐरावते आगामिन्यामुत्सपिण्यां | देवकुरुकूडे-देवकुरुनाम्ना कूटं विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वते तीर्थङ्करः । सम० १५४ । तृतीयं कूट नाम । जं० प्र० ३५५ । देवउल-देवकुलम् । आव० १६० । देवकुलं-देवस्थानम् । देवकुरुदहे-देवकुरौ द्वितीयो महद्रहः । ठाणा० ३२६ । भग० २३७ । देवकुरोत्तरा- । नि० चू० द्वि० २८ आ। देवकम्म-देवकर्म-पूर्वसाङ्गतिकदेवप्रयुक्ता क्रिया । जीवा० । | देवकुलं-देवकुलं-देवालयः । आव० ५८१ । देवकुलं-वन. १३० । गह्वारम् । ओघ० ५३ । देवकुलं-सशिखरदेवप्रासादः । देवकम्मणा-देवकर्मणा-देवक्रियया देवतानुभावेन शक्स्यु- प्रश्न० ८ । प्रज्ञा० २७ । पघातः स्यादिति शेषः देवश्च कार्मणं च तथाविधद्रव्यसंयोगो | देवकुलानि । आचा० ३६६ । देवकार्मणम् । ठाणा० ३९४ । देवकुलिक । ओघ० १६। देवकम्मविहि-देवकर्मविधि:-देवकृत्यप्रकारः चिन्तितमात्र- देवकुलिया-देवानां वातस्येवोत्कलिका देवोत्कलिका। कार्यकरणरूपः । जं० प्र० २१० । जीवा० २४८। देवकहकह-प्रभूतानां देवानां प्रमोदभरवशतः स्वेच्छाव- | देवकूप:-अमरकूपसदृशमतीवोंडं कूपम् ।व्य० प्र० २२४ अ। चनैर्बोल:-कोलाहलो देवकहकहः । जीवा २४८ । देवगत्ते-देवगुप्तः-परिव्राजकविशेषः । औप० ६१ । देवकहकहते-देवप्रमोदकलकलः । ठाणा० २४५ । देवच्छंदए-देवच्छन्दको देवोपवेशस्थानम् । जं० प्र० ७६ । देवकामा-काम्यन्ते-अभिलष्यन्त इति कामा देवानां कामाः । देवच्छन्दकः । जीवा० २३४ । देवकामा:-दिव्याङ्गनाङ्गस्पर्शादयः । उत्त० १८७ । देवजण्णगो-देवयज्ञः । आव० ६७५ । देवकिब्बिस-देवानां मध्ये किल्बिषा:-पापा अत एवास्पृ. देवजसे-अन्तकृशानां तृतीयवर्गस्य पञ्चममध्ययनम् । श्याश्चण्डालप्रायास्तेषामियं देवकिल्बिषी । ब० प्र० २१२ | अन्त० ३ ।। आ। देवकिल्विषभावनाजनितो देवकिल्बिषः ठाणा०२७४ा देवजाणरहो-देवयानरथः । आव० ७४० । देवकी-वसुदेवपत्नी। सूत्र० ३०८। कृष्णमाता। प्रश्रवणुता | देवजुती-देवानां-सुरागां द्युतिः-दीप्तिः शरीराभरणादि७३ । परग्रामदूतीत्वदोषविवरणे घनदत्तदुहिता । पिण्ड | सम्भवा । युतिर्वा-युक्तिरिष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणा । १२७ । • ठाणा० १४२ । देवकुंडि-देवकुलिका । आव० ४३२ । देवजगो-देवार्यकः । आव० २०० । देवकुरा-दक्षिणेन देवकुरवः । ठाणा० ६६। देवकुरवो | देवज्जय-देवार्यः । आव० १६१ । नाम कुरवः । जं० प्र० ३५४ । उत्तरपूर्वरतिकरपर्वतस्योत्त- देवड-जुगुप्सणीयः । व्य० द्वि० ४१६ आ। देवडिङ्गरः । रस्यामीशानदेवेन्द्रस्य रामरक्षिताया अग्रमहिष्या राज-| व्य० द्वि० २३४ अ । धानी । जीवा० ३६५ । ठाणा० २३१ । मेरोर्जम्बूद्वीप- | देवतमसेति । ठाणा० २१७ । (५४६) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवतमिस्से ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ देवलोए देवतमिस्से-देवतमिश्र-अन्धकारम्, तमस्कायस्याष्टमं देवपव्वते-चतुर्थो वक्षस्कारपर्वतः । ठाणा० ३२६ । नाम । भग० २७० । देवपल्वया-पर्वतविशेषः । ठाणा० ८० । देवताद्वाणं। नि० चू० प्र०४७ अ । हे-देवपरिधः देवानां भयोत्पादकत्वात् तमुकायस्य देवती-देवकी-वसुदेवराज्ञी । अन्त० ५ । एकदशमं नाम । भग० २७१ । देवदत्तः-धाया:-परावर्तितद्वारे निलयश्रेष्ठिपुत्रः । पिण्ड. देवभद्दो-देवभद्रः-देवे द्वीपे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० १०० । अपध्यानाचरिते श्रावकोदाहरणम् । आव० ८३०।। ३७० । देवदत्ता-रोहितकनगरे दत्तसार्थवाहस्य दुहिता । ठाणा० देवभूयं-मरणम् । ठाणा० ५२३ । ५०८ । रोहीतकनगरे दत्तगाथापतिसुता। विपा० ८२ । देवमणि-देवमणिनामा हयानां महालक्षणतया प्रसिद्धः । चम्पानगर्यां गणिका । ज्ञाता० ६२ । गृहपतिसुता, अन्त- जं० प्र० २३७ । कृद्दशासु दुःखविपाकानां नवममध्ययनम् । विपा० ३५। देवमल्ले-देवानां सम्बन्धि माल्यं देवमाल्यं बल्यादि । उदायनदेवीप्रभावतीसत्का दासी सुवर्णगुलिकाऽपरनामा।| आव० २२० । प्रश्न० ८६ । उज्जयिन्यां गणिका । उत्त० २१८ । देवमहाभद्दो-देवमहाभद्रः देवे द्वीपेऽपरार्धाधिपतिर्देवः । वीतभये प्रभावत्या दासी । उत्त० ६६ । देवदत्ता-पुरुष- जीवा० ३७० ।। द्वेषिणी गणिकाविशेषः । दश० १०८ । देवदत्ता-रुपादि- देवमहावरो-देवमहावरः देवे समुद्रेऽपरार्धाधिपतिर्देवः । गुणवती वेश्या। विशे० ४३७ । जोवा ३७० । देवदारे-सिद्धायतनस्य प्रथमं द्वारनाम । ठाणा० २३० । देवयं-देवभावो देवता सैव देवतम् । उत्त० २८२ । देवदालि-फलविशेषः । भग० ८०३ । देवतं-परमदेवता । सूर्य० २६७ । देवदालो-वल्ली विशेषः । प्रशा० ३२ । वृक्षविशेषः । देवयपूआ-देवतापूजा यथाभक्तिबल्याधुपचाररूपा । दश. प्रज्ञा० ३२ । रोहिणी । प्रज्ञा० ३६४ । २४० । देवदालीपुप्फं-देवदालीपुष्पं-रोहिणीपुष्पम् ।प्रज्ञा० ३६४। देवयाभिओगो-देवताभियोगः । आव० ८११ । देवदिन्न-धनसार्थवाहपुत्रः । ज्ञाता० ८३ । देवर-देवा । आव० ३५४ । देवा-पतिलघुभ्राता। देवदिन्ना-देवेन दत्ता:-सुलसापुत्रा:-देवदत्ताः । आव०६७६ । आव० ८२४ । देवदीवो-देवद्वीप:-द्वीपविशेषः । जीवा० ३२१ । देवरई-साकेतपुरेशः, नदीक्षिप्तः । भक्त० । देवदुंदुहिसणाहो-देवदुन्दुभिसनाथः-दिव्यः शब्दविशेषः । देवरन्नेति-देवानामरण्यमिव बलवद्धयेन नाशनस्थानत्वाद आव० ४८८ । यः स देवारण्यमिति । ठाणा० २१७ । देवदुहृदुहुकं-देवानुकरणवचनम् । जीवा० २४८ ।। देवरमणं-साहजनीनगरामुद्यानम् । विपा० ६५ । देवदूसजुयल-देवदूष्ययुगलं-देववस्त्रयुग्मम् ।जीवा० २५३।। सुघोषनगरे उद्यानम् । विपा० ९५ । ० प्र० ४२० । देवराजः-आषायाः प्रामित्यद्वारविवरणे कोशलाविषये देवदेव-देवदेवः । आव० २२१ । शादिः । आव कुटुम्बी, सम्मतसाधुजननः । पिण्ड ६८ । देवराय-देवराज:-इन्द्रः । आव० ५६६ । देवद्रोणी- । नि० चू० तु. ६ । देवति:-देवानामिव ऋद्धिवस्य वा राज्ञ ऋद्धिः देवतिः देवपडिक्खोमे-देवप्रतिक्षोभः, परिक्षोभहेतुत्वात् तमुकायस्य । जं० प्र० २४६ ।। द्वादशमं नाम । भग० २७१ । देवलासओ-देवलासुतः-सर्वकामविरक्तताविषये उज्जयि. देवपलिक्खोमेति-कृष्णराजेरष्टम नाम । ठाणा० ४३२ । नीपतिः । आव० ७१४ । देवपलिहे-कृष्णराजेः सप्तमं नाम । ठाणा. ४३२। देवलोए-देवलोक:-भवनपत्यावाश्रयरूपः ।०प्र० १२७॥ (५५०) ७६०,२२१ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवलोग ] देवलोग देवलोक :- देवाश्रयः । भग० ३७ । देवलोग रिग्गहिय-देवलोक :- भवनपत्याद्याभयरूपस्तथाक्षेत्र स्वाभाव्यतस्तद्योग्यायुर्बन्धनेन परिगृहीतो येन स देवलोकपरिगृहितः । जीवा० २६४ । देववशे-देववर : - देवसमुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ ३७० । देववूढा - देवानां व्यूहः सागरादिसाङ्ग्रामिकव्यूह इव यो दुरधिगम्यत्वात् स देवव्यूहः । ठाणा० २१७ । देव हे देवानां दुर्भेदत्वाद् व्यूह इव चक्रादिव्यूह इव देव [ देवि भग० ५८५ । वैमानिका ज्योतिष्कवैमानिका वा । ठाणा ० १०४ । देवाः देवासुराः । दश० २२२ । आराध्याः क्रीडाकान्त्यादियुक्ता वा । भग० ५८५ । आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां देवाइदेवा देवान् शेषानतिक्रान्ताः पारमार्थिकदेवत्वयोगादेवाः देवातिदेवाः । भग० ५८५ । देवानंदे - जम्बूद्वीपे ऐरवतक्षेत्रे चतुर्विंश: तीर्थंकरः । सम० १५४ । देवानंदा देवानन्दा श्रीमहावीर - प्रथममाता । अन्त ६ । भग० २१८, ५५७ | चतुर्दशरात्रीनाम् । जं० प्र० ४६१ । देवानन्दा पञ्चदशी रात्रिनाम । सूर्य० १४७ । निरय० ३५ देवाणुप्पिआ - देवानुप्रिया ऋजुस्वभावाः । जं० प्र० २३२॥ देवान्- स्वामिनोऽनुकूलाचरणेन अनुप्रीणन्ति इति देवानुप्रियाः । जं० प्र० १६१ । व्यूहः । भग० २७० । देवशर्मा - द्रव्यपूर्तिनिरूपणे समिल्लपुरे यक्षपूजकः । पिण्ड० ८३ । योगद्वारविवरणे कुलपतिः । पिण्ड० १४४ ॥ देवशर्मा - आघाया - अभ्याहृतविवरण शालिग्रामे मङ्खः । पिण्ड० ६७ । देवापिए - देवानुप्रियाः वन्द्यपादाः । जं० प्र० २०३ । देवसंनिवार्य - देवानां संनिपातः - समागमो रमणीयत्वाद् देवाणुपिया - प्रियामन्त्रणम् । भग० १०१ । देवानुप्रियः यत्र स तथा तं देवसन्निपातः - देवसमागमः । भग० १२७ । देवसंमो - देवशर्मा ब्राह्मणविशेषः । आव० ४२८ देवसन्नत्ती - देवसंज्ञप्तेः - देवप्रतिबोधनाद्या सा |ठाणा० ४७४ | देवसन्निपाते - देवसन्निपातो देवसमवायः । ठाणा० २४५ | | देवसमुद्दो- देवसमुद्रः । जीवा० ३२१ । सरलस्वभाव: । औप० २४ । देवातिदेवा देवान मध्ये अतिशयवन्तो देवाः देवाधिदेवा:अर्हन्तः । ठाणा० ३०३ । देवसम्म - जंबूद्वीपे ऐरवतक्षेत्रे अस्यामवसर्पिण्यां द्वादश: तीर्थङ्करः । सम० १५३ । देवानंदा - ऋषभदत्त ब्राह्मणस्य भार्या । आचा० ४२१ । निरत्यपरनाम पञ्चदशी रात्रिनाम । जं० प्र० ४९२ | ऋषभदत्त ब्राह्मणपत्नी । सम० ८६ । आव० १७७ । देवानुपूर्वी - आनुपूर्वीविशेषः । प्रशा० ४७३ । देवानुभावं - उत्तम वैक्रियकरणादिप्रभावम् । सम० १८ । देवसिओ - देवसिकः । आव० ७७८ । देवसिणाए - देवस्नातक : देवश्रेष्ठो बहूनामुपजीव्यः । सूत्र० देवामेव-देवानेव भवनवास्यादीनेव । ठाणा० ३८४ | ३२६ । देवायणो देवसेण नृपतिविशेषः । भग० ६८८ ठाणा० ४५६ ॥ देवस्सुए - जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां षष्ठः तीर्थंङ्करः । सम० १५३ ॥ । नि० चू० प्र० १२८ श्र । देवान्ने - देवारण्यं अन्धकारम् । तमः कायस्य नवमं नाम । भग० २७० । देवा - दिवं - आगासं तंमि जे वसंति ते । दश० चू० ८ वैमानिकज्योतिष्कलक्षणाः । ठाणा० ४६५ । ज्योतिष्कवैमानिका: । उत्त० ४३० । दीव्यन्ति इति देवा: वैमानिक ज्योतिष्काः । ठाणा० २२,१४२ । दीव्यन्ति देवावा संतरा - देवावासविशेषाः । भग० ४६६ देवाहिदेवा - देवानां इन्द्रादीनामधिका देवाः पूज्यत्वाद्देवाधिदेवाः । सम० ४३ । देवानामधिकाः पारमार्थिकदेवत्वयोगाद् देवा देवाधिदेवाः । भग० ५८३ । देवाहिवई - देवाधिपतिः देवानां स्वामी । उत्त० ३५० । देविदामरभवणं- देवेन्द्रस्येव अमरभवनं देवेन्द्रामरभवनम् । आव० ३७२ । क्रीडन्तीति देवा भवनपत्यादयः । यदि वा दीव्यन्ते स्तूयन्ते जगत्त्रयेणापीति अर्हन्तः । उत्त० ६१६ । दीव्यन्ति क्रीडां कुर्व्वन्ति दीव्यन्ते वा स्तूयन्तं वाऽऽराध्यतयेति देवाः । | देवि - भगवत्याः दशमे शते चमराद्यग्रमहिषी प्ररूपणार्थः ( ५५१ ) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देविले ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ देसधम्मो पञ्चम उद्देशकः । भग० ४६२ । । नि० चू० द्वि० ११२ अ। देशः-नानाव्रीहिकोद्रवकङ्गदेविले-देविलः ऋषियः शीतोदकबीजहरितादिपरिभोगा- गोधूमादिनिष्पत्तिभाक । आव० ८३७ । देश:-प्रदेशः । देव सिद्धः । सूत्र० ६५ । सूर्य०१८ । देश:-लघु । आव० ६३६ । हस्तशतप्रमितं देवी-देविल: अरजिनमाता। आव० १६० । अरचक्रिमाता क्षेत्रम् । पिण्ड० १०५ । देश:-भूभागः । आव० ७७४ । । आव० १६१ । समस्तान्तःपुरप्रधाना भार्या सकलगुण- दिश्यते-प्रदेशापेक्षया समानपरिणतरूपत्वेऽपि देशापेक्षायां धारणात् । सूर्य० २ । अग्रमहिषी । उत्त० ४५० । असमानपरिणतिमाश्रित्य विशिष्टरूपतया विवक्ष्यते-उपकृताभिषेका पदराज्ञी। जं० प्र०१४ | गृहिणी । उत्त० ४८४ दिश्यत इति देश:-त्रिभागचतुर्भागादिः । उत्त० ६७२ ॥ देवुक्कलिताते-देवोत्कलिका देवलहरिः । ठाणा० २४५। देश:-प्रस्तावः अवसरः विभागः पर्यायः । विशे० ८३७ । देवुद्देसए । भग०६०१। | देश:-द्रव्यदेशः । भग० ८५ । भूमेमहत्खण्डम् । भग देवेन्द्रावग्रहः-अवग्रहस्य प्रथमो भेदः । आव० १५६ ।। ३८१ । देशास्तु लघवः भागाः । जं० प्र० १४४ । आचा० १६४ । देसकंखा-देशकाक्षा एक दर्शनं काडक्षति दिगम्बरदर्शनादि देवोवबाए-जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आगामिन्यामुत्सपिण्यां । । दश० १०२ । त्रयोविंशः तीर्थकरः । सम० १५४ । देसकहा-लाटादिदेशसम्बन्धेन स्त्रीणां वर्णनं देशकथा । देशकाङ्क्षा-एकं दिगम्बरादिदर्शनाभिकाङ्क्षते।प्रज्ञा० ६० प्रश्न० १३६ । देशस्य जनपदस्य कथा देशकथा । ठाणा० देशकालप्रलापी- । ६० प्र० १२४ था। २०६ । आव० ५८१ । देशकालाव्यतीतं-देशकालव्यतीतत्वं । प्रस्तावोचितता, देसकालंमि-देशकाले भिक्षावेलायां प्राप्तायां ।ओघ० १५५५ चतुर्दशो वचनातिशयः । सम० ६३ । देसकाल-देशकालः देश: प्रस्तावोऽवसरो विभाग: पर्यायः देशदर्शनावरणीयं-चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणीयम् । इत्यनान्तरं अभिष्टवस्त्ववाप्स्यवसर: कालः । दश है। ठाणा. १७॥ प्रस्तावः । ज्ञाता० १३६ । देशकालः । आव २०३ । देशमूलगुणप्रत्याख्यानम्-पञ्चाणुव्रतानि । आव०८०४ । देशकाल: देशरूपः कालः देशकालः अभिष्टवस्त्ववाप्स्यदेशशङ्का-देशविषया शङ्का । आव० ८१४ । समाने | वसरकालः । विशे० ८३७ । जीवत्वे कथमेको भव्योऽपरस्त्वभव्य इति शङ्का । दश० | देसग्गं-देशान्तम् । ज्ञाता० १६५ । १०१ । प्रज्ञा० ६० । देसजागी-अवराहेण पडिसेवित्तण जाणदंसणचरित्ताण देशा: । भग० ४१२ । । किचि धरति सा वि देसच्चागी । नि० चू० प्र० १०० अ । देशावधिः-सम्बद्धावधिः । विशे० ३६६ । | देसच्छंदकहा-देशे छन्दो-गम्यागम्यविभागः तस्य कथा देशिककुटी-यच्च बहुनामागंतुकानां जनानां स्थानम् । बृ० देशच्छन्दकथा । ठाणा० २१० । प्र० ६३ अ । देसजई-देशयतिः श्रावकः । आउ० । देशीभाषा-देशभेदेन वर्णावलीरूपा । ज्ञाता० ४२। देसण्णाणे-देशाज्ञान-विवक्षितद्रव्यं देशतो यदा न जानाति देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानं-गुणवतत्रयशिक्षाबतचतुष्टयभेद- देशाज्ञानमकारप्रश्लेषात् । ठाणा० १५४ । भिन्नम् । आव० ८०४ । सतेणो-सदेसपरदेसे वहरंतो। नि० चू० द्वि० ३८ आ। देस-षड् भागः । वृ• तृ० ८५ आ। देश:-खण्डांशः ।। -हत्थसता आरतोदेसदेसो। नि० चू०प्र० १८७ आ भग० २७८ । देशे-स्थाने । जं०प्र० ३३६ । देश:-मण्डलम् | जीवा० १४० । दशभागः । १० तृ० ८५ आ । देशदेश:। पिण्ड० १६२ । हत्थसयं । नि० चू० प्र० १८७ आ । हस्तशतादारावस्तशतमध्यदेशः । पिण्ड० १०५। द्वेष्य:-अप्रीतिकरः । विशे० ६२५ । देशोऽवसरः। विशे० देसधम्मो-देशधर्म: देशाचारः । स च प्रतिनियत एवं ८५२ । एक्का पसती दो वा तिग्णि वा पसतीतो देसो भण्णति नेपथ्यादिलिङ्गभेदः । दश० २२ । (५५२) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देसनाणावरणिज्जे ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [ देसोवघाय० देसनाणावरणिज्जे-देशज्ञानावरणीयं देशं ज्ञानस्याऽभि- देसारक्खो-देशारक्षकः-महाबलाधिकृप्तः । ६० तृ० ३३ म । निबोधिकादिमावृणोतीति मत्याद्यावरणं तु घनातिच्छा- देसावगासियं-देशे-दिग्वतगृहीतस्य दिक्परिमाणस्य विभागे दितादित्येषत्प्रभाकल्पस्य केवलज्ञानदेशस्य कटकूट्यादि- अवकाश:-अवस्थानमवतारो विषयो यस्य तद्देशावकाशं रूपावरणतुल्यमिति देशावरणम् । ठाणा०६७ । तदेव देशावकाशिक-दिग्वतगृहीतस्य दिक्परिमाणस्य प्रतिदेसनेवत्थकहा-देशे नेपथ्यं स्त्रीपुरुषाणां वेषः स्वाभाविको दिनं सक्षेपकरणलक्षणं सर्वव्रतसङ्क्षपकरणलक्षणं वा । विभषाप्रत्ययश्च तस्य कथा देशनेपथ्यकथा । ठाणा० ठाणा० २३७ । दिग्वतग्रहीतदिक्परिमाणस्यैकदेश: अंशस्तस्मिन्नवकाश:-गमनादिचेष्टास्थानं देशावकाशस्तेन देशबंध-द्वितोयादिषु समयेषु सानु गृह्णाति विसृजति चेत्येवं निवृत्तम् देशावकाशिकम् । आव० ८३५ । देशबन्धः । भग० ४०० । देसि-देशविशेषः । बृ० द्वि० २०३ अ । देसभाए-देशभाग:-विभागः । अनुत्त० ६ । देसिअत्तं-देशिकत्वं-निपूणमार्गज्ञत्वम् । आव० ३८३ । देसमाग-देशभाग:-देशविशेषः। जीवा० १५६ । देशभागाः देसिआ-दशिता देशिता वा । दश० १८० । देशविशेषाः । प्रज्ञा० ८६ । देशभागाः देशा एव । देसिए-देशिता देशनं देशः कथनमित्यर्थः तदस्यास्तीति औप० ५। देशिकः । आव०६६ । देशनं देशः कथनं सोऽस्याऽस्तीदेसयं-देशकं प्रवर्तकम् । प्रभ० ११५ । तिदेशिकः । विशे० ६१५ । देसरागाणि । आचा० ३६३ । देसिओ-देशिक:-निपुणमार्गज्ञः । आव० ३८४ । देशिक: देसविकप्पकहा-देशे विकल्पः-सस्यनिष्पत्तिः वप्रकूपादिदेव- अग्रयायो । आव० ७७५ । कुलभवनादिविशेषश्च तस्य कथा देविकल्पकथा । देसिक्कदेसविरइ-देशकदेशविरतिः-देशः-स्थूरप्राणातिपातः ठाणा० २०९ । एकदेशः तस्यैव यथाहश्यवनस्पतिकायाद्यतिपातयोविदेसवित्थारणंतए-क्षेत्रस्य यो रुचकापेक्षया पूर्वाद्यन्यतर- रतिः-निवृतिः । आव० ७८ ।। दिग्लक्षणो देशस्तस्य विस्तारो विष्कम्भस्तस्य प्रदेशापेक्षया देसितो-परदेशवासी । नि० चू० प्र० ३४८ अ । . अनन्तकं देशविस्तारानन्तकम् । ठाणा० ३४७ । देसिनेवत्थं-देशीनेपथ्यम् । प्रज्ञा०६६ ।। देसविरए-देशविरतः-संयतासंयतः । प्रज्ञा० ३६२। देसिय-देवसिकं-दिवसनिर्वृत्तं प्रतिक्रमणम् । आव० ५६३ । देसविहिकहा-देशे मगधादी विधि:-विरचना भोजनमणि- देवसिकम् । उत्त० ५४५ । देशिकं-बृहत्क्षेत्रव्यापि । भूमिकादीनां भुज्यते वा यद्यत्र प्रथमतयेति देशविधि आचा० ३३३ । स्तत्कथा देशविधिकथा । ठाणा० २०९ । देसिल्लगं-देशविशेषोद्भवम् । ६० द्वि० २४१ आ । देससंका-देशशङ्का तु कि विद्यन्ते अपकायादयो जीवाः ?।। देसी-देशीत्यङ्गष्टः । व्य०.द्वि० २८६ अ । देशविशेषः । आचा० ४३ । बृ० द्वि० २२८ अ । देससामंतोवणिवाइया-देशसामन्तोपनिपातिकी प्रेक्षकान देसीओ-देशोतो देशीभाषया । विशे० २४ । प्रति यत्रकदेशेनागमो भवत्यसंयतानां सा क्रिया । आव० | देसेइ-दर्शयति । ज्ञाता० १६६ । ६१३ । देसेण-विवक्षितशब्दसमूहापेक्षया देशेन-देशतः काश्चि. देससिणाण-देशस्नानं अधिष्ठानशौचातिरेकेणाक्षिपक्ष्मप्र दित्यर्थः : ठाणा० ४७२ । क्षालनम् । दश० ११६ । देसेण सव्वं-देशेन च सर्वेण च यत् प्रवृत्तं देशेन सर्वम्, देसा-आदेशाः । सूत्र. २६७ । दशेन-स्वावयवेन सर्वत:-सर्वात्मना। भग०८४ । देसारक्खिओ-चोरोदरगिकः । नि० चू० प्र. १९५/ देसोवघायसमुवाणकिरिया-देशोपघातसमुदानक्रिया यत्र आ । विषयारक्षिकः । नि० चू० प्र० १७६ मा । । देशोपघातेन समुदानक्रिया नियते, यथा कश्चित्कस्यचिद् (अल्प०७०) (५५३) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देसोहि ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ दोणमुहाति इन्द्रियदेशोपघातं करोतीति । आव० ६१५ । | दोगच्चं-दारिटु । नि० चू०प्र० ८१ आ । दौर्गत्यम् । देसोहि-अवधिप्रकाश्यवस्तुनो देशप्रकाशी अवधिर्देशावधिः । । __ आव० ३८५ । सम० १४५ । दोगुंछी-जुगुप्सी । उत्त० ८६ । जुगुप्सते आत्मानमाहारं देसोही-देशावधिः सर्वजघन्यो मध्यमः । प्रज्ञा० ५३८ ।। विना धर्मधुराधरणाक्षममित्येवंशोलो जुगुप्सी । उत्त० देहंतर-देहान्तरः देहस्यावस्थाविशेषः। आचा० १३७ ।। देहंबलिया-देहबलिमित्येतस्याख्यानं देहबलिका । ज्ञाता० दोगुंदगो-त्रायस्त्रिंशाः । उत्त० ४५१ । २००। दोच्च-चोरातिभयं । नि०चू०प्र० १३७ आ। चौरादिभयं । देह-आहारपरिणतिजनित उपचयः । अनु० २० । देहः बृ• द्वि० २२४ आ। अभेदविवक्षया देही । भग० २६३ । दोच्चंग-द्वितीयाङ्ग मात्रकः । व्य० द्वि० १७४ आ। देहए-देहति पश्यति । सूत्र० ३३ । तीमनं-द्रवितरसम् । ओघ० १६२ । देहजड्डुसुद्धी-देहजाड्यशुद्धिः श्लेष्माविप्रहाणतः । आव० दोच्चंपि-द्विरपि । आव० २६२ । दोच्चंपिउग्गह-केचिदाचार्या गृहस्थविषयं । द्वितीयदेहपलोयणा-देहप्रलोकनं आदर्शादानाचरितम् । दश० मविग्रहमिच्छन्ति । बृ० द्वि० ८६ अ । ११७ । दोच्चा-भयम् । बृ० द्वि० १०६ । भयेन । ओघ० ५२ । देहप्परिणाम-देहपरिणाम:-प्रतिविशिष्टा शरीरशक्तिः । दोच्चासतराइंदिया-नवमी भिक्षुप्रतिमा । सम० २१ । आचा० ५० । दोच्चोग्गहो-ततो अम्हे पुणो आगंतु तुम्भे दोच्चपि उग्गहं देहबलिया-देहबलिका वृत्तिविशेषः । विपा० ७४ । | अणुण्णवेस्सामो, एसो दोच्चोग्गहो । नि० चू० द्वि० आव० ३०४ । १७० आ । पुवं ।। डहारितो दत्तो इदाणि णिदेज देहमाणी-प्रेक्षमाणा । भग० ४६० । देहित्ति, एस दोच्चोग्गहो। नि० चू० १७७ आ । देहलाघव-शरीरलाघवं यन्नातिकृशो जातिस्थूलः शरीरेण । दोजिइ-धोक्ष्यति । विशे० ६३५ । व्य० द्वि० १०२ आ। दोण ज्ञाता० । २०८ । देहली- । उत्त०६०७ । व्य० प्र० ११३ आ। दोणमुह-दोणमुखं प्रायेण जलनिर्गमप्रवेशम् । जीवा० ४०। देहव्वावी-देहव्यापी शरीरमात्र व्याप्तु शीलमस्येति द्रोणमुखं-बाहुल्येन जलनिर्गमप्रवेशम् । प्रज्ञा० ४८ । आत्मा । दश० १३३ । जोवा० २७६ । जलस्थलनिर्गमप्रवेशम् । आचा० २८५। देहाः-पिशायभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । जलपयस्थलपथोपेतम् । अनु० १४२ । द्रोण्यो-नावो देहाणि-देहोदानीम् । उत्त० ३८१ । मुखमस्येति द्रोणमुखं जलस्थलनिर्गमप्रवेशम् । उत्त०६०५॥ देही-जीवः । अनु० २४४ । द्रोणमुखं जलस्थलपथयुक्तम् । प्रश्र० ६४ । जलेण थलेण दैवविनियोगः-कर्मव्यापारः । नंदी० ७२ । दोसुवि मुहं दोणमुहं । नि० चू० प्र० २२६ अ । जलदोउयरियं-जलोदरिकम् । विपा० ७४ । पथेन स्थलपयेन द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां भाण्डमागच्छति दोकिरिता-द्वे किये समुदिते द्विक्रियं तदधीयते तद्वेदिनो | तदुद्वयोः पथोर्मुखमिति निरुक्त्यत्वात् द्रोणमुखम् । बृ०प्र० वा द्वैक्रियाः कालाभेदेन क्रियाद्वयानुभवप्ररूपिणः । ठाणा० १८१ आ । द्रोणमुखः । सूत्र० ३०६ । जलपथस्थल४१० । पथोपेतम् । औप०७४ । भग० ३६ । ज्ञाता० १४०। दोकिरिया-द्वे किये शीतवेदनोष्णवेदनादिस्वरूपे एकत्र समये दोणमुहमारी-मारीविशेषः । भग० १६७ । जीवोऽनु भवतीत्येवं वदन्ति ये ते द्वे क्रियाः। औप० १०६। दोण मुहरूवं । भग० १६३ । दोक्खरो- द्वयक्षर:-दासः । ब्य० द्वि० ८७ आ । दोगमुहाति-दोणमुखानि येषां जलस्थलपथावुभावपि स्तः। . Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोणमेह ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [ दोसिणामा ठाणा० ८६ । गुणवत्यपि निर्गुणोऽयमित्यादि । ठाणा० ४८६ । द्वेषणं दोणमेह-द्रोणमेघः । ठाणा० ८ । प्रमाणजलवर्षीमेघो द्रोण- द्वेषः दूषणं वा दोषः, स चानभिव्यक्तक्रोधमानलक्षणभेदमेघः । विशे० ६२६ । स्वभावोऽप्रीतिमात्रम् । ठाणा० २६ । दोषः-रागादिकः दोणाचार्यः-आचार्यविशेषः । ज्ञाता० २५४ । पूर्वकृतं पापं वा द्वषो वा। भग०१०० । अप्रीतिमात्रम् । दोणा-द्रोण:-चतुःसेतिकाप्रमाणः । जं० प्र० २४४ । ज्ञाता० ७७ । दूषयति विशुद्धमप्यात्मनं विकृति नयतीति द्रोण:-आढकचतुष्टयनिष्पन्नः । अनु० १५१ । दोष: कर्म । उत्त० ३७३ । आत्मनः परस्य वा दूषणम् । दोणि-द्रोणी नौः । प्रश्न० ८। भग० ५७२ । दोषः-दोषवान् । उत्त० ३०५ । दोष:दोद्धियं-तुम्बं । नि० चू० प्र० २९६ आ । दूषणः । ज्ञाता० २०५ । दोद्धियक-तुंबघटितं । नि० चू० प्र० १२३ अ । दोसकलिया-द्वेषयुक्ता । ज्ञाता० १६७ । दोब-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । दोसट्रियरुवज्झाया-दोषाःत्तरोपाध्यायौ । आव० ४६५ । दोभासिअ-द्वैभाषिकः । आव० ६१४ । दोसनिस्सिआ-द्वेषनिसृता,मृषाभाषाभेदः । आव० २०६ । दोभासिआ । सम० २, २१ ।। द्वेषनिसृता यत्प्रतिनिविष्टस्तीर्थकरादीनामप्यवर्ण भाषते । दोमणंसिया-दौर्मनस्य-शोकाद्यस्ति यस्याः सा दौर्मनस्यिका | प्रज्ञा० २५६ । तद्वा सञ्जातमस्या इति दौर्मनस्यिता। ठाणा० ३१३।। दोसपउस-दोषप्रदोषाः दोषाः इहैव मनस्तापादयः प्रदोषाश्च दोमासिएसु- । आचा० ३२७ । परत्र नरकगत्यादयः । उत्त० २६० । दोमिलिवी-लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । दोसमहलो-द्वेषमलिनः द्वेषाकान्तमूत्तिः । आव० ५८५ । दोर-सूत्रदवरक म्। आव० ४७४ । दवरकः । ओघ० ६२ । दोसमासकयं-द्वाभ्यां द्विसङ्ख्याभ्यां माषाभ्यां पञ्चरक्तिदोरजाणि । आचा० ३७७ ।। कामानाभ्यां क्रियते-निष्पाद्यत इति द्विमाषकृतम् । उत्त० दोला-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । २६७ । दोवई-द्रोपदो-द्रुपदनुपस्य पुत्री। ज्ञाता० २०७ । प्रशा० दोसवत्तिया-द्वेषप्रत्ययिकी, विंशतिक्रियामध्ये एकोनविं. शतितमा । आव० ६१२ । दोवारिए-दौवारिकः-प्रतीहारः राजदौवारिको वा। औप० । दोसा-पारलौकिका अपायाः बृ० द्वि० २०४ आ । १४ । दोसापुरिया-लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । दोवारिय-दौवारिकः, प्रतीहारः । भग. ३१८ । दोसिए-दूष्यं पण्यमस्येति दौषिकः दूष्यव्यवहारी । अनु० दोवारिया-बारवाला । नि० चू० प्र० २७२ अ । दारे १४६ चेव णिविढा रक्खंति । नि० चू० प्र० २७१ अ। दोसिणं-पर्युषितम् । ओघ० १०४, २५३ । दोषपद:-अपराधस्थानः । उत्त० २९० । दोसिणा-चन्द्रिका । प्रश्न० १६३ । दोस-द्वेष:-अप्रीतिलक्षणः । आव० ८४८ । दोष:-मालिन्य-दोसिणाति-ज्योत्सना । ठाणा० ८६ । करणम् । औप०१६ । दोषः रोगादिकः । सूर्य. २६७। दोसिणापक्खो-ज्योत्सनापक्षः शुक्लपक्षः। सूर्य० २३४ ॥ दोष:-मालिन्यकारिणी चेष्टा । जीवा० २७७ । द्वेषः- दोसिणाभा-अष्टमोरक्षेपस्य द्वितीयमध्ययनम् । ज्ञाता० अप्रीतिः । आव० ५९७ । अनभिव्यक्तक्रोधमानस्वरूप- २५२ । सूर्यस्य द्वितीयाग्रमहिषी । ठाणा० २०४ । मप्रीतिमात्र द्वेषः । भग..। दोषः गुणेतरः स ज्योत्सना भा चंद्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य द्वितीयाऽप्रमहिषी। चातितादिदोषसामान्यापेक्षया विशेषः । ठाणा० ४६२ ।। जीवा० ३८४ । भग० ५०५ । चन्द्रस्य द्वितीयाग्रमहिषी। देषः। औप० ७९ । अन्यथास्थिते हि वस्तुन्यन्यथा ठाणा० २०४। ज्योत्सना भा चन्द्रस्य द्वितीयाऽयमहिषी। भाषणं दोषः । प्रज्ञा० २५५ । द्वेषे निश्रितं मत्सरिणां । जं.प्र. ५३२ । (५५५ ) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोसिया आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ द्रव्योपक्रमः दोसिया-कार्यभेदविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । वस्त्रवणिजः । | द्रव्यगर्दा-मिथ्यादृष्टेरनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेश्च द्रव्यगर्दा, नि. चू० प्र० २४४ अ । वत्थाणिविक्कया दोसिया। अप्रधानगर्हेत्यर्थः । ठाणा० ४३ । नि० चू० तृ० ४५ अ । दौषिकाः । व्य० द्वि० ३४० आ। द्रव्यचूडा-व्यतिरिक्ता सचित्ता कुर्कुटस्य अचित्ता मुकुटस्य दोसिल्ल-दोषयुक्तः । भक्त०।। चूडामणिः मिश्रा मयूरस्य । आचा० ३२० ।। दोसीण-पर्युषिते । ओघ० ६७ । नि० चू० द्वि० ७६ | द्रव्यतीर्थता-द्रव्यतो नद्यादीनां समोऽनपायश्च भूभागो अ । दोषीनं-मध्याह्नम् । ओष० १४८ । दोषान्नं रात्रि- भौतादिप्रवचनं वा । ठाणा० ३३ । पर्युषितम् । प्रभ० १६३ । पर्युषितम् । आव० २२०, द्रव्यनिवृत्तिः-हलकृष्टादिनिवृत्तिः । आव० ५५३ । ४३२ । पर्युषितान्नम् । आव २०१। द्रव्यप्रत्ययः-द्रव्यं च तत्प्रत्याय्यप्रतोतिहेतुत्वात् प्रत्ययश्च दोसीणवेला-प्रभातवेला उषःकालः । दश० ३८।। द्रव्यप्रत्ययः-तप्तमाषकादिः । आव० २८० । दोसीणा- ।नि० चू० प्र० १४० आ। द्रव्यप्रत्युपेक्षणा-वस्त्रपात्राापकरणानामनशनपानाद्याहा. दोहणं-दोहनम् । आव० २२६ । राणं च चक्षुनिरीक्षणरूपा । ठाणा० ३६१ । डगो-गोवीओ जत्थ दुझंति सा। नि० चू० प्र० द्रव्यप्राणा-इन्द्रियादयः । प्रज्ञा० ७ । १५६ प्र। द्रव्यमहद-अचित्तमहास्कन्धो दण्डादिकरणेन यश्चतुभिः ल-दोहदो-मनोरथः। ज्ञाता. २५ । समयः सकललोकमापूरयति । उत्त० २५५ । दोहारच्छेयणेणं-द्वी हारी-भागो यत्र छेदने द्विधा वा | । आचा. ८८। कार:-करणं यत्र तद द्विहारं द्विधाकारं वा । भग द्रव्यलेश्या-कृष्णादिद्रव्याण्येव । ठाणा. ३२ । जीवस्य शुभाशुभपरिणामरूपा । वृ० प्र० २५६ आ । दौर्भाग्यम् । जीवा० २७६ । । द्रव्यश्रुतम्-अक्षरश्रुतम् । नंदी० १८८ । दौवारिक:-प्रतिहारः । उत्त० ३५४ । नंदी० ७३ ।। द्रव्यसुप्ता:-निद्राप्रमादवन्तो द्रव्यसुप्ताः । आचा० १५२ । धुतकारः । नंदी० १५७ । द्रव्यस्थानम्-आकाशम् । उत्त० ४२२ । द्यतव्यसनं-यत्त्तु द्युतविनोदेऽनवरतं दीव्यते तत्। बू०प्र० द्रव्यानुयोगः-अहंदचनानुयोग तृतीयो भेदः-पूर्वाणि सम्म१५७ अ। त्यादिकश्च । आचा० १ । द्रमकः-नष्ठुर्यवाचकः शब्दः दश० २१५ । रडूः। नंदी द्रव्यावधिमरणं-यानि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयू:कर्म१५६ । ग्राममाश्रितस्तुन्दपरिभूजः । आचा० ३१४ । दलिकान्यनुभूय म्रियते, यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति द्रमिला-देशविशेषः । व्य० द्वि० २८ अ । तदा तद् द्रव्यावधिमरणम् । उत्त० २३२ । द्रवं-पानकम् । ओघ० १०१ । द्रव्यावोचिमरणं-यनारकतिर्यग्नरामराणामुत्पत्तिसमयात् द्रवकारिका:-परिहासकारिकाः । ज्ञाता० ४४ । प्रभृतिनिजनिजायुःकर्मदलिकानामनुसमयमनुभवनाद्विचटनं द्रविडदेशजा:-द्रविड्यः । जं० प्र० १४१ । तत् । उत्त० २३१ । द्रव्यं-ओदनादिकम् । भग० ६६३ । द्रव्यास्तिकः-नयविशेष: । सम० ४२ । द्रव्यकायः-द्रव्यमाश्रित्य कायः । आव० ७६७ । द्रव्येन्द्रियाणि-निर्वत्त्युपकरणरूपाणि । प्रज्ञा० २३ ।। द्रव्यकात्स्य म्-अशेषपर्याययुक्तम् । उत्त० ५५७ ।। द्रव्योपक्रमः-द्रव्यस्य नटादेः कालान्तरभाविनाऽपि पर्यायेण द्रव्यकेतनं-चालिनी परिपूर्णकः समुद्रो वेति । आचा० सहेदानीमेवोपायविशेषतः संयोजनं, द्रव्येण धूतादिना द्रव्ये भूम्यादौ द्रव्यतः घृतादेर्वा उपक्रमः । अनु० ४५ । द्रव्यक्षणः-द्रव्यात्मकोऽवसरो । आचा. १०६ । सचेतनाचेतनमिश्रद्विपदचतुष्पदापदरूपस्य द्रव्यस्य परिकर्म द्रव्यक्षुल्लक:-परमाणुः । दश० १०० । विनाशश्चेति । ठाणा० ४ ! (५५६) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्योधः] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ द्वघद्धं द्रव्योधः-नदीपूरादिकः । आचा० १२४ । सलिलप्रवेशः। द्वार विधिः-द्वाराणां विधानम् । आव० ८६ । आचा० ४३१ । द्वारस्थगनं कपाटमाश्रित्य । आचा० ३६६ । द्राक्षापानकं-पानकविशेषः । सूर्य० २६३ । द्वारिका-कृष्णवासुदेवराजधानी । प्रश्न ८८ । दारिद्रयम्। नंदी० १५५ । द्वित्तिकं । उत्त० ३१२ । द्रुतद्रुतगन्तृत्व-असमाधिस्थानं दवदवः । आव० ६५४ । द्विखुर:-चतुष्पदभेदः । सम० १३५ । द्रुतचारित्वं-प्रथममसमाधिस्थानम् । प्रश्न० १४४ । तुः द्वितीयपदे । प्रज्ञा० २५ । द्रवति तांस्तान् पर्यायान् गच्छति इति द्रुः । विशे० २५ । द्वितीयावग्रहः-गृहस्थहस्ताद वस्त्रं गृहीत्वा गुरुमूलमागम्य द्रुतनामा-द्वाविंशतितमो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ । तेषां समर्प्य यदि ते तस्यैव प्रयच्छन्ति तदायत्ते भूयोऽप्य. द्रतविलम्बितं-ऋषभसिंहललितहयगजविलसितमत्तहयगज- वग्रहमनुज्ञाप्यन्त एष द्वितीयावग्रहः । बृद्वि०५६अ। विलसिताभिनयरूपं एकादशं नाट्यम् । जं० प्र० ४१६ । द्विदैवतं-विशाखाया: नाम । जं० प्र० ४६६ । द्वाविंशतितमं नाट्यम् । ४१७ । द्विधा-रागद्वेषप्रकार द्वयेनात्मपरनिमित्तमैहिकामुष्मिकार्थ द्रतविलम्बितनामा-चविंशतितमो नाट्यविधिः। जीवावा । आचा० १६९ । २४७ । द्विधातश्चक्रवालं-द्वयो परस्परभिमुखदिशो यम् । नाट्ये दुपद:-काम्पिल्यपुरपतिः द्वौपदीपिता । प्रश्न० ८७ । प्रकारः । जं.प्र. ४१५ । दुमपत्रक-उत्तराध्ययनानां दशममभ्ययनम् । उत्त० ३२० । द्विघातोवक्र-द्वयोः परस्परभिमुखदिशोः धनुराकारश्रेण्या द्रोणं-विटङ्कसौवणिकगणनापेक्षया द्वात्रियोरप्रमाणम् । नर्तनम् । जं० प्र० ४१५ । जं० प्र० २५२ । विधावेदिका-बह्वोरन्तरे द्वे अपि जानुनी कृत्वा । ठाणा० द्रोणमुखं-जलस्थलपथावुभावपि तदु । ठाणा० २६४ । ३६२ । जलनिर्गमप्रवेशम् । राज. ११४ । द्विप्रमृतिरानवभ्य:-पृथुक्त्वम् । आव० ३१ । द्रोणमुखानि-सिन्धुवेलावलयितानि । जं० प्र० १२१ । द्वीप-जलपथेन नावादि वाहनारूढं भाण्डमुपैति तत् जलद्रोणाचार्यः- ।जं० प्र० १३ । पत्तनम् । बृ० प्र० १८१ आ। द्रोणिका-नौका । भग० २१६ । द्वीपाशरज्जुकल्प- ठाणा० २६० । द्रोणी-जलपरिपूर्णा महती कुण्डिका । अनु०.१५७ । नौः। द्वीपी-चित्रकः । जीवा० १८६ । दश० २२० । उत्त० ५०६ । द्वेषझन्झा-अनिष्टप्राप्तौ द्वेषझञ्झा । आचा० १७० । द्रौपदी-द्रुपदचुलनोसुता घृष्टार्जुनकनिष्ठा । प्रश्न० ८७। द्वेषाक्रान्तमूत्तिः-द्वेषमलिनः । आव० ५८५ । द्वन्द्वः-कलहः । सूत्र० २३४ । द्वै क्रियाः-एकसमये द्वे क्रिये समुदिते द्विक्रियम्, तदधीयवे द्वादशवर्ताः-बारसावयं सूत्राभिधान गर्भाः कायव्यापारवि तद्वेदिनो वा । द्वैक्रियाः । विशे० ९३३ । शेषाः यतिजनप्रसिद्धा यस्मिस्तद् द्वादशावतम् । सम०२४।। द्वैधाभावमापन्नः-एवमिदं न चैवमितिमतिकः। ठाणा. द्वादशाङ-द्वादशाङ्गानि यस्मिस्तद् । सम० ५ । १७६ । -लौकिकं त्वबद्ध श्रुतम् । उत्त० २०४ । द्वैपायनः-द्वैपायन ऋषिः, व्यासः । दश० ३६ । द्वेषे द्वारं-अर्थागमस्सोपायम् । सम० ५३ । दृष्टान्तः । व्य० प्र० १२ अ । द्वारघटना-वदनोपपत्तिः । जं० प्र० २५६ । द्वौ-मूलधारणौ । बृ० प्र० ६२ अ । द्वारमुण्डक-द्वारशिरः । जीवा० २२६ । द्वयक्षरक:-अक्षरकः, दासः । पिण्ड० ११० । द्वारवती-द्वारिका । नंदो० १६१ । वासुदेवराजधानी । यक्षरिका । नंदी. १६६ । विशे०. ६१६ । यद्ध-द्वितीयं अर्द्धमस्येति । सम. ६६ । (५५७) TTE Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धंत ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [धणवंता धणगुत्त-धनगुप्तः-महागिरिशिष्यः । आव० ३१७ । धत-बाढम् । महाप० । अचित्तस्य द्वितीयो भेदः । धंतो दति- धनगुप्तः-महागिर्याचार्याणां शिष्यः । उत्त० १६५ । धनगुप्तः-महागिय याइसु । ओघ० १३३ । ध्मात:-अग्निसम्पर्केण निर्म धणमुत्ता-धनगुसाः-प्रायश्चित्तकरणविषये आचार्याः। आव. लोकृतः, अग्निसंयोगो वा। जीवा० १६१ । यस्तु माते ७२४ । इत्यादी स मातः। ठाणा० ३३६ । णिरायं । नि० चू० धणगोत्र-राजगृहे धनसार्थवाहपुत्रः । ज्ञाता० ११५ । प्र० ३२७ अ । अतिशयेन (देशो०)। बृ० प्र० २६७ अ। धणदत्त-दन्तपुरे सार्थवाहः । व्य० प्र० १०७ अ । धनबृ० द्वि० १३ अ । धनितम् । विशे० ११७८ । बाढम् । दत्तः-परग्रामदूतोत्वदोषविवरणे कुटुम्बी । पिण्ड ० १२७ । आव० ४०७ । मातः-अग्निसम्पर्कतो निर्मलीकृतः । आधायाः परावर्तितद्वारे तिलकवेष्ठिपूत्रः । पिण्ड० १००। प्रज्ञा०. ३६३ । मूलद्वारविवरणे चन्द्राननापुर्या सार्थवाहः । पिण्ड. धंतबोयरुप्पपट्टे-मातः-अग्निसम्पर्कतो निर्मलीकृतः, धौतो १४४ । सुसुमायाः पिता । नंदी० १६६ । धनदत्तः भूतिखरण्टितहस्तसम्मार्जनेनातिनिशितीकृतो यो रूप्यमयः स्वयम्भूवासुदेवपूर्वभवः । आव० १६३ । सम० १५३ । पद्रः स मातधौतरूप्यपद्रः । प्रज्ञा० ३६१ । धनदत्त:-पारिणामिक्यां बुद्धौ सुसुमायाः पिता। आव. घट्ट।नि० चू० प्र०६६ अ । ४३० । धटुज्जुण-युवराजविशेषः । द्रुपदचुलण्योः पुत्रः । ज्ञाता० धणदेव । बृ० प्र० ३० अ। धनदेवः २०७ । मण्डिकपूत्र पिता । आव० २५५ । राजगृहे धन्यसार्थवाहधणंजए-धनञ्जयः-सत्योदाहरणे शोर्यपुरे श्रेष्ठी । आव० | पुत्रः । ज्ञाता० ११५। धनदेव:-वर्द्धमानपुरे सार्थवाहः । ७०५ । धनञ्जयः-नवम दिवसनाम । सूर्य० १४७ । विपा० ८८ । वणिविशेषः । आव० १८६। उत्त. जं० प्र० ४६० । धनञ्जय:-उत्तराभाद्रपदगोत्रम् । जं. ३७६ । प्र० ५०० । धगधन्नपमाणाइक्कमे-घनषाभ्यप्रमाणातिक्रमः। बाव. धणंजयसगोत्त-धनञ्जयसगोत्रम् । सूर्य० १५० । ८२४, ८२८,८२५ । धणंतरो-धन्वन्तरि:-अप्रतिपतितविभङ्गः सप्तमपृथिवीन- धणपती-धनपतिः विपाकदशाना द्वितीयश्रुतस्कन्धे षष्ठरकगमनविषये व्यक्तिविशेषः । जीवा० ४६० । ममध्ययनम् । विपा० ८६ । धण-द्वाविंशतीर्थंकरस्य प्रथमभिक्षादाता। सम० १५१ । धणपाल-धनपाल: इभ्यविशेषः । आव २८६ । राजधनः-राजगृहनगरे सार्थवाहः । आव० ३७० । धन:- | गृहे धन्यसार्थवाहपुत्रः । ज्ञाता० ११५ । धनपाल: चक्षुरिन्द्रियान्तईष्टान्ते चम्पयां माहेश्वरः सार्थवाह- कौशाम्बीनगर्या अधिपतिः । विपा०६५। विशेषः । आव० ३६६ । धनः-वसन्तपुरे सार्थवाहः । धणमित्त-धनमित्रः-योगसंग्रहे निरपलापदृष्टान्ते दन्तपुरनगरे आव० ३८४ । धनः-पाटलिपुत्रे श्रेष्ठी । आव० ६३ । वणिविशेषः। आव० ६६६ । धनमित्र:-संदेगोदाहरणे धनं-सुवर्णादि । आव० २०८, ६६२ । धनं-गुडशर्क- चम्पायां सार्थवाहः। आव०७०९। धनमित्र:-व्यक्तपिता। रादि, गोमहिष्यजाविकाकरभतुरगादि वा। आव० ८२६ । आव० २५५ । धनमित्र:-उज्जयिन्यां वणिक् । उत्त. धनं-गवादि, गणिमादि वा । औप० २७ । सेटिविसेसो।। ८७ । दंतपुरे सस्थवाहो । नि० चू० तृ. १२८ अ । नि० चू० प्र० ३५१ आ। तंतूहिं समं । नि० चू०प्र० धणरक्खिए-राजगृहे धन्यसार्थवाहपुत्रः । ज्ञाता० ११५॥ १३८ आ । धनं-गणिमादिकम् । भग० १३५ । धनः | धणवंता-कोटिसङ्ख्यया हिरण्यं मणिमुक्ताशिलाप्रवाल. नरके दशमः परमाधार्मिकः । आव. ६५० ।। रत्नानि च मणयश्चन्द्रकान्ताद्याः मुक्तामुक्तफलानि विद्रुमाणि धणगिरी-धनगिरिः-इभ्यपुत्रः।माव।धनगिरिः-तुम्बवन- रत्नानि कर्केतनादीनि ते ईदृशाः भवन्ति धनवन्तः । सनिवेसे गाथापतिः । उत्त० ३३३, ३२१ । व्य० प्र० १७१ अ । (५५८) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घणवइ ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [ धत्तरिट्ठग षणवइ-घनपतिः-वैश्रमणः । ज्ञाता० १०० । धणियतरागं-बाढम् । आव० ३६१ । बाढतरम् । आव० घणवई-धनपतिः-वसन्तपुरे श्रेष्ठिविशेषः। आव० ३६३ ।। ७०६ । धनपति:-शतद्वारनगरेऽधिपतिः । विपा० ३६ । धणियबंधण-गाढतरबन्धना,बद्धावस्था,निधत्तावस्था निकाघणसंताणगो-अपेहिए लूतापुडगं संबज्झति । नि० चू०प्र० । चिता वा । भग० ३४ । १८२ आ। धणु-धनुश्चतुर्हस्तम् । प्रज्ञा० ४८ । धनु:-दशमः परमाधणसत्थवाहो-धनसार्थवाहः । आव० ११४ । धार्मिकः । सूत्र० १२४ । सम० २६ । धनु:-कोदण्डम् । पणसम्मो-धनशर्मा-उज्जयिभ्यां धनमित्रवणिकपुत्रः । उत्त० । उत्त० ३११ । धनु:-शस्त्रविशेषः । आव० ६१३ । धनु:८७ । कुक्षिद्वयनिष्पन्नम् । अनु० १५६ । धनु:-दण्डगुणादिघणसिट्टी-घनश्रेष्ठि, श्रेष्ठिविशेषः । उत्त० २८६ । । । समुदायः । भग० २३० । हस्तचतुष्टयप्रमाणम् । जीवा० घणसिरी-धनश्री:, संवेगोदाहरणे धनमित्रसार्थवाहभार्या। ४० । पञ्चदशसु परमाधार्मिकेषु दशमः । उत्त०६१४ । आव०७०६ । धनश्री:-वसन्तपुरे धनपतिधनवाहभगिमी। धणुओ-धनुष्क:-ब्रह्मदत्तस्य सेनापतिः उत्त० ३७७ । आव० ३६३ । धनत्तभार्या । व्य० प्र० १०७ अ । धणुक्क-धनुष्कं चतुर्हस्तः । अनु० १५४ । योगसंग्रहे निरपलापदृष्टान्ते दन्तपूरनगरे धनमित्रवणिजो -धनुर्ग्रहः । जीवा० २८४ । जं० प्र० १२५ । धनश्रीर्भार्या । आव० ६६६ । धणमित्तसत्थवाहस्स पढमा धनुर्ग्रहः-वातविशेषः । बृ० द्वि० २१६ अ । व्य० प्र० भज्जा । नि० चू० तृ० १२८ अ । १३८ । षणस्सेणे-घनसेन-नन्दनबलदेवपूर्वभवनाम । आव० १६३। धणुपिट-मण्डलखण्डाकारं क्षेत्रम् । सम० ७४ । घणहत्थी- नि० चू० प्र० ३४६अ। धणपुढे-धनुःस्पृष्टम् । भग० २२६ । धणा । ज्ञाता० २५१ । -धनुर्वेदः । आव० ४२२ । घणावह-धनावहः-ऋषभपुरनृपतिः । विपा० ६४ । धना- धण-षण्णवतिरगुलानि धनुः । सम० ६८ । जं० प्र० वहः-कौशाम्ब्या श्रेष्ठी। आव० २२२ । धनावहः-राज- १४ । भग० २७५ । धनुः । निरय० १८ । गृहनगरे प्रधानः । आव० ३५३ । धनावहः-वसन्तपुरे धण्णंतरी- । नि० चू० द्वि० १३६ अ । श्रेष्ठविशेषः । आव० ३६३ । धण्ण-राजगृहीनगरे धनश्रेष्ठी। व्य० द्वि० २६ आ। धणिउजालियं-णिओज्ज्वालितं- अस्यर्थ मुज्ज्वालितम् । | धन्यः-पार्श्वजिनप्रथमभिक्षादाता । आव० १४७ । धन्यःजीवा० २६७ । अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य प्रथमाध्ययनम् । घणिओ-धनिकः-व्यवहारकः । बृ० द्वि०७० अ। अनुत्त० २ । धन्यं, धर्मधनलब्धू । भग० ११६ । राजगृहे धणिट्रा-द्वाविंशतितमो नक्षत्रः । ठाणा० ७७ । धनिष्ठा सार्थवाहः । ज्ञाता० ७९ । चंपानगर्या सार्थवाहः । ज्ञाता० अविष्ठा । सूर्य० १११ । जं० प्र० ५०६ ।. तृतीयं १६३ । नक्षत्रम् । सूर्य० २३० । धण्णकड-विमलजिनस्य प्रथमपारणकस्थानम् । आव० धणितं-बाढम् । याव. ८२० । धणिय-अत्यर्थम् । ओघ० २२७ । जीवा० २६७ । सम. धण्णकारिक नि० चू० प्र० ५३ आ। १२६ । प्रश्न० ५१ । आव० ५८४ । धनिका:-स्वामिनः । धण्णा-धान्या-धान्यापत्राणि । जं० प्र० २४४ । सम० ११६ । ज्ञाता० ५६ । अतिशयेन । उत्त० ३८८ । | धण्णारिया- ।नि० चू० प्र० १८२ आ। बाढम् । उत्त० ५८५ । गाढम् । प्रभ० ५६ । अत्यर्थम् । धत्त-डित्थवदव्यूत्पन्न एव यदृच्छाशब्दः । आव० ४७७ । बृ० प्र० २१६ आ । गाढतरम् । बृ० द्वि० २२१ अ । | धत्तरिट्ठग-धार्तराष्ट्रक:-कृष्णचरणाननो हंस एव । प्रश्न बाढम् । अउ० । ( ५५६) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः- . [ धम्म धन-धनः-मूलद्वारविवरणे श्रेष्ठः । पिण्ड० १४४ । धन्नदरा-धण्णवासणा । नि० चू० द्वि० १४७ आ । चतुष्पदादि । उत्त० ३३६, ३६० । हिरण्यादि । उत्त० | धन्नपुलागं-निष्पावावल्लादीनि धान्यानि । बृ० तृ० २११ अ । धनक-यद्गृहस्थस्य बहिरवस्थितगृहकुट्यादि । ओघ० ५७ । धन्नमासा ज्ञाता० १०७ । धनचन्द्र: धन्नसालिभहा-उपनालंदं वैभारेऽनशनिनो।मर० । धन्नाधनञ्जयः-अपरविदेहे मूकाराजधान्यां नृपतिः । आ० सुरादेवगाथापतेर्भार्या । उपा० ३४ । धनद-उत्तरद्वारपालनाम । जं० प्र० २०६ । । धन्यक-शालिभद्रभगिनीपतिः । ठाणा० ४७४ । धनदेवः-विद्यामन्त्रद्वारविवरणे गन्धसमृद्ध नगरे भिर्पा धन्वन्तरि । बृ० प्र० १६० अ । सकः । पिण्ड० १४१ । धमण-धमनं-महिष्यादोनां वायुपूरणादि । प्रश्न. २२ । धनप्रिया-मूलद्वारविवरणे धनश्रेष्ठिपत्नी। पिण्ड० १४४ । ध्मानं महिण्यादीनां वायुपूरणम् । प्रश्न० ३८ । धनमित्त-धनमित्रः-सार्थवाहः (दन्तानायी) । ६० प्र० भस्त्रा मातः । आचा० ७४ । ३०८ आ। धमणि-धमनिः-नाडी । प्रश्न. ८ । धनवती-आधाया: निशोथसम्भवे धनावहश्रावकपत्नी । धमणिसंताए-धमनीसन्तत:-नाडीव्याप्तः । भग० १२६ । पिण्ड० १०३ । विपा० ६५ । ज्ञाता० ७६ । धमनय:-शिरास्ताभिः सन्ततो व्याप्तो धनशर्म-तृषापरिषहजेता । मर० । धनश्रेष्ठी-स्नुषापरी- धमनिसन्तत: । उत्त० ८४ । क्षकः । व्य० द्वि. ३६ आ । धमणी-धमनिः कोष्ठकहडान्तरम् । विपा. ४२ । धनसार्थवाहः-नामविशेषः । प्रशा० ३२६ ।। धमधमंतो-बमधमायमानः । आव० १६६ । धनावहः-आघाया निशीथसम्भवे श्रावकः । पिण्ड० १०३।। धमनं-फूत्कारणम् । दश० १५४ ।। धनु:-वरधनुपिता । व्य० प्र० १९८ आ । धमाससारे-घमासासारः । प्रशा० ३६० । धनोत्सर्ग:-धनसम्पत् । ठाणा० १५२। धम्मतेवासी-धर्मान्तेवासी-धर्मप्रतिबोधनतः शिष्यः, धनोहसंचय-धनं-कनकादिद्रव्यं, तस्योधः-समूहस्तस्य धर्माथितयोपसम्पन्नो वा। ठाणा० २४२ । अन्ते-समीपे सञ्चयो-राशीकरणं धनोघसञ्चयः । उत्त० ३३९ । वस्तुं शोलमस्येत्यन्तेवासी, धर्मार्थमन्तेवासी धर्मान्तेवासी धन्वंतरी-धन्वन्तरी, कृष्णवासुदेववेद्योऽभव्यः । आव०३४७।। शिष्यः-इत्यर्थः । ठाणा० ५१६ । । धन्वन्तरि:-कनकरथराज्ञो राजवैद्यः । विपा. ७५ । धम्म-धर्म:-दुर्गती प्रतपन्तं सत्त्वसङ्कातं धारयतीति, धर्मः धन्वन्तरी-तापसभक्तः । आव० ३९१ । पञ्चदशो जिनः, यस्मिन् गर्भगते सति जननी दानदयाधन्न-धन्यः । भग० ६६२ । धन्यः-धर्मधनलब्धा । भग० दिकेष्वधिकारेषु जाती सुधर्मेति तेन धर्मजिनः । आव० १२२ । धन्यः-धनं लब्धा । प्रश्न०११६ । धन्यः-ऋषभ- ५०४ । धर्मः-लोलुपतया तद्विषयग्रहणस्वभाका । प्रश्न. पुरस्य स्तूपकरण्डोद्याने यक्षः । विपा. ९४ । धन्य:- १३८ । धर्मादनपेतंः धर्म्यः-न धर्मातिक्रान्तः । उत्त. ज्ञानदर्शनचारित्रघनः साध्वादिः। आव० ४०७ । धान्यं- ६४ । दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः । व्रीहिकोद्रवमुद्गमाषतिलगोधूमयवादि । आव० ८२६ । आव० १३४, २३६ । जीवस्य स्वभावः धर्मः। दश धन्यः । आव० ६६७ । धन्यः-भद्रासार्थवाहाः पुत्रः । १२६ । धर्म:-लोकश्रुतिः । पिण्ड० १४५ । धर्म:-श्रुतअनुत्त० ३ । धान्यं-चतुर्विंशतिभेदम् । दश० १६३ । चारित्रलक्षणः । भग०६० । धर्म:-श्रुतचारित्रात्मकः । धन्यः धनावहत्वात् । ज्ञाता० ७६ । उत्त० १७ । धर्मः-चारित्ररूपः । जीवा० २५६ । धर्मः धनकुलस्था । ज्ञाता० १०७। पर्यायो गुणो विशेषश्च । प्रज्ञा० १७९ । पाय-न्यायः । घनग-धान्यकं-कस्तुम्भरी । दश. १९३ । व्य० प्र० २०१ म। धर्मास्तिकायः । सम० ६ । धर्म:(५६० ) . Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मकरगो ] उत्त० धर्मास्तिकाय गत्युपष्टम्भगुणः । ठाणा० ४० । धर्म लोकधर्मम् । गोष० ७२ । धर्मः श्रुतचारित्रात्मक: दुर्गतिप्रपतज्जन्तुधारणस्वभावः । सम० ४ श्रुतचरणधर्मादनपेतं धर्म्यम् । ठाणा० १८८ । धर्मः प्रक्रमाद् गृहस्थधर्मः सम्यग्दृष्टया दिशिष्टाचारिताचारलक्षणः । ३६१ । धर्मादनपेतं धम्यं एषणीयम् । उत्त० ४२८ । धर्म:- विशेषः पादपोपगमनरूपो मरणविशेषः । आचा० २६४ | धर्मः - धारयतीति दुर्गंती प्रपततो जीवान् धारयतिसुगतौ वा तानु स्थापयति इति धर्म्मः श्रुतचारित्रलक्षणः । ठाणro २१ । धर्मः विषयाभिलाषः । ठाणा० ५१६ || धर्म:- समाचारो व्यवस्था | ठाणा० ५१५ । धर्मः - जिनाज्ञारूप:, चारित्रलक्षणः । ठाणा० २४१ | धर्म:चेतनाचेतन द्रव्यस्वभावं श्रुतचारित्ररूपं वा । आचा० १५४ | धर्मः अविपरीतार्थम् । आचा० २५८ । धर्मः चारित्ररूपः । दश० २७१ । दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः । दश० १३ । धर्मार्जनव्यापारपरः साधुर्धर्मपुरुषः । आव० २७७ । धर्मः - प्रवृत्त्यादिरूपः । दश० ११४ | धर्मः - श्रुतधर्मादिः । दश० २४२ । श्रुतचारित्रात्मकम् । ज्ञाता० ४६ । जीवपर्यायः । ज्ञाता० ६६ | धर्मः - वस्तुस्वभावः आचारो वा । उत्त० १२८ । धम्यं - धर्मध्यानम् । आव० ५६० । जिन प्रणीतभावश्रद्धानादिलक्षणं धर्म्यम् । आव० ५८२ । धर्मं -सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कंधे नवममध्ययनम् । आव० ६५१ । दसविहस मणचम्मसमणुगतं । दश० चू० १४ | धर्मःपर्यायः । विशे० १००५ । धर्मः - पुण्यम् । बृ० प्र० १६८ अ । धर्मकारणं यत्तद्धम्मंदानं धर्मे एव वा । ठाणा० ४९६ । सूत्रकृताङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धे नवम मध्ययम् सम० ३१ । धर्मे - अस्तिकायधर्मे श्रुतधर्मादी वा । प्रज्ञा० ५६ । धर्मः - व्यवहारः । जं० प्र० १६७ । धर्मःaiser योगः । दश० ४ । झाणे । भग० ९२३ । धर्मः श्रुतधर्मश्वास्त्रिधर्मश्च । प्रज्ञा० ३९६ । धम्मकरगो । नि० चू० तृ० ३९ मा । । नि० चू० द्वि० १८ आ । धम्मकरते धम्मचरणं - धर्मचरणं - बाह्य वेषपरिकरितप्रव्रज्याप्रतिपत्तिः । जीवा० ७७ । धर्मचरणं चरणधर्मसेवनम् । जीवा० ५५ । धम्मका - धर्मकथा व्याख्यानरूपा । उत्त० ५८५ । धर्मस्यश्रुतस्वरूपस्य कथा - व्याख्या धर्मकथा | ठाणा० ३४९ | | धर्माचतका - धर्मचिन्तकाः धर्मशास्त्रपाठकाः सभासदाः । ( अल्प ० ७१ ) ( ५६१ ) अल्पपरिचितसेद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ धम्मचितका धर्मस्य - अहिंसादिलक्षणधर्मस्य कथा धर्मकथा - आख्यानकानि । सम० ११६ । धर्मकथा - अहिंसादिधर्म्म प्ररूपणस्वरूपा । अनु० १६ । पारत्रिककर्म विपाकदर्शनम् । बृ० द्वि० १०३ अ । योऽहिंसादिलक्षणं सर्वज्ञ प्रणीतं धर्ममनुयोगं वा कथयति एषा धर्मकथा । दश० ३२ । धर्मप्रधाना कथा धर्मकथा । ज्ञाता० १० । इह परत्र च सप्रपञ्चं कर्म्मविपाकोपदर्शनं सा धर्मकथा | बृ० द्वि० १०३ अ । धर्मप्रधाना आख्यायिकाः उत्तराध्ययनाद्यन्तता आक्षेपण्यादयो वा । बृ० तृ० १०२ आ । धम्मकहाहरणं१-१-१२ धम्मकही- क्षीराश्रवादियुतो वैराग्यकथो । बृ० तृ० ३५ a | धर्मकथकः । ज्ञाता० १६९ । चतुर्विधां धर्मकथां कथयन् । क्षीराश्रवादिलब्धि सम्पन्नतया वैराग्यजननीं धर्मकथां विदधाति धर्मकथी । बृ० तृ० ३५ आ । धम्मकाम-धर्मकामो - निर्जरार्थम् । दश० २४६ । सूत्र कृताङ्गस्य नवममध्ययनम् । उत्त० ६१४ । सम० १५३ । धम्मकाय - धर्मकायः । दश० १६१ । धम्मघोसे - धर्मघोषः महाघोषनगरे गाथापतिः । विपाο ६५ । धर्मघोषः - आचार्यविशेषः । आचा० ७६ । धर्मघोषः - संवेगोदाहरणेऽमात्यः । आव० ७०६ । धर्मघोष:सत्वोदाहरणे सर्वशुचिविषये स्वामिज्येष्ठशिष्यः । आव० ७०५ । विमलार्हतः प्रशिष्यः । अनगारविशेषः । भग० ५४८ । आचार्यविशेषः । आव० ३६३ । स्थविरविशेषः । विपा० ६१ । ज्ञाता ८६, १९६ । धर्मघोष:योगसंग्रहे आपत्सु हृढधर्मत्वदृष्टान्ते आपत्सु दृढधर्मवान् अनगारविशेषः । आ० ६६७ । धर्मघोषः - उत्तरगुणप्रत्याख्याने वाराणस्यां मासक्षपकोऽनगारः । आव० ७१६ । धर्मघोषः - अज्ञातोदाहरणे कोशाम्ब्यामाचार्य धर्मव सुज्येष्ठशिष्यः । आव० ६६६ । धम्मघोससी सो-धर्मघोषशिष्यः । उत्त० ६२ । धम्मचक्के - तक्षशिलायां धर्मचक्रः, दर्शन शुद्धो दृष्टान्तः । आचा० ४१८ । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मचितग आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पम्मई बोप. १०। शेषः । अनु० ७४ । पम्मचितग-याज्ञवल्क्यप्रभृतिऋषिप्रणीतधर्मसंहिताचिन्त-धम्मद-धर्म-चारित्ररूपं ददातीति वर्षदेशकः । जीका. यन्ति ताभिश्च व्यवहरन्ति ये ते धर्मचिन्तकाः। अनु० २५।। २५६ । धमचिता-धर्मा-जीवादिद्रव्याणामुपयोगोत्सादादयः स्व. धम्मदए-धर्म-श्रुतचारित्रात्मकं दुर्गतिप्रपतज्जन्तुधारकभावात्तेषां चिन्ता-अनुप्रेक्षा धर्मस्य वा-श्रुतचारित्रास्म- | स्वभावं दयते-ददातीति धर्मदयः । सम. ४ । कस्य, सर्वशभाषितस्य हरिहरादिनिगदितधर्मेभ्यः प्रधानो- | धम्मदेवा-धर्मदेवा:-धर्मप्रधाना देवाः चारित्रवन्तः । ऽयमित्येवं चिन्ता धर्मचिन्ता । सम० १७ । धर्मध्यान- ठाणा० ३०३ । धर्मण-भ्रतादिना देवा धर्मप्रधाना या चिन्ता श्रतधर्मचिन्ता वा । उत्त० ५४३ । देवा धर्मदेवाः । भग० ५८३ । धम्मजस-वत्सगाचलेऽनशनी । मर० । धर्मयशा:-उत्तर- | धन्मदेसए-धर्मदेशक: धर्म उक्तलक्षणं देशयति-कथयगुगप्रत्याख्याने वाराणस्यां मासक्षपकोऽनगारः । आव० तीति धर्मदेशकः । सम० ४ । धर्म-भूतचारित्रात्मक ७१६ । धर्मयशा:-सत्योदाहरणे सर्वशचिविषये स्वामिल. देशयतीति धर्मदेशकः । भग०७ ।। शिष्यः । श्राव. ७०५ । धर्मयशा:-अज्ञातोदाहरणे | धम्मदेसगो-धर्म-चारित्ररूपं दिशतीति धर्मदेशकःषीया. कोशाम्ब्यामाचार्यधर्मवसोलघुशिष्यः । आव० ६६६ ।। २५६ । धम्मजागरिय-धर्मजागरिका । भग० १२६ । धम्मनायग-धर्मस्य-क्षायिकज्ञानदर्शनचारित्रात्मकस्य नाधम्मजीवी-धर्मजीवी संयमैकजीवी । दश. २०३।। यक:-स्वामी यथावत्पालनादर्मनायकः । सम. ४ । धम्मज्जियं-धर्मेण क्षान्त्यादिरूपेणाजितं-उपाजितं धर्माजि. धर्मस्य नायका:-स्वामिनस्तदशीकरणात्तत्फलपरियोपान्च तम् । उत्त० ६४ । धर्मनायकाः । जीवा० २५६ । धम्मज्झए-ऐरवतक्षेत्र आगमिध्यस्यां उत्सपिण्यां पञ्चम- | घम्मनियत्तमईया-धर्म:-चारित्रधर्मः परिगृह्यते तस्मात स्तीर्थकरः । सम० १५४ । निवृता मतिर्येषां ते धर्मनिवृत्तमतयः । आव० ५३१ । धम्मज्झयं-धर्मध्वजम् । आव. २९० । धम्मपण्णत्ती-श्रुतधर्मप्ररूपणा । उपा० ३८ । धम्म?-धर्मार्थ कुशलानुबन्धिपुण्योपार्जनार्थम् । बृ० द्वि० | धम्मपन्नत्ति-धर्मप्रज्ञप्तिः षड्जीवनिका । दश० १२१ ८८ मा । धम्मपय-धर्मपदं-धर्मफलं सिद्धान्तपदम् । दश. २४ । धम्मट्ठय-धर्मार्थ-तत्त्वार्थबोधतस्तेषां धर्मः स्यादित्येव. धर्मपदं-क्षान्त्यादिकम् । आचा० ४३० । मर्थम् । उत्त० २८७ । धम्मपुरिसा-धर्म:-क्षायिकचारित्रादिस्तदर्जनपराः पुरुषाः धम्मण्णग-धर्मान्वगः तगरायामाचार्यशिष्यः । व्य० प्र० धर्मपुरुषाः । ठाणा० १९३ । २५६ ब। धम्म फल-धर्मफलं अनुत्तरज्ञानादि । दश. १२० । धम्मणग-धन्विगं सद्व्यवहारकाचार्यः। व्य. १.२५६।। धम्मबारं-धर्मद्वारम् । आव० ४३५ । धम्मतित्थ-धर्म एव तीर्यते भवाम्भोधिरनेनेति तीर्थ धर्म: धम्ममाण-मायमानः भत्रावातेनोद्दीप्यमानः । उपा. तीर्थम् । उत्त० ४९८ । २५ । धम्मस्थकामा-धर्मार्थकामः मुमुक्षवः । दश० ४६२ । | धम्ममित्त-षष्ठतीर्थकरस्य पूर्वभवनाम । सम० १५१ । आयारकहा । नि० चू० द्वि० ६५ ब। धम्मयाते-धर्मतया । आव० ७५८ । धम्मस्थिकाए-तत्र जोवपुद्गलानां स्वत एव गतिक्रिया- धम्मरुइ-हटकज्जे उदाहरणं । नि. चू० द्वि० १०० । परिणतानां तत्स्वभावधारणाद् धर्मः, अस्तयः-प्रदेशास्तेषां धम्मरुई-धर्म:-श्रुतधर्मादिस्तेषु रुचियस्य स धर्मरुचिः । कायः-सङ्घातोऽस्तिकायः,धर्मश्चासावस्तिकायन धर्मास्ति- उत्त० ५६३ । धर्ममचिः-मालापहतद्वारविवरणे संपतः । कायः । सकललोकव्याप्यसङ्ख्येयप्रदेशात्मकोऽमूर्तद्रव्यवि. पिण्ड० १०८ । धर्मरुचिः आषाढभूतेगुकः । पिण्ड० (५६२) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मक्खे] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशनकोषः, मा० ३ [धम्माचतेति १३७ । धर्मरुचि:-सहसम्मत्यादिदृष्टान्ते जितशकुमारः। यस्य स धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती । भग..। आचा० २१ । धर्मरुचिः-अनगारविशेषः । ज्ञाता | धम्मवसू-धर्मवसुः-अज्ञातोदाहरणे कोशाम्ब्यामाचार्यः । १६७ । आव० ३८६ । धर्मरुचि:-जितशत्रुधारिण्योः पुत्रः। आव० ६९६ आव० ३७२ । धर्मरुचि:-उदयो मारणान्तिक इति धम्मवीरिये-धर्मवीय:-अनगारविशेषः । विपा. १ । विषयेऽनगारः यस्य कटुकं दौग्धिके मरणम् । आव० धम्मसण्ण-धर्मदा । जं० प्र० १७० । भग०३०८। ७२३ । धर्मरुचिः उत्कृष्टसमितिहष्टान्ते पारिष्ठापनिकी- धम्मसन्ना-धर्मसंज्ञा आगमबुद्धिमिथ्यात्वम् । ठाणा०४८७ । समित्युपयुक्तः साधुविशेषः । आव० ६१८ । धर्मः-अस्ति. धम्मसद्धिओ-धर्मद्धिकः(तः) । आव० ५२ । कायधर्म श्रुतधर्मादी वा रुचिर्यस्य स धर्मचिः । प्रज्ञा० धम्मसारहि-धर्मस्य सारथिधर्मसारथि, यथा रथस्य सारथी ५६ । धर्मघोषसूरिशिष्यः । ज्ञाता० १६७ । रथं रथिकमश्वांश्च रक्षति एवं भगवांश्चारित्रधर्माङ्गाना धम्मरुक्खे-वलयविशेषः । प्रशा० ३३ । संयमात्मप्रवचनाख्यानां रक्षणोपदेशाधर्मसारथिर्भवति इति धम्मरुची-धर्मरुचिः अनगारविशेषः । विपा० ६५ । । धर्मसारथिः । सम० ४ । धम्मरुती-धर्म-श्रुतादी रुचिर्यस्य स, यो हि धर्मास्ति. धम्मसारही-धर्मरथस्य प्रवर्तकत्वेन सारथिरिव धर्मसा. कायं श्रतधर्म चारित्रधर्म च जिनोक्तं श्रद्धत्ते स धर्मरुचिः। रथिः । भग० ७ । ठाणा. ५०३ । | धम्मसाहण-धर्मसाधनं धर्मोपकरणं वर्षाकल्पादिकम् । धम्मलातो-भिल्लमाले णाणकं । नि० चू० प्र० ३३० उत्त० ५०३ । | धम्मसीहे-चतुर्थतीर्थकरस्य पूर्वभवनाम । सम० १५१ । धम्मलेसा-धर्मलेश्या:-प्रधानलेश्याः । उत्त० ६६१ । धर्मसिंहः-अनगारविशेषः । विपा. १५ । धसिंहःधम्मव-दुर्गतिप्रसृतजन्तुधरणस्वभावं स्वर्गापवर्गमार्ग धर्म । धर्मजिनप्रथमभिक्षादाता। सम० १५१ । आव०१४७ । बेत्तीति धर्मवित् । आचा० १५४ । धम्मा-धर्माः-समाचाराः । ब० प्र० १६६ अ । धर्माःधम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी-धर्म एव वरं-प्रधानं चतु- निर्जराहेतवः । ठाणा• ३८१ । ज्ञाता० २५३ । रन्तहेतुत्वाच्चतुरन्तं चक्रमिव चतुरन्तचक्रं तेन वत्तितुं । धम्माओ भंसेजा-धर्माद् भ्रश्येत् मिथ्याइष्टिा भवेत् । शीलं यस्य सः धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती । जीवा० २५६ । । आव० ७५६ । त्रयः समुद्राश्चतुर्थो हिमवान् एते चत्वारः अन्ताः-पर्यन्ता-धम्माणुजोर्गाचता-धर्मार्थमनुयोगस्य-व्याख्यानस्य चिन्ता स्तेषु स्वामितया भवतीति चातुरन्तः स चासो चक्रवर्ती धर्मानुयोगस्य वा धर्मव्याख्यानस्य चिन्ता धर्मानुयोगच चातुरन्तचक्रवर्ती वरश्चासौ पृथिव्याः चातुरन्तचक्र- चिन्ता । ज्ञाता० ६२ । वर्ती चेति वरचातुरन्तचक्रवर्ती-राजातिशयः धर्मविषये | धम्माणुराग-धर्मानुराग:-धर्मबहुमानः । भग० १० । वरचातुरन्तचक्रवर्ती धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती । सम०४। धम्मायरिए-धर्माचार्यः-प्रतिबोधकः । ठाणा० २४२ । त्रयः समुद्राश्चतुर्थश्चहिमवान् एते चत्वारोऽन्ताः पृथिव्यन्ता: धम्मायरिय-धर्मः-उक्तप्ररूपणादिलक्षणः श्रुतधर्मस्तत्प्रएतेषु स्वामितया भवतीति चातुरन्तः स चासो चक्रवर्ती। धानाः प्रणायकत्वेनाचार्या धम्मोचायोस्तन्मतोपदेष्टारः । च चातुरन्तचक्रवर्ती वरश्वासो चातुरन्तचक्रवर्ती च ठाणा० ४१० । वरचातुरन्तचक्रवर्ती-राजातिशयः, धर्मविषये वरचातुरन्त- धम्मारामे-धर्म श्रुतधर्मादी आडित्यभिव्याप्त्या रमते-रति चक्रवर्ती धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती, धर्म एव वरमितर. मान् भवतीति धर्मारामः, धर्म एव सततमानन्दहेतुतया चक्रापेक्षया वा चतुरन्तं-दानादिभेदेन चतुर्विभागं चतसृणां प्रतिपाल्यतया वा आरामो धर्मारामः । उत्त० ६६ । वा नरनारकादिगतीनामन्तकारित्वाच्चतुरन्तं तदेव धम्मावतेति-धर्माणां वस्तुपर्यायाणां धर्मस्य वा चारित्रस्य चातुरन्तं यच्चकं भावारातिच्छेदात् तेन बत्तितु शीलं | वादो धर्मवादः । ठाणा० ४६१ । (५६३ ) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मि ?] आचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [धर्माः धम्मिटे-इष्टधर्मा अतिशयेन धर्मवान् । उत्त० २८५। | धरणा-अविच्युतिस्मृतिवासनाल्पा । दश• १२५ । । धम्मियं-धार्मिकं धर्मानुगतम् । जीवा० २५४ । धरणिकिलए-घरण्याः पृथिव्याः कीलक इव धरणिधम्मिल-म्मिल: सुधर्मपिता । आव० २५५ । कोलकः । सूर्य० ७८ । धम्मिल-विशिष्टतपश्चरणफलवान् । सूत्र० २९| इह-धरणिगोयरो-धरणीगोचरः । आव० २८७ । लोकफले दृष्टान्तः। जं० प्र० १६७ । केशहस्तः । भग० धरणिधरा-त्रयोदशतीर्थंकरस्य प्रथमा शिष्या। सम०१५२॥ ४६८ । धम्मिल्लः इहलोकफले उदाहरणम् । आव धरणिपूत्र- . । नि० चू०प्र० १२० । धरणिसिंगे-धरण्याः शृङ्गमिव धरणिशृङ्गः । सूर्य०७८ । धम्मुत्तरं-धर्मोत्तरं-चारित्रधर्मोत्तरं । आव० ७८६ । धरणी-पृथवो । ओघ० १०० । ज्ञाता० २५१ । द्वादशधम्मोवाओ-दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतोति धर्मः, तस्य तीर्थंकरस्य प्रथमा शिष्या । सम० १५२ । उपायो-द्वादशाङ्गं प्रवचनं अथवा पूर्वाणि धर्मोपायः । धरितो-धृतः । आव० ३१० ।। आव० १३५ । प्रवचनं पूर्वाणि वा । आव० १४० । धरिम-ऋणद्रव्यम् । विपा० ६३ । जं० प्र० १९४ । सामायिका च जीवनिकायभावना वा । आव० १४०। ज्ञाता० ४० । सुवर्णकादि । उत्त० ४८४ । आव० धम्मोवाय । आव० १३५ ।। १८९ । धयप्पडागा-ध्वज एव पताका ध्वजपताका । ओघ०७४। | धरिसिया-धर्षिता । आव० ६४ । धरंति-ध्रियन्ते तिष्ठन्ति । आव० ६६२ । धरिसियामो-धषिताः । प्राव. ३१४। अपभ्राजिताः। धर-धरः पमप्रभप्रभुपिता। सम० १५० । आव० १६१। आव० ७०१ । ज्ञाता० २०८ । धरिसेइ-धर्षयति-पराभवति । उत्त० ६२६ । धरइ-धरति-वारयति । जीवा० ३०६ । ध्रियते-तिष्ठति। धरिसेहि-धर्षयति । दश० ४१ । दश० १२२ । धरेइ-धारयति, संघट्टयति । ओघ० ७६ । धरच्छ-धराक्षम् । औप० ५५ । धरेतुं-खमिउं । नि० चू० प्र० ३२ अ । धरण-नृपविशेषः । ज्ञाता० १२१ । अन्तकृद्दशायां धर्म-स्वभावः बोधश्च । आव०८७ । सदाचारो दशविधो प्रथमवर्ग षष्ठममध्ययनम् । अन्त०३। धरण:-अन्तकृद्द- वा यतिधर्मः । उत्त० ३६८ । सम्यग्दर्शनद्वार: पंचमशानां द्वितीयवर्गस्य षष्ठममध्ययनम् । अन्त० ३ । धरण: हाव्रतसाधन: द्वादशांगोपदिष्टतत्त्वा गुप्त्यादिविशुद्धव्यवरोहीटकनगरस्य पृथ्व्यवतंसकोद्याने यक्षः । विपा० ८२ ।। स्थान: संसारनिर्वाहको निःश्रेयससाधकः । त० ६-७ । धरणः-नागकुमारेन्द्रः । ठाणा० ८४ । जीवा० १७० । धर्मकथानुयोगः-अर्हद्वचनानुयोगभेदः उत्तराध्ययनादिकः । द्वितीयो दक्षिणनिकायेन्द्रः । भग० १५७ । ब्रह्मवते | आचा० १। उपमा । प्रश्र० १३५ । आव० २२१ । नागकुमारा- | धर्मकायः-भगवद्देहः । दश० १६६ । णामधिपतिः । प्रज्ञा० ६४ । अनिक्षिप्तम् । ओघ० | धर्मघोषः-आचार्यविशेषः । सूत्र. ३८७ । छद्दितदोष११८ । अपायानन्तरमवगतस्यार्थस्याविच्युत्याऽन्तर्मुहूर्त | दृष्टान्ते साधुः । पिण्ड० १६६ ।। कालं यावद्धरणम् । नंदी. १७७ । अर्थानां धृतिः, धर्मध्वजः-रजोहरणम् । पिण्ड• ४ । परिच्छिन्नस्य वस्तुनोऽविच्युतिस्मृतिवासनारूपम् । आव० | धर्मवान-मिष्ठः । उत्त० २८५ ।। . १० । धरणः दक्षिणनागकुमारनिकायेन्द्रः । ठाणा०२०५। धर्मसिंह-कोल्लपुरे गृध्रपृष्ठकारी । सं० ।। धरणपरिहरणं-यत्किमप्युपकरणं संगोपयति प्रतिलेखति धर्माः-पर्यया पर्यवा वा भेदाः बाह्यवस्वालोचनादिचन परिभुंक्ते । व्य० प्र० ४५ । प्रकाराः । ठाणा० ३४८ । पर्यवाः गुणाः विशेषाः । धरणप्पमे ।ठामा• ४८२ । भग. ८८६ । ( ५६४ ) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मार्थकामाः ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [धानं - धर्मार्थकामा:-धर्मार्थं ये कामयन्ति मोक्षमिति । दश धाउबिलं-धातुवादः स्वर्णरसादिकः-धातुसिद्धः।आव० ४३४॥ चू० ११ । धाउरत्ता-साटिका । भग० ११६ । धर्मे-कर्मणि । ६० प्र० २४३ अ । धाऊ-धारकत्वात्पोषकत्वाश्च धातुत्वम् । सूत्र० २६ । धर्मोपकरणं-वर्षाकल्पादिकम् । उत्त० ५०३ । धाए ठाणा. ८५ । धर्मोपग्रहः-दानविशेषः । प्रभ० १३५ । धाडणी-ध्राडनी नाशनी । प्रश्न० ७६ । धर्म:-परिणामः पर्यायः स्वभावः । ठाणा० ३७५ । धाडिउ-वयंसो । नि० चू० प्र० ३०० आ । धर्मकथानुयोगः-अनुयोगस्य द्वितीयो भेदः । ठाणा० धाडिए-धाटिक:-मित्रम् । बृ• तृ० १७६ अ । ४८१ । धाडिओ-धाटिक:-मित्रम् । बद्वि०६ आ निर्धाटितः । धर्मरुचिः-वाणारसीवास्तव्यनृपः । नंदी० १६६ । आव० ६६ । निष्काशितः । याव० ३६६ । धाटितः । धर्माणां-श्रुतभेदानां । ठाणा० ४४१ । आव०६८। धर्मांत-श्रुतचारित्रलक्षणात् । ठाणा० १५० । धाडिभएण-धाटीभयेन । आव०७१ । धम्मिल:-तपः समाधी लब्ध्यादिवाञ्छया अनशनादिरूप-धाडियंत-ध्राड्यमानः-प्रेर्यमाणः । प्रश्न ५६ । सपःकर्ता । दश० २५७ ।। धाडी-धाटी । आव० २१६, ६१० । धर्मोपदेशः अर्थोपदेशो व्याख्यानमनुयोगवर्णनमात०९-२५ धाति-धाटयन्ति । आव० ६५० । प्रेरयन्ति स्थानास्थाधव:-मनुष्यः । ओघ० १५० । धवः बहबीजकवृक्ष- | नान्तरं प्रापयन्ति । सूत्र. १२५ । विशेषः । प्रज्ञा ३२ । भग०८०३ । धारयति तां धाडेड-धाटयति । आव० १६६ । स्त्रियं धीयते वा तेन पुंसा वा स्त्री दधाति सर्वात्मना घाणं-भ्राणं-सुभिक्षं विभवो वा । उत्त० १४५ । पुष्णाति वा तेन कारणेन निरुक्तिवशात् धव इति । | धाणगा-पंडरचवलगा। नि० चू०प्र०१४४ मा। व्य० द्वि० २७७ मा। धाणि-ध्राणिः । दश० ८९ . धवल । आचा० ६७ ।। धातकोखण्डः-लवणसमुद्रानन्तरं द्वीपः। प्रज्ञा० ३०७ । धवलगिह-धवलगृह । जीवा० २६६ । धातगं-भातं सुभिक्षम् । वृ.तृ० १५१ अ। धवलगृहादि-वास्तु । आचा० १२१ । धाताय-हननाय । भग० ६८४ । धवलधर-धवलगृहम् । माव० ४४७ । प्रज्ञा० १११ । धाती-बालं धारयतीति धाती तेण बालेण धोयते धाती धवलपुप्फ-धवलपुष्पं कुन्दकलिका । प्रज्ञा० ६१ । । पीयतेत्यर्थः सो वा बालो तं धवतीति धाती, तं पिबतीघवलय-पाण्डुरं श्वेतम् । शाता० १५ । त्यर्थः । नि० चू० द्वि० ६३ आ। धवलवलयानि-तथाविधकटकानि । भग०. ४६८ । धातुखोमे-धातुवैषम्यम् । ओघ० ५३ । धवलहर-धवलगृहं सौधम् । जं० प्र० १०७ । धातुमट्टिया-मट्टिया जोगजुत्ता अजुत्ता वा धम्ममाणा धवला-सिता । ज्ञाता० १६२ । सवण्णादि भवति सा धातुमट्टिया । नि० चू० प्र० द्वि० धाडपिडो-धात्रीपिण्ड:-धात्रीवद्वाललालनात लब्धपिण्डः ।। ८७ अ । आव० ५३६ । धातुवाओ-धातुर्वादः सुवर्णपातनोत्कर्षलक्षणो द्रव्योपायः धाई-धात्रो-बालकपरिपालिका । पिण्ड० १२१ । । दश० ४० । धाउ-धातुः गैरिकं लोहादिर्वा । प्रश्न० ३८ । यस्मिन् धातुव्वात । नि० चू० प्र० १६५ आ । धम्यमाने सुवर्णापतते स धातुः । नि० चू० द्वि० ८६ आ। | धात्री-स्वापविबोधवत्यौषधिः । आचा०६६ । धातु:-पाषाणधात्वादिः । उत्त०६५३। गैरिका । दशधाधाकया-शवाः कृताः, हाहारवः कृतः । उत्त० २०७ । १७०। धानं-परिच्छेदः । उत्त०५५७ । पोषणम् । जीवा०१६। (५६५) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान्यमान] आचापधीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [पारिको धान्यमान-सेतिकाकुड्वादि । जं० प्र० २२७ । सेतकादि । चू०प्र० २७८ । धारणा-अवधारणाशक्तिः विशे०९३० । ठाणा. १९८ । धारणापरिहारो- संगोविज्जति पहिले हिज्जति य काय धाम-धर्मः । उत्त० ५२५ । परिमुज्जति । नि० चू० तृ• ८६ मा ।। धाय-ध्रातं-सुभिक्षम् । दश० २२२ । प्राय० ३४१॥ ध्रात:- धारणामेधावी-पूर्वाधोतयोः प्रभूतयोरपि सूत्रार्थयोश्विरनित्यतृप्तः । बृ० प्र० २३५ आ। धाता-दाक्षिणात्यपण- मवधारणाबुद्धिमान् । ६० प्र० १२५ आ । पन्निकव्यन्तराणामिन्द्रः । प्रशा०६८। धारणाया-कुकुभरीउ । दश० चू० १२ । धायइ-धातकी-वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । लवणसमुद्रं धारणाववहार-धारणाव्यवहारो नाम गीतार्थेन संविग्ने. परिक्षिप्य स्थितो धातकोवृक्षखण्डोफ्लक्षितो द्वीपः । नाचार्येण द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषान् प्रतिसेवनाश्चावलोक्य अनु० ६० । यस्मिन्नपराधे यत् प्रायश्चित्तमदायि तत्सर्वमन्यो दृष्ट्वा धायइपत्तरससारो-धातकीपत्ररससार:-धातकीपत्रासवः ।। तेब्वेव द्रव्यादिषु तादृश एवापराधे तदेव प्रायश्चित्तं । जीवा० ३५१ । ददाति एष धारणाव्यवहारः,वैयावृत्यकरस्य गच्छोपग्राहिणा धायहरुक्ख-पूर्वार्द्ध उत्तरकुरुषु नीलवदिरिसमीपे धात- स्पर्वकस्वामिनो वा देशदर्शनसहायस्य वा संविग्नस्योचित. कीनाम वृक्षः। जीवा० ३२८ । भग०८०३ त्रयविशति प्रायश्चित्तदानं धारणमेष धारणाब्यवहारः । व्य. प्र. तीर्थंकरस्य चैत्य वृक्षः । सम० १५२ । ५ आ। धायहसंडे-धातकीनां खण्डानि यस्मिन् स धातकीखण्डः, | धारणि-घारिणी जितशत्रराज्ञो । उत्त० ११४ । श्रेयांस एतादृशो द्वोपविशेषः । आव०७८८ । ज्ञाता०२१३ । नाथस्य प्रथमा शिष्या । सम० १५२ । धायगत्ता-मारकता । भग० ५८१। धारणिओ-धारणिक:-ऋणधारकः । दि०७०। धारए-धारकोऽधोतानामेषां धारणात् । भग०११२ । धारणिज्ज-लक्खणजुत्तं खंडाखंडिकरणं । नि० चू.प्र. धारण-धारणा-विषयेषु निवर्त्तनलक्षणा । ठाणा० ३३१ । २४४ आ । धारणाअनुभूतार्थवासनाया अविच्युतिः। जं० प्र० १८२ । घारणी-श्वेतनृपस्य राज्ञो । राज० ६ । जितशत्रुराजी । धारणगं-धमर्णम् । आव० ८३२ । आचा० २१ । धारिणी-महासेनराज्ञी । विपा०५२। धारणा-यथास्वमत्यवस्थानम् । तत्त्वा०१-२५। भग०३८४।। श्रेणिकस्य राशी । ज्ञाता. १२ । अदीनशत्र राजस्य पट्रअवगतार्थविशेषधरणं धारणा । भग० ३४४ । बलहरणा- राज्ञो। विपा. १० । बलनृपस्य राज्ञो । ज्ञाता० १२११ धारभूते । भग०२७६ । अप्रच्युतिः, अविस्मृतिः। धारा-देवछत्रधारकाः । बृ० द्वि० २७३ आ । सत। आव०६८। अर्हद्गुणाविष्करणरूपा। आव० ७८६ । तपातजनिता सन्ततिः । उत्त० ३६६ । धारेव धाराउपभोगः । आव० ३२५ । गीतार्थसंविग्नेन द्रव्याद्यपेक्षया क्रिया । भग ४७१ । यत्रापराधे यथा या विशुद्धिः कृता तामवधार्य यदन्यस्तव | धाराहतकदम्ब । नंदी० १५० । तथैव तामेव प्रयुङ्क्ते सा, वैयावृत्यकरादेर्वा गच्छोपग्रहकारि- धारिज्जंति-धार्यन्ते आसेव्यन्ते । उत्त० ६०७ । णो अशेषानुचितस्योचितप्रायश्चित्तपदानां प्रदर्शितानां धरणं | धारिणि-धारिणी-अज्ञातोदाहरणे युवराजराष्ट्रवर्धनपत्नी। धारणा । ठाणा० ३१८ । अवगतार्थविशेषधरणं धारणा आव० ६६६ । पाव०१० । निर्णीतार्थ धरणम् । अविच्युतिः १ वासना | धारिणी-धनञ्जयनृपपत्नी । आव० १७७ । श्रेणिकराज्ञी। २ स्मृतिश्च ३ नंदी०१६८ । असकृदालोचनादानेन यत्प्रा- अनुत्त० १ । वसन्तपुरे जितशत्रुराज्ञी । आव० ३७८ । यश्चित्तविशेषावधारणं सा । ठाणा० ३०१ । गृहीतस्यावि- वज्रसेन राज्ञो । आव० ११७ । अन्धकवृष्णिराज्ञी । स्मरणे निवृतिः । नि० चू० प्र० २५४ आ । अवगतार्थ. अन्त० २। चन्द्रावतंसकराज्ञी। उत्त० ३७५। सकल. विशेषधारणं धारणा। राज० १३१ । दृढस्मृतिः । नि० गुणधारणात् धारिणी-जितशत्रुनुपपत्नी । सूर्य० २ । (५६६) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिसए ] अल्पपरिचितसैदान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [धितिषरे - विधासभूतियुवराजपत्नी। भाव० १७२ । बलदेवराज्ञी। पावलेय ।बाचा० १७ । बन्त० १४ । जितशत्रो राशी । जं.प्र. ९ । एषणा- धाविय-पावनं-अश्वकलाविशेषः । उत्त० २२३ । समितिदृष्टान्ते धिग्जातीयचक्करगौतमपली । आव.धाहं-भावनम् । उत्त. १०२ । ६१६ । संवेगोदाहरणे चम्पायां मित्रप्रभराज्ञी । आव० घिइ-धुतिः-मानसाऽवष्टम्भलक्षणा, निश्चला । १० प्र. ७०१ । अज्ञातोदाहरणे कोशाम्भ्यामजितसेनराज्ञी। आव. २१९ था। मूलोत्तरगूणविषयः प्रतिदिवसमुत्सहमान ६६६ । दधिवाहनराजी । आव० १२३ । जितशत्रु. आत्मपरिणामविशेषः । नंदो० ४५ । चित्तस्वास्थ्यम् । राज्ञो। ओष. १५८ । शिवराज्ञो राज्ञो । भग० ५१४ सम० ११७ । संयम प्रति चित्तस्वास्थ्यम् । उत्त० २३५ । वृष्णिराजपत्नी । अन्त० ३ । चम्पायां कोणिकराज्ञी। धृतिः-चित्तस्वास्थ्यम् । जीवा० १२३ । प्रभ० १ । जितशत्रुराजपत्नी । आव० ३७२ । चक्षु- धिइदुम्बल-दुर्बलधृतयो धर्मानुष्ठानं प्रतीति । उत. रिन्द्रियोदाहरणे मथुराधिपतिजितशत्रुराज्ञी। आव०३९८ । ५५२ । श्रावस्तिनगर्या रुक्मिनृपस्य राज्ञो । ज्ञाता. १४० । घिइमई-घृतिमतिः घृतिप्रधाना मतिधृतिमतिः-अदैन्यम् । काम्पिल्यपुरस्य जितशत्रो राज्ञो । ज्ञाता० १४४ । अन्धक- | सम० ५८ । वृष्णेर्देवी । अन्तः २। अन्धकवृष्णेर्देवो । अन्त० ३। घिइल्लिया-शालमञ्जिका । आव० ३४४ । बलदेवस्य देवी । अन्त० १४ । जियसत्तुदेवी। नि० | धिई-मानसोऽवष्टम्भरूपा । ६० तृ. १४ ब । धुतिःचू० प्र० ३५१ मा । चित्तस्वास्थ्यमनुद्विग्नत्वम् । उत्त० ६२२ । समाषानं बारित्तए-बारयितुं परिग्रहे धर्तुम् । ६० दि० २०१। संयमे । आचा० ४३१ । धृतिः-पल्योपमस्थितिका देवी। उवभोगो। ठाणा० १३८ । धत्तुं परिग्रहे । ठाणा. जं० प्र० ३.६ । १३८ । धिईकूडे-धृतिः-तिगिछिद्रहसुरी तस्याः कूटम् ।० प्र०३०५ बारिया-बारकाः । आव० ३५० । धिईमई-धुतिमति:-अदन्यम् । प्रश्न० १४६ । धृतिर्मतिःपारिवारिय-धाराप्रधानं वारि जलं येषु तानि धारावारि-| । धृतिप्रधाना मतिः । योगसंग्रहे षोडशो योगः आव० ६६४ काणि । भग० ६१७ । धिक्कार-धिषिक्षेपार्थ एव तस्य करणं-उच्चारणं धारेह-धारयति आत्मनि लीनं धते । दश• ६८। धिक्कारः। ठाणा० ३६६ । धारेज्ज-धारयेत् व्यापारयेत् । भगे० २२३ । धिक्कारिखमाणी-धिक्रियमाणा धिकशब्दविषयीत्रियधारेमाणीओ-धारयन्त्यः-वीजयन्न्यः । जं० प्र० ८२। माणा । ज्ञाता० २०० । बारेमाणे-धारयन स्थिरीकुर्वनु । भग० ५४ । | घिग्जातीय:-नीचपुरुषः । नंदी० १५२ । आचा० १३२। धारोवयं-गिरिनिर्भरजलं आन्तरिक्षं वा । वृ० द्वि०धिग्वर्ण-मरुकः । दश० २५६ । उत्त० ६१ । विग. १७१ अ। जातीय:-ब्राह्मणः । दश० १८४ । धालिया-धारिता । उत्त० १३७ । धिज्जाइ-घिग्जातीयः-ब्राह्मणः । आव० ६१६ । बावं-धावनम् । आव० १९८ । धिज्जाइओ-धिग्जातीयः । आव० २७३, ३५६ । धिग्जाधावणं-बावनं शीघ्रमृजुममनम् । जं० प्र० ५३०1 वेगवद् निकः। आव० १८७ । गमनम् । ज्ञाता. २३२ । दश. १०० । शीघ्रगमनम् । धिज्जाय-धिरजात:-ब्राह्मणः । ओघ० २०४ । जं० प्र० २६५ । धिति-धुति:-विवक्षितं जिनवचनं सत्यमेव नान्यथेति मनधावणओ-लेखहारकः । ६० तृ. २४८ अ । सोऽवष्टम्भः । सूर्य० २९६ । चतुर्थवर्गे तृतीयमध्ययनम् । धावनं-कल्पत्रयप्रदानम् ।'पप्र. २६८ अ । प्रक्षाल- निरय० ३७ । नम् । आचा० २७७ । धितिधरे-धुतिधरः अन्तकृद्दशानां षष्ठमवर्गस्य षष्ठमध्ययनम् (५६७ ) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घितिबलिया ] आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः । अन्त १८ । तीर्थंकरो गणधरश्च । आव० ६१६ धितिबलिया - धृतिः वज्रकुब्यवदभेद्यं चित्तप्रणिधानं तया धोरपुरिसपत्नत्तं - धीरपुरुष प्रज्ञप्तं तीर्थ करगणधर प्ररूपितम् बलिका:- बलवन्तः । बृ० तृ० । धितिम - धृतिमान् स्वस्थचित्तः । प्रश्न० ११३ । धितिहरे - धृतिधरः - काकन्द्यां गाथापतिः । अन्त २३ । घिती-धरणं- धृतिः सम्यग्दर्शने सति चारित्रावस्थानम् । सूत्र० १६७ । धृतिः - चित्तदाढयं तत्परिपालनीयत्वादहिंसाया धृतिरेव अहिंसाया अष्टादशमं नाम । प्रश्न० ६६ । चित्तस्वास्थ्यम् । ज्ञाता० ५६ । धिम्मरगो - धीरः । आव० ८२६ । धियारो - अधिकार: । आव० ४२७ । घिसरा - मत्स्यबन्धविशेषः । विपा० ८१ । धी - षीः बुद्धिः । उत्त० २१६ । धोईणि निप्पकंपो - धृतिरज्जुबन्धनेन धनिकं - अत्यर्थं निष्प्रकम्प :- अविचलो यः स धृतिधनिकनिष्प्रकम्पः । औप० ४८ । धीलिका - पुस्तकर्मविशेषः । ओघ० १२९ । अनु० १३ । धोउल्लिया - शालभञ्जिका । उत्त० १४९ । धोयते - परिच्छिद्यते । प्रज्ञा० ५२७ । धोया - दुहिता । आव० ४२४ । [ धुरतुण्डे | आव० ८४३ / धोरपुरिसा - घोरेण्वे वैतेषु च ते पुरुषाः - पुरुषकारवन्तो व कातरेष्विति धीरपुरुषाः । सम० १५७ । धीरा - सत्त्ववन्तः । उत्त० ४०७ । स्थिरा अक्षोभा वा 4 प्रश्न० १०७ । धीवर - अष्टादशश्रेणिनाम । जं० प्र० १९४ । धुंधुमारे-धुन्धुमारः संवेगोदाहरणे शिशुमारपुराधिपतिः । श्राव० ७०६ । धुअं- ध्रुवाः तथाविधपुस्तक वैशिष्टरूपस्वरूपस्यापरिहाणे: 1 जं० प्र० २५७ । धुआवणं - दव्वावणं । नि० चू० प्र० १७६ अ । धुण-धुनीहि विवेचय पृथक्कुरु तदुपरि ममत्वं मा विधत्स्वेति भावार्थ: । आचा० १४४ । धुणइ - धुनोति पातयति । दश० १५६ । घुनाति - प्रस्फोट - यति । ओघ० १११ । घुणण-घूननं - भिन्नग्रन्थे रनिवत्तिकरणेन सम्यक्त्वावस्थानम् । आचा० २६८ । घुणति - धूनाति । आव० २०६ । धोयार - धिक्कारः । आव ० २०० नि० ० प्र० १३४ म । धुतकम्मं से-घुतं - अपनीतं 'कम्मंसि' त्ति - कार्मग्रन्थिकपरि भाषया सत्कर्मानेनेति घुतकर्माशः । घुताः कर्मणोऽशा-मा. गा येन सः । उत्त० १५५ । नि० चू० प्र० १८६ आ । नि० चु० प्र० १.३ आ । धोर - असहाओ लुद्धगो । नि० चू० प्र० २०० अ । पंडिओ तवकरणसूरो वा! दश० चू० १६५ । धिया राजत इति धीरः, अक्षोभ्यो वा । उत्त० ५५ धीरः - अनन्तज्ञानी । आव० ८४५ | अक्षोभ्यः सम्यक्सोढेति । उत्त० ४१५ । बुद्धिस्तया राजते स च तीर्थकुग्दणधरो वा । आचा० २०५ । अक्षोभ्यो घीविराजितो वा विवेकेन दुःखसुखकारणतयाऽवधारय । आचा० १६० । व्रतपरिपालने स्थिरः | नन्दो० २५० । व्रतानुपालने स्थिर; । आव० २६ । धीमान् परीषहाद्यक्षोभ्यो वा । उत्त० २८५ । धीः. बुद्धिस्तया राजते इतिधीरः । प्रज्ञा० ५ । आव० ६१९ । धोर:- बुद्धिमान् स्थिरो वा । दश० ११६ । धीरः- संयतः | दश० २२२ । घोरः- तीर्थ करगणधरः । दश० ८६ । धुरए - घुरकः । जं० प्र० ५३५ । घोरपुरिस- एकान्ततो वीर्यान्तरायापगमादु धीरपुरुषः | घुरतुण्डे - घुरि । दश० १०५ । धुता - घृताः संस्कारापेक्षया त्यक्ताः । प्रश्न० १०७ । धुत्त धूर्तः द्युतकारः । उत्त० २४८ | धुत्तिमा - घूर्तिमा । ओघ ० १५८ । धुनं-धूयते रेखवद्वायुना संसारचक्रवाले भ्राम्यते येन तद्धूर्त कर्म । सूत्र० ३२६ । धून्नं पापम् । दश० २२४ । धुध-ध्रुवं संयमः । सूत्र० १४१ । घृतं - धूयतेऽष्टप्रकारं • कर्मेति तद्भूतं - संयमानुष्ठानम्, कर्म वा । सूत्र० ६९ । धुयरए - घुयरजस्क: । ओष० २२६ ॥ सम० ४४ ॥ घुयसोलया - अट्ठारस सोलंगसहस्सेसु सययं उज्जुता । दश ० चू० १२४ । ( ५६८ ) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुवं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [धूमवण्णा धुवं-ध्रुवमव्यन्तं सर्वदेत्यर्थः । ठाणा० ३६३ । ध्रुवं कर्म | ३४३ अ। संसारो वा । अनु० ३१ । अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरस्वभावः। धुववन्न-ध्रुवः अव्यभिचारी स चासो वर्णश्च ध्रुववर्णस्तं सूत्र० ३७० । ध्रुवं-आचारप्रकल्पे प्रथमश्रुतस्कंधस्य षष्ठ- ध्रुवा । प्राचा० २६५ । मध्ययनम् । प्रश्न. १४५ । ध्रुवं-आचाराङ्गस्य षष्ठ- धुवसीलया-ध्रुवशीलता अष्टादशशोलाङ्ग सहस्रपालनरूपा। मध्ययनम् । उत्त० ६१६ । नित्यं-संपूर्ण सर्वप्रधानोप- दश० २३५ । सर्जनभावेन वा । दश० २३५ । निश्चित: अचलत्वाद् धुवा-ध्रुवा ध्रुवत्वात् त्रिकालभाविनी । जीवा०६६ । ध्रवः अनित्यतरूपः । भग० ११६ । ध्रवत्वं सर्वदेवं त्रिकालावस्थायित्वात् ध्रवा । जं० प्र. २७ ।। भावानियतो त्रिकालभावित्वाद् ध्रवः । ठाणा० ३३३ । धुलिती-दध्यादिमनती। पिण्ड० १५७ । दढं थिरं । नि० चू० प्र० २४४ आ । षष्ठमाचार- | धू:-चिन्ता । पिण्ड० ३६ । प्रकल्पः । आव० ६६० । ध्रुवं आवश्यकस्य तृतीयः धूआ-पुत्री । जं० प्र० १४६ । धूता सुता । आव. पर्यायः । विशे० ४१५ । ध्रुवं-पर्वतिथिभाविभोज्यम् । १५४ । १० द्वि० १६२ आ । धूतं-धुनातीति धूतं चारित्रम् । आचा० १२२ । 'बुवकडुच्छुयं-धूपकडुच्छुकम् । जोवा० २३५ । धूमो-दोसो । नि० चू० तृ० ४६ अ । धूमः भोजने दोषधुवकम्मिओ-ध्रुवमिको लोहकारादिः । ओघ० ७७ । विशेषः । भग० १२२ । हिग्वादिसस्को वधारः। पिण्ड. धुवकम्मी-लोहकारो रहकारो कुंभकारो तंतुकारो। नि० ८४ । आन्तप्रान्तादाताहारद्वेषाच्चारित्रस्याभिधूमना चू० प्र० ३६० आ। काष्ठसूत्रधारादयः । बृ० द्वि० धूम्रदोषः । आचा० ३५१ । अभिभवे । ६० प्र० ४६ १० ब । अ। मनःशिलादिसम्बन्धि । उत्त० ४१७ । चारिमेन्धनधुवगंडिया-ध्रुवगण्डिका । दश० १४० ।। धूमहेतुत्वात् धूमः द्वेषः । भग० २९२ । धुवघडी-धूपघटी धूपघटिका । जीवा० २०६ । धूमइंगाल-धूमाङ्गारकं द्वेषरागौ । ओघ० १८७ । धुवचारिणो-ध्रुवो मोक्षस्तत्कारणं च ज्ञानादि ध्रुवं तदा धूमकेउ-धूमकेतुः धूमचिह्नो धूमध्वजः नोल्कादिरूपः । चरितुं शालं येषां ते ध्रुवचारिणः । आचा० .१२२ । दश० ६५ । धुवणंतराइं-आया ध्रुवान्तरवर्गणा अनन्ता भवन्ति । विशे० धूमकेऊ-धूमकेतुः अष्टत्रिंशत्तमो महाग्रहः । ठाणा० ७६। जं० प्र० ५३५ । धुवण-ग्लानस्य धावनं प्रक्षालनम् । ओष० ४१ । धाव- धूमपलिआमं-णाम जहा खड्डं खणिसा तत्थकारी सो नम् । ठाणा० ३३६ । धुवनं धावनं शुभाध्यवसाया- छुम्मति तोसे खड्डाए परिपरंतेहि अण्णाओ खुड्डामो खणिमिथ्यात्वपुदलानां सम्यक्त्वभावसंजनमिति । प्राचा० त्ताओ सुतेंदुआदीणि फलाणि मुभित्ता जा सा करीसम २९८ । खड्गा तत्थ अग्गी छुन्भति तासि च तेंदुगखड्डाणं सो धुवनिग्गहो-अत्रानाचित्वाद क्वचिदपर्यवसितत्वाच्च ध्रुवं आतंकारी स खड्ड निलिया ताहे धूमो तेहिं सो तेहि कर्म तत्फलभूतः संसारो वा तस्य निग्रहहेतुस्वास्निग्रहो | पिविसिन्ता ताणि फलाणि पाति तेणं ते पच्चंति तत्व ध्रुवनिग्रहः । अनु० ३१ ।। जे अपक्का ते धूमपलियाम भण्णति । नि० चू० द्वि० धुवरासी-ध्रुवराशिः । सूर्य० ५६ ।। १२५ आ । धुवराहू-यः सदैव चन्द्रविमानस्याधस्तात् सञ्चरति स धूमप्पमा-धूमप्रभा । प्रज्ञा० ४३ ।। ध्रुवराहुः । सूर्य० २६० । भग० ५७६ । धूमप्रभा-धूमाभद्रव्योपलक्षिता पृथ्वी । अनु० ८६। धुवलोअ-ध्रुवलोचः ध्रुवः प्रतिदिनभावी लोचः । बृ० प्र० धूमट्टि-धूमवति धूमश्रेणिम् । जं० प्र० १९३ । २२३ अ । दिने दिने कुर्वन्तीत्यर्थः । नि० चू० प्र० धूमवण्णा-धूम्रवर्णाः पाण्डुराः । ज्ञाता० २३१ । (अल्प०७२) (५६९ ) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूमायमानः ] आचायश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ध्यानान्तरिक घूमायमानः । नंदी० १५२, १६० । धेज-धयं धृष्टता। प्रश्न० ११६ । सत्त्वम् । प्रश्न० १२१ । धूमाहिति-धूमायिष्यन्ते धूममुद्वमिष्यन्ति । जं० प्र० १६७। धेज्जा-ध्येया । विपा० ४२ । भग० ३०६ । घेवए-धेवतः रेवतः अभिसन्धयतेऽनुसन्धयति शेषस्वरानिति घूमिआ-धूमिका रूक्षा प्रविरला धूमाभा। अनु० १२१ । धंवतः षष्ठः स्वरः । अनु० १२७ । । ठाणा० ४५७ । धेवते-अभिसन्धयते अनुसन्धयति शेषस्वरानिति निरुक्तिवघूमिता-धूमिका महिकाभेदो वर्णतो धूमिका धूमाकारा | शाद् धौवतः । ठाणा० ३६३ । ध्रुमेत्यर्थः । ठाणा० ४७६ । धोअ-धौतो भूतिखरण्टितहस्तसम्मार्जनेनातितेजितः शो. धूमिया-धूमिका रूक्षा प्रविरला धूमाभा। जीवा० २८३ । | धितः । जं० प्र० ३५ । घौतानि शाणोत्तारेण दीप्तिमन्ति धूमिका धूम्रवर्णा धूसरः । भग० १६६ । कृतानि । जं. प्र. २४२ ।। धूयं-धूतं-सङ्गानां त्यजनं तत्प्रतिपादकं धूतम् । ठाणा० | धोअणे-घावनं प्रक्षालनम् । आचा० ४१ । ४४४ । धूयत इति धूतं प्रारबद्ध कर्म । सूत्र. ३३१।। धोडग-धोटक: अजात्योऽश्व: । दश० १६४ । धूयवाद-धूतं अष्टप्रकारकर्म धूननं ज्ञातिपरित्यागो वा धोयं-धोतं निर्मलम् । जीवा० १६४। धोतं प्रक्षालित. तस्य वादः धूतवादः । आचा० २३९ । मलम् । प्रश्न. ८२ । धौतम् । आव० ६२० । धोतं धूया-दोग्धि च केवलं जननी स्तन्यार्थमिति दुहिता ।। प्रक्षालितम् । भग० २५४ । धौतं शोधितं तप्तं च । उत्त० ३. । दुहिता पुत्र' । पिण्ड १४० ।। जीवा० २६७ । धोत:-भूतिखरंटितहस्तसम्मार्जनेनातिधूलि-धूलि: पाशुः । ज० प्र० १६६ । निशितोकृतः । प्रज्ञा० ३६३ । जीवा० १६१ । धोतः धूलिणायं-धूलोज्ञातम् । उत्त० १२८ । शोधितः । जीवा० १९१ । धोतः शोधितः । राज० ३३ । धूली-धूलिः । ओघ० २१५ । धूली पांशुः । भग० ३०७। धोयपुत्ती-भूरिभेदा दाढीयाली। नि० चू० द्वि० ६१ अ। धूलीजंघो-धूलिधूसरजंघः । व्य० प्र० २५३ अ । । धोया-धौतानां शुद्धस्वरूपाः । ठाणा० ४४६ । धूलीवासं-धुलिवर्षः । आव० ७३४ । धोरण-गतिचातुर्यम् । जं० प्र० २६५, ५३० । चतुरत्वं धूव-धूपः दशाङ्गादि: गन्धद्रव्यसंयोगजः । जं० प्र०५१, | गतिविषयम् । ज्ञाता० २३२ । १४४ । धोरिगिणो-नटीमुख्या: । आ० ७० । धूवग्गहणं-धूपग्रहणं धूपभाजनम् । आव० ६८६ ।। धोरुगिणि-धौरुकिनिकाः । ज्ञाता० ४१ । धूवणे-आत्मवस्त्रादेधूपनम्, अनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपान- धोरेयसीला-धुरि वहन्ति धोरेयास्तेषाभिव शोलं उरिक्षप्त. मित्यन्ये व्याचक्षते । दश० ११८ । 'भारवाहिता लक्षणं स्वभावो येषां ते धौरेयशोलाः । धूवपडिग्गहं-धूपप्रतिग्रहं धूपभाजनम् । आव० ७१० । उत्त० ४०७ । धूवियं- । नि० चू० प्र० २३२ अ । धोवंति-उद्वर्तयन्ती । आव० ३४६ । धूसरं-ईषद्धवलम् । आचा० २६ । धोवण । नि० चू० द्वि०१६६अ। धृतपुष्पमित्र-आयरक्षितप्रथमो पुष्पमित्रशिष्यः । विशे० धावनं वस्त्राद्युपकरणचर्मकोशकटाहादिभण्डविषयम् । १००२ । आचा० ४२ । घृतपूर्ण-योग्यं पानम् । ६० प्र० ५५ अ । धाविसं-फोडितं । नि० चू० प्र० १२८ आ । मतवान् । नंदी. १५४ ।। धोवाण-सर्वेषां प्रक्षालनविधीनाम् । जं० प्र०२५८ । बृति:-निषधवर्षधरपर्वते षष्ठं कूटम् । ठाणा०७२। तिगिछ- | मातं-भस्मोकृतम् । प्रज्ञा० ११२ । दग्धम् । प्रज्ञा०२। दे देवताविशेषः । ठाणा० ७३ । ध्यानशतकं-ध्यानव्यासार्थप्ररूपकं ज्ञानम् । भाव. ५८२। बार्जुन:-अपदासनीसुतः द्रौपदीज्येष्ठभ्राता। प्रभ०८७। | ध्यानान्तरिकं । बृ० प्र० २५६ । (५७०) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यामकं ] ध्या मकं - गन्धद्रव्यविशेषः । उत्त० १४२ । ध्यामतेजाः - भ्रष्टतेजाः । भग० ६८४ । ध्यामलं - अस्पष्टम् । आव ०७२५ । ध्ये- करणनिरोधार्यः । विशे० ११६३ । ध्रुवः-य एकास्पद प्रतिवद्धः १ उत्त० २८६ । ध्रुवं नित्यम् । व्य० द्वि० ३९१ अ । ध्रुवगण्डिकाध्रुवयं-ध्रुवकं सङ्गीते रागविशेषः । उस० २८६ ध्रुववर्गणा-ध्रुवा नित्याः सर्वकालावस्थायिन्यः । आव ० । ठाना० ४१५ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, मा० ३ ३५ । ध्रुवा - ध्रुववर्गणा । आव० ३५ । ध्रुवानन्तरा - प्रदेशोत्तरा । आव० ३५ । ध्वजा - केतुः । जीवा० १८६ | न नंगल - लाङ्गलम्, हलम् । दश० २१८ । लाङ्गलं शीरम् । प्रश्न ८ । लाङ्गलं हलम्, क्षेत्रोपक्रमणविशेषः । दश० ४० । [ नंदावत नंदगोवं- नंदगोपः । व्य० प्र० २४० । नंदन - नन्दनं चमरस्य विकुर्वणा विषयकोद्देशके मोचानगय चैत्यम् । भग० १५३ । मल्लिनाथजिनस्य पूर्वभवनाममहावीरस्वामिनः पूर्वभवनाम । सम० १५१ । रघाणिताधिपती । ठाणा ० ४०६ । भरतक्षेत्रे भावि सप्तमो वासुदेव: । सम० १५४ । नंदणं- नन्दयति आनन्दयति देवादीनिति नन्दनं देववनम् । जं० प्र० ३६३ । नन्दनः लक्षणोपेततया समृद्धिजनकः । उत्त० ४५१ । द्वितीयवर्गे दशममध्ययनम् । निरय० १६ । नंदणवणं- नदनवनं द्वारवत्यां वनविशेषः । अन्त० १८ । नंदनवनं मेरुसम्बन्धी उत्तमवनविशेषः । प्रश्न० १३५ । नंदनवनं रैवतपर्वते वनविशेषः । अन्त० १ । नंदनवनं मेरोद्वितीयवनम् । प्रश्न० ८५ । रैवतकपर्वतस्य उद्यानविशेषः । निरय० ३६ । नन्दन्ति सुरासुरविद्याधरादयो यत्र तनन्दनं वनं - अशोकसहकारादिपादपवृन्दं नन्दनं च तद्वनं च नन्दनवनम् । नंदी० ४६ । नंदमाणग - नन्दमानकः पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८ । नंदमित्ते - द्वितीय: विष्णुः । सम० १५४ । नंदसिरी-नन्दश्री: संबरोदाहरणे भद्रसेनदुहिता । आव ७१३ । नंगलिय - नाङ्गलिक: गलावलम्बित सुवर्णादिमयलाङ्गलाकारधा भट्टविशेषः कर्षको वा । औप० ७३ । नंगलिया - गलावलम्बितसुवर्णादिमयलाङ्गलप्रतिकृतिधारि- नंदसेणिया-नन्दसेनिका अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य चतुर्थ णो भट्टविशेषाः कर्षका वा । भग० ४८१ । नंतिक्क- नंतिक्ता: छिपाः । व्य० द्वि० ४१९ आ । नंद - नन्दः योगसंग्रहे शिक्षादृष्टान्ते पाटलिपुत्रस्य राजा । आव० ६७० | नन्दो मौर्याणां वंशजातः । व्य० द्वि० २८० । नन्दः नृपतिविशेषः । व्य० प्र० १४० आ । नन्दः पाटलिपुत्रे राजा । उत्त० १०४ । नन्द:- उदायिराज्ञो मन्त्री । वृत्तं लोहासनम् । ज्ञाता० ४३ । नन्दं - मङ्गलवस्तु, वृत्तं लोहासनम् । भग० ५४७ । स्थूलभद्रस्वामिनः पितामारितो नृपः । नंदी० १६७ । नन्दं वृत्तलोहासनम् । जं० प्र० ४२३ । नन्दिनामकं सनिवेशम् । उत्त० ३७९ । नन्दः ब्राह्मणग्रामे उपनन्दस्य भ्राता । आव० २०१ । भरतक्षेत्रे भावितीर्थंकरस्य पूर्वभवनाम । सम० १५४ । नन्दः - पारिणामिकी बुद्धिदृष्टान्ते पाटलिपुत्रे शल्लीपतिः । आव० ४३३ / मध्ययनम् । अन्त० २५ । नंदा - नन्दति समृद्धो भवतीति नन्दः तस्यामन्त्रणमिदं इह च दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् । जं० प्र० १४३ | नन्दति शीतल जिनमाता । आव० १६० । नन्दा एतदभिधाना शाश्वतीपुष्करिणी । जं० प्र० ४१७ । नन्दा अन्तकृदशानां सप्तमवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । अन्त० २५ । नन्दा नन्दयति समृद्धि नयतीति नन्दा, अहिंसायाश्चतुर्विंशतितमं नाम | प्रश्न० ६६ । नन्दा संवरोदाहरणे वाराणस्यां जीर्णश्रेो भद्रसेनस्य भार्या । आव० ७१३ । नन्दा पुष्करिणीविशेषः । जीवा० २२६ । सम० १५० । श्रेणिकस्य राज्ञी । निरय० है । ज्ञाता० ११ । अभयकुमारस्य माता । ज्ञाता० ११ । प्रज्ञा० नंदावत्त- चतुरिन्द्रियजीव विशेषः । जीवा० ३२ । १,४ । नन्दावर्त्तः चतुरिन्द्रियजीवभेदः । उत० ६६६ । ( ५७१ ) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदि] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ नंवो नंदि-नन्दी अतिशयेन महान् । व्य. दि. ३२४ । नंदि: नंदियावत्त-द्वीन्द्रियजीवविशेषः । जीवा० ३१ । प्रज्ञा० तुष्टिः प्रमोदः। आचा० १४३ । नन्दन्ति प्राणिनोऽनेना- ४१ । नन्द्यावर्तः-नवकोणः स्वस्तिकविशेषः । प्रश्र०७०। स्मिन् वेति वा नन्दि:-इदमेव प्रस्तुतमध्ययनं नन्दनं नन्दि नन्द्यावर्तः । राज. ८ । नन्द्यावतः प्रतिदिग्नवकोण: प्रमोदो हर्षः इत्यर्थः । ज्ञानपञ्चकाभिधायकाध्ययनमपि स्वस्तिकविशेषो रूढिगम्यः । औप. १० । नन्दिः । नंदी० १ । नन्दिर आविष्टलिंगः । नंदी० १। नंदिरागे-समृद्धी सत्यां रागो-हर्षी नन्दिरागः । भग०५७३ । द्वादशतूर्यसङ्घाते नन्दिः । जीवा० २०७ । नन्दीः द्वादश- नंदिराय-नृपविशेषः । ज्ञाता० २०८ । तूर्यनिर्घोषः । प्रश्र. १५६ । क्रीडा । आचा० १५६ ।। नंदिरुक्ख-वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । नंदिआवत्तं-देवविमानविशेषः । सम. ३२॥ नन्द्यावर्त्तः। नंदिवद्धण-नन्दिवर्द्धनः एषणासमितिदृष्टान्ते आचार्यः । ब्रह्मलोके देवविमानविशेषः । औप० ५२। आव० २१७। आव० ६१६ । वर्धमानस्वामिनो ज्येष्ठभ्राता ।। नंदिए-नन्दितः समृद्धतरतामुपागतः । भग० ११६। ४२२ । नंदिगाम-नन्दो ग्रामः भगवतो वर्धमानस्वामिनः पितुमित्र- नंदिवद्धणा-अञ्जनकपर्वते पुष्करिणो विशेषः । ठाणा० स्य ग्रामः । आव० २२२ । २३० । नंविघोस-देवविमानविशेषः । सम० १७ । तूर्यनाद: । नंदिसेण-मथुरायां श्रीदामराजसुतः । ठाणा० ५०८ । ज्ञाता० ५८ । द्वादशतुर्यसङ्गातो नन्दी तस्य घोषः ।। नन्दिषेणः ग्लानवैव्यावृत्त्ये श्रद्धावान् साधुविशेषः । आव० उत्त० ३०५ । नन्दीघोष:-द्वादशतूर्यनिनाद: । जीवा ६१७ । पापित्यः स्थविरः। आव० २०७ । नन्दिषेण: १६० । पारिणामिकी बुद्धय दृष्टान्तः । आव० ४३० । नन्दिषणः नंदिघोसेण-नन्दीघोषेण द्वादशतूर्यनिनादात्मकेन यद्वा आ- श्रेणिकपुत्रसाधुः । आव० ४३० । श्रेणिकपुत्रः । आव० शीर्वचनानि नान्दी जीयास्त्वमित्यादीनि तद्घोषेण बन्दि- ६८२ । जम्बूद्वीपे ऐरवते अवसपिण्यां चतुर्थो जिनः। सम. कोलाहलात्मकेन । उत्त० ३४६ । नंदिणीपिय-उपासकदशांगे नवममध्ययनम्, नन्दिनीपितृ- नंदिसेणा-नन्दिषेणा पूर्वस्यां दिशि पूर्वदिग्भाव्यञ्जनपर्व. नामकस्य श्रावस्तीवास्तव्यस्य भगवता बोधितस्य संलेख- तस्य पुष्करिणो विशेषः । जीवा० ३६४ । नादिगतस्य वक्तव्यतानिबन्धनान्नंदिनीपितृनामकमिति । नंदिसेन-शिष्यविशेषः । नि० चू० प्र० २०९ आ । ठाणा० ५०६ । नंदिस्सरो-नन्दिस्वरः द्वादशतूर्यसङ्घातवत्स्वरो यस्य स । नंदिपडिग्गहि-रोधगट्ठाणगादिसु उववजति । नि० चू० | जीवा० २०७ । द्वि० १११ आ। नंदी-प्रमोदः । आचा० १६३ । नन्दी-गान्धारस्वरस्यनंदिपुर-नन्दिपुरं शाण्डिल्यजनपदे आर्यक्षेत्रम् । प्रज्ञा०५५ । प्रथमा मूर्छना । जीवा० १६३ । द्वादशतूर्यसङ्घातः । उत्त नन्दिपुरं मित्रराजधानी । विपा० ७६ । ३०५ । नन्दी-द्वादशतूर्यसमुदायः । भग० ४८१ । नन्दीनंदिफले-नन्दिवृक्षाभिधानतरुफलानि । ज्ञाता० १० । वर्द्धनः राजकुमारविशेषः, अन्तकृद्दशासु दुःखविपाकानां ज्ञातायां पञ्चदशमध्ययनम् । सम० ३६ । ज्ञाता० १० । षष्ठममध्ययनम् । विपा० ३५ । नन्दी-महेश्वरलघुशिष्यः । आव० ६५३ । आव० ६८६ । नन्दी: समृद्धिः। आव० ७८६ । समृद्धिःनंदिमुयंगसंठिय-नन्दीमृदङ्गसंस्थितः, आवलिका बाह्यस्य | हेतुः अकृशताहेतुः अदोनताहेतुः समृद्धताहेतुर्वा । बृ० द्वि० त्रयोदशं संस्थानम् । जीवा० १०४ । १०५ आ । येनाम्यवहृतेन तेवे संजमे वा नंदति स नंदिमुयंगो-नन्दीमृदङ्गः द्वादशविधतूर्यान्तर्गतो मृदङ्गः। एव नंदी येनाभ्यवहृतेन न द्रुतं दुर्गति स नंदी अथवा जीवा० १०५। येनाभ्यवहतेन न दीना भवन्ति स नंदी, समयसण्णाए नंदिय-नन्दितः समृद्धितरतामुपगतः । भग. ३१७। ' वा संथरणं गंदी । नि० पू० वि० २१ क । (५७२) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदीभाणं] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [नक्खत्तसेसे नंदीभाणं-नन्दीभाजनं नन्दीपात्रम् । ओघ० २१० ।। नकुलः । आव० २१७ । नकुलः भुजपरिसर्पतिर्यग्योनिकः । नंदीभायणं-नन्दीभाजनम् । वृ० द्वि० २४४ आ। महत्पा- जोवा० ४० । त्रम् । नि० चू० द्वि० १८ आ । नउलगो-नकुलकः । आव० ४२१ । नंदीभासणं-नंदीभाषणं ज्ञानपंचकोच्चारणम् । व्य० द्वि० नउला-भुजपरिसर्पविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । २३ । नउलि-नकूलीविद्याविशेषः । आव० ३१६ । नंदीमुह-नन्दी मुखः पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८ । नए-नयनं नय: नीयते परिच्छिद्यतेऽनेनास्मिनस्मादिति वा नंदीसर-द्वीपविशेषः नन्दी समृद्धिस्तया ईश्वरो द्वीपो नन्दी- नयः, सर्वत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्तुन्येकांशग्राहको बोधः श्वरः । अनु० ६० । अष्टमो द्वीपः । सम०६०। ज्ञाता० इत्यर्थः । अनु० ४५ । नयः न्यायः । औप० ६३ । १२७ । प्रश्न ६६ । इक्षवरसमुद्रानन्तरं द्वीपस्तदनन्तरं नदः-हृदः । ज्ञाता० २६ । नयति अनेकांशात्मकं वस्त्वेसमुद्रोऽपि । प्रज्ञा० ३०७ । नन्दीश्वरः महेश्वरज्येष्ठशिष्यः। कांशावलम्बनेन प्रतीतिपथमारोपयति नीयते वा तेन भाव० ६८६ । नन्द्या-पर्वतपुष्करिणीप्रमुखपदार्थसार्थ- तस्मिस्ततो वा नयनं वा नयः प्रमाणप्रवृत्युत्तरकालभासमुद्भूतात्यद्भूतसमृद्धया ईश्वर:-स्फातिमान्नन्दीश्वरः। विपरामर्शः । उत्त० ६७ । नय:-प्रतिनियतकवस्त्वंशविजं.-प्र० १६३ । षयोऽभिप्रायविशेषः । सूर्य० ३६ । नंदीसरवरो-नन्दीश्वरवरः द्वोपविशेषः । जीवा० ३५८ । नओ-नयः नयनं अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो नियतकधर्मावज्ञाता० १२७ । आव० ८१५ । लम्बनेन प्रतीतौ प्रापणं नयः । उत्त० ११ । नयः वरदीव-नन्दीश्वरवरदीपः। आव० २१६ । गमयतीति नयः नीयते परिच्छिद्यतेऽनेन अस्मिन् अस्माद नंदुत्तरे-भूतानंदनागकुमारेन्द्रस्य रथानिकाधिपतिदेवः ।। वेति नयः। विशे०४३१ । नयः नीतिपक्षः स्थितिपक्षः। ठाणा० ३०२ । विशे० १३५२ । बंदोत्तरा-अन्तकृद्दशानां सप्तमवर्गस्य तृतीयमध्ययनम् । नकराणि-नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि । आचा० २५४ । अन्त० २५ । नकूल-च प्रलापः । उत्त० ६६६ । परिसर्प विशेषः । नइ-नदी सरित् । आव० ५८१ । नइमह-लौकीकपूजास्थाने दृष्टान्तः । आचा० ३२८ । नकूला-औषधविशेषः । नि० चू० प्र. ७६ अ । नइयायतणे-नद्यायतनानि यत्र तीर्थस्थानेषु लोका पुण्यार्थ नकूलोपग्रह-स्त्रियाः गुह्यरक्षकं वस्त्रम् । प्रज्ञा० ४३० । स्नानादि कुर्वन्ति । आचा० ४११ । नक्क-नासिका । प्रश्न० ८। मत्स्यविशेषः । प्रश्न है। नई-नदी गिरिनद्यादिका । प्रज्ञा० २६७ । नक्कय-पायकाः । सं० । नउअंगे-चतुरशीत्या लक्षरयुतेः नयुताङ्गं, कालमानविशेषः। नक्का-नासिका । आव० ८२० । अनु० १०० । सूर्य० ६१ । नक्कुडिअ-नकुंटिक: नागदन्तकः अङ्कुटिक: । जं. प्र. नउए-चतुरशीत्या लक्ष युताङ्गः नयुतम् कालमानविशेषः । ५० । अनु० १०० । सूर्य• ६१ । भग० २७५, ८८८ । नक्खच्चणी-नखार्च णो नखहरणिका । बृ० द्वि० १०१ नउयं-चतुरशातिवर्षलक्षाः पूर्वाङ्ग तच्च पूर्वाङ्गेन गुणितं अ। पूर्व, पूर्वक्रमेणकोनविंशतिधारान् चतुरशीतिलक्षाहतं नयु- नक्खत्तमासे-एकोनितनक्षत्रपर्याययोग एको नक्षत्रमासः । ताङ्गं तदपि चतुरशीतिलक्षाभिर्ताडितं नयुतम् । उत्त० सूर्य० १५३ । २७७ । नक्खससंवच्छरे-नक्षत्रसंवत्सरः । सूर्य० १६८ । पञ्च. । भग० ८८८ । विधलक्षणः संवत्सरः। सूर्य० १७१।। मउल-नकुलः पापस्य चतुर्षः पुत्रः । ज्ञाता.२०८। नक्खत्तमेसे-नक्षत्रशेषः, नक्षत्राईमासः । सर्य. २३२ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्खत्ता] आचार्यभोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ नट्टि नक्खत्ता-नक्षत्राः ज्योतिष्कभेदविशेषः । प्रज्ञा० ६६ । | नग्नरुई-नाग्न्ये श्रामण्ये रुचिः-इच्छा नान्यरुचिः । उत्त. नक्षत्रमास:-नक्षत्रेषु भावो नाक्षत्रः स खलु मासः सप्त- ४७६ । विशतिरहोरात्राणि सप्तषष्ठी कृतेन छेदेन छिन्नस्याहोरात्रस्य | नग्गेति-नग्नयति । आव० ३०५ । एकविंशतिः सप्तषष्टाः भागः । बृ० प्र० १८६ आ । नग्गोधो-न्यग्रोधः एकोहकद्वीपे वृक्षविशेषः । जोवा. चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डलभोगकालो नक्षत्रमास: । ठाणा० १४५ ।। ३४४ । अष्टी-मुहूर्तशतानि एकोनविंशत्यधिकानि। सूर्य०६। नग्गोहमथु । आचा० ३४८ । नख-नखरः । आचा० ३८ । नच्च-नृत्यः नृत्यविधायी । जीवा० २८१ । नग-पर्वतः । उत्त० ३५२ । जीवा० २७० । । नच्चियव्वं-नत्तितव्यम् । ओघ० १५७ । नगर-नकर अकरदायी लोकम् । प्रश्न० ५ । कररहितम् । नच्चेज-पादजंघाउरुकडिउदरबाहुअंगुलिवदणणयणपमुहा. अनु० १४२ । भग० ३६ । नात्र करोऽस्तीति नकरम् । दिविकारकरणं नृत्यम् । नि० चू० तृ० ६१ आ । उत्त० ६०५ । नगरमिह सैन्यनिवासिप्रकृतयः । भग० | नजाणति-न जानाति-न सम्यग् विशेषतो गृह्णाति । ३१८ । महामणुस्स संपरिग्गहो पंडियसमवाओ । दश. ठाणा० ३०६ । चू० १६३ । नकर-नास्मिन् करो विद्यत इति नकरम् । नजुतं-चतुरशीतिर्नयुताङ्कशतसहस्राणि एक नयुतम्। जीवा. दश० १४७ । भग० ६७४ । नगरगोत्तिय-नगरगुप्तिकः । आव० ६६७ । नगरगुप्तिकः । नजुतंग-चतुरशीतिः नयुतशतसहस्राणि एक नयुताङ्गम् । कोट्टपाल: । प्रश्न० ३० । जीवा० ३४५ । नगरजणवय-नगरजनपदाः नगरादिलोकाः स्वयमेव पचन-मज्जइ-ज्ञायते । ज्ञाता. १९२ । पाचनस्वभावा वर्तन्ते यथा भ्रमराः । दक्ष०७३। नज-इह दुःशब्दार्थः । ठाणा. १५३ । सर्वनिषेधवचनोनगरथेरा-नगरेस्थापयन्ति दुर्व्यवस्थितं जनं सन्मार्ग स्थिरी- ऽयं शब्दः । प्रज्ञा० ४६८ । कुर्वन्तीति स्थविराः, ये नगरे व्यवस्थाकारिणो बुद्धिमन्त नट्ट-गीतविरहितं नृत्यम् । वृ० द्वि० ३६ आ । नृत्यवि. आदेया: प्रभविष्णवस्ते नगरस्थविराः । ठाणा० ५१६।। धायी नर्तकः । अनु० ४६ । नाट्य नृत्यम् । ठाणा. नगरधम्मे-नगरधर्मः नगराचारः । ठाणा० ५१५ । ४५० । नाट्य साभिनयनिरभिनयभेदभिन्न ताण्डवम् । नगरनिद्धमणं-नगरनिर्द्धमनं नगरजलनिर्गमनम् । भग. जं० प्र० १३७ । नाट्य नृत्यम् । विपा. ४५ । नृत्तं २०० । नगरजलनिगं क्षालः । शाता० ८१ । ' करचरणनयनादिपरिस्पन्दविशेषलक्षणम् । माव०५२८। नगरभोगिक: ।आव २३८ । नद्रक-नर्तकः यो नृत्यति स । प्रश्न. १३७ । नगरमारी-नगरमारी मारीविशेषः । भग० १६७ । नट्टकहा-नर्तककथा रमणीयोऽयं नर्तको नवेति । दश. नगररोग-नगररोगः । भग० १६७ । नगरस्य नट्टग-नर्तकः यो नृत्यति सः अङ्किलो वा । औप० २ । नगराणि-चतुर्गोरोद्धासोनि न विद्यते करो येषु तानि नद्रमालए-नृत्तमालक: खण्डप्रपातगुहायामधिष्ठायकदेववि नकराणि वा कररहितानि । जं० प्र० १२१ । । शेषः । ठाणा० ७१ ।। नगिण-नग्नः कुचेलवान् । दश० २०६ । नट्टमालय-नृत्यमाल्यम् । आव० १५१ । नगई-नग्गतिः गन्धारजनपदेषु पुरुषपुरनपतिः, यश्चत वृक्षं की नाट्यम् नर्तनकारिणी च । दश० ४० ।। दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः । उत्त० २६६ । नट्टिअं-करस्य तथा पादस्य भ्रवः शिरसः अक्षणः ओष्ठस्य नग्गओ-नग्नः । आव० ३०५ । च एवमादीनामङ्गानां सविकारं चलनं नर्तनम् । ओघ. नग्गयागो-नग्नमर्ग: । तं० । १७७ । . (५७४ ) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नटुटुल्लगं] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [नमंसह नटुल्लगं-नाटयम् । ज्ञाता० ६६ । नदीकच्छ-नदीगहनम् । ज्ञाता० ६७ । नट-नवं सर्वथाहश्यो भतम् । जीवा० २४५ । जं०प्र० । ननिवडइ-न जायते । पउ० २८ । ३८६ । नन्द:-क्रोधहतः । भक्त० । नखिड्डा-नष्टक्रीडा । आव० ३६४ । नन्दक-खङ्गविशेषः । सम० १५७ । नट्टतेये-नष्टतेजाः । भग० ६८४ । नन्दन-छत्रागनगाँ राजसुनुः । सम० १०६ । नट्ठिलओ-नष्टः । आव० १९४ । . नन्दनवनं-मेरुपर्वते वनम् । आव०४७ । ज्ञाता०६१ । नड-नटः नाटकानां नाटयिता । अनु० ४६ । नट: नाट- कूटविशेषः । प्रश्न० ६६ । यिता । प्रश्न० १३७ । नटः नाटकानां नाटयिता । औप० नन्दा-श्रेणिकस्य राज्ञी बेन्नात्तटनगरेश्रेष्ठिनः पुत्री अभय २। जीवा० २८१ । तृणविशेषः । जीवा० १२३ ।। कुमारस्य माता । नंदी० १५० । नडकहा-नटकथा रम्योऽयं नटः । दश० ११४ । नन्दाप्रविभक्ति-त्रयोदशनाट्यभेदः । जं० प्र०४१७ । नडखइया-नटखादिता नटस्येव संवेगविकलधर्मकथाकर- | नन्दाप्रविभक्तिःचम्पाप्रविभक्त्यभिनयात्मको-नन्दाचणोपाजित भोजनादीनां खादितं भक्षणं यस्यां सा नटस्येव | म्पाप्रविभक्त्यात्मकः त्रयोदशो नाट्यविधिः। जीवा०२४६ । वाख इवसंवेगशून्यधर्मकथनलक्षणो हेवाक:-स्वभावो यस्यां नन्दि-संनिवेशविशेषः । उत्त० ३८० ।। सा । ठाणा० २७६ । नन्दिघोषा-घण्टाविशेषः । भग० ७०० । मडपिडयं-नटपेटकं लवालवोदाहरणे ग्रामविशेषः । प्राव० | नन्दिणीपिया-उपासकदशानां नवममध्ययनम् । उपा० १। नन्दितः-महितो हृष्टः तुष्टो वा । आव० ७५६ । नडाग्निः-नडः तृणविशेषस्तत्सत्कोऽग्निः । जीवा० १२३ । नन्दिवर्धनः-भगवतः वर्द्धमानस्वामिनो भ्राता । आव० नडिओ-नटितः । ज्ञाता० १६६ । १८३ । नडिजए-नट्यन्ते विनटयन्ते । प्रज्ञा०६५ । नन्दिवर्द्धनः-राजकुमारविशेषः । ठाणा० ५०८ । नणु-ननु अक्षमायां प्रयुज्यमानः शब्दः । दश० ६३ ।। नन्दिषेण:-श्रेणिकपुत्रः । नंदी, १६६ । नण्णत्थ-ननु निश्चितं अत्र इहलोके नन्वत्र नान्यत्र वा । नन्दीमृदङ्ग:-एकतः सङ्कीर्णोऽन्यत्रविस्तृतो मुरज विशेषः । भग० १७४ । राज० ४६ । नत्तं-नक्तं रात्री। सूर्यः १०४ । नन्नत्थ-नवरं केवलमिति । औप० ८५ । नत्तु-नप्ता पोत्रः दौहित्रश्च । भग० ३०६ । नपुंसकः-षण्डकः । दश० ११५, २१५ । नत्तण-नप्तृणां पौत्राणाम् । निरय० २० । नपुंसगवेए-नपुंसकस्य वेदो नपुंसकवेदः, नपुंसकस्य स्त्रियं नत्था-नस्ते नासारज्जू । उपा० ४४ । । पुरुषं च प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि नपुंसकनथिकवादी-नास्तिकवादी-लोकायतिकः । प्रभ० ३१ । वेदः । प्रज्ञा० ४६६ । नदइ-नदति । जीवा० २४७ । नपुंसगवेय-नपुंसकवेदको वद्धितकत्वादिभावेन भवति । नदिकोप्पर-नद्यास्तीरे आकुंटितकूपराकारं गमनं नद्या | भग० ८६३ । आकुण्टितकूपराकारं चलनं नदीकूपरम् । बृ• तृ० १६२ | नपू-नपुंसकत्वम् । उत्त० ३१४ । नभ-नभाति दीप्यतेति नभः । भग० ७७६ । नदितानि-शब्दवन्ति । जोवा० १६० । । नभःसेनः-उग्रसेनतनयः । विशे० ६१० । नदी-गङ्गासिन्दादिका । नंदी० २२८ । नदी-सरित। | नभोदेव ।आचा० ३८६ । भग० २३७ । शाता० ३६ । रादरमप्कायस्थानेषु नभोवाहन-भृगुकच्छे नृपः । विशे०-६०४ । स्थानम् । प्रज्ञा ७२ । | नमसह-नमस्यति कायेन प्रणमति । जं० प्र० १७ । सूर्य. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमंसण] .. आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [नया ६ । ज्ञाता० १० । कायेन प्रणमति नात्यासन्ने नाति धर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेदः, नयनं नयः नीयतेऽनेदूरे उचिते देशे इत्यर्थः । ज्ञाता०१०। नमस्यति तत्प्रहः। नास्मिन्नस्मादिति नयः । ठाणा० ४ । नयनं नीयतेशब्दैः स्तौति । सूत्र० २७४ । नमस्करोति पश्चास्मणि ऽनेनास्मादस्मिन्निति वा नयः । आव० ५४ । नैगमादिः। धानादियोगेन सामान्येन वा । जीवा० २५६ । ज्ञाता० ७ । 'नडु' प्रापणे अनेकविधमथं प्रापयन्तीति नमसण-नमस्करणं वाचा । आव० ४०६ । नमस्यनं नयाः । अहव णिच्छिय मत्थं णयतीति णया। नि. चूत. प्रणमनम् । भग० ११५ । १४६ आ । नीतिदर्शनम् । भग० ११४ । नय:-अनन्तममंसणिज्जं-नमस्यनं प्रणामतः । औप० ५ । धर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छितिः । अनु० २१० । ममंसति-नमस्पति कायेन प्रणमति । निरय ०३। कायेन अनन्तधर्माध्यासितं वस्त्वे केन धर्मेण नयन्ति परिच्छिन्दन्ती वन्दित्वा नमस्यित्वा च । राज० ४८ । तिज्ञानविशेषा: नयाः । आचा० ३ । द्रव्यास्तिकायाः । नमंसित्ता-नमस्यित्वा प्रणम्य । ठाणा० १०८ । भग० ६२ । नमंसे-नमस्यति नमस्करोति । दश० २४५ । नयओ-नयतः नीतितो विधिना । विशे० १२९३ । नमः-पूजार्थमव्ययम् । आव० ३७६ । नयगई-यन्त्रवानां नैगमादीनां स्वस्वमतपोषणं यनयानां नममाणे-मममानः संयमानुष्ठानेन विनयवान् । आचा. सर्वेषां परस्परसापेक्षाणां प्रमाणाबाधितवस्तुव्यवस्थापन २५४ । सा नयगतिः, विहायोगतेरष्ठमो भेदः । प्रज्ञा० ३२७ । नमयति-प्रवणयति । उत्त० ६४१ । नयगतो-नयगतिः नैगमादिनयानां या गतिः सा सर्वनया नमस्करणं-प्रणामपूर्वकं प्रशस्तध्वनिभिगुणोत्कीर्तनम् ।। अपि वा यामिच्छन्ति सा । प्रज्ञा० ३२७ । आव० ८११ । आन्तरा प्रीतिः । उप० मा० १५।। नयचक्र-द्वादशविध्यादिप्रतिपादकं शास्त्रम् । उत्त०६८ नमस्कार:-पञ्चमङ्गलकः । ओघ० २०३ । नयणं-नयनं लोचनम् । प्रश्न. ८ । दृष्टिः । ज्ञाता. नमिः-कच्छपुत्रः । आव० १४३ । १६२ । नमिपवजा-उत्तराध्ययनानां नवममध्ययनम् । सम० नयणकी-नयनकीको नेत्रमण्यताराः। राज. ६ नयन कीका नेत्रमध्यतारा । शाता०६ । नमिय-नमितः नाम माहितः । जीवा० २२६, २६४ । नयरं-नगरं अविद्यमानकरदानम् । प्रभ० ३९ । नगरं नमिया-ज्ञातायाः द्वितीयश्रुतस्कंधे पञ्चमवर्ग द्वाविंशति- अविद्यमान करम् । औप०७४ । नगरं करविरहिततममध्ययनम् । ज्ञाता०२५२ ।। सन्निवेशः । उत्त. १०७ । न विद्यते करो यस्मिन नमी-नमिः द्रव्यव्युत्सर्गे विदेहजनपदे मिथिलाधिपतिः, यो तव नकर नखादिकः । जीवा० २७६ । वलयानि दृष्ट्वा संबुद्धः । आव० ७१६, ७१९ । नमिः नयरवाहिरिया-नगरबाहिरिका । उत्त० २२१ । राजा योऽशनादिकमभुक्त्वैव सिद्धिमुपगतः। सूत्र०६५। नयरमंडल-नगरमंडलपुरपरिक्षेपपरिसरः । उत्त०४६८1 नमिः, विदेहजनपदेषु मिथिलानृपतिः, यो निजदेवीवलयं | नयरमज्झ-नगरमध्यं सन्निवेशमध्यमागः । प्रभ०५९। दृष्ट्वा प्रति बुद्धः । नयविही-नयविधिः नेगमादिभेदः । उत्त० ५६५ । नय. नमुचिः-वाराणस्यां ब्राह्मणविशेषः । उत्त० ३७६ ।। विधिः नेगमादिनयंप्रकारः । प्रज्ञा० ५६ । नमुचिना-सेवाशुपायलब्धे दृष्टान्तः । जं० प्र० २६७ । । नयविहूणो-नयविहीनः ज्ञानगमनक्रियालक्षणनयशून्यः । नक्कार-नमस्कार: नमस्कारसहितं प्रत्याख्यानम् ।आव० | आव. ५३१ । ८५२ । नमस्कारः । आव० ५२४, ८०० । नया:-नयन्ति परिच्छिन्दन्ति अनेकधर्मात्मकं सद्वस्तु सा नय-नयः अनन्नधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेदः, एके- अनवधारणतयकेन धम्मति नया: । ठाणा० १५३ । नंब धर्मेण पुरस्कृतेन वस्त्वङ्गोकार:०प्र०५ । अनन्त- नता ईषन्नता । जीवा० १०२।. (५७६ ) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयुता ] नयुता - सङ्ख्याविशेषः । उत्त० २७७ । नर- पादपूरणार्थे निपातः । बृ० तृ० १६६ आ । नरः नरव्यञ्जनः, न भावनरः । दश० २५१ । नरए-नरान् कायन्ति - योग्यतयाऽऽह्वयन्तीति नरका: । उस० १८२ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ मलणी | भग० ८०३ । नलथंवा - नलस्तम्बः - अभावुकद्रव्यम् । ओघ० २२३ । 'नलस्तम्ब : - वृक्षविशेष: । आव० ५२१ । नलदाम - नलदाम: - पारिणामिको बुद्धिदृष्टान्ते शाखापुरे मस्कोटमारक: । आव ० ४३५ । नलदाम: - कुविन्दवि शेषः । व्य० प्र० १४० आ । नलवणं - वनविशेषः । ओघ० १५८ । नलादयः - सूर्य पाकरसवतीकारकाः । जं० प्र० २४४ । नलिए - नलिकः - शूलिका । व्य० द्वि० ४१७ अ । नलिणंगे- नलिनाङ्गः, कालविशेषः । सूर्यं ० ६१ । भग० नरकः - नराह्वानकः स्थानविशेषः । नरकण्ठ:- नरकण्ठप्रमाणो रत्नविशेषः नरकवीथीनां - नरकान्ता -दक्मिवर्षधरपर्वते चतुर्थं कूटम् । ठाणा ० ७२, ७४ । रुक्मिपर्वत निर्गता नदी । हृदविशेषः । ठाणा० | आचा० २१६ । ७७ । । जीवा० २३४ । ७५ । नरछाया - छाया गतिभेदः । प्रज्ञा० ३२७ । नरदेवा-तराणां मध्ये देवाः- आराध्या । क्रीडाक्रान्त्यादियुक्ता वा नराश्व ते देवाति नरदेवाः । भग० ५८३ । नरय-निरया: सीमन्तकाद्या अप्रतिष्ठानावसानाः । आव ० ६०० । नरयावास - प्रावसन्ति येषु ते आवासाः नरकाश्च ते आवासव ेति नरकावासाः । भग० ६८ । नरवाम । औप० ७ । नरवाहण - भरुयच्छे राया । बृ०प्र० २२७ मा । नरवाहनः । आव० ८६ । नरवाहणिया- कार्मार्थभेदविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । नरसिंह - पुण्यपाप संकीर्ण मेकवस्तुदृष्टान्तः । विशे० ७१३ । नरिदं - लान्तके देवविमानविशेषः । सम० २२ । नारदतं -लान्तके देवविमानविशेषः । सम० २२ । नरदुत्तरवडसगं - लान्तके देवविमानविशेषः । सम०२२ नर्कुटक :- नागदन्तकः, अङ्कटकः । जीवा० २०५ । नर्तकी - यंत्र काष्ठमयी । व्य० प्र० १६२ अ । नर्म - रागोद्रेकात्प्रहास मिश्रो मोहोद्दीपकः कन्दर्पः । आव ० ८३०। नलः - शुषिरसराकारः । ठाणा० ४१६ । प्रतरभेदविशेषः । प्रज्ञा० २६६ । तृणविशेषः । प्रज्ञा० ३७ । नलः - वैश्रमणज्येष्ठपुत्रः । अन्त० ५ । वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ । नलकूबर : - देवविशेषः । उत्त० ४६५ । ( अरुप ० ७३ ) [ नवणीयं ८५५ । नलिण-भगवत्या एकादशशतके अष्टम उद्देशकः । भग० ५११ । नलिनः । सूर्य ० ६१ । नलिनम्। भग० २१०, २७५, ८८८ । देवविमानविशेषः । सम० ३३ । नलिनंईषद्रक्तं पद्मम् । जीवा ० १७७ । ज्ञाता० ९६ । प्रत्येकशरीरजीवात्मकवनस्पतिभेदः । प्रज्ञा० ३७ | देवविमानविशेषः । सम० ३५ । नलि कूडा-वक्षस्कारपर्वतविशेषः । ठाणा० ८० । नलिणगुम्मं - देवविमान विशेषः । सम० ३५ । उत्त० ३७६ । नलिणतन्तु - नलिनतन्तवः - सूक्ष्मतन्तवः । जं० प्र०१०७ ॥ नलिणिगुम्म - नलिनीगुल्मः विमानविशेषश्च । आव ० ६७० । द्वितीय वर्गेऽष्टममध्ययनम् । निरय० नलिनं - ईषद्रक्तं पद्मम् । राज० ८ । १६ । नलिन गुल्मविमानं - पद्मगुल्मविमानम् । उत्त० ३७६ । || नलिनानि - ईषद्रक्तानि । जं० प्र० २६ । नलिनावती । ज्ञाता० १२३ । नवंग - नवाङ्गानि द्वे द्वे श्रोत्रे नयने नासिके जिह्वेका स्वगेका मनश्चकम् । ज्ञाता० ४२ । नव- वरिसो होइ नवो व्रतपर्यायेण । व्य० द्वि० ११२ आ । प्रत्यग्रम् । ज्ञाता० १६८ । जीवा० १८८ । त्रिवर्षावस्थां यावत् । व्य० प्र० २४५ । नवकमलं - आदित्यबोधं पद्मम् । प्रश्न० ८४ | नवणीयं- नवनीतं । प्रज्ञा० ३६७ । म्रक्षणम् । आव ० ६२४, ८५४ । जीवा० २०० । उत्त० ६५४ । ( ५७७ ) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतं] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [नागः नवतं-नवत्यधिकम् । सूर्य २६ नहवेयण-नखवेदना । आव० १६२ । नवतय-नवतानि-जीनानि । ज्ञाता० २३२ । .. नहवेयणा-नखवेदना नखरपोडा । भग० १६७ । नबतयकुसंतो-नवत्वक्कुशान्तः-प्रत्यग्रस्वग्दर्भपर्यन्तरूपः । | नहसंठाणा-नख संस्थाना-नखवत्तीक्ष्णा । ओघ ३० । ' जीवा० २१० । नहसंदट्ठो-नखसंदष्टः-नखा: संदष्टा मुसलादिभिश्रुम्बिता नवधम्म-नवधर्म:-अभिनवश्रावकः। बृ० प्र० २७६ अ। यस्य सः। जीवा० २१३ । नवनकिकाया-एकशीतिः । व्य० द्वि० ३४७ आ। नहसिर-नखशिर:-नखाग्रम् । भग० २१८ । नवनवमिया-नवनवमिका-भिक्षुप्रतिमाविशेषः । अन्त० नही-साधारणवादरबनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ । २९ । नव नवमानि दिनानि यस्यां सा नवनवमिका । सम. | नाइ-ज्ञाति:-स्वजनः । उत्त० ३६१ । ज्ञाति:-स्वजनो ८८ । मातापितृपुत्रकलत्रादिः । सूत्र. ७५। ज्ञाति:-स्वजनः । नवमालिका-गन्धद्रव्यविशेषः । जीवा० १६१ । गुल्म- उत्त० १८८ । विशेषः । प्रज्ञा० ३० । उत्त० ६६२ । आचा० ३०। नाइत-नादितं वादनोत्तरकालभावी सततध्वनिः । राज भग० ३०६ । २५ । नवमिका-शकेन्द्रस्य सप्तमी अग्रमहिषी । जं० प्र० १५६ । नाइय-नादितं-शब्दानुसारी नाद: । औप० ७३ । लपितम् । नवमिया-शकेन्द्रस्य सप्तमी अग्रमहिषी । भग० ५०५। ज्ञाता० ५ । नादितं-घण्टायामिव वादनोत्तरकालभावीसत्पुरुषस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी । भग० ५०४ । सततध्वनिः । जीवा० २४५ । नादितं-ध्वनिमात्रम् । नवयए-नवत्वक् । ठाणा० २३४ ।। भग ४७६ । नवर-केवलम् । ओघ० ३४, १९७। ठाणा० ५६ । नाइवल-नातिवेल न मयादल्लिङ्घनम् । आचा० २६१ । नवरि-केवलम् । प्रश्न. १३३ । नाई-ज्ञातय:-पूर्वापरसंबद्धाः स्वजनाः । आचा० १३० । नवलकं-नोलोति लोके । नंदी. १५६ । नाईवग्गो-ज्ञातिवर्ग:-स्वजनयोषिद्वर्गः । ओघ० ६१९ । नवा-जत्थ गावो ऊसस्थाणा लिहंति सा भुजमाणी णिरुद्धा नाए-न्यायः सन्मार्गः । आचा० १४४ । न्यायनि यनवा भण्णंति । नि० चू० प्र० १९२ आ । कत्वात् न्यायः ज्ञातं वा-ज्ञातसामर्थ्यमनुभूततत्प्रसादेन नवा । ठाणा० ४६७ ।। लोकेनेति । ज्ञाता० ३ । आचा. ४२२ । न विग्रहः-लोकयात्रा । नि० चू० प्र० ३२४ आ। नाओ-अभिष्टार्थसिद्धेः सम्यगुपायत्वात न्यायः, जीवकर्मनवीन:-सम्प्रत्येवापाकत: समानीतः । सम्बन्धापनयनान्यायः, आवश्यकस्य षष्ठः पर्यायः । नष्टक्षीरा-विनीता गौः । आव० ५४६ । अनु० ३१ । नाद:-महान् घोषः । जीवा० २४५ । नष्टनाशक:-नित्यवासी । आव. ५३५ । नीयते संवित्ति प्राप्यते वस्त्वनेन इति न्यायः । विशे० नष्टसंसार:-विनीतसंसारः । आव. ५४६ ।। ९६४ आ । न्यायः आवश्यकस्याष्टमपर्यायः । विशे०४१५ । नस्ते-नासिकारज्जू । भग० ४५६ । नाखरा-सिंहादयः । ठाणा० २७३ । नह-नखः नखिकाः । जं. प्र. ५७ । नखः । आव० नागः-भवनपतिविशेषः । जीवा० २८१ । अनु. २५ । १६२ । करजः । प्रश्र०८। द्रमविशेषः। जीवा० १५२ । सीसकम् । प्रश्न० १५२। नहनिवाय-नखनिपातः-नखरदनजातिः, संप्राप्तकामस्याष्ट- दशमं करणम् । जं० प्र० ४६३ । नाग:-बनगजः । मो भेदः । दश. १९४ । दश० २७५। नाग:-वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । नाग:नहरणं-न घेत्तव्यं । नि० चू.द्वि. २४ आ । शिक्षायोगदृष्टान्ते राजगृहे प्रसेनजित्सस्को रथिक:-सुलसा. नहवाहणो-नभोवाहनः-द्रव्यप्रणिधिविषये कृशसमृदो | पतिः। आव० ६७६ । नाग:-महिलपुरे गाथापतिः । अन्त. भृगुकच्चनगराधिपतिः । बाव० ७१२ । | ४ । भगवत्या द्वादशशतकस्य अष्टम उद्देशकः । भग० (५७८) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागकुमारा ] ५५२ | नाग:- द्वीपसमुद्र विशेषः । जीवा० ३२१ । नाग:यमुनाहृदवासी घोरविषो महानागः । प्रश्न० ७५ । नागकुमारा - नागकुमाराः भुवनपति: । प्रज्ञा० ६६ । नागकुमाराः - वरुणस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवत्तिनो देवाः । भग० १६६ । नागकुमारो ओ - नागकुमार्यः वरुणस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवत्तिन्यो देव्यः । भग० १६६ । अल्पपरिचितसं द्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ नागकेसरं - नागकेशरं-चूर्णविशेषः । आव० ६३६ । नागग्ग हो - नागग्रहः । जीवा० २६४ । नागघरए - उरगप्रतिमायुक्तं चैत्यम् । ज्ञाता० १३१ । नागजण्णए - नागपूजा, नागोत्सवः । ज्ञाता० १३२ । नागजसा - नागयशा:- पत्थकसुता । ब्रह्मदत्तराज्ञी । उत्त० ३७६ । नागदंतए - नागदन्तकः- नर्कुटक: अङ्कुटक इति । जीवा० २०५ । नागदन्तकः - अङ्कुटकः । जीवा० २१४ । नागदत्तः-नागदत्तः- वैधम्र्योदाहरणे प्रतिष्ठाने निर्विण्णकामभोगो नागवसुश्रेष्ठपुत्रः । आव० ६६८ | नागदत्तः - कषायप्रतिक्रमणोदाहरणे श्रेष्ठपुत्रः । आव० ५६५ । नागदत्तःनिष्प्रतिकर्मशरीरतायां विपरित दृष्टान्तः । आव० ६६४ । नागदत्ता - यक्षहरितस्य प्रथमा सुता - ब्रह्मदत्तराशी । उत्त ० . ३७६ । नागदमनी - औषधोविशेषः । उत्त० ६३४ । नागपरियावणिया - नागाः नागकुमारास्तेषां परिज्ञा यस्यां ग्रन्थपद्धतो भवति सा नागपरिज्ञा । नंदी० २०७ । नागपुर - नगरविशेषः । ज्ञाता० २५२ । नागबाणः - महाशस्त्रम् । जीवा० २८३ । नागबाणा: - धनुष्यारोपिता बाणाकारा मुक्ताश्च सन्तो 1. जाज्वल्यमानास ह्योल्का दण्डरूपास्ततः परशरीरे सङ्क्रान्ता नागमूर्तीभूय पाशत्वमश्नुवते । जं० प्र० १२५ । नागमह - नागस्य भवनपतिविशेषस्य प्रतिनियतदिवसभावी उत्सवः । जीवा० २८१ । आचा० ३२८ । नागमाला - नागमाला: द्रुमगणविशेषः । जं० प्र० ६८ । नागयज्ञ - पद्मावत्या देव्या कारितो यज्ञः । ठाणा० ४०१ । नागरकादि-मैथुने प्रारम्भयन्त्रम् सम्प्राप्तकामस्य द्वादशो भेद: । दश ० १९४ । [ नाण. नागरपुष्पं पुष्प विशेषः । जीवा० १३६ । नागरप्रविभक्ति - द्वादशनाट्यभेदः । जं० प्र० ४१६ । नागराय - नागराजाः - नागकुमारवराः । ठाणा० २२८ । नागरिक:- नगरनिवासी । नंदी० १४६ । नागरी लिपिविशेषः । नंदी० १५८ नागरुक्ख-वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । भुजङ्गानां चैत्य वृक्ष: । ठाणा० ४४२ । नागलया - नाग: द्रुमविशेषः स एव लता तिर्यक् शाखाप्रसराभावात् नागलता । जीवा० १८२ | नागवसू - नागवसुः - प्रतिष्ठानगरे श्रेष्ठि । आव० ६६८ । नागवित्त-भूतानन्द देवः । भग० ५०४ । नागसिरि- चम्पानगर्यां सोमस्य भार्या । ज्ञाता० १९६ । नागश्री:- प्रतिष्ठानपुरे नागवसुश्रेष्ठिभार्या । आव० ६६८ ॥ नागसेण-नागसेनः - उत्तरवाचालायां भोजनदाता | आव ० १६७ । नागार्जुनवाचकाः - भोघश्रुतसमाचारकाः । नंदी० ५२ । नागिदो - नागेन्द्रः । आव० १४३ । नागील - कुलवंशविशेषः । व्य० प्र० ६ अ । नागेन्द्रकुलं - कुलविशेषः । दश० २४२ । नाट्यकला - भरतमार्गच्छलिकं लास्यविधानम्, द्वासप्ततिकलायां चतुर्थी । सम० ८४ | नाट्यानीकं स समानीकविशेषः । जीवा० २१७ । नाडइज्जो - नाटकीय : नाटकपात्रम् । विपा० ६३ । नाडग - नाटकं चरितानुसारिनाटकलक्षणोपेतम् । ठाणाo ४५० । नाडयं - नाटकं गीतयुक्तं नाट्यम् । बृ० द्वि० ३६ आ । नाडिक - कालपरिज्ञाते दृष्टान्तः । ठाणा० ४० । नाण- ज्ञातिर्ज्ञानमितिभावसाधनः संविदित्यर्थः । ज्ञायते वाSनेनास्माद्वेतिज्ञानं तदावरणस्य क्षयः क्षयोपशमो वा, ज्ञायतेऽस्मिन्निति ज्ञानं आत्मा तदावरणक्षयक्षयोपशमपरिणामयुक्तः जानातीति वा ज्ञानं तदेव स्वविषयग्रहणरूपत्वादिति । ठाणा० ३४७ । ज्ञातिर्ज्ञानं ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनास्मादस्मिन्वेति वा ज्ञानं जानाति स्वविषयं परिच्छिनतोति वा ज्ञानं ज्ञानावरणकर्म्मक्षयोपशमक्षयजन्यो जोवस्य तत्त्वभूतो बोध इत्यर्थः । अनु० २ । ज्ञानं अभिप्रायः । ( ५.७६ ) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाणगुणं] आचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ नाणी आचा० ६६५ । ज्ञान-उपयोगः संवेदनम् प्रत्ययः । विशे० | नाणपडिसेवणाकुसीले-ज्ञानस्य प्रतिसेवणया कुशीलो ३६ । ज्ञानं-द्रव्यपर्यायविषयो बोधः । ठाणा० १५४ । । ज्ञानप्रतिषेवणाकुशीलः । भग० ८१० । ज्ञानं विशेषावबोधः । ठाणा० ४६ । अपायधारणे नाणपुलाए-ज्ञानमाश्रित्य पुलाकस्तस्यासारताकारी विराधशायन्ते परिच्छिद्यतेऽर्था अनेनास्मिन्नस्माद्वेति शानं शानदर्श. | को ज्ञानपुलाकः । भग० ८६० । नावरणयोः क्षयः क्षयोपशमो वा ज्ञातिर्वा ज्ञानम् । ठाणा. नाणप्पवायं-ज्ञानं मत्यादिकं स्वरूपभेदादिभिः प्रोच्यते २३ । दानविशेषः । प्रश्न० १३५ । ज्ञान-आचारादि- तत् ज्ञानप्रवादम् । सम० २६ । । श्रुतं । बृ० द्वि० १०० आ । ज्ञानं विमर्शपूर्वको नाणबलिओ-ज्ञानबलिकः अव्यभिचारिज्ञान: । औप० बोधः । उत्त० १२७ । ज्ञायते-परिच्छिद्यते वस्स्वनेनेति २८ । शानं-सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको | नाणमायारो-ज्ञानासेवनाप्रकारः । दश० १०६ । बोधः । प्रज्ञा० ४५३ । ग्रन्थानुप्रेक्षणरूपम् । प्रश्न. १११॥ नाणवं-ज्ञान-यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदकं वेत्तीति ज्ञानवित्। तत्त्वावबोधरूपः । जं० प्र० १५१ । विशेषबोधः । प्रश्न | आचा० १५४ । १३२ । ज्ञानं-मत्यादीनि ज्ञानानि स्वपरपरिच्छेदिनो, नाणवसिए-ज्ञानव्यवसितः । भक्त० । जीवस्य परिणामाः ज्ञानावरणविगमव्यक्तास्तत्त्वार्थपरि- नाणविणह-ज्ञानविनयो मत्यादिनां मत्यादिज्ञानानां श्रद्धानच्छेदाः । आचा० ६८ । अपायधारणे ज्ञानम् । ठाणा० मस्ति बहुमानतद्दृष्टार्थभावनाविधिग्रहणाभ्यासरूपः । भग० ६२४ । नाणगुणं-ज्ञानगुणम्-शानमाहात्म्यम् । आव० ५६१। नाणवुद्वि-ज्ञानवृष्टिः शब्दवृष्टिः । आचा० ६८ । नाणगुणमुणियसारो-ज्ञानेन गुणानां-जीवाजीवाभितानां | नाणसिद्धा-ज्ञानसिद्धा:-भवस्थकेवलिनः । दश० १२८ । पर्यायाणां च तदविनाभाविना मुणित:-ज्ञातः सारः, | नानाता-भिन्नता । आव० २८१ । परमार्थो येन सः, ज्ञानगुणेन ज्ञानमाहात्म्येन वा ज्ञातः | नाणामणिपंचवण्णघंटापडायपडिमंडियग्गसिहरंसारो येन सः ज्ञानगुणमुणितसारः । आव० ५६१ । | । आचा० ४२३ । नाणदा-नानार्था-भिन्नाभिधेयानि । भग०१७। नाणावंजण-नानाव्यञ्जनः अनेक प्रकारः दध्यादिभिः । नाणण्णवाय-ज्ञानप्रवादः ज्ञानं-मतिज्ञानादिभेदभिन्नं पञ्च. उत्त० ३६१ । प्रकारं तत्प्रपञ्च वदतीति । नंदी० २४१ । नाणावरणिज्जं-ज्ञायते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञाननाणतं-नानास्वं-विशेषः । ७० प्र० २२९ आ । नानास्वं - सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोध:, भेदः । भग० २६ । नानात्वं-परनिरपेक्षमेकस्यैव वर्णा- आप्रियते-आच्छाद्यते अनेनेति आवरणीयं कृतहलमिति दिकृतं वैचित्र्यम् । प्रज्ञा० ३०३ । नानात्वं-योऽतिरिक्तो वचनात् करणेऽनीयप्रत्ययः, ज्ञानस्यावरणीयं ज्ञानावरणीविधिर्भवति । ओघ १६६। अतिरिक्तः । ओघ० यम् । प्रज्ञा० ४५३ । १८३ । नाणाविरागो-नानाविधो-विशिष्टो रागो यस्य स नानानाणत्ति-नाना इत्येतस्य भावो नानाता-वस्तूनां परस्परं विरागः । जीवा० २४६ ।। भिन्नता-विशेषः । विशे० ८८७ । नाणाविहदोसो-त्वक्त्वक्षणनयनोत्खननादिषु हिंसाधुपानाणत्ती-नानाभावः नानाता-भिन्नता। आव २८६।। येष्वसकृदयेवं प्रवर्तत इति नानाविधदोषः । आव ०५६० । नाणदंसणसंपन्न-शानदर्शनसम्पन्नः । दश० २२२ । नाणी-ज्ञानी-परमार्थवित् । आचा० १६६ । ज्ञानीनाणपजवा-शानपर्यवान्-विशिष्टतरवस्तुतत्वावबोधरूपाः। केवलज्ञानवानित्यर्थः । आचा० ३३१ । ज्ञानी-ज्ञानं उत्त० ५९२ । ज्ञानपर्यवाः ज्ञानपर्यायाः ज्ञानविशेषा सकलपदार्थाविभावकं विद्यते यस्यासी । प्राचा. बुद्धिकृता वाऽविभागपरिच्छेदाः। भग० ११९ । . १८२ । (५८०) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणुहेसए ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [नामनिप्फण्ण नाणुहेसए-अष्टमशतद्वितीयोद्देशकस्य ज्ञानवक्तव्यतार्थम- विशे० ४४५ । अभ्युपगमः मन्यामहे तदित्यर्थः । विशे० वान्तरप्रकरणम् । भग० ६१० । १०५८ । यत् कस्मिचिद् भृतकदारकादौ इन्द्रायभिधानं नात्रक-सम्बन्धः । व्य. द्वि० १२६ आ । क्रियते तद्नाम भण्यते । विशे० २२ । नाम निक्षेपस्य नादियं नादितं लपितम् । जीवा० १८८ । द्वितीयो भेदः । विशे० ४५० । नाम आस्या आभधान नादिया-नादिता-शब्दवती । जीवा० २२७ । नामधेयम् । भग० ११ । नाम नमनं नामकर्मनिर्जरनानादेसी-बहविधा अनार्यप्रायदेशोत्पन्नाः । ज्ञाता० ४१ । णम् । सूत्र० २५६ । नामयति गत्यादिपर्यायानुभवनं नानापिड-नाना-अनेकप्रकारोऽभिग्रहविशेषात्प्रतिगृहमल्पा- प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम । प्रज्ञा० ४५४। परिणामो ल्पग्रहणाच्च पिण्ड-आहारपिण्डः, नाना चासो पिण्डश्च धर्मः । सम. १४८ । ठाणा० ३७७ । नमनं नाम:-परि. नानापिण्ड: अन्तप्रान्तादि । दश० ७३ । णामो भावः । भग० ८६०विभक्तिपरिणामानाम्नेत्यर्थः । नानाविधदो:-हिंसाधुपायेषु दोषो सकृत्प्रवृत्तिरिति ।। भग० ११ । पारिभाषिकी सज्ञा । विपा० ४२ । ठाणा० १६० । नामए-सम्भावनायामलङ्कारे । ठाणा. ४१६ । वाक्यानान्दीपात्रं-भिक्षापात्रम् । पिण्ड० १३४। . लङ्कारे । ठाणा० ४६६ । मापितक्षरग्रहम् ।१-१-१६। नामकम्म-नमयति गत्यादिविविधभावानुभवनं प्रत्यास्मानं नाभी-नाभि:-प्रथमजिनपिता। आव० १६१ । भरतक्षेत्र प्रवणयति चित्रकर इव करितुरगादिभावं प्रति रेखाकृतिमि. अवसपिण्यां सप्तमः कुलकरः । ठाणा० ३९८ । आव० | ति नामकर्म । उत्त० ६४१ ।। १११ । सम० १५० । नाभि:-शकटरथाङ्गम् । दश | नामकाय-नामाश्रित्य कायः । आव० ७६७ । २१८ । आचा० ३८ । नामगोस-इहान्वर्थयुक्तं नाम सिद्धान्तपरिभाषया नामगोनामेय-ऋषभदेवो भगवान् । आचा०८। तम् । सूर्य० २७४ । नाम-नाम परिणामोऽवगाहनानाम कर्मविशेषः। भग०२८०। नामगोयं-नामगोत्रं यादृच्छिकान्वर्थाभिधानम् । औप. नामसंभावनायां प्रयुज्यमानोऽयं शब्दः । भग० ८२ । अभिधानम् । अनु० १०५ । अलङ्कारार्थः । आव० नामण-नामनमवनतिकरणम् । दश० १०० । रागादीनां ८३१ । वाक्यस्यालङ्कृतौ । प्रश्न० ५। सम्भावनायाम्। प्रह्वीकरणं वश्यभावापादनं नमनं मूलतो नाशनम् । डाणा० ४१६ । भग० ८२ । अनु० १७६ । नामशब्दः | विशे० ११७६ । सम्भावनायां । आचा० ३५५ । शास्त्रीयोपक्रमे द्वितीयो नामधिज्ज-नामधेयं नाम । दश• २०७ । भेदः । आव० ५६ । चतुर्था, तद्यथा-गौणं समय | नामधेज्ज-नामधेयं नाम । ओप० १ २ । तदुभयजमनुभयजञ्च । पिण्ड० ३ । क्षपकोऽभिधीयते उप. नामधेज्जा-नामधेयवती प्रशस्तनामधेयवती । नाम धार्यशमको वा । आचा० १७२ । नाम परिणामो धर्मः ।। हृदि धरणीयं यस्याः सा । ज्ञाता० १४ । भग० २८० । नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषो जीवपरि- | नामधेयं-प्रशस्तं नाम । भग० ७ । णामो वा । भग० २७ । नाम अभिधानम् । ठाणा० नामनमस्कार:-नम इत्यभिधानम् । जं० प्र० १० । ४८६ । शास्त्रीये द्वितीयो भेदः । ठाणा०.४ । नाम्न:- नामनिग्गया-निर्गतनामा गणिकाविशेषः । आव० २१३ । कर्मणः उत्तरप्रकृतिविशेषो जीवपरिणामो वा । ठाणा. नामनिप्फण्ण-नामनिष्पन्नः निक्षेपभेदः । दश० १५ । ३७६ । नाम सम्भावने, अलङ्कारे वा । भग० ३७ ।। नामनिष्पन्न आचारशास्त्रपरिज्ञादिविशेषाभिधाननामादिनाम यादृच्छिकमभिधानम् निश्चयार्थमव्ययमपि । भग० न्यासः । आचा० ३ । नामनिष्पन्न:-सामायिकादिवि. ११५। संभावने । भग० ७.५। यादृच्छिकमभिधानम् । शेषाभिधाननिष्पन्नः । अनु० २५१ । निक्षेपस्य द्वितीयः भग० ५६१ । यज्जीवादिवस्तुनोऽभिधानं तद् नाम । प्रकारः। आव० ५८ । (५१) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामनिष्पन्नः ] आचार्योआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [नारदमुनि नामनिष्पन्नः-निक्षेपभेदः । ठाणा० ६ । नायकुले-स्वजनगृहम् । उपा० १४ । नाममुद्रा-मुद्रिका-अभिज्ञानम् । नंदी० १५६ । नायकुलनिव्वते । आचा० ४२२ । नामसच्च-नामसत्यं नाम कुलमवर्द्धयन्नपि कुलवर्द्धन | नायकुलवासिणी-ज्ञातिकुलवासिनी नाम यो गृहजामाइत्युच्यते, धनमवर्द्धयन्नपि धनवर्धनः इत्युच्यते, अयक्षश्च तुर्दत्ता । ध्य. द्वि० २७७ आ । यक्ष इति । दश० २०८ । नायगो-ज्ञातक:-परिचितः । सूत्र० ३२० । नगरकट कादिनामसच्चा-नामसत्या पर्याप्तिकसत्यभाषायाश्चतुर्थो भेदः । प्रधानः । औप०७२। नायक:-प्रधानः । आव० ७७२ । नामत: सत्या नामसत्या यथा कुलमवर्द्धयन्नपि कुलवर्धन- पुरसंथुतो पच्छासंथुतो वा। नि० चू० द्वि १२१ आ । मिति । प्रज्ञा० २५६ । नायतो-ज्ञातक: पूर्वसंस्तुतः । व्य० द्वि० ३३६ अ। नामसम-स्वकीयेन नाम्ना समं नामसमम् । विशे० ४०५। नायाधम्मकहाओ-ज्ञातानि-उदाहरणानि तत्प्रधानाधर्मअभिधानं तेन समं नामसमम् । अनु० १५ । कथा ज्ञाताधर्मकथा । नंदी २३०, २३१ । नामाउडिओ-पाकुट्टितनामा । अनु० २२३ । | नायपुत्ते-ज्ञाता:-क्षत्रियास्तेषां पुत्र:-अपत्यं ज्ञातपुत्रः वीरनामागोयं-इहान्वर्थयुक्तं नाम सिद्धान्तपरिभाषया नामगोत्र- वर्धमानस्वामी । आचा० ३०३ । ज्ञातपुत्रः-ज्ञात:-उदारमित्युच्यते । नामगोत्राणि-अन्यर्थयुक्तानि नामानि । क्षत्रियः सिद्धार्थः तत्पुत्रो वर्धमानः । दश० १६९ | जीवा० ३३६ । ज्ञातपुत्र:-भगवान् वर्द्धमानः । दश. १६० । आचा. नामानि-गोत्राणि । ठाणा० ३८६ । ४२२ । नामिक-वस्तुवाचकत्वात् अश्व इति । अनु० ११३ । पदस्य | नायमुणो-ज्ञातमुनि:-क्षत्रियविशेषरूपो यतिः श्रीमन्महावीर प्रथमो भेदः । आव० ३७६ । इत्यर्थः । प्रभ० ११३ । नामुदए-अन्ययूधिकः । भग० ३२३ । सप्तम आजीविको· नायसंड-ज्ञातखण्ड:-वीरजिनस्य निष्क्रमणोद्यानः । आव० पासकस्य नाम । भग० ३६६ । नाम-नामयति क्षपयति । आचा. १७२ । | नायसंडवणं-ज्ञातखण्डवनम् । आव० १८६ । नामेइ-नामयति-अननुगुणं करोति । दश० २१३ । नायसुतो-ज्ञातसुतः-ज्ञाता:-क्षत्रियास्तेषां पुत्रः, वीरवर्द्धनाय-ज्ञात:-कुलविशेषः । आव० १७६ । ज्ञात:-क्षत्रिय- मानस्वामी । सूत्र० १४३ । ज्ञातसुतः । व्य० द्वि० विशेषः । प्रश्न० २६ । ज्ञातः-नागवंश्यः ज्ञातवंशो वा । ४०२ आ। औप० ५८ । नायः-नयतीति छान्दसत्वाकर्त्तरि घन्। नाया-ज्ञाता:-इक्ष्वाकुवंशविशेषभूताः । भग० ४८१ । नायः । आचा० १४५ । ज्ञातानि उदाहरणानि । उत्त नायागयं-नायागतं स्वस्ववृत्त्यनुष्ठानप्राप्तम् । आव० ८३७ ॥ ६१४ । ज्ञाता: क्षत्रियाः । आचा० ३०३ ।। नारए-जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्र उत्सपिण्यां विशतितमजिनस्य नायए-ज्ञातक:-जगत्प्रतीतः क्षत्रियो वा । उत्त० ४४४। पूर्वभवनाम । सम० १५४ । ज्ञातक:-स्वजनः । आव० १८७ । स्वजनपुत्रकः । ज्ञाता | नारओ । बृ० प्र० ३० अ। ८६ । आव० १८७ । ज्ञातीन् । उत्त० १३४ । नायक: नारकद्वितीयोद्देश:-जीवाभिमगस्य द्वितीय उद्देशः। भग. प्रभूायदो-न्यायदर्शी । ज्ञाता० ८९ । १३० । नायओ-नायक:-सकलजगत्स्वामी ज्ञातकः ज्ञात एव वा नारद-दृष्टमधिकृत्य वासुदेवे कामकथाकारकः । दश० ज्ञातक:-उदारक्षत्रियः, न्यायतः । उत्त० ३२१ । ज्ञातयः- ११०। श्रतमधिकृत्य पद्मनाभे कामकथाकारकः । दश. पूर्वापरसम्बन्धिनः स्वजनाः । आचा० २५० । ज्ञातयः ११० । उत्त० ६५१ । नारदः सत्यो शौचोदाहरणे स्वजनाः । बृद्वि० ७ अ । ज्ञातयः-दूरवत्तिनः स्वजनाः। । तापसपुत्रयज्ञदत्तसुतः । आव० ७०५ । । उत्स० १३ । -द्रोपद्यपरि द्वेषवाहको असंयतः। प्रभ०८७) (५८२) Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारदाः ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [नासा - नारदाः-गन्धर्व भेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । घडिकारूपा । विशे० ४३६ । देहादधिको दण्डकः । नारयपुत्त-नारकपुत्रः पुद्गलप्रदेशनिरूपणे महावीरशिष्यः। द्वि० २० आ । ताम्रादिमयघटिका । अनु० ४८ ।। भग० २४० । नालिकेरी-वृक्षविशेषः । उत्त० ६७२। नाराचः-उभयतो मर्कटबन्ध: । जीवा० १५ । नालिया-नालिका-द्युतक्रीडाविशेषः । सूत्र० १८१ । नाराय-नाराच:-अयोमयो बाणः । उत्त० ३११ । नाराचं- नालिका-घटिका । दश०४०। सम.१८। नालिकामर्कटस्थानीयमुभयोः पार्श्वयोऽस्थि नाराचम् । सम०१४६ । आत्मप्रमाणचतुरङगुलाधिका यष्टिका । ओघ० ३३ ।। नाराच यत्रास्थ्नोमर्कटबन्ध एव केवलस्तत् । जीवा. नालिका सुषिरवंशादिरूपा। भग० १३४ । यष्टिविशेषः । १५ । नाराच:-बाणः । भग० ३१८ । नाराचं-उभयतः भग० २७५, २७७ । स्वमानात् चतुरङ्गुलाधिका यष्टिः । मर्कटबन्धनिबद्धकाष्ठसम्पुटोपमसामोपेतत्वात् । भग० बृ० तृ. १६४ आ। नालिका, घटिका । वृ० प्र. १२ । उभयतो मर्कटबन्धः। सूर्य० ४ । प्रज्ञा० ४७२।। ४२ अ । ज० प्र० १५ । नाराचमुभयेतामर्कटबन्धः । राज० ५७ । नालियापुप्फं-नालिकापुष्प-कलम्बुकापुष्पम् । जं० प्र० नारायगं-नाराचा बाणाग्रम् । जीवा० १०६ । ४५३ । नारायण-नारायण:-अष्टम बासुदेवः । आव०५६, १६६। नालियेरपाणगं-पानकभेदः । आचा० ३४७ । नारायणः-ऋषिर्यः परिणतोदकादिपरिभोगासिद्धः । सूत्र. नालिसंठिय-नाडीसंस्थितः-आवलिकाबाह्यस्य द्वाविंशति९५ । कृष्णः । ६० प्र० ३० आ। तमं संस्थानम् । जीवा० १०४ । नारीकंता-नारीकन्ता-नदीविशेषः । ठाणा० ७४ । जं./नालो-नाडो-त्रसनाडी । भग०९६० नाडीक: वनस्पतिप्र. ३७७ । विशेषः । भगवत्याः एकादशशतके पञ्चम उद्देशकः । भग० नारीकान्ता-ह्रदविशेषः । ठाणा० ७५ । नीलवर्षधर- ५११ । पर्वते षष्ठं कूटम् । ठाणा० ७२ । नालीए-नालिका-तविशेषलक्षणा । दश० ११७ । नारुआ-नवमी श्रेणि: । जं० प्र० १६३ । नाव-नौः-द्रोणी । दश० २२० । नौ:-तरिका । पिण्ड. नालंद-सूत्रकृताङ्गे सप्तममध्ययनम् । आव० ६५८ | १०२। नालंदा-राजगृहनगरस्य बाहिरिका । सूत्र० ४०७ । नावणं-दानम् । प्रश्न० ५७ । नालएरो-वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । नावाबंध-नौबन्धः । बृ० प्र० ८२ अ । नालन्दा-नालं ददातीति अथिम्यो यथाऽभिलषितं ददातीति- नावापूरक:-चुलुक: । बृ० प्र० ७१ आ। राजगृहनगरवाहिरिका । सूत्र० ४०६ । नावासंठिओ-नावासंस्थितः बुध्नाद्धर्व नाव इव उभयोनालंदीयं-नालं ददातीति, सदाथिभ्यो यथाऽभिलषितं ददा- रपि पार्श्वयोः समतलं भूभागमपेक्ष्य क्रमेण जलवृद्धिसम्भतीति नालंदा-राजगृहनगरवाहिरिका तस्यां भवं, सूत्र- वेन उन्नताकारस्वात् । जोवा० ३३५ । कृताङ्गस्य द्वितीय श्रुतस्कन्धे सप्तममध्ययनम् । सूत्र० नाविओ-स युक्तरूपया नावा भवोदधि तरतोति नाविकः । ४०६ । ठाणा० ३८७ । उत्त० ५०६ । नालबद्धा-मातापिताभ्राताभगिनीपुत्रोदुहिता इत्येते षडप्य- नावियदुयक्खरओ-नापितदासः । आव० ६६० । नन्तरवल्लीमधिकृत्य नालबद्धा । बृ० तृ. ४२ आ। नासः-न्यास:-द्रव्यस्य निक्षेप:-परैः समर्पितं द्रव्यम् । उपा० नालिदा-राजगृहनगरे पाटकविशेषः । भग० ६६१ । ७ । न्यास:-रूप्यकाद्यर्पणम् । आव० ८२१ । नालि-नाडी-घटिका । जीवा० १०५ । , नासण-नाशनं-कर्मप्रकृतेः स्तिबुकसङक्रमेण प्रकृत्यन्तरनालिआ-नालिका-चतुर्हस्तप्रमाणम् । अनु० १५४ । गमनम् । आचा० २६८ । नालिका-साष्टात्रिशलवाः । तत्त्वा० ४-१५ । नाडिका- | नासा-नाशा । आव. १९२ । घोणः । प्रभ० ५२ । . (५८३) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नासाभेय ] नासाभेय-नासाभेद:- नासिकाविवरकरणम् । प्रश्न० २२ । नासावहारे - नासापहारः - रूप्यकाद्यर्वणस्यापहारः । आव ० आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः ८२० । नासावेदणा - नाशा वेदना | आव० १६२ । नासिक - नासिक्य पुरं नगर विशेष: । नंदी० १६७ । नासिका | आचा० ३८ नासीर-मृगया । उत्त० ४३८ । नासेइ - नाशयति मत्सरादपन्हुते । प्रश्न० नास्तिक:- लोकायतः । दश० १२५ । १२५ । मतविशेषः । उत्त० २७५ । नास्तिकाभिप्रायः - लोकायतमतः । दश० १२५ । नाह - नाथत्वं चास्य योगक्षेमकृसाथ इति वचनादप्रातस्य सम्यग्दर्शनादियोग करणेन लब्धस्य तस्यैव पालनेन चेति । सम० ३ । योगक्षेम विधाता । उत्त० ४७३ । नाथत्वं योगक्षेमकरित्वम्, नाथ. - प्रभुः । भग० ८ । योगक्षेमकृत् । नंदी० १३ । नाथः योगक्षेमकृत् । जीवा० २५५ । नाहवयं नाथवचनम् । आव० ३१३ । नाहि - नैव । भग० १७५ । जानीहि । उत्त० ४७३ । नाहियवायं - नास्तिकवादः । ग० । नाही - नाभि कुलकर ऋषभपिता । प्रज्ञा० १०६ । नि-निर् अपकर्षे अपचये यथा निर्ग्रन्थः । बु० प्र० १३५ आ । निती-निर्गच्छन्ती । आव० ७०१ । नितो-निर्यात् निष्क्रामन् । पिण्ड० ७६ । निदं - निन्दा गुरुसमक्षमेव हीलना । आव० ५२८ । निंदs - निन्दति कुत्सति । आव० ५८७ । निंदण - निन्दनं मनसा कुत्सा | भग० २२७ । निंदणया - निन्दनं - आत्मनवात्मदोषपरिकुनम् । भग० आव० ७०८। निबछल्ली - निम्बत्वक् । प्रज्ञा० ३६४ | निबफाणियं निम्बफाणितं निम्बक्वाथः । प्रशा० ३६४ १ निबसारे - निम्बसार : निम्नमध्यवयवयवविशेषः । प्रज्ञा ० ३६४ । निःकृपं चंकमणाई सतो सुनिक्किवो थावराइ सत्तेसु काउं च नातप्पर एरिसओ निक्किवो होइ । बृ० प्र० २१५ आ । निःशुकः - निद्धन्धसः | ओघ० १५८ । निश्रेयसं निश्चितं श्रेयः - प्रशस्यम् । ठाणा० १७७ । निःश्वसितोच्छ्वसितसमं - निःश्वसितोच्छ्वसितमान मनतिक्रमतो यद् गेयं तत् । अनु० १३२ । ठाणा० ३६६ । निःसम्पन्नम् - असाधारणम् । आचा० ४८ । निःसारं - परिफल्गु, सूत्रस्य द्वात्रिंशद्दोषे सप्तमो दोषः आव० ३७५ । निअडिल्ले - निकृतिमान् - मायापरः । उत्त० ३७६ । निअंबो - नितम्बः - पर्वतैकदेशः । अध० ३४ । निअअिन्वं - निर्वासितव्यम् । मोघ० ७८ । निअडि - निकृति : - मायारूपा । दश० १८८ । निअव्यय - निरन्वयः - एकान्तोच्छेदः नाशः । दश० ४० । निआग - नियाग:- नित्यमामन्त्रितः पिण्डः । दश० २०३ ॥ निआण-निदानं भाविफलाशंसा । दश० २६७ ॥ निइउमाणाइ-नित्यं उमाणं प्रवेशः । आचा० ३२६ । निइए-नित्य: अप्रच्युतिरूपः । आचा० १७६ । निइगं - नैत्यिक- प्रतिदिनम् । प्रश्न० १४१ । निलिओ - निजक: । आव० १५१ । निउणं निपुणं - सूक्ष्मम् । आव० २६५ । निपुणं सूक्ष्मं ( ५८४ ) ७२७ । निंदणा - निन्दना - देवदायकदोषोद्घट्टनम् । प्रश्न० १०१ । निन्दना - स्वमनसि कुत्सा । अन्त० १८ । निन्दना मनसा कुत्सनम् । औप० १०३ । निन्दना - आलोचना विकटना शुद्धिः शल्योद्धरणम् । ओघ० २२५ । निदणिज्ज - हीलनीयो गुरुकुलाद्युदुर्घटनतः निन्दनीयः ज्ञाता० ६६ । । [ निउणं निदति निन्दति चेतसा कुत्सति । भग० १६६ | मनसाकुत्संति । ज्ञाता० १४६ । निदह - निन्दत मनसा निन्दां कुरुत | भग० २१६ । निदा-आत्माध्यक्ष मारमकुत्सा प्रतिक्रमणस्य पर्यायः, निन्दनं निन्दा | आव० ५५२ । निदु - मृतप्रसवनी । अन्त० ७ । निब-वृक्षविशेष: । प्रज्ञा० ३१, ३६४ । भग० ८०३ 1 निबए - निम्बक:- आचारविषये अम्बविब्राह्मणभाद्धपुत्रः । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ निउण सिप्पोगए ] । आव ० १७७ । बह्वयं च । आव० ६६ । नियतगुणं निगुणं वा सनिहिताशेष सूत्रगुणमिति यावत् । आव० ६६ । निपुण:सूक्ष्मः । आचा० ३२ । दश० १९६ । उपायारम्भकः । भग० ६३१ । निपुण:- सूक्ष्मबुद्धिगम्योऽत्यन्त कामविषयपरपुण्योपेत इत्यर्थः । सूयं ० २९४ । निपुणं सूक्ष्मम् । विशे० ५०६ । निपुण:- उपायारम्भकः । अनु० १७७ । निउणसियोगए - निपुणशिल्पोपगतः - सूक्ष्म शिल्पसमन्वितः । निकाचितं - निश्चितं प्रमाणम् । ठाणा० ४३५ । अनु० १७७ । निश्चयपूर्वकं भणितम् । व्य० द्वि० २०६ वा । निबद्धीकृतं गृह्यते तत् । व्य० प्र० १६० अ । निकामं - द्वात्रिंशत्कवलाः प्रमाणं भवति त एव यन्नित्यशः सर्वकलं भुज्यते तन्निकामम् । व्य० द्वि० ३३४ आ । निकामं - प्रमाणातीतमाहार प्रतिदिवसमनतो निकामभोजनम् । पिण्ड० १७४ । निकाममीणे-निकामं अत्ययं यः प्रार्थयते स निकाममीणा । सूत्र० १६० । निउणा - निपुणा: - दर्शिन: कुशलाः । उपा० ४६ । निपुणाआषाकर्माद्यपरिभोगतः कृतकारितादिपरिहारेण सूक्ष्मा । दश० १६६ । निउत्त-नियुक्त-नियोजितम् । आव० ४१८ । व्यापारितः । उत्त० ५३६ । नितरां युक्तं सम्बद्धं निकाचितं वेदने - वा नियुक्तम् । भग० २८१ । नियुक्तं नितरां सङ्गतं यत् तत् । ज्ञाता० २३८ । निउत्तमणिओइओ नियुक्तानियोजितः । आव० २३८ । निऊडिऊण| ओघ० १६७ । निएल्लओ - निजक: । आव० ३०८ । निओइए - नियोजित: व्यापारितः । उत्त० ३६५ । निओओ - नियोगः ग्रामः । बृ० द्वि० ३ अ । निओग - नियोग: व्यापारणम् । उत्त० १५२ । नियतो निश्चितो हितो वाऽनुकूलः सूत्रस्याभिधेयेन सह यः खलु योग: सम्बन्धः स नियोगः । विशे० ६१२ । नियोगःनियमः । विशे० ७८३ । निजेऽभिधेये व्यापारो नियोगः । विशे० ५६३ । निकाय - निकाचितं, बद्धम् । बाव० ७६६ । स्कन्धपर्यायः । विशे० ४१६ । निकाच्य-व्यवस्थाप्य । आचा० १६६ । निकायः कायः । उत्त० ६६० । निकाय:- मोक्षः । आचा० ४२ । निकाय:- नित्यः कायः, अधिको वा कायः । आव ० ७६५ । निकायकाय - नित्यः कायो निकायस्तत्सम्बन्धी कामः, अधिक वा कायो निकायस्तरसम्बन्धी कायः, जीवनिकायसामान्येन वा, पृथिव्यादिभेदभिन्नः षड्विधोऽपि जीवनिकायो निकायस्तत्समुदायो वा । आव० ७६७ । निकायण -निकाचनम् । बोध० ४५ । निकाचनं पुतलानां परस्परविश्लिष्टानामेकीकरणमन्योन्यावगाहिता अग्निप्रतप्तप्रतिहन्यमान शूची कलापस्येव सकलकरणानामविषयतया कर्मणो व्यवस्थापनम् । भग० २५ । निकार:- निश्चयेन नितरां वा नियतं वा क्रियन्ते नानादुःखावस्था जन्तवो येन तन्निकरणं निकारः शारीरमानसदुःखोत्पादनम् । आचा० १४२ । निकासो -निकाशः सदृशः । जीवा० २१३ । निकितइ - निकृन्तति छिनत्ति विदारयति । आव० ८०१ । निकुरंब - निकुरम्बः समूहः । भग० १० । निकृतिः- आदरकरणेन परवञ्चतम् । भग० ( ५८५ ) निओया- निगोदा: अनन्तजीवसङ्घाताः । आचा० ६० । निगोदा: - सूक्ष्मबादरानन्तकायिकवनस्पतिजीवशरीराणि । अनु० २४० । कुटुम्बानि । भग० ३०६ । निकर - पुञ्जः । ज्ञाता ० २२६ । निकरण-निकरणं क्रियाया इष्टार्थ प्राप्तिलक्षणाया अभावः । भग० ३१२ । निकरणाए - निश्चयं कत्तु समर्थो भवति । आचा० ४८ । निक्स - निकष :- कषपट्टगता कषितसुवर्णरेखा । अनु०२१४ । निकाइतं - निकाचितं नियमितम् । सूत्र० १७७ निका पं-निकाचितं दृढतरं बद्धम् । उपशमनादिकरणा ( अल्प ० ७४ ) [ निकृतिः नामविषयीकृतम् । प्रश्न० १८ । | आचा० २०६ । निकाए - निकाया, स्कन्धस्य द्वितीयपर्यायः । विशे० ४२६ । निकाचननिकाचनाकरणं निदानकरणं एतस्मात्तपः प्रभृतेश्चक्रवत्• दित्वं मे भूयादिति । ठाणा० २७५ । निकाचयित्वा Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकेयण ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ निक्खेव निकेयण-निकेतन निश्वासनः । बृ० प्र० ८५ आ। निक्षिप्तं-सचित्तस्योपरिस्थापितं,तृतीय एषणादोषः । पिण्ड • निक्कंकड-निष्कङ्कटा निष्कवचा निरावणा निरुपघा. १४७ । संयमिता: । आचा० २३३ । व्यवस्थापितम् । तेति । राज० ८ । आचा० ३४६ । विमुक्तम् । ज्ञाता० ३४ । यस्तु परनिक्ककडच्छाय-निष्कङ्कटा-निष्कवचा निरावरणा निरुप तरोऽन्यतरको वा यावत् वैयावृत्त्यं करोति, तावत्तयोः धाता छाया-दीप्तिर्यस्य तत् निष्कङ्कटच्छायम् । जीवा० । प्रायश्चित्तं निक्षिप्तं क्यिते इति तत् । व्य० प्र० ६९ अ । निक्षिप्त-अनुवृत्तम् । ठाणा. २६८ । निक्कंकडच्छाया-निष्कङ्कटच्छायः निष्कङ्कटा-निष्कवचा निक्खित्तदंडा-निक्षिप्तदण्डा:-निश्चयेन क्षिप्ता: निक्षिप्त:निरावरणा निरुपघाता वा छाया दीप्तिर्यस्य सः। प्रज्ञा० परित्यक्तः कायमनोवाङ्मयः प्राण्यपघातकारि दण्डो यस्ते। ८७ । आचा. १८६ । निक्षिप्ता:-संयमिताः मनोवाक्कायरूपाः निष्कंकटा-निष्कवचा निवारणा इत्यर्थः, छाया-शोभा प्राण्युपमर्दकारित्वादृण्डा इव दण्डा यैस्ते निक्षिप्तदण्डा: । येषां ते । ठाणा० २३२ । आचा० २३३ । निक्कंकडा-निष्कङ्कटा निष्कवचा निरावरणा निरुपघा- निक्खित्तपुवा-निक्षिप्तपूर्वा पूर्वमेव अस्माभिरात्मकृते तेति । जीवा० १६१ । प्रज्ञा० ८७ । निष्पादिता । आचा० ३६६ । निक्कंखिय-काङ्क्षणं काङ्कितं निर्गतं काङ्कित यस्मा- निक्खित्तसत्थ-ऐरवते त्रयोदसमतीर्थकृत् । सम० १५३ । दसौ निष्काक्षितः, देशसर्वकाङ्क्षारहितः । प्रज्ञा०५६ । निक्खिवणं-निक्षेपणं-स्थापनम् । आव० ६१४ । निष्काङ्क्षितः-देशसर्वकांक्षारहितः । दश० १०२ । मुक्त- निक्खिवित्ता-निक्षिप्य प्रत्युपेक्षणापूर्वकं बद्धा । उत्त० दर्शनान्तरपक्षपातः । ज्ञाता० १०६ । निवकंप-निएकम्प: नि:सहः । ६० प्र० १५२ आ। निक्खुड-निष्कुट: गम्भीरप्रदेशाः । जं० प्र० ३६६ । निक्कट्ठा-कोशकादाकृष्टा । विपा० ५६ । निरय० १८ । निक्खेव-निक्षेपः । प्राव० २८ । निक्षेपण-शास्त्रादेर्नामनिक्कलं-निष्कलं-त्रासादिरलदोपहितम् । भग० ६७२। स्थापनादिभेदैर्व्यसनं-व्यवस्थापनं निक्षेपः । निक्षिप्यते निक्कसाओ- निषाय:-कषायरहितः । आव. ७९३ । नामादिभेदैव्यवस्थाप्यतेऽनेनास्मिन्नस्माद्वेति वा निक्षेपः । निक्कस्सई-निष्कास्यते । बृ० प्र० ५५ आ । अनु. ४५ । निक्षेप:-न्यासः । ओघ० २६४ । निक्षेपणं निक्कारण वच्छल्लो-निष्कारणवत्सलः । आव० ४०१ । निक्षेप्यते अनेनास्मिन्नस्मादिति वा निक्षेप:-:पक्रमानीनिक्कारणो-निष्कारण:-निरुपद्रवः । पिण्ड० १४६ । तव्याचिख्यासितशास्त्रस्य नामादिभिर्व्यसनं न्यामःस्थापना। निक्कुडं-निष्कूटं अशठम् । आव० ७६७ । जं० प्र० ५। निगमनम् । भग० ८१२ । नामादिनिक्कोरणं-अभ्यन्तरवत्तिनो गिरस्योरिकरणम् । बृ० प्र० विन्यासः । आव. २४ । निक्षेपः-आवश्यकादेर्नामादि१०७ आ । भेदनिरूपणम्, न्यासः, यत्तदोनित्याभिसम्बन्धात्तत्र वस्तुनि निक्खंत-निष्क्रान्तः प्रव्रज्यां गृहीतवान् । आचा० ४३ । स निक्षेपः । अनु० १० । निक्षेपः न्यासः । नंदो. निक्खमण-निष्क्रमणं सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद्वहिर्गमनम् । १५६ । निक्षेपणं । शास्त्रादेर्नामस्थापनादिभेदैर्व्यसनं मूर्य० २४३ । निष्क्रमण-उद्वर्तनम् । आचा० ६६ । व्यवस्थापनं निक्षेपः । विशे० ४३० । निक्षेपः मोक्षणः। निक्खममाणे-निष्क्रामन् । सूर्य० १२ ।। ओघ १६६ । निक्षेपः न्यासः। आव० ४२१ । नियतं निक्खमे-निष्कामेत् । दश. १८३ । निश्चितं वा नामादिसंभवत्यक्षरचनात्मक क्षेपणं न्यसनं निक्खम्म-निष्क्रम्य-द्रव्यभावगृहात्प्रवज्यां गृहीत्वा । दश | निक्षेपः । उत्त०१०। निरः निगमनम् । विपा. ५५ । २६५ । निक्षेपः व्यासकः । प्रभ० १६ । निक्षेप:-निक्षेपण. निक्खित्त-निक्षितं पाकस्थालीस्थम् । प्रभ० १०६ । मनेनास्मादस्मिमिति वा निक्षेपः । आचा०३ । (५८६ ) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्खेवओ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [निग्गहो निक्खेवओ-निगमनम् । निरय० २३ । निक्षेपक:-यत् दश० १६० । पुनः प्रथम स्वार्थ निक्षिप्य पश्चात् साधूनामनुज्ञायते स । निगामसिज्जा-निकामशय्या-प्रतिदिवसं प्रकामशय्येव । बृ० प्र० १०२ । आव० ५७४ । निक्लेवणिज्जुत्ताणुगम-निक्षेपनियुक्तयनुगमः नियुक्त्य- निगिज्ज-निगृह्य यतनया । ब्य० द्वि० १४७ अ नुगमभेदः, निक्षेप एव सामान्यविशेषाभिधानयोरोधनिष्पन्न निगिण्हाति-निराश्रवो भवति । उत्त. ५६६ । नामनिष्पन्नाभ्यां निक्षेपाभ्यामनुगतः सूत्रापेक्षया वक्ष्य- निगिण्हामि-निगृह्णामि निरुणमि । उत्त, ५०७ । माणलक्षणाश्च । आचा० ३ । आव० ३२० । निक्खेवनिज्जुत्ती-निक्षेपनियुक्तिः नामस्थापनादिभेदभिन्नः निगुंडिउ-जानुम्यामुपविश्य । आव० ४३४ ।' तस्य तद्विषया वा नियुक्तिः निक्षेपनियुक्तिः । अनु० २५८ । निगुरुंवो-निकुरुम्ब: समूहरूपः । प्रश्र० ८२ । निक्षेपनियूंक्तिः । ठाणा० ६ । निगृहीतः-दण्डित: । नंदी. १५२ । निक्षेप्तव्यः-कर्तव्यः । आचा० ११५ । निगृह्य-निग्रहं वचनेन कारयित्वा । ठाणा० ३२६ । निग(य)च्छइ-विशिष्टोदयावस्थं जीवस्तदासादयति, विपा-निगोदा-अनन्तकायिकजीवशरीराणि । भग० ८९० । कावस्थं करोति । भग० ६३ । निगोयजीवा-साधारणनामकर्मोदयवत्तिनो जीवा: । भग निगडं-लोहमयम् । प्रश्न० ५६ । आचा० १६५ । ८६० । निगम-निगम: प्रभूततरवणिग्वर्गावासः । जीवा० ४०। निग्गंथ-नग्रंन्थं-सामान्यत: 'यथा यूयं वदथे'ति प्रवचनम् । निगम: वणिग्निवास:। उत्त० १०७ । वणिग्जनाधिष्ठितः।। ___ भग० १२१ । नैर्ग्रन्थ्यं-आईतम् । प्राव० ३२६ । ज्ञाता० १४० । निगमः-प्रभूतवणिग्वर्गावासः । जीवा० निग्गंथा-निर्ग्रन्थाः साधवः । ज्ञाता० ५१ । निर्ग्रन्थः २७६ । प्रभूततरवणिग्वर्गावासः । राज० ११४ । वाणि- पुलाकादिपञ्चप्रकाराः । व्य० द्वि० ४०२ आ । जकप्रायः सन्निवेशः । ओघ० ६६ । निगमः-पांशुप्राकार-निग्गओ-निर्गत:-निष्क्रान्तः । आव० १३७ । निबद्धं क्षुल्लकप्राकारवेष्टितम् । व्य० प्र० १६८ अ । निग्गच्छइ-निर्गच्छति निश्चयेन गच्छति विशिष्टोदयापनमानिगमयन्ति तस्मिन्ननेकविधभाण्डानीति निगमः प्रभूततर- सादयति । प्रज्ञा० ४५५ । विपाकावस्थं करोति । भग बणिजां निवासः । उत्त० ६०५ । वणिसंधाओ-वणिकसजातः । आव० ६६३ । निगमः स्थानविशेषः। दशनिग्गच्छे-निर्गच्छति शुध्यति । व्य० प्र० १०३ आ । ६७ । निगमः कारणिकः वणिग् वा । भग० ३१६ । निग्गम-निर्गमः । सूत्र० ३०६ । निर्गमनं निर्गम:-सामानिगम:-वणिगजनप्रधानं स्थानम् । भग० ३६। . यिक निर्गतमित्येवंरूपः । अनु० २५८ । निर्गम:-निर्गनिगमरूव-निगमरूपम् । भग० १६३ । मकथा राज्ञो निर्गमनसम्बन्धी विचारः राजकथायाः प्रथमो निगमा-निर्गमा:-पूर्वेभ्यः उत्तरेषामाधिक्यानि । सम० भेदः । आव० ५८१ । ११४ । पौरवणिजः । बृ० त० ६ बा। निगमा:- निग्गमगो-निर्गमकः प्रस्थानः । द्वि० १९० अ । लोकार्थनिबोधाः। विशे०८९६ । निगमाः। भग०४६४। निग्गमणं-निर्गमनं सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाद्वहिर्गमनम् । निगमा:-प्रभूतवणिग्वर्गावासाः । जं० प्र० १२१। जीवा० ३४५ । निर्गमनं दक्षिणायनम् । भग० १४७ । निगमाति-वणिग्निवासाः । ठाणा० ८६ । निस्सरणमार्गः । ज्ञाता० ८१ । निगरणं-निकरणं-नियतो देशकालादिः। भग०६५ । निग्गया-निर्गताः ये तपोऽहं प्रायश्चित्तमतिक्रान्ताच्छेदादि-' निगरिय-निगरितं सारीकृतम् । जीवा० २७० । औप.. प्राप्ताः । व्य० प्र० १७ आ । २० । सर्वथा शोधितम् । प्रश्न. ८० । निग्गह-निग्रहः । आव० ४१६ । निग्रहः-आवश्यकस्य निगामसाइ-निकामशायी-सूत्रार्यवेलामप्युल्नध्य शयानः ।! चतुर्थो पर्याय: । विशे० ४१५ । निश्चयः । नि० चू० (५८७ ) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्गहण ] आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ निच्चालोए प्र० ७० आ । निग्रहः - अनाचारप्रवृत्तेनिषेधनम् । निरय० २ । । राज० ११६ । ज्ञाता० ७ । इष्टे रेषु शब्दादिषु रागद्वेषाकरणं निग्रहः । आव० ६६० । निग्रहः-छलादिना पराजयस्थानम्, दोषविशेषः । ठाणा० ४६२ । निग्रहण- निगृह्णातीति निग्रहणः । दश० ११६ निग्ग हिओ - निगृहीतः निर्जितः । विशे० १००१ । निगृ- निघस-कणपट्टके रेखारूपः । जं०प्र० १५ । रेखा । ज्ञाता० निग्घूहे-निर्गुहन्ति निष्काशयन्ति । व्य० द्वि० ५४ आ । निग्घोलियं-निर्घोलितं रिक्तीकृतम् । बृ० द्वि० १६९ अ । निग्धोस - निर्घोषः ध्वनिः । आचा० ३५० । निर्घोषः महाध्वनिः । जं० प्र० १६२ । निर्घोषः महान् ध्वानः । जीवा० २४५ । निर्घोषः नादः । प्रश्न० १५६ । होतः । आव० ३२१ । निग्गहियं निगृहीतं नियमितम् । प्रश्न० १२४ । निग्गीलं-क्षरितं ( तं० ) निग्गुण - निर्गुणः गुणव्रत रहितः । ज्ञाता० २३८ । निग्गुणा- गुणव्रतः क्षमादिभिर्वा रहिताः । भग० ५८२ | निर्गुणा:- उत्तरगुणविकलाः । भग० ३०६ । निग्गोहपरिमंडलसं ठाणनाम-यदुदयात्तु न्यग्रोधपरिमण्डलं संस्थानं तन्न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम । प्रज्ञा० ४७२ । निग्गोहमंडल - नाभेरुपरि न्यग्रोधवनु मण्डलं- आद्यसंस्थानtear विशिष्टाकारं न्यग्रोधमण्डलं, न्यग्रोधो वट वृक्षः, यथा चायमुपरि वृत्ताकारतादिगुणोपेतत्वेन विशिष्टाकारो भवत्यवस्तु न तथा । अनु० १०१ । निग्गोहवणे - यग्रोधवनं - वटवनम् । भग० ३६ । निघंटु - निर्घण्टुः नामकोश: । औप० ६३ । भग० ११२ । निग्धसो - निकष: कषपट्टे रेखालक्षणः । औप० ८३ । निग्धाए - निर्घातः क्रियाशनिप्रपातः । जीवा० २६ । निर्घातः - साभ्रे निरभ्र वा गगने व्यन्तरकृतो महागजित समो ध्वनिः । आव ० ७३६ । साभ्रे निरभ्रे वा नभसि व्यतरकृतो महागजितसमो ध्वनिनिघातः । व्य० द्वि० २४१ आ । साभ्रे निरभ्र वा व्यन्तरकृतो महागजितसमो ध्वनि निघातः । नि० चू० तृ० ७० आ । निग्धाओ - निर्घातः विद्युत्प्रपातः । जीवा २८३ । निग्धात - निर्घातः साभ्रे निरभ्रे वा मगने व्यन्तरकृतो महा-निच्चसहाये - नित्यसहाये अवस्थित सहाये यः सकलदिवस ९ | निघर्ष: निकषो वा कषपट्टके रेखारूपः । जं० प्र० ३४ । निकषः कषपट्टके रेखारूपः वर्णः । सूर्य ० ४ । निघर्ष: घर्षणम् । जीवा० १६१ । निचये- निविष्टा निचये कम्र्म्मनिचये तदुपादाने वा सावद्यारम्भनिचये निविष्टा:-अध्युपपन्नाः । आचा० १८४ । निचिओ-निश्चित: निविडः । जीवा० २२७ । प्रश्न० १५२। निचित-निबिडीकृतम् । अनु० १७७ । निचिय - निचितः निविडतरचयमापन्नः । जीवा० १२१ । निचितः - अविकीर्णः । प्रश्न० ८२ । निच्च नित्य: परिणामा नित्यतायामपि सत्यां स्वरूपाच्य वनात् । सूत्र० ३७०। नित्यं सर्वकालं, सामायिक प्रतिपत्तेरारभ्यामरणान्तम् । दश० २८३ । नित्यं - अपायाभावेन तदन्यगुणवृद्धिसंभवादप्रतिपाति । दश० १९९ । अप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वभावं नित्यम् । श्राचा० २२ । नेत्रं भगम् । बृ० प्र० ३१२ अ । निच्चनियं नित्यं निवसनं नित्योपभोग्यम् । बृ० प्र० १०४ अ । निच्च मंडिया - नित्यमण्डिता सदाभूषणभूषितत्त्वात्, जम्ब्वा सुदर्शनाया द्वादशं नाम । जावा० ३०० । निच्चराहू-यस्तु नित्य राहुः - तथाजगत्स्वभाव्याश्चन्द्रेण सह सर्वकालमविरहितं चतुरङ्गुलैरप्राप्तं सत् चन्द्रविमानस्था धस्ताच्चरति सः । जीवा० ३३६ । गजितध्वनिः । ठाणा० ४७६ माचार्येण सह हिंडते । व्य० द्वि० १८३ अ । निग्धाय - निर्घातः । दश० ६६ । निच्च सिद्धजत्तो- नित्यसिद्धयात्रः स्थल जलचारिपथेषु सदैव। विसंवादितयात्रः । मव० ४१४ । निग्घिणं-निर्घृणं निर्गतदयम् । आव० ५८८ । निग्विणमणा-निर्घृणं निर्गतदयं मनः चित्तमन्तःकरणं | निच्चा उत्त-नित्यायुक्तः सततोपयुक्तः । उत्त० ४५६ यस्य स निघूणमना: निर्दयान्तःकरणः । आव ० ५८८ । निग्घुटुं निर्बुष्टं निर्घोषरूपम् । प्रश्न० १६० । निच्चालोए-नित्यालोकः, अष्टाशीती महाग्रहे द्वाषष्टितमः ज० प्र० ५३५ । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निच्चिय०] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्बकोषः, भा० ३ [ निजरेति निच्चियपरिवेसिया-नैत्यिकपरिवेषिका प्रतिदिननियुक्तभक्तदात्री । उत्त० २८६ । -निच्छोभः सार्थानिष्काशनम् । पिण्ड० ११२ । निच्चुज्जोए-नित्योद्योतः अष्टाशीती महाग्रहे पञ्चषष्टितमः।। निच्छ्हणा-नि:सरास्माद् गेहादित्यादि । ज्ञाता० २०० । ठाणा० ७६ । अष्टाशीती महाग्रहे त्रयषष्टितमः । जं.प्र. - निच्छूढं-निष्ठीवनं निष्ठूतम् । विशे० २७४ । निष्ठ्यूतम् । ५३५ । आव० ३६१ । नियूढं दृब्धम् । व्य० द्वि० ४०० मा। निच्चुग्विग्गो-नित्योद्विग्नः सदा अप्रशान्तः । दश० १८८ । | निच्छोडणा-त्यजास्मदीयांस्तीर्थकरालङ्कारानित्यादि । निच्चेट्र-निष्ट-व्यापाररहितम् । ज्ञाता० ८५, १९८। भग०६८३ । त्यजास्मदीयं वस्त्रादीत्यादि । ज्ञाता० २००। निच्चोइयं । ओघ १६ । निच्छोडियं-निच्छोटितं अगुल्यादिना निरवयवोकृतम् । निच्छओ-निश्चयः तत्वनिर्णयः. विहितानुष्ठानेषु वा अवश्य पिण्ड० ८६ । करणाभ्युपगमः । औप० ३३ । निच्छोडेइ-प्राप्तमथं त्याजयति । भग०६८३ । निच्छय-निश्चयः अवश्यंकरणाभ्युपगमः तस्वनिर्णयो वा । निज-नैयकः । आव. १६७ । भग० १३६ । निश्चयः वस्तुनिर्णयः । विपा० ४० । निजका-मातुलादयः । भग० ४८३ । निश्चयः एकान्तम् । बृ० प्र० २२० अ । निश्चयः तत्त्वानां । निजराजदौवारिका । नंदी० ७३ । निर्णयः विहितानुष्ठानेष्ववश्यमभ्युपगमो वा । राज. | निजुझं-अंगमोटनादियुद्धम् । ११६ । ज्ञाता० ७ । निजोग-नियोगः व्यापारः । व्य० प्र० १५३ आ । निच्छयओ-निश्चयतः परमार्थतः । ओघ० २२२ । निजोगो-अहिंगो जोगो । ६० प्र० ३३ आ। निर्योगः । निच्छयकहा-अववादो रिजुसुत्तादिएहि सुद्धणएहिं जं| आव० ६९२ । कहिजति सा । नि. चू० प्र० २४० अ । निज्जंत-निर्यन् अधिकं गच्छन् । उत्त• ४६० । निच्छिअ-निराधिक्ये चयनं चयः-पिण्डीभवनं अधिकश्चयो निज्जंती-नीयमाना । आव० ३९२ । निश्चयः 'सामान्यम् । अनु० २६५ । सर्वाधिक्यम् । | निज्जप्पि-निर्याप्यं यापनाऽकारकं निर्बलमिति । प्रश्न. बाव० ६७ । निच्छिड्डुपोतो-निश्छिद्रपोतः । आव० ३८७ । निज्जरणं-निर्जरणं तपः । औप० ४८ । निर्जरणं-जीवनिच्छिण्णं-निच्छिन्नं पृथक्कृतम् । विशे० १६१ । प्रदेशेभ्यः कर्मप्रदेशानां शातनम् । भग० ५३ । निच्छिण्णकारण-निस्तीर्णकारणम् । आव. ६२८ ।। निज्जरा-निर्जराः निर्जीः । प्रज्ञा. १९९ । निर्जरानिच्छिण्णा-निस्ती पारगता । प्रज्ञा० ६११ । विपाकात् तपसा वा कर्मणां देशत: क्षपणा । ठाणा. निच्छिन्न-निस्तीणं लडितम् । प्रज्ञा० ११३ । ४४६ । कर्मपुद्गलानामनुभूय २ अकर्मत्वापादनम्. आत्मनिच्छिय-नि: आधिक्येन चयनं चयः अधिकश्चयः निश्चयः प्रदेशः संश्लिष्टानां ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलानामनुभूय २ सामान्यम् । आव० २८३ । शातनमितिभावः । प्रज्ञा० २९२ । निर्जराविपाकात निच्छुड्डा-निष्काशिता । दश० ६७ । कर्मपुद्गलशाटनलक्षणा । सूत्र. ३७६ । अतिपुराणोनिच्छुभए-निष्कास्यते परिह्रियते । विशे० ६३४ । भवनम् । भग० १६ । निर्जराफलविशेषः। मोघ० ३७। निच्छुभइ-निःक्षिपति बहिःक्षिपति । भग० ८९ । निर्जरा पुद्गलानां निरनुभावीकृतानामात्मप्रदेशेभ्यः शाटनिष्काश्यताम् । आव० ३५४ । नम् । भा. २८ । निच्छुभण-गुम्मादेनिर्वासनं निष्कायेत् । वृ० द्वि० ४४ | निज्जरे-निर्जरा-कर्मणोऽकर्मस्वभवनमिति देशनिर्जरा, सर्वअ । निष्काशनम् । पिण्ड० १४० । निर्जरायाश्चतुविशतिदण्डकेसम्भवात् । ठाणा० १९५ निच्छुमति-विक्षिपति आत्मविश्लिष्टान् करोति । प्रज्ञा० 'निज्जरेति-निर्जरयति-त्यजत्याहारितान् वेदितानु माहार (५८६) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज्जवए ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [निज्जुत्तो % 3D पुद्गलान् देशेनापानादिना सर्वेण सर्वशरीरेणव प्रस्वेद-निज्जिण्णाई-क्षीणरसीकतानि । भग० ५६६ । वदिति । ठाणा० १२ । निज्जिन-निर्जीर्णाः कात्स्येनानुसमयमशेषतद्विपाकहानिनिज्जवए-यस्तथा प्रायश्चित्तं दत्ते यथा परो निर्वोद्रमलं युक्ताः । भग० २४ ।। भवतीति । ठाणा० ४८६ । निर्यापयति-तथा करोति | निज्जिय-निजित: स्वसौन्दर्यातिशयेन परिभूतः । औप. यथा गुर्वपि प्रायश्चित्तं शिष्यो निर्वाहयतीति निर्यापक १२ । इति । ठाणा० ४२४ । निर्यापक:-असमर्थस्य प्रायश्चि- निन्जिरिया-निर्जीर्णा अनुभूतस्वरूपत्वेन जीवप्रदेशेभ्यः त्तिनः प्रायश्चित्तस्य खण्डशः करणेन निर्वाहकः । भग० । परिशाटिता । भग० १८४ । ६२० । निज्जीपणे-निर्जीणं क्षोणम् । भग० १६ । निज्जवणा-निर्यापना प्ररूपणाविशेषः । आव० ३८२ । निज्जोव-निर्जीव करणं हेमादिधातुमारणं, रसेन्द्रस्य मूच्छीनिज्जविए-निर्यापित-अवश्यं गंतव्यम् । व्य० द्वि० प्रापणं वा । जं० प्र० १३६ । ३६५ अ । निज्जुत्ता-नितरां युक्ताः-सूत्रेण सह लोलीभावेन सम्बन्धा निज्जाए-निर्यानयति समापयति । ज्ञाता० ६८ । निर्युक्ताः अर्थाः । अनु० २५८ । निज्जाण-निर्याणः निर्गमनम् । जं० प्र० ४०३ । निरु- निज्जुत्ताणुगमो-निर्युक्त्यनुगमः अनुगमभेदः । आचा० ३ ॥ पमं यानं निर्यान-ईषत्प्राग्भाराख्यं मोक्षपदम् । आव० | निज्जुत्ति-निश्चयेनार्थप्रतिपादका युक्तिः नियुक्तिः । आचा० ७६६ । निरुपम यानं निर्याण-सिद्धक्षेत्रम् । शाता० ४। नितरां युक्ता:-सूत्रेण सह लोलोभावेन सम्बद्धा ५१ । निर्यानं पुरस्य निर्गमनमार्गः । सूर्य० ७१ । नियुक्ता-अस्तेिषां युक्तिः-स्टरूपतापादनं एकस्य निर्यानम् । आव० ३६६ । निर्यानं अन्तक्रिया । युक्तशब्दस्य लोपात् नियुक्ति:-नामस्थापनादिप्रकार आचा० १० । निर्यान-नगरानिमः । ठाणा० १७३ । सूत्रविभजनेत्यर्थः । अनु० २५८ । नियुक्तिः नियुक्तानिर्याणं निर्गमः । ठाणा० २११ ।। नामेव सूत्रार्थानां युक्तिः परिपाट्या योजनं नियुक्तयुक्तिनिज्जाणकहा-निर्याणं निर्गम: तत्कथा निर्याणकथा । रिति वाच्ये युक्तशब्दलोपानियुक्तिः विप्रकीर्णार्थयोजना। ठाणा० २१० । दश० २ । निज्जाणमग्गे-सिद्धक्षेत्रगमनोपायः । भग० ४७१। निज्जुत्तिअणुगम-निर्युक्त्यनुगमः नियुक्तिव्याख्यानम् । निज्जाणसंठिया-निर्याणसंस्थिता-निर्याण-पुरस्य निर्गमन- अनु० २५८ । भार्ग: तस्येव संस्थितं- संस्थानं यस्याः सा : सूर्य० ७१।। निज्जुत्तिसंखा-नियुक्तिसङ्ख्या । अनु० २३३ । निज्जामओ-निर्यापकः । आव. ३०२ । निज्जुत्ती-नियुक्तिः निः-प्राधिक्ये योजनं युक्तिः, अधिका निजामगढाणं- । नि० चू० प्र० ४७ अ । योजना नियता निश्चिता वा योजना । सूत्र. ४ । नियुक्तिः निज्जामय-निर्यामकः । आव० ३८३ । निश्चयेनाधिक्येन वा युक्तिः नियुक्ति:-सम्यगर्थप्रकटनम् । निज्जायकारणो-निश्चयेन यातं अपगतं कारणं-प्रयोजनं सूत्र० २ । नियुक्तिः-नियुक्तानां वा सूत्रेष्वेव परस्परयस्मिन्नसौ । आव० ८४४ । सम्बद्धानामर्थानामाविर्भावनं युक्तशब्दलोपानियुक्तिः । निज्जावग-निर्यापयति-आराधयतीति निर्यामक: आरा- सूत्र. २ । नियुक्तिः निश्चयेनार्थघटना । आचा० ४२॥ धकः । ओघ० २० । नि:-आधिक्ये योजनं युक्तिः, सूत्रार्थयोर्योगो नित्यव्यनिज्जास-निःशेषेण रस्यत इति निर्यासः, मकरन्दः । दश० वस्थित एवास्ते वाच्यवाचकतयेत्यर्थः अधिका योजना नियुक्तिः, नियता निश्चिता वा योजना । ओष. निज्जाससारो-निर्याससार:-पत्रादिभेदभिन्ननिर्याससारः । ४ । सूत्रोपात्ता अर्थाः स्वरूपेण सम्बद्धा अपि शिष्यान्प्रति जोवा० २६५ । J नियुज्यन्ते निश्चितं सम्बदा उपदिश्य व्याख्यायन्ते यकया (५६०) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज्जुत्तोओ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [निठुर सा। पिण्ड० १ । निश्चितं निरति-निश्चिताऽधिका निझाइंत-निया॑तः । आव० ४८७ । वा युक्तिरस्यामिति नियुक्ति: नामनिष्पन्ननिक्षेपनियुक्तिः । निझाइला-निध्यापयेत् प्रलोकयेत प्रदर्शयेत् । आचा. उत्त० २६२ । नियुक्ति: पञ्चकल्पः । वृ० तृ० २६४ ३४१ ।। आ । निश्चयेन युक्ताः-सम्बद्धा निर्युक्ताः तेनेयं निज्झाइत्ता-निश्चयेन ध्यात्वा चिन्तयित्वा निर्घाय। आचा० नियुक्तिः । विशे० ४६८ । ७१ । निळता-तदेकाग्रचित्ततया द्रष्टा । सम० १६ । निज्जुत्तीओ-निर्युक्तयः निर्युक्सानां सूत्रेऽभिधेयतया ब्य- | निाता प्रबन्धन निरीक्षिताः । उत्त० ४२५ । निर्ध्यातावस्थापितानामर्थानां युक्ति:-घटना विशिष्टा योजना निर्युक्त दर्शनानन्तरमतिशयेन चिन्तयिता । उत्त० ४२५ । । युक्तः । सम० १८ । निजभोसत्ता-निर्दोषयिता-क्षपकःक्षपयिष्यति वा तृजन्तनिज्जुहणा-निर्धारणम् । ओघ १६२ । मेतल्लुडन्तं वा । आचा० १६८ । निज्जुहियं-निर्युमन्ते-आलापनादिभिर्बहिष्क्रियन्ते । बृ० निट्ठवणओ-निष्ठापक: समाप्तिदिवस: । आव० ८४२ । तृ० ६५ अ । निवेइ-मारयति । बृ० द्वि० ४४ अ । निज्जूगं-निर्युहक-द्वारोपरितनपार्श्वविनिर्गतदारु । प्रश्न०८। निट्ठाइ-निष्ठां याति प्रच्यवतीत्यर्थः । आव० ३३ । निज्जूढ-नियूंढम् महतः संक्षेपादुद्धृतम् । भग० १००। निद्वाणकहा-एतावत् द्रवीणं तत्रोपयुज्यंत इति निष्ठाननिर्धारितः । ज्ञाता०६८ । अमनोज्ञाः । ओष. १८१ __ कथा । ठाणा० २०६ । निए ढं-पूर्वगतादुद्धृत्य विरचितम् । दश० ९ । महतो | निद्वाणगं-निष्ठानकं प्रकृष्टमूल्यनिष्पादितम् । प्रश्न० १६३ । ग्रन्थात्सुखावबोधाय सङ्कपनिमित्तमनुग्रहपरगुरुभिरुघृ. निट्ठाभासो-निष्ठाभाषी-सावधारणवासी। आचा०३८६ । तम् । भग० १०० । नियूंढः उज्झितप्रायः । बु० प्र० निहावि-निष्ठापितम् । आव० १५१ । २०६ आ । निदिए-निष्ठां गतः, कृतस्वकार्यों जातः । ज्ञाता०.७० । निज्जूहंति-निर्मूथयन्ति-पूर्वलक्षणश्रुतपर्याययूथानिर्धारयन्ति । निष्ठितः-निरवयवीकृतः । भग० ६७६ । उद्धरन्ति । भग० ६५६ । . निट्टिय-निष्ठित:-निष्पन्नः । उत्त० २६७ । निस्थितं-कृतंनिज्जूह-नियूहः गृहैकदेशविशेषः । जीवा० २६६ । निष्ठां प्राप्त निस्थितम् । वृ० द्वि. २०० आ । अपनेयनियूं हः गवाक्षः । व्य० प्र० १३३ अ । द्रव्यापनयमाश्रित्य निष्ठांगतः । भग० २७७ । निज्जहणं-निव्यूंहनं निष्काशनम् । बृ• तु. १२ । नाट्ठयट्ठकराणज्ज-नाष्ठताथानामिव करणायम् । समाप्तनिज्जूहणा-बहिष्करणम् । बृ० तृ० ६५ अ । अन्यत्र कृत्यः । भग० १११ । शोधि कुवित्युक्तिः । बृ० तृ० १५६ आ । निट्ठियट-निष्ठितार्थः विषयसुखनिष्पिपासः । आचा. निज्जूहिऊण-नियूह्य-अतिवाह्य । व्य० द्वि० ३५६ आ। २५४ । निष्ठितार्थः समाप्तप्रयोजनः । भग० १११ । निज्जोग-नियोगः-उपकरणम् । पिण्ड० १२ । परिकरः। निष्ठितार्थः कृतकृत्यत्वात् । प्रज्ञा० ६१० ।। ज्ञाता. ५७ । निर्योग:-परिकरः । भग० ४७६ । निट्रियट्री-निष्ठितार्थः निष्ठितो मोक्षस्तेनार्थी यदि वा निर्योग उपकरणम् । ओघ. १३१ । निर्योग:-उपकरण निष्ठितः-परिसमाप्तः अर्थः-प्रयोजनं यस्य स निष्ठितार्थः । मर्थानाट्योपकरणम् । राज० ४६ । आचा० २२६ । निझर-निझर:-उदकस्य श्रवणम् । भग० २३ निट्टियाइंकयाई-नि:स्थितानि कृतानि निस्सत्ताकानि स्यन्दनम् । ज्ञाता० ६७ । विहितानि । भग० २५१ । निज्झरणं-निझरणं दानम् । व्य. द्वि० २०० आ। निठुर-निष्ठुरं निर्दयम् । भग० २३१ । निष्ठुरं-मार्दनिझरा-उज्झरा एव सदावस्थायिनो निझराः । प्रज्ञा वाननुगतम् । औप० ४२ । निष्ठुर कर्कशशब्दम् । ७२ । आव० ६१७ । निष्ठुरा-हक्काप्रधाना । आचा० ३८५। (५६१) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निठुहसि ] निहस - निष्ठीवसि । तं० 1 निडाल - ललाटम् । उपा० २१ । जीवा० २७३ । ललाटं भालम् । प्रश्न० ८२ । आव० ललाटं - अलकम् । ४२० । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः निक्खू - निस्सारयति । आचा० ३६१ । निष्ण-निम्नं - गम्भीरस्थानम् । जं० प्र० २१९ । निष्णग- म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । निण्डया - लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । निहव - निह्नवः - गोपनम् । दश० १०५ । निह्नवःएकान्तालाप: । दश० २३३ । निह्नवः निहृहुते आग निदाह-अधिको दाहः । आव० ७६८ । निदाघः एकादशम माभिहितमर्थमतिक्लिष्टकर्मोदयात् कुयुक्तिभिरपनयतीति निह्नवः जमालिप्रभृतिः । उत्त० १८ । निण्हवणं - अदृश्यताकारकम् । विपा० ५४ । नितम्ब - निद्दारितं प्रज्ञा • निदा-नितरां निश्चितं वा सम्यग् दीयते चित्तमस्यामिति निदा, चित्तवती सम्यग्विवेकवतो वा । ५५७ । नियतं दानं शुद्धिर्जीवस्य 'देप् शोधने' इति वचनाशिदा - ज्ञानमाभोगः, आभोगवती । भग० ७६६ । निदाणं निदानम् । आव० ३१० । निदानं देवादिऋद्धीनां दर्शनश्रवणाभ्यामितो ब्रह्मचर्यादेरनुष्ठानान्ममेता भूयासुरित्यध्यवसायः । सम० ६ । निदाय - ककारस्य स्वार्थिकप्रत्ययत्वान्निदाम् । भग० ७६६ । २६७ आ । नित्यका । बृ० प्र० ५ अ नित्यक्का - निर्लज्जा: । बृ० द्वि० १५ अ । नित्थरइ निस्तरति । आव २०७ । नित्यरिस्सा मि- निस्तरिष्यामि । आव ७९३ । नित्थिष्णो- निस्तीर्ण: । आव० १६२, २२१ । नित्यः - नियतः । आव० ७६८ । निदंसिज्जंति-निदर्श्यन्ते हेतुदृष्टान्तोपन्यासेन । सम० १०६ । निदर्श्यन्ते हेतुदृष्टान्तोपदर्शनेन । नंदी० २१२ । निदंसेइ - कथचिदगृहृतोऽनुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनर्दर्शयति निदर्शयति । ठाणा० ५०२ । कथविदगृहृतोऽनु कम्पया निश्चयेन पुनः पुनर्दर्शयति । भग० ७११ । निवड्डे - निर्दग्धः, रत्नप्रभायां चतुर्थो नरकावासः । ठाणा | आचा० २२६ । ५६० । नित्त - नयत्यर्थं देशं - अर्थ क्रियासमर्थ मर्थ माविर्भावयन्तीति नेत्राणि चक्षुरादीनीन्द्रियाणि । आचा० १९३ । नेत्रशब्देन नेत्र संस्कारकमिह समीराञ्जनादि । उत्त० ४१७ । निद्दमुक्ख - निद्राया मोक्षः पूर्वनिरुद्धायामुत्कलना निद्रा नित्तलं निस्तलं अतिवृत्तम् । भग० ६७२ । मोक्षः - स्वाप इति । उत्त० ५३८ । नित्तुप्पा - निस्तृप्पा अचोपडा अवधारिता वा । वृ० प्र० निद्दहितुं निर्दय । आव० ८२६ । निद्दही - निर्दहति । पिण्ड १७६ । निद्दा - निद्रायणं तु निषण्णस्यैव स्वपनम् । बृ० द्वि० २०७ आ । निद्रासुखप्रबोधा स्वापावस्था नखच्छोटिकामात्रेणापि यत्र प्रबोधो भवति तद्विपाकवेद्या कर्म्म प्रकृतिरिपि निद्रा | ठाणा० ४४७ । सुखप्रबोधा स्वापावस्था निद्रा । जीवा० १२३ । नियतं द्राति- कुत्सितस्त्रमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यं यस्यां स्वापावस्थायां सा निद्रा, निद्राणं निद्रा नखच्छोटिकामात्रेण यस्यां प्रबोध उपजायते सा स्वापवस्था निद्रा । प्रज्ञा० ४६७ । नियतं द्वाति कुत्सितत्वम विस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यमनयेति । निछाइया-निद्राणा । आव० ५५६ । निद्दानिद्दा - निद्रातोऽतिशायिनी निद्रानिद्रा । प्रज्ञा०४६७ । निद्रातिशायिनी निंद्रा निद्रानिद्रा दुःखप्रबोधा स्वापावस्था । ठाणा० ४४७ । ३६५ । निदरिसण- निश्वयेन दर्श्यतेऽनेन दाष्टन्तिक एवार्थ इति निद्दामन्तो- निद्रामत्तः - निद्राभिभूतः । आव० ७९१ । निदर्शनम् । दश० ३४ । निधारितं - निर्धारितं विस्फारितम् । भ० ४६ । मासः । जं० प्र० ४६० । निजत्वं उच्चता । बृ० द्वि० २१६ अ । निहंसण-निदर्शनं दृष्टान्तः । दश० ४४ । निद्द - निद्रा आलस्यम् । जं० प्र० २३७ । निद्दओ-निर्दयः - निर्गतदयः, परानुकम्पाशून्यः । आव ० ( ५६२ ) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ffers ] [ निपचक्खा निद्धमणठाण - निर्द्धमनस्थानं उपघसरस्थानम् । ओघ० १६२ । नम् | ओघ० १६२ । निद्धम्मा- निर्द्धर्मः | ओघ० १५० । निट्ठि - निर्दिष्टः उक्तः । दश० १६१ । निद्दिट्ठा - निर्दिष्टा - उच्चायिना । विशे० ६४७ । निदेस - निर्देशन निर्देश:- कर्मादिकारकशक्तिभिरनधिकस्य निद्धमणाई - निद्धमणादि नगरोदकोपघसरादि उपघातस्थालिङ्गार्थमात्रस्य प्रतिदानं तत्र प्रथमा भवति । ठाणा० ४२८ । निर्देश:- उपन्यासः । बृ० अ० १५१ अ । वस्तुन एव विशेषाभिधानं निर्देशनम् । विशे० ६३६ । श्राणा । दश० चू० १३८ । निर्देश:- प्रश्निते कार्ये नियतार्थमुत्तरम् । भगः १६८ | निर्देश: - उत्सर्गाचा दाभ्यां प्रतिपादनम् । उत्त० ४४ । निर्देशः विशेषाभि धानम्, विशेषितश्च । आव० १०४ । निर्देशः गुरोर्निर्वचनं निर्देशः । उत्त० ७९ । कार्याणि प्रति प्रश्ने कृते यनियतार्थ - मुत्तरम् । ज्ञाता० १५६ । निर्देशनं निर्देश: विशेषाभिधानम् । दश० ७ । निर्देश:- गुरुणा पृष्टार्थ निशेषभाषणम् । उत्त० ७३ । निद्देसवत्ती - निर्देशवर्त्तीि आज्ञाकारी । दश० २५० । निद्दोच्च - निर्दोत्थं निर्भयम् । व्य० द्वि० ६ अ । निर्दोत्यम् । | निद्धया स्निग्धता अरुक्षता । ज्ञाता० १७० । निद्वाइऊण-निर्गत्य । उत्त० २१४ । निद्धाहिति-निर्द्धाविष्यन्ति - निर्गमिष्यन्ति । भग० ३०६ ० निद्धुणे - निर्धूय प्रस्फोट | दश० २२४ । निद्वयं निवतं अपनीतम् । जीवा० १८८ । निद्रायते - सकलक्षदादिदोषापगमतः सुखासिकाभावेन निद्रायते - पयलायेत । जीवा०.१२३ । निधत्त - उर्द्धत्तनापवर्त्तनावर्जशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितम् । प्रज्ञा० ४०२ | आचा० २०६ । निधत्तं- इह च विश्लिष्टानां परस्परतः पुद्गलानां निचयं कृत्वा धारणं रूढिशब्दत्वेन निघत्तमुच्यते, उद्वर्त्तनापवर्त्तनव्यतिरिक्तकरणानामविषयत्वेन कर्मणोऽवस्थानमिति । भग० २५ । निधाग - निक्षेपः । अनु० ५२ । आव० ७३८ । निद्दोस - निद्दोष: द्वात्रिंशत्सूत्रदोषरहितः । ठाणा० ३६७ । निर्दोष:- दोषमुक्तस्य प्रथमो गुणविशेषः । आव० ३७६ । निर्दोष - हिंसादिदोषरहितम् । अनु० १४० । निर्दोषं द्वात्रिंशत्सूत्रदोषरहितम् । अनु० १३३ । निधान - चक्रवत्तराज्योपयोगीद्रव्यम् । ठाणा० ४४६ । निर्द्धत-निर्मातः नितरामग्निसंयोगः । जीवा० २६७ । निधिपाल :- अर्थार्जनपरो दृष्टान्तः । आव० २७७ । निधानं - निधिः निक्षेपः न्यासः विरचना प्रस्तारः स्थापना च । अनु० ५२ । भग० ३२३ । महाघोषः । निनाए - निनाद : शब्दः । भग० ४७६ । निनादः - शब्दितः । मोघ० ४८ । निन्दनं पश्चात्तापः । ज्ञाता० २०६ । निन्दा-कुष्ठी त्वमसीत्यादि । ठाणा० २६ । आत्मसाक्षिका । ठाणा० १३७ । स्वप्रत्यक्षं जुगुप्सा । आव० ४८६ । निन्दितु - अतिचारान् स्वसमक्षं जुगुप्सितुम् । ठाणा ० ५७ । निन्न- निम्नः नीचभूभागः । उत्त० ३६१ । निम्नं- शुष्कसरःप्रभृति | भग० ६८३ । निन्नए-पुरिमताले अण्डकवणिक् । विपा० ५८ । निन्नगरा - निर्नगरा :- नगरनिष्क्रान्ताः । भग० ६६१ । निन्नगा - निम्नगा नदी । प्रश्न० १३५ । निपच्चक्खाणपोसहोपवासा - निष्प्रत्याख्यान पौषधोपवा अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, मा० ३ निर्मात - भस्मीकृतम् । उत्त० ५२७ । निद्धंतमलपावगं - निर्मातिं भस्मीकृतं ततो निर्मातमिव निमल इवात्मनो विशुद्धस्वरूपघातितया पापमेव पापकं येनासो निर्मातमलपापकः । उत्त० ५२७ । निधस - निःशुकः । ओघ० १५८ । निद्धन्धसः - अपगतसर्वथादयावासना क: । पिण्ड० ६६ । निद्वन्धसः - प्रव चनोपघातनिरपेक्षः । आव० ५२६ । ( देशीवचनं ) नाधि कृतारंभविराध्यमान प्राण्यनुकंपापरः । व्य० प्र० ६ अ । निद्ध-स्निग्धं बहुस्नेहम् । पिण्ड० ७० । स्निग्धं-स्नेहावगाढम् । आव० ७२६ । स्निग्धं मनोहरम् । जं० प्र० १०२ । निद्धघण- स्निग्धघनः । ज्ञाता ६ । निद्धमणं - निर्धमनं निर्दग्धम् । प्रश्न० ८२ । ( अल्प० ७५ ) ( ५६३ ) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निपतनानि ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः निभंछणं सा: असत्पोरुष्यादिनियमाः अविद्यमानाष्टम्यादिपर्वोपवा-निफजए-निष्पद्यते निष्पादयति । सूर्य १७३ । साश्च । भग० ३०६ । निप्फण्ण-सम्यक् मूत्रार्थकुशलः । बृ० द्वि० २८४ अ । निपतनानि-प्रवाहरूपतया वहनानि । जं० प्र० १२५। निष्फण्णायावणा-निष्पन्नातापना । औप० ४० । निपातस्थान-तडागम् । नंदी० ५८ । निष्फाइयनिष्फन्न-निष्पादितनिष्पन्नं स्वार्थ निष्पाद्यनिप्पंक-निष्पड़क कलङ्कविकलं कर्दमरहितं वा । जीवा० पुनः साध्वयं निष्पादनम् निष्पादितेन-गृहिणा स्वार्थ १६१ । प्रज्ञा०८७ । निष्पङ्कः-आर्द्रमलरहितः । औप०१०॥ कृतेन निष्पन्नं यत् करम्बादि मोदकादि वा तनिष्पादितनिप्पंका-निष्पड़ा आर्द्रमलाभावात् अकलत्वाद्वा । निष्पन्नम् । पिण्ड० ७६ । ठाणा० २३२ । निफाईया-निष्पादिता योग्यतामापादिताः । आचा० निप्पगलो-निष्प्रगलः । ओघ० ३३ । २६४ । निप्पग्गहया-यथा तया रश्म्या वल्गापरपर्याययोन्मार्गप्र. निष्फाव-निष्पावा (न:) वल्लाः । भग० २७४ । निष्पावा: स्थितस्तुरङ्गमो मार्गऽवतार्यते तथा गुरूणामप्याज्ञावल्गया | वल्लाः । दश० १६३ । बल्ला: । भग ८०२ । दश० साधुः प्रमादत उत्पथप्रतिपन्नोऽपि सन्मार्गेऽवतार्यते इति चू. ६२ आ । ठाणा० ३४४ । सत्रिभागकाकण्या प्रग्रहशब्देन गुर्वाज्ञाऽभिधीयते, प्रग्रहो नियन्त्रणा गुर्वाशेति विभागोनगुञ्जाद्वयेन वा निवृत्तो निष्पावः । अनु० यावत्. निर्गतः प्रग्रहादिति निष्प्रग्रहः तस्य भावो निष्प्र- १५५ । ग्रहता गुर्वाज्ञाया अभावात् पाणिपादमुखधावनादि निःशङ्क | निष्फेड-निष्फेट: निष्काशनम् । आव० ७.० । करोतीत्यर्थः । बृ० प्र० १९३ आ । निप्फेडिउं-निःस्फिटितुम् । दश० ३७ । निप्पच्चक्खाणपोसहोववासे-अविद्यमानपौरुष्यादिप्रत्या- | निष्फेडेह-निष्काशयत । आव० ४२५ । ख्यानोऽसत्पर्वदिनोपवासश्चेत्यर्थः । ज्ञाता० २३८ । निबंध-निबन्धो नियमः । विशे० २०६ । निप्पट-निरस्तानि स्पष्टानि व्यक्तानि । उपा० ३६ । निबद्धा-पर्यायार्थतया प्रतिसमयमन्यथात्वावाप्ते निबद्धा:निर्गतानि स्पष्टानि । ज्ञाता० ११० । भग० ६८४ । । सूत्र एव ग्रथिता । सम० १०६ । निप्पट्ठपसिणवागरणो-निस्पृष्टप्रश्नव्याकरणः । आव | निबद्धाउए-प्रकृतिस्थित्यनुभागचन्धापेक्षया । ज्ञाता. १८३ । निप्पडिकम्मो-निष्प्रतिकर्मा । आव० २२७ । निबन्धमार्ग-द्वासप्ततिकलायां गोतकलायाः द्वितीयो भेदः । निष्पत्ती-निष्पत्तिः सिद्धिः । ठाणा० ४४६ । सम० ८४ । निप्पाण-निष्प्राणं उच्छवासादिरहितम् । ज्ञाता० ८५।। निबुड्डा-निमग्नाः । उत्त० २३३ । निप्पावकडो-निष्पावकटः वल्लकुम्भः । आव० ३१०। निबंध-निर्बन्धः-आग्रहः । ओघ ८६ । निप्पिट-निष्पिष्टः सुपेषितम्, पेषणपरिसमाप्तिः । पिण्ड निब्बलासए-निर्बलं-निःसारमन्तप्रान्तादिकं यद्रव्यं तदा१६४ । शक:-तद्धोजी स्यात्, यदि वा निर्गतं बलं सामर्थ्यमस्येनिप्पिवास-घोरहृदयः । व्य० द्वि० १४० मा । | तिनिर्बलः एवम्भूतः सन्नासीत । आचा० २१८ । निप्पिवासा-निष्पिपासा निराकाङ्क्षा । प्रश्न० ३६ । निब्बाहि-निर्बहिः अत्यन्तबहिर्बहिस्तात्तरा। ठाणा० ३५३। निप्पोलणा-निष्पीडना अत्यन्त मावलनमात्मिका । उत्त० निब्बुकच्छिन्नधय-निबुक्कच्छिन्नध्वजः-निर्मूलनिकृत्तकेतुः रथः । प्रश्न० ४६ । निप्पोलिजइ-निष्पीड्यते । आव० ६२१ । निभच्छेइ-नितरां दुष्टमभिधत्ते । भग० ६८३ । निप्पुलाए-जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे उत्सपिण्यां आगामिचतु- | निभंछणं-निर्भर्त्सनं-अपसर मे दृष्टिमार्गादित्यादिकम् । विशति कायां चतुर्दशो जिनः । सम० १५३ । प्रश्न. १६० । (५६४) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निब्भंछणा ] निब्भंछणा - न त्वया मम प्रयोजनमित्यादिपरुषवचनम् । भग० ६८३ । निब्भए- निर्भय: शूरत्वात् । ज्ञाता० ६७ । निब्भओ - निर्भयः - इह लोकादिसप्तभयविप्रमुक्तः । आव ० ५६२ । निब्भच्छण - निर्भर्त्सनं आक्रोशविशेषः । प्रश्न० ५६ । निभिमाणं - नितरां निर्भिद्यमानं अतिशयेन भिद्यमानम् । जीवा० १६१ । निबभेरिय-प्रसारितानि । उत्त० ३६७ । निभ-नितरां भात इति निभम् । ज्ञाता० १६८ । निभा छाया । उत्त० ४४२ । निभिय- निभृतः - परधनादानव्यापारादुपरतः । प्रश्न० १२४ । संयतः । सूत्र० ३८४ । निभेलणं गृहम् । मर० । निभेल्लतं- निर्भेलितं- कुक्षितो बहिष्कृतम् । प्रश्न० ४६ । निमंत्रणा - दशधा सामाचार्या नवमी । भग० ९२० । निमन्त्रणा अगृहीतेनैवाशनादिनाऽहं भवदर्थमशनाद्यानयामि इत्येवम्भूता, दशधा सामाचार्यां नवमो भेद: । आव ०२५६. । अद्याप्यगृहीतेनाशनादिना साधूनामामन्त्रणम् । अनु० १०३ । निमन्त्रणा - तेनैवागृहीतेन यथालाभं युष्मद्योग्य ममुकमानेष्ये इति प्रार्थना । बृ० प्र० २२२ अ । गृहस्थानामभ्यर्थना । बृ० द्वि० २४ अ । निमंतेति-निमन्त्रयति । आव० १९८ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ निमग्गो - निमग्नः - अन्तः प्रविष्टः । जीवा० २७० । निमग्नजल - नदी विशेषः । ठाणा० ७१ । निमज्जनं त्वग्वर्त्तनम् | ओघ० ५८, १३० । निमज्जए - निमज्जकः स्नानार्थं निमग्ना एव ये तिष्ठन्ति । निम्मलं निर्मलं आगन्तुकमलाभावात् । प्रज्ञा० ८७ । निर्मल- आगन्तुकमलासम्भवात् । जीवा० १६१ । निर्मलंछायादिदोषरहितम् । ज० प्र० ५२८ । स्वाभाविकमलरहितम् । भग० ६७२ । निर्मलानि - कक्खड (कर्कश ) मलाभावात् । सम० १४ । निर्मल:- विगतमल कल्पसूक्ष्मतर - वालाग्रः । भग० २७७ । ब्रह्मलोके चतुर्थो विमानप्रस्तरः । ठाणा० ३६७ । निर्मल:- कठिनमलरहितः । औप० १० । निर्मल:- स्वभावोत्थमलरहितः । जीवा० २७२ । निम्मलतरा - निर्मलं जीवं करोति या सा तथा अति( ५६५ ) ओप० ६० । निमज्जगा - स्नानार्थं निमग्ना | भग० ५१६ । निमज्जगा स्नानार्थं ये निमग्ना एवं क्षणं तिष्ठन्ति । निरय० २५ । निमज्जण - प्रवेश: । उत्त० ७११ । निमन्त्रितं निमंत्रणा पुरस्सरं प्रतिदिवसं नियतं दीयते तत् । व्य० प्र० १६० अ । निमित्तं - "तिविहं होइ निमित्तं तोयप्पडुप्पन्नणागयं चेव । [ निम्मलतरा तेण न विणाउनेयं नज्जइ तेणं निमित्तं तु ।” अतीतं प्रत्युत्प अमनागतं च कालत्रयवत्तिलाभालाभादिपरिज्ञानहेतुः । बृ० प्र० २१५ अ । निमित्त:- अष्टाङ्गस्य निमित्तस्य । आचा० ४१६ । अनागतार्थपरिज्ञानहेतुः । ओघ० १४ । कार्यवाचकः कारणं वा । आव० २८० । निमित्तं लक्षणं निमित्तलक्षणम् । आव ० २८२ । दण्डकशा शस्त्रादीनि समाहारद्वन्द्वस्तत्र सति आयुभिद्यत इति सम्बन्धः । ठाणा० ४०० । हेतुः । ठाणा० ४२७ । अङ्गुष्ठप्रनादि । आचा० ३५१ । चूडामण्याद्युपदेशेनातीता दिभावसंवादनम् । प्रश्न० १०६ । पटस्य तन्तव इव कारणम् । आव० २७८ । मिश्रितं - नियमितम् । आव० ८५६ । निमित्तं अतीतादि । दश० २३६ । निमित्तं अतीताद्यर्थ परिज्ञानहेतुः शुभाशुभचेष्टादि । पिण्ड० १२१ । कारणम् । विशे० २७९ । लक्षणम् । विशे०८८८ । निमित्त उल्लोगो - निमित्तांवलोकः । आव० २१४ । निमित्तकारणं - कुलालादि । ठाणा० ४६४ । निमित्ताजीवयाते - निमित्ताजीवनतया - त्रैकालिक लाभादिविषयनिमित्तोपात्ताहाराद्युपजीवनेनेति । ठाणा० २७५ । निमिसंतरं - निमेषान्तरम् । आव० २०८ । निमुग्गं - निमग्नं अनुन्नतम् | प्रश्न० ८० 1 निम्नं - अङ्गुलिपर्वरेखा | ओघ० १७१ । निम्बतिल - निम्बकुसुमम् । व्य० प्र० १५६ अ । निम्मं निम्र्मापितम् । व्य० द्वि० ४०१ अ निम्ममे - जम्द्वीपभरते आगामीन्यामवसपण्यां पञ्चदशतीर्थ कृद् । सम० १५४ । निम्मयया - निर्माता विकाररहितस्वम् । दश० १२१ । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निम्मल ] . आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [नियडि शयेन वा निर्मला निर्मलतरा, अहिंसायाः षष्ठितमं नाम । पञ्चमोद्देशकः । भग० ५२० । प्रश्न १६ । नियंत-गच्छन् । आव० ६४६ । निम्मल-निर्माल्यं-तीर्थादिगत प्रभाव प्रतिमा शेषा । नियंसणं-परिधानम् । जीवा. १७३ । पिण्ड० १६ । नियंसति-परिधापयति । आव० १२३ । निम्मवियं-निर्मितं समापितम् । आव० ७०६ ।। नियंसिकं-परिहितम् । मर० ।। निम्मवेइ-निमिमीते । आव० ४१० । नियंसे हामि-परिधास्ये । आव० ३०७ । निम्मा-नि मूलपादानां । बृ० प्र० १८४ अ । जीवा० नियइ नियत्या नयस्येन । जं० प्र० ४४ । १४४ । नियइइया-नियतिव्यवस्था तत्र नियूक्तास्तथा वा चरन्तीति निम्मिअ-निर्मित:-निवेशितः । जं० प्र० २११ । नयतिकाः । व्य० प्र० १७१ अ । निम्मितवादी-निम्मितं-ईश्वरब्रह्मपुरुषादिना कृतं लोक नियइपवय-नियत्या-नयत्येन पर्वतो नियतिपर्वतः । वदतीति निम्मितवादी । ठाणा० ४२५ ।। जीवा० २०० । जं० प्र० ४४ । निम्मिय-निर्मितं निवेशितम् । उपा० ४४ । निमितः नियइया-नयतिकी नियता । प्रज्ञा० ३३५ । निवेशितः । भग० ४५६ । नियई-यत् राखावपि नियतरसत्वं न शाल्यादिरसता सा निम्मुग्गा-निर्मग्ना नदीः । आव० १५० । नियतिः । प्रश्न ३५ ।। निम्मेरं- निर्यादम् । ग० । नियए-नित्यः-अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावः । उत्त०४३०॥ निम्मेरा-निर्मर्यादाः प्रतिपन्नापरिपालनादिना । ठाणा० | नियओ-नियत:-परिच्छिन्नः । आव० ५९१ । ' १२६ । अविद्यमानकुलादिमर्यादः। भग• ३०६ । नियग-निजकः गोत्रजा । भग० १६३ । निजक:-भ्रातृनिम्मोअणी-निर्मोचनी निर्मोकः । उत्त० ४०७ । पुत्रादिः । औप० १०३ । निजक:-भा। पिण्ड०१२२ नियंटितं-नितरां यन्त्रितं नियन्त्रितम् । भग० २९६ ।। आव० ६३८ । नितरां यन्त्रितं-प्रतिज्ञातदिनादौ ग्लानत्वाद्यन्तरायभावेऽपि नियगा-णियगा-आत्मीयाः । आचा० १०५ । निजा:नियमात् कर्तव्यम् । ठाणा० ४९८ । आत्मीया बान्धवाः सुहृदो वा । प्राचा० १०५ । नियंटियं-नितरां यन्त्रितं नियन्त्रितं-प्रतिज्ञातदिनादी ग्लानियच्छंतो-अन्वेषयन् । बृ० प्र० २१३ अ । .. नाद्यन्तरायभावेऽपि नियमात् कर्तव्यमिति हृदयम् । आव नियच्छइ-नियच्छति बध्नाति । उत्त० ४१६ । ८४० । नियच्छइ-नियच्छतः निश्चयेन गच्छतिः प्राप्नुतः । सूत्र० नियंठ-निर्ग्रन्थः श्रमणः । भग० ११२ । ३५ । भणइ । पउ० ५६-१६ । नियंठणामिओ-निर्ग्रन्थनामितः । आव० ४१२ । नियच्छन्ति-अवधारयन्ति । आचा० १६७ । नियंठा-निर्गताः स बाह्याभ्यन्तरग्रन्थादिति निर्ग्रन्थाः- नियट्टी-निवृत्तिः द्विसमयस्थितिकस्यापि वेद्यकर्मणो बन्धसाधवाः । भग० ८९१ । व्यावृतिः मुक्तिः । उत्त० ५८६ । नियंठि-उत्तराध्ययनेषु षष्ठमध्ययनम् । उत्त० ६ । नियट्टेमाणे-निवर्द्धयन-प्रकाशहान्या हानि नयन् । सम० नियंठिज्जं-निग्रन्थीयं उत्तराध्ययनेषु विंशतितममध्ययनम् । ४७ । उत्त०६। नियड-निगडं-दृढबन्धनम् । आचा० ६।। नियंठिपुत्ते-पुद्गलप्रदेशनिरूपणे महावीरशिष्यः । भग नियडि-निकृतिः-आन्तरो विकारः । प्राव० ५६६ । २४० । बकवृत्त्या कुकुंटादिकरणं, अधिकोपचारकरणेन परच्छलनियंठ-निग्रंन्थोद्देशः । भग० ३२३ । नम् । ज्ञाता० २३८ । निकृति:-वञ्चनक्रिया । प्रश्न. नियंठद्देसए-निर्ग्रन्थोद्देशकः । भग. ३२४ । द्वितीयशते ! ५८ । वञ्चनप्रच्छादनाथं कर्म । ज्ञाता० ८० । माया (५६) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियsिeri ] [ निययपव्वयो प्रच्छादनार्थं - मायान्तरकरणम् । ज्ञाता० २३८ । निकृति:अस्यन्तादरकरणेन परवश्वनम् । प्रश्न० ६७ । निकृति:अत्युपचार करणेन वञ्चनं, माया कर्माच्छादनार्थं वा मायान्तरम् । प्रश्न० ९२ । निकृतिः- आकारवचनाच्छादनम् । व्य० द्वि० १६ भ । नियन्त्तणसइए- निवर्त्तनं भूमिपरिमाणविशेषो देशविशेषप्रसिद्धः ततो निवर्त्तनशतं कर्षणीयत्वेन यस्यास्ति तनिवर्त्तनशतिकम् । उपा० ४ । नियत्तणियं निवर्त्तनिकं निवर्तनं क्षेत्रमानविशेषः तत्परिमाणं निवर्तनिकं निजतनुप्रमाणं वा । भग० १६७ । नियडिकम्मं - निकृतिकर्म - मायाकर्म, तृतीयाधर्मद्वारस्यै- नियत्ती-निर्वर्तनं निवृत्तिः, प्रतिक्रमणपञ्चमः पर्यायः । आव ० ५५२ । नियतिः - स्वभावविशेषः । प्रश्न० ३५ । नियत्थं - नियसितं परिहितम् । आव ० १८४ । नियत्था - निवसिता, वस्त्रं परिधापितेत्यर्थः । विशे० १०३६| नियम - उत्तरगुणात्मकः । विशे० १०६५ । इन्द्रियनोइन्द्रियसंयमी नियमः । विशे० ५०२ । निरोधः । ओघ० ११४ । निश्चयः । पिण्ड० १६६ । इन्द्रियनो इन्द्रियभेदभिन्नः । आव ० ६७ | द्रव्याद्यभिग्रहात्मकः । उत्त० ४५१ । अभिग्रहः । भग० ६२ । उत्तरगुणसमूहात्मकः । अनु० २५६ । नियमणिसिद्धो-नियमनिषिद्धः । आव० २६७ । नियमनियमः - नियमान्वितो नियमो यत्रासौ । उभयपदाव्याहतचतुर्थी भङ्गः । विशे० ८८७ । नियमविकल्पः - नियमेनोपलक्षितो विकल्पः, द्वितयो भङ्गः । विशे० ८५६ | नियमा:- उत्तरगुणाः । सम० १०७ । इन्द्रियनोइन्द्रियदमरूपा: । नंदी० ४६ । अभिग्रहविशेषाः । भग० ७५६ । सम० १२७ । शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि । ज्ञाता० ११० । विचित्रा अभिग्रहविशेषाः । राज० ११६ । ज्ञाता० ७ । नियमिता - जिताः । बृ० प्र० २११ मा नियमे - नियमयेत् कारयेद्वाचा | आचा० ४१६ । नियम्यनियामकभाव| आचा० ६६ । नियय-निहतं सर्वदा । पिण्ड० १६७ । नियतं - प्रतिदिवसं निरन्तरम् । पिण्ड० ७७ । नियतः - सदा भोग्यत्वेनावस्थितः । जीवा० २०० | जं० प्र० ४४ । नियतः नित्य: । आव० ७६८ । सततम् | ओघ० १५० । निययपव्यय - नियतः सदा भोग्यत्वेनावस्थितः पर्वतो नियतपर्वतः । जीवा २०० । निययपढवया - नियताः सदा भोग्यत्वेनावस्थिताः पर्वताः ( ५६७ ) अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ कोनत्रिंशत्तमं नाम । प्रश्न० ४३ । निडकडवंचणाकुसला - निकृतिकपटवञ्चनाकुशलानिकृति:- प्रान्तरो विकारः कपटं - वेषपरावर्त्तादिर्बाह्यः, आभ्यां या वना तस्यां कुशला-निपुणा । आव० १६६ । नियडिनिबंधणं - निकृतिनिबन्धनम् । आव० ३६५ । नियडिल्ल - निकृतिमानु मनसा । उत्त० ६५६ । निडल याए - निकृति:- वचनार्थं चेष्टा मायाप्रच्छादनार्थं मायान्तरमित्येके आत्यादरकरणेन परवश्वनमित्यन्ये तद्वत्ता । भग० ४१२ । नियsि - निकृतिः । आव० २६४, ३६४ । माया० । आय० ७६८ । अण्णहाकरणलक्खणा माया । आव ० ६६२ । निकृतिः - तवार्थं प्रयुक्तवचनाकाराच्छादनम् । बृ० तृ० ४६ आ । नियडी-माया । बृ० द्वि० १५६ अ । नियणा-निदानं निर्दणणं । बृ० द्वि० ४ आ । नियतंति - निबद्धं । नि० चू० द्वि० ३५ अ । नियत - नियतार्थं विषयेनैककाल मनेकविषयम् । बृ० प्र० आ । एकरूपत्वात् नियतः । ठाणा० ३३३ । नित्यम् । ठाणा ४२६ । नियतवादिनः - पाखंडीविशेषः । सम० ११० । नियतिः - व्यवस्था | व्य० प्र० १७१ अ । नियतिवादिनः - नियतिः - पदार्थानामवश्यन्तया यद्यथाभवने प्रयोजककर्त्रीति । ठाणा २६८ । नियतिवादी| आव० ८१६ | नियत्त- निवर्त्तनम् । ओघ० १७४ | निवृत्तः । आव ० ६६३ । नियत्तण- निवर्त्तनं - क्षेत्रमानविशेषः निजतनुप्रमाणं वा । भग० १६७ । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियया ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरि सङ्कलित : [ निरणुकंप यत्र व्यन्तरा देवदेव्यो भवधारणीयेन वैक्रियशरीरेण प्रायः नियाण-निदानं उपादानं कर्म । आचा० २३४ । विष याभिष्वङ्गात्मकम् । उत्त० ४१४ । आशयः । श्राव० ६१० । नितरां दीयन्ते -लूयन्ते दीयन्ते वा खण्ड्यन्ते तथाविधसानुबन्धफलाभावतस्तपः प्रभृतीन्यनेनेति निदानं - साभिष्वङ्गप्रार्थनारूपम् । उत्त० ३८४ । साभिष्वङ्गप्रार्थनारूपः । उत्त० ७०७ । निदानं आकाङ्क्षा । सूत्र २६४ । कर्म मलशोधनम् । उत्त० ४४९ । निदानंआरम्भरूपं आश्रवः हेतुर्वा । सूत्र० १६८ । निदानशल्यम् । ओ० २२७ | निदानं - अभिलाषानुष्ठानम् । आव ० ५७६१ नियाणचितण- निदान चिन्तनं - निदानाध्यवसायः । आव ० सदा रमन्ते । जं० प्र० ४४ । नियया - नियता - सर्वकालमवस्थिता शाश्वत्वात्, जम्बवाः सुदर्शनाया एकादशं नाम । जीवा० २६६ | निययो- निकृति : - मायायाः प्रच्छादनार्थं वचनम् । अधमंद्वारे मृषावादस्य त्रयोविंशतितमं नाम । प्रश्न० २७ । नियर-निकरः स्कन्धस्य नवम पर्यायः । विशे० ४२६ । नियल - निगड लोहमयम् । औप० ८७ । निगड: । आव ० २२४, ६८३ । उत्त० ५५५ । निगडं पादविषयलोहमयबन्धनम् । पिण्ड० १५७ । नियलियओ विव चलणे विस्थाfरय अहव मेलविउ, कायोत्सर्गेऽष्टमो दोषः । श्राव० ७६८ । नियलबंधणं नियलबद्धो - निगडबद्धः । आव० २२२ । नियलमाई - निगडादिभ्यः ठाणा० ७६ । । सूत्र० ३२८ । आदिशब्दात्कारागृहादिपरि ग्रहः । उत्त० ५५५ । नियल्ले - अष्टाशीतितम महाग्रहे त्रिपञ्चाशतममहाग्रहः । नियुक्तः - राजपुरुषः । नंदी० १५१ । नियल्लग - निजक: । आव० ३०७ । निया- नीता । ठाणा० २२२ । नियाए - निदानं निदा-प्राणिहिंसा नरकादिदुःखहेतुरिति जानताऽपि यद्वा साधूनामाधाकम्मं न कल्पते इति परिज्ञानवताऽपि यज्जीवानां प्राणव्यपरोपणं सा निदा । पिण्ड० ४२ । कारणेन संकल्पेन । आचा० ३४ । निदानं व्यापाद्यस्य सत्त्वस्य हा ! धिक् सम्प्रत्येष मां मारयिष्यतीति परिजानतो यत् प्राणव्यपरोपणं सा । पिण्ड० ४२ । निदान स्वार्थं परायं चेति विभागेनोद्दिश्य यत् प्राणव्यपरोपणं सा निदा । पिण्ड० ४२ । नियागं निययं । दश० चू० ५० । नित्यागं नित्यपिण्डम् । उत्त० ४७६ । संयमो मोक्षो वा । यजनं यागः नियतो निश्चितो वा यागो। आचा० ३६६ । नियाग:- मोक्षमार्गः, संगतम्, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकः मोक्षमार्गः । आचा० ४२ । नियागं- आमन्त्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं नित्यं न स्वनामन्त्रितस्य । दश० ११६ । नितरां यजनं याग:- पूजा यस्मिन् सः नियाग:-मोक्षः । उत्त० ४६ । | ५८५ । निया छिन्ने - निदानं प्राणातिपातादि कर्मबन्धकारणं छिन्नं अपनीतं येन स तथा छिन्ननिदानः, अप्रमत्तसंयत इति । उत्त० ४१४ । नियाय - नियाग: मोक्षः सद्धर्मो वा । सूत्र० ३६ । ज्ञात्वा । आचा० २१० । नियुक्तक:- राजपुरुषः । प्रज्ञा० ८६ । यः कार्यार्थं नियोजितः कर्मकर इति । उत्त० २७२ । नियोग - नियुज्यते साधुः आचार्य प्रायोग्यानयनार्थम् । ओघ० ८५ । नियतो निश्चितो वा योगो नियोगः, अनुयोगस्य पर्यायः । आव० ५६ । नियोगत: - अवश्यम् । आव० २६५ । नियोगामच्चो - नियोगामात्यः नियोगनिमित्तेन कलङ्कदाता । आव० ६६३ । नियोगिना । विशे० ४०६ । निरंतरगो - निरंतरकः लघुच्छिद्रैरपि रहितः । जीवा ० ३५६ । निरंतरिए - धनकवाडे निर्गता अन्तरिका - लघ्वन्तररूपाययोस्तो निरन्तरिको अत एव घनकपाटो यस्य तत्तथा । जं० प्र० ४४ । निरंभा - वैरोचनेन्द्रस्य चतुर्थी अग्रमहिषी । भग० ५०३ । निरए - नरक:- प्रकीर्णकरूपो नरकावासः । प्रज्ञा० ७१ । निरणकंप-विगतप्राणिरक्षः, निर्गता वा जनानामनुकम्पा यत्र स ज्ञाता० ८० निरनुकम्प:- जो उ परं कंपतं ( ५६८ ) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरणुक्कोस ] दट्ठूण न कंपए कढिणभावो । एसो उ निरणुकंपो अणुच्छा भावजोएणं । यस्तु परं कृपास्पदं कुतश्चित् भयात् कम्पमानमपि दृष्ट्वा कठिनभावः सन्नकम्पते एष निरनुकम्पः । बृ० प्र० २१६ अ । निरणुक्कोस - निरनुक्रोश: निर्दयः । ज्ञाता० ८० । निरणुतावो - निरनुतापः - निर्गतानुतापः पश्चातापरहितः । आव० ५६० । ज्ञाता० ८० 1 नरकावासा । प्रज्ञा० ७१ । निरती - देवानन्दाऽपरनाम । जं० प्र० ४९२ । सूर्य निरयावलियाओ - यत्रावलिकाप्रविष्टा इतरे च नरका वासाः प्रसङ्गतस्तगामिनश्च नरास्तिर्यञ्चो वा वर्ण्यन्ते ता निरयावलिका । नंदी १०७ । निरय० ३ । निरयावली - नरकावासपङ्क्तिः । अनु० १७१ । निरवकखा - निष्क्रान्तमाकाङ्क्षातो निराकाङ्क्षम् । उत्त० १४७ । निरत्थय - निरर्थकं - यत्र वर्णानां क्रमनिदर्शनमात्रं विषते न पुनरभिधेयतया कश्चिदर्थः प्रतीयते तत् । द्वात्रिंशततम सूत्रदोषे तृतीयदोषः । आव० ३७४ । निष्फलम् । १२७ । निरर्थकं यत्र वर्णानां क्रमनिर्देशन मात्रमुपलभ्यते न त्वर्थः । अनु० २६१ । वर्णानां क्रमनिर्देशमात्रमुपलभ्यते न स्वर्थः निरर्थकम् । विशे० दश० अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ ४६४ । ष्क्रान्तं निरत्थयमवत्थयं - निरर्थकापार्थकं निरर्थकं - सत्यार्थातिअपार्थं - अपगतसत्यार्थम्, प्रथम अधर्मद्वारस्य सप्तमं नाम । प्रश्न० २६ । निरन्तराः - हृदयशून्याः । आचा० १५६ २२८ । निरयं - नरकावासः । अनु० १७१ । निर्गतशुभफलम् । प्रश्न० ६२ । नीरजाः - रजोरहितः । औप० १० । निरयः निर्गतमयं - इष्टफलं कर्म यस्मात् स नरकः । भग० १६ । निरयगइया - निरयगतिः- गमनं येषां ते निरयगतिकाः, इह सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयो वा ज्ञानिनोऽज्ञानिनो वा ये पञ्चेन्द्रियतियं ग्मनुष्येभ्यो नरके उत्पत्तुकामा अन्तरगत वर्तन्ते ते निरयगतिकाः विवसिताः । भग० ३४६ । निरयछिद्द - नरकच्छिद्राणि । प्रज्ञा० ७७ । निरयनिक्खुड-नरकनिष्कुटा :- गवाक्षादिकल्पा नरकावासप्रदेशाः । प्रज्ञा० ७७ । निरयपत्थड - नरक प्रस्तरः नरकभूमिरूपः । प्रज्ञा० ७१ । निरयपत्थडा-नरक प्रस्तटाः । अनु० १७१ । निरयवत्तणि-निरयवर्तिनि नरकमार्गः । प्रश्न० ६१ । निरयवाला - शक्रेन्द्रस्य आज्ञावर्ती देवः । भग० १९७ । निरयविभत्ती - निरयविभक्तिः सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे [ निरवसेस सव्वते पञ्चममध्ययनम् । सम० ३१ । आव ० ६५१ । निरया - इष्टफलं कर्म निर्गतमयं येभ्यस्ते निरया:-नरकावासाः । जीवा० ३३ । प्रज्ञा० ४३ । निर्गतं - अविद्यमानमयं इष्टफलं कर्म येभ्यस्ते निरयाः । ठाणा० २८ । नरकहेतु:, विशिष्टवेगो वा । प्रश्न० ९२ । निरयावलिया - नरकावलिका: आवलिका व्यवस्थिता ६०० । निरवज्जं - निरवद्यं निर्गतपापम्, इहलोकाद्याशंसारहितम् आव० ५६६ । निरवयक्ख - निरवकाङ्क्षः पश्चाद्भागमनवेक्षमाणस्त निस्पृहः अनभिलाषवान् । ज्ञाता० १६६ । निर्गताऽपेक्षा - परप्राणविषया परलोकादिविषया वा यस्मिन्नसौ निरपेक्षः निरवकाङ्क्षो वा अवकाङ्क्षारहितो वा । प्रश्न० ५ । निरवयवः - समस्तः । बृ० प्र० ३६ आ । निरवलावे - निरपलाप:- नान्यस्मं कथयेदिति, द्वात्रिंशद् योगे सङ्ग्रहे द्वितीयो योगः । आव० ६६३ । निरवशेष : - प्रसक्तानुप्रसक्तमप्युच्यते यस्मिन् स एवं - लक्षण: । आव ० २७ । निरवसेस - निरवशेषता अपरिशेषव्यक्तिसमाश्रयः । ठाणा ० २२३ । निरवशेषो - निरवशेषस्य प्रसक्तानुप्रसक्तस्यार्थस्य कथनात् । भग० ८६६ । निरवशेषं - सामस्त्येन । प्रज्ञा० ५८२ । निरवशेषं - समग्राशनादिविषयः । आव० ८४० । निर्गतमवशेषमपि अलाल्पमशनाद्याहारजातं यस्मात्तत् निरवशेषं सर्व्वमशनादि तद्विषयत्वानिरवशेषम् । ठाणा० ४९८ । निरवशेषं - समग्राशनादिविषयम् । भग० २६६ । निरवशेष - प्रदेशान्तरतोऽपि स्वस्वभावेनान्यूनाः । भग० १४६ । निरवसेससव्वते - अपरिशेषव्यक्तिममा प्रयेण सव्वं निरवशेषसर्व्वम् । ठाणा० २२३ । (yes) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरवेक्खो] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः निरुवहयं ० । निरवेक्खो-निरपेक्ष:-निरभिलाषः, निरभिष्वङ्गः । उत्त० | निरुच्छ वासः-निश्चलः । व्य० प्र० १९८ आ। २६९ । निरपेक्षः इहान्यभविकापायभयरहितः । आव० | निरुत्त-निरुक्तं निश्चित्तमुक्त अक्षरार्थमित्यर्थः । वृ० प्र० ५६० । ३ अ । निरुक्तं, निश्चितमुक्तमन्वर्थरूपम् । दश० २६१ ॥ निरस्साविणी-निष्क्रान्ता आश्राविभ्यः प्राग्वत् सन्धिभो निरुक्त-शब्दव्युत्पत्तिकारकशास्त्रम् । भग० ११४ । निरुक्तः निरामाविणी । उत्त० ५०६ । शब्दनिरुक्तिप्रतिपादकः । औप० ६३ । शन्दनिरुक्तप्रतिनिराग-निरन्तरायः । उत्त० ८६ । पादकः । ज्ञाता० ११० । निरागारं-अपवादशून्यम् । आउ० । निरुत्ती-निश्चिता उक्तिः निरुक्तिः। अनु०२६० । व्युत्पत्तिः । निरामया-रोगरहितः । आव० ४१६ । अनु० २६४ । निरामयामय-निरामयामयः नीरोगस्याऽमय भावः रोगो- | निरुत्थाई-न निमित्तं विनोत्थानशीलो निरुत्थायो । उत्त० स्पत्तिः । दश० १३१ । ५८ । निरामिस-निरामिषा परित्यक्ताभिष्वङ्गहेतुः । उत्त० निरुद्ध-परिगलितम् । आचा० १९१ । आवृतम् । सूत्र० ४१० । ७४ । विनाशितः । व्य. प्र० २४१ । निरुद्धः । उत्त. निरायं-नितराम् । आव० २२२, ७०० । ५८२ । अध्यवसानादिभिरुपक्रमणकरणैरवष्टब्धः । उत्त. निरारम्भे-निर्गतः आरम्भात-असत्क्रियाप्रवर्तनलक्षणा- २-३ । अल्पः । ठाणा. १८१ । निरुद्धः-अर्थस्तोकः, दिति निरारम्भः । उत्त० ६६ । स्तोककालीनम् । सूत्र. २५० । विनाशितः। व्य. प्र. निरालंबण-निष्कारणं प्रत्यपायसम्भवो वा त्राणाया- २४१ अ । लम्बनीयवस्तुवजितः । ज्ञाता० १५८ । निरालम्बन:- निरुद्धगतयः-सिद्धाः । उत्त० ६८४ । एहिकामुष्मिकाशंसारहितः । आचा० ४३१ । | निरुद्धभवे-निरुद्धभव:-निरुद्धातनजन्मा चरमभवप्राप्तः । निरालोगा-निरालोकाः-निरस्तप्रकाशा निरस्तदृष्टिप्रसरा | भग० १११ । वा । भग० ३०६ । निरुद्धभवपवंचे-अप्राप्तव्यभवविस्तारः । भग० १११ । निरावरण-क्षायिकम् । ज्ञाता. १५३ । निरुवकिट्ठ-निरुपक्लिष्टः-व्याधिना प्राक् साम्प्रतं चानिरासो-निराशंस:-इह परलोकाशंसाविप्रमुक्तः । आव० | नभिभूतः । भग० २७६ । निरुपक्लिष्टः व्याधिनी प्राक् ५६२ । साम्प्रतं चानभिभूतः । अनु० १७६ । निराससे-निराशंसः-ऐहिकामुष्मिकाशंसारहितः । आचा० निरुवगारो-निरुपकारी गुरुणामनुपकारकः सर्वथा गुरु कृत्येष्वप्रवर्तकः । विशे० ६२५ । निरिक्खिअ-निरीक्षिता: मनोरथपरम्परासम्पत्तिसम्भवा- निरुवदाणा-निर्गतमुपस्थानं-उद्यमो येषां ते निरुपस्थाना:विनिश्चयसमथसम्मदविकाशिलोचनैरालोकिताः । नंदी० सर्वज्ञप्रणीतसदाचारानुष्ठान विकलाः । आचा० २२७ । १९२ । निरुवलेव-निरुपलेपं मूत्रविष्ठाषूपलेपरहितम् । जीवा. निरंभइ-निरुणद्धि । आव० ७८३ ।। २७७ । निरुपलेपः तथाविधवन्धहेत्वभावेन तथाविधकर्मानिरंभति-निरुन्धति । आव. २७७ ।। नुपादानात् । ज्ञाता० १०५ ।। निरंभा ।ज्ञाता० २५१ । । निरुवसग्गो-निरुपसर्गः मोक्षः । आव० ७८७ । निरुक्ति:-क्रियाकारकभेदपर्यायः शब्दार्थकथनम् । आव. निरुवसग्गवत्तिया-निरुपसर्गप्रत्ययं मोक्षनिमित्तम्।ाव. ३६३ । चतुर्विधस्य सामायिकस्य क्रिया: कारकभेद- ७८६ । पर्यायः शब्दार्थकथनं-निर्वचनम् । विशे० ११०६ । निरुवहए-निरुपहतः वातादिभिरनुपहतः । ज्ञाता०६१ । निरुक्तिद्वारम्-एकार्थशब्दविधानरूपत्वात्तस्य । प्रश्न० ४। निरुवहयं-निरुपहतं निरोगम् । प्रश्न० ७६ । निरुपहतं (६०० ) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ froagar ] अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, मा० ३ [ निर्विष्टं हतो निरोगः । बृ० तृ० २५४ अ । निरुवहया - निरुपहतः निरुपहतेन्दियता । श्राव० ३४१ । निरुवगारी - freeeतु शीलमस्येति निरुपकारी । आव ० खंजनादिदोषरहितम् । बृ० द्वि० २२६ आ । निरुप- निर्बन्धं - हठ:- | नंदी० १५३ | आचा० २४८ । निर्भजना- निश्चिता भजना निर्भजना निश्चितो भागः । आचा० ८६ । निर्मलं - नाटकविशेष: । पिण्ड० १३८ । निर्माण - निमिण जातिर्लिंगाकृतिव्यवस्थानियामकम् । त ८१२ । निर्मला : - कठिनमलाभावात् घोतवस्त्रवत् । ठाणा० २३२ नियंन्- निर्गच्छन् । निर्याणं - अवसानम् । उत्त० ४५३ । निर्यास- कर्पूरादिः गन्धद्रव्यविशेषः । जीवा० १३६ । नियुक्ति:। सम० १११, १०६ नियुक्त्यनुगम: - अनुगमे द्वितीयो भेद: । स्थान० ६ । निर्यानं - बहिर्निर्ग्रमो । नि० चू० प्र० २७३ अ । निर्लेपं - आयामसौवीरादि । आव० ५७२ । पृथुकादिगुण्डतः । ठाणा० ३८६ । निर्लोठनीय - निरुत्तरीकरणम् । नंदी० १५२ । निर्वर्त्तनाधिकरणक्रिया - अधिकरणक्रियायाः प्रथमो भेदः, खड्गादीनां तम्मुष्टयादीनां च निर्वर्तनलक्षणा । प्रभ० १०० । निरुव्विग्ग - निरुद्विग्नः सदैव अनुकूलविषय प्राप्तेः । ज्ञाता० ६७ । निरुह - निरुहः- अनुवासः । विपा० ४१ । निरुहा - अनुवासना | ज्ञाता० १८३ । निरेई - निरेजी - निष्प्रकम्पः । आव० ७७५ । निरेयकाओ - निरेजकायः - निष्प्रकम्पदेहः । श्राव० ७८० । निरेयणा - निरेजनाः कम्पक्रियानिमित्तविरहात् । प्रज्ञा ६१० । निरोदरं - निरुदरं विकृतोदररहितम् । जीवा० २७५ । निरुदरं विकृतोदररहितं, अल्पत्वेनाभावविवक्षणात् । जं० प्र० ११४ । निरोयए - रोगवजित: । ज्ञाता० ५ । निरोवट्टो - निरपवर्तन:- अपवर्तनारहितः । विशे० ८५१ । निरोह-निरोधः - अभाव: । उत्त० २८४ । नियन्त्रणा | उत्त० ५८६ । निरोधः । ओष० १३८ । आव० ३७८ । निरोधः - गृहणम् । उत्त० १३५ । निरोधः-स्थापनम् । आव० ६३३ । निरोधनं निरोधः प्रलयकरणम् । आव० ५८३ । ३७ । निर्वात्तित-कृतं अभ्यस्तम् । आव० ५९३ । निर्वर्तितवन्तः - अनुभूतवन्तः । ठाणा ० ४४६ । निर्वत्र्यते - आह्रियते । जीवा० १४ । निर्वलति - निवर्त्तते । नंदी० १५८ । निविकृति:निविंग (कृ) तिकादि - पृथ्व्यादिसङ्घटनादी तपः । आव० | आव० ८५३ । ७६४ । निर्विशमानकं - आसेवकः, परिहारविशुद्धचारित्रे प्रथमः । ठाणा० ३२४ । निविशमानका - परिहारविशुद्धिचारित्रस्यासेवकाः साधवः विशे० ५५४ । निर्घाटितः पङ्क्ते बहिष्कृतः । बृ० प्र० १६९ म । निर्जरितवन्तः - प्रदेशपरिशाटनतः । ठाणा० १७६ । निर्भरं श्रोतादिविवरम् । १३८ । निर्देश:- प्राज्ञा । नंदी० १६० । लिङ्गार्थं मात्र प्रतिपाद- निविशमाना- ये परिहारविशुद्धितपोऽनुचरन्ति परिहारिका नम् । अनु० १३४ । निर्देशदोष:-यत्र निर्दिष्टपदानामेकवाक्यता न क्रियते । निविषयम् इत्यर्थः । ठाणा० १६८ । । ठाणा० ४०२ । निविष्टं - अलब्धं - अनुपात्तं स्यादित्यर्थः । दत्तार्थत्वातु । ठाणा० ३१४ । निर्-आधिक्ये । अनु० २६५ । निर्गम: - निहार:- प्रमाणम् । ठाणा० ४३५ । निर्गमभूमि :- स्थण्डिलभूमिः । आव० ५२४ । निर्घण्टः - नामकोशः । निरय० २३ । अनु० २६२ । निर्दोषं - सर्वदोषविप्रमुक्तम् । अनु० २६२ । ( अस्प० ७६ ) ( ६०१ ) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निविष्टकायाः] आचार्यश्रीआनन्यसामरसूरिसङ्कलितः निवाई निविष्टकायाः-आसेवितपरिहारविशुद्धचारित्रकायास्तु निवज्जइ-निषद्यते-शेते । ज्ञाता० २०५ । मुनयः । विशे० ५५४ । निवज्जणा-स्वमन्ति । ओघ० १०७ । निर्विष्टकायिकं-यस्तु निविष्टकायिकानामासेवितविवक्षित-निवज्जाविओ-निमज्जितः । आव. २२७ । चारित्रकायानां तत् । ठाणा० ३२४ । । निवज्जावेति ।निरय० ११ । निर्वृत्तिः-द्रव्येन्द्रियभेदः । प्रज्ञा० २४ । भग० ८७ । निवझत्ति-निर्वाप्यन्ते नितरामभ्युयतमरणं प्रपद्यन्ते । निष्पत्तिः । ठाणा० २८५ । प्रतिविशिष्टः संस्थान | व्य० द्वि० ४२४ आ । विशेषः । जीवा० १६ । नंदी० ७५ । निवट्टगं-निवतितम् । आव० ७९२ । निर्वेदः-सम्यक्त्वस्य तृतीयं लक्षणम् । आव० ५६१ । | निवडइ-निपतति । ज्ञाता० १६६ । निपतति-शिथिलनिर्वेधना । आव० ३३१ ।। वृन्तबन्धनत्वात् भ्रश्यति । उत्त० ३३३ । । निर्याघात-यत्सूत्रार्थ निष्ठितः उत्सर्गतो द्वादश समाः कृत- निवण्ण-शयितः । बृ० तृ० १९८ आ। निविण्णः-सनि. परिकर्मा सन् काल एव करोति । ठाणा. १५ । पाद- विष्टो दण्डायतादिना । आव० ५९४ । पोपगमनस्य द्वितीयो भेदः। सिंहाधुपद्रवव्याघाताभावः । निवण्णा-सुप्ता । नि० चू० प्र० २०४ आ। दश० २६ । निवणुस्सिओ-निवण्णोत्सृतः । आव० ७७२ । नियूहना-अपाकरणम् । व्य० प्र० १८५ प्र । निवतिते-उपरि पतितं सत् पीडयति तन्निपतितं-स्वग्विषम् निर्हरणं-निस्सारणम् । ठाणा० १४ । दृष्टिविषं च । ठाणा० ३७५ ।। निरिलाला-कृमिसूत्रम् । ठाणा० २१६ ।। निवन्ना-निपज्नः स्वग्वत्तितः। बृ० दि० १३ आ। निषण्णः। निलओ-निलयः । भाव. ६८० ।। आव०६७५ । शयानः। व्य०द्वि० ३११ आ। निष्पन्न:निलयः-आधायाः परावत्तितद्वारे श्रेष्ठी, वसन्तपुरे श्रेष्ठो । उपसम्पन्न आश्रितः । भग० १६४ । निवण्णः । भाव. पिण्ड १०० । उपाश्रयः । प्रभ० १२८ । ७७२ । निलिच्छमाणा-निरीक्षमाणाः । व्य० प्र० १३० अ। निवन्ननिवन्नगो-निवण्णनिवण्णः । आव० ७७२ । निलीयंति-निलीयन्ते-विनश्यन्ति । भग० २४६ । निवन्ना-निर्वर्णा । ठाणा० २६६ । निलुक्क-(देशी०) विरतः । आव० १८६ । आचा० ४२४ । | | निवयउप्पयं-निपातोत्पातं-दिव्यनाट्यविधिः । जं० प्र० निलुक्कि उं-निलातुम् । आव० ३१६ । ४१२, ४१८ । निल्लंछणं-निर्लाञ्छनं वद्धितकरणम् । प्रभ० ३८ । । निवया-निवाताः । आचा० ३२६ । निल्लंछणकम्म-निर्लाञ्छनकर्म-पञ्चदशकर्मादाने द्वादशम । | निवर्तनं-गन्तव्यं भिक्षाया इत्यर्थः । ओघ० १७४ । आव०८२६ । निर्बाञ्छनकर्म-वधितकरणम् । उपा०६ निवर्तन्ते-न गृहन्ति । ओघ० २०१ । निल्लालिय-निर्लालिता निष्काशिता । उपा० २२ । निवत्तितं-सर्वथा परिसमाप्य । ठाणा० ३८४ । विवृतमुखान्नि:सारितम् । ज्ञाता० १३७ । निवर्त्य-असारान् पृथक्कृत्येति । ठाणा० ३८४ । निल्लालियग्ग-निर्लालिताना प्रसारिताग्रा । ज्ञाता. १६ । निवसणं-निवसनं परिधानम् । प्रज्ञा० ९६ । ज्ञाता. निल्लेव-निलेपः अत्यन्तसंश्लेषात्तन्मयतां गतः। भग०२७७, २०० । अत्यन्तसंश्लेषात् तन्मयतागतवालाग्रलेपापहारानिलेपः । निवसनं-विशिष्टरचनारचितपरिधानलक्षणम् । अनु० अनु० १८.। निलेपः-भूमिभित्यादिसंश्लिष्टसिकताले- १४३ । पाभावात् । भग० ६७६ । निर्लेपः-निष्ठामुपगतः । जीवा० | निवसमानः-वसन् । आव० ६४४ । १४१ । निवह-सङ्गातः । आव० ६२ । निल्लेवण-निर्लेपन:-रजकः । व्य० प्र० १०४४।। | निवाई-निपतितु शीलमस्येति विगृह्य णिनिः निपतनं वा (६०२) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवाए ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [निव्वतण निपातः मोऽस्यास्तीति निपाती । आचा० २०९ निवेश-स्थापनः । नंदो० १६१ । निवाए-निपातः चन्द्रसूर्यः सह सम्पातः । सूर्य० १०० । निवेशनं-गुरोनिवेशनं स्थानं यस्यासौ तन्निवेशनः । निवाओ-निपातः स्पर्शनम् । बृ० तृ० १३ अ । आचा० २१६ । निवाडेइ-निपातयति लगयति । जोवा० २५५ । निवेशना-स्थापना । उत्त० ६३२ ।। निवात-निपात: अवकाशः । व्य० द्वि० २७४ आ ।। निवेस-निवेशः निवेशो नाम यत्र सार्थ आवासितः । निपातनमवकाश: । व्य. द्वि० २८५ आ। बृ० प्र० १५१ आ । निवेश:-स्थापनां अभिनवग्रामा. निवाता-या तु शीतकाले पूर्वाले उपलेपनकरणेन रात्री दोनाम् । ठाणा० ४४६ । आयः । ओघ० १७६ । व्यपगता हा जायते सा । वृ० प्र० २६३ अ। निवेसण-निवेशनानि गृहाणि । उत्त० ३८७ । निवेशनं निवाय-तत्तदर्थद्योतनाय तेषु तेषु स्थानेषु निपतन्तीति गृहम् । व्य० द्वि० ३३७ अ । उपाश्रयप्रतिबद्धपाटनिपाता: । प्रश्न० ११७ । कम् । बृ० तु. १४६ आ। निवेशनं-महागृहपरिवारभूतनिवायगंभीरा-निर्वातगम्भीरा-निवातविशाला । भग० गृहसमुदायरूपम् । ६० प्र० १४६ अ । त्रिप्रभृतीनां गृहाणामाभोगः । बृ० तृ. २३ आ । वाटकः । बृ० निवायणं-निपातनं गादो क्षेपणम् । प्रश्न० २२ । द्वि० १८१ आ । निवेशनम् । आव० ६३६ । निवेशनं निवाया-निर्वाता वायु प्रवेशरहिता । भग० ३१३ । एकनिष्क्रमणप्रवेशानि द्वयादिगृहाणि । पिण्ड० १०३ । निवासो-भत्ताराणुप्पयाणं । दश० चू० १४१ । निव्व ।ठाणा० ४६२ । निविज्जंतो-निविद्यते । आव० २८६ । निव्वए-अणुव्रतरहितः । ज्ञाता० २३८ । निविट्ठ-निविष्टं-परिभुक्तम् । प्रश्न० ७१ । निकाचितः । निव्वओ-अवेदनः । मर० । ज० प्र० २७८ । निव्वटइ-निर्वरीत । पउ० २७-१६ । मिविट्ठसंचिअ-निविष्टसंचितः निकाचिततया संचितः | निव्वट्टण-निवर्तनानि मार्गनिर्घटनस्थानानि । ज्ञात०८१॥ । जं० प्र० २७८ । निव्वदृयित्ताणं-निवर्त्य जीवप्रदेशेभ्यः शरीरकं पृथक्कनिविदाई-स्थापितानि । भग० ५६९ । स्येत्यर्थः । ठाणा० १० । निविण्ण-निविण्णा: उद्विग्ना: संसारभयात । उत्त०३६७।। निव्व डिम-निवत्तितं-वढास्थि । दश० २१९ । निविनि-निवत्ति:-अन्यदर्शनाभिहिता । आचां० १७७। निळवण-निरणः नखक्षतादिरहितः । ओघ० २११ । निवदेवित्तए-निवृशे देवः । प्राचा० ३८९ ।। निणं-निरतिचारम् । प्रश्न १५६ । निर्वणं-व्रणरहितम्।। निवुड्डो-निवृद्धिः शरीरस्यैव हानिः । ठाणा० ३५६ । | आघ० ३० । व्रणकै रहितम् । ज्ञाता. ११ । निरणं निवुड्डत्ता-निवऱ्या हापयित्वा । सम० ८६ । विस्फोटकादिक्षतरहितम् । जीवा. २७३ । निर्वणःनिवुड्डमाणो-निर्वेष्टयनु हापयन् । सूर्य० २६. ४३ । । अक्षतः, अखण्डः । प्रभ० ११० । निवृत्तिः-आकारः द्रव्येन्द्रियविशेषः । ठाणा० ३३४ । | निवण्ण-निविण्णः पापकर्मभ्यः पापकर्मसु वा कर्तव्येषु निवृत्तिबादरः-दर्शनसप्तके उपशान्ते प्राप्तव्यं गुणस्थानकम्। निवृत्तः । आचा० १६४ । आव० ८२ । निव्वण्णंतो-निर्वर्णयन् । आव० २१६ । निवेढेमाणो-निर्वेष्टयन - पूर्वपूर्वमण्डलगतान्तरपरिमाणात् निव्वत्त-निवृत्तः कृतः । ज्ञाता० ४१ । हापयन् । निव्वतए-निवृत्ते । आव. १२४ । निवेयपिंड-उवाइयं अणोवाइयं वाजं पुण्णभद्द माणि-निव्वतण-निर्वर्तनं-असिशक्तितोमरादीनां निष्पादनम् । · भद्द सव्वाण जक्खमहडिमादियाणनिवेदिज्जति सो निवे. | भग० १५२ । निर्वर्तनं-असिशक्तिस्तितोमरादीनां मूलयणापिंडो। नि० चू० दि० २३ । । तो निष्पादनम् । प्रज्ञा० ४३६ । (६०३) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निव्वत्तणया] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [निविण्णचारी निव्वत्तणया-शरीरनिवृत्तिः । सम० १४६ । ५४३ । निर्वाणं-निवृतिः सामान्येन सुखम् । मोक्षः । निव्वत्तणा-निर्वर्तना इन्द्रियाणाम् । आव० ३४१ । आ० ५८४ । निर्वान्ति - कर्मानलविध्यापनाच्छोतो निर्वर्तना-प्रथमतो घटना । वृ० द्वि० २३४ अ । निर्वर्तना. भवन्त्यस्मिन् जन्तव इति निर्वाणम् । उत्त० ५११ । बाह्याभ्यन्तररूपा या निर्वृत्ति:-आकारमात्रस्य निष्पा- शान्ति । महाप० । दनम् । प्रज्ञा० ३०६ । निम्याणमग्ग-निर्वाणमार्ग:-असाधारणरत्नत्रयरूपः। ६० निव्वत्तणाधिगरणिया-निवर्तनं - असिशक्तिकुन्ततोमरा- प्र० १५१ । सकलकर्मविरहजसुखोपायः । भग० ४७१ । दीनां मूलतो निष्पादनं तदेवाधिकरणिकी निर्वर्तनाधिक- निव्याय-निर्वातः निषिातः । ज्ञाता० ४१ । रणिकी, पञ्चविधस्य वा शरीरस्य निष्पादनं निर्वर्तनाधि-निव्वावए-निर्वापयेत् अभावमापादयेत् । दश०.२२८ । करणिकी। प्रज्ञा० ४३६ । निव्वावण-निर्वापणं-विध्यापनम् । दश० १५४ । निव्वत्ति-निर्वृत्तिः बन्धनम् । भग० ५३३ । निव्वाविय-निर्वापितं शीतलीकृतम् । साता० २६ । निव्वत्तिज्जमाणे-निवृत्यमानं नितरां वत्तुं लीक्रियमाणं | निव्वावेति भग० ३२६ । प्रत्यञ्चाकर्षणेन । भग० ६३ । निव्वाहणाय-निर्वाहणाय-वस्त्राम्यङ्गतैलादिना यापनार्थम् । निव्वत्तिए-निवृत्तितं वृत्तीकृत-मण्डलाकारं कृतम् । भग० उत्त० ५२४ । निवाहि-निर्वाहि-पृथक् फलिहकम् । बृ० द्वि० ६० अ । निस्वत्तिय-निर्वतितं-रौद्रध्यानादिना कृतम् । आव० निविद-निविन्दस्व जुगुप्सव । आचा० १४३ । २५८ । निविदए-निविन्ते सम्यग् विचारयति । दश०.१५६ । निव्वयंते-उत्पततः । आव० २०३ । निव्विदेज्ज-निविद्येत-जुगुप्सयेत्, परिहरेत् । सूत्र०७४ । निव्वलिया-निर्वलिता: सुद्धाः । विशे० ५४१ । निम्विगइ-निविकृतिकः निर्गतविकृतिपरिभोगः । दश० निव्वाघाइम-निावातिमं व्याघातिमानिर्गतं स्वाभाविक | २८१ । मिति । जीवा० ३८४ । निविगप्पो-निविकल्पः निःसंदिग्धः । दश० १२६ । निब्वाधाए-निळघात:-कारणाभावः । जं० प्र० १५० । निविगार-निर्विकारं विभूषाभ्रूक्षेपादिविकाररहितम् । निवाघाओ-निर्याघात:-क्षणिकः । ओष. २०० । । अनु० १४० । निव्वाघात-निर्याघातं-न कश्चिद् घङ्घशालायां धमकथा- | निम्विगितिए । भग० ६२१ । दिर्वा कालव्याघात: वैदेशिकादिव्याघातो वा । ओषनिग्विज्जे-सम्यकशास्त्रावगमरूपायाः निविद्यः । उत्त. २०१। ___३४४ । निवाघायं-व्याघातस्याभावो निर्व्याघातम् । जीवा० ३६ । निविट-निविष्टं -लब्धम् । जं० प्र० २१० । अप्रतिहतम् । ज्ञाता० १५३ । | निम्विटकाइय-निविष्टकायिकं परिहारविशुद्धिचारित्रभेदनिव्वाण-मोक्षस्तद्धेतुत्वात् निर्वाणम्। अहिंसायाःप्रथमं नाम। विशेषः । प्रज्ञा०६४ । निविष्टकायिकाः, आसेवितविवप्रश्न० ६६ । सकलकर्मविरहजं सुखम् । ज्ञाता० ५१ ।। क्षितचारित्रकायाः । प्रज्ञा० ६४ । निविष्टकायिका नाम सर्वद्वन्द्वोपरतिस्वभावम् । सूत्र० ३८ । निर्वृतिः-सकल- यः परिहारविशुद्धिकं तपो व्यूढं, निविष्टः-आसेवितो कर्मक्षयजमात्यन्तिकं सुखम् । आव० ७६१ । निर्वाणं विवक्षितचारित्रलक्षणः कायो यस्ते निविष्टकायिकाः । निवृत्तिः अशेषकर्म रोगापगमेन जीवस्य स्वरूपेऽवस्थानं बृ० तृ. २५१ अ । मुक्तिपदमिति । आव० ६६ । कर्मकृतविकाररहितत्वम्। | निम्वितो-निर्वेष्टयनु । आव० ३३६ । ठाणा० १५७ । अशेष कर्मक्षयस्तदवाप्ती वा विशिष्टा- निविणचारो-चार:-अनुष्ठानं निविण्णस्य चारो निविण्णकाशप्रदेशः । आचा० १५१ । निर्वाणं-मोक्षः । आव. चारी । आचा० २१२ । (६०४) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निव्विति गिच्छं ] निव्वितिच्छिं - निर्विचिकित्सं विचिकित्सा फलं प्रति सन्देहो, यथा-यत: क्लेशस्य फलं स्यादुत नेति तदभावो निविजुगुप्स - जुगुप्सा वा यथा - किममी यतयो मलदिग्ध देहा: ? प्रासुकजलस्थाने हि क इव दोषः स्यादित्यादिका निंदा तदभावो | उत्त० ५६७ । निर्विजुगुप्स:- साधुजुगुप्सारहितः । दश० १०२ । निर्विचिकित्सः साध्वेव जिनदर्शनं किन्तु प्रवृत्तस्यापि सतो ममास्मात् फलं भविष्यति न भवतीति विकल्परहितः सञ्जातनिश्चयः । दश० १०२ । फलं प्रति निःशङ्कः । ज्ञात० १०६ । निर्गता विचिकित्सा - मतिविभ्रमो यस्य सः निर्विचिकित्सः । दश० १०२ । विचिकित्सा - मतिविभ्रमः - फलं प्रति संशय इति यावत् निर्गता विचिकित्सा यस्मादसौ निर्विचिकित्सः । प्रज्ञा० ५६ । निव्वित्ती - निर्वृत्तिः सकलावरणक्षयादुत्पत्तिः प्रत्ययः । निब्बुड्डुओ-निब्रुडितः । आव० ६४१ | अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, मा० ३ उत्त० ४१ । निव्वि दुर्गुछो - निर्विद्वज्जुगुप्सः साधुजुगुप्सारहितः । प्रज्ञा० ६१ । निव्वियत - निविकृतिकः - निर्गतो घृतादिविकृतिभ्यो यः स । ठाणा० २६८ । निव्विसओ-निर्विषय: । आव ० २२१ । निव्विसति - निविशति उपभुङ्क्ते । व्य० द्वि० २९४ मा । निव्विसमाण - निर्विशमानका विवक्षितचारित्रसेवकाः । प्रज्ञा० ६४ । निर्विशमानकं, परिहारविशुद्धि चारित्रभेदविशेषः । प्रज्ञा ०६४ । निर्विशमानकं परिहारविशुद्धिकल्पं वहमानाः । बृ० तृ० २५१ अ । परिहारविशुद्धिकल्पं वहमाना निर्विशमानका यैरसो व्यूढस्ते | ठाणा० ३७४ । निव्विसमाणग-निर्विशमानकः- परिहारकल्पस्थितः । व्य० प्र० १३८ आ । निव्विसय - निर्विषयः । भाव० १६२ । निर्विषय:- देश - निष्कासितः । प्रश्न० ६० । निर्विषय:- शब्दादिविषयरहितः यद्वा विषयो - देशस्तद्विरहितः । उत्त० ४११ । निविशक :- उपभोक्ता । पिण्ड० ४७ । निव्विसया - निर्विषयता- देशाद्वहिः । आव० ४०१ । निव्वुइ - निर्वृतिः मनःस्वास्थ्यम् । प्रश्न० ४२ । निबुझकर - निर्वृतिकर: स्वास्थ्यनिबन्धनाकरणशीलः प्रशस्त भावकरविशेषः । आव० ४६६ । आव ० निव्वुइकरा - अष्टादशजिनस्य शिबिकानाम | सम० १५१ । निव्वुई - निर्वृत्तिः - स्वास्थ्यम्, अहिंसाया द्वितीयं नाम । प्रश्न ६६ । निर्वृत्तिः - स्वास्थ्यम् । प्रश्न० ६४ । निर्वृत्तिःप्रतिविशिष्टः संस्थानविशेषः । प्रज्ञा० २६३ । निर्वृत्ति:तितिक्षोदाहरणे मथुराधिपतिजितशत्रु कन्या । ७०२ । निर्वृतिः - जितशत्रुराजकन्या । उत्त० १४८ निव्वुड - जीवविप्पजढं । दश० ० ५१ । निर्वृतं - अत्रिदण्डोवृतम् । दश० ११७ । निर्वृतः - कषायोपशमाच्छीती भूतः । सूत्र० २०७ । निर्वृतं निष्ठागतम् । निरावरणम् । भग० २१७ । [ निव्वेयणी निवडा - तीर्थकरोपदेशवा सितान्तःकरणा विषयकषायाग्न्युपशमानिर्वृताः- शीतीभूताः । माचा० १९२ । frogड्डी - निवृद्धि: - दिनस्य हानिः । भग० १४७ । निवृद्धि - यथोक्तस्वरूपवृद्ध्यभावः । सूर्य० २४३ । निर्वृद्धिःवृद्धेरभावः, हानिप्रतिभासः । जीवा० ३४५ । निवृद्धि:शरीरस्य हानिर्वातपित्तादिभिः, निशब्दस्या भावार्थत्वात् । ठाणा० ६६ । निव्वुता - सरिथदिया सुही निव्वुता । नि० ० प्र० २१२ आ । निव्वुती - निवृत्तिः - चित्तस्वास्थ्यम् । प्रभ० १३३ । निव्वुयहियए- निर्वृत्तं स्वस्थीभूतं हृदयं - अन्तःकरणमस्येति निर्वृत्तहृदयः । उत्त० ५८१ । निव्वेअ - निर्वेद:- उद्वेगः । अनु० १३८ | निव्वेए- निर्वेदः - संसार विरक्तता | भग० ७२७ । निर्वेदः - धर्मकथायाश्चतुर्थो भेदः । दश० ११० । निव्वेगणी - निर्विद्यते संसारादेनिर्विण्णः क्रियते अनयेतिनिवेदनी । ठाणा० २१० । निव्वेय - निर्वेदः - संसारोद्विग्नता । उत्त० ४४१ । निर्वेद:निःकुमानुषत्वमित्यादेविरक्तता । बृ० प्र० ३५ अ । नरकस्तिर्यग्योनिः कुमानुषत्वं च एतत्प्ररूपणं निर्वेदहेतुत्वानिर्वेदः । दश० ११३ । निव्वेयणी - निवेद्यते संसारनिर्विण्णो विधीयते श्रोता यया सा निवेदनी । औप ४६ । ( ६०५ ) • Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निव्वोदय ] आचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ निसण्ण निम्वोदय-नीवोदकम् । आव० ४२६ । निष्पन्नः-परिनिष्ठितः । पाव० ४०८ । आचा० २६२ । निश्चयः-संकेतस्मरणादि पूर्वको हि निश्चयः । विशे० आव० ६५७ । ६१ निश्चयः-बहबहविधादिग्राहको हि विशेषावगमः । निसंत-निशान्तः श्रतोऽवगतः। आचा० ३६६ । निशान्तः विशे० १६५ । भग० ७३९ । नि:संचारवेला । बृ० द० २१२ अ । निशान्तः-गृहम् । निश्चयकथा-सा चापवादकथा, पर्यायास्तिकनयकथा वा। बृ० द्वि० १५ आ। निशान्त:-परिचितः । आचा० सम० २४ । २६६ । निशान्त:-रात्र्यवसानं. दिवसः । दश० २४६ । निश्चलमना:-श्रमण: तपस्युयुक्तः समना वाऽऽसीत् निश्चल- ग्रहम । ज्ञाता. १४६ । निशमितः, श्रुतः । भग० ४६७ । मना इत्यर्थः । आचा० ३०७ । निसंस-नृशंसं शूकावजितम् । प्रश्न० ११०। नृन्-नरान् निश्चितं-निकाचितं प्रमाणम् । ठाणा० ४३५ । शंसति-हिनस्तोति नृशंसः, निःशंसो-विगतश्लाघः । ज्ञाता० निश्चितिः-गाथा, प्रतिष्ठा च । आव० ८०४ । ८० । निश्यजिव्ह-महाकुष्ठविशेषः । आचा० २३५ । निसंतपडिसंते-निशान्तप्रतिनिशान्त-अत्यन्तभ्रमणादुपरतः निषण्ण: । आचा० २६२, २६४ । । ६० द्वि० १५ आ । निषदन । ठाणा० ३ । निसंसतिए-नि:संशयिक:-शौर्यातिशयादेव तत्साधयिष्यानिषद्या-प्रणिपत्य पृच्छा । विशे० ८६० । म्येवेत्येवं प्रवृत्तिकः । ज्ञाता. ८० । निषद्यागतः-आसनस्थः । आव. ५४१ । निसग्ग-निसर्ग:-स्वभावः । नि.चूत.६अ। निसर्गः निषधः-द्वारवत्यां बलदेवपुत्रः । विशे० ६१० । वर्ष- उत्सर्गः। व्य० द्वि० १० अ । निसर्गः स्वभावः । आव. धरपर्वतविशेषः । प्रश्न० ९६ । ठाणा० ३२६ । निषधः।। ५२८, ६०४, ५३८ । प्रज्ञा० ५८ । प्रश्न. ७३ । निसग्गरुइ-स्वभावत एव तत्त्वश्रद्धानम् । भग० ६२६ । निषीधिका-आसनम् । उत्त० ७२ । निसग्गरुई-निसर्गः स्वभावः तेन रुचिः जिनप्रणीत तत्त्वानिषेक:-चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादितया भिलाषरूपा यस्य स निसर्गरुचिः । प्रज्ञा० ५६ । निषेकः । ठाणा० १०१ । कम्मंपुद्गलानां प्रतिसमयानु- निसर्ग:-स्वभावस्तेन रुचि:-तत्त्वाभिलाषरूपाऽस्येति, निभवनरचनेति । ठाणा० ३७६ ।। सर्गतो वा रुचिरिति निसर्ग रुचिः, यो हि जातिस्मरणनिष्काङक्षः-वस्त्राभिलाषरहितः । उत्त० ५८८ । प्रतिभादिरूपया स्वमत्याऽवगतान् सद्भूतान् जीवादीन निष्काल्यते-प्रमुच्यते । प्रश्न. ६० । पदार्थान् भद्दधाति स निसर्गरुचिः । ठाणा० ५०३ । निष्कूट: । भग० २६ । निसज्जा-निषद्या-पुताभ्यां भूम्यामुपवेशनम् । औप०४०। निष्कुटनं-उपयोगनिरीक्षणम् । ओष० १६७ । निसज्ज-रजोहरणनिषद्या । ओघ० १३२ । निष्ठा-पारम् । आव० २६६ । . निसह-निसृष्टः निसृष्टाङ्गा मुक्ताङ्गा । सम० ११७ । निष्ठितार्थः-अणिमाद्यश्वर्याप्त्या तथाविधमनुष्यकृत्यापे- अत्यन्तम् । आव. २०६ । निसृष्ट-निश्चेष्टम् । दश० क्षया सिद्धार्थः । जीवा० ४७ । १६ । निसृष्टं-अत्यर्थम् । प्रश्न० ५६ । निसृष्टं-प्रचुनिष्ठीवन-खेलः । भग० ८७ । निष्ठघुतम् । आव २५।। रम् । ओघ० ४८ । निष्ठुरं-कठोरम् । आव० ८३४ । निसढ-निषषः-द्रनाम । जं० प्र० ३०५ । निषढः निष्ठयूतं-निष्ठीवनम् । आव० २५ । नंदी. १६७ ।। बलदेवपुत्रः । आव० ९४ । पञ्चमवर्ग प्रथममध्ययनम् । निष्पक:-क्वथितः । जं० प्र० १०५ । निरय० ३६ । निष्पङ्का-निकलङ्कविकलत्वात-कमविशेषरहितत्वात् वा। निसदा-निष्पना । मर० ।। सम० १४० । ! निसण्ण-निषण्णः । आव. ७७४ । निषण्ण:-उपविष्टो Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसनुस्सिओ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [निसीहिया वीरासनादिना। आव०५६४। भग० ५६६ । निसनुस्सिओ-निषण्णोत्सृतः । आव० ७७२ । निसिद्धप्पा-निषिद्धो मूलगुणोत्तरगुणातिचारेभ्य आत्मा निसन्न-निषण्णः । ठाणा० २६९ | निषण्णः । आव० येनेति निषिद्धात्मा । आव २६७ । ७७२ । निसियरा-निशाचरा:-पिशाचादयः । ओघ० १२५ । निसम्म-निशम्य-मनसा अवधार्य। भग ९ । निशम्य निसिया-निशिता: तीक्ष्णाः । उत्त० ३४६ । मनसाऽवधायं । ठाणा० ११९ । निशम्य-निश्रित्य । निसिर-निसृजेद् ब्रूयात् । दश. २३६ । आचा० ३३१ । निशम्य-ज्ञात्वा । आचा० ३५० । निसिरइ-निःसृजति-क्षिपति । भग० ६३ । निसृजतिनिसम्मभासी-निशम्यभाषी । आचा० ३९२ । उत्सृजति । विशे० २०९ ।। निसरड-निसृजति निष्काशयति । जीवा० २४४ । निसिरणे-निसर्गः भाषाद्रव्याणां वाग्योगेनोत्सर्गक्रिया । निसह-निषधः निषधवर्षधरपर्वते द्वितीयं कूटम् । ठाणा० । दश० २०८ । ७२ । ह्रदविशेषः । ठाणा० ३२६ । निषधः-वर्षधर-निसिरे-न्यत्सति । आव० ६१८ । पर्वतविशेषः । ठाणा० ६८। निषधः-बलीवईः । सूर्य/ निसिरेजा-व्युत्सृजेत् । ओघ० १९७ । निसियंत-निषीदनं उपवेशनम् । दश० १५५ । निसंहदहे-ह्रदविशेषः । ठाणा० ३२६ । निसीयण-निषोदनं-उपवेशनम् । ओघ० २१४ । निषीनिसाकप्पे-कायिकामात्रके मोकं गृहीत्वा तेनाचमनं कर्त- दनम् । आव० ६५४ । व्यम्, अभिगतस्य गीतार्थस्याचीर्णमेतत्, एष च निशाकल्प | निसीलो-निःशीलः गृहस्थः । सूत्र. ६ । उच्यते । बृ० नृ० २०३ अ । निसीह-निशीथवश्विशीयम् । नंदी. २०६ । निशीथं-यदु निसापाहाणे-मुदादिदलनशिला । उपा० २१ । रहसि पव्यते व्याख्यायते वा। उत्त० २०४ । प्रच्छन्ननिसामिति-अवधारयन्ति । आचा० ४२४ । निषीथं बबश्रुतं, गुप्तार्थ वा, रहस्य पाठात् रहस्योपदेनिसामेह-निसामयत शणत । आव २२६ । शाञ्च निषीथम् । आव० ४६४ । निसाय-निषाद:-पारासरः, शूद्राब्राह्मणाम्यां जातः ।। निसीहज्झयणं-आचाराने पंचविंशतितममध्ययनम् । आचा० ८। सम० ४४ । निसाविहंगा-उलूकाः । बृ० द्वि० १६७ आ। निसीहऽभिहडे-निशीथाम्याहृतं-अविदितदायकभावं यत् । नसालोढे-शिलापुत्रकः । उपा० २१ ।। पिण्ड० १०३ । निसिञ्ज-स्वाध्यायादिभूमिः । दश० २८१ । निसीहिता-निषेधेन निवृत्ता नैषधिकी-व्यापारान्तरनिषेधनिसिखहरो-निषद्याधरः । आव० ७४५ । रूपा । ठाणा० ४६९ । निसिद्धा-स्त्रिया सहासनम् । सम०३६ । निषद्या-स्वाध्याय- निसोहिय-नषेधिक-कायोत्सर्ग स्वाध्यायभूमिर्वा । सम. भूम्यादिका यत्र निष्पद्यते । उत्त० ४३४ । निषद्या- ३६ । स्वाध्यायस्थानम् । ठाणा० ३१४ । निषिध्यन्तेरजोहरणवेष्टनकं सोत्रिकमौणिकं वा । बृ० द्वि०२५३ निराक्रियन्ते अस्यां कर्माणीति नैषेधिकी-निर्वाणभूमिः। अ । निषद्या । आव० ३२३ । उत्त० ३२१ । सकलकर्मनिराकरणलक्षणे भवा. मुक्तिनिसिजाओ-निषदनानि निषद्याः-उपवेशनप्रकारास्तत्रा- गतिः, प्रतिमा । उत्त० ३२१ । निषीधिका-स्वाध्याय. सनालग्नप्लुतः पादाभ्यामवस्थितः । ठाणा० ३०२ । भूमिः । आचा० ३६१ । निसिटु-निसृष्टः-अनुज्ञातः आक्रान्तिकस्तेनो वा । बृ० द्वि०निसीहिया-निषेधः-स्वाध्यायव्यतिरेकेण सकलव्यापार १६७ अ । निसटः अनुज्ञातः । व्यः प्र०२३४ अ। प्रतिषेधः तेन निवृत्ता नषेधिकी । व्य. प्र. १२७ । निसिटाई-जीवेन निःसष्टानि स्वप्रदेशेभ्यस्त्याजितानि ।। निषेधेन-स्वाध्यायव्यतिरिक्तशेषव्यापारप्रतिषेधेन निवृत्ता (६०७) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसीहियाए ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [निस्साणपदं नषेधिकी । व्य० प्र० १२७ आ। जत्थ सज्झायं करेति, | भग० २८० । सेज्जाए वा निसीहिएति । दश० चू० ८५ । नैषेधिको- निसेद्धा-रयहरणस्योपरितनाः ओघ० १११ । जंमि निवसतिप्रवेशे निषिद्धोऽहं गमनक्रियाया इति भणनम् । सण्णो अच्छइ । दश० चू० ५१ । । बृ० प्र० २२२ अ। नैषेधिकी। आव० ६७२ । निषी- निसेह-निषेधः । आव २६६ । दन्त्यस्यामिति निषद्या स्थानम् । आव० ६५७ । बावी. | निःसोत्र । आचा० ३१३ । सपरीषहे दशमपरीषहः । आव० ६५७ । नैषेधिकी-निस्तूंश:-नृशंसः । उत्त० ६५६ ।। प्राणातिपातादिनिवृता । आव० ५४७ । नैषेधिकी- | निस्तार: । नंदी० १६३ । निषीदनस्थानं, द्वारकुड्यसमीपे नितम्बः । जीवा० ३६०। निस्संकिय-निःशंकितः देशसर्वशङ्कारहितः । दश० १०१॥ स्वाध्यायभूमिः । ज्ञाता० २०६ । निषेधे भवा नैषेधिकी- निर्गतं शङ्कित यस्मादसो निःशङ्कितः देशसर्वशङ्काउपाश्रयाद्वहिः कर्तव्यव्यापारेष्ववसितेषु पूनस्तत्रैव प्रवि. रहितः । प्रज्ञा० ५६ । शतः साधोः शेषसाधूनामुत्त्रासादिदोषपरिजिहोर्षया | निस्संगो-निःसङ्गः-विषयजस्नेहसङ्गरहितः । आव० ५९२। बहियापारनिषेधेनोपाश्रयप्रवेशसूचनादिति । अनु०१०३। निस्संचरो-निस्सञ्चार:-मनुष्यसञ्चारवजितः । आव० स्वाध्यायभूमिः शून्यागारादिरूपा । भग ३६० । मामा- । ६४१ । दिषु प्रतिपन्नमासकल्पादेः स्वाध्यायादिनिमित्तं शय्यातो! निस्संतिया-तं अहियणयं दवं अण्णत्थ निस्संदिऊण विविक्ततरोपाश्रये गत्वा निषीदनम् । भग० ३६१ ।। तेण ताय णेऊ देइ । दश० चू० ८० । निषधेन निर्वृत्ता नैषेधिकी दशंधा सामाचार्या पञ्चमी । निस्संधिणा-निस्संधिः । मर० ।। भाव. २५६ । निषीधिका । ओघ० १७४ ।नषेधिकी निस्संधी-निःसन्धिः निर्विवरः । प्रश्न. १६ । स्वाध्यायभूमिः । दश० १८२ । नैषेधिको निषेधनं निषेधः | निस्संस-नृशंसं शूकावजितम् । प्रभ० २७ । निःशंसं वा पापकर्मणां गमनादिक्रियायाश्च स प्रयोजनमस्या:नषेधिकी- श्लाघारहितम् ।। स्मशानादिका स्वाध्यायादिभूमिः निषद्या वा । उत्त | निस्स-दरिहो । नि० चू० प्र० १४१ अ । ८३ । दशधासामाचार्या पञ्चमी । भग० ६२० । निस्सकयं-निभाकृतं गच्छप्रतिबद्धम् । बृ० प्र० २७६ निसोहियाए-नषेधिकी-निषोदनस्थानम् । राज० ६४ । था। निशोथिका-द्वितोयमध्ययनम् । आचा० ४०७ । निस्सग्गरई-निसर्गः स्वभावस्तेन रुचिः तत्वाभिलापर निसोहियापरीसहे-सोपवेतरा च स्वाध्यायभूमिः, द्वावि. पाऽस्येति निसर्गरुचिः । उत्त० ५६३ । शतिपरीषहे दशमः । सम० ४० । निस्सन्नगनिसन्नओ-निषण्णनिषण्णः । आव० ७७२ । निसीहियारए-निषोधिकारताः स्वाध्यायध्यायिनः । प्राचा० निस्सयरा-स्वं-कर्मानादिसम्बन्धात्तदपनयनसमर्थानि निःस्व. ३६६ । कराणि । आचा० ४३० । निसुंभंति-भूमौ पातयन्ति । आव० ६५० । कुकाटिकायां निस्सल्लो-निःशल्यः शल्यरहितः । आव० ७६३ । गृहीत्वा भूमो पातयन्ति । सूत्र० १२५ । निस्सहः-स्थर्यः । नंदी० १६१ । निसुंभ-निशुम्भः-पुरुषसिंहवासुदेवशत्रुः । आव० १५६ । निस्सा-निश्रा रागः । व्य० प्र० ७ अ । पक्षपातः । निसुंभा-वैरोचनेन्द्रस्य द्वितीयाऽअमहिषी । भग०५०३ । व्य० प्र० २५३ । निश्रा पालम्बनम् । आव० ५३६ । ज्ञाता० २५१ । निश्रा-आलम्बनं , उपग्रहहेतुः । ठाणा. ३३६ । निसेए-निषेक:-स्वस्यावाधाकालस्योपरिज्ञानावरणीयादि-निस्साए-निभाय-निभां कृत्वा । भग० ३०६, ६६३ । कर्मपुद्गलानां वेदनार्थमुपचयः । प्रशा० २९२ । निस्साणपदं-निभायते-मंदभताकैरासेव्यत इति निधाण निसेक-निषेक:-कर्मपुद्गलानां प्रतिसमयमनुभवनार्य रचना। तच्च पदं च निभाणपदं-अपवादपदम् । २० प्र०. १२८५। (६८) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निस्साधारण ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [निहारिम अ । निश्चितकल्याणम् । जोवा० २४२ । निस्साधारण-एकाचार्यप्रतिबद्धं क्षेत्रम् । बृ० द्वि० निस्सेस-निःशेष:-सर्वः । भग० १६६ । २८० अ। निह-स पुनः कषायः कर्मभिः परोषहोपसर्ग निहन्यत निस्सारा-निःसारा-प्रधानगर्भरहिता । ओघ० २१८ । | इति निहः । आचा० १२५ । न्यगधस्तात् । सूत्र० निस्सावयण-निश्रया वचनं निश्रावचनम्, कमपि सुशिष्य- १२८ । निहन्यन्ते प्राणिनः कर्मवशगां यस्मिनु तनिहंमालम्ध्य यदन्यप्रबोधार्थ वचनं तन्निभावचनं, लद्यत्र विधेय- आघातस्थानम् । सूत्र० १३८ । तयोरुयते तदाहरणं निश्रावचनम् । ठाणा० २५५ । एकं | निहए-निहत:-कृतसमृद्धयपहारः । ओप० १२ । कञ्चननिश्राभूतं कृत्वा या विचित्रोक्तिरसौ निश्रावच- निहटु-निहत्य-स्थापयित्वा । ज्ञाता० २१० । नम् । दश० ४६ । निहणंति-निघ्नन्ति । आव० १२३ । निस्सास-निश्वास:-निर्गमः । भग० ४७० । नि:श्वास:- निहणिसु-निहतवन्त:-क्षिप्तवन्तः । आचा० ३१२ । मुखादिना वायुनिर्गमः । भग० ४७० । निःश्वास:-सङ्ख्ये- | हत्त-निधत्तं-उद्वर्तनापवर्तनकरणवर्जशेषकरणायोग्यत्वेन याऽऽवलिका । जीवा० ३४४ ।। व्यवस्थापितम् । भग० ६० । निधत्तं-निषिक्तम् । निस्सासवायवोभं- आचा० ४२३ । ठाणा० ३७६। प्रज्ञा० २१७ । भग० २८० । निधत्तंनिस्सासविसो-नि:श्वासविष:-उर:परिसर्पविशेषः । जीवा. अपीह निषेक उच्यते । सम० १४७ । निहय-निक्षिप्तम् । आव०७४३। निहतं निधत्तं निश्चितं निस्सिघियं-नि:सिङ्गनं नि:सिङ्गितम् । विशे० २७४ । प्रमाणम् । ठाणा० ४३५ । निकाचितं भूय उत्थानाभावेन निस्सिचमाणे-नि:सिञ्चिन्-दत्तोद्वरितं प्रक्षिपन् । आचा. मन्दीकृतम् । जं० प्र० ३८६ । निहतं-क्षणमात्रमुत्थाना• भावः । जीवा० २४५। निहता मारणात् । ठाणा०४६३ । निस्सिचिया-निषिच्य तद्भाजनाद्रहितं द्रव्यमन्यत्र भाजने याणि-निर्गतानि आकारमात्रगानि । उप० मा० तेन दद्यात, उद्वर्तन भयेन आदरहितमुदकेन निषिच्य । दश० ३२६ । १७५ । निहरणकारिणः-स्कन्ददायिनः । बृ० प्र० १७१ अ । निस्सिए-निश्रितं - सारङ्गादिधर्मविशिष्टमवगृहाति । निहरिऊण-विज्ञाय । उप० मा० ४७३ । ठाण. ३६४ । निहस-निकष:-हेमरजतकल्पजीवादिपदार्थस्वरूपपरिज्ञाननिस्सित-निश्रितं-रागः आहारादिलिप्सा । ठाणा० ४४१।। हेतुत्वात् कषपट्टकः । अनु० १०५ । निकष:-वर्णतः निस्सिय-निसृतः-निर्गतः । अनु० १२६ । सदृशः । रेखा । भग० १२ । प्रश्न०७०। निकष:-कष. निस्सील-निःशील:-सामान्येन शुभस्वभाववजितपौरुष्यादि। पट्टके रेखालक्षणः । भग० १२ । निघर्ष:-कषपट्टके ठाणा० १३२ । अपगतशुभस्वभावः । ज्ञाता० २३८ । रेखा । प्रश्न० ६५ । निस्सीला-निस्शीला: महाव्रताणुव्रतविकलाः । भग निहाण-निधानं-परिग्रहस्य पञ्चमं नाम । प्रश्न० १२ । . ३०६ । समाधानरहिताः। भग० ५८२ । निःशीला-निर्गत. निधानं-भूमिगतसहस्रादिसङ्ख्यद्रव्यस्य सञ्चयः । भग. • शुभस्वभावाः. दुःशीला इत्यर्थः । ठाणा० १२६ । २०० । निस्सेअस-मोक्षः । नंदी० १६५ । निहाय-निधाय-त्यक्त्वा । आच० ३११ । क्षिप्वा-त्यक्त्वा निस्सेणि-निश्रेणिः । आचा० ३४४ । निःश्रेणि:-अवतरणी। आच० २७४ । निधाय-परित्यज्य । सूत्र० ४००। प्रश्न० ८ । | निहार-निर्गतः-प्रमाणम् । ठाणा० ४३५ । निस्सेयस-निःश्रेयसः-मोक्षः । भग० ११५ । उत्त निहारिम-दूरदेशगामिनी । जं० प्र० ३० । अन्यत्र नयनं २६१ । निःश्रेयसः-मोक्षः । भग० १६६ । निःश्रेयसः । तेन निर्दारिमः । बृ० तृ० ३० आ । (अल्प०७७) (६०९) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निहिय ] निहिय - निहितं न्यस्तम् । उत्त० ३४८ | निहितं -स्थापितम् । आव ० ६४७ । निहिसरिनाम - निधिभिः सदृक् सदृक्षं नाम येषाम् । ठाणा० ४५० । निही - निधि लक्षादिप्रमाणद्रव्यस्थापनम् । भग० २०० । निहु - वनस्पतिजीवविशेषः । आचा० ५७ । निहुअ - निभृतं अन्तःकरणाशुभ व्यापारचिन्तनपरित्यागात् । आव ० १५४ । निभृतः - स्थिरः । उत्त० ४७७, ४६५ ॥ निहुअप्पा - निभृतात्मा - असंभ्रान्तः रचिताञ्जलिः | | ( ? ) १६१ । I निहुआ - निभृता-निर्व्यापारा: । बृ० तृ० ५७ अ । निय - निभृतं - स्तिमितम् । प्रश्न० १३६ । निहुया - स्निह: स्निपुष्पं थोहरपुष्पं अनन्तकायिकम् । प्रज्ञा० २७। निभृता-निर्व्यापारा बृ० प्र० ६१ बा । निहुवर्णाद्विया-निधुवनस्थिता | आव० ४२१ । निहूय - णिव्वावारं । उप० मा० ७९ । (देशी) अकिञ्चित्करार्थे । विशे० १०४३ । (देशी) अकिञ्चनकरायें । आव० ३२५ । भय० निहे गोपयेत् । आचा० १८० । निलयं - निहितं न्यस्तं च । उत्त० १३० । निहोडणं-निहेठितम् । व्य० प्र० २२३ आ । निहोडणा-निवारणम् । व्य० प्र० २५३ आ । निहोडिहिति - शिक्षयिष्यन्ति । नृ० प्र० ११९ अ । निहोडेइ - निठयति- वारयति । वृ० प्र० ६१ अ । नीअ-नीचं सम्यगवनतोत्तमाङ्गः । लघुतरम् । दश० २५० । नीचं - नम्रकायः । दश० २५० । निओ-नीचां गतिम् । दश० २५० । नीइ-नीति:- हक्कारादिलक्षणा सामाद्युपायलक्षण वा । आव० १२६ । नीतिः नयनं परिच्छेद इत्यर्थः । दश० १६ । नोइको विए-नीतिकोविदः - न्यायाभिज्ञः । उत्त० ४५३ । नोई - नीतिः - अपक्रमादिलक्षणा । उत्त० १४४ । मोगालो -क्षरणम् । नि० चू० द्वि० ३१ आ । नोणित- निष्काशयन्ति । आव० २१७ | नीयावित्तो-नोचं - अनुद्धतं यथा भवत्येवं नीचेषु वा शय्यादिषु वर्त्तत इत्येवं शीलो नीचवर्ती, गुरुषु न्यग्वृत्तिमान् । उत्त० ३४६ । नीचैर्वृत्तिः कायमनोवाग्भिरनुत्सिक: । उत० ६५६ । नोरए-नोश्जं निर्गत रजः कल्पसूक्ष्मतरवालाग्रः । २७७ । निर्गत रज:- कल्पसूक्ष्मवालाग्रोऽपकृष्टधान्यरजः कोष्ठागारवत् । अनु० १८० । स च तद्भूमिगत रजसामध्यभावे नीरजाः । भग० ६७६ । निरजा:-बध्यमानकर्माभावात् । प्रज्ञा० ६१० । नोरओ-नीरजा :- सकलकर्म रजोविनिर्मुक्तः । दश० १५१ । नीरय-नीरुजा निर्मलः । व्य० प्र० २१० अ । नीरज: स्वाभाविक रजो रहितत्वात् । प्रज्ञा० ८७ । नोरजा:बध्यमान कर्मरहितः नोरयो निर्गतोत्सुक्यः । मप० ११४ । नोरजांसि आगन्तुक रजोविरहात् । सम० १४० । नीरजस्क:- अष्टविधकर्म विप्रमुक्तः । दश० ११६ । नोणियं - आनीतम् । आव० २७२, ७०१ । चतुरिन्द्रि- नीरया-नोरजसः रजोरहितस्वात् । ठाणा० २३२ । जन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । नोरसं विगतरसम् । प्रश्न० १६३ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ नोरसं नोणिया - चतुरिन्द्रियजीवविशेषः । जीवा० ३२ । नीणेइ - निष्काशयति । औप० ६४ । नीतिः - बलं प्रमाणं च । बव० ४६३ । नीतिपर्थ नीतिमार्गः । नंदी० १६४ । नीतिशास्त्र - धर्माधिकरणिकम् । व्य० प्र० २०१ प्र । नीती - नीतिः सामादिका । प्रश्न० ७६ नीमं - नीमफलम् । दश० १८५ । नोय-नीचं अनुद्धतम् । उत्त० ३४६ । नीचं अनत्यर्थम् । भग० १६४ । अपूज्यम् । भग० १६४ । नीयजुद्धं - नीचयुद्धम् । आव० ६८ । नीर्यापड - नियत पिण्डः - मयैतावद्दातव्यं भवता तु नित्यमेत्र ग्राह्यमित्येवं नियततया यो गृह्यते स । ठाणा० ५१५ । नीयल्लागा - निजका - आत्मायाः स्वजनाः । बृ० तृ० २४३ अ । नयागोए - यदुदयवशात् पुनर्ज्ञानादिसम्पन्नोऽपि निन्दां लभते हीनजात्यादिसम्भवं च तत् नीचैर्गोत्रम् । प्रज्ञा० ४७५ । नीयावासविहारो - नित्यवासेन विहारः नित्यावासकल्पः । आव० ५३५ । ( ६१० ) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीराजितो ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ [नीहरितए नीराजितो - निविटितः लब्धजयः पारप्राप्तो वा । वृ० तृ० नीलीया - आद्राः वनस्पतयः । आचा० ३६१ । ८४ आ । निर्घटितः । व्य० प्र० २०३ अ । नीरुह - साधारणवादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ । नीरोगा - शक्ता: । ओघ० ७१ । नीलुप्पलं - नीलोत्पलं कुवलयम् । प्रज्ञा० ३६० । नोल्या - नीलमया । प्रज्ञा० ६१ । नीवारं - व्रीहि-विशेषकणदानम् । सूत्र० ८७ । आचा० नीरोहो - प्रतीक्षा प्रतीक्षाप्यते । बृ० तृ० १४७ आ । नोविशेत् - परिहारतपः प्रतिपद्येत । व्य० प्र० १८१ आ नील - मरकतमणिः । जीवा० २७४ । औप० ४१ हरितत्वमतिक्रान्त कृष्णत्वमसंप्राप्तं पत्रं नीलम् । जीवा० १०६ । वर्षधरपर्वतविशेषः । ठाणा० ६८ । अष्टाशोतो महाग्रहे पञ्चविंशतितमः । जं० प्र० ५३५ । नीलवर्ष धरपर्वते द्वितीयः कूटः । ठाणा ० ७२ । नीलकंठ - महिषानिकाधिपतिदेव विशेषः । ठाणा० ३०२ | नीलकणवीर-नीलकणवीरः वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३६२ । नीलकेसी - नालकेशी-तरुणी । व्य० द्वि १३ अ । गुडिया-नीलगुटिका - नील्या गुटिका । जीवा० १६४ । २८५ । नोव्रं उपरि । ओघ० १६२ | प्रज्ञा० ९१ । नीलगुहा - मुनिसुव्रतस्वामिनो दीक्षास्थानम् । १३७ । नोलपटा। सूत्र० २८० । नीलपत्ता - चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । नीलबंधुजीव-नीलबंधुजीवः वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३६० । नीसा - पेषणी । दश० १७२ । नीलवंत - नीलवान् पर्वतविशेषः । श्राव० ६८५ । नीलवंत दह - ह्रदविशेषः । ठाणा० ३२६ । नीलवन्तः - वर्षधर पर्वतविशेषः । ठाणा० ७० । ज्ञाता० आव ० नोव्वोदगं - तीव्रोदकं - गृहपटलान्तोत्तीर्णजलम्, वर्षासु गृहाच्छादनप्रान्तगलितं जलं नीव्रोदकम् । पिण्ड० १५ । नंदी० १६३ । निव्रोदकम् । ओघ० १३२ । नोसंदु- निस्वन्दः । घ० १०० | नीसंदा - पुनाहा: । चउ० । नीस - अत्यर्थं । बृ० तृ० १६६ अ । विनष्टं विश्वस्तं । आव० ७०६ । नीसरणं - निस्सरणं नाम फेलहसणं । व्य० द्वि० आ नोसवओ-निश्रावकः - निर्जरकः । विशे० १०९३ । नीस संति-निःश्वसन्ति बाह्य क्रियां कुर्वन्ति । प्रज्ञा० २१६ ॥ नोस सिऊस सियसमं - निःश्वसितोच्छवसितमानमनतिक्रामतो यद्गेयं तन्निःश्वसितोच्छवसितसमम् । ठाणा० ३६४ ॥ नीस सियं निःश्वसितं - अधः श्वसितम् । आव ० निःश्वसनं निःश्वसितम् । विशे० २७४ । ७७६ । नोसापट्टए - शिलापेरणी । वृ० द्वि० ९० अ । नीसास - सङ्ख्येया आवलिका निश्वासो बहिर्मुख पवनः । जं० प्र० १० । २४२ नीसासविसा - निःश्वासे विषं येषां ते निश्वासविषाः । प्रज्ञा० ४६ । नीलवान् - वर्षधर पर्वतविशेषः । प्रभ० ९६ । नीला - हरितं सस्यम् । ओघ० १५६ । नदीविशेषः । नीसेस - निःश्रेयसः कल्याणकरत्वात् । सम० १२७ । नीसेसा - निःशेषं समग्रम् । भग० १५१ । ठाणा० ४७७ । आचा० ३६१ । नोलाभास- नीलावभासः - अष्टाशीतौ षड्वशतितमोमहा- नीहड | आचा० ३२५ । ग्रहः । जं० प्र० ५३५ । नोहडिया - निहतिका - नीयमानं सागारिकद्रव्यं यद् यत्र नोलासोए-सौगन्धिकायां नगर्या उद्यानम् । विपा० ६५ । नीयते सा । बृ० द्वि० १९८ अ । ज्ञाता० १०४ । नीलाशोक: वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३६० । नोहम्मिए - निर्गते । बृ० प्र० २२१ भ्रा | नीली नीलवर्णपरिणतः । प्रज्ञा० १० | नंदी० १७० ।नीहरइ-निहरति । ओघ० २१७ | गुलिका । ज्ञाता० २२२ । नीहरणं नलगुलिया - नीली गुलिका नीलीगुटिका । जं० प्र० ३३ ॥ । भग० ६८२ । नोहरित्तए-निहत्तु निष्काशयितुम् । भग० २१८ । विपा० ( ६११ ) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोहरिय] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ नेमि ८१ । वशात् ककारलोपतो नैगमः। अन० २२३ । नैकर्मानोहरिय-निष्क्राम्य । नि० चू० प्र० २७१ आ । नैर्महासत्तासामाग्यविशेषविशेषप्रज्ञानमिमीते मिनोति नीहार-पुरीषोत्सर्गः । आव० ५४१ । वा नैकमः निगमेषु वा-अर्थबोधेषु कुशलो भवो वा नीहारि-गिरिकन्दरादिगमनेन नामावहिर्गमनं तद् विद्यते | नैगमः, अथवा नैके गमाः पन्थानो यस्य स नकनमः । यत्र तबिहारि । उत्त० ६०३ । निर्हारि-घोषवान् शब्दो ठाणा० ३९० । निगमः । आव० ८११ । निगम:घण्टादिशब्दवत् पिण्डेन निर्वृतः । ठाणा ४७१ । पदार्थपरिच्छेदः । आव० २८३ । न एक नकं प्रभृतानोहारिम-निर्हारेण निर्वृत्तं यत्तन् नि रिमं निर्धारितं- नीत्यर्थः, कनिमहासत्तासामान्यविशेषादिज्ञाननिश्चितम्। भग० १२० । निहारिमा दूरं विनिर्गच्छन्ती।। मिमीते मिनोति वा वस्तुनि परिच्छिनत्तीति नैगमः । राज. ७ । निर्हारिमः दूरं निर्यायी । प्रभ० १६२।। अनु० २६४ । नेगम:-अनेकप्रकारवस्त्वम्युपगमपरः । नीहारिमा-निर्झरिमा दूरे विनिर्गच्छन्ती । जोवा० १८८। विशे० ६४८ । नेलको-रूपकः । नि० चू० प्र० १३६ नीहारी-निहारिमं प्रामादिनामन्तः । व्य. द्वि०४३० अ। था। बहवस्तुपरिच्छेदः सामान्यविशेषादिप्रकारैर्बहरूपनिहरणं निहार: गिरिकन्दरादिगमनेन ग्रामादेबहिर्गमनम्। वस्त्वभ्युपगमपरः। अनु० १७ । निगमा-वणिजस्तेषां उत्त० ६०३ । स्थानं नैगमम् । प्राचा० ३२६ । नु:-वितर्के। उत्त० २८२। आव० ५०८। उत्त० १९४। नेचइया-निचयेन-संचयेनार्थात् धान्यानां ये व्यवहरन्ति क्षेपे । दश० ८५ । ते नचयिकाः । व्य० द्वि० १२ । नुपूर-भूषणविशेषः । ठाणा० ६३ । नेच्चइल्लो-नत्यिकः । आव० ४२८ । नूम-कर्म माया वा । आचा० २६५ । प्रच्छादनम् | नेच्छइओ-नैश्चयिको-निरुपचरितः । विशे० १६६ । अधर्मद्वारस्य द्वाविंशतितमं नाम । प्रश्न० २६ । नुमं- नेच्छियं-इच्छाया विषयी कृतं नेच्छितम् । जीवा० २७६ । । अवतमसम् । भग० ६२ । नेडवालगो-गृहपालकः । आव० ४०२ । नूमगिह-नूपगृह-भूनीगृहम् । आचा० ३८२ । नेति-नयति गमयति । सूर्य ३३ । प्र० २८ । नमानि-निम्नानि-गादीनि । आचा० ३८२ । नेत्त-नेत्र-मथिदण्डाकर्षणरज्जुः तद्वदीर्घतया तन्नेत्रं शेफ नत्य-विविधाङ्गहारादिस्वरूपः । उत्त० ३८६ ।। उच्यते । उपा० २२ । नृपतिहठप्रवत्तितकृत्य-राजवेष्टिः । उत्त० ५५३ ।। नेत्तपड-नेत्रपटः । प्रशा० ३०६ । मेउणिय-नैपुणिकं नाम वस्तु । विशे०६६७ । नपुणिकम् । | नेपथ्यं-आभरणम् । जं० प्र० ६४ । आव० ३१६ । नेपथ्यकथा-नेपथ्यानां प्रशंसनं द्वेषणं वा स्रोकथायानेउर-नूपुर-पादाभरणम् । प्रश्न० १५६ । आव० २२५।। श्चतुर्थो भेदः । आव० ५८१ । नूपुरं-मजीरम् । पिण्ड० ६८ । नेपालवत्तिणी-नेपालदेशः । आव० ६६७ । नेउरहारिगा-नूपुरं-मजोरं तस्य हारो हरणं श्वशुरकृतं नेपालविसय-नेपाल विषयः । आव० ६६६ । तेन या प्रसिद्धा सा नूपुरहारिका आगमे चान्यत्रनूपुर- नेम-नेमः भूमिभागावं निष्कामनु, प्रदेशः । जीवा० पण्डितेति प्रसिद्धा । नूपुरहारिका-उत्थितचतुश्चरणहस्ति- ३५६ । नेमः-भूमिरूद्ध्वं निष्क्रामन्, प्रदेशः । जीवा. वत् अनाचारप्रवृत्ती साधुस्वानवस्थानम् । पिण्ड ०६८।। १६८ । नि नेमे तं नेम-प्रदर्शनम् । नि० चू० द्वि. नेउरा-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । प्रज्ञा० ६३ प्रा । चिह्नम् । आव० ७६७ । मूलम् । प्रश्न ४३ । द्विन्द्रियजीवविशेषः । जीवा० ३१ । नेगम-प्रभूततरवणिग्वर्गावासः । आचा० २८५ । नेमा-स्तम्भानां मूलपादाः । भग० १४५ । नके गमा वस्तुपरिच्छेदा यस्य अपि तु बहवः स निरुक्त- | नेमि-नेमिः-तद्योगा चक्रमपि चक्रधारा । भग० ६४५ । ( ६१२ ) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमित्तं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ नेमिः-चक्रमण्डलमाला । भग० ३२२ । चक्रमण्डनधारा। २११ । वेषः । जीवा० २०७ । भग० ४८१ । गण्डमाला । ज्ञाता० ५८ । नेवत्थकहा-नेपथ्यकथा-नेपथ्यसंबंधेन स्त्रीणां कथा । नेमित्त-नैमित्तिकः । आव० ३६३ । नैमित्तिकम् । प्रश्न० १३६ । आव० २७८ । नेवाइयं-निपतत्याहदादिपदादिपर्यन्तेष्विति निपातः, निपानेमी-नेमिः-द्वाविंशतितमो जिनः । आव० ५०६ । नेमि- | तादागतं तेन वा निर्वृत्तं स एव वा स्वार्थिकप्रत्ययभूमिका । राज० २८ । . विधानात् नेपातिकम् पदस्य द्वितीयो भेदः । पाव०३७६ । नेम्माणि-मूलपादाः । बृ० तृ० ५३ ब। अन्यपदानामादौ निपातनाद् नैपातिकम्। विशे० ११४८। नेय-णाइणा पहेण नयति तम्हा नेयो। दश० चू० १४५ | नेसज्जिए-निषद्या-पुताभ्यां भूमावुपवेशनम् । भग० ६२४ । फलकादि । आव० ८५। नेयइया-नैतिकका नीतिकारिणः । व्य० प्र० १६९ अ। नेसत्थिया-निसर्जनं निसृष्टं, क्षेपणमित्यर्थः तत्र भवा नेयम्वो-नेतव्य:-अध्येतव्यः । भग० २८३ । । तदेववा नैसृष्टिको निसृजतो यः कर्मबन्धः । ठाणा० नेयाउए-नायकं मोक्षगमकमित्यर्थः । भग० ४७१। ४२। यन्त्रादिना जीवाजीवान् निसृजतः । ठाणा० ३१७ । नेयाउयं-नयनशीलो, नेता-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको नैशस्त्रिकी-विंशतिक्रियामध्ये दशम् । आव० ६१२ । मोक्षमार्गः श्रतचारित्ररूपो वा धर्मः । सत्र. १७१ । नेसाए-निषादः निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् सः स्वरविशेषः । नयनशीलं नैयायिक-मोक्षगमकम । ज्ञाता० ५१ । प्राव० | अनु० १२७ । ७६० । नेह-स्नेहः तैलादिरूपः । जीवा० २६६ । नेयारं-पहु-सामि । आव० ६६१ । नेहलं-स्नेहलं स्निग्धम् । जीवा० २६६ । नेरइए-नैरयिक:-भगवत्याः प्रथमशतके सप्तम उद्देशकः । नेहर-नेहुरः-चिलातदेशवासी म्लेच्छविशेषः । प्रभ० १४ । भग०६। नैगमः-निगमाभिहिताः शब्दा अस्तित्परिज्ञानं च देशनेरइय-निर्गतं अयं-इष्टफलं कर्म यस्मात् स निरयः, तत्र समग्रग्राही । त० १३५ । प्रज्ञा० ५६ । भव: नरयिक:-नारकः । भग० १६ । निरया-नरका- दंगमेषी-इन्द्रस्यंतदभिधानो देवः । जं. प्र. ३९७ । वासास्तेषु भवा नैरयिकाः । प्रज्ञा० ४३ । नैपातिक-निपातेषु पठितत्वात् । खल्विति । अनु० ११३ । नेरइयउद्देसए-जीवाभिगमस्य द्वितीय उद्देशकः । भग० नैपुणिके ।ठाणा० ४१२ । ६०६, ६३८ । नरैयिकानुपूर्वी-अनुपूाः प्रथमो भेदः। प्रज्ञा० ४७३ । नेरइयउद्देसओ-जीवाभिगमस्य द्वितीय उद्देशकः । भग० | नरुक्तं-निश्चितार्थवचनभवम् । अनु० १५१ । नैरुक्तिः-शब्दव्युत्पत्तिः । पिण्ड० १२१ । नेरइया-निर्गतं-अविद्यमानमयं-इष्ट फलं कर्म येभ्यस्ते नषेधिको-निसोहिया-शबपरिष्ठापनभूमिः । बृ० तृ० १४१ निरयास्तेषु भवा नैरयिकाः-क्लिष्टसत्त्वविशेषाः । ठाणा | | आ । २८ । नषेधिकीसप्तकक:-आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे नेरई-नैऋति:-दक्षिणपश्चिममध्यवत्तिदिक् । आव० २१५ । द्वितीयचूडायां द्वितीयमध्ययनम् । ठाणा० ३८७ । ठाणा० १३३ । नैष्ठिकमुनिः-परमसाधुः । प्रश्न० ११४ । नेल-नैलं-नीलोविकारः । भग० १० । नैसगिकं-दर्शनभेदः । आव० ५२७ । नेल्लकः-सुराविशेषः । जीवा० २६५ । नैसदियः-चक्रवत्तिसम्बन्धिनो नवनिधयः । सम० नेवत्थं- नेपथ्यम् । आव० १४५। आचा० ४२३ । नेपथ्यं- ११२ । 'स्त्रीपुरुषाणां वेषः स्वाभाविको विभूषाप्रत्ययश्च । ठाणा | नो-प्रतिषेधे । उत्त० ४०२ । साहचर्ये । प्रज्ञा० ४६६ । (६१३) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोइंदिओवउत्ते आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [न्यक्कारः नो शब्दस्य मिश्रवचनत्वात् । ठाणा० १०३ । इति ३६७ । मन्यमानाः नोशब्दो देशप्रतिषेधे । आचा० २५० । नोसद्दो | नोकर्मभावक्षण:-आलस्यमोहवर्णवादः । आचा० ११०॥ मिस्सभावम्मि-नोशब्दश्चाऽत्र मिश्रवचनः । विशे० ३६।। नोकषायता-कषायसहचारिता । प्रशा० ४६६ । नो इह सर्वनिषेधवचनः । विशे० ३२ । नोशब्दो देशनिषेध नोकसाय-कषायः क्रोधादिभिः सहचरा नोकषायाः । वचनविवक्ष्यतेः । विशे० ३३ । ठाणा० ४६६ । नोइंदिओवउत्ते-यदा तमेवार्थ मिन्द्रियेण दृष्ट्वा विचारय- नोछक्कसमज्जिया-नोषy-षटकाभावः ते चकादयः त्योधसज्ञयापि तदा स नोइन्द्रियोपयुक्तः । प्रज्ञा पञ्चान्तास्तेन नोषटकेन एकाद्यत्पादेन ये सजितास्ते । भग० ७६७ । नोइंदिय-नोइंद्रियं-मनः । ठाणा० ३५६ । प्रज्ञा० ३११। नोजीवा-गृहकोकिलच्छिन्नपुच्छादयः । आव० ३१६ । उत्त. ४०२ । | नोजुगं-नोयुगं-नोशब्दो देशनिषेधवचन: किञ्चिदूनं युगम् । नोइंदियअत्यावग्गहो-नोइन्द्रियेण भावमनसाऽर्थावग्रहो- | सूर्य २०६ । द्रव्येन्दियव्यापारनिरपेक्षघटाद्यर्थस्वरूपपरिभावनाभिमुखः । नोड्डु-गिहं । नि० चू० तृ. ८ (?) । प्रथममेकसामायिको रूपाधूर्वाकारादिविशेषचिन्ताविक-नोतह-अन्यस्तु नो तथैवान्यथापीत्यर्थोः नोतथः । ठाणा. लोऽनिर्देश्यसामान्यमात्रचिन्तात्मको बोधो नोइन्द्रियार्था- २१४ । वग्रहः । प्रज्ञा० ३११ । नोदसणायार-नोदर्शनाचार:-चारित्रादिः । ठाणा०६५। नोइंदियग्गिभू-नोइन्द्रियग्राह्यः नो-न इन्द्रिय:-श्रोत्रादि- | नोपरोत्त-नोअपरीत्त:-सिद्धः । जीवा० ४४६ । भिग्राह्यः-सवेद्यः। नोइन्द्रियेण-मनसा ग्राह्यो वा । उत्त० नोभव-भवव्यतिरिक्तः कर्मसम्पर्कसम्पाद्यनै रयिकत्वादि. ४०२। इन्द्रियग्राह्यः, नो इति प्रतिषेधे, इन्द्रिय:-श्रोत्रा- पर्यायरहितः । प्रज्ञा० ३२८ । दिभिर्ग्राह्यः-संवेद्य । इन्द्रियाग्राह्यः । उत्त० ४०१ । नोमवसिद्धिकानोअभवसिद्धिक-सिद्धः। जीवा० ४४ । नोइंदियत्थ-औदारिकादिस्वार्थपरिच्छेदकत्वलक्षणधर्मद्वयो- नोमालियापुड-गन्धद्रव्यविशेषः । ज्ञाता० २३२ । पेतमिन्द्रियं तस्यौदारिकादित्वधर्मलक्षणदेशनिषेधाद, मनः, नोल्लेऊणं-नोदयितु-उल्लंघयितुम् । बृद्वि. २०६, २७६ । सादृश्यार्थत्वाद्वा नोशब्दस्यार्थ परिच्छेदकत्वेनेन्द्रियाणां | नोशब्दा-देशवचनः । व्य० प्र०४ आ । सर्वनिषेध एव । सदृश मिति तत्सहचरमिति वा नोइन्द्रियं-मनस्तस्यार्थी- । ठाणा० १०३ । साहचर्यार्थः । ठाणा० ४६६ । विषयो-जीवादि: नोइन्द्रियार्थ इति । ठाणा० ३५६ । नोसज्झोपरक्त:-आहाराद्युपभोगेऽपि तत्रानभिषक्तः। भग. नोइन्द्रियवुष्प्रणिहितकायिकी-नोइन्द्रियेण- मनसा दुष्प्र- ६०५। णिहितस्याशुभसङ्कल्पद्वारेण दुर्व्यवस्थितस्य, क्रिया, नोसहो-नोशब्दो मिश्रभावे मिश्रवचनोऽपि । विशे० ४२१ । दुष्प्रणिहितकायिकीक्रियाया द्वितीयो भेदः । आव०६११।। नोसन्ना-नोसंज्ञा । भग ६०५ । नोइन्द्रियसंयम-कषायादीनां निग्रहः । विशे० ५०२।नोसन्नोवउत्ता-नोसज्झोपयुक्ता आहारादिषु गृद्धिजिताः । नोउवसंतं-नोपशान्तं-अनिष्टादिव्याख्यातमेवैकार्थं वा । भग० ६३० । पुलाक निर्ग्रन्थस्नातका नोसञोपयुक्ताः । भग० ६० । भग ६०५ । नो एवं भवइ-नैतद्भवति-नंतस्कल्पते । आचा० २४४। नोसुयंगं-नोश्रुताङ्ग-अश्रुताङ्गम् । उत्त० १४४ । नो कम्म-वेदितरसं कर्म नो कर्म । भग० ३०२ । नोहव्वाए नोपाराए-यो हि मध्ये महानदीपूरं निमग्नो नोकर्म द्रव्यकर्म-लेप्यकर्मादिकम् । उत्त० ६४० । । भवस्यसो नारातीय तीराय नापि पारे महानदी पूरम् । नोकर्मद्रव्यकषाय:-विभोतकादयः । आचा० ११ । । आचा० ११३ । नोकर्मद्रव्यलोभ:-आकारमूक्तिः, चिकुणिका । आव. न्यक्कार:-तिरस्कारः । उत्त०३७६ । (६१४ ) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यक्कृत ] अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ न्यक्कृत - धिक्कृतः । आचा० १८२ । न्यक्षं - विस्तार: प्रत्यक्षं च । उत्त० ६६ । आव० ८४२ । निष्कृष्टम् । आव० २५६ । न्य प्रोधः - वटवृक्षः । भग० ६५० । व्यग्रोधपरिमण्डलं न्यग्रोधवत् परिमण्डलं यस्य तत्, यथा न्यग्रोध उपरि सम्पूर्ण प्रमाणोऽधस्तु हीनः तथा यस्संस्थानं नाभेरुपरि सम्पूर्ण प्रमाणं मधस्तु न तथा तन्न्यग्रोधपरिमण्डलम् । प्रज्ञा० ४१२ । न्यग्रोधसंस्थानं - नामित उपरि सर्वावयवाश्चतुरस्रा - लक्ष्णाऽविसंवादिनोऽधस्तु तदनुरूपं यन भवति तत् । सम० १५० । न्यायोद्ग्रहण - शब्दान्तरापेक्षया विशेषः । ठाणा० ४९४ । न्यासः - निक्षेपः, स्थापना | ठाण० ४ । [ पंचरूविता पंकावई - पङ्कावतीनाम महाविदेहे कुण्डः । जं० प्र० ३४६ । पङ्कोऽतिशयेनास्त्यस्यामिति पङ्कावती । महाविदेहे नदी । जं० प्र० ३४६ । पंकावती पंकिता - जलमल्लेन ग्रस्ता । नि० ० प्र० १०८ मा । पंकिय- आर्द्र मलोपेतम् । भग० २५४ | पंखाल- पक्षवती: । बृ० प्र० १८ आ । पंगु - गन्तुमसमर्थः, पदे जङ्घाहीनः पङ्गुः । नि० चू० द्वि० ४३ आ । । ठाणा० ५० पंगुल - पङ्गुलः - गमनासमर्थजङ्घः । प्रश्न० २५ । पङ्गुलःचङ्क्रमणासमर्थः । प्रश्न० १६१ । पंचंगुलि - पञ्चाङ्गुली । जीवा० २२७ । वल्लीविशेषः । प्रशा० ३२ । पंच- पण्णगं । नि० चू० प्र० ४४ अ । पंचकुल। सूर्य० २८२ । पंचजणं - पाचजन्याभिधानं सङ्खम् । ज्ञाता० २१८ । पंचट्ठी-पश्चाष्टा-पञ्चमुष्टिः । अन्त० ४९२ । पंचतव - पञ्चतवः - पश्चाग्नितपः यत्र चतुश्रुष्वपि दिक्षु चत्वारोऽग्नयः पञ्चमश्च तपनस्तल्लोके प्रसिद्धम् । उत्त० प ५६८ । पंक - महान कर्द्दमः पङ्कः । प्रभ० ६५ । पङ्कः । ओप० ८६ । पङ्कः-स्वेदार्द्र मलरूपः । व्य०व० १२२ ( ? ) । पङ्कःकलरूपः । पिण्ड० १०२ । पङ्कः - कर्दमः । ठाणा० ३२८ । षङ्कः-पापम् । पङ्कं-पङ्कयतीति पापम् । सूत्र० ३३१ । पङ्कः - मलः एव स्वेदेनार्द्रीभूतमलः । भग० ३७ । पड़ः-कर्दमः । भग० ३०७ | जं० प्र० १६९ । प्रस्वेद पंचनियम - पञ्चनियमास्तु - शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणि उल्लि । नि० चू० प्र० ११० अ । पंकगति-पङ्के - उदके वाऽतिदुस्तरं यदात्मीयं केनापि सहोद्वय तद्बलेन गच्छति सा पङ्कगति, विहायोगतेः षोडशमोभेदः । प्रज्ञा० ३२७ । धानानि । ज्ञाता १०५ । पंकजल-पङ्कजलं - पङ्कप्रधानं जलं यत् कमलमुच्यते । उत्त० पंचपुल - पञ्चपुलः । विपा० ८१ । पंचमंगल-पञ्चमंगलं - नमस्कारम् । आव ० ४५४ । पंचमंगलयं - पञ्चमङ्गलकं - नमस्कारम् । ओघ० २०३ ॥ पंचम - पञ्चानां षड्जादिपञ्चस्वराणां निर्देशक्रममाश्रित्य पूरणः पञ्चमः स्वरविशेषः । पञ्चसु - नाम्यादिस्थानेषु मातीति वा पञ्चमः स्वरः । अनु० १२७ । पंचमासिआ - पञ्चमी भक्षुप्रतिमा । सम० २१ । पंचमासिए - ३६१ । पंकष्पभा - पङ्कत्रभा - चतुर्थं नारक पृथ्वी । प्रज्ञा० ४३ । पङ्कस्य प्रभा यस्यां सा । पङ्काभद्रव्योपलक्षिता वा । अनु० ८६ । पंकबहुल- पङ्कबहुलं - कर्दम बहुलो विशेषो भूभागः । रत्न- पंचमी - पश्चिमभिक्षुप्रतिमा । ज्ञाता० ७२ । प्रमायाः द्वितीयकाण्ड: । जीवा० ८६ । पंकभीस। नि चू० द्वि ७६ अ । पंकाययणाभि - पङ्कायतनां-पत्र पङ्कीलदेशे लोका धर्मार्थं लोटनादिक्रियां कुर्वन्ति । आचा० ४११ । पंचमुट्ठियंपंचरूविता - पञ्चानां रूपाणां । ज्ञाता ६० । गर्जितविद्युजलवाताम्रलक्षणानां समाहारः पञ्चरूपं तदस्ति येषां ते पञ्चरूपिका उदकगर्भाः । ठाणा० २८७ । ( ६१५ ) | आचा० ३२७ / Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचलइअं ] पंचलइअं - पञ्चलतिकाः कत्तलिकारूपा अवयवाः । जं० प्र० २२३ । पंचवण्णा - चतुर्दशतीर्थ कृतशिबिका । सम० १५१ । पंचसेल - द्विपविशेषः । नि० चू० प्र० ३४५ अ । नि० चू० द्वि० ४२ श्रा । कुमारनंदीगमनस्थानम् । बृ० तृ० १०८ आ । पञ्चशैलक: द्वीपविशेषः । आव० २६६ । पंचसोगंधिय- पञ्चभि:- एलाल वङ्गकर्पूरकक्कोलजातो फललक्षः सुगन्धिभिर्दव्यैरभिसंस्कृतं पञ्चसौगन्धिकः । उपा० आचार्य श्री आनन्दसागर सूरिसङ्कलितः ५ । पंचहत्युत्तर - भ्रमणस्य भगवतो महावीरस्य जन्मादिकल्याण सूचकं नक्षत्रम् | आचा० ४२० । पंचाल - दुर्मेखवास्तव्यो देशः पञ्चालः, द्रव्यव्युत्सर्गे देशः । आव० ७१६ । पञ्चालः - देशविशेषः । आव० २१६ । पञ्चमण्डल:- पञ्चाल देशः । उत्त० ३६० । कम्पिलपुरनगरस्य जनपदः । ज्ञाता० २०७ । जितशत्रुजनपदः । ज्ञाता० १४४ । पञ्चाल जनपद निवासिनः । नंदी० १०४ । आर्यदेशेषु नवमः पाञ्चालः जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । पश्चालः । आव ० २१६ । पंचाल राया- पाञ्चालराज: । आव० ७१६ । पंचासवपरिण्णाया- 'पञ्चाभवा' - हिंसादयः परिज्ञाताद्विविधया परिज्ञया - ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिसमन्तात् ज्ञाता यैस्ते पञ्चाश्रवपरिज्ञाताः, आहिताग्न्या देराकृतिगणश्वान् निष्ठायाः पूर्वनिपात इति समासो युक्त एव परिज्ञात पञ्चाश्रवा इति वा । दश० ११५ । पंजर - पञ्जरं- वंशादिमयाच्छादनम् । राज० ६६ । पञ्जरंवंशादिमयप्रच्छादन विशेषः । प्रश्न० ६६ । पञ्जरः-पञ्जरा कारः । जं० प्र० २४२ । पञ्जरः- वंशादिमय प्रच्छादनविशेषः । सम० १३६ । पञ्जरः - बन्धनविशेषः । उत्त० ४६० । पञ्जरः- वंशादिमय प्रच्छादन विशेषः । सूर्य० २६४ | आचार्यादिपारतन्त्र्यं परस्परं प्रति नोदना च । बृ० तृ० ८ अ । आयरिओ उवज्झातो पवत्ति थेरो गणावच्छेतितो एतेहि पंचहि परिग्गहितो गच्छो पंजरो भणति । नि० चू० तृ० १५ अ । | पंजरदोव अभ्रपटलादिपिञ्जरयुक्तात् । भग० ५४८ । पंजरभग्ग - सुट्टुजम्मेण पडिचोदेति सुहं अच्छामि सो ( नि० चू० तृ० ६४ अ । पंजलिउडे - प्रकृष्टः - प्रधानो ललाटतटघटितत्वेन अञ्जलि:-- हस्तन्यासविशेषः कृतो येन स प्राञ्जलिकृतः । राज० ४४ । प्रकृष्टं भावान्विततयाऽञ्जलिपुटमस्येति प्राञ्जलिपुटः । उत्त० ५६ । प्रकर्षेण - अन्तः प्रीत्यात्मकेन कृतो विहितोऽञ्जलिः - उभय करमीलनात्मकोऽनेनेति प्रकृताञ्जलिः । प्रकृष्टं वा भावान्विततयाऽञ्जलिपुटमस्येति प्राञ्जलिपुटः । उत्त० ६३ । आव २६६ । पंजलीगड - प्रकर्षेण-अन्तप्रीत्यात्मकेन कृतो-विहितोऽञ्जलि:- उभयकरमीलनात्मकोऽनेनेति प्रकृताञ्जलिः । उत्त० ५६ । पंजलियड - प्रकृष्टः - प्रधानो ललाटतटघटितत्वेन अञ्जलि:हस्तन्यासविशेषः कृतो विहितो येन सः प्राञ्जलिकृतः । सूर्य ०६ । पंजली - प्रकृताञ्जलिः - प्रकृष्टतोषवती । ज्ञाता० १६६ । पंड - जनपद विशेष: } भग० ६८८ । पंडए - पण्डकं - नपुंसकम् । ठाणा० १६४ । पंड - पण्डकः - नपुंसकम् । ठाणा० ४४५ । पण्डते - गच्छति जिनजन्माभिषेकस्थानत्वेन सर्ववनेष्वतिशायितामिति पण्डकम् । जं० प्र० ३६३ । पण्डकः - नपुंसकः । दश० २१५ । पंडगवण - पाण्डकवनम् । आव ० १२४ । वनविशेषः । ठाणा० ८० । पण्डकवनं, पण्डते गच्छति जिनजन्माभिषेक स्थानत्वेन सर्ववनेष्वतिशायितामिति णक् प्रत्यय - पण्डक वनम् मेरोर्वनम् । जं० प्र० ३५६ । पंडरंग- पाण्डुरङ्गः मतविशेषः । आव० ८५६ नि० चू० प्र० १४८ अ । वंडरकडुं पाण्डुरकड्य - धवलगृहम् । आव० ६७१ । |पंडर कुड्डुगा - पाण्डुरकुडय: प्रसिद्धा गोपालाः । आव ० ४१८ । [ पंडरा पंडरगाईण । आचा० ४२१ ( ? ) । पंडरज्जा - पाण्ड्वा मायोदाहरणे दृष्टान्तः । आव ० ३९३ । नि० चू० प्र० ३५१ अ । पंडर अगाम - पाण्डुरास्थिकग्रामः । आव ० १६० । | पंडरा-पाण्डुरा । आव० ४१७ । ६१६ ) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडलोयं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [पंत पंडालोयं-पाण्डुरोलोचं श्वेतवस्त्रविभूषितम् । उत्त० ६६५॥ | "पाण्डु" इति प्रसिद्धा । जीवा० २३ । पंडवा ।ज्ञाता० २१२ । पंडुमहुरं-पाण्डवकृतं दक्षिणवेचालके नगरम् । ज्ञाता. पंडा-बुद्धिः । ६० प्र० ३४ अ । . २२५ । पंडिय-पण्डित:-साधु । अनु० १२० । पण्डित:-कटुवि- पंडुमहुरा-पाण्डुमथुरा । मन्त० १६ । पाण्डुमथुरा-धुतिपाककामगुणदर्शिता । आचा० ४३० । पापाड्डीनः । मतिविषये पाण्डुपुरी । आव० ७०८ । पाण्डमथुरा । सूत्र० ३३७ । पंडा-बुद्धिः संजाताऽस्येति पण्डितः । ६० । उत्त० १७६ । प्र० ३४ अ । पण्डित-सातिशयबुद्धिमतः । जं० प्र० पंड्यए-पाण्डुकः, नवनिधौ द्वितीया । ठाणा० ४४८ । २०७ । पण्डा-तत्वानुगा बुद्धिः, सा संजाताऽस्येति पाण्डुरक-कालपरिणामतस्तथाविधरोगादेर्वा प्राप्तवलक्षपण्डितः । उत्त० ४७ । पण्डितः विनीतविनेयः । उत्त. भावम् । उत्त० ३३३ । ६१ । पण्डित:-पापाड्डोनः । सूत्र० १५७ । पण्डित:- पंडुरंग-पाण्डुराङ्ग:-नैयायिकादिपाषण्डमाश्रितम् । अनु० पण्डिताभिमानी शुष्कतर्कदध्माता । सूत्र० ३६३ ।। १४६ । पाण्डुराङ्गः-भस्मोद्धलितगात्रः । अनु० २५ । पण्डितः-बुद्धेः तत्त्वः, संयतः । ठाणा० १७५ । पण्डित:- पंडुर-पाण्डुर:-शुक्ल: । ज्ञाता० ६३ । पाण्डुरं-सुधाधवसर्वविरतः । सम० ३४ । पण्डितः-सुनिश्चितशास्त्रार्थः। लम् । औप० ४ । पाण्डुरं-अकलङ्कम् । जीवा० २७२। उत्त० ३२० । पण्डित:-चारित्रवान् । उत्त० २४२ । पाण्डुर:-सुधाधवलः । ज्ञाता० ३ । पण्डितः-व्यवहारेण शास्त्रज्ञो जीवः । भग० १०२ । पंडुरओ-श्वेतः । आव० ४१६ । पण्डितः-पण्डा-बुद्धिः संजाता यस्य स इति पण्डितः । बृ. पंडुरग-पाण्डुरागः-शैवः । ज्ञाता० १६ । पाण्डुरकः । प्र० ३४ अ । पण्डित:-सम्यग्ज्ञानवान् । दश ६६ || भग० १६७ ।। पंडियपंडियमरणं-साराधनं सर्वविरतमरणम् । आउ०पंडरतल-पाण्ड्ररतलं-सुधामयतलम् । जं.०१०६ । पंडियमरण-सर्वविरतिमरणम् । भग० ६२४ । पण्डित उरण-पाण्डरो-धौत: पट:-प्रावरणं येषां ते । मरणम्, मरणस्य नवमो भेदः । उत्त० २३० । अनु० (?)। पंडिया-पण्डिताः पापोपादानपरिहारितया सम्यक्पदार्थ- पंडुरवत्तं-पाण्डुरपत्रं-जीर्णपत्रम् । उत्त० ३३४ । धर्माचरणाय समुस्थिता भवन्तीति । आचा० २४८ । पंडुरा-पाण्डुरा-श्वेता । उत्त० ६८५ । वत्ता भोगाणं पडियाइयणे जे दोसा परिजाणंति । दश पंडुराय-हस्तिनागपुरे राजा । ज्ञाता० २०८ ।. | पंडुरोग-पाण्डुरोगः । जं० प्र० १२५ । पंडू-पाण्डु-देशविशेषे धूलीरूपा सती प्रसिखा मृत्तिका । पंडुलइयमुही-पाण्डुकितमुखी-पाण्डुरीभूतवदना । निरया जीवा० २३ । पाण्डुः आपाण्डुः, आ-ईषत् शुभ्रत्व- । भागितियावत् । उत्त० ६८६ । पाण्डुः । जीवा० १८८ ।। पंडुल्लंगितमुही-पाण्डुराङ्गितमुखी । आव० १५१ । पंडुअ-पाण्डुकः निधिः, नवनिधो द्वितीया । जं० प्र० २५८ । | पंडुलइयमुहा-पाण्डुकितमुखी-पाण्डुरीभूतवदना । विपा० पंडुइयमुही-पाण्डुकितमुखी-दीनास्या । शाता० ३३। । ४ ।। पंडुकंबलसिला-पाण्डुकम्बलशिला । जं० प्र० ३७२। पंडुसिला-पाण्डुशिला । जं० प्र० ३७१ । पाण्डुकम्बलशिला, द्वितीयाऽभिषेकशिलानाम् । जं० प्र० पंडुसेण-पाण्डुपूत्रः । ज्ञाता० २२५ । पाण्डुषेणः-संवेगो. ३७२ । दाहरणे पाण्डुवंशेऽन्त्यो राजा । आव० ७०६ । पंडुकवलसिलाओ- . । ठाणा० ८०। पंडे-पण्डवात-नपुंसकहस्तात् । ओघ० १६२ । पंडुगंग-कुसीलो । दश० ५० १५२ । पंडोलं-पटोल वनस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ३७ । पंडुमत्तिया-पाण्डुमृत्तिका-देशविशेषे या धूलीरूपा सती | पंत-प्रान्त:-दरिद्रप्रायः । ओघ० १६२ । 'प्रान्तः-भूता. (अल्प० ७८) (६१७) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतकुल ] आचार्यबोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ पइट्ठाण वशेषः । ज्ञाता० १११ । प्रान्तं-स्वाभाविकरसरहितं, पन्थक:-ब्रह्मदत्तपत्नीनागयशाया: पिता । उत्त० ३७६ । स्वल्पं वा द्वेषरहितम् विगतधूमम् । आचा० १४४ । पंथधाइया-पषि-मार्ग-अर्धपथे घातिका-गन्तृणां हननं प्रान्तं-अवमम् । उत्त० ४१५ । प्रान्तं-सदेव व्यापन्नं- | पथिघातिका । प्रश्न० ३८ । विनष्टम् । बह० प्र० २२० । प्रान्त-नीरसम् । उत्त० पंथनिन्झाई-पन्थानं निर्यातु-प्रलोकितं शीलमस्येति २९४ । प्रान्तं-पर्युषितं वलचनकावल्पं वा । आचा• पथनिर्यायी । आचा. २१५ । २१३ । प्रान्तं-प्रकृष्टमान्तं प्रान्तं वल्लादि पयुषितम् । पंथन्भासे-पन्थाम्यास:-समीपम् । ओघ० २५ । ठाणा । २९८ । प्रान्तं-नीरसप्रायम् । ओघ० ४४ । पंथा-यस्मिन् ग्रामनगरपल्लीप्रतीकानां किञ्चिदेकतरमपि प्रान्तम् । ओष. १४८ । प्रान्तं-अमनोशम् । भग० | नास्ति स । बृ० द्वि० १२२ अ । १७४ । प्रान्तं-असारम् । दश. १८७ । पन्ते-प्रान्त- पंथिया-पन्थानं नित्यं गच्छन्तीति पान्थास्त एव पान्थिका विषये । ओष० १४८ । आहारे दृष्टान्तम् । भग० । ज्ञाता० १५०। बहवस्थदेशजे पेच्छिया ते वा मग्गित्वा । ४८४ । प्रान्त:-प्रकृष्टतरः । प्रश्न १३ । नि० चू० प्र० ३५८ अ । . पंतकुल-प्रान्तकुलं चण्डालादि । ठाणा० ४२० । पंदुइया-भंसिया । नि० चू० प्र० २०५ आ । पंतकुलाणि-प्रान्तकुलानि-तुच्छाशयगृहाणि-दरिद्रकुलानि | सु-रयो अचित्तो पंसु । नि० चू० तृ०७० अ । प्रायः । वा। उत्त० ४१६ । नि० चू० प्र० २३ ।। पंतदेवया-प्रान्ता देवता । दश० । १०३ । पंसुखार-पांशुक्षारः-उषरलवणम् । दश० ११८ । पंता-प्रान्ता-प्रत्यनीका । आव० ६३३ । प्रान्ता-धर्मा पसुरिया-पांशुरिका-रज उद्धातः । आव. ७३५ । नभिमुखी। पिण्ड० १०२ । | पंसुवुट्टी-पांशुवृष्टिः । भग० १६५ । पाशुवृष्टिः धूलिवर्षपंताव-प्रताडयत् । पिण्ड १०.।.. णम् । जीवा० २८३ । पंतावणं-ताडनम् । ओघ. १४६ ।। पंसू-धूमाकार आपाण्डुश्व रज: अचितश्च पांशुः । आव. पंतावेत्ता-ताडयित्वा । नि. चू० प्र० ३०० मा । ७३५ । पंताहारं-प्रान्ताहारः प्रकर्षणाऽनत्यं वल्लायेव भुक्तावशेष पह-पाति-रक्षति तां-भार्यामिति पतिः। उत्त० ३८ । पयुषितं वा । औप०४० । पइगा-प्रतिका-प्रद्युम्नसेनसुता ब्रह्मदत्तराश)। उत्त ३७६ । पंति-एकस्यां दिशि या श्रेणिः पङ्क्तिः । जीवा० १८१। पइट्ट-प्रविष्टः । दश० ५६ । प्रतिष्ठ:-सुपाश्र्वपिता । पतो-पङ्क्तिः -भुक्तुमुपविष्टपुरुषादिसम्बन्धोनि । उत्त० आव० १६१ । प्रतिष्ठितः-शास्त्रीयद्वितीयमासनम् । जं. प्र. ४६० । पंतीसो-एकस्यां दिशि या श्रेणिः सा पङ्क्तिः । जं. पइदा-प्रतिष्ठा-अपायावधारितस्यैवार्थस्य हृदि प्रभेदेन प्र० २४ । प्रतिष्ठापनम् । नंदो० १७७ । पंच-पन्था-देशाद्विवक्षित देशान्तरप्राप्तिलक्षण: सभ्यस्वा- पइट्राइ-प्रतिष्ठति । बाव० ५७८ । वाप्तिरूपः । सूत्र० १६७ । पइट्ठाण-शालवाहननगरी। ०प्र० २७ । प्रतिष्ठानंपंथए-पन्चक:-धन्यसार्थवाहस्य दासचेरः । ज्ञाता० ७६ । अवस्थानम् । अनु० १२६ । प्रतिष्ठान-निसोपानमूलघातः । विपा. ३६ । । पादः । जं० प्र० ४२ । प्रतिष्ठान:- त्रिसोपानमूलपादः । पंथक्करण ।शाता. २३६ । जीवा० १९८ । प्रतिष्ठानं-बाणकारणम् । प्रभ० ६३ । पंचक्कोट्टी । ज्ञाता० २३६ ।। प्रतिष्ठान-मूलपादः । जीवा० ३६६ । प्रतिष्ठानं-शालि. पंचग-क्षेलगराजमंत्री, पंचकः । माता० १०४ । पंचक:- वाहननगरम् । बाव ८९ प्रतिष्ठानं मूलपादः । ६० पार्षदोबाहरणे पस्सपाधिकापुत्रः । पाव. ७०४ ।। . २३ । (६१८) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पइदिन] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा०३ [पउणह पइट्रिअ-प्रतिष्ठित:-प्रकर्षण स्थितवान् । दश०७०। प्रतीर्णा-निस्तोर्णा आजन्मपालिता । प्रभ० १०५ । पट्ठिय-प्रतिष्ठितं-नारकादिभावेनावस्थितम् । भग० पइमा-प्रतिभा-प्रद्युम्नसेनसुता ब्रह्मदत्तराज्ञी । उत्त. ५२ । प्रतिष्ठित:- अपुनरागस्या व्यवस्थितः । प्रशा० ३७९ । १०८। . पइमाए-प्रतिभय:-भयजनः । ज्ञाता० ७६ ।। पइट्टिया-प्रतिष्ठिताः साद्यपर्यवसितं कालं स्थिताः । उत्त• पइमणुरत्ता-भरि प्रति रागवती । ज्ञाता० २०२ । ६८४ । पइया-पतिता जात्यादेवहिष्कृता । अन्त० १२ । पडठाणं-प्रतिष्ठानं-वैधयोंदाहरणे नगरम् । भाव परिक्क-स्यादिविरहितेन विविक्त व्यावाचं वा । उत्त. ६६८। ११० । प्रतिरिक्तं विजनम् । भगस ५४३ । प्रतिरिक्त:पइणी-पचनी चरकपालभननस्थानम् । आव० ६५१ । एकान्तः । ६० प्र० १०७ । प्रचुरतरम् । बोध १०१। पइण्ण-प्रकोण-इतस्ततो विक्षिप्तम् , असम्बद्धम् । उत्त० प्रतिरिक्तम् । आव० ६६ । विजनं प्रचुरं वा एकान्तम् । ३४६ । प्रकीर्णः । १० प्र० १२६ आ । । बृ० तृ० ११९ आ । एकान्त:-स्च्याद्यसङ्कुलः। उत्त. पइण्णकहा-णेगमसंगहववहारेहि जंकहिज्जति सा उस्सग्गो ' पइण्णकहा । नि० चू० प्र० २४० म। पइरिक्कमज्जितघयविहीए-प्रतिरिक्तमभ्यङ्गनविधिना । पडण्णपण्णो-प्रधणीयसूओ अगीतो अपरिणामगो य,एतेसि आव० ६५ । 'उद्देसुद्देसं कहितो पइण्णपण्णो । नि० चू० तृ० ८१ अ। परिक्कय-प्रचुरः । ओघ० १०३ । प्रकीर्णप्रश्न-प्रश्नः छेदसूतान्तः पाती रहस्यार्थः स प्रकीणों पइल्लं-पद-श्लोपदं पादादौ काठिन्यम् । प्रश्न. १६१ । येन स प्रकीर्ण प्रश्नः । बृ० प्र० १३० । पइवं-तैलदशाभाजनम् । भग० ३१३ । पइण्णवाई-प्रतिज्ञावादी-प्रतिज्ञया वा इदमित्थमेव इत्ये- पइविजो-जो पुण आदिरतेण सव्वं कहेंति सो। नि. कान्ताभ्युपगमरूपया वदनशीलः । उत्त० ३४६ । चू० तृ. ८१ आ० । प्रकीर्णवादी-प्रकीर्ण-इतस्ततो विक्षिप्तम् , असम्बद्ध-पडविसेस-प्रतिविशेष:-प्रतिनियतविशेषः। नंदो०८५ मित्यर्थः, वदति-जल्पतीत्येवंशीलः, वस्तुतत्त्वविचारेऽपि पईव । ज्ञाता० २१३ । यत्किञ्चनवादी । यः पात्रपिदमपात्रमिदमिति वाऽपरीक्ष्येव पउंछति-अंजणेणं अजेति । नि० चू० प्र० १६० अ० । कथञ्चिदधिगतं श्रुतरहस्यं वदतीत्येवंशोलः । उत्त० पउअंगे-प्रयुताङ्ग-चतुरशीत्या लक्ष युतः । अनु. १००। ३४६ । पउए-प्रयुतम् चतुरशीस्या लक्षः प्रयुताङ्गः । अनु० १०० । पइण्णाविजुत्त- । नि० चू० प्र० १०२ मा । भग० २६० । कालमानविशेषः । भग० २७५ । पहण्णविज्झो-प्रकोणविज्जः-छेदस्तान्तर्गता रहस्यवचन- पउच्छा । ज्ञाता २१६ । पद्धति सेव्यते सा । बृ० प्र० १३० अ । पउट्ट-परिवर्तः परिवर्त्तवाद इत्यर्थः । भग० ६६८ । पइण्णा-प्रतिज्ञा-निश्चयरूपोऽभ्युपगमः । राज० १३३ । पउट्टपरिहार-परिवृत्यपरिहारः । भग० ६६७ । शरीप्रकीर्णा-अप्रतिनियता । ६० प्र० २६४ अ । रान्तरप्रवेश: । भग० ६७३ । परावर्य परिहारः । पइन्न-प्रदत्तम् । प्रभ० ११५ । प्रतिज्ञा-पक्षः । दश. आव० २१४ । २६३ । पउटू-प्रकोष्ठः-कूप्पंराग्रेतनभागः । भग० ५४० । पइन्नगा-प्रकीर्णकानि । प्रज्ञा० ५६ । पउदा-प्रद्विष्ठा । आव० ८०० ।। पइन्नतव-प्रकीर्णतपः श्रेण्यादिनियतरचनाविरहितं स्व-पउण-प्रगुणभूतः । आव० ४०० । प्रगुणः । आव. शक्स्यपेक्ष यथाकथञ्चितिव्यमाणं तपः । उत्त० ६०१ । । २२७ ।' पइन्ना-प्रतिशा-निदानबन्धनरूपा आशंसा। सूत्र० २६० । ! पउणइ-प्रगुणीमवति । आव० ६७६ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतंग ] पतंग - प्रयुताङ्गं चतुरशीतिरयुतशतसहस्राणि प्रयुताङ्गम् । जीवा० ३४५ | ठाणा० ८६ । पउत - चतुरशीतिः प्रयुताङ्गशतसहस्राणि प्रयुतम् । जीवा० ३४५ । ठाणा० ८६ । प्रयुक्तः- योत्रितः । जोवा० १६३ । प्रयुक्तं - प्रयोगः । भग० १८२ । प्रज्ञा० ४३६ । पउत्तदव्वसम्म - यत्प्रयुक्तं द्रव्यं लाभहेतुत्वादात्मनः समाघानाय प्रभवति तत्प्रयुक्तद्रव्यसम्यक् । आचा० १७६ । पउत्ति - प्रवृत्ति:- व्यक्ततरवार्ता । ज्ञाता० ८४ । पत्ती-प्रवृतिः । आव० ४१६ । उत्थ - प्रोषितम् । आव० ३४२ । प्रोषितम् । उत्त० १४७ । पउत्थभत्तारा । नि० चू० प्र० १०६ आ । परत्यवइया - प्रोषितपतिका । आव० ६४० । प्रोषितभर्तृका । ओघ० १५० । प्रोषितभर्तृका । आव० ३१८ । पउप्पए - प्रपौत्रक :- प्रशिष्यः । भग० ५४६ । शिष्यसन्तानः । भग० ६९१ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरि सङ्कलितः - पउमंग-पद्याङ्ग चतुरशीतिरुत्पला ङ्गशतसहस्राणि I जीवा० ३४५ । काल मानविशेषः । ठाणा० ८६ । कालमानविशेषः । भग०८८८ 1 कालमान विशेषः । सूर्य० ६१ । चतुरशीत्या लक्ष रुत्पलैः पद्माङ्गम् । अनु० १०० । | पउम - पद्मः - हिमवति हृदः । ठाणा० ७३ । पञ्चमजिन भिक्षादाता | सम० १५१ । आगामिन्यां अवसरपिण्यां अष्टमचक्रो । सम० १५४ । कालमानविशेषः । भग० २१० । भग० २७५ । आगामिन्यां अवसर पिण्यां अष्टमबलदेवः । सम० १५४ । कालमानविशेषः । भग० ८८८ । जलरुहो वनस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । कालमानविशेषः । सूर्य० ६१ । पद्मः - सुमतिजिन प्रथमभिक्षादाता | आव० १४७ । पद्मः - अष्टमबलदेवः | आव० १५६ । पद्म - चतुरशीति लक्षंः पद्माङ्गः । अनु० १०० । ज्ञाता० २५३ । पद्म - कमलं - पद्मकाभिधानं गन्धद्रव्यं या जीवा० २७७ । पद्म-पुष्करम् । जीवा० ३३३ । चतुरशीतिः पद्माङ्गशतसहस्राणि पद्मम् । जीवा० ३४५ पद्मम् । प्रज्ञा० ३७ | पद्म-बिन्दुजालरूपम् । जं० प्र० ५२८ । सहस्रपत्र: - देवपरिकल्पितः पद्मः । आव ० २३२ । • - [ पउमराग पद्म - अरविन्दम् । दश० १८५ । सौधर्मकल्पे पद्मावतंसकविमाने सिंहासनम् । ज्ञाता० २५३ । पद्म - कमलं गन्धद्रव्यविशेषो वा । सम० ६१ । कल्पावतं सिकस्य प्रथममध्ययनम् । निरय० १६ । पद्मः । ज्ञाता० १६ । पद्मकम् । आचा० ३६३ । पद्म - सूर्यविकाशिपङ्कजम् । राज० ८ । पद्यार्थ:- भगवत्यामेकादशशते षष्ठोद्देशकः । ५११ । पद्म - पद्मकाभिधानं गन्धद्रव्यम् । जं० प्र० ११७ | आणतकल्पे विमानम् । सम० ३५ । सहस्रारकल्पे विमानम् । सम० ३३ । पद्म-कमलं एतदभिधानगन्धद्रव्यम् । औप० १६ । पद्म-सूर्यं विकासि | जीवा० १७७ । पद्मः - हृदविशेषः । ज्ञाता० १२५ । पउमगंधा- पद्मगन्धा । जं० प्र० ३१३ | पउमग- पद्मकं कुङ्कुमकेसरम् । दश० २०६ । पउमगुम्म -कल्पावर्त सिकस्य सप्तममध्ययनम् । निरय०१६ । पद्मगुरुम: - नलिन गुल्म विमानः । उत्त० ३७६ । सहस्रारे विमानविशेषः । सम० ३५ । पद्मगुल्मं- विमानविशेषः । उत्त० ३६५ । पउमजालं - पद्मजालं सर्वरत्नमयपद्मात्मकं । जीवा० १८१ । पउमणामे-घातकीखण्डापरकङ्कायां नरपतिः । ज्ञाता० २१३ । पउमणिकं दो-पद्मिनीकन्दः - उत्पलिनीकन्दः । प्रज्ञा० ३७ । पउमद्दहं - पद्मद्रहो नाम द्रहः पद्मद्रहो नाम ह्रदो वा । जं० प्र० २६४ । पउमद्दहप्पभाई- पद्मद्रह प्रभाणि पद्मद्रहाकाराणि आयतचतुरस्राकाराणि । जं० प्र०२८८ । पउमप म्हं - पद्मपक्ष्म - पद्मपत्रम् । जीवा० ३८६ । पउमपम्हा - पद्मगर्भाः । प्रश्न० ७० । पउम पभा - पद्मप्रभा दक्षिणपुष्करिणीनाम। जं० प्र० ३३५ । पउमप्पय-परम्परा । बृ० तृ० ११३ अ । पउमपह - इह निष्पङ्कतामङ्गीकृत्य पद्मस्येव प्रभा यस्थासौ पद्मप्रभः, षष्ठजिनः । आव० ५०३ । पउमभद्द - कल्पावतंसकस्य पञ्चममध्ययनम् । निरय०१६ | पउमरह - पद्मरथः- सर्वकामविरक्तताविषये देवलासुतराज कुमारः । आव० ७१४ । पउमराग- पद्मरागः- रत्नविशेषः । जं० प्र० ४५ । ( ६२० ) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एउमरुक्ख ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [ पउमावती० पउमरुक्ख-पद्ममतिविशालतया वृक्ष इव पद्मवृक्षः । वर्गस्य प्रथममध्ययनम् । ज्ञाता० २५३ । पद्मा-पूर्वस्यां जीवा. ३३३ । पुष्करणोनाम । जं० प्र० ३३५ । कालमानविशेषः । पउमलय-पद्मलता-मृणालिका । भग० ४७८ । ठाणा० ८६। पउमलयभत्तिचित्तं- । आचा० ४२३ । पउमाइं-पद्मानि सूर्यविकासीनि ईषत् श्वेतानि वा । जं. पउमलया-पद्मलता:, पद्मिन्यः । जं० प्र० २९२ । पद्म- प्र. २६ । लता-स्थलकमलिनि पद्मकाभिधानवृक्षलता वा। औप० | पउमाकारं-पद्माकारम् । आव० ४२७ । १ । पद्मलता-पद्मिनी । जीवा० १८२। लताविशेषः । पउमाते-शकेन्द्रस्याग्रमहिष्या राजधानी । ठाणा०२३१ । प्रशा० ३२ । पद्मलता:-पद्मिन्यः । (?) । पउमाभ-यस्मिन् गर्भगते देव्याः पद्मशयने दोहदो जातः, पउमलेसा-पद्मगर्भवर्णा लेश्या पद्मलेक्या। ठाणा० १७५।। तच्च तस्य देवतया सज्जितं, पद्मवर्णश्च भगवान् तेन पउमव.सए-सौधर्मकल्पे विमानः । ज्ञाता० २५३ ।। पद्मप्रभ इति । आव० ५०३ ।। उमवरवेइया-पद्मवरवेदिका-पद्मप्रधानावेदिका । जीवा० | पउमावई-पद्मावती- चम्पायां कूणिकराज्ञो भार्या । भग० १८३ । पद्मवरवेदिका, देवभोगभूमिः । (?)। पद्मवरा- ३१६ । पद्मावती-पाश्चात्यरूचकवास्तव्या चतुर्थी पाप्रधानावेदिका । (?) । दिवकुमारीमहसरिका । जं० प्र० ३६१ । पद्मावतापउमवूह-पद्माकरीव्यूहः-पद्मव्यूहः-परेषामनभिभवनीयः, मुनिसुव्रतमाता। आव० १६० । पद्मावती-तेतलीपुरनगरे पैन्यविनाशविशेषः । प्रश्न. ४७ । कनकस्थराजपत्नी । आव० ३७३ । पद्मावती-द्रव्यपउमसंडं-पद्मसण्डं-चन्द्रप्रमस्य तृतीयपारणकस्थानम्। (?) व्युत्सर्गे चेटकदुहिता । चम्पानगरेशदधिवाहनपत्नी करपउमसर-पद्मसरः । आव० १७० । पद्मसरः । आव० कण्डुमाता । आव० ७१६ । कृष्णस्य देवी । निरय. १८५ । पद्मानि यत्रोत्पद्यन्ते सरसि तत् पद्मसरः । ४। धर्मकथाया नवमवर्गस्य प्रथममध्ययने देवी । ज्ञाता. ठाणा० ५०२ । चतुर्दशस्वप्ने दशमम् । शाता. २० । २५३ । रोहीतकनगरे महाबलराज्ञो भार्या । निरय. पउमसिरी-नवमचक्रिणः स्त्रीरत्नम् । सम० १५२ अ। ४० । कोणिकस्य राज्ञी। निस्य. १९ । कालककुमारपद्मश्री-मेघनादविद्याधरकन्या । भाव. ३९३ । धण- पत्नी। निरय० १६ । पद्मावती-शिक्षायोगदृष्टान्ते हैहयमित्तसस्थवाहस्स बीया भज्जा । नि० चू० तु. १२८ अ । कूलसंभूतवंशालिकचेटकस्य द्वितीया पुत्री। आव० ६७६ । पद्मश्री:-योगसंग्रहे निरपलापदृष्टान्ते दन्तपूरनगरे धनमित्र- पउमावती-करकण्डमाता । नि० चू० प्र० १९४ अ । वणिजस्य लवी भार्या । प्राव० ६६६ । नि० चू० द्वि० ४६ अ । नरवाहनराज्ञी । व्य० प्र० पउमसेण-कल्पावतंसिकस्य षष्ठममध्ययनम् । निरय० २२७ आ। कनकरथस्य राज्ञो । ज्ञाता. १८४ । भोमराक्षसेन्द्रस्य द्वितीयाऽयमहिषी । भग० ५०४ शेलकपूरे पउमा-धर्मकथायाः नवमवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । ज्ञाता० शेलकराजपत्नी। ज्ञाता० १०४ । साकेतनगरे पटबुद्धि२५३ । भीमराक्षसेन्द्रस्य प्रथमाऽप्रमहिषी । ठाणा. राज्ञा । ज्ञाता० १३० । पद्मावतो-शतानीकराज्ञो २०४ । मुनिसुव्रतस्वामिनो जननी । सम० १५१।। पुत्रोदायनस्य पनी । विपा०६८ । पद्मावतो-अन्तकृ. भीमराक्षसेन्द्रस्य प्रथमाऽमहिषी। भग० ५०४ । शवदे- द्दशानां पञ्चमवर्गस्य प्रथमाध्ययनम् । अन्त० १५ । वेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषो । भग० ५०५ । वनस्पति- पद्मावती-पश्चिमरुकवास्तव्या चतुर्थी दिक्कुमारी । आव० विशेषः । भग० ८०४ । पद्मा-शकदेवेन्द्र स्य प्रथमाऽन- १२२ । पद्मावतो-चेटकदुहिता दधिवाहनराज्ञो । उत्त. महिषी । जीवा० ३६५ । साधारणबादरवनस्पतिकाय- ३००। पद्मावती-महापद्मराज्ञो । उत्त० ३२६ । मरुत्पत्थे विशेषः । प्रज्ञा० ३४ । धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य त्रयो- देवो । व्य० प्र० २८. श्रा। पउमावतोदेवो-शैलककेषग्राहोका देवी । ज्ञाता. १०८। (६२१ ) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमासण ] पउमासण - पद्मासनं पद्माकारमासनम् । जीवा० २०० । पउमुत्तर - पद्मोत्तर:- शुक्ललेश्याया आस्वादे दृष्टान्तः । प्रज्ञा० ३६४ । दशमचक्रीपिता । सम० १५२ । पद्मोत्तर:दिगृहस्तिकूटनाम | सम० १५२ । पद्मोत्तरा नवमच कीमहापद्मपिता । प्राव० १६२ । पउमुत्तरा - पद्मोत्तरा शर्कराभेदः । जं० प्र० ११८ । पउमुप्पल - पद्मोत्पलं बघस्थासाकाकार पात्रम् । आ २११ । जस्स अहो णाभी पउमागिती उप्पलागिती वा तं पउमुप्पलं । नि० चू० प्र० १२५ । पद्मोत्पलाकार पुष्पकयुक्तम् बृ० द्वि० २४५ अ । पउमेपउमोत्तरा- पद्मोत्तरा । जीवा० २७८ । पउयंगे - कालमानविशेषः । भग० ८८ । पउर- प्रचुरः । ओघ० १२० । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः ४१३ । पउरजंध- प्रचुरजङ्घः - पुष्टजङ्घः । जं० प्र० १३१ । पउरजण वय - पौरजनपदम् । आव ० १७४ । पउरत्थ- प्रचुरार्थ:- प्रभूतार्थः । आव० पउरा - पौराः - पुरवासिनः । बृ० प्र० १५५ अ । पउराए- प्रचूराणि प्रचुरकाणि प्रभूतानि । प्रचुरः आयोलाभो यस्मिन् । उत्त० २८६ । पउल - साधारणबादरवनस्पतिकाय विशेषः । प्रज्ञा० ३४ । पडलण- पचनविशेषः । प्रश्न० १४ । | नि० ० प्र० १६० । पएसकम्म- प्रदेशाः - कर्मपुद्गलाः जीव प्रदेशेष्वोत प्रोतानां तद्रूपं कम्मं प्रदेशकः । भग० ६५ । पएसग्ग- प्रदेशाग्र :- प्रदेशपरिणामः । ठाणा० २५३ । पएसघण- प्रदेशघनः - संस्थानविशेष: । आव० ४४४ । पसणामणिहत्ताउए- प्रदेशा:- कर्मपरमाणवः ते च संमतोऽप्यनुभूयमानाः परिगृह्यन्ते तत्प्रधानं नाम, तेन सह निघत्तमायुः प्रदेशनामनिधत्तायुः । प्रज्ञा० २१८ । पएसनिवत्तसंठाण- प्रदेश :- आत्म प्रदेश निर्वृत्तं निष्पन्नं संस्थानं यस्य सः प्रदेशनि वृत्तसंस्थानः । प्रज्ञा० १०८ । पएससं कम - यत्कर्म द्रव्यमन्यप्रकृतिस्वभावेन परिणाम्यते सः प्रदेशसंक्रमः । ठाणा० २२२ । पएसा - प्रदेशा:- जीव प्रदेशेष्वोत प्रोता: कर्मपुद्गलाः । भग ६५ । प्रदेशाः - जीवप्रदेशा एसां ते जीवप्रदेशाः, चरमप्रदेशजीवप्ररूपी निह्नवः । आव० ३११ । पएसी- प्रदेशी । आव० १९७ । पओअणं - प्रयोजनं प्रवर्तनम् । उत्त० ५०३ । पओए- प्रतोद :-आरादण्डलक्षणः । दश० २५० । पओग - कायादिप्रयोगः | ओघ २२१ । प्रयोगः-चेतनावतो व्यापारः । विशे० १०६० । प्रयोगः - हरण क्रियायां प्रेरणमभ्यनुज्ञा च । आव० २३ । प्रयोगः - उपायः । राज० १४६ | प्रयोगः - मनः प्रभृतीनां व्याप्रियमाणानां जोवेन -हेतुकतृभूतेन यद् व्यापारणं प्रयोजनं सः प्रयोगः । ठाणा ० १०७ । सम्यक्त्वादिपूर्वी मनःप्रभृतिव्यापारः, अथवा सम्यगादिप्रयोगः - उचितानुचितोभयात्मक औषषिव्यापारः ठाणा० १५१ । प्रयोगः- प्रज्ञापनायाः षोडशमं पदम् । ( ६२२ ) पडलियं पक्कं अग्गिणा पडलियं । नि० चू० द्वि०१५७अ पउल्लग - भाजनं स्थाल्यादि । दश० ६७ । परसा- म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । पए - प्राग्प्रत्युषसि । ओघ० ८१ । प्रगे । भाव० ८६, ३३५, ६४० । प्राग् - पूर्वम् । ओघ० ४७ । पूर्वं प्रगे । बृ० द्वि० १६१ वा । पणियार - प्रकृष्ट एणोचारः प्रेणीचारः । प्रश्न० १४ । पएस - प्रदेश :- लघुतरम् । भग० ३८१ । प्रकृष्टो - निरंशो धर्माधर्माकाशजीवानां देश :- अवयवविशेषः प्रदेशः । ठाणा० २४ । प्रदेश : - देशेकदेशः । जं० प्र० ३३९ । प्रदेश:- कर्मपरमाणुः । प्रशा० २१५ । प्रदेश :- त्रसरेण्वा दिरूपः । जीवा० ३२२ । प्रदेश :- परमाणुः । आचा● १३ । प्रदेश :- अंश: । विशेष० ६४७ । प्रदेश :- जीव ( पओग प्रदेश: कर्मपुद्गलसम्बन्धः । आव० ५६८ | संयमस्थानाविभागपरिच्छेदः । बृ० तृ० १५ आ । प्रकृष्टो - निरंशो देश: प्रदेशः । अनु ६७ । प्रकृष्टो - निरंशभागः । प्रकृष्टःसर्वसूक्ष्मः पुद्गलास्तिकायस्य देशो निरंशो भागः प्रदेशः अनु० ६८ । प्रकर्षेणाम्यत्वात्प्रदेशान्तराभावतः क्वचि दप्यनुगतरूपाभावलक्षणेन दिश्यते- प्राग्वदुपदिश्यत इति प्रदेशः - निरंशो भागः । उत्त० ६७२ । प्रदेश :- सूचकत्वादस्य अन्त्य प्रदेशजीववादिनः अन्त्य एव प्रदेशो जीव इत्यभ्युपगतः । उत्त० ५२ । लघुतरभागः । जं० प्र० १४४ । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पओगकरण] अल्पपरिचितसैखान्तिकसम्बकोषः, भा० ३ [पकामनिकरण - प्रज्ञा० ६ । प्रयोग:-प्रकर्षण युज्यते व्यापार्यते-क्रियासु ठाणा० २१४ । प्रदोषः । आव. ६४० । सम्बन्ध्यते वा साम्परायिकेर्यापथकर्मणा सहात्मा अनेनेति पओसकाल-प्रदोषकाले-रजनीमुखसमयः । उत्त० ५३६ । प्रयोग:-परिस्पन्दक्रिया आत्मव्यापार इति । प्रज्ञा०पओसा-प्रद्वेषः क्रोधादिः,नवमी प्रतिसेवा। भग०६१९ । ३१७ । प्रयोग:-प्रयुज्यते इति व्यापारो धर्मकथाप्रबन्धो पओसिया-जनपदविशेषः । भग० ४६० । वा। सू० २३६ (?) । प्रयोगः-वीर्यान्तरायक्षयोपशमजीव• पकंठगा-पीठविशेषः, आदर्शवृत्तौ पर्यन्तावनतप्रदेशी पोठी वीर्यजनितो व्यापारः । उत्त०२०१। प्रयोग:-व्यापारः। प्रकण्ठो । जं० प्र० ५३ । ज्ञाता. १७७ । प्रयोग:-व्यापारणं करणं आशंसा व्या- | पक व्य. द्वि० १४१ अ । पारः । ठाणा० ५१५ । प्रयोजनं, सपरिस्पन्द आत्मनः पकट्य-प्रकर्षयति-आकर्षयतीत्यर्थः । व्य. द्वि० ८६ आ। क्रियापरिणामो व्यापारः इत्यर्थः । सम० ३१ । ब्या- पकप्प-प्रकल्प:-अष्टाविंशतिविधः आचारप्रकल्पः, निशीवृत्तिः । सम० १२७ । व्यापरणं-करणम् । उत्त० ५८८ । थान्तमाचाराङ्गमिति । प्रश्न० १४५ । प्रकर्षेण कल्प: प्रयोगः-जीवव्यापारः । भग० ५५ । प्रयोग:-कलान्तरम्। प्रकल्प:-प्ररूपणा, प्रकर्षकल्पो वा प्रकल्पः-प्रकल्पप्रधा. जं० प्र० २३२ । प्रयोग:-स्वकलसाधनव्यापारः । दश. नेत्यर्थः, कल्पनं पकल्पो छेदनेत्यर्थः । प्रकर्षाद्वा कल्पनं १२३ । कायादिप्रयोगः । व्य. द्वि. ३९१ अ । प्रकल्पः । नि० चू० प्र० २१ बा । थेरकप्पिया पओगकरण-प्रयोगकरणम् । उत्त. १६७ । संथारूत्तरपट्टेसु सुवंति एस पकप्पो । नि० चू० प्र० पओगकिरिया-प्रयोगक्रिया मनोवाक्कायलक्षणा । सूत्र. १६१ आ । णिसोहज्झयणं । नि० चू० तु.८१ म. ३०४ । प्रयोगक्रिया, विशतिक्रिमामध्ये षोडशमी । आव० प्रकल्प:-आचार:, आसेवा । ठाणा० १४३ । अध्ययन. ६१२ । प्रयोगो-मनोवाक्कायलक्षणस्तस्य क्रिया-करणं विशेषः, निशीथः, ध्यवस्थापनम् । सम० ४८ । प्रकल्प्यं ज्यापृतिरिति प्रयोगक्रिया, अथवा प्रयोग:-मनःप्रभृतिभिः प्रकल्पनीयं पिण्डादि । ठाणा०३००। प्रकल्प:-अष्टाशीतिक्रियते-बध्यत इति प्रयोगक्रिया कर्मेत्यर्थः । ठाणा० | ग्रहेषु द्वापञ्चाशतम । जं. प्र. ५३५ । प्रकल्प:-निशी१५३ । थाध्ययनम् । व्य. द्वि० ४० आ । सोहं । नि० चू० पओगगती-प्रयोगः-प्रागुक्तः पञ्चदशविधः स एव गतिः । तृ० १०० था। प्रयोगगतिः । प्रशा० ३२५ । पकम्मति-प्रक्रमते प्रकर्षेण प्रभवतीत्यर्थः । ठाणा० ५२२ । पओगपरिणया-जीवव्यापारेण शरीरादितया परिणताः । पकरण-प्रकरण प्रक्रिया । प्रभ. १४१ । भग० ३२८ । प्रकरणसूत्रम् । बृ० प्र०५० आ। पओगबंधे-जीवप्रयोगकृतः । भग० ३६४ । पकरेइ-बध्नाति । भग ५१ । स्थितिबन्धापेक्षया बदापओट-प्रद्विष्टः । ६० प्र० २३१ अ। वस्थापेक्षया वा पकरेइ । भग० १०२ । बन्धाति । . पओय-वनस्पतिविशेषः । भग. ८०४ । प्रज्ञा० ४०७ । प्रकरोति-प्रकर्षण बध्नाति । पिण्ड. पओयणं-प्रयोजन-अवश्यकरणीयं प्रयोजनम् । प्रभ०२४॥ प्रयोजनम् । प्रज्ञा० ४४७ । येन प्रयुक्तः प्रवर्तते तत् पकरेति-प्रकरोति वेदयते बध्नाति च । भग• ६८। प्रयोजनम् । आव० ३७७ । पकाम-प्रकाम-अत्यर्थम् । ज्ञाता० ३१ । प्रकाम-अत्यपओयलट्ठो-प्रतोत्रयष्ठिः-प्राजनकदण्डम् । ओप० ६४।। र्थम् । भग० २६३ । अनेकशः । बृ० द्वि० १४ म । पोलग्गिओ-प्रावलग्नः। बाव. १८७ । पकामनिकरण-प्रकामनिकरणं-प्रकामः-इप्सितार्थाप्राप्तितः पोलिता-पक्रवा । उत्त० १७६ । प्रवर्द्धमानतया प्रकृष्टोभिलाषः स एव निकरणं-कारणं यत्र पबोस-प्रवेषम् । बोष. १४६ । म्लेचविशेषः । प्रज्ञा प्रवेदने तत्तपा, बन्ये ला:-प्रकामे-तीवाभिलाषे सति ५५ । प्रदोष-षम् । इत्त. ६३३ । राराषाहरः। प्रकामं वा-अत्पर्ष निकरणं इष्टासापकलियमाणाभावो Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकार०मकारप्रविभक्ति ] यत्र तत् प्रकामनिकरणम् । ( ? ) । पकारफका रबकार मकारमकारप्रविभक्ति - एकोनविंश. तितमो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ । पकामरसभोई - अत्यर्थमन्नभोक्ता । ओप० ३८ । पकित्तिया-प्रकीर्तिताः- प्रकर्षेण सन्देहाप नेतृत्वलक्षणेन संश आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः न्दिताः । उत्त० ६७६ । पकिन्ना- प्रकीर्णानि दत्तानि । उत्त० ३६१ । पकीण्णं प्रकीर्णं विक्षिप्तम् । प्रश्न० १५४ । ३६ । पक्की लिय - प्रकीडित:- क्रीडितुमारब्धः । ज्ञाता० ४० । पक्कुणीह पकुख- खण्डशः कृत्वा । सूत्र० १९३ । । भग० ४६० 1 पकुव्वए - प्रालोचितेष्वपराधेषु प्रायश्चित्तदानतो विशुद्धि पक्खंद- प्रस्कन्दथ - आक्रामथ । उत्त० ३६६ । प्रस्कन्दन्तिकारयितुं समर्थः । भग० ९२० । अध्यवस्यन्ति । दश० ६५ । प्रस्कन्दः - गमनम् । प्रश्न० पकुब्वी - आलोइए जो पच्छित्तं काश्वेति सो पकुब्वी : 25 1 नि० चू० प्र० १२८ मा । आलोचिते शुद्धिकरणसमर्थः । प्रभ० १४ । पक्कणिया- म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । पक्कणी - घात्रीविशेषः । ज्ञाता० ४७ । पक्कत लमेहवन्ना-पक्वपत्रो यस्तलः - तालवृक्षः स च मेधश्चेति विग्रहस्तस्येव वर्णों येषां ते तथा २३१ । | ज्ञाता० पक्क मोम - कवालियादि पक्कभोमं । नि० चू० द्वि० ६४ आ । पक्कमहुर-फले द्वितीयो प्रकारः । ठाणा० १६६ । पक्कमेति मन्दपक्का । नि० चू० द्वि० ७५ अ । पक्का-पक्वा-पक्वः - पाकप्राप्तः । आचा० ३९१ । पक्काम - अर्धपक्वम् । ओष० १०० । - पक्कट्टगसं ठाण - पक्वेष्टकासंस्थानं मानुष्यक्षेत्र वाह्य सूर्यचन्द्रात क्षेत्रम् | जोवा ० ३४७ । पक्किलियाणं - प्रक्रोडिता: - की डितुमारब्धवन्तः । जं० प्र० ठाणा० ४८६ । पकोट्टए - प्रकोष्ठक : - कलाचिका । जं० प्र० ५२७ । पकोट्ठी-प्रकोष्ठो:- कलाचिका । प्रभ० ८१ । पक्क पक्वं - पाकप्राप्तम् । दश० २१८ । पक्व:- पाकप्रातः । आचा० ३९१ । पक्वः - काठिन्यमुपगतः । शाता० ११६ | आसङ्घडिक : - कलहनशिलः । बृ० द्वि० २६३ अ । जं अग्गिणा पउलियं पक्कं । नि० चू० द्वि० १५७ अ । पक्वम् । व्य० प्र० २५६ । पक्कण- चाण्डालः । आव० २१७ । पक्कणकुल- मातङ्गगृहम् । बृ० तृ० १८ आ । गर्हित पक्खच्छाया-पक्ष्मच्छाका । सूर्य० ९५ । कुलम् । आव० ५२० । पक्कणदेशज - पक्कणि । जं० प्र० १६१ । पक्कणिय पक्कणिक:- चिलातदेश निवासी म्लेच्छविशेषः । 1 पक्खा पक्ख-पक्षः - परिग्रहोऽङ्गीकारः । भग० १७ । पक्ष:वस्तुधर्म :- परिग्रहो वा । भग० १८ । पक्ष:- अर्द्धकदेशः । जीवा० १८० | पक्ष:- अङ्कमयः । जीवा० ३६० । पक्ष:पार्श्व: पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपः । प्रज्ञा० ३२६ । मध्यरात्रः । ज्ञाता० मल्ली। पक्षकम् । (?) । तिही (दशा चू०) सावनपक्षांशतिथिग्रहार्थं पक्षेति तथा च भोगापेक्षा तिथिनत्र । (?) | कालविशेषः । भग० ८५ पक्षः -ग्रहः । जं० प्र० १४१ | आचार्य पक्षकः - पक्षप्रदेश: । जोष० १०७ । पक्ष:-पार्श्व सविधिः । दश० २३५ | पक्षः | जीवा० १५० | पक्षः - पाव रात्रिः । ज्ञाता० १२४ । पक्खण परपक्खण-व्याससुव्याप्तम् । म० । पक्खपिंडा-पक्षपिण्डः - वाहृद्वय कार्यपिण्डात्मकः । उत्त● ५४ । पक्खबाहा - पक्षबाहा - वेदिकैकदशः । जीवा० १८२ । बाहुः - पक्षकदेशभूतः । जीवा० ३६० । पक्षबाहु:पक्षकदेशः । जीवा० १८० । पक्खर - प्रस्खरः । विशे० १३५५ । पक्ख र:- तनुत्राणविशेषः । विपा० ४७ । पक्खलणं - प्रस्खलनम् । ठाणा० ३२८ । आवडणं । नि०चू. प्र० ४६ अ । पक्खा - पक्षा:- तदेकदेशाः पक्षबाहवोऽपि तदेकदेशभूता एवाङ्कमप्य: । ( ? ) पक्षा:- पश्वदशा हो रात्रप्रमाणाः । ( . ६२४ ) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्खापक्खिए] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [पगब्भा ठाणा० ८६ । पग-प्रभातः । नि० चू० द्वि० १०१ अ। पक्खापक्खिए- नि० चू० प्र० २६५ ा। पगइ-प्रकृति:-कुम्भ कारादिश्रेणिः । औप० ७२ । प्रकृति:पक्खाविक्खी-पक्षेक्षणी । गच्छा० । स्वभावः । जोबा० २७७ । प्रकृति:-। आ० ५५ । पक्खासणं-पक्ष्यासनं-यस्याधोभागे नानास्वरूपाः पक्षिणः। प्रकृति:-कर्मप्रकृितिविषयको भगवत्याः प्रथमशतके जीवा० २०० । पक्ष्यासनानि येषामधो भागे, नाना- चतुर्थोद्देशकः । भग०६ । प्रकृतिः-शुद्धपदरूपः । विशे० स्वरूपाः पक्षिणः । जं० प्र० ४५ ।। ९६६ । पक्खिकायणा-कोशिकगोत्रप्रकारः । ठाणा० ३६० । पगइभया-प्रकृतिभद्रकता-स्वभावत एवापरोपतापिता। पक्खिणि-पक्षिणि-शकुनिकासारिकादि । उत्त । ४०६ । उपा० २९। पक्खित-प्रक्षिप्तं-आस्यगतं-मुखे प्रक्षिसम् । बोध० ८८ ।। पगओ-प्रगत:-परिचितः। आव०७१०। प्रकृतः। विशे० पक्खित्तो- ।नि० चू० प्र० ३६ आ ।। ४०१ । प्रकृतोऽधिकृतः । नि० चू० प्र०९८ अ । पक्खियं-पाक्षिक-पक्षातिचारनिवृत्तम् । आव० ५६३ । पगड-प्रकृतं बद्धं प्रकटं वा । आचा० १६१-१६२ । पाक्षिक:-अर्धमासः । व्य.द्वि. ३९६ अ । प्रकृतं-निर्वतितम् । दश० २७३ । प्रगतः-महागतः । पक्खिविरालिए-पक्षिविशेषः । भग० ६२७ । आचा. ४११ । प्रकट:-प्रख्यातम् । उत्त० ३८४ । "पक्खिविरालिया-चर्मपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । पगणिया-गणनया यत्रं दीयते सा प्रगणिता । प्रकर्षणपक्खिविराली-चर्मपक्षिविशेषः । जोवा० ४१ । वक्ष्यमाणलक्षणजातिनामविशेषनिर्धारणेन पाषंडिनां गणपक्खुलणं-अधस्तात् उपरि वाऽऽस्फालनं प्रस्खलनम् । वृ० ना यस्यां सा प्रगणिता । बृ० द्वि० १४० अ० । प्रकर्षण द्वि० २०५ आ । भूमावसं प्राप्त कतिपयैरंगः प्राप्तं वा गण्या प्रगण्या पासंडोणं । नि० चू० प्र० १८६ आ। प्रस्खलनम् । बृ० प्र० २२६ प्रा । पगत-प्रकृत:-संमतः । बृ० तृ० २२ आ । प्रकृतः पक्खुलमाणि-प्रकर्षेण स्खलद्गत्या गच्छन्ति । बृ० त० | प्रकरणः । बृ० द्वि० १६७ अ । प्रकृतम् । भाव०३०६ २२८ आ । प्रकृतम् । आव० ८२२ । जेमने । नि० चू० द्वि०७२ आ। पक्खेव-अर्धपथे त्रुटितशम्बलस्य शम्बलपूरणं द्रव्यं प्रक्षेपकः। | पगता-प्रख्याता । नि० चू० प्र० ३०१ मा । वृष्णिज्ञाता० १६३ । प्रक्षेप:-प्रक्षेपणीयः । सूर्य० १६७ । दशायां पञ्चममध्ययनम् निरय० ३६ । नि० चू० प्र० ४६ अ । पगति-प्रकृति:-अंश:, भेदः । ठाणा० २२० । प्रकृति:पक्खेवाहार-कावलिके: । भग० २७ । अविशेषितः । ठाणा० २२० । पक्खोडिज्ज-प्रस्फोटनं-निरन्तरं बहु वा स्फोटनम् । दश० | पगतोउदीरणा-यन्मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा दलिक वोर्यविशेषेणाकृष्योदये दोयते सा प्रकृत्युदोरणा । ठाणा. पक्खोडिया । व्य०द्वि० ४०५ अ। २२१ । पक्खोलण-प्रस्खलद् । निरय० ३४ । पगप्प-प्रकल्प:-आचारः । प्राचा० २८१ । पक्षिगडकोकिला-अण्डजपक्षिविशेषः । आचा०७० । पगप्पएता-प्रकल्पयित्वा-विकत्त्यं वा । सत्र० ३६8 । पक्षी-सम्पातिमजीवविशेषः । आचा० ५५ । पगभ-प्रगल्भं-अतीवपरिपुष्टम् । ज० प्र० १०४ । पक्व-आसङ्कडिकः । बृ० द्वि० २६३ अ। भटित्रीकृतः । प्रगल्भ:-संपूर्णः । बृ. द्वि० ११६ अ । प्रगल्भं-अतीव (?) ४३-७४ । पुन: स्थिरो अवतिष्ठति, उल्लापभयात् । परिपुष्टम् । जीवा० २६७ । प्रगल्भ-समर्थम् । भग० कार्यमपि न शेषका उदिरन्ति । व्य० प्र० ३१६ । ४७० । पगंठग-प्रकण्ठक:-पीठविशेषः । जीवा० २०९ । पीठक- पगभइ-प्रगल्भते-धाष्टयमवलम्बते । उत्त०४४ । विशेष: । जावा. २१३,२१९ । | पगभा-प्रगल्भा-पावन्तेिवासिनी प्रवाजिका । आव० (अल्प०७६) (६२५ ) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयं ] आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः २०८ । पगयं - प्राकृतं - भोजनम् । श्रघ० ७२ । प्रकृतं - उपयोगः ! आव० २७७ । प्रकरणम् । आव० ५६० । प्रकृतं - गौरवार्हस्वजन भोजनादिकम् । पिण्ड० १०३ । प्रकृतंप्रस्तावः । आचाद ४०७ । प्रकृतं प्रकरणं प्राघूर्णंभोज नादिकम् । पिण्ड० १४८ प्रकृतः - अधिकृतो महामनुष्यः । व्य० द्वि० २४४ अ । पगरणं-प्रकरणम् । आव० ८२२ । मोघ० ६७ । प्रकरणं अनेकार्थाधिकारवत्कायप्रकरणादि । दश० १४१ । पगरिए - प्रगलित: - गलत्कुष्ठः । पिण्ड० १५७ । पगरिस प्रकर्ष:- विशिष्टार्थावगमरूपः । जीवा० २५४ । पगलिय- प्रगलितः - सातत्यव्यूढः । नंदी० ४७ । प्रगलितः क्षरितः । ज्ञाता० २६ । [ पग्गहियतरग ज्ञाता० २१ । प्रकाशी भवतीति प्रकाश:- क्रोधः । सूत्र० ६६ | प्रकाशः । आव० ६२५ । प्रकाशः अर्थः । बृ० प्र० २०२ ज । प्रकाशोऽर्थस्य प्रकाशकः । व्य० द्वि० २१ आ । पगासई - प्रभासते - दीप्यते । प्रकाशयति प्रभासते वा । आव० ४६७ । पगासण- प्रकाशन- प्रदीपादिनोद्योतकरणम्। आचा० ५० । प्रकाशनं - आलोचनम् । व्य० द्वि० १२३ अ । पगासणया-प्रकाशना-विहारविकटना अपराधविकटना चेत्यर्थः । व्य० द्वि० ६१ आ । पगासणा - प्रकाशना - प्रभासना, निर्मलीकरणम् । उत्त० ६२२ । पगासभोई - प्रकाशभोजी - दिवसभोजी । आव ० ६४७ । पग्रह - प्रकर्षेण प्रधानतया चागृह्यते इति प्रग्रहः- प्रभूत- पगासमुह - प्रकाशमुखः - विपूलमुखः । ओघ० १८२ । जनमान्यः प्रधानपुरुषः । व्य० प्र० ४६ था । पणासवादी - प्रकाशवादी - सर्वसमक्षं गुरुदोषभाषी । बृ० पग हिओ - प्रहितुमारब्धः । ( ? ) २२५ । गृद्धः । आव ० प्र० २१४ अ । पगिज्भिय - प्रगृह्य । श्रौप० १६ । प्रगृह्य - उत्क्षिप्य । आचा० ३८२ । पणिज्यि पगिज्भिय - प्रगृह्य प्रगा - पौनःपुन्येन प्रसार्यं । आचा० ३४१ । २६७ । पगहीय- प्रगृहीतः - गुरुसकाशादङ्गीकृतः । ज्ञाता० २१३ । पगाढं - प्रगाढं - प्रकर्षवत् । भग० २३१ । प्रगाढं प्रकर्ष वत् । प्रश्न० १५६ | प्रकर्षवृत्तिः । भग० ४८६ पगाम - प्रकामं चातुर्यामं उत्कटं वा । आव० ५७४ । द्वात्रिंशादिकवलाधिकं आहारं प्रकामम् । पिण्ड० १७४ । प्रकामं - अत्यर्थम् । उत्त० ६२५ । ज्ञाता० ४४ । प्रकामं - द्वात्रिंशत्कवलकाः प्रकामम् । व्य० द्वि० २२ आ । पगामस - प्रकामशः - बहुशः । उत्त० ४३३ । पगामाए - प्रकामं - अत्यर्थम् । उत्त० ५३२ । पगार - प्रचार: - प्रवृत्तिः । ज्ञाता० ४२ । पगासंति - प्रकाशयन्ति । सूर्य० ६३ । परपक्खे उभावेंति । नि० चू० प्र० १६ अ । पगास - प्रकाशः - प्रसिद्धिः । सूत्र० १४७ । प्रकाशः- प्रतिमता । जीवा० २०५ | प्रकाश:- प्रतिमता । जं० प्र० ४६ । प्रकाशः - प्रतिभा । जीवा० १६४ । प्रकाश :- प्रभा, आकारो वा । जीवा० २६७ । प्रकाशः - व्यक्तभावः । जं० प्र० ५२६ | प्रकाशः- प्रकटः । नेत्रवक्त्रादिविकाशः । अनु० पग्ग हियतर - प्रगृहीततरम् । बाचा० ३७४ । १३९ | प्रकाशो-अर्थः । वृ० प्र० ३३ | प्रकाशः- प्रभा । | पग्गहियत रगं - प्रगृहीततरकं प्रकर्षेण गृहीततरं प्रगृहीत ( ६२६ ) पग्गह - प्रग्रहः- रश्मी । भग० ४५६ । प्रग्रहः - उपादेयवाक्य: । उत० ६१६ । प्रग्रहः- प्रकर्षेण गृह्यते वचो प्रग्रहः- ग्राह्यवाक्यो - नायकः । आचा० ८९ । प्रगृह्यतेउपादीयते आदेयवचनत्वाद्यः स प्रग्रहः ग्राह्य वाक्यो-नायकः । ठाणा० ३ । प्रकर्षेण गृह्णात प्रग्रहः । अघ० २०७ ॥ प्रग्रहः । उपा० ४४ । पग्गहठाण - प्रग्रहस्थानं - यद्यस्यायुधस्य ग्रहणस्थानम् । उत्त ४२२ । पग्गहित - प्रगृहीतं आदरप्रतिपन्नत्वात् । ठाणा० २४७ । पग्ग हिय-प्रगृहीतं - भोजनार्थमुत्पाटितम्, प्रकर्षेण गृहीतत्वादोषिकम् । औप० ३७ | प्रगृहीतः - बहुमानप्रकर्षादाश्रितः । भग० १२५ । प्रगृहीतः - बहुमानप्रकर्षाद् गृहीतः । ज्ञाता० ७६ । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग्गहिया ] तरं तदेव प्रगृहीततरकम् । आच० २६२ | पग्गहिया - प्रगृहीता नाम भोजनवेलायां दातुमभ्युद्यतेन करादिना प्रगृहीतं यद्भोजनजातं भोक्तुं वा स्वहस्तादिना तद् गृण्हतः । षष्ठो पिण्डेषणा । ठाणा० ३८७ । जं असणादिगं भोक्तुकामेण कंसादिभायणे गहियं भुंजामित्ति अट्टिए चैव साधू आगतो तं चैव देति एस पग्गहिया । नि० ० ० १२ अ । प्रगृहीता-प्रकर्षेणाभ्युपगता । अनुत्त० ३ । पग्गहीय- प्रगृहीतं - भोजनार्थमुत्पाटितमिति । ठाणा० ४६५ । पसणं- पुणो पुणो पसणं । नि० चू० द्वि० ११६ अ । पङ्ककाण्ड - रत्नप्रभायां द्वितोयकाण्डम् । सम० ८८ । पचकमण - प्रचङ्क्रमणं - भ्रमणम् । ज्ञाता० ४१ । पच्चंग-प्रत्यङ्ग - कुचकक्षादि । उत्त० ४२८ । पच्चं गिर - परपोषस्यात्मनो लगनम् । बृ० तृ० २२३ अ । पञ्चचंगिरदोसो - अपरितोषः । नि० चू० प्र० १६८ अ । पच्चं गिरा - प्रत्यङ्गिर:- अपकारः । बृ० प्र० १६८ आ । पच्चंत - प्रत्यन्तं - सीमग्रामः । उत्त० १७९ । प्रत्यन्तं - प्रत्यर्थिन् । आव ० ५०६ । प्रत्यन्तः । उत्त० २२५, ३९५ । प्रत्यन्तं - सीमा । आव० ६७३ । प्रत्यन्तः । आव० ६६३ प्रत्यन्तकः - नीचकः । आव० ५५७ । प्रत्यन्तः । आव० ८१५ । प्रत्यन्तः - सीमासन्धिवर्त्ती । व्य० प्र० १७० आ । पच्चंतगाम - प्रत्यन्तग्रामः । आव० ३५१ । पच्चंतणगर - प्रत्यन्तनगरं, शिक्षायोगदृष्टान्ते जितशत्रुराज उत्त० १०३ । पच्चक्वं - इन्द्रियार्थं संनिकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं यत्रात्मार्थग्रहणं प्रति साक्षाद् व्याप्रियते तदेव प्रत्यक्षम् । सूत्र० २२५ । प्रत्यक्षं - साक्षात् । आचा० ३० । अभाति अश्नते - व्याप्नोति अर्थानिति अक्षः - आत्मा तं प्रति यद्वत्तंते ज्ञानं तत् प्रत्यक्षं निश्चयतोsवधिमनः पर्याय केवलानि, अक्षाणि वेन्द्रियाणि प्रति यत्तत्प्रत्यक्षव्यवहारतः चक्षुरादिप्रभवम् । ठाणा० २६३ । अश्नुते - ज्ञानात्मना अर्थानु - व्याप्नोतीति अक्षो- जीवः, 'अशु भोजने' इत्यस्य वा अश्नाति भुङ्क्ते पालयति वा सर्वार्थानित्यक्षो - जीव एवं प्रतिगतं प्रभितमक्षं प्रत्यक्षम् । अनु० २११ । अक्षं-जीवं अक्षाणि वेन्द्रियाणि अतिगतं प्रत्यक्षम् । भग० २२२ । तं प्रत्यव्यवधानेन यद्वतंते ज्ञानं तत्भवति प्रत्यक्षम् । बृ० प्र० ८ अ । प्रत्यक्षः प्रवधिमनःपर्यायकेवलाख्यः, स्वयं दर्शनलक्षणः |ठाणा० १५१ । प्रत्यक्षअव्यवहितत्वेनार्थं साक्षात्करणादक्षमिति । ठाणा० ५० । प्रत्यक्षं - इन्द्रियमनोनिरपेक्षमात्मनः साक्षात्प्रवृत्तिमदवष्यादिकम् । नंदी० ७१ । , पच्चवखाओ - प्रत्याख्यातोति प्रत्याख्याता - गुरुविनेयः । अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ [ पच्चक्खाण पच्चइय-प्रत्ययः कारणम् । आव० २७ । प्रत्ययः कारणं शपथ: ज्ञानं हेतुः विश्वासः निश्चयश्च । नंदी० ७६ । पच्चए - पाच्यते-वेद्यते अनुभूय पर्यन्तं नीयते । विशे० ८५१ । प्रत्ययः - प्रतीतिरविसंवादिवचनम् । ज्ञाता० २२ । पच्चओ-प्रत्ययः - कारणम् । प्रज्ञा० ५३६ । प्रत्ययः । घानो । आव० ६७८ । पच्चंत णय रं - प्रत्यन्तनगरं नीचनगरम् । आव० ७१६ ( ? ) । आव ० ८०३ । पच्चंत राया- प्रत्यन्तराजः । आव० १७३ । पच्चंता - प्रत्यन्तः, म्लेच्छाद्युपद्रवोपेतः । बृ० प्र० २३१ अ । प्रत्यन्ताः - सीमावर्तिनः । व्य० ( ? ) । पच्चंति - प्रत्यन्तदेश:- म्लेच्छाद्युपद्रवोपेतः । ओघ० ६३ । पच्यन्ते । दश० ८७ । नि० चू० प्र० ६ अ । पच्चतिओ - प्रत्यन्तिकः । आ० ३०६ (१) । पच्चंतिय- प्रत्यन्तः । आव० ३५८ । पच्चतियविसए - देसविसेसो । नि० चू० प्र० २०८ आ । पच्चतिय सुणओ-प्रत्यन्तिकश्वा । आव० ७११ पच्चइग - प्रत्ययितः । आव० ६६४ । पच्चक्खाण-प्रत्याख्यानं नमस्कारसहितादि । ठाणा० १२६ । प्रत्याख्यानं - निवृत्तिद्वारेण प्रतिज्ञाकरणम् । ठाणा० १५६ । प्रत्याख्यानं - निवृत्तिः । ठाणा० ४६८ । प्रत्याख्यानं - निरोधप्रतिज्ञानम् । जिनकल्पदिप्रतिपत्या परिहारः । भग ७२७ । प्रमादप्रातिकूल्येन मर्यादया ख्यान कथनं प्रत्याख्यानं - विधिनिषेधविषया प्रतिज्ञा । ठाणा० ४४ । प्रत्याख्यानं - नमस्कारसहितादि ठाणा० २३६ । सम० १२० । प्रत्याख्यान:- निरोधलक्षणः । उत्त० ५८६ । प्रत्याख्यानं नवमं पूर्वम् । ठाणा० १६६ । प्रत्याख्यानं - पौरुष्यादिनियमः 1 भग० १०० । प्रत्याख्यानं - ( ६२७ ) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खाणकिरिया 1 आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ पच्चप्पिणह पौरुष्यादिविषयम् । भग० ३२३ । नवमं पूर्वम् ।। एज्यमकरणतयेति । आव० ७६२ । प्रत्याख्यातं-वजितसम० २६ । प्रत्याख्यानं-नमस्कारसहितादि । ज्ञाता० मनागतकालविषयम् । भग० ३६ । प्रत्याख्याता-अन१३४ । प्रत्याख्यान-निवृत्तिः । भग. २६६ । प्रत्या. शनस्थः । आव० १३२ । हेत्वभावतः प्रत्याख्यातम् । ख्यानम् । उत्त० १७६ । प्रत्याख्यानं सूत्रकृताङ्गस्य दश० १५१ । विशतितममध्ययनम् । उत्त० ६१६ । प्रत्याख्यानं- पच्चक्खावितओ-प्रत्याख्यापयन्तीति प्रत्याख्यापयितानिषेधलक्षणम् । आ० ४७८ । प्रत्याख्यानं-अनागतस्य शिष्यः । आव० ८६० । स्थूलप्राणातिपातदेरेव । प्रज्ञा० ३६६ । प्रत्याख्यान- पच्चगिरा-अविश्वस्तः । नि० चू० तृ० १६ अ. पौरुष्यादिः । भग० १३६ । पच्चगिरादोस-प्रत्यङ्गिरादोष:-परकीयोऽप्यात्मनि लगपच्चक्खाणकिरिया-प्रत्याख्यानक्रिया,सूत्रकृताङ्गे चतुर्थम- तीत्यर्थः । बृ० प्र० ३०८ म। ध्ययनम् । आव० ६५५ । पच्चडं-पुघडं-पूर्णम् । नंदी० । पच्चक्खाणप्पवाय-प्रत्याख्यानप्रवाद-प्रत्यख्यानं सप्रभेदं पच्चड्डिया-प्रत्यड्डिका-द्वात्रिंशत् लौकिकमबद्धकरणम् । यद्वदति तत् प्रत्याख्यानप्रवादं नवमं पूर्वम् । नंदो २४१ ।। आव० ४६५ । पच्चक्खाणफल-विनिवृत्तिफलम् । भग० १४१ । पच्चणीग-मोक्षप्रत्यनीकत्वात् प्रत्यनीकः, सेज्जायरधूअपपच्चक्खाणस्स अट्र-प्रत्याख्यानार्थ:-आश्रवद्वारनिरोधः ।। च्चणीगोवलक्खणाओ वा पच्चणीगो लोभो भण्णति । भग० १००। नि० चू० प्र० ७७ आ। पच्चक्खाणा-प्रत्याख्याना-मूलगुणोत्तरगुणविषयम्, योग- पच्चणीय-प्रत्यनीक:-छिद्रान्वेषी। जीवा० २८० । प्रत्य संग्रहे त्रयोविंशतितमचतविशतितमौ योगी। आव०६६४।। नीक-दरभव्यता, अभव्यता । सर्य. २९६ । पच्चक्खाणावरण-प्रायाख्यानं सर्वविरतिलक्षण: तस्याऽऽ. पच्चणुब्भवमाण-प्रत्येकमनुभवत् । जीवा० २०१। वरणम् । विशे० ५४५ । प्रत्याख्यान-आमर्यादया सर्व. भवमाणा-प्रत्येकमनुभवनम् । ज० प्र०४७ । विरतिरूपमेवेत्यर्थों वृणोतीति प्रत्याख्यानावरणः । ठाणा. मवमाणी-प्रत्यनुभवन्ती-वेदयन्ती ।ज्ञाता० २०४॥ १९४ । चतुर्षु कषायेषु तृतीयः । सम० ३१ । प्रत्याख्यानं-पच्चति-पच्यते । प्राव. २०६ । सर्वविरतिरूपमाद्रीयते यैस्ते प्रत्याख्यानावरणः । प्रज्ञापच्चतिते-प्रत्ययात-इन्द्रियानिन्द्रियलक्षणानिमित्ताज्जातः 'प्रात्ययिकः आप्तवचनप्रभवः । ठाणा० १५१ । पच्चक्खाणी-याचमानस्य प्रतिषेधवचनं प्रत्याख्यानी । पच्चस्थिग-प्रत्यर्थिक:-प्रत्यनीकः । पिण्ड० १३१ । पडि. प्रजा० २५६ । प्रत्याख्यानो-असत्यामृषाभाषाभेदः ।। णीओ । नि० चू० तृ० ६३ अ । दश० २१० । पच्चस्थिम-पश्चिमदिक । ठाणा० ६८ । पच्चक्खातं प्रत्याख्यानं-परिहारः । आव० ८५६ ।। पच्चत्थिया-प्रत्यनीका । नि० चू० द्वि० ९८ आ। पच्चक्खामि-प्रतापमभिमुखं ख्यापनं सावद्ययोगस्य करोमि- पञ्चत्थो-प्रत्यर्थी-परस्माद् मयेदं लभ्यमिति याचते । प्रत्याख्या । आव० ४५५ । प्रतिशब्द:-प्रतिषेधे आङा. व्य० प्र० ४ अ । भिमुख्य ख्या-प्रकथने, पतोपमभिमुखं ख्यापनं प्रत्या- पच्चत्य-प्रत्यवस्तृत-आच्छादितम् । जीवा० २१० । ख्या । द० १४४ । प्रत्याचक्षे-संवृतात्मा सांप्रतम- प्रत्यवस्तृतः-पुनः पुनराच्छादितः । ज्ञाता० १२५ । नागं प्रतिषेधस्य आदरेणाभिधानं करोमि । दश० १४४ । प्रत्यवस्तृत:-आच्छादितम् । जं० प्र० ५५ । पच्चरवायं-प्रत्याख्यातं-सर्वविरतिप्रतिपत्तितः प्रतिषे. पच्चप्पिणमारणे-प्रत्यर्पयितुम् । ठाणा० ३१२ । धितम् । प० ८५ । प्रत्याख्यातं-भूयोऽकरणतया | पच्चप्पिणह-प्रत्यर्पयत-कृतां सती निवेदयत । ज्ञाता. पिस । प्रज्ञा० २६८ । प्रत्याख्यातं-अतीतं निन्दया। २१ । प्रत्यर्पयत-निवेदयत । भग० ३१७ । ( ६२८ ) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चप्पिणेयवो] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [पच्चपन्नविणासि पच्चपिणेयम्वो-प्रत्यर्पणीयः । आव० ४१६ । | पच्चापिच्चियए-बल्वजः-तृणविशेष: तस्य पिच्चियंति पच्चब्भासो-प्रत्याभ्यास:-प्रत्युच्चारणम् । विशे० ११५३ ।। कुट्टितत्वक् तन्मयम् । स्था० ३३८ । पच्चभि -प्रत्यभिजानीयात-अनुमिनुयात् । अनु० | पच्चामित्त-प्रत्यामत्र:-प्रातिवाश्मकः ।। | पच्चामित्त-प्रत्यमित्र:-प्रातिवेश्मिकः । ज्ञाता० ५६ । २१३ । प्रत्यभिजानीयात् । आव० ९२३ । प्रत्यमित्र:-वस्तु २ प्रति अमित्रः । ज्ञाता० ८७ । प्रत्ययपच्चमित्त-प्रत्यमित्र:-प्रातिवेश्मिकनृपः । औप० १२ । । मित्रं-अकारणवत्सलः । राज० १० । प्रत्यमित्र:-य: पूर्व मित्रं भूत्वा पश्चादमित्रो जातः । पच्चामित्तता-अमित्रसहायता । भग० ५५१ । जीवा० २८० । पच्चामित्तेइ-प्रत्यमित्र:-यः पूर्व मित्रं भूत्वा पश्चादमित्रो पञ्जय-प्रत्यय:-निमित्तकारणम् । विशे० ७२४ । प्रत्ययः- जातः अमित्रसहायो वा। (?) । अवबोधः । ठाणा० १३ । प्रत्ययः-सर्वातिशयनिधान- पच्चायाइ-प्रत्यायाति:-प्रत्यागमनं,प्रत्याजातिः प्रतिजन्म । मतीन्द्रियार्थीपदर्शनाव्यभिचारि । सम० १२५ । प्रत्ययं- स्था० २०२ । प्रत्याजायते उत्पद्यते । भग० १११ । बन्धनकारणम् । आचा० ११ । प्रत्यायाति-प्रख्याति याति । सूत्र० ३१० । प्रत्यायातिपच्चयकरणं-प्रत्ययकरणं-दूषणापोहेन प्रतीत्युत्पादनम् । आगच्छति । जीवा० २६२ ।। ज्ञाता० १९१ । पच्चायति-प्रत्याजायते-उत्पद्यते । उपा० २८ । पच्चयकसाए-प्रत्ययकषायाः कषायाणां ये प्रत्ययः-यानि पच्चायाता-प्रत्याजातं-जन्म । ज० प्र० १६६ । बन्धकरणानि ते चेह मनोज्ञेतरभेदाः शब्दादयः।नाच०६१|| पच्चायाती-प्रत्यायाति-जन्म । ठाणा० ३५५ । प्रत्ययकषायः-खल्वान्तरकरणविशेषः तत्पुद्गललक्षणः । पञ्चायाय-प्रत्याजातं-जन्म । भग० ३०८,४। प्रत्यायात:आव० ३६० । प्रतिनिवृत्य आगतः । नि० (?) १०५। पच्चयय-प्रत्ययः-ज्ञानकरणं, प्रतीयतेऽनेनार्थ इति । सक- | पञ्चायाहिइ-प्रत्याजनिष्यते । स्था० ४६१ । लावरणक्षयाय उत्पत्तिरेव वा । जं० प्र० ४१ (?) । पञ्चालीढं-आलोढविवरीयं । नि० चू० तृ. १० । पच्चला-प्रत्यलो। उत्त० १०५ । प्रत्यालोढं-आलोढविपरीतं, लोकप्रवाहे द्वितीय स्थानम् । पच्चलिया-प्रत्याढिता-जागरिता । आव० ६६०। आव० ४६५। . . पच्चवत्थाणं-प्रत्यवस्थान-शब्दार्थन्यायतः परोपन्यस्तदोष- पञ्चावड-प्रत्यावर्त्तः-आवर्तस्य प्रत्यभिमुख आवतः । परिहाररूपम् । उत्त० २० ।। जीव० १८६ । पच्चवयार-प्रत्यवतार:-अवतरणं, आविर्भाव इति । जं० । पञ्चावत्त-एकस्यावर्तस्य-प्रत्यभिमुखः आवर्तः प्रत्यावर्तः। प्र. १८ । - ज० प्र० ३१ । पच्चवाय-प्रत्यपायः । आव० ६३२ । प्रत्यपायं-व्याघ्रादि- पञ्चासन्नत्त-प्रत्यासन्नत्वं प्रत्यासत्तिः-सादृश्यम् । विशे. प्रत्यपायम् । आव० ३८४ । प्रत्यपाय:-दोषः । ओघ० १७२ । १६ (?) । एकस्मिनु पथि गच्छतां दिवा प्रत्यपायः । पञ्चासूरण-प्रत्यासूरणं-संमुखीभूय युद्धकरणम् । व्य० प्र. ओघ०६६ । प्रत्यपाय:-उपघातहेतुऽध्यवसाननिमित्तादिः ।। | १४२ आ। उत्त० ३३५ । ऐहलौकिक: अपायः । वृ० द्वि० (?)। पच्चाहरय-प्रत्याहरत:-व्याकुर्वतः । सम० ६२ । पच्चाउट्टणा-आवर्तनं प्रति ये गता अर्थविशेषेषुत्तरोत्त- पच्चूढयंतो-परिवूढं । नि० चू० द्वि० १६८ आ। रेषु विवक्षिता.अपायप्रत्यासन्नतरता बोधविशेषास्ते प्रत्या- पच्चुण्ण-प्रत्युतम् । दश० ४४ । वर्तना । नंदो० १७६ । | पच्चुत्थए-प्रत्यवस्तृत-आच्छादितम् । ज्ञाता० १५ । पच्चाओढो- । नि९ चू० प्र० २४४ अ। पच्चुपनविणासि-प्रत्युत्पन्नविनाशि-प्रत्युत्पन्न-वर्तमानलब्ध पच्चाणि-सन्मुखम् । व्य० द्वि० १८३ अ । बरिस्वत्यर्थों विनाशितं-उपहतं येन तत्तथा. प्रत्युत्पन्नं (६२९ ) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चुप्पण] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पच्छाणुपुव्वी विनाशयतीत्वं शीलं प्रत्युत्पन्नविनाशि वा । ठाणा०६८। पञ्चोसक्कइ-प्रत्यवसपति व्यावर्त्तते । भग० ५७६ । पच्चुप्पण-प्रत्युत्पन्न:-गुणितः । प्रज्ञा० २८० । | पञ्चोसति-प्रत्यवष्वष्कते-पश्चादवसति । सूर्य०२८९ पच्चुप्पण्ण-प्रत्युत्पन्नं-साम्प्रतमुत्पन्न वर्तमानमित्यर्थः-प्रति | पच्छंत-पुरोहडं वा वच्चं । नि० चू० प्र० १६३ अ । प्रतिवोत्पन्न-भिन्नव्यक्तिस्वामिकं वा । आव० २८४ ।। पच्छंभाग-पश्चाद्भागः । स्था० ४६६ । पश्चाद्भागः । पच्चुप्पण्णपरायण-प्रत्युमपरायणः-प्रत्युत्पन्नं-वर्तमानं । सूर्य० १०४ । तस्मिन्परायणः तनिष्ठः । उत्त० २७५ । पच्छ-प्रच्छनकम् । विपा. ७१ । पच्चुप्पण्णा-सहजायगादि मित्ता। नि० चू० तृ० २६ । पच्छकम्म-पश्चात्कर्म-यस्पुनर्भक्तादेदानात्पश्चारिक्रयते तत् पच्चुप्पन्न-साम्प्रतमुत्पन्न प्रत्युत्पन्न वर्तमानकालभावि । पश्चात्कर्मः । पिण्ड, १४६ । अनु० २६५ । प्रत्युत्पन्न:-अप्राप्तपूर्वो वर्तमान इत्यर्थः । पच्छणं-हस्वैः क्षुरादिभिस्त्वचो विदारणम् । विपा० ४१॥ भग० ३६६ । पच्छणणं-प्रक्षणनं-जीरणम् । प्रश्न. १६४ । पच्चुरस-प्रत्युरसं-सम्मुखम् । पिण्ड० ७६ । प्रत्युरसं- पच्छ गा-प्रक्षणाति-हस्वानि त्वचो विदारणानि । ज्ञाता. गुरोरभिमुखम् । ओध० १८२ । १८१ । पच्चवगार-प्रत्युपकारः । इत्त० २२० । पच्छदं-प्रच्छदो-वस्त्रविशेषः । ज्ञाता० २२१ । पच्चुवसति-प्रत्युपशमयति । आव० १२२ । पच्छन्न-प्रच्छन्नं-अगीतार्थासमक्षम् । ठाणा० २०३ । पच्चुवेक्ख-प्रत्युपेक्ष्य-पर्यालोच्य । सूत्र० ४२६ । पच्छन्नपाव-प्रच्छन्नपापः-कूटप्रयोगकारी। आव०५८९ । क्षते-निरीक्षते । औप० ६४ । पच्छन्नभासी-प्रच्छन्नभाषो-सिवान्तार्थमविरुद्धमवदातं सा. पच्चुवेक्खमाणे-समुत्पेक्षमाणो-व्यापारयन् ।राज० ११॥ वजनीनं तत् प्रच्छन्नभाषणेन गोपकः, प्रच्छन्न वाऽर्थमपरिपच्चूसं-प्रत्यूष:-कालविशेषः । ओष० २२ । प्रत्यूषः ।। णताय भाषकः । सूत्र. २५१,१५ ।। आव० ३७०, ५७७ । रात्रैः चरमप्रहरः । स्था० २१४ । | पच्छय-प्रच्छदः-वस्त्रविशेषः । भग० ३१८ । प्रत्यूषकाललक्षणः । ज्ञाता० २१ । पच्छवत्थुग-प्रश्वादास्तुकं-पश्चाद्ग्रहकम् । प्रश्न १३८ । पच्चोअड-प्रत्यवतट-आच्छादनः । ज०प्र०५८ । प्रत्य- पच्छा-पश्चाच्छदः-पश्चादनुपूर्व्यभिधायी।व्य०प्र०११९ । . वतटानि तटसमीपवय॑म्युन्नतप्रदेशाः । ज० प्र०२६१।। पच्छाइंताण-पश्चादतियतामागच्छताम् व्य० द्वि० ३६६ आ पच्चोगलिय-प्रत्यवगलितः । आव. ५५८ । पच्छाकड-जेण चारित्तं पच्छाकडं उत्रिखंतो भिक्खं पच्चोणियत्तं-प्रत्यवनिवृत्तं-अधःपतितम् । प्रश्न० ५.। हिंडइ वा न वा। नि० चू० तृ० ८४ आ। नि० चू० प्र० पच्चोणी-सन्मुखागमनम् । पिण्ड० १२८ ।। १२० अ । पश्चात्कृतकः । आव. १९१ । व्य०वि० पच्चोणीए-संमुखं । नि० चू० द्वि० ६७ अ । २७५ मा । पश्चात्कृतं-पराजितः । बृ० प्र० १५१ आ। पच्चोयड-प्रत्यवतट-तटसमीपवर्ती अत्युन्नतप्रदेशः। जीवा० पच्छाकम्म-पश्चात्-दानानन्तरं कर्म-भाजनघावनादि यत्रा१६७ । अवच्छादितः । राज० ७१ । प्रत्यवतटः- शनादी तत् पश्चात्कर्म। प्रश्न० १५४ । पश्चाद्भोश्याम इति आच्छादनः । जीवा० २१४ । पश्चात्कर्म । दश० २०३ । पच्चोयडाओ-प्रत्यवतटानि-तटसमीपवर्त्य भ्युनतप्रदेशा पच्छाकायिय-पश्चात्कायिकम् । आव ० २१७ । यासां ताः । ज. प्र. ४१ । पच्छाग-प्रच्छादक:-कल्पः । ओघ० २०८ । पच्चोरुहह-प्रत्यवरोहति । ज्ञाता० १६। प्रत्यवरोहति-पच्छाणतावय-पश्चादनुतापक:-पश्चात्तापकृत् । उत्त. मध्ये प्रविशति । जीवा० २५४ । ३४० । पच्चोवयमाण-प्रत्यवपतत् । भग० ७२१ । | पच्छाणुपुव्वो-पाश्चात्य:-चरमसोमादारभ्य व्यत्ययेन वापञ्चोवयंत-प्रत्यवपतन-प्रतिनिवर्तमानः । प्रश्न०७६ । नुपूर्वी-परिपाटि: विरच्यते यस्यां सा निरुक्तविधिना (६३०) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ पछाणुस ] पश्चानुपूर्वी । अनु० ७३ । पच्छाणुस ए- पश्चादनुशयः - पश्चातापः । प्रश्न० १८ । पच्छातुरस्स-पश्चाद् अस्मिन् राजादौ प्रव्रजिते सति आतु रस्य । ज्ञाता० १०२ । पच्छा पुरा - विवक्षितकालस्य पश्चात् पूर्वं च सर्वदैवेत्यर्थः । भग० १२२ । पच्छावाया-पथ्या वाता - वनस्पतीनां सामान्येन हिता पजगो-साङ्करोऽनङ्कुरो वाऽनन्तवनस्पतिः । पञ्चवर्णः । वृ० वायवः पश्चाद्वाताः । ज्ञाता० १७१ । पच्छासंखडि - पश्चात्सङ्खडि:- मृतकसङ्घडि: । प्राचा० ३३०| | पच्छासंखडी - अपरसूर्ये - पच्छासंखडी, अपरस्यां दिशि पच्छासंखडी । बृ० द्वि० १३५ । मज्झव्ह पच्छतो पच्छासंखहो । नि० चू० प्र० ३१० अ । अपराण्हे तु क्रियमाणा पश्चात् सङ्खडी । बृ० तृ० १७६ आ । पच्छा संथुय पश्चात्संस्तुतः श्वसुर कुलसंबद्धः । आचा० ३३६ । पश्चात्संस्तुत:- यदन्तिकेऽधीतं श्रुतं वा तत्संबंधि - नो वाऽन्यत्रावासितः । आचा० ३५३ । पश्चात्संस्तुतः - श्वसुरादिः । आचा० ३५१ । पच्छासंथव - पश्चात्संस्तवः श्वश्रवादिकरूपनया परिचयकरणम् । पिण्ड० १२१ । पच्छितं प्रायसो वा चितं जीवं शोधयति कर्ममलिनं विमलीकरोति तेन प्रायो वा बाहुल्येन चित्तं स्वेन स्वरूपे अस्मिन् सतीति प्रायश्चितम् । आव ०७८२ । पच्छित्तणुवातो - जहा सब्वे मासगुरुसुत्ता पढमुद्दे से अणुवत्तिया, वितियादिसु मासलहु, छट्टादिसु चउगुरु, बारसमादि चहु | अहवा पच्छित्तणुवातो पणगादिजोगो जाव चरिमं । नि० चू० तृ० १४५ आ । पछि पय-पच्छिकापटिकम् । राज० १४१ । पच्छिपिए-पच्छिकालक्षणपिटकः । भग० ३१३ । पच्छिमकंठभाउवगता' सूर्य ६५ । पच्छिमकाल - पश्चिमः कालः - पाश्चात्यवयः । पिण्ड० १७७ । पश्चिमकाल:-संलेखनाकालः | ओघ० १५६ । पच्छिमग - पश्चिमक:- चरमाः । ठाणा० २६६ ॥ पच्छिमयय- पश्चिमवयः । आव० १३७ | पच्छियपिडगंपच्छुद्दि - परिच्छगारिएण उट्टि तं पच्छुट्टिं । नि० । अन्त० १९ । [ पज्जत्ति चू० तृ० २६ अ ! पच्छोलंति - पृष्ठतो मुखां चपेटां ददाति । जं० प्र० ४१६ । पच्छोलेइ-पृष्टतो मुखां चपेटां ददाति । भग० १७५ । पछि संजमो - अहवखायचारितं । नि० चू द्वि० ७ अ 1 पछिमा तवा - सुहुम किरियानियद्दी वोछिन्नकिरियमप्पडिवाई च एते पच्छिमा तवा । नि० चू० द्वि० ७ अ । तृ० १६६ आ । पजणणं - प्रजन्यतेऽपत्यं येन तत् प्रजननं शिश्नं-लिङ्गम् । सूत्र० १०३ । प्रजनन:-मेहनः । ठाणा० १३८ । पजीवण-प्रजीवनकं - जीवनहेतुकं द्रव्यम् । पिण्ड० १३८ । पज्जंत- पर्यन्तः - विभागः । प्रश्न० १८ । पर्याप्तः शक्तः । भग० ६८४ । पज्ज -पादहितं पाद्यं पादप्रक्षालनस्नेहनोद्वर्त्तनादि । ज्ञाता० २०६ । पद्यं - छन्दोनिबद्धम् । ठाणा० २८८ । वृत्तादि यत् गीयते तत् पद्यम् । ज० प्र० ३६ | पाद्यम् । आव० ३०० । पद्यं - ''पज्जं तु होइ तिविहं सममद्धसमं च नाम विसमं च । पाएहि अक्खरेहि य एव विहिष्णू कई बेति ॥ १७४ ।। " दश० ८७ । पङ्खणं-सज्जणं कलमोदणं उप्फोसणं धावणादिकिरियामो य । नि० चू० द्वि० १६६ अ । पायनम् । आव० ५१५ । पज्जणघडिया - पायनघटिका | आव० ५१४ | पज्जणया-पायनताः । बृ० प्र० १०१ अ । पज्जत - पादकप्पितो । नि० ० द्वि० ११६ आ । पर्शात । बृ० प्र० ३० अ पत्ता - पर्याप्ता - या एकपक्षे - निक्षिप्यते सत्या वा मृषा वेति तद्व्यवहारसाघनी सा पर्यासा, प्रथमे द्वे भाषे सत्यामृषे पर्याप्त तथास्वविषयव्यवहारसाघनात्, भाषाभेदः । दश० २१० । पज्जत्तापज्जत्तिय - पर्याप्तापर्याप्तिका - शरीरेन्द्रियपर्याप्तिनिर्वर्त्तनोच्छ्वास - पर्याप्त्यनिर्वर्तनसमर्या । प्रज्ञा० ४६० ॥ पज्जत्ति-पर्यातिनाम - महारादिपुङ्गलग्रहणपरिणमन हेतुरास्मन: शक्तिविशेषः । प्रशा० ४७४ । पर्याप्तिः-शक्तिः । बृ० प्र० १८४ आ । पर्याप्तिः-स्वविषयग्रहणसामर्थ्य( ६३१ ) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्धत्तियं ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पज्जवपेयालणा लक्षणा । आव० ३४१ । अवस्था । ठाणा० ४७ । परि:-सर्वतो भावे अवनं 'पद्धत्तियं-पर्याप्तम् । उत्त० १६३ । । अवः पर्यवः । ठाणा, ३४८ । परि-सर्वको भावे अवनं पज्जत्तिया-या प्रतिनियतरूपतया अवधारयितुं शक्यते अवः, अवनं अवः, अवनं-गमनं, पर्यवः पर्यवनं वा पर्यव सा पर्याप्ता, भाषायाः प्रथमो भेदः। प्रज्ञा० २५५।। इति । आव० ८। परि:-समन्तादपगच्छति न पुनद्रव्यपजतो-पर्याति:-आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः वत् सर्वदेव तिष्ठतोति पर्यायः । परिः-सामस्त्येन एतिशक्तिविशेषः । जीवा० १० । पर्याप्तिः-नामशक्ति:- अभिगच्छति व्याप्नोति वस्तुतामिति वा पर्यायः-एकगुणसामर्थ्य विशेषः । ठाणा० ५४ । पर्याप्तिः-प्रात्मशक्तिः ।। कालत्वादिरेव । अनु. १११ । पर्यायः, प्रत्ययकारणम् । नंदी० १०४। पर्याप्तिनाम आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणम- विशे० ६५१ । पर्यव:-परिः समन्तादवति-अपगच्छति नहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः स च पुद्गलोपचयादुपजायेता(?)। न तु द्रव्यवत्सर्वदैवावतिष्ठत इति पर्यवाः । अथवा परि:पर्याप्तिः-आहारादिपुद्गलग्रहणपरिमणन हेतुरात्मनः शक्ति- समन्ताद् अवनानि-गमनानि द्रव्यस्यावस्थान्तरप्राप्तिरूपा. विशेषः । नंदो० १०४ । पर्याप्ति:-समस्तपर्याप्तिता ।। णीति पर्यवा:-एकगुणकालत्वादिः । अनु०१११ । पर्याय:उत्त० १४५ । भेदः । दश० २६० । पर्यव:-अपगमः । दश० २७७ । पज्जपावणं-प्रजल्पकारणम् । भग० ५४४ । पर्याय:-नारकत्वादिरेककृष्णस्वादिश्च । अनु० १०५ । पज्जय-पर्यायः-परिपाटो प्रस्तावः । उत्त० ६६८ । पज्जवकाय-पर्यायान्-वस्तुधर्मान् आश्रीत्य कायः पर्यायप्रार्यक:-पितामहः । उत्त. १८ । पितामहः । आव. कायः । आव० ६६७ । ३०५ । प्रार्यक:-पितामहः । आव० ३५७ । पर्ययः- पज्जवजाए-पर्यवजातं तैरेव वाग्निस्पृष्टभाषाद्रव्यर्यानि पर्यायः परिपाटिः । भग०४७० । प्रार्यक:-पितुः पिता. विश्रेणिस्थानि-भाषावर्गणान्तर्गतानि निसृष्टद्रव्यपराघामहः । ज्ञाता. ४६ । प्रार्यक:-पितुः पितामहः । पर्ययः- तेन भाषापर्यायत्वेनोत्पद्यन्ते तानि द्रव्याणि पर्यवजातमिपर्यायः । भग० ४७० । त्युच्यन्ते । आचा० ३८५ । पर्यवः-ज्ञानादिविशेषा पज्जयण-अयनं-गमनं वेदनमित्ययः। परि:-सर्वतो भावे. जाता यस्य स पर्यवजातः । ठाणा० १६ । पर्ययनं सर्वतः-परिच्छेदनम् । विशे० ५५ । पजवजात-पर्यवजातं-सूत्रार्थप्रकारम् । ठाणा० ३०१ । पज्जरत-रत्नप्रभायां महानरके षष्ठः । ठाणा० ३६५ । पर्यवयात:-पर्यवानु पर्यवेषु यात:-प्राप्तः पर्यवयातः ।. पज्जलण-प्रज्वलयति-दीपयति वर्णवादकरणेन मागधव- ठाणा. २२ । पर्यवः-अवस्थान्तरं जातो यत्र तत् दिति प्रज्वलन इति । ठाणा० १९३ ।। पर्यवजातम् । प्रश्न १५४ । पज्जलियरोस-प्रज्वलितरोषः । आव० ५६६ । पज्जवजाय-पर्यवा:-ज्ञानादिविशेषा जाता यस्य स पर्यपज्जव-पर्यव:-शब्दपर्यवार्थः पर्यवरूपः । उत्त० ७१३ । वजातः; विशुध्यति । ठाणा० २१ । पर्याय:-नवपुराणादिः क्रमवतिधर्मः। प्रश्नः ११७ । पज्जवलायसत्थ-पर्यवजातशस्त्रं-शब्दादीनां विषयाणां पयायः-भङ्गकादिप्रकारः । ६० द्वि०१९७ । परि:- | पर्यक:-विशेषास्तेषु तनिमित्तं जातं शस्त्रं पर्यवजातशस्त्रं सर्वतो भावे, पर्यवनं समस्तात् परिच्छेदनम् पर्यवः। विशे० शब्दादिविशेषोपादानाय यत्प्राण्युपघातकार्यनुष्ठानं तत् । ५५ । पर्यायः-गुणो विशेषो धर्मश्च । प्रज्ञा० १७६ । पर्यवः । आचा० १५६ । भग० ८८६ । पर्यवम् । उत्त० ६०६ । पर्याय:- पज्जवट्ठिय-पर्यवस्थितः । प्रज्ञा० ३२७ । अगुरुलघ्वादिः । आचा० ७ । पर्यव:-विशेषः । आचा० पज्जवनाम-पर्यायनाम-तत्तद्धर्माश्रिताभिधानम् । प्रश्न १५६ । पर्यवा:-कालकृता अवस्था, यथा नारकत्वादयो बालस्वादयो वा । सम. ११२ । पर्यवः-परिरक्षा-पज्जवपेयालणा-पर्यवपेयालना-पर्यायप्रमाण करणं-पर्यायपरिज्ञानम् । ठाणा. २२ । पर्यव:-परिच्छेदः विशेषः, संहति विवक्षा वा । पिण्ड० २६ । (६३२) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जवभंगसुहुमता] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [पज्जोसवणा पज्जवभंगसुहमता-परमाण्वादीसु वण्णगंधरसफासेसु एग- | पज्जुण्ण-द्वारावत्यां कुमारः । ज्ञाता० २०७ । प्रद्युम्नः । गुणकालगादि पज्जवभंगसुहुमता। नि० चू० तृ• ६७ आ। आव० ६४ । पज्जवयात-पर्यव जातं-जातविशेषं स्फूटतया भविष्यतीति । पज्जुतं-पौद्गलिकं भोजनम् । बृ० तृ. ५८ अ । ठाणा० ३५० । पज्जुन्न-प्रद्युम्न:-अध्युष्ठकुमारमुख्यः । अन्त० २ । पज्जवलाभ-पर्यवलाभ: पर्यवप्राप्तिः । प्राव० ४२ । चुतुविधमेधेसु द्वितीयः ।' ठाणा. २७० । प्रद्युम्न:पज्जवलीढ-प्रतिजर्णतया कुत्सिते वर्णान्तरयुक्ते स्फुटिते अन्तकृद्दशानां चतुर्थवर्गस्य षष्ठममध्ययनम्'। अन्त. वा । ६० द्वि० ६२ अ । १४ । प्रद्युम्न:-यदोरपत्य: । प्रभ०७३ । ज्ञाता० २१३ । पज्जवसंखा-पर्यवसला । अनु० १३३ (?) । द्वारामत्यां कुमारविशेषः । शाता० १०० । पज्जवसाण-पर्यवमानं-संसरणपर्यन्तः । ठाणा० ३४६ । पज्जुन्नसेण-प्रद्युम्नसेनः । उत्त० ३७६ । पर्यवसानं-निष्ठाफलम् । प्रश्न० १३६ । पर्यवसानम् । पन्जुवासण-पर्युपासनं-सेवा । भग० ११५ । सूर्य १२ । पज्जुवासणया-पर्युपासनं-सेवा एतद्भावस्तत्ता तया । पज्जवसिया-पर्यवसिता-निष्ठां गता । प्रशा० २५६ ।। ज्ञाता० ४४, ४५ । पज्जवा-पर्यव:-बुद्धिकृता निविभागा भागाः, एकगुण ना-सेबा । ठाणा० १५६ । श्वेतत्वादयः । ज० प्र० १२८ । पर्यवा:-द्रव्यगुणाश्रिताः पज्जुवासमाण-पर्युपासीन:-सेवमानः । भग० १४ । । उत्त० ५५७ । पर्यवा:-पञ्चधनुः शतसहस्तमानादिका पज्जुवासेमाण-पर्युपासीन:-सेवमानः । सूय० ६ । विशेषाः । जं० प्र० ७० । पर्यवा:-प्रज्ञाकृताः अविभागाः पज्जुसणा-उदुबद्धिया वाससमोवातो जम्हा पगरिसेण पलिच्छेदाः । भग० १४६ । पर्याया:-स्वपरभेदभिन्ना ओसंति सव्वदिसासु परिमाणपरिच्छिन्नं तम्हा पज्जुस्सणा। अक्षरार्थः पर्याया: । सम० १०६ । पर्यवा:-शब्दपर्य- नि० चू० प्र० ३३६ आ । वासावासो पढपस मोसरपं। वार्थपर्यवरूपाः । उत्त० ७१३ । नि० चू० प्र० ३३६ आ । पज्जवाग्ग-पर्यायाग्रं-मर्वानम् । आचा० ३१६ पज्जुसियं-परियासिय णाम रातो पज्जुभियं । नि० चू० पज्जाअ-पर्याय:-अभिप्राय । सूत्र. २५३ । पर्याय:- द्वि० ५० आ। निरुक्त तात्पर्यार्थः । सूत्र. २६२ । पर्याय:- अवस्थावि-पज्जेति-पाययति । विपा० ७२ । शेषः । सूत्र. २७८ पर्याय:-परिपाटी । सूत्र. ४१३। पज्जोय-प्रद्योत:-संवेगोदाहरणे उज्जयिनीनरेशः । आव. पज्जाण-पायन-लोहकारेणातापितम् । ज्ञाता. ११६ । ७०६ । प्रद्योतः । माव० ६४ । पारिणामिकी बुद्धी पहाय-पव्वज्जा- । नि० चू० प्र० १८३ ब । पर्याय:- प्रद्योतः । आव०. ४२८ । उज्जेणोए राया । भेदः, भाव । विशे० ३६ । 'इण्' गतो अयम, आयः, नि० चू० प्र० ३४८ आ। प्रद्योतः शूरावमादी । सूत्र. लाभः, प्राप्तिरिति परिस्तथैव समन्तादाय: पर्यायः । १०३ । प्रद्योतः-अभयकुमाराहतो राजा । दश० ५३ । विशे० ५५ । पर्याय:-नवपुराणादिः । विशे० ३५६ । प्रद्योतः । उत्त० १६ । पज्जाया-उद्धिया दव्यखेत्तकालभावा, एस्थ परि-पज्जोयगत-प्रद्योत प्रद्योतः प्रद्योतकरव-विशिष्टज्ञानशक्ति. समता आसविज्जति-परित्यजन्तीत्यर्थः । नि० चू. स्तस्करणशीला । जीवा २५५ । ३३६ आ। पज्जोसवणा-परियामयवस्थणा । नि. चू० प्र० ३३६ पज्जिए-प्राजिका। दश० २१६ । आ । अण्णेय दम्वादिया वरिसकालपायोग्गा घेत्तुं आयपज्जित-पायितः । उत्त० ४६१ ।। रिजति लम्हा पज्जोसवणा । पागयत्ति सम्बलोगपसिखंण पज्जित्ता-अज्जियाए माया । दश. चू० १०६ । पागतभिधाणेण पज्जोसवणा । नि. चू० प्र० ३३६ बा। पज्जिया-पायिता । आव. ४०२ । पर्याया-ऋतुबद्धिका:-द्रव्यक्षेत्रकालभावसम्बन्धिन उत्सृ. (अल्प. ८०) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवियाणं ] ज्यन्ते - उज्यन्ते यस्यां सा निरुक्तविधिना पर्यासवना, अथवा परीति सर्वतः क्रोधादिभावेभ्यः उपशाम्यते यस्यां सा पर्युपशमना । अथवा परि-सर्वथा एक क्षेत्रे जघन्यः सप्ततिदिनानि उत्कृष्टतः षण्मासान् वसनं निरुक्तादेव पर्युषणा । स्था० ५११ । पज्जोसवियाण- परीति- सामस्त्येनोषितानां पर्युषणाकल्पेन नियमवद्वस्तुमारब्धानामित्यर्थः । स्था० ३१० । पज्जोसवेति। नि० चू० प्र० ३५५ अ । पज्झमाण - शब्दायमानम् । जीवा० १८१ । ज० प्र० आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः २४ । पञ्भ-पार्य:- प्रतिपितामरः । व्य० प्र० १७१ अ । पज्झाय- प्रध्यातं प्रियजनविषयमतिचिन्तितम् । अनु० १३६ । भोय- प्रद्योतः - अवन्तो पतिः । व्य प्र० १४६ मा । पञ्चकुलम् - | जीवा० ३४७ | पञ्चत्वं मरणम् । नंदी० १५६ । पञ्चमुष्टिः- पञ्चाष्टा । उत्त० ४६२ ( ? ) । पश्चशिक्षापादिका। सूत्र० ३६७ । पाग्नितपः- काय कष्टतपः । आचा० १७७ । पश्चाल - देशविशेषः । उत्त० ३७७ । पञ्जर भग्न:- सुखमिह वसितुमिति स इत्थंभूतः पञ्जरभग्नः ज्ञातव्यो न प्रतोच्छनीयः । व्य० प्र ५४ अ । पञ्जरुम्मिलिया-पञ्जरोन्मीलिता-पञ्जरबहिष्कृता । सम० : १३६ । पञ्जिका - अर्थे प्रकारः । सम० १११ । पटक-पिशाचभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । पटल - पात्रावरणम् । ओघ० २१३ । तक्रवरष्टितचीव. रादि । दश० ४० । पटलकम् - वस्त्रम् । उत्त० ५४ ? ) । विशे० १३६ । पटलग-कच्चोलकः । नि० चू० द्वि० ९१ अ । पटुकार - प्रत्यवतार: । बृ० द्वि० २६५ अ । पटोली - वल्लीवेशषः । आचा० ५७ । पट्ट - वस्त्रपट्टः । उत्त० ६०६ | पट्टसूत्रमयम् । प्रश्न० ७१ । ललाटाभरणम् । विपा० ७० । जावा० २६९ | पट्टः । स्था० ३३८ । शिलापट्टकादि । जीवा० २७४ । चोल [ पट्टबद्धय पट्टे । नि० चू० प्र० १६१ अ पट्टः एकः शाटकः । ज्ञाता० १५ । पट्टक - चोल पट्टकम् | ओघ० १७५ । वस्त्रम् । उत्त० ६०६ । योगपट्टक:- चिलिमिली । ओघ० २१८ | ओघ० १०६ (?) । पट्टे - पट्टसूत्र निष्पन्नम् । ज० प्र० १०७ । पट्टसूत्रजं, जांगमिकवस्त्रभेदः । वृ० द्वि० २०१ अ । छुरिकापट्टिकावत् पट्टो । नि० चू० प्र० १७६ आ । चउरंगुलो सुवण्णमओ पट्टो । नि० चू० प्र० २५४ आ । गंधपट्टः । वृ० तृ० ६८ अ । तिरीडरुक्खस्स तया । नि० चू० प्र० १२६ अ । वल्कलक्षणः । बृ० द्वि० २०१ अ । पट्टसूत्रनिष्पन्नम् । आचा० ३६४ । पल्ला -श्रेणिविशेषः । ज० प्र० १९३ । पट्टकार - वस्त्रकारः । अनु० १४६ पट्टजुयलं | आचा० ४२३ । पट्टण - पत्तनम् । सूत्र ० ३०६ । पत्तनं - जलपथयुक्तं स्थलपथयुक्तं, रत्नभूमिर्वा । प्रश्न० ५२ । जलपथस्थल'पथयोरेकतरयुक्तम् । प्रश्न० ६६ । जलस्थलपथयोरन्यतरयुक्तम् । प्रश्न० ९२ । पत्तनम् । औप ७४ । पट्टनंपत्तनं वा । जीवा ० ४० । पट्टनं यनौभिरेव गम्यम् । जीवा० २७९ । पत्तनं - जलपथस्थलपथयोरेकतरयुक्तम् । ज्ञाता १४० । यच्छक घटकेनभिश्च गम्यं पट्टनं यनौभिरेव गम्यं तत् पट्टनं पत्तनम् प्रज्ञा० ४८ | पतन्ति तस्मिन् समस्तदिग्भ्यो जना इति पत्तनम् । उत्त० ६०५ । पत्तनं-नानादेशागत पण्यस्थानम् । अनु० १४२ । पट्टनंनोभिरेव गम्यं पट्टनम् । जीवा० ४० । पत्तनं - पर्याहारप्रवेशस्तत्पत्तनम् । ठाणा० २६४ । पट्टनं-जलस्थल निर्गमप्रवेशः । राज० ११४ । पत्तनं विविधदेशागतं पण्यस्थानम् । भग० ३६ । पत्तनं रत्नयोनिः । ज०प्र० २५८ । स्था० ८६ । यन्नोभिरेव गम्यम् । जीवा० ४० । पट्टणमारी - मारीविशेषः । भग० १६७ । पट्टणरूवंपट्टदुगं - पट्टद्विकं - संस्तारकोत्तरपट्टरूपं पर्याप्तिका संनाहपट्टरूपं वा । बृ० द्वि० २५३ ब० । संथरोत्तरपट्टो य । नि० चू० प्र० १८१ अ । । भग० ११३ । पट्टनं - यन्नोभिरेव गम्यं तत्पट्टनम् । प्रज्ञा० ४८ । पट्टबद्धय - बद्धपट्टः । आव० ३०० । ( ६३४ ) Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टयुग्मादि ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [ पडलं वंसो पट्टयुग्मादि-आच्छादनम् । (?) प्रज्ञा. ४०३ । प्रस्थापित:-प्रवर्तितः । नि. चू० तु. पट्टशालारूपो-मण्डपविशेषः । स्था० २३२ । १३६ अ। पट्टसाडय-वस्त्रं तस्य युगलरूपो यः पट्टशाट्टकः । सूर्य पट्टविया- । नि० चू० तृ० १३६ आ । २६३ । पट्टसाटिका । अनु० १७५ । पट्ठवेजा-प्रस्थापयेत्-प्रवर्तयेत् । भग० ३८५। पट्टसूत्र-पतङ्गकोटलालासमुत्पन्नम् । अनु० ३५ । यत् पट्टवेति-प्रस्थापयति-कर्तुं आरभत इति । ठाणा० ३०० । हंसाद्यण्डकेभ्यो जायते तदण्ड क्वचित् पट्टसूत्रम् । उत्त० प्रस्थापयति-वोढुमारभते । ठाणा० ३२५ । ५७१ । कीटज-यत्तथाविधकीटेभ्यो लालात्मक प्रभवति | पट्ठसंठिआ-पृष्ठसंस्थिता-प्रधानसंस्थाना । जं०प्र०११४ । यथा पट्टमूत्रम् । उत्त. ५७१ । पट्टि-पृष्टिः । आव० १९२ । पृष्टम् । उत्त० ३६७ । पट्टागा-पट्टकाराः पट्टकूलकुविन्दाः शीलगर्वभेदः । प्रज्ञा० | पट्टिअओ-प्रस्थित:-संप्रस्थितद्वितीयः । आव० १०० । पट्ठिआवाहो-पीठमर्दवाहकः । आव० २०४ । . पट्रिका । नंदो० १८८ | पट्टिओ-प्रस्थितः । दश० ११ । पट्टिया-पट्टिका-वंशानामुपरि कम्बास्थानीया । जीवा०८०॥ पट्टित-प्रस्थितः । प्रज्ञा० ३२७ । पट्टिका-वंशानामुपरि कम्बास्थानीया । जं० प्र० २३ । पट्ठिमंसं-पृष्ठिमांसं-परोक्षस्य दूषणाविष्करणम् । प्रभ०४१॥ पट्टिका । जीवा० २५६ । पट्ठिवंस-बलहरणं पृष्टवंशो । बृ० द्वि० ५४ अ। । पदिश:-प्रहरणविशेषः । उत्त० ४६. । ।नि० चू० प्र० १०६ आ। पट्टिस-पट्टिस:-प्रहरणविशेषः । प्रश्न० २१ । पट्टिश:- पड-पदः-स्थानः पक्षः । ठाणा० ३६ । पट-प्रतीतम् । अस्त्रविशेषः । प्रश्न. ४८ । अनु० १५४ । पट्टशाटकः । प्रभ० ७१ । पट्टः । जं. पटुंती-प्रतिष्ठन्ती । आव० ८२२ । प्र० १६१ । पट-स्पृष्टं-विदारितम् । भग० १२० । प्रष्ठः वागमो। पडकारक-पटकारकः-तन्तुवायः । प्रश्न० ३० । ६० प्र० ३८८ । स्पष्टं-व्याकम् । उपा० ३९ । पृष्ठं पडगआहरण- ।नि० चू० द्वि० ९२ अ । पडणं-पतनं-तिष्ठत एव गच्छतो वा यल्लठनम । प्रज्ञा. उत्त० २४१ । स्पष्टम् । भग०६८४ । २६ । निपतितं हिंसाबुद्धघा रिपुमोचनम् । जं० प्र० पट्टवए-प्रस्थापक:-विविधकार्येषु प्रवर्तकः । ज्ञाता० ६३। १२५ । पतनं-कालधर्मनयनम् । ६० प्र० १२५ । पट्ठवओ-प्रस्थापक:-अवधिज्ञानप्रारम्भकः । आव० ३३ । पतनं-मरणं राजामात्यसेनापतिप्रामभोगिकादीनाम् । पटवणओ-प्रस्थापक:-प्रारम्भकः । बाव० ५४२ । ठाणा० ४७७ । पतनम् । भग० ४६६ । पट्टवणा-दाणं । नि० चू० १० १२२ मा । प्रस्थापना- पडणी-प्रत्यनीका । ग० । कल्पना । जीवा० १९ । पडणीय-प्रत्यनोक: शासनादेः । ओघ १३ । पट्टविति-प्रस्थापयति-प्रतिलेखयति । बाव. ७५६ ।।। | पडमंडव-पटमण्डपः । आव. ४३४ । पटमंडपं दिव्यपट्टविओ-प्रस्थापितः । बोध० १०६ । पटकृतमण्डपं पटमण्डपलक्षितं प्रासादम् । (?) । नि० पट्टवितिका-जं वहति पच्छित्तं सा पट्टवितिका । नि. चू० प्र० २२३ । . चू० तृ० १३६ आ । पडलं-उदयविकारेण य दमक्खिदियस्संतरणं पडलं (?). पट्टवितिया-आरोपितं प्रायश्चितं वहति सा प्रस्थापितिका। नि० चू० प्र० ३०२ बा । पटलः-समूहः । ज्ञाता. व्य० प्र० १२४ आ। १७३ । पटलं-भिक्षावसरे पात्रप्रच्छादक वस्त्रखण्डम् । पट्टवियं-प्रस्थापितं-मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरप.. | प्रश्न० १५६ । पटलं-वृन्दम् । बाव. ७८८ । पटलम्। यप्तिसुभगादेययश:कोतिनामसहोदयत्वेन व्यवस्थापितम् ।' आव० ८३७ । ( ६३५ ) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडलगं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः । पडिकुट पडाली. पडलगं-पटलकम् । जीवा० २१४ ।। पडागासंठाणसंठिता-पताकासंस्थानसंस्थिता- वायुकायपडलाइं-पटलकानि भिक्षायां पात्रोपरि स्थाप्यानि ।। संस्थानम् । प्रज्ञा० ४११ ।। ब० द्वि० २३७ म। पडालि-लघुतरा । आव० २६२ । पडवायं नि० चू० प्र० ५३ अ। पडालिया-पडालिका-यत्र मध्याह्ने साथिकाः तिष्ठन्ति पडविज्जा-विज्जाविसेसो । नि० चू० प्र० १६ अ।। यत्र वा वसन्ति तत्र वा वसन्ति तत्र वस्त्रादिमयं कुव. पटविद्या । आव २९५ । लयनं कुर्वन्ति ता वा अस्य दिने दिने उपलभ्यन्ते तदा पडसाडग-पटशाटक:-उत्तरीयं उपरिकायवस्त्रम् । प्रश्न स एवैकः सागारिक: शय्यातरो भवति । गढागतेपु तु ७१ । पटशाटकं-उत्तरीयं परिधानम् । जं० प्र० २४७। अवज्ञया यत्र तत्र गतेषु तु साधूषु यत्र रात्री वसन्ति पडसाडियं-पटशाटिका । अनु० १७१ ।। तदिवसं स शय्यातरः । इयमत्र भावना-यस्य न नियमेन पडह-पटहः । जीवा० १०५, २४५, २६६ । पटहः । सडो वा पडालिका वा । व्य० द्वि० २७८ आ । ज० प्र० १०१ । पटहः-पटहकः । प्रश्न. ४८ । पडाली-पडालिका-एकस्मिनू पार्श्वे वृक्षयुगलं समश्रेण्या पटहः-आतोद्यः । नंदी० ८८ । पटहः । भग० २१७ ।। व्यवस्थितं चतुर्वपि कोणेषु ईषद्दीर्घा वृक्षा व्यवस्थिताः । पटह:-आतोद्यविशेषः। प्रज्ञा० ५४२ । बृ० प्र० १८३ आ । पडाली-गृहाच्छादनम् । व्य० द्वि. पडहओ-पटहक:- । आव० ४२० । २७६ अ । पडहग-पटहक:-विमध्यमावधिसंस्थानदृष्टान्तः । आव. नि० चू० प्र० २५६ आ । -प्रतिश्रुतः प्रतिशब्दः । ज० प्र० १४४.। पडहत्थं । नि.चु० प्र० ३४४ अ । पडि-प्रति-प्रतीपं प्रतिकूलं वा । आव० ५५१ । प्रतिपडहसंठिय-पटहसंस्थितः मावलिकाबाह्यस्य रत्नप्रभानरके प्रतिबिम्बं प्रधानं वा । उत्त० ५६ । प्रति:-सादृश्ये । संस्थानम् । जीवा. १०४ । उत्त० ५८६ । पडागसठिय-पताकासंस्थितः, अश्लेषानक्षत्रसंस्थानम् ।। पडिअरइ-प्रतिजामति । ओघ० ८४ । . सूर्य० १३० । पडिअरण-प्रतिपालन-निरूपणं-आलोचनम् । ओघ० ४४। पडागसमाण-यस्य नवस्थितो बोधो विचित्रदेशनावायुना | पडिअरिअ-आराध्य । दश० २५५ । सर्वतोऽपह्रियमाणत्वाद् पताकेव स पताकासमानः । पडिआइखे-प्रत्याचक्षोत:-प्रतिषेधयेत् । दश०१६६ । ठाणा० २४३ । पडिआयइ-प्रत्यापिरति-सेवते । दश० २६५ । पडागा-पताका-ध्वजादन्या । भग० ३१६ । पताकामत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ । पताका-चक्रादिलच्छनो-पडिओ सत्वगत्तेण भूमीए । नि० चू० प्र०४६अ। पेतादितरा। भग० ४७६ । पताका-ध्वजेतररूपा । ज० पडिओसरइ-प्रत्यवसपंति । आ० ५४ (?)। . प्र. १८८ । पताका । सूर्य० २६३ । मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४४ । पताका-गरुडादिवजिता ध्वजा । विपा० | पडिकप्पेह-सन्नद्धं कुरुतः । भग० ३१७ । पडिकुट्ठ-प्रतिष्ठ-प्रतिसिद्धम् । आव० ४७१ । प्रतिकुष्ठंपडागाइपडागा-पताकाभ्यो-लोकप्रसिद्धाभ्योऽतिशायिनी- विरुद्धम् । ओघ० २१५। प्रति कुष्ठं-निराकृतम् । पिण्ड० दीर्घत्वेन विस्तारेण च पताका पताकातिपताका । जीवा. ८४ । निराकृतम् । पिण्ड० ११० । प्रतिकुष्ट:-निषिद्धः । १९१ । मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ । पताकाभ्योऽति- | प्रश्र. १२७ । प्रतिकुष्टः-प्रतिषिद्धः । बोध. १४५ । शायिन्यो दीर्घत्वेन विस्तरेण च पताकाः पताकातिपताका। प्रतिकूष्ट:-प्रतिषिद्धः । ओघ० २१० । प्रतिकूष्टं-छिम्पजं० प्र० ४४ । कादिगृहं सूतकोपग्रहं वा । ओघ० १५७ । (६३६ ) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकुविअ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [पडिचोयणा पडिकुविय-प्रतिकूजितं-प्रतिभाषितम् । निरय० ३३ । पडिक्खलण-धर्मास्तिकायाद्यभावात्तदानन्तर्यवृत्तिरेव प्रतिपडिकूल-प्रतिकूल:-नानुकूलोऽनभिमतः । आचा० ३६४ ।। स्खलनम् । प्रज्ञा० १०८। प्रतिस्खलनम् । औप० ११६ । प्रतिकूल:-विपरीतवृत्तिः । ठाणा० २४४ । पडिक्खित-परिक्षिप्तो-विस्तारितः । अन्त० ७ । पडिक्कंत-प्रतिक्रान्तम् । दश० ४६ । प्रतिक्रमणं-प्रति-पडिगओ-प्रतिगतः । आव० १६६ । क्रान्तं, प्रज्ञापकात् प्रतोपं कमणम् । दश०. १४१ । पडिगच्छह-प्रतिगच्छामो-निवर्तामहे । उत्त० ३५५ । पडिक्कओ-प्रतिक्रिया-आधारः । आव० ३०४ । पडिगमणं-णिक्वमणं । नि० चू० प्र० १०६अ। पडिक्कमए-प्रतिकामति-निवर्तते । पिण्ड० ७६ । पडिग्गह-पतद्गृहः-पात्रम् । आचा० २४० । पतद्ग्रहः पडिक्कमण-प्रतिक्रमणं-प्रतीपं-पश्चाद् अभिमुखं क्रमणं- काठच्छब्ब कादि । आचा० ३५५ । पतद्ग्रहः । आचा० प्रतिक्रमणं आगमनमित्यर्थः । आचा० २६२ । प्रतिक्रमण- ३४६ । प्रतिग्रहम् । आव० ७६३ । प्रतिग्रहम् । अनु० प्रतीपं क्रमणं शुभयोगेभ्योऽशुभयोगानुपक्रान्तस्य शूभेष्वेव २५३ । पतगृह-पात्रम् । भग० १३६ । प्रतिग्रहःगमनम् , निवर्त्तनं पुनरकरणमित्यर्थः । ठाणा० ३५०। पतग्रहो वा पात्रम् । औप० १०० । पतद्ग्रहः-पात्रम् । प्रतिक्रमणं-मिथ्यादुष्कृतदानम् । ठाणा० १३७ । प्रती प्रश्न. १५६ । कमुणं प्रतिक्रमणम्, अपराधस्थानेभ्यो गुणस्थानेषु वर्त्तनम् । पडिग्गहग । ज्ञाता० ५३ । आव० ५४१ । मिच्छादुक्कई । नि० चू० द्वि०६१ । पडिग्गहति-गृह्णाति । नि० चू० तृ० ७४ आ। आलोचनादिषु द्वितीयः । ठाणा० २०० । प्रतिक्रमणं- पडिग्गहधरो-पतद्ग्रहधरः । आव० ३२४ । मिथ्यादुष्कृतम् । भग० ६२० । प्रतिक्रमणं-मिथ्यादुष्कृतम्। पडिग्गामो-पडिवसभगामो अंतरपल्लिगा वा अण्णो वा ठाणा० १६० । प्रतिक्रमणस्य प्रथमं नाम । आव० । पडिग्गामो भण्णति । नि० चू.द्वि. १२१ अ । ५५२ । प्रतिक्रमणं-दोषात् प्रतिनिवर्त्तनमपुनःकरणतया पडिग्गाहित्तत-प्रतिग्रहीतु आश्रयितुम् । ठाणा० १३९ । मिथ्यादुष्कृतप्रदानम् , तदहं प्रायश्चित्तम् । व्य० प्र० पडिग्घाओ-प्रतिघात:-विनाशः । उत्त० ३१८ । १४ अ । पडिघात-प्रतिघात:-गतिस्खलनम् । ठाणा० १७१। पडिक्कमणारिह-प्रतिक्रमणा ई-मिथ्यादुष्कृतम् । औप० पडिचंद-द्वितीयचन्द्रः। भग० १६६ । प्रतिचन्द्रः-उत्पा४१ । मिथ्यादुष्कृतं, दशविधप्रायश्चित्ते द्वितीयः । भग० तादिसूचको द्वितीयश्चन्द्रः । जीवा० २८३ । प्रतिचन्द्र:१२० । उत्पादादिसूचको द्वितीयश्चन्द्रः । अनु० १२१ । पडिक्कमति-मनोवचनकायलक्षणेन करणेन प्रतिकामति पडिचरए क्षेत्रप्रत्युपेक्षकानु । बृ० प्र० २३० आ । ' निन्दनेन विरमति । भग० ३७० । पडिचरगा-गामणगरसेणादियाण भंडिया पडिचरगा। पडिक्कममान-प्रतिकामनु-निवर्तमानः । आचा० २१७। नि० चू० द्वि० ११ अ । प्रतिचरका नाम हेरिका: पडिक्कमामि-प्रतिक्रमामि-अपनःकरणतया निवर्तयामि । परराष्ट्रगवेषकाः । बृ० द्वि० ८२ आ ।। आव० ५४८ । पडिचरति-मेहणमासेवति । नि० चू० द्वि० ३३ आ। पडिक्कमाहि-प्रतिक्रमणं-मिथ्यादुष्कृतदानलक्षणं अकृस्या- पहिचरिओ-प्रतिचरितः । आव० ३९२ । निवर्त्तनं वा । ज्ञाता० २०६ । पडिचार-प्रतिचार:-प्रतिकूलश्चारो-ग्रहाणां वक्रगमनादिपडिक्कमे-प्रतिक्रामेत-कायोत्सर्ग कुर्यात् । दश० १७६ ।। स्तत्परिज्ञानं, अथवा प्रतिचरण प्रतिचारो रोगिणः प्रति. पडिक्कमेला-नियत्तेज्जा । दश० चू० ८५ । कारकरणं तद्ज्ञानम् । जं० प्र० १३६ । पडिक्कामण-प्रतिकामणं यद्यसो ग्लानः परिकामति पडिचोडओ-प्रतिचोदितः । आव० ७६३ । प्रतिचोदितः। तस्मात्स्थानानिवर्तनम् । ओघ० ४५ । आव० २६२ । पडिक्खंत-प्रतिक्षमाणः । आव० ६४० । पढिचोयणा-तन्मतप्रतिकूला चोदना कर्तव्यप्रोत्साहना (६३७) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिचोयना ] . आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पडिनिकास प्रतिचोदना । भग० ६७५ । पडिट्रिय-प्रतिष्ठितं -सिद्धं सत्यं अविचार्यम् । दश० ३३ । पडिचोयना-पुनः पुनः खलितस्य निष्ठर शिक्षापणं पडिणं-प्रतीचो-पश्चिमादिक् । दश० २०१ । प्रतिचोदना । व्य० द्वि० ७२ आ । पडिणत्ति-प्रतिशप्तः । बृ० तृ० २५ आ । पडिच्छंद-प्रतिच्छन्दम् । आव. ४१६ । पडिणिज्जाएमि-प्रतिनिर्यातयामि-समर्पयामि । ज्ञाता० पडिच्छइ-प्रतीच्छति-गृहाति । ओघ० ११२ । ११८ । पडिच्छग-सूत्रार्थग्रहणार्थं ये आयाताः साधवस्ते प्रती- पडिणिभोवण्णास-प्रतिनि भोपन्यासः । उपन्यासस्य तृतीच्छकः । ओघ० ६३ । यभेदः । दश० ५५ । पडिच्छगा-प्रतीच्छका-उपसम्पन्ना । विशे० ६३६ । पडिणियं-प्रस्यनीक-यद् बाहारादिकाले वन्दते तत्, कृतिपडिच्छति-प्रतोच्छति । आव. २१७ । प्रतीक्ष्यते ।। कर्मणि सप्तदशो भेदः । आव० ५४४ । आव० ८५३ । पडिणीए-प्रत्यनीक:-प्रतिकूलवर्ती दोषानीकं प्रति वर्तत परिच्छमाए-प्रतीक्ष्यभागः । आव. १५० । इति । उत्त० ४४ । प्रत्यनीकः । ओघ० ४९ । पडिच्छा-प्रतीच्छा प्रतिग्रहणम् । व्य. द्वि. ३४५ आ। पडिणीणेइ-प्रतिमुञ्चति । दश. ९८ । पडिच्छामि-अङ्गीकरोमि । आउ० । पडिणीय-प्रत्यनीकः । आव. २०३ । प्रत्यनीक:-प्रति. पडिच्छामो-प्रतीक्षामहे । आव० ३४६ । कूलः । ठाणा० १६६ । प्रत्यनीकम् । आव० ८४४ ॥ पडिच्छायणं-प्रतिच्छादनं-आच्छादनम् । सूर्य० २६३ ।। प्रत्यनोक:-प्रतिकूलवृत्तिः । ज्ञाता० ८७ । प्रतिच्छादनं-रजस्त्राणस्योपरि द्वितीयमाच्छादनम्। जीवा० पडिणीयत्ता-प्रत्यनीकता-कार्योपपातकता। भग० ५८१ । २१० । प्रतिच्छादनं-आच्छादनम् । जीवा० २३२ । पडिणीयय-प्रत्यनीकः कार्योपघातकः । ज० प्र० १२३ । पडिच्छिअं-प्रताप्सितं-ग्रहीतम् । दश. १७७ । पडिणीयया-प्रत्यनोकता । आव० ६२० । प्रत्यनीकता. पडिच्छिए-पुनः पुनरिष्ठः भावता वा प्रतिपन्नः । भग० __सामान्येन प्रतिकूलता । भग० ४११ । ४६७ । पडिण्णा-प्रतिज्ञा-स्याद्वादप्रधानत्वाम्मौनीन्द्रागमस्यैकपक्षापहिच्छिगा-प्रातीच्छिका:- अनुयोगाचार्यानुमान्याः अध्यय- बधारणम् । आचा० १३३ । नाथं ग-छान्तरादागताः स्वाचार्यानुज्ञापुरस्सरमनुयोगाचा- पडितप्पह-वैयावृत्त्यं कुरुत । ओष० १८० । र्यप्रतीच्छया चरन्ति । नंदो. ५४ । पडियद्ध-प्रतिस्तब्धः-प्रतिवः । उत्त० ३६८ । पडिच्छण्णे-प्रतिच्छादनं-पाच्छादनम् । ज्ञाता. १५ । पडिदार-प्रतिद्वार-द्वारमेव । प्रभ० ५६ । प्रतिद्वार-मूल प्रतोच्छन-वेलां प्रतिपालयति । गोष० ४६ । | द्वारानान्तरालवत्तिलघुद्वारम् । जीवा० १६० । पडिच्छिय-प्रतीप्सितं प्राप्तुमिष्टम् । भग० १२१ । प्रती. पडिदासो-प्रतिदासी । दक्ष. १०८। च्छितम् । आव०७९३ । प्रत्येषीत-प्रतिपत्रवान् । उत्त. पडिदिस-प्रतिदिक-विदिक् । प्रशा० १०५ । प्रतिदिक। ४६४ । प्रतीष्ट-प्रतीप्सितं वा अम्युपगतम् । जाता सूर्य० २६ । प्रतिदिक् विदिक् । जीवा० ३६१ । प्रतिदिक् विदिक् । प्रज्ञा० ३२६ । पडिच्छेज्ज-परीक्षाकार्या । ओध. १३२ । पडिदिसि-प्रतिदिश:-विदिशः । ठाणा० २५१ । पडिजग्गि-प्रतिजागर्यः । आव ४८४ । पडिदुवार-प्रतिद्वारं-अवान्तरद्वारम् । सम० १३८ । प्रतिपडिजागरण-करणम् । म्य० द्वि० १६ अ ।। द्वारं-स्थूलद्वारावान्तरालवतिलघुद्वारम् । प्रज्ञा० ८६ । पडिजागारज्जा-प्रतिजागृयात उपचरेत् । दश० २५२ । प्रतिद्वारं-मूलद्वारावान्तगलवतिलघुद्वारम् । ज० प्र० पडिजाणामि-व्युत्सृजामि । महाप्र० । ७६ । प्रतिद्वारं बाह्यद्वारम् । ज० प्र० २६६ । पाडजिओ-प्रतिजितः । आव. ४१७ । पडिनिकास-सहशः । ज० प्र० ५७ । ( ६३८ ) Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिनिभे] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [पतिबद्धया पडिनिभे-यत्रोपन्यासोपनये वादिनोपन्यस्तवस्तुनः सह ३५२ । दशधा सामाचार्यां सप्तमी । ठाणा० ४६६ । वस्तूत्तरदानायोपनीयते स प्रतिनिभः । ठाणा० २५४, प्रतिपृच्छा-प्राङ्नियुक्तेनापि करणकाले कार्या निषिदेन २६०। वा प्रयोजनतः कर्तकामेनेति । आव० २५६ । ठाणा. पडिनियत्ता-प्रतिनिवृत्ता । आव० ५५७ । ५०१। पडिनियत्तो-प्रतिनिवृत्तः । उत्त० ३०४ । पडिपुण्ण-प्रतिपूर्णः रूपं न पात्यते । अनु० २४० । पडिनिवस-प्रतिनिवेश:-एष पूज्यते अहं तु नेत्येवं पर- प्रतिपूर्णः । आव० ११० । सूत्रतो बिन्दुमात्रादिभिरनुनपूजाया असहनलक्षणः । ठाणा. २८५ । प्रतिनिवेशः। मर्थतस्त्वध्याहाराकाङ्क्षादिरहितं प्रतिपूर्णम् । अनु० १५ । आव० २१८ । द्वेषः । आउ० । प्रतिपूर्ण-अर्थप्रतीतिजनकम् । सम० १५७ । प्रतिपूर्णपडिनिसंतंसि-विश्रान्ता यस्मिन् मनुष्या इतीह दृष्टव्यं । अपवर्गप्रापकैर्गुणभृतम् । प्राव० ७६० । प्रतिपूर्ण आत्म अथवा सन्ध्याकालसमये सति प्रतिनिधान्त । ज्ञाता० १४७ स्वरूपेणाविकलः । भग० १४६ । उदात्तादिघोषैर्यत् पडिनिस्सीए-प्रतिनिश्चितं उपरिवति । दश० १५५ । परिपूर्णम् । दिशे० ४०६ । पडिन्ना-प्रतिज्ञा-आकाङ्क्षा । सूत्र. १८८ । पडिपुण्णगल्लकपोल-परिपूर्णगल्लकपोलः । आव० २८८ । पडिपक्ख-प्रतिपक्ष:-विसदृशः पक्ष:, असदृश इति । ओघ० पडिपुण्णघोष-प्रतिपूर्ण घोषं-उदात्तादिघोषविकलम् । अनु० २३ । पडिपहो-दोण्हं गामाणं अवरे मपझे खेत्ते खलए वा पहं पडिपुन्नं-परिपूर्ण अहोरात्रम् । ठाणा० २३७ । प्रतिपूर्णपडिपहो भण्णति, उभामाइगतस्स वा अभिमूहो पहे बाह्येन निषद्याद्वयेन युक्तम् । ओघ० २१४ । प्रतिपूर्ण मिलिज्जा एस पडिपहो । नि० चू० द्वि० १२२ अ । अपवर्गप्रापकरण तम् । ज्ञाता० ४६, ५१ । पन्थानं प्रति प्रतिपथः । आचा० ३३८ । | पडिपेलिया-विनाश्य । भक्त । पडिपाय-मूलपादानां-प्रतिविशिष्टोपष्टम्भकरणाय पादः पडिपेहित्ता-प्रतिविधाय-पिठित्वा स्थगित्वा । सूत्र०३२४॥ - प्रतिपादः । ज० प्र० २८५ । । पडिपोग्गले-स्थास्नोर्गतो । नि० चू० प्र० २७३ अ । पडिपुंजिया-प्रतिपुंजिता-चन्दनादिचर्चिता। ज्ञाता० १२। पडिप्पहर-प्रतिप्रहारम् । आव० ५५७ । पडिपुच्छइ-पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छति तच्छ्रतमशङ्कितं पडिबंध-प्रतिबन्धः-अवरोधः। भग० १६ (?)। व्याघातः । करोतीति । आव. २६ । भग० १०१ । उपरोधः । भग० ११७, १२३, १३६, पडिपुच्छई-प्रतिपृच्छति-प्रश्नयति । उत्त० ४७३ । । ७३८ । प्रतिबन्धः-स्नेहः । ठाणा० ४६५। प्रतिबन्धःपडिपुच्छण-प्रतिपृच्छा-आदिष्टस्य कार्यस्य करणकाले पुनः अयं ममास्याहमित्याशयबन्धरूपः । ज० प्र० १४९ । प्रच्छनम् । बृ० प्र० २२२ अ । प्रतिप्रच्छन -शरीरादि- प्रतिबन्धः-अभिष्वङ्गः, परिग्रहस्य द्वादशं नाम । प्रज्ञा वार्ताप्रश्नः । ज्ञाता० ४४ । ९३ । प्रतिवन्धः । आव० ४०१ । प्रतिबन्ध:पडिपुच्छणा-प्रतिप्रच्छनं शरीरादिवाप्रिश्नः । भग. आसङ्गः । आव० ५३५ । प्रतिबन्धः-रागः । पिण्ड ० ११५ । प्रतिप्रच्छना । ओघ० १५१ । शङ्किते सूत्रादौ १४० । शङ्कापनोदाय गुरोः प्रच्छनं प्रतिप्रच्छना । ठाणा० १६० पडिबद्ध-प्रतिबद्धं-व्याप्तम् । दश० ८६ । प्रतिबद्धं-अनुपडिपुच्छन्न-प्रथमं कथितस्य सूत्रादेः पुनः प्रच्छन्नं प्रतिबद्धं, सदानुगतम् । जीवा० १३० । प्रतिबद्ध-सूत्रार्थ प्रच्छन्नम्,सम्यक्त्वपरक्रमे विंशतितं द्वारम् । उत्त० ५८४ ग्रहणसक्तम् । वृ० प्र० २४८ आ । प्रतिबद्धः । आव० पडिपुच्छा-ग्रामादौ प्रेषितस्य गमनकाले पुनः प्रच्छन । ३५६ । प्रतिबद्धः । उत्त० ३५८ । प्रतिबद्धः । प्रोघ० प्रतिप्रच्छना । अनु० १०३ । गुरोः पुन: प्रच्छनं प्रति- । प्रच्छना । अनु० १०३। प्रतिपृच्छा स्वालापकः । भग० पडिबद्धया-प्रतिबद्धता-गाढसम्बन्धः । भग० ८८ । (६३९) Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिबद्धसरीर ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कुलितः [पडियरइ पडिबद्धसरीर-प्रतिबद्धशरीर:-दृढावयवकायः - युवा । व तिष्ठति । ठाणा० २६६ । सूत्र. ३२५ । पडिमा-प्रतिमा-अभिग्रहविशेषरूपारेकादशा दर्शनादिः । पडिबद्धा-प्रतिबद्धा-युक्ता संश्लिष्टा । नि०चू०प्र१०६ आ। उत्स० ६१३ । प्रतिमा-दर्शनादिगुणयुक्ताः । आव० पदिबाहिर-प्रतिबाह्य-अनाधिकारणः । सम० ५३ ।। ६४६ । कालविशेषमानयुतदर्शनाद्यभिग्रहधरणं कृष्ण. प्रतिबाह्य-अनधिकारिणं दारेभ्योऽथोगमद्वारेभ्यो वा, पाक्षिका क्रियावादिभिन्ना एकादशोपासकावस्था वा । दारान् राज्यं वा स्वयमधिष्ठायेत्यर्थः । सम० ५३ ।। उपास पंचा०दशाश्रुत० । प्रतिमा नग्नता । वृ० तृ. पडिबृद्धजीवी-प्रतिबुद्ध-प्रतिबोधः द्रव्यतो जाग्रत्तोभाव- २५३ प्रा । प्रतिमा-बिम्बलक्षणम् । आय० ५२४ । तस्तु यथावस्थितवस्तुतत्त्वावगमस्तेन जीवितु-प्राणान्ध- प्रतिमा-कायोत्सर्गः । प्रश्र० १४३ । प्रतिमा-प्रतिज्ञा। तुंशीलमस्येति, प्रतिबुद्धो वा द्विधाऽपि प्रतिबोधवान जीव- आव०६४६ । प्रतिमा-श्रावकस्य पञ्चमी प्रतिज्ञा । आव० तीत्येवंशोल:-प्रतिबुद्धजीवी । उत्त० २१३ । ६४६ । गेहचेतियं । नि०० द्वि० ६६ । प्रतिमापहिबुद्धि-पटवत् विशिष्टवक्तृवनस्पतिविसृष्टविविधप्रभृत- अभिग्रहः भिक्षुप्रतिमा । ठाणा० ४१६ । प्रतिमा सूत्रार्थपुष्पफल ग्रहणसमर्थतया बुद्धिर्येषां ते । औप० २८ ।। प्रतिज्ञा-अभिग्रहरूपा । सम० १६ । प्रतिमा-पिण्ड. पडिबुद्धो-प्रतिवुद्धिः- इक्ष्वाकुराजः साकेतनिवासी । ठाणा० षणाभिग्रहविशेषः । आचा० ३५ । प्रतिमा-अभि ग्रहचारी । ब्य० प्र० १३६ आ । प्रतिमा-भिक्षुप्रतिमा। पडिबोह-प्रतिबोधितानि-योवनेन व्यक्तचेतनावन्ति कृतानि व्य० प्र०१४६ अप्रतिमा-अभिग्रहः । ठाणा० ५११ । । ज्ञाता०४२ । प्रतिबोधितं-यौवनेन व्यक्तचेतनवन्तं कृतम् । प्रतिमा-प्रतिज्ञा । ठाणा० २१ । प्रतिमा-प्रतिपत्तिः ज्ञाता० ४२ । प्रतिज्ञा । ठाणा. ६५ । प्रतिमा-तथाविधाभिग्रहपडिबोहग-प्रतिबोधक: सुप्तस्योत्थापकः । नंदो० १७६ । विशेषरूपा । उनु० ५३१ । पडिबोहियलओ-प्रतिबोधितः । आव० ४०८ । परिमाणुसं-प्रतिमानुषम् । आव० ३४५ । पडिभग्ग-प्रतिभग्न.-उन्निष्क्रान्तः । ओघ. १८० । पडिमाणे-प्रतिमानम् । अनु० १५१ । प्रतिभग्नः । आव० २६८। प्रतिभग्नः । आव० ५२०। पडिमापडिवण्णओ-प्रतिपन्नप्रतिमः । आव० ६५। . प्रतिभग्नः । उत्त० १० । पडिमापडिवण्णा- ।नि• चू० प्र० ३३८ आ। पडिभज्जंतो-प्रतिभग्नः । आव० ४०८ । पडिमुडिओ-णिसद्धो । नि० चू० प्र० ३२० । पहिभाग-प्रतिभाग:-प्रतिविम्बः। ज० प्र०१४८ । प्रति गीयया-पेरितशत्रवः । चउ० । भाग:-प्रतिबिम्बमादादाविव विशिष्टः-प्रतिबिम्बवस्तुगत पडियंति-प्रतियान्ति । दश० ४२ । आकार:-प्रतिभाग: । ३७२ । प्रतिभाग:-खण्डः । प्रज्ञा पहियंसि-पतिते-प्रासादादेमञ्चके वा ग्लानभावात्। शाता. २८३ । पडिभिण्णो-प्रतिभिन्नः । आव० ३८८, १६ । पडिय-वाहनात्पतितः । ज्ञाता. १९३ । पतितं-प्रासादपडिमंठाइ-प्रतिमास्थायी-प्रतिमया कायोत्सर्गेण भिक्षु- शिखरादेः कलशादिरिवाधो निपतितम् । प्रश्र.१३४ । प्रतिमया वा मासिकयादिकया तिष्ठति यः सः । प्रश्न पतित-भ्रष्टम् । प्रश्न. १२४ । १०७ । पडियगविठ-प्रत्यगन्तव्यम् । व्य० प्र० ३६९ अ ?) । पहिमंजूसा-प्रतिमञ्जूषा । आव० ४.१ । पडियपुयत्थणी-पतितपुतस्तनी-अवनतिगतनितम्बदेशवपडिम-प्रतिमा । अन्त० २१ । क्षोजा । शाता. २४८ । पडिमठाती-प्रतिमास्थायी-भिक्षुप्रतिमाकारी । ठाणा० डियरंति-प्रतिजागरण-निरूपणं कुर्वन्ति । ओघ० १०२। ३६७ । प्रतिमया-एकरात्रिक्यादिकया कायोत्सर्गविशेष. पडियरह-प्रतिचरति-प्रति जागरणं करोति । ओघ. २०७४ (६४० Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडियरग ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [ पडिलेहणं पडिक्खति । नि० चू० द्वि० १२३ अ । मुनीनां यद्रूपम् (?) । जा वत्यु वत्युपडुच्च अणुरूवो पडियरग-प्रतिचारक:-परिपालक: । पिण्ड ० ७०। । पउंजइ सो। दश० चू० १३० । प्रतिक्षणं नवं नवं पडियरगा-अवराहा । नि० चू० तृ०१८ आ। परिणी. | रूपं यस्य तद् प्रतिरूपम् । प्रज्ञा० ८७ । प्रतिरूप:-उचितः । अणसणोवदिट्ठो, तस्स जे वेयावच्चकारिणो ते पहियरगा। ध्य० प्र० १९ अ। नि० चू० प्र० ८६ अ । | पडिरूवकाय किरिया-प्रतिरूपकायक्रिया-यथा परिपाट्या पडियरणा-प्रतिचरणा-आगमनम् । ओघ० ३३ । प्रति- शरीरविधामणम् । व्य० प्र० २२ अ । प्रतितेष्वर्थेषू चरणं गमनं तेन तेन आसेवनाप्रकारेणेति-पडिरूवग-प्रतिरूपक-प्रतिबिम्बम् । राज०६ । प्रतिप्रतिचरणा, प्रतिक्रमणद्वितीयपर्यायः । आव० ५५२ ।। रूपक-सदृशम् । उपा० ८ । प्रतिरूपक-आकृतिप्रतिप्रतिचरणा-आगमनम् । ओघ० ३३ । बिम्बम् । ? १३२ ) । प्रतिरूपकम् । आव २६६ । पडियरावितो-प्रतिचारितः । आव. २२० । प्रतिरूपक-सदृशम् । आव० ८२३ । पडियरिए-निरूविए । प्रोघ० १६१ । पडिरूवजोगजुंजण- प्रतिरूपयोगयोजनं-उपचारविनयपडियरिओ-प्रतिचरितः । आव २९८ । भेदः । दश० २४१ । पडिया-थिग्गलयं । नि• चू० प्र० १२५ मा । प्रतिज्ञा। पडिरूवन्नु-प्रतिरूपविनयो-यथोचितप्रतिपत्तिरूपस्तं जाना' नि. चू० द्वि० ५८ आ । वाचना । आव० ६६७ । तीति प्रतिरूपज्ञः । उत्त० ५०० । पडियाए-प्रतिज्ञाय-उद्दिश्य । आचा० ३६१ । पहिरूवया-प्रति:-सादृश्ये ततःप्रतीति स्थविरकल्पिकादिपडियागार । ओघ० २०९ । सदृश रूप-वेशो यस्य स तथा तद्भावस्तत्ता-अधिकोपपडियाण-पटतानक-पयोणस्याघो यद्दीयते । ज्ञाता० । करणपरिहाररूपा । उत्त० ५८६ ।। २३० । पडिरूवा-प्रतिविशिष्टं-असाधारणं रूपं यस्याः सा प्रतिपडियार-शरीरसंस्कारः । नि० चू० प्र० २६४ अ। रूपा, प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः सा । ज०प्र० पडियारणा-आसेवना । आचा० ३६४ । २१ । चतुर्थ कुलकरभार्या । ठाणा० ३९८ । प्रतिरूपापडियारी-प्रतिचारिण:-कायिकीमात्रकादिसमप्र्पका विधा- द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्याः सा । ज्ञाता० ३ । मकाः । व्य० प्र० १३१ अ । प्रतिरूपा:-द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रमणीया इति । ठाणा. परिरूव-प्रतिरूपं द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रमणीयम् । सम० २३२ । १३८ । अस्यामवसपिण्यां चतुर्थकुलकभार्या । सम० पडिलग्गो-प्रति लग्न -ग्लानो जातः । आव० ६७८ । १५० । प्रतिरूपः-उत्तरनिकाये द्वितीयो व्यन्तरेन्द्रः । पडिलाम)ग्गो-प्रतिलग्नः । आव० ३६२ । भग० १५८ । सदृशम् । भग० ३१६ । प्रतिरूपा-चतुर्थ- पडिलमे-प्रतिलभेत-प्राप्नुयात् । उत्त० ४६ । कुलकरपस्नी । आव. ११२ प्रतिरूप:-उचितः। दश० पडिलाभिता-प्रतिलम्भयिता-लाभवन्तं करोतीत्येवंशीलो २४१ । द्वितीयो भूतेन्द्रः । ठाणा० ८५ । प्रतिरूपः- य: च भवति । ठाणा० १०६ । रूपवान् । प्रश्न० ११६ । प्रतिरूप:- साधुचित्तस्वरूपः । | पडिलाहेहि-प्रतिलम्भय । बाव० ८१५ । विपा० ३३ । प्रतिरूप:-रूपवान् । औप०११ । प्रतिरूपः त्युपेक्षन्ते-पौनःपुन्येन लगन्ति । आचा. भूतेन्दः । जीवा० १७४ । प्रतिरूपं-प्रतिविशिष्ट असाधारणं रूपं आकारो यस्य सः । ज० प्र० ७५ । प्रतिरूपं | पडिलेह-प्रतिलेखः । आव० ३६६ । उचितम् । उत्त० ५.. । प्रतिरूपं-प्रतिबिम्बम् । सूत्र० पडिलेहओ-प्रतिलेखक:-प्रतिलिखतीति, प्रवचनानुसारेण ४०७ । प्रतिरूपं-प्रतिविशिष्टं रूपं यस्य तत् । प्रज्ञा० स्थानादिनिरीक्षकः साधुः । ओघ० १३ । ८७ । प्रतिरूपं-प्रधानरूपं प्रति-प्रतिबिम्बं चिरन्तन पडिलेहणं-प्रत्युपेक्षणा-चक्षुषा निरीक्षणम् । प्रश्न. १५६ । (अल्प० ८१) (६४१) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा ] पडिलेहणा - प्रत्युपेक्षणा-चक्षुर्व्यापारः । प्रश्न० ११२ । प्रत्युपेक्षणा - आगमविधिना यथावन्निरूपणा ग्रहणप्रतिजागरणरूपा । उत्त० ५८३ । प्रतिलेखनं प्रतिलेखनाआगमानुसारेण या निरूपणा क्षेत्रादेः सा । ओघ० १२ । पहिणिया प्रत्युपेक्षणा | मोघ० ११७ | पडिलेह - प्रतिलेखयतीति प्रतिलेखकः - प्रवचनानुसारेण स्थानादिनिरीक्षकः साधुरिति । श्रोष० १३ । पडिलेहा - प्रत्युपेक्षणा- गुणदोषपर्यालोचना | आचा ०११४ । पडिले हाए- प्रत्युपेक्ष्य पर्यालोच्य | आचा० २७२ । आचा० २१४ ( ? ) । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः पडिले हिअठव-प्रेक्षितभ्यं - आलोचनीयम् । दश० २७२ । पहिले हिऊण - प्रत्युपेक्ष्य - चक्षुषा निरीक्ष्य | मोघ० ११४ | पडिले हित्त-प्रत्युपेक्ष्य - प्रतिजागयं । उत्त० ५३९ । पडिले हित्तए - प्रत्युपेक्षितुं - अवस्थानार्थं निरीक्षितुम् । ठाणा० १५७ । पडिले हित्ता - प्रत्युपेक्ष्य - ज्ञात्वा । दश० २५० । प्रत्युपेक्ष्यदृष्टा । आषा० ७१ । पडिले हिय-प्रत्युपेक्षण - गोचरापन्नस्य शय्यादेश्चक्षुषा निरीक्षणम् । आव० ८३६ । प्रेक्षितं पर्यालोचितम् । आचा० १८६ ! पडिले हिया - प्रति उप- सामीप्येन ईक्षिता-ज्ञाता प्रत्युपेक्षिता । आचा० २३३ । पडिले हे प्रत्युपेक्षेत - निरूपयेत् । मोघ० १७८ । पडिले हेइ - प्रतिलेखयति - प्रत्युपेक्षते । उत्त ४३४ ॥ प्रतिलिखति । आव० २१६ । पडिलेहेति प्रतिलेखयति प्रस्थापयति । आव० ७५६ । पडिलोम-प्रतिलोमः तद्गन्धाद्विपरीतगन्धः । आचा० ३६४ | प्रतिलोमः - इन्द्रियमनसोरनाल्हादः । ठाणा० २४४ ॥ प्रतिलोम :- अपवाद: । ओघ० ६५ । प्रतिलोमंपश्चानुपूर्व्वी । जं० प्र० १७ । प्रतिलोमं प्रतिकूलम् । दश० ५२ । प्रतिकूलं यत्र प्रातिकूल्यमुपदिश्यते यथा शठं प्रति शठत्वं कुर्यात् । ठाणा० २५३ । पडिवइर - प्रतिवैरम् । आव० ६३६ । पडिवक्ख प्रतिपक्ष:- तुल्यपक्ष: । ओघ० ६७ । प्रतिपक्ष:असदृशः । ओष० २३ । प्रतिकूलः पक्षः प्रतिपक्षः [ पडिविद्धं संति अप्रमत्ततया शुभयोगपूर्वकं प्राणाव्यपरोपणम् । दश० २४ । प्रतिपक्षः - सदृशपक्षः । बृ० प्र० २४७ अ । प्रतिपक्षः । आव० १०१ । पढिवज्जइ - प्रतिपद्यते । आव० ३१३ । उत्त० १८५ । पढि वज्जिण प्रतिपादिनोऽवश्यं प्रतिपद्यमानस्य । उत्त० २६५ । पडिव जित्तए - प्रतिपत्तु - अभ्युपगन्तुम् । ठाणा० ५७ पडिवज्जेजा - प्रतिपद्येत | बाव० २२४ | पडिवत्ति - प्रतिपत्तिः- द्रव्यादिपदार्थाभ्युपगमः प्रतिमाच - भिग्रह विशेषो वा । नंदी० २१० । प्रतिपत्तिः- वारकः (?) । प्रतिपत्तिः उपमा । व्य० प्र० २२२ अ । प्रतिपत्ति:प्रतिपादनं, परिच्छित्तिः, अवधिप्रकृतिर्वा । आव० २६ । प्रतिपत्ति- अभ्यागत कर्तव्यरूपाम् । उत्त० ५०० । प्रतिपत्तिः - प्रकार: भेदः । ओघ० ११७ । पडिवत्ति कुसला - प्रतिपत्ति कुशलाः परप्रतिवचनदानसामर्थाः । व्य० द्वि० ५६ अ । पडिवत्ती - प्रतिपतिः - मतान्तररूपा । सूय० ८ प्रतिपत्तिःद्रव्यार्थी पदार्थाभ्युपगमा मतान्तराणि, प्रतिपाद्यनिमाद्यभिग्रहविशेषा वा । सम० १०८ । प्रतिपत्तिः- प्रत्यवताररूपं प्रतिपादनं, संवित्तिः अनुयोगद्वारं अर्थो वा । जीवा० ५ । प्रतिपत्तिः - यथास्व रुचिवस्तुभ्युपगमः । सूर्य० २४ । प्रतिपत्तिः प्रतिवचनप्रदानम् । बृ० तृ ५६ अ । प्रतिपत्तिः - उत्तरदानम् । बृ० द्वि० १४७ वा । प्रतिपत्तिः - परमतरूपा । सूय० ८ । प्रतिवचनम् । नि० चू० प्र० ४२ आ । वन्दनम् । चउ० । पडिवसम- प्रतिवृषभग्राम: - यत्र ग्रामं भिक्षाचर्या नमनम् । बृ० द्वि० ७९ म | पडिवसभा - भिक्खायरियगामादि । नि० चू० प्र० ३३५ आ । पडिवाडी - परिपाटी । आव० १६ । पडिवाती - प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति- उत्कर्षेण लोकविषयं भूत्वा प्रतिपतति । ठाणा० ३७० । पडिवाय प्रतिपद्यते पक्षस्याद्यतयेति प्रतिपत्, प्रथमो दिवस इति । जं० प्र० ४९१ । पंडिविद्धं संति- प्रतिध्वंसन्ते योनिदोषादुपहत शक्तयो भव( ६४२ ) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिविलइत्ता ) अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ई [ डिसेवणाकुसोलो न्ति, मेहनविश्रोतसा वा योनेर्बहिः पतन्तो विध्वसन्ते पडिसाहरति- प्रतिसंहरति-निरुणद्धि । ठाणा० ११२ । इति । ठाणा० ३१४ । ज्ञाता० ३३ । पडिसाहरिए - प्रतिसंहरणं - शिलायाः शिलापुत्रकाच संहत्य पढिकरणम् । भग० ७६७ । पडिसीसगं - प्रतिशीर्षक - दत्तस्वशीर्षं प्रतिरूपम् । प्रश्न ३६ । पडिडिओ - प्रतिसुंडितो - निषिद्धः । बृ० प्र० २८६ था । पडि सुई - आगामिन्यामुत्सपिण्यां जम्बू ऐरवते नवम कुले तानां व्यूहम् । ज० प्र० १३६ । गरः । सम० १५३ । बडिये सिय- प्रतिवेसिक :- सीमान्तवर्ती प्रत्यर्थी । व्य० प्र० १७० अ । पडि सुण- प्रतिशृणोति - अभ्युपगच्छति । जीवा० २४३ । भग० ७६७ । पडिसंखिविय-प्रतिसङ्क्षेपणं - शिलायाः पततः संरक्षणम् । पडिसुणणा-प्रतिभवणा । आव० २६५ । पडिसुणमाण- प्रतिवण्वति । आव० ५७६ । पडिसुणेति- प्रतिशृण्वति-अभ्युपगच्छति, परस्परं साक्षी - कृत्य प्रतिज्ञातं कार्यं कर्तव्यमवश्यामिति दृढो भवन्ति । ज० प्र० २४० । पड़िसंथागं| भग० ३२१ । परिसंघ - डिसंधत्ते । कर्मोदयात् त्रुटितमपि संघट्टयति । उत्त० ५५० । परिसंघाय प्रतिसन्धाय - सह गन्तृभावेनानुकूल्यं प्रतिपञ्च वा । पडिसुते - आगमिन्यामुस्सर्पिण्यां सप्तमकुलकर: । ठाना० सूत्र० ३२१ । ५१८ । पडिसं लोण - प्रतिसंलीन: -वस्तु प्रति सम्यग्लीनो निरोधवान् प्रति संलीनः क्रोधं प्रति उदयनिशेधेनोदय प्राप्तविफलीकरणेन च च प्रतिसंलीनः । ठाणा० २०७ । पडिसं लोण पडिमा - प्रतिसंलीनप्रतिमा - संलीनताऽभिग्रहः । पडिसुया - प्रतिश्रुत्ता प्रतिशब्दका । ज्ञाता० १०१ । पडिय-प्रतिश्रुतं प्रतिशब्दः । प्रभ० २० । प्रतिश्रुतं - प्रतिज्ञानम् । ठाणा ० ४७४ । प्रतिश्रुतं प्रतिशब्दः । राज० २५ । प्रतिश्रुतः - प्रतिशब्दः । भग० ४८३ । पडिसूयग- प्रतिसूचक : नगरद्वारसमीपेऽल्पव्यापारोऽवतिइति । व्य० प्र० १७० म । पडसूर - प्रतिसूर्य:- द्वितीय सूर्यः । भग० १६५ । प्रतिसूर्य:- उत्पातादिसूत्रको द्वितीयः सूर्यः । जीवा० २८३ । प्रतिसूर्य:- उत्पाठादिसूत्रको द्वितीयः सूर्यः । अनु० १२१ । पडिसेगा - प्रतिसेकाः नखाः । ज० प० ८१ । पडि सेवणा- प्रतिसेवना । ओघ २२५ । सम्माराहणवि वरिया परमया वा सेवणा । उत्त० २५६ । प्रतिषेवणाप्राणातिपाताचा सेवनम् । ठाणा० ४८५ । प्रतिषेवणाअकल्प्य समाचरणमितिभावः । व्य० प्र०११ अ । पडिलेवणाकसिण- प्रतिसेवनाकृत्स्नं- ततः परस्यान्यस्य प्रतिसेवना स्थानस्यासम्भवात् स च यत्कृत्स्नम् । व्य• प्र० ११५ मा । परिसेवणाकुसोलो - प्रतिसेवनाकुशीलः - सम्यगाराधनविप( ६४३ ) पडिविलइत्ता - प्रतिविलगिता | आव० ३५० । पडिविशिष्ट - प्रतिविशिष्टम् । सूर्य० २६८ ( ? ) । पडणा- वासासु वा सिसिरेसु वा निवातट्ठा तेसि चेव पडिवुज्जणा । नि० चू० प्र०२३२ श्रा । पडिवूहं - प्रतिव्यूहं - तत्प्रति द्वन्द्वगानां तद्भङ्गोपायप्रवृ औप० ३२ । पडिलोणया-षष्ठं बाह्यं तपः । भग० २१ । पडिल्लीणा - अभयस्थिता । दश० चू० ५२ । पडिसं विवखे- प्रतिसमीक्षतेऽदोनमनाः बलाभमाश्रित्थालो चयति । उत्त० ११५ । पडसं बेइज्जा| नंदो० १७८ । पडिसंवेदेइ - प्रतिसंवेदयति- अनुभवति । आचा० २४ । पडिसं साहणय - अनुव्रजनम् । मग० ६३७ | पडिस साहेहि-विनयप्रस्तावात् व्रजन्तं प्रतिसंसाधय - अनुव्रज, अथवा संश्लाघय - प्रशंसां कुवित्यर्थः । ज्ञाता० १८६ । पडसंहर इ - प्रतिसंहरति । आव० १२४ । पडिसवत्त - प्रतिसपत्न:- परस्परविरोधी । दश० १९४ । पडिसामियं - प्रतिस्वामितं-स्वामिना प्रतिगृहीतम् । बृ० द्वि० २४ अ । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवणाणुलोमा ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ पडुच्चसच्चा रीना प्रतिगता वा सेवना तया कुशीलः । उत्त० २५६ । । . जीवा० १९८ । प्रतिहस्त:-प्रतिपूर्णः । जीवा० ३५० । पडिसेवणाणुलोमा-प्रतिसेवनानुलोम्येन-यथैव प्रतिसेवि- पडिहयं-प्रतिहतं - क्षपितम् । भग० ३६ । प्रतिहतं-सम्य. तास्तेनैवानुक्रमेण कदाचिच्चिन्तयति । ओघ० १७५ । क्त्वप्राप्त्या ह्रस्वीकृतम् । औप० ८५ । प्रतिहतपडिसेवना-प्रतिसेवनाप्युपचारात प्रायश्चितम् । व्य० प्र० मिथ्यादुष्कृतदानप्रायश्चित प्रतिपत्त्यादिना नाशितम् । प्रशा० १४ अ । २६८ । प्रतिहतं इदानीमकरणतया । आव ७६२ । पडि सेववियउणा-प्रतिसेवविकटना । ओघ० १७६।। प्रतिहतं-अतीतकालसम्बन्धिानन्दातः । भग० २६५ । पडिसेविग-प्रतिसेवको नाम यो भिक्षनिष्कारणे कारणाभा- प्रतिहत:-स्खलितः । प्रज्ञा० १०५। वेऽपि पञ्चकादीनि प्रायश्चितस्थानानि प्रतिसेवते। व्य० त-प्रतिभाति । आव०१७ ।। प्र० २५२ आ । इ-प्रतिभासते । आव० ५१२ । पडिसेविय-प्रतिमे वितः । आव० ५२ । संयमप्रतिकूलार्थ- पडिहार-प्रतिहारः प्रत्यार्पणम् । औ० १०० (?)। स्य समवलनकषायोदयात्सेवकः प्रतिसेवक: संयमविरा-पडिहारयग-प्रातिहार्यक-भूषणविधिविशेषः । जीवा. धकः । भग. ८९४ २६६ । पडिसेह-प्रतिषेधः-निराकरणम् । अचिकित्स्थोऽयमित्यभि-पडिहारितं-कथितं । नि० चू० प्र० २१० आ। धानरूपः । उत्त० ३०४ । पडिहारिय-प्रतिहारितः-शापितः । बृ. द्वि० २१४ । पडिसेहति-विनिवर्तयति-निराकुर्वती । ज्ञाता० १४६ । | प्रत्याहाय: । विशे० ११६० । पडिसेहस्स । नि० चू० तृ० २६ अ। पडोणवाय-अपाचीनवातः-योऽपाचीनदिशः समागच्छति पडिसोतचारी-प्रतिश्रोतश्चारी-दूरादारम्य प्रतिश्रयाभिमु- वातः सः । जीवा० २६ । खचारीत्यर्थः । ठाणा० ३४२ । पडीतंतो-प्रतितन्त्रसिद्धान्तः-यः खल्वथ स्वतन्त्रसिद्धन्तो न पडिसोय-स्रोतं स्रोतं प्रतीति-प्रतिश्रोतं-प्रतिप्रवाहम् ।। परतन्त्रेषु स प्रतितन्त्रसिद्धान्तः । बृ• प्र० ३१ आ। भग० २३३ । पडु-पटुः-दक्षपुरुषः । सूर्य० २६७ । पटुः-स्पष्टध्वनिः । पडिसोयगमण-प्रतिश्रोतोगमनं-प्रवाहसन्मुखगमनम्। उत्त० | प्रश्न० ४८ । पटू-स्वविषयग्रहणदक्षम् । भग० ४६६ । ३२७ । | पड्रक्खेव-प्रत्युत्क्षेप:-मुरजकांसिकादिगोतोपकारकातोंधानां पडिस्सय-प्रतिश्रयः । आव० ६२ । प्रतिश्रयः-उपाश्रयः । | ध्वनिः नर्तकीपदप्रक्षेपलक्षणो वा । अनु० १३२ । मोघ १३८ । पडुच्च-प्रतीत्य-आश्रित्य । जीवा० ५६ । पडिस्सयवाल-प्रतिश्रयपाल: । आव० २६१ । पच्चकरणं- ।नि० चू. प्र. २३१ अ । :। जं. प्र. १३२।। पच्चक्खिय-निवृतिप्रत्याख्याने . आगारः । श्रतं-गुरी वाचनादिकं यच्छत्येवमेतदित्य- |८५४ । भ्युपगमः । उत्त० ५३५ । पडुच्चवित्ती-प्रतीत्यवृत्तिः-प्राश्रित्य कार्यस्य वृत्तिः। विशे. प्रतिघात:-प्रतिहननम् । ठाणा० ३०३ । ७१७ । पडिहए-प्रतिहतं-निराकृतम् । भग ३६ । पड़च्चसच्च-प्रतीत्य-आश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्यं प्रतीत्यपडिहणिओ-प्रतिहतः । आव० ५२ । सत्यम् । ठाणा० ४६० । प्रतीत्यसत्यं-यथा अनामिपडिहता-प्रतिहता । सूयं. ६५ । काया दीर्घत्वं ह्रस्वत्वं चेति । दश० २०८ । दशधा पडिहत्थं-उद्धमायं-अधिक-आपूर्णश्च । नंदी० ४६ ।। सत्यो षष्ठः । ठाणा० ४८६ । अतिप्रभूत:-देशीशब्दोऽयम् । ज० प्र० २९२ । परिपूर्णः। पडुचसञ्चा-प्रतीत्यसल्या । पर्याप्तिकसत्यभाषायाः षष्ठो भेदः। ज० प्र०. ५७ । प्रतिहस्त:-अतिरेकत: अतिप्रभूतः । प्रज्ञा० २५६ । (.६४४) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडुपण्ण] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [पढमसमुद्दिस्सग पडुपण्ण-प्रत्युत्पन्नो-वार्तमानिक: अभूतपूर्व इत्यर्थः, दोष पड्डय-महिषीवत्सः । आव० ७१६ । गुणेत्तरः । ठाणा० ४६२ । प्रत्युत्पन्न:-वात्तैमानिकः । | पड्डिया-पड्डिका-ह्रस्वगोत्री, ह्रस्वमहिषी वा । विपा० 'प्रज्ञा० ५०६ । प्रत्युत्पन्न:-गुणितः । सूर्य ० ३८ । प्रत्यु. ४८ । त्पन्नः-गुणितः । अनु० २०७ । प्रत्युत्पन्ने-सर्वथा वस्व-पढम-प्रथमः-प्रधानः । ज० प्र० २०४ । आचंभ्युपगते विशेषो यो दोषोऽकृताम्यागमकृतविप्रणाशादिः प्रधानं वा । आचा०६ । प्रथम:-प्रधानः । ज० प्र० स दोषसामान्यापेक्षया विशेषः,दशषु विशेषेषु षष्ठः । ठाणा० २५१ । ४९४ । पढम अचरमसमय-प्रथमाचरमसमयः। भग० ९६६ । पडप्पण्णा-प्रत्युत्पन्ना । भाव० ६६ । पढम अपढमसमय-प्रथमाप्रथमसमयः । भग० ९६६ । पडप्पन्न-लब्धः । ओघ० १७३ । प्रत्युत्पन्न:-तत्काल-पढमग-प्रथमक:-मूलभूतः । जीवा० २२८ । प्रथमक: मुत्पद्यमानः । जीवा० १४१ । प्रत्युत्पन्नं-लब्धम् । मूलभूतः । जीवा० २६४ । • दश० १२ । स एवं जणपयादीहिं उववेय । दश० चू० पदमचरमसमय-प्रथमचरमसमयः । भग० ९६६ । . १२५। पढमद्धा-पढमपौरुष्यां यदद्धम् । ओघ. १४८ । पड़प्पन्ननंदी-प्रत्युत्पन्नेन-लब्धेन वस्त्रशिष्यादिना प्रत्युत्पन्नो पढमपढमसमय-प्रथमप्रथमसमयः। भग० ६६६ । वा-जातः शिष्याचार्यादिरूपेण नन्दति यः स प्रत्युत्पन्न पढमपत्तं-प्रथमपत्र-या बीजस्य समुच्छूनावस्था। प्रज्ञा० • नन्दी, नन्दनं नन्दि:-आनन्द:, प्रत्युत्पन्नेन नन्दिर्यस्य स ३० । ठाणा. २१८ । पढमपाउस-आसाढो, छण्हं उत्तूणं जेण पढमो पाउसो पडप्पन्नविणास-प्रत्युत्पन्नविनाशं-उदाहरणस्य चतुर्थो भेदः | · वणिजंति ते । नि० चू० प्र० ३३४ आ । ज्ञाता० दश० ३५ । ६५। प्रथमप्रावृट् । आव. २६२ । प्रथमवर्षा। ओघ० पडुप्पन्नविणासि-प्रत्युत्पन्नस्य तत्कालोत्पन्नवस्तुनो विना- | १६० । इह आपाढ श्रावणी प्रावृट् , आषाढस्तु प्रथमशोऽभिधेयतया यत्रास्ति तत् प्रत्युत्पन्नविनाशि । ठाणा० प्रावृद्, ऋतुनां वा प्रथमेति प्रथमप्रावृट् । ठाणा० ३०९ । २५७ । पढमपुच्छा-कोसि तुमं को व ते णिध्वेदो जेणं पव्वयसि पडुप्पन्ना-प्रत्युपना:-वर्तमानकालभाविनः । आचा०१७८॥ एवं पुच्छिते पढमपुच्छा । नि० चू० द्वि० ३० आ। पडुप्पाएमाण-प्रत्युत्पद्यमान-गुण्यमानः। जोवा० १७६ । पढमबिइय-प्रथमपरिषहेण बाध्यमान:- क्षुधित इत्यर्थः । पडुप्पायंति- । नि० चू० द्वि० २ अ। द्वितीयपरिषहेण तृषा बाध्यमानः पिपासया पीड्यमानः। पडेसुअ-प्रतिद्युतः-प्रतिशब्दः । जं० प्र० ३९६ । ओघ० १०३ । पडोआर-प्रतीकारः । आव० ३४७ । नि० चू० प्र०पढमवओ-प्रथमवयः । आव १३७ । ३५६ आ । पढमसत्तराइंदिया-भिक्षुप्रतिमाविशेषः । ज्ञाता० ७२ । पडोयार-परिकरणम् । ओघ० १३२ । प्रत्यवता:- पढमसमयणियंठा-योऽन्तर्मुहूर्तनिर्ग्रन्थकालसमय राशी प्रथप्रादुर्भावः । जं० प्र० ६६ । प्रति-सर्वतः सामस्त्येन मसमयं प्रतिपद्यमानः सः प्रथमसमयनिर्ग्रन्थः । उत्त० अवतोयंते व्याप्यते येन सः प्रत्यवतारः । प्रज्ञा ५३२ । २५७ । प्रत्यावतार:-उपकरणम् । पिण्ड० १३ । पढमसमयतिरिक्खजोणिय-प्रथमसमयतिर्यग्योनिक:-नरपडोलकंद-गुच्छाविशेषः । प्रशा० ३२ । कादिशेषगतित्रयादागतः प्रथमसमयेन वर्तमानः । जीवा. पड्डए-ह्रस्वमहिषो । उत्त०.३०३ । . पडुच्छिखोर-पड्डच्छिनोरं-पारिहिट्टिक्षोरम् । मोघ० पढमसमुहिस्सग-प्रथमसमुदिष्टः-ालानादिः । ओघo ४८ । १८५। (६४५) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमसमोसरण] आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [पणतित का ३३ । पढमसमोसरण-प्रथम-आद्यं बहूण समवातो-समस्सरणं । | पणए-पनक-अनन्तकायवनस्पतिभेदः । बाचा० ५६ । नि. चू० प्र० ३३६ आ । प्रथमसमवसरणं-प्रथमवर्षा पनक:-वनस्पतिविशेषः । पिण्ड. १२ । साधारणवादरकालसमयः । व्य. प्र. १६१ आ। वनस्पतिकायिकः । प्रज्ञा० ३४ । जलरुहविशेषः । प्रज्ञा. पढमा-प्रथमा-प्रथमालिका। बोष०४१। प्रथमालिका।। बोध० १५४। प्रथमिका-मूलभूता । जं. प्र. ३२४ । | पणएमि-याचे। नि०० वि०१०१। प्रणयामि-प्रार्थ पढमाओसप्पिणी-अवसर्पिण्या:-प्रथमो विभाग:-प्रथमाव- | यामि । ६० द्वि० २०४ आ। सप्पिणी । जं. प्र. ४५५ । पणओ-उल्ली । नि० चू० प्र० १८२ आ । पनक:पढमालिय-प्रथमालियं मात्रकम् । ओघ० १०३ । नि० | सूक्ष्मवनस्पतिजीवविशेषः । विशे० ३१३ । चू० प्र १५५ अ। पणग-पनकः-फुल्लि । आव० ५७३ । पनक-उल्लि । दश. पढमालिया-प्रथमालिका-नमस्कारसहितभोजनकालमा- १७५। पनक:-उल्लिवनस्पतिः । दश० २२९ । पनक: नम् । आव० २६३ । प्रथमालिका । उत्त० ६० । उल्लीरः । ओघ १३७ । पनक:-उल्लिजीवः । उत्त. पढमावलियाए-प्रथमा-उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया आद्या- ६६२ । पंचवण्णो संकुरो अणंकुरो वा । नि० चू० वि० श्चतस्र आवलिका यस्मिन् स प्रथमावलिकः, अथवा ३ अ । आयरिय उवज्झाउ पवत्ती थेरो गणावच्छेतितो प्रथमात-मूलभूताद्विमानेन्द्रकादारभ्य याऽसावावलिका- य एते पंच अहवा आयरिय उवज्झाउ थेरो खुड्डो सोहा विमानानुपूर्वी । सम० ७७ । एते पंच । नि० चू० प्र० १७३ मा । उल्लो । नि० पदमा सत्तरादिणा-प्रथमा सप्तरात्रिकी । आव०६४७॥ चू० प्र० १२१ अ । नि० चू० प्र० २५५ । पनक: सप्तराविन्दियानि यासु ताः सप्तरात्रिन्दिवास्ताच तित्र काष्ठादावुल्लिविशेषः पञ्चवर्णः । आचा० ३. । पनक:भवन्तीति सप्तानामुपर्यष्टमी प्रथमासप्तरात्रिन्दिवा। सम. प्रबलः कर्दमविशेषः । भग० ३०७ । पनक:-भूम्यादा वल्लिविशेषः । आचा०२८५। पनक:-उल्ली । ठाणा. पढमिल्लुआ-प्रथमिल्लुका-अनन्तानुबन्धिकोषमानमाया- ४३० । लोभः । विशे० ५४३ । पणगजीव-पनकजीव:-वनस्पतिविशेषः । आव० २९ । पढमिल्लुग-प्रथममेव प्रथमिल्लुक-प्रथममनापतसंलोकल- पणगदगमट्टीमकडासंताणए-ससदशं सबलम् । सम. क्षणं स्थंडिलं तत् । बृ० प्र०७२ ब. । प्रथमक- ३९ । आविचिमरणम् । उत्त० २४० । जहण्णं । नि० चू. पणगमट्टिया-पनक:-अत्यन्तसूक्ष्मरजोरूपः स एव मृत्तिका तृ. ६ आ । पनकमृत्तिका । उत्त० ६८६ । पवनमृत्तिका-माषु प्रथमः । सं०। पर्पटिका । उत्त० ६८६ । पढमिल्लुया-प्रथमिल्लुका-प्रथमा एव । आव०७७ । । पणगमत्तिया-नद्यादिपुरप्लाविते देशे नद्यादिपूरेऽपणते पढमेवए-प्रथमे वयसि बायोवने । उत्त० ४७५। यो भूमौ श्लक्ष्णमृदुरूपो जलमलोऽपरपर्यायपङ्कः । पढमोग्गहो-अनुज्ञास्यदाचार्य भोगज्ञापनपूर्वमवग्रहप्रहः। वृ० पनकमृत्तिका । जीवा० २३ । द्वि० ८६ (?)। पणटुसंधि-प्रनष्टसन्धिः, सर्वथाऽनुपलक्ष्यमाण पत्राद्वय. पण-पणः-द्रम्भः । आव० ४२१ । सन्धिः । (?)। पणइ-प्रणतिः । बाव. ४०७ । पणट्रसंधिय-प्रनष्टसन्धि-अनंतजीवम् । आचा. ५६ । पणइओ-याचितः । नि. चू० प्र० १६५ म। पणत-प्रणतो-जात्यादिभावहीनो निम्बादिः । ठाणा पण उ-उलो । दश• चू. ८०। उल्ली । नि: चू०प्र० १८२ । नंदी. ३ । १८२ बा। पण तित-पणयितः। उत्त. २१९ । प्रणयित:-याषितः । (६४६ ) २२ । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणपण्णग] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [पणियसाला ब्य० द्वि० २६३ अ। पणामिओ-दत्तः । दश० ३८ । पणपण्णग-पञ्चकपर्दादयः पण्यं यस्या एकबारप्रतिसेवने पणामिडासि-दद्याः । आव० ३०१ । मा पञ्चपण्यिका । व्य० प्र० २५० अ । पणामेइ-दातव्यम् । ओघ० १८५ । अर्पयति । आव० पणमिय-प्रनमितम् । भग ३७ । मुद्धाणं सिरं तेण | ६८७ । पणामकरणं । नि० चू० प्र० २३७ आ । पणामे-अप्पयितुम् । बृ० दि० २०३ आ । पणय-प्रणयः-स्नेहः । भग० ३०६ । पनक:-प्रतलः कर्दमः। पणाय-विक्रयाय । नंदो० ६२ । ज० प्र० १६६ । पनक:-प्रतलः सूक्ष्मः कर्दमः । प्रश्न |पणायितुं-विक्रेतुम् । नंदी० ६२ । ६५ । पनकः-फुल्लि । ओघ० १३१ । पनक-साधा- पणालछिटुं-मंडविगाछादितमाले वा वासोदगं पविट्ठ, रणवनस्पतिविशेषः । प्रशा० ४० । डायाले वा पणालछिड्ड । नि० चू० प्र० १२० । पणयए-प्रणयते प्रासादयति । व्य० प्र० १९८ । | पणालि-प्रकृष्टा नाली-शरीरप्रमाणा दीर्घतरा यष्टिः । पणयमत्तिया-नद्यादिपूरप्लायिते थेशे नद्यादिपूरेऽपगते | प्रश्न. ५८ । यो भूमो श्लक्षण मृदुरूपो जलमलापरपर्यायः पङ्कः स पणिअट्ट-प्रणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थ:-प्राणघृतप्रयोजनः । पनकमृत्तिका । तदात्मका जीवा अप्य भेदोपचारात्पनक- दश० २१९ । मृत्तिकाः । प्रज्ञा० २६ । पणिग-पण्यः । श्राव. ८२४ । पणया-प्रणता-महताफलभारेण दूरं नता। जीवा० १५२। पणित-सत्यङ्कारः । नंदी० १४६ । पणयामि-प्रणयामि-याचे । पिण्ड १३६ । पणितसाला-भाण्डशाला-यत्र घटकरकादिभाण्डजातं त पणयालं-पञ्चचत्वारिंशत् । आव० ६३४ । सङ्गोपितमास्ते । बृ. द्वि० १७५ अ । पणयासणं-प्रणतासनम्-निम्नासनम् । जीवा० २००। पणिधाय-प्रणिधाय-मर्यादीकृत्यम् । सूर्य० १४ । पणव-भाण्डपडहः । औप०७३ । पणव:-भाण्डपटहः । पणिधिए-प्रणिधिना-मायया यथा वाणिजकादिवेषं विधाय लघुपटहो वा । भग० २१६ । पणव:-माण्डपटहो लघु- गलकर्त्तकाः । सम० ५२ । पटहो वा । ज० प्र० १.१ । गुंजा । नि० चू० तृ• पणिय-पणितः-व्यवहारः । ज्ञाता० १५। विक्रयम् । ६२ आ। पणवो-भाण्डपटहो लघुपटहो वा । राज. बृ० द्वि० २०० अ । पणितं-क्रयाणकम् । जं.प्र. ४६ । पणवो भाण्डानां वाद्यम् । राज. २५ । भाण्ड- १०२ । व्यवहारः, क्रयाणकम् । भग०६७१ । पणितंपटहः । भग० ४७६ । पणव:-भाण्डानां पटहः । जीवा० भाण्डम् । ज्ञाता० ३। पण्यः-भाण्डः । ज्ञाता०१५७ । १०५ । भाण्डानां पणवः । जीवा० २४५ । पणव:- पणितं-भाण्डम् । औप० ४। पणितम् । नंदी० १४६ । भाण्डपटहो लघुपटहो वा । जीवा० २६६ । पणव:- | पणियगं-पणः । आव० ४१७ । लघुपटहः । प्रश्र. १५६ । पणियगिह-जत्थ भंडं अच्छति । नि० चू० द्वि० ६६ पणवनिय प्रगपनिक:-व्यन्तरनिकायानामुपरिवत्तिनो व्य. आ । पण्यगृह-पण्यापणः । आचा० ३६६ । पणिताहन्तरजातिविशेषः । प्रभ० ६६ । वाणमन्तरविशेषः । भाण्डनिक्षेपार्थगृहम् । औप० ४१ । पण्यगृहं हट्ट इति । प्रज्ञा० ९५ । औप० ६१ । पणवसंठिय-प्रणवसंस्थितः-रतनप्रभापृटव्यां आवलिका पणियसाला-जत्थ भायणाणि विक्केति वाणिय कुंभकारो बाह्यस्य सप्तदशं संस्थानम् । जीवा० १०४ । वा । नि० चू० तृ० २१ आ । कुम्भकाराणां वणिजी पणाम-दृष्टिवादें सूत्रे भेदः । सम० १२८ । वा भाजनविक्रयस्थानम् । बृ० द्वि० १७५ अ । पणितपणामई-प्रणामयेत्-अर्पयेत् । उत. ४६२ ।। शाला-हट्टः । ज्ञाता० ७६ । पण्यशाला:-घशाला । पणामय-प्रणामकः-शन्दादिविशेषः । सूत्र० ६८ । आचा० ३६६ । पण्यशाला-आपणः । आचा० ३०७ । (६४७) Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणिवयामि ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पणोलि पणितशाला-बहुग्राहकदायकजनोचितो गेहविशेषः। औप० प्रणिधि:-माया न कार्या। योगसंग्रहेऽष्टादशो योगः । आव० ६६४ । प्रणिधि:-व्यवस्थापनम् । उत्त०४६६ । अण्णपणिवयामि-प्रणोमि-अभ्यर्थयामि, अभ्यर्चयामि वा । हाकयं । आव० ६६१ ।। आव० ३८६ । पणी-पणतं पण्यमिति वा क्रयविक्रयोपजावी । जीवा० पणिवयामो-प्रणमामः-पूजयामः । आव० ५३० । २७६ । पणिसुणणा-प्रतिश्रवणं-अभ्युपगमः । पिण्ड ० ४६ । । पणोअ-पणितं-पण्यम् । दश• २२१ । प्रणोतं-स्निग्धम् । पणिहा-प्रणिधान-प्रणिधा । जीवा० ३२६ । प्रणिधा- दश० १८६ । प्रभाव: । जीवा० ३२६ । पणीतं-घृतम् । नि. चू० प्र० १५५ अ । पणिहाए-प्रणिधाय-अवधोकृत्य । सूर्य० ३१ । प्रणिधाय- पणोतरसं-नेहविगतीओ । दश० चू० ८६ । अपेक्ष्य । प्रज्ञा० ३५६ ।। पणीय-प्रणोतं-गलद्विन्दुः । उत्त० ४२६ । प्रणीतं-अर्थपणिहाण-प्रणिधानं-अन्तःकरणवृत्तिः । सूत्र० ३०६ । कथनद्वारेण प्ररूपितम् । नंदो० १९३ । प्रणोतं-स्निग्धम् । प्रणिधिना-एकाग्रचित्तप्रधानेन यद्वचनं प्रणिधानं-गूढपुरु- ओघ० ६८ । प्रणोतं-स्निग्धमधुरम् । बृ० प्र० २३५ म । षाणां यद्ववनम् । प्रश्न० ५८ । प्रणिधानं-अकुर्वतोऽपि प्रणोतं-गूढस्नेहं घृतपूराद्यखाद्यं प्रक्षितमण्डकादिस्नेहाकरणं प्रति दृढाध्यवसानम् । आव० ५८८ । प्रणिधानं- वगाढकसणादि वा । ० त० २०६ आ। निद्रा पसलं दृढाध्यवसानलक्षणम् । आव० ५८८ । प्रणिधानं-चेत:- वण्णादि उवचेयं । दश० चू. १२७ । प्रणोतं-पक्वं, स्वास्थ्यम् । दश० १०६ । प्रणिधानं-एकाग्रता । ठाणा. आनीतम् । आव० ७४१ । प्रणीतं-गलत्स्नेहं भोजनम् । १२१ । प्रणिधिः प्रणिधानं-प्रयोगः । ठाणा. १९६ । पिण्ड० १७४ । प्रणीतं-शुभतया प्रकृष्टम् । भग० २२३ । प्रणिधानं-चित्तकाग्रघम् । भग०६३ प्रणिधानं-प्रयोगः।। प्रणीत:-गलस्नेह बिन्दुः । प्रश्न० १४१ । उपा० १० । प्राणधान-चेतःस्वास्थ्यम् । व्य. प्र. पणोयगहण-स्नेहवव्यग्रहम् । ओघ० ६८ । १६ अ । पणीयतर-प्रणीततर:-युक्तियुक्तिः । सूत्र. ४१३ । पणिहाणजोगजुत्तो-प्रणिधानं-चेतःस्वास्थ्यं तत्प्रधाना पणोनिद्धभोयणविवजण-प्रणोतो-गलस्नेहद्विन्दुः स्निग्धयोगा-व्यापारास्तैर्युक्त:-समन्वितः प्रणिधानयोगयुक्तः । भोजनं तस्य वर्जनं प्रणीतस्निग्धभोजनवर्जणम् । पञ्चमं दश० १०६ । भावनावस्तु । प्रभ० १४१ । पणिहाणव-प्रणिधानवान्-चित्तस्वास्थ्योपेतो न तु राग-पणीयभूमी-प्रणोतभूमिः-व्यवहारभूमिः । हट्टमध्य इति । द्वेषवशगः । उत्त० ४२६ । उत्त० १३३ । पणिहाय-प्रणिधाय-माश्रित्य । जीवा० १०१। प्रणिधाय- पीयरस-प्रणीतरसं-गलघृतदुग्धादिबिन्दुः । औप० ४०। संयम्य । दश० २३५ । प्रणिधाय-आश्रित्य निरुद्धह- पणीयरसभोई-प्रणोतरसभोजी-गलस्नेहरसबिन्दुकस्य षिकः । जीवा० ३८४ । प्रणिधाय-अपेक्ष्य । जीवा० भोजनस्य भोजकः । सम० १६ । . ३२६ । प्रणिधाय-अपेक्ष्य । ज्ञाता. १७० ।। पणोयरसविवजए ।भग ९२१ । पणिहि-प्रणिधि:-माया न कार्या । प्रश्न. १४६ । पणीया-नीता । आव. ७००। पणिहितैदिय-प्रणिहितेन्द्रियः । प्रश्न० १६० । पणुल्लयामो-प्रणुदामः-प्रेरयामः । उत्त० ३७१ । पणिहिय-प्रणिहितः-संवृतः । प्रश्न० १६० । पणुलिजा-प्रेरयेत-उद्घाट येत् । दश० १६७ । पणिहियप्पा-समाधिमदात्मा । मर० ।। पाणुलिया-प्रेरिता । आव० ३४५ । पणिही-प्रणिधिः-प्रणिधानं विशिष्ट काग्रत्वम् । प्रभ० | पणोल्लणगती-प्रणोदनगतिः । ठाणा० ४३४ । १४७ । प्रणिधिः-निधानादिप्रणिहितम् । दश० २२५ । पणोद्धि-प्रणोदिजन्मप्रवर्तकम् । प्रश्न. ६१ । (६४८) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणोक्कि ] पणोलि - प्रणोदी-प्राजनकदण्डः । प्रश्न० ५८ । प्रणोदि. जन्मप्रवर्तकम् । प्रभ० ६१ । पणोडिया-प्रणोदिता । उत्त० १५० । पण्डक - मेरूसम्बन्धी चतुर्थ वनम् । प्रभ० १३५ । पण्डितः - हेयोपादेयतत्त्वज्ञः । बाचा० ११८ | संसारविमु खप्रज्ञतया कोविदः । पिण्ड० ७२ । पण्डुरार्या - मायाशल्ये दृष्टान्त: । आव० ५७६ । पण्णगइंद - पन्नगेन्द्र:- भुजगवरो नाम कुमारः । प्रश्न० १३५ । पण्णगारं प्राभृतम् । नि० ० प्र० ३४५ अ । पण्णन्तं - योग्यीकृता । औप (?) २ । उपादेयतया प्रकाशितम् । औप० ५ । प्राज्ञः - गणधरैस्तीर्थंकरादात्तंगृहीतमिति प्रज्ञातम् । अनु० २ । प्रगुणितः । नि० चू० द्वि० ६६ आ । प्रगुणः । नि० चू० प्र० ३३० अ । प्रज्ञाप्तं प्रज्ञया - विशिष्ट कर्म विषयबुद्धघा आप्तं प्राप्तं अतीव सुष्ठु परिकम्मितमिति । सूर्य० २९३ । भग० ५४० । पण्णत्ता - प्राशेः - छेकै राप्ता प्रज्ञाता-छेकपुरुषपरिकर्मिता । राज० २ । पण त्ति - प्रज्ञप्तिः - विद्याविशेषः । आव ० ६४ । प्रशतिः । (?) पण्णत्ती - कुशलाः । तं । पणपणिका - पञ्चपयिका कुलटा । व्य० प्र० २५० ॥ पण्णप्पइ - दहति । नि० ० प्र० १८६ वा । पण्णवग - प्रज्ञापकः - मेयद्रव्याणामियत्ता निर्णायकः । ज०प्र० २२७ । पण्णवण - प्रज्ञापनम् । विशे० ४२३ । पण्णवणा- प्रज्ञापना- सामान्येन भङ्गकथनम् । बृ० द्वि० २१७ आ । जीवादिपदार्थानां प्रज्ञापनं प्रज्ञापना । नंदी० २०४ | प्रज्ञापना - प्रकर्षेण निःशेषकुती थितीर्थंकरा साध्येन यथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन शाप्यन्ते शिष्य बुद्धधामारोप्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्था अनयेति प्रज्ञापना । प्रज्ञा० १ । स्वरूपनिरूपणम् । उत्त० ४६७ । प्रज्ञापना- प्ररूपणा । ओघ० ७६ । पण्णवणि- प्रज्ञापनी - विनेयस्योपदेशदानरूपा । भग० ५००। पण्णवणिजा - जे पण्णवेडं सक्केंति छउमस्थो वा बुद्धी घेत्तुं सक्केति । नि० चू० द्वि० १४० अ । अल्प० ८२ ) अल्पपरिचितसद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ पण्हर्वेति पण्णवणी - प्रज्ञाप्यतेऽर्थाऽनयेति प्रज्ञापनी- अर्थप्रतिपादनी, प्ररूपणीयेति वा । प्रा० २४६ । प्रज्ञापनो-विनीतविनयस्य विनेयजनस्योपदेशदानं यथा प्राणिवधानिवृत्ता भवन्ति भवान्तरे प्राणिनो दीर्घायुष्यइत्यादिरूपा भाषा । प्रशा० २५६ । पर्णाविति प्रकर्षेण संशीस्यपनोदायान्तेवासिनो जीवाजीवाभवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षपदार्थान् ज्ञापयन्ति प्रज्ञापयन्ति । आचा० १७६ । पण्णर्वेति-उपपत्तिभिः प्रज्ञापन्ति । भग० ६८ । पण्णवेइ-व्यक्तपर्यायवचनतः प्रज्ञापयति । जं० प्र० ५४० । पण्णा-प्रज्ञा-प्रज्ञानं प्रज्ञा विशिष्टक्षयोपशमजन्या प्रभूतवस्तुगत यथावस्थितधर्मालोचनरूपाः मतिः । आव० १८ । प्रज्ञा- हेयोपादेयविवेचिका बुद्धिः । उत्त० २७८ । प्रज्ञाप्रक्रमान्मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयात्मिका । उत्त० ४६१ । प्रज्ञा - बुद्धिः । नंदी० ६५ । प्रज्ञा-स्वयं विमर्शपूर्वको वस्तुपरिच्छेदो मतिज्ञानविशेषभूत इति । परिषहविशेषः । सम० ४१ । प्रज्ञा - अशेषविशेषविषयज्ञानम् । भग० ५६ । प्रज्ञानं प्रज्ञा - विशिष्टक्षयोपशमजन्या प्रभूतवस्तुगत यथाऽवस्थितधर्मालोचनरूपा मतिः । विशे० २२६ । प्रज्ञामतिज्ञानविशेषः । भग० ३६० । प्रज्ञा- हेयोपादेयविवेचनात्मिका मतिः । उस० ३२५ । प्रशा- स्वयं विमर्शपूर्वको वस्तुपरिच्छेदः । उत्त० ८३ । पण्णाण - प्रज्ञानं - यथावस्थित विषयग्राहिज्ञानम् । आचा० ७६ । प्रज्ञानं - सदसद्विवेको यस्य स । आचा० १५१ । पण्णी-पणिमया महंता भारगा वज्झति । नि० चू० प्र० ४५ अ । पण्याजीव- वणिक् । जं० प्र० १२२ । पण्हय-अनार्यविशेषः । भग० १२७ ( ? ) । पण्डयति- पित्रति । निरय० ३० । पण्हव - पन्हवः - बिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । १४ । प्रश्न० पण्हवणं-येन परः प्रस्तुति भजते प्रल्हत्तो भवतीति प्रस्नवनम् । विपा० ५४ । पण्हवी-गयत्थरणी । नि० चू० द्वि० ६१ अ । पहति - प्रश्नुवन्ति । व्य० द्वि० १६३ मा । ( ६४९ ) Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहा ] ... आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः पहा-प्रभा:-अङ्गुष्ठवाहप्रमादिका मन्त्रविद्या । सम.१२४१ | पतनता भ्रमिमूर्छादिना । माचा० २५५ । प्रभाः-अङ्गुष्ठादिप्रभभावं तदभावं च प्रतीत्य या विद्या- पतयवई-द्वितीयपतेन्द्रः । ठाणा० ८५ । शुभाशुभं कथयन्ति ताः प्रश्नाः । सम० १२४ । प्रश्न:- पतरगणियभावणा-प्रतरभावना । जीवा० ३२५। पृच्छकस्य शुभाशुभकथनम् । नंदी० २३४ । पृच्छयत- पतवति-प्रतपति । जीवा० २४८ । दीप्ताङ्गारतो प्रतिइति प्रश्न-प्रष्टव्यार्थरूपम् । उत्त० २४१ । प्रश्न:-देव- पद्यते । जं० प्र० ४१६ । तादिपृच्छारूपः । ४० प्र० २१५ ब । पतिवया-पति-भर्तारं व्रतयति-तमेवाभिगच्छामीत्येवं पहि-पाणिः । आव० ५५ । नियमं करोतोति पतिव्रता । शाता० २०२ । पण्हिया-पाष्णिका । आव० ५७४ । पतिद्वा-प्रतिष्ठान प्रतिष्ठा-संसारभ्रमणविरतिलक्षणा, सम्यपण्हता-प्रस्नवा-स्तन्या । अन्त० ७ । ग्दर्शनाद्यवाप्तिसाध्या मोक्षप्राप्तिः । सूत्र० २०३ । पण्डत्त-सबाष्पः । नि० चू० प्र० १४५ अ । पतिद्वाण-प्रतिष्ठाननगरम् । उत्त० १०० । नयरवि. पण्डया-प्रस्नुता । उत्त० २७४ । सेसो नि. चू०प्र० ३४० अ । नगरनाम । बृ०४० २३६ पतंग-पतक:-व्यस्तरनिकायोपरिवर्तिनो व्यन्तरविशेषः । अ । गोदावर्याः नदीतरे नगरम् । व्य० प्र० १९३ । प्रश्न. ९५। पतिद्वायक-प्रसिस्थापक:-राजादिसमक्षं स्वपनिवेशनः । पतंगविहिता-पतङ्गः शलभस्तस्य वोषिका-मार्गः तथा ज्ञाता. २४० । सा, अनियतकमा चतुर्था गोचरचर्या । ठाणा• ३६५। पतिढिओ-प्रतिबद्यः । ६० तृ. २५२ । पतंगवीथिका-यस्यां तु त्रिचतुरादीनि गृहाणि विमुच्या. | पतिठिता-प्रतिष्ठिता:-आश्रिताः । ठाणा० ३५८ । प्रतः पर्यटति सा पतङ्गवीथिका-पतङ्गः-शलभः स हि पतिभकर-प्रतिभयकरं-मयजनकम् । सम० १२६ । गच्छन्नल्लुत्यानियतगत्या गच्छति तस्येव या वीथिका-पतिमय-प्रतिभयं-वस्तूवस्तुप्रतिभयम् । प्रश्न १३ । पर्यटनमार्गः सा । वृ० प्र० २५७ अ । पतिरिक-प्रतिरिक्त:-एकान्तः। जीवा० २६९। प्रतिरिक्तः । ठाणा० ८५ । | एकान्तः । ओष. १०३ । पतए-प्रथमपतेन्द्रः । ठाणा० ८५ । पतिव-प्रतिवः । प्रश्न० ७३ । पतङ्गः-तृणपत्रनिभितो जीवविशेषः । आचा० ५५ । पतोग-प्रयोग:-वादविषयः । ठाणा० ४२३ । सम्पाति जीवविशेषः । आचा० ५५ । कचवरनिश्रितो पतोदयं-पतदुदयं-पतितपताकम् । भग० १८७ । जीवविशेषः। आचा०५५। उभेदजः। दश० १४१ । पतोस-प्रद्वेषः । व्य० द्वि० ३५७ मा । पतच्छेज्जं-पत्रच्छेद्य अष्टोत्तरशतपत्राणां मध्ये विवक्षित- पत्त-पत्र-तमालपत्रम् । प्रश्न. १६२ । पात्रम् । आव. सङ्ख्याकपत्रच्छेदने हस्तलाघवम् । ज. प्र. १३९ । ११५ । पत्र-पलाशपत्रकारीपत्रादिकम् । अनु० १५४ । पतट-प्रस्तटः प्रस्तारः । जीवा० ३६० । प्राप्त-लब्धिविशेषाद् गृहीतम् । भग० २२४ । प्राप्तंपतणतणाइस्सई-प्रकर्षण स्तनितं करिष्यति-गजिष्यति । आदानशीलः । ओघ १३ । पात्रमिव पात्रमतिशयवद् ज. प्र. १७४ । ज्ञानादिगुणरत्लानां प्राप्तिर्वा गुणप्रकर्षमिति । ठाणा० पतणतणाएति-प्रकर्षण तणतणायते गर्जतीत्यर्थः । भग० २१ । प्राप्तम् । भग० १५६ । उत्त० ३२१ । सुत्तत्थ तदुभयस्स गहणधारणाशक्तेत्यर्थः । नि० चू. प्र. ७६ पतणतणायति-प्रत्यन्तं गर्जति । जं० प्र० ३८६ ।। आ। तमालपत्रादि । जं० प्र०६०। पत्र-पधिनी पतणुरागसंजुत्त-प्रतनुरागसंयुक्तः । आव• ६६ ।। पत्रादि । दश० २२८ । पत्र-पर्णम् । ठाणा० २७३ । पतत-प्रतत:-स्वप्नसन्तानः । नि० चू० द्वि० ८६ अ। पत्रं-तमालपत्रम् । भग० ७१३ । ज्वालाभिः पिठरं पतद्गृहं । व्य० प्र० २१८ आ। बुध्नेऽग्निः स्पृशति स प्राप्तः । अग्ने पञ्चमभेदः । पिण्ड. (६५०) पतइंदा Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचय ] १५२ । प्राप्तः- आसण्णीभूतः । ओघ १६८ । ज्ञाता० ६५, १८५ । पत्रं - पक्षसञ्चयम् । उत्त० २६९ । पत्तइय-पत्रकितः - सञ्जातकुत्सि काऽल्पपत्रः । ज्ञाता० ११६ । पत्तउर - गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । पत्तकयवर-पत्रकचवरः । जीवा० २८२ | पत्तकारीणि विषयभूतं शब्दादिक वस्तु प्राप्तं संश्लेषदारेणाऽऽसादितं कुर्वन्ति परिच्छिन्दन्तीति प्राप्तकारीणि प्राप्यकारीणि । विशे० १२३ । अल्पपरिचितसेद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ पतवेंट - पत्रवृन्तम् । जीवा० २२८ । पत्तसगडिया पत्राणां शकटिका-मन्त्री पत्रशकटिका | ज्ञाता० ७४ । पत्तहार - श्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । पत्तहारग - पत्रहारक:- श्रीन्द्रियजीव विशेषः । उत्त० ६१५ । पत्ता प्राप्ता देवभवे उपनीता । ज्ञाता० २४८ । प्राप्ताइदानीमुपनता । ठाणा० २४५ । प्राप्ता । शाता० १३४ । ऊनोदरतायाश्चतुर्थी भेदः । दश० २७ । ठाणा० १४६ । पत्ताबंध- पात्रबन्धः । आव० ७२३ । पात्रबन्धः । बोध० १६९ । पत्तबंधो - पात्रधारणवस्त्रं चतुरस्रम् । बृ० द्वि० २३७ अ । पत्तामोड - तरुशाखामोटितपत्रम् । निरय० २६ । तरुशाखामोटितपत्रम् | मग० ५१६ | शाखिशाखाशिखामोटितपत्रं देवतार्चनार्थमिति पत्रामोटकम् । अन्त० ११ । पत्तालग पात्रालकम् । आव २०१ । पत्तासव - पत्रासवः - पत्रः धातकीपत्र निष्पाद्य आसव: 1 प्रशा० ३६४ | पत्रासवः - पत्ररससारः । जीवा० ३५१ । पत्र निर्याससारः । जीवा ३६५ | पत्ताहार - पत्राहारकः । निरय० २५ । त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । पत्ति - प्रीतिः - साम्ना । उत्त० ६३ । पत्तिए - प्रतीति: प्रयोजनमस्येति प्रातीतिकं - शपथादि । उत्त० ६३ । प्रीतः प्रीतिविषयीकृतः प्रीतितः प्रत्ययितो वा । भग० १०१ । पत्तिज्जह - प्रतीयाः । मोघ० २१ । पत्तभूमिया सार्धं क्रोश द्रव्यादागताः । बृ० तृ० १८६ आपत्तिज्जा- प्रत्ययेत्-प्रतीतिविषयां कुर्यात् । प्रज्ञा० ३९९ । पत्तय- पात्रकम् । औप० १६६ । पत्रकं तलताल्यादि पत्तिएण - प्रीश्या सानेव । उत्त० ६३ । सम्बन्धि | अनु० ३४ ॥ पत्तित - प्रीतिक:- स्वविषये उत्पादितप्रीतिर्वा । ठाणा० ३५६ । प्रतीत: - उपपत्तिभिः । ठाणा० ३५६ । पत्तरक - प्रतरकम् । प्रश्न० १५६ । पत्तल - पक्ष्मवत् । औप० ४१ । पत्रलं - पक्ष्मवत् । जीवा० पत्तितस्स- उपपत्तिभिरथवा प्रीतिकस्य स्वविषये उत्पादित २७३ | पत्रलः - पत्रवर्ती । औप० है । पतग - पत्रक - लेखः । बृ० प्र० ३३ आ । पत्तच्छज्जं - अष्टषष्ठिकलारूपानम् । ज्ञाता० ३८ । पत्तज्भोडण - पत्रज्झोडनं तरुप्रान्तपल्लव फलादिपातनम् । प्रश्न० २५ । प्रत- प्रासार्थ:- अधिकृते कर्मणि निष्ठां गतः प्रशः । अनु० १७७ । प्राप्तार्थः - लब्धोपदेशः । औप० ६५ । पत्तण । भग० २२६ । पत्तणाल - पत्रनालम् । आव० ६२४ | पत्तणिज्जासो- पत्रनिर्यासः - धातकीपत्ररसः । जीवा० २६५। पत्तन-यत्-शकर्ट घट कैनभिर्वा गम्यम् । जीवा० ४० । यत् फुकट गम्यं तत् पतनं यथा भृगुकच्छम् । प्रज्ञा० ४८ । शकटेघटकैर्नीभिर्गम्यं पत्तनम् । जीवा० २७९ । जलस्थल पथयुक्तं रत्नयोनिभूतं वा । (?) पत्तपणालं - पत्रप्रणालिका । आव० ६२१ । पतपुड - पत्राणि - तमालपत्रादीनि । ज्ञाता० २३२ । पत्तर्बेटिया - श्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । श्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । पत्तवास - पत्रवर्षः - पर्णवर्षणम् । भग० १६६ पत्तविच्छुया - चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । चतुरिन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । पत्तवुट्टि - पत्रवृष्टिः । भग० १६६ । [ पतिय प्रीतेः । ठाणा० ३५५ । पत्तिय प्रोतिरेव प्रीतिकं स्वार्थिककप्रत्ययोपादानेऽपि रूठेर्नपुंसकतेति, तत्करोमि प्रत्ययं वा करोमीति परिणतः प्रीतिकमेव प्रत्ययमेव । ठाणा० २३५ । चतुरिन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । सञ्जातपत्रः । ज्ञाता० १२६ । ( ६५१ ) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तियति ] पत्तियति- प्रत्येति- प्रीतिविषयीकरोति । ठाणा० १७६ । प्रस्येति प्रतिपद्यते | ठाणा० २४७ | पत्तियमाण- प्रीयमाण:- असङ्गशक्तिप्रीत्या माचार्यभीमानम्यसागरसूरिसङ्कलितः वश्यन्तः । जीवा० ४ । पत्तियाइत्ता - प्रतीत्य- उक्तरूपमेव विशेषत इत्थमेवेति निश्चित्य । यद्वा संवेगादिजनितफलानुभवलक्षणेन प्रत्ययेन प्रतीतिपथमवतायं । उत्त० ५७२: प्रतीत्य-विशेषतः निश्चित्य । उत्त० ५७२ । पत्तियाणि प्रीतिकराणि । व्य० प्र० २४१ । पत्तियामि प्रीति प्रत्ययं वा सत्यमिदमित्येवं रूपं तत्र करोमि । भग० १२१ । उपपत्तिभिः प्रत्येमि प्रीतिविषयं वा करोमि । भग० ४६७ । प्रत्ययं करोमि । ज्ञाता ० ४७ । प्रतिपद्ये प्रीतिकरणद्वारेण । आव० ७६१ । पत्तियाविओ - प्रत्यायितः । दश० १०४ । पत्तियावित - प्रत्यायितः । आव० ९२ । पत्ती -पात्री । जीवा० २३४ । पात्री । ज० प्र० १०१ । पत्तीअ - प्रतीतं ज्ञातम् । ( ? ) ९३ । पत्तुल्लग - भाजनम् । आव० ३४९ । पन्तेअ - प्रत्येकं - पृथक् पृथक् । दश०- १६ । पत्तेग - पत्तेगवणस्सती । नि० चू० प्र० ५६ आ । पत्तेय - प्रत्येकं - पृथक् पृथक् । आव० ६१९ । प्रत्येकं - असाधारणम् । सूर्यं० २४० । पत्तेयणाम यदुदयात् जीवं जीवं प्रति भिन्नं ततु प्रत्येक नाम । प्रज्ञा० ४७४ । पत्तेयबुद्ध - प्रत्येकबुद्धास्तु बाह्यप्रत्ययमपेक्ष्य प्रत्येकं - बाह्यं वृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धः प्रत्येकबुद्ध: । प्रज्ञा० १६ । प्रत्येकबुद्ध: - पूर्वभवाभ्यस्तोभयकरणः | आव० ५३० । प्रत्येकबुद्ध: । आव० ५६८ । प्रत्येकं - बाह्यं वृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धः प्रत्येकबुद्धः । नंदी० १३१ । पत्तेयरसा - प्रत्येक रसः - एकमेके प्रतिभिन्नो रसो येषां ते, [ पत्थयण. मध्यभागं प्राप्याच्चतुविशत्या कवलैः प्राप्तावमोदरिका, अथवा प्राप्तव प्राप्ता द्वात्रिंशंतस्त्रयाणां भागानां प्राप्त'स्वाच्चतुर्थभागस्य चाप्राप्तत्वादिति । औप० ३८ । पत्तोव - पत्रोपेतवृक्षः । ठाणा० ११३ । पत्थं न सत्ययं - सत्यकोस्स भेओ । नि० द्वि० १५ आ । पत्थ- पथ्यं पथि - मोक्षमार्गे हितं क्षपकश्रेण्यां पूर्वोक्तं गुणत्रयम् । सूत्र० १६८ । सामान्येन पथ्यम् । भग० ५४३ । पथ्यं - रोगोपशमहेतुः । भग० ६७२ | पथ्यंनीरोगहेतुः । जीवा० ३५५ | पथ्यं - दुःखत्राणम् । भग० १६९ | प्रस्थं - चतुः कुड्यमानम् । दश० १३४ । पथ्यंअमृतंमृष्टं वा । आव० ५६५ । कुलवो । नि० चू० तृ० ५५ अ । पथ्यं-आनन्दकारणम् । भग० ६७२ । पथ्यं - आरोग्यकरम् । ज्ञाता० १७५ । प्रस्थ :- कुडवचतुष्टयप्रमाणः । अनु० १५१ । चत्वारः कुडवः प्रस्थ:माणकसमानं माध्यम् । ज० प्र० २४४ | प्रस्थःमागधप्रस्थः - चतुसेतिकाप्रमाणः । ओघ० २१५ | प्रस्थः । आव० ३४२ | प्रस्थः । उत्त० १४६ | पत्थए - प्रार्थयते - सेवते । दश० २०५ । भग० ३१३ । पत्थग - प्रस्थक: - मागधदेश प्रसिद्धो धान्यमानविशेषः । अनु० २२३ । पत्थड - प्रस्तट: - प्रस्तारः । ज० प्र० ४९ । प्रस्तटः- प्रतरः । ज० प्र० २६८ । प्रस्तटः - प्रस्तरः । प्रज्ञा० ६६ । प्रस्तर्ट:aruभूमिका कल्पः । जीवा० ६० । प्रस्तरः- प्रतयः । जीवा ० १७५ । प्रस्तट:- रचनाविशेषवानु समूहः । ठाणा० १७९ । प्रस्तट: - प्रतरः । सम० १३६ । पत्थ डोग - प्रस्तटोदकः - प्रस्तटाकारताया स्थितमुदकं यस्य सः । सर्वतः समोदकः । जीवा ० ३२१ । पत्थडोदय - प्रसृतोदकः समजलः । भग० २८२ । पत्थणय - प्रार्थनं - परं प्रतीष्टार्थयाचा । भग० ५७३ । पत्थणिज्जे - प्रार्थनीयः- बाधितुमनभिलषणीयः । उत्त० ५६० । पत्थति - प्राथयति - वाचते । औप० १४ । पत्थय - प्रस्थक:- काष्ठघटितो धान्यमानविशेषः । विशे० अतुल्यरसा । ठाणा० २८८ । पत्तेया- प्रत्येकजीवः - पत्र पुष्पमूल फल स्कन्धादीन् प्रति- प्रत्येकः जीवो येषां ते प्रत्येकजीवाः । आ० (?) ३०७ । पत्तोमोअरिआ - चतुविशतेः कवलानां द्वात्रिंशद् द्वितीयार्द्ध | पत्थयण-पथ्यदनं शम्बलम् । ज्ञाता ० १९३ । पथ्यदनम् । ८६६ । ( ६५२ ) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्थयत्ति ) अल्पपरिचितसैदान्तिकशम्बकोषः, मा० ३ [पदानुसारितुद्धि १° ११६ बाव. ८१३ । पत्थिया-प्रोषिता । गणिः । पत्थयत्ति । ज्ञाता० १६६ । | पत्थियापिडयं-वंशममयभाजनविशेषः । विपा० ५८ । पत्थर-प्रस्तार:-प्रायश्चित्तस्य रचनाविशेषः । ठाणा० | पत्थेइ-प्रायन-वाचा मां देहोति याचनम् । उत्त० ५८७ । ३७१ । प्रस्तरः । प्रभ० ५८ । प्रस्तर:-पाषाणः । बृ० पत्थेद्धा-प्रार्थयेत-अनुमन्येत गृहणीयादिति । सूत्र. १८४। पत्थोइ-प्रस्तोत्री-प्रस्ताविका प्रवतिका । प्रभ० ४२ । पत्थरिबह-प्रस्तीर्यत । आव० ६३१ । पत्रक-कुम्भम् । आव० १३२ । पत्थल्लं। ओष. १९२ । पत्रलेपनादि । आव० २६० । पत्थवम्मि-प्रस्तावे । पठ. ६७, ५ । पथ-पन्थाः । आव० १०८ । पत्था-प्रस्था-अवस्थितिः । निरय० २५ । प्रस्था-अव पथि-स्वपरसमयरूपः । ठाणा० २४१ । स्थितिः । भग० ५१९ । पथियायि-अप्रमत्तः । ठाणा० २४१ । पत्याण-प्रस्थान:-परलोकसाधनमार्गः। निरय० २६ ।। पद-पद्यतेऽनेनेति पदं । आव० ३७९ । आव० ६८ । पदंप्रस्थान-यात्रा । प्रभ० ४२ । प्रस्थान-परलोकसाधन- विभागः । ज० प्र० २०७ । पद-यात्रार्थोपलब्धिः मार्गः । भग० ५२० । तत्पदम् । सम० ३६, १०८ । पद-पद्यतेऽनेनेति पदंपत्थार-एकापराधे तज्जातीयानां दंडः । बृ० द्वि० ८४ | सूत्र पदविभागेनोच्चारणाद्वा ससन्धोनि पदानि अति अ । प्रस्तर:-कटः । ६० द्वि. १४६ अ । प्रायश्चित्त- पदव्याख्यातो भेदः । उत्त०१८ । पद-स्थानान्तरम् । रचनाविशेषः, ज्योतिष्कच्छन्दोगणितप्रायश्चित्तभेदात् । ओघ० १६७ । प्रकरणमर्थाधिकारश्च । प्रज्ञा०६ । प्रस्तारो नाम विरचना स्थापना इत्यर्थः। बृ० त० २२२ पदकारा-कम्ममुंगिता । नि० द्वि० ४३ आ। अ । प्रस्तारो-विनाशः । ६० द्वि०४४ आ । प्रस्तार:- पदत्त-प्रदत:-गुरुणोपदिष्टः । ज्ञाता० ११३ । विस्तारः । नि० चू०प्र०७१ मा प्रस्तार:-विनाशः। पदत्थ-पदार्थदोषः-यत्र वस्तुपर्यायवाचिनः पदस्यार्थान्तर पिण्ड० १४५ । नाशः । पिण्ड० १४३ । परिकल्पनाऽऽश्रीयते, एवंभूतः सूत्रदोषविशेषः । आव. पत्थारदोस-प्रस्तारदोष:-कुलगणसंघविनाशलक्षणः। बृ० ३७४ । तृ० ५७ अ । पदबद्ध-गेयपदैनिबद्धम् । ठाणा० ३६६ । गेयपदैर्बवं पत्थारपसंगो-प्रसूरणं प्रस्तारणं प्रस्तारः प्रस्तारे प्रसङ्ग विशिष्टविरचनया रचितम् । अनु० १३२ । उत्तरोत्तरदुःखसंभवः । नि० चू० प्र० १९६ आ । पदभड़-पश्चाच्चतुष्पदप्रचारादिद्वारेण । प्रश्न. ५८ । पत्यारेज-विस्तरेण विनाशं कुर्यात् । नि० चू० प्र. पदमग्ग-पदानां मार्गः पदमार्ग:-सोवाणा । नि० चू० प्र० ३०१ आ। ११९ आ । पत्थावाय-पथ्या-वनस्पत्यादिहिता वायवः । भग० २१२। पदमग्गविहि-पदमार्गप्रचारम् । ज्ञाता० २४० । पत्थिए-प्रार्थित:-लन्धुं प्राथितः। भग०४६३ । प्रार्थित:- पदरंग-प्रतरक-भोजन विधिः । आव० ८५६ । अभिलाषात्मकः । भग० ११५ । प्रार्थितः । विपा० पदविभागसामाचारो-कल्पव्यवहारः । ओष०१ । सामा. चार्या तृतीयो भेदः । व्य० प्र० १९ आ । पत्थिका-वृहत्पिहिका । ओघ० १६७ । पदविभागात्मिका-सामाचारभेदः । उत्त. ५४७ । पत्थिय-प्रार्थित:-प्रार्थनाविषय:-अभिलाषात्मकः । जं. | पदसम-यद्गीतपदं-नामिकादिकं यत्र स्वरे अनुपाति भवति प्र० २०३ । प्रार्थित:-अभिलाषात्मकः । जीवा० २४२ । तत् तत्रैव यत्र गीते गीयते तत् पदसमम् । अनु० १३२ । प्रार्थित:-अभिलषितः । ज्ञाता० ४१ । प्रस्थितः-प्रवृत्तः। पदा-पदा:-संयमस्थाः । प्रश्न. ६० । निरय० २६ । | पवानुसारिबुद्धि-ये गुरुमुखादेकसूत्र दमनुसृत्य शेषं भूत(६५३ ) Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्थ ]...... आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः मपि भूयस्तरपदनिकुरम्बमवगाहन्ते ते पदानुसारिबुदयः। सन्तीलता-प्रविभक्ति-मुक्तलताप्रविभक्तिश्यामलतावृ० प्र० १९३ मा । एकमपि सूत्रपदमवधार्य शेषमश्रुत- प्रविभक्त्यभिनयात्मको लताप्रविमक्तिनामा-एकवि. मपि तदवस्थमेव श्रुतमवगाहतेसा पदानु सारिणी । प्रज्ञा० शतितमो नाट्यविधिः । जीवा. २४७ । । ४२४ । पद्मलेल्या-पद्मगर्भवर्णानि यानि द्रव्याणि पीतानीत्यर्षः पवानुसारिता-ऋद्धिविशेषः । ठाणा० ३३२ । | तत्साचिव्याजाता । ठाणा० ३२ । पा-निर्गणो वा । आव० ७६० । कारकविषयः, | पद्यहवा-हदविशेषः । आचा० २२० । समासविषयस्तरितविषयो निरुक्तिविषयश्च । आव० पद्मा-इन्द्रस्य प्रथमाय महिषी । जं० प्र० १५६ । ४५५ । पद्माकार-खातविशेषः। नंदी. १६४ । पदार्थदोषः-यत्र वस्तुनि पर्यायोऽपि सन पदार्थान्तरत्वेन | पद्मावती-अरिष्टनगराधिपते राममातुलस्य हिरण्यनाभदुकल्पते । मनु० २६२ । . हिता। प्रश्न. ८८। पदिण्णा-प्रदत्तवती । आव० ५३८ । | पध-उष्णजलतेलादि । प्रश्न ५८ । छन्दो बदं । ज०प्र०, पदित्त-प्रदीप्तः । आचा० १५२ । २५६ । पदुग्गाणि-प्रदुर्गाणि-कुड्यप्राकारादीनि । आचा० ४११ । पधंसणं-(?) ।नि० चू० प्र० १६० । पट्ट-प्रविष्टः । ओघ० ६३ । पधारेइ-प्रधारयति-दुष्टं सङ्कल्पयति । जं.प्र. २४८ । पदेस-प्रदेश: लघुतरः । भग० ४८३ । प्रद्वेष:-मस्तरः । | पधारेति-प्रधारयति-प्रकर्षेण धारयति-करोति । प्रज्ञा प्रज्ञा० ४३५ । प्रदेशः । सूर्य. १६ । पदेसकम्म-प्रदेशकर्म-प्रदेशा एक-पुद्गला एव यस्य वेद्यन्ते पधाविय-प्रधावितः-वेगितगतिः । प्रभः ५० । न यथा बढो रसस्तत्प्रदेशमात्रतया वेद्यं कर्म प्रदेशकम। | पधाविया-प्रधाविता । आव० २२४ । ठाणा०६७ पथोवणा-अप्पणो पादे पुणो पुणो उच्छालना । निचू. पद्धतिः-राजिः। प्रभ. ८३ । प्र. १८८ अ । पा-जलजम् । जीवा० १३६ । दशरथसुतो रामापरनाम | पनक-जलरुहविशेषः । जीवा० २६ । जलरुहविशेषः । बलदेवः । प्रश्न. २७ । महादविशेषः । प्रभ०६६।। प्रज्ञा. ३१ । पनक:-गोमयाश्रितो जीवविशेषः। आचा. पानाम-द्रव्यजिनः । जं० प्र०१३ | भावीजिनः। जीवा ३ । अमरकङ्काधिपतिः । प्रश्न० ८७ । श्रुतमधिकृत्य पनकसूक्ष्मम्- । ठाणा० ४३८ (१)। कामकथायां राजा । दश. १०। पनकादयः-अनन्तजीविकाजोवाः । ठाणा० १२२ । पचनाल:-मृणालम् । जोवा० १२३ । पनगो-साकुगेऽनंकुरो वाऽनन्तकायः पञ्चवर्णः। वृत (?)। पापक्ष्म-केशरम् । भग० १२ । पन्थकसाधु-शलकाचार्यस्थिरीकारकः । सम० ११८ । पद्मपत्र-नाट्यविशेषः । जं. प्र. ४१४ । पन्न-प्रज्ञस्येदं प्राशं-गीतार्थेनोपात्तम् । सूत्र० ३.१ । पराग-मणिभेदः । जीवा० २३ । मणिभेदविशेषः ।। प्रकृष्टं ज्ञानं प्रज्ञा-सूक्मार्थविवेचकत्वम् । ठाण. १८३ । प्रज्ञा० २७ । पन्नकतिल-दूगंधितिलः । व्य० प्र. १५८ आ। पनराज-धातकोखण्डभरतक्षेत्रापरकङ्काराजधानीनिवासि. पन्नगभूत-पन्नगभूत:-सर्वकल्पेन आरमना करण्यभूतः । राजा । ठाणा० ५२४ । ज्ञाता० १६७ । पद्मलता-नाट्यविशेषः । जं०प्र० ४१४ । पन्नति-प्रज्ञप्तिः-स्वसमयपरसमयप्ररूपणा । ध्य० प्र० पालता-प्रविभक्त्यशोकलता-प्रविभक्ति-चम्पकलता- २३५ अ । प्रविभक्ति-चतलताप्रविभक्ति-वनलताप्रविभक्ति वा-पन्नत्तं-प्रज्ञप्त-उपादेयतया प्रकाशितम् । ज्ञाता० ३ । (६५४ ) Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मप्ति ] प्रज्ञप्तं तीर्थंकर नामक मौंदयवर्तितया प्रायः कृतार्थेनाऽपि परोपकाराय प्रकाशितम् । सम० ५। प्रशप्तं प्ररूपितम् । दश० २५५ प्रशस:- देशितः । प्रशा० ३६६ । प्रशप्तंप्ररूपितं तीर्थंकरगणधरैः । प्रज्ञा-बुद्धिः तया आप्तंप्राप्तं प्रज्ञातम् । प्राज्ञात् - तीर्थंकरादाप्तं प्रज्ञाप्तं गणधरेरिति । प्राज्ञेः- गणधर राप्तं प्राज्ञासम् । ठाणा० ६५ । पनति - प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते भगवता सुधर्मास्वामिना जम्बूनामानमभियस्याम् । प्रज्ञायाः - तद्धेतुभूतबोधस्य व्याख्यासु र्वा प्रज्ञाया मतिः- प्रातिः आत्तिर्वा आदानं यस्याः सकाशादसौ प्रज्ञाप्तिः प्रज्ञात्तिर्वा । प्रज्ञाद्वा-भगवतः सकाशादातिरात्तिर्वा गणधरस्य यस्याः सा तथा । प्रज्ञाप्यन्तेप्ररूयन्ते प्रबोध्यन्ते वा यस्याम् । प्रशतिः - अर्थप्रज्ञप्तिःअर्थप्ररूपणा प्रज्ञप्ति :- प्रज्ञाप्तिः । भग० २ । प्रज्ञप्ति:संशयापन्नस्य श्रोतुमंधुरवचनैः प्रज्ञापनम् । ठाणा ० २११ । पनत्ति अवखेव - संशयापक्षस्य भोतुमंधुरवचनः प्रज्ञापनम्। अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ ज्ञाता० ४६ । । ज्ञाता० १०१ । पनवणाहिपन्नवणी- प्रज्ञापनी -असत्यामृषाभाषाभेदः । दश० २१०॥ पनवयं-प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकः- गुरुः । अनु० १७७ । पन्नविज्जंति- प्रज्ञाप्यन्ते नामादिभेदाभिधानेन प्ररूप्यन्ते, नामादिस्वरूपकथनेन प्ररूप्यन्ते । सम० १०६ । प्रज्ञाप्यन्ते नामादिभेदोपन्यासेन । नंदी० २१२ । पन्नवित्ता-प्रज्ञाप्य-बोधयित्वा । ठाणा० ११९ । पन्नवियं-प्रज्ञापितं - सामान्यतो विनेयेभ्यः कथितम् । प्रभ० ११३ । पन्नर्वेति प्रज्ञापयन्ति- उत्पत्तिभिर्बोधयन्ति । ठाणा ० १३६| पनवेइ-प्रज्ञापयति- जीवाजीवादीन् पदार्थान् बोधयति । ठाणा ० ५०३ । प्रज्ञापयन्ति-प्रतिबोधयति शिष्यीकरोति । भग० ७११ । पनवेति पनवेज्ज-प्रज्ञापयेत्-भेदभणनतो बोधयेद् । भग० ४३६ । | भग० ११ (१) । पन्ना - प्रज्ञा- बुद्धिरीप्सितार्थसम्पादनविषया कुटुम्बकाभिनुद्विविषया वा तद्योगाद्दशापि प्रज्ञा प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञा दशदशाषु पश्चमी दशा । ठाणा० ५२९ । प्रशासूक्ष्मार्थविषया मतिः । भग० ७६३ । दशदशायां पञ्चमी दशा । नि० चू० द्वि० २८ आ । प्रज्ञा-जन्तो पञ्चमीदशा । दश० ८ । प्रज्ञापनं प्रज्ञा - विशिष्टक्षयोपशमजन्या प्रभूतवस्तुगत यथाऽवस्थितधर्मालोचनरूपा संवित् । नंदी० १८७ । पनव-प्रज्ञावान् प्राज्ञो - बुद्धिमान् । दश० २१३ । पनवग- प्रज्ञापतोति प्रज्ञापकः -मूलकर्त्ता । दश० ११४ । प्रज्ञापकः- गुरु । नंदा० १७६ । पन्नाण- प्रज्ञानं श्रुतज्ञानम् । आचा० २४९ । एवम्भूतश्वासी प्रकर्षेण ज्ञायते ज्ञेयं येन तद् प्रज्ञानम् । आचा● १५४ । पन्नाणम् - प्रज्ञानवान् ज्ञानी । आचा० २४६ । पनवग दिसा - प्रज्ञापकस्य - आचार्यादिदिक् प्रज्ञापकदिक्पनवगदिसा | ठाणा १३३ । पन्नवगपुव्व-प्रज्ञापकपूर्वकं प्रज्ञापनं (कं) प्रतीत्य पूर्वा दिक् पन्नाणमंता-प्रकर्षेण ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानं तद्वता सश्रुति का यदभिमुख एवासौ सेव पूर्वा । दश० ८५ । पन्नवणा- प्रज्ञापनाविषयं प्रश्नमधिकृत्य प्रवृत्तत्वात्, प्रज्ञा पनायाः प्रथमं पद प्रज्ञापना । प्रज्ञा० ६ । प्रज्ञापनाप्ररूपणा । प्रज्ञा० ५०६ । यथावस्थित जीवादिपदार्थज्ञापनात् प्रज्ञापना | अनु० ३८ । प्रज्ञापना-भेदाद्यभिधानम् । उाणा० १५६ । प्रज्ञापना- विशेषतः कथनम् । प्राप्यं परिहर्तुं शक्यम् । बृ० तृ० २६ अ । ( ६५५ ) ठाणा० २११ । पनत्तिधर- प्रज्ञप्तिधरः- भगवतीवेत्ता । आव० ५३२ । पन्नत्ती प्रज्ञप्ति:- एतदभिधाना काचिद्विद्या । सूय० ३०३ । प्रज्ञप्ती - प्रज्ञापना । बृ० प्र० १६० आ । प्रज्ञप्ति:संशयापनस्य मधुरवचनैः प्रज्ञापना । दश० ११० । स्व समयपर समयपरूपणा । व्य० प्र० २३५ । पन्नत्ते एगा-प्रज्ञप्ते - प्ररूपिते सत्यका गर्दा भवति, गर्हाया भेदः । ठाणा० २१५ । [ पप्प आचा० ३३३ । पन्नायंति - प्रज्ञायेते - अवबुध्येते । भग० ९१ । पन्नुन्न-वलकलतनुनिष्पन्नम्। आचा० ३९४ । पप्प-प्राप्य विज्ञाय | ओघ० ३७ । प्राप्य - विज्ञाय । ओघ० ३७ | प्राप्य - अभ्युपगम्य आश्रित्य । दश० ७० । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापडग] आचार्यमोमानन्दसागरसूरिसकुलितः [पक्षिय - - - पप्पडग-समसरियाए उभयतडेसु पाणिएण जा रेलिया प्राग्भार:-पुद्गलनिषयः । ठाणा. १२५ । प्राग्मार:सभी सा तंमि पाणिए ओहट्टमाणे तरिया बसा होउं उन्ट्रयादिलक्षणः । ठाणा. २५१ । प्राग्मारं यत्पर्वतउण्हेण छित्ता पप्पडी भवति । नि० चू० प्र० ३६ आ। स्योपरि हस्तिकुम्भाकृति कुजं विनिमंतं तत्प्राग्भारम् । पप्पडमोअय-पर्यटमोदक:-खाबविशेषः । जं. ०११८॥ नंदी० २२८ । प्राग्भारं-ईवदवमतम् । ठाणा. ५२० । पप्पडमोदय-पर्यटमोदकः । प्रज्ञा० ३६४ । ज्ञाता० ६६ । प्राग्मार:-ईषदवनतः । ज्ञाता. ९९ पप्पडमोयय-पर्यटमोदकः । जीवा० २७८ । पउभारगती-गा तु द्रव्यान्तराकान्तस्य सा प्रारभारगति. पप्पडिय-पर्यटिका गालिपपटिका । पिण्ड० १५४ । र्यथा नावादेरधोगतिः । ठाणा. ४३४ । पप्पू-उप्लुतं-व्याप्तम् । अनु० १३६ । पउभारा-प्राग्भारा:-ईषन्नता: पर्वताः । अनु० १७१ । पप्पुय-प्रप्लुतः । ज्ञाता० १३२ । प्रप्लुतं-प्रहनुतम् । प्राग्भारं-ईषदवनतमुच्यते तदेवंभूतं गात्रं यस्यां भवति प्रश्न. १६ । सा प्रारभारा-अष्टमीदशा । ठाणा० ५२० । दशदशापप्पोत्ति-प्राप्नोति । उत्त० ४०१ । याममधमीदशा । नि० चू० द्वि० २८ आ। पप्फुत-प्रप्लुतः । अन्त ० ७ । पभंकर-चतुर्थलोकान्तिकविमानः । ठाणा० ४३२ । प्रभपप्फुय-प्रप्लुत:-प्रवत्तितानन्दः । भग० ४६० । डुरं-चतुर्थलोकान्तिकविमानम् । भग० २७१ । प्रभङ्करःपप्फुल्लं-प्रफुल्लं-विकसितम् । जीवा० १७६ ।। एकोनसप्ततीतममहाग्रहः । जं०प्र० ५३५ । एकोनसप्तपप्फोडणं-प्रस्फोटनं-प्रकर्षेण घुननम् । ओघ० ११० । तितममहाग्रहः । ठाणा० ७६ । प्रभङ्करः-त्रीणिसागप्रस्फोटनं-आस्फोटनम् । प्रश्न. १५६ । प्रस्फोटनं- रोपमस्थिक:-देवः। सम०८। अष्टसागरोपस्थिकः देवः। आस्फोटनम् । प्रश्न. ११२ । सम० १४ । पप्फोडणा-प्रस्फोटना-प्रकर्षेण रेणुगुण्डितस्येव वस्त्रस्य पभंकरा-चन्द्रस्य चतुर्थी अग्रमहीषी । ठाणा० २०४ । झाटना । उत्त० ५४१ । प्रस्फोटना-प्रकर्षेण धूननम् । धर्मकथाया अष्टमवर्गस्य चतुर्थमध्ययनम् । ज्ञाता० २५२ । ठाणा० ३६१ । उक्खोडगप्पदाणं पप्फोडणा। नि० चू० धर्मकथायाः सप्तमवर्गस्य चतुर्थमध्ययनम् । शाता०२५२। प्र० १८१ अ । सूर्यस्य चतुर्थ्याग्रमहिषी । ठाणा० ००४ । सूस्य चतुपप्फोडे-प्रस्फाटयेत्-प्रस्फोटनां कुर्यात् । उत्त० ५४० । र्थ्याऽप्रमहिषी । भग० ५०५ । प्रभङ्करा-चन्द्रस्य ज्योतिप्रस्फोटयेत् । ओघ० १०८ । षेन्द्रस्य तुरीयाऽग्रमहिषी । जीवा० ३८४ । प्रभङ्करा१८फोडेमाणे - प्रस्फोटयित्वा (?) आभिग्रहिकेनान्येन वा वच्छवतीविजस्य राजधानी। जं०प्र० ३५२ । प्रभङ्करासाधुना स्वकीयरजोहरणेन उणिकपादपोछनेन वा | चन्द्रस्य चतुर्थी अग्रमहिषी । जं० प्र० ५३२ । ठाणा. प्रस्फोटनं कारयन् झाटयनित्यर्थः । ठाणा० ३२६ । । ८० । पफुसियपविरलं-विरलशीकरं-फुसारम् । आव० १२२। पभंगुर-प्रभारः स्वत एव भङ्गशीलः । आचा० २३८ । पबंध-प्रबन्धः-विकथादिषु वाऽविच्छेदेन प्रवर्तनम् । उत्त. पभंजण-प्रभञ्जन:-उत्तरनिकाये नवम इन्द्रः । भग० १५७ । ३४६ । प्रबन्ध-अविच्छेदात्मकम् । उत्त० ३४६ । वातकुमारेन्द्रः । ठाणा० ८५ । चतुर्थो वायुकुमारः । पबाह-प्रवाधा-प्रकृष्टा बाधा । ज्ञाता० ६७ । ठाणा० १६८ । चतुर्थों महर्टिकदेवः । ठाणा० २२६ । पबुद्धा-प्रबुद्धा-उत्फुल्ला । ज० प्र० ३३६ । प्रभञ्जन:-वायुकुमाराणामधिपतिः । प्रज्ञा० ६४ । पब्भार-प्रारभार:-अग्रतो मुखमवनतत्त्वम् । भग० १७४।। प्रभञ्जन: । जीवा० ३०६ ।। प्रागभार:-ईषदवनतः। भग० २३८ । प्रागभार:-जन्तो- | पभ-हरिकान्तस्य प्रथमो लोकपालः । ठाणा । रष्टमीदशा । दश०८। प्राग्भार:-ईषदवनतपर्वतभागः। पभकते-हरिकेतस्य ततीयो लोकपालः । ठाणा० १९७। ज्ञाता० ६३ । प्रागभार:-ईषतकुब्जः । प्रज्ञा० ७१। भणियं-प्रभणितं-भणनारम्भः । विपा०७६ । (६५६) Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभयाल]] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [पमत्त - - पभयाल-प्रभवालः तरुविशेषः । जं० प्र० ९८ । ९३ । द्वाविंशतिसागरोपमस्थिकः देवः । सम० ४१ । पभव-प्रभव:-उत्त्पत्तिस्थानम् । आचा. १३ । प्रभव:- प्रभासं-देवोद्योते तीर्थम् । आव०७०६ । प्रभास:उत्पाद: । प्रज्ञा० २५६ । प्रभव:-प्रकृष्टं भवनं प्रभव:- एकादशमगणधरः । आव० २४० ।। प्रौढतापर्यायः । विशे० ८६० । सत्पुरुषः, कल्पविधि-पमासा-प्रभासा तनिबन्धनत्वात् अहिंसाया एकोनषष्ठिनिषेवकः । बृ० प्र० २३० । नि० चू० द्वि० ३६ आ। तमं नाम । प्रश्न६९ नि० चू० त० १६ अ । चौरविशेषः । व्य० प्र० २४० । पभासेइ-प्रभासयति-अतितापयोगाद्विशेषतोऽपनीतशीतं पभा-प्रभा-यानादिदीप्तिः । भग० १३२ । प्रभा- विधत्ते यथा वा सूक्ष्मतरं वस्तु दृश्यते तथा करोति । यानादिदीप्तिः। औप० ५० । प्रभा-बाहुल्यम् । जावा. भग० ७८ । प्रभासयति-अतितापयोगाद् विशेषतोऽपनीत८६ । भावनावासगता प्रभा । जीवा० १६२ । प्रभा- शीतं करोति । जं० प्र० ४६ । आकारः । जं० प्र० १०० । प्रभा-स्वभाव: । प्रज्ञा०पभासेमाण-प्रभासयन-शोभयन् । औप० ४३ । प्रभा-प्रकाशः। सूर्य० ७८ प्रभा भावनावासगता। मानः सूक्ष्मवस्तूपदर्शनतः । ठाणा० ४२१ । प्रज्ञा० ८८ । प्रभा-आकारः । प्रज्ञा० ३६५ । प्रभा- पभु-प्रभु राजा । बृ० प्र० ६० आ। • स्वरूपम् । प्रज्ञा० ५३२ । प्रभा-प्रभावः माहात्म्यः ।। पभू-घणितो । नि० चू० द्वि० ४३ अ । राया। वि. ठाणा० ४२१ । प्रभा-प्रभाव: । उपा० २६ । प्रभा- चू० प्र. १७४ आ । प्रभुः-सक्त: । भग० १७६ । उद्गमनसमये यद् द्युतिस्फुरणम् । ज्ञाता० १७० । प्रभा- पभूय-प्रभूतं-उद्भूतम् । औप० ४६ । चन्द्रादिदीधितः । उत्त० ५६१ । पभूयदंसी-प्रभूतं- प्रमादविपाकादिकमतीतानागतवर्तमान पभाइ-प्रभाति । आव० २१८ । च कर्मविपाकं द्रष्टुं शोलमस्येति प्रभूतदर्शी। आचा. पभावई-मुनिसुव्रतस्वामिमाता । सम० १५१ । प्रभावति ।। २१८ । मलिमाता । आव० १६० । बलनरपति राजी । भग० प जिओ-प्रभुक्तः-भोक्तुं प्रवृत्तः । वृतृ० गा० ६०७१। ५३५ । प्रभावती-उदायनराज्ञो। उत्त० ६६ । प्रभावती- पमइलदुब्बला-प्रमलितदुर्बला स्नानभोजनत्यागात् । शिक्षायोगदृष्टान्ते हैहयकुलसंभूतवैशालिकचेटकप्रथमा पुत्री। ज्ञाता० ३३ । आव० ६७६ । पमलणा-प्रमार्जना-रजोहरणादिक्रिया । प्रभ० १५६ । पभावणा-प्रभावना-तथा तथा स्वतीर्थोन्नतिहेतुचेष्टासु मुहपोत्तियस्यहरणगोच्छगेहि पमजणा । नि. चू० प्र० प्रवर्तमानात्मिका । उत्त० ५६७ । प्रभावना-धर्मकथा- १८१ अ । बीयकणुगादीणं सकृत् अवणयणे आमज्जणा दिभिस्तीर्थख्यापना । दश० १०३ । प्रभावना-धर्मकथा- पुणो पुणो पमज्जणा । पुणो पुणो करेंतस्स पमजणा । दिभिस्तीर्थप्रख्यापना । प्रशा० ५६ । नि० चू० प्र० १९. अ । प्रमार्जना-रजोहरणादिव्यापमावती-प्रभावती-उदायनराजपत्नी । आव० २९८ ।। पाररूपा । प्रश्न० ११२ । उदायनस्य राज्ञी । नि० चू० प्र० ३४६ आ। उदायन- | पमजति-रयहरणेण पमज्जणं, पुणो पुणो पमज्जति । नरपते राज्ञी । भग० ६१८ । कुम्भकराजपरिनः । ज्ञाता. नि. चू. प्र. १८७ । १२४ । प्रभावती । निरय० ६ । पमन्जित-प्रमृज्यात-कर्दमादि शोधयेत् । आव० ३३८ । पमावेइ-प्रभावयति-प्रकाशयति । उत्त० ५५५ । पमजिय-प्रमृज्यात्-शोधयेत् । थाव० ३३८ । पभासंता-व्याख्यानेन प्रभासमानः । आव० ४४८ ।। पमज्जेमान-प्रमार्जयन्-शनैलूंषयनु । ठाणा० ३२६ । पभासंति-प्रभासयन्ति-तथाविधवस्तुदाहकत्वेन प्रभापमत्त-प्रमत्तः-पञ्चमनिद्राप्रमादवानु । ठाणा. १६४ ।. लभन्ते । भग. ३२७ । प्रमत्तः-अनुपयुक्तः । उत्त० ४३४ । प्रमत्तः-सुखी । पमास-जम्बूभरते तृतीयं तीर्थम् । ठाणा० १२२ । सम० ' आचा० १८३ । प्रमत्तः-प्रमत्तसंयतग्रामः । भूतग्रामस्य (अस०८३) (६५७) Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमत्ता] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पमाणसंवच्छर षष्ठं गुणस्थानम् । आव० ६५० । प्रमत्तः-पराभिमुखः । । परिच्छिद्यते धान्यद्रव्याद्यनेनेति प्रमाणं असतिप्रसृत्यादि, ओघ. १७६ । प्रमाद्यन्ति स्म-मोहनीयादिकर्मोदय प्रभा- इदं चेदं च स्वरूपमस्य भवतीत्येवं प्रतिनियतस्वरूपतया वतः सज्वलनकषायनिद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु प्रत्येक प्रमीयते-परिच्छिद्यते यत्तत्प्रमाणं-यथोक्तमेव, सीदन्ति स्म प्रमत्तः । प्रज्ञा० ४२४ । प्रमत्तः-कषाया- धान्यद्रव्यादेरेव प्रमिति:-परिच्छेदः स्वरूपावगमः प्रमाणम्। दिना प्रमादेन रागद्वेषवशं गतः । दश० ११५ । प्रमत्तः- अनु० १५२ । प्रमाणं-शास्त्रीय उपक्रमः । आव०३(?)। प्रमादवान् । ज्ञाता० ७९ । प्रमत्तः-असंयत:-परती. प्रमाणं-प्रकृष्टं मानं सूक्ष्ममानमित्यर्थः । भग० २४७ । थिको वा । आचा० १८१ । प्रमत्तः पञ्चविधप्रमाद- प्रमाणशब्देन विष्कम्मायामी । जं० प्र० ३२१ । प्रमाणेयोगात् । ज्ञाता० १११ । आत्माङ्गुलेनाष्टोत्तरशतागुलोच्छ्यता । ठाणा० ४६१ । पमत्ता-प्रमत्ता विषयः । आचार १८३ । प्रमाणं-भक्तपानाम्यवहारोपध्यादिनिम् । सम० १०७ । पमत्तायरिए-प्रमादो- मद्यादिस्तेनाचरितः प्रमादाचरितः।। प्रमाणं-वस्तुतत्त्वपरिच्छेदनम् । सम० ११५ । प्रमाणआव ८३० । स्वाङ्गुलेनाष्टोत्तरशतोच्छयता । ज्ञाता० ११ । पमदवणं-प्रमदावनम् । आव० ४२५ । पमाणकसिणं-द्वचादिपटं चर्म । वृ० द्वि० २२२ आ । पमद्द-प्रमदं-नक्षत्रविमानानि विभिद्य मध्ये गमनरूपम् । जं. अधिकविस्तारायाम वस्त्रम् । बृ० द्वि० २२६ अ। प्र. ४६१ (!) । प्रमई:-चन्द्रेण स्पृश्यमानता । ठाणा पमाणकसिणा-दोमादितलीजिए उवणाए एसा पमाणतो ४४२ । प्रमईम् । सूर्य० १३७ ।। कसिणा पमाणकसिणा। नि० चू० प्र० १३६ आ। पमहण-प्रमर्दनं-कठिनस्यापि वस्तुनश्चूर्णनकरणम् । पमाणकाल-प्रमाणकाल:-अदाकालविशेषो दिवसादिलजीवा. १२२ । प्रमईनं-कठिनस्यापि वस्तुनश्चूर्णनम् । क्षणः । दश. १ । प्रमाणकाल:-अद्धाकालः विशेषभूतो जं.प्र. ३८८ । दिवसादिलक्षणः । विशे० ८३७ । प्रमीयते-परिच्छिद्यते पमयकम्म-प्रमदाकर्म-कंडनपेषणदलनपचनपरिवेषणादि। येन वर्षशतादि तत् प्रमाणं सचासौ कालश्चेति प्रमाणवृ० तृ• ६७ अ । कालः प्रमाणं वा परिच्छेदनं वर्षादेस्तत्प्रधानस्तदर्थी वा पमयवण-गृहोद्यानम् । ज्ञाता० १४४ । तेतलिपुरनगरे कालः प्रमाणकाल:-अदाकालस्य विशेषो दिवसादिलक्षणः उद्यानम् । ज्ञाता० १८४ । । भग० ५३३ । पमया-प्रमदा-स्त्री । प्रश्न० ८३ । पमाणत्थो-प्रमाणस्थ:-मान्यः । ध्य. प्र० २० आ । पमाणंगुल-प्रमाणाङ्गलं-उत्सेधाङ्गलाद् सहस्रगुणम् । पमाणदोस-द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणातिरिक्तमाहारमाहारयतः प्रज्ञा० २६६ । सहस्रगुणितादुत्सेधाङ्गुलप्रमाणाज्जातम् । प्रमाणदोषः । आचा० ३५१ । परमप्रकर्षरूपं प्रमाणं प्रातमङ्गलं वा । युगादिदेवस्य | पमाणपत्ता-द्रात्रिंशता कवलैः प्राप्तप्रमाणो भवति साधुन भरतस्य वा अङ्गुलं वा प्रमाणाङ्गुलम् । अनु० १७१। न्यूनोदरः । औप० ३८ । प्रमाणप्राप्ता । आव २२७ । प्रमाणागुलम् । अनु० १५६ । पमाणप्पत्त-प्रमाणं-मानं तत् परिमाणं-मानं येषां ते पमाण-प्रमाणं-स्वागुलेनाष्टोत्तरशतोच्छ्यता । औप०१३।। तथा प्रमाणप्राप्तः । भग० २९२ । प्रमाणं-प्रमाणराशिः । सूर्य १५८ । प्रमाणं-नीतिबलं | पमाणवं पुरिसो-बारसंगुलपमाणाई समुहाई णवसमुस्सितो च । आव० ४६३ । प्रमाण-आदेयम् । आव० ५३४ । | पमाणवं पुरिसो । नि० चू० द्वि० ८५ आ । प्रमाणं-युक्तिः । सूत्र० ३४०। प्रमाणं-आत्माङ्गुलेना- पमाणसंवच्छर-प्रमाणं-परिमाणं दिवसादिनां तेनोप. ष्टोत्तरशताङ्गुलोच्छ्रयता । प्रश्न० ७४ । प्रमाण-अन्तर- लक्षितो वक्ष्यमाण एव नक्षत्रसंवत्सरादिः प्रमाणसंवत्सरः । मानम् । बं० प्र. ३२६ । प्रमाणकाल:-अदाकाल- ठाणा० ३४४ । युगस्य प्रमाणहेतु: संवत्सरः प्रमाण. विशेषो दिवसादिलक्षणः । भाव. २५७ । प्रमीयते- संवत्सरः । सूर्य० - १५३ । ( ६५८ ) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाणाइकंत ] पमाणाइकंत - प्रमाणातिक्रान्तः - बुभुक्षापिपासा मात्रानुचितः ज्ञाता० १११ | प्रमाणातिक्रान्तः - प्रमाणातिक्रान्तःद्वात्रिंशत्कवललक्षणमतिक्रान्तः । भग० १९२ । पमाद - प्रमादः - मद्यविक्रयादिः । भग० ६१६ । अणाभोगो सहस्सकारो । नि० चू० प्र० ९६ आ । पमाय- प्रमादः परिहासविकथादिः कन्दर्पादिः । ठाणा० ४८४ । प्रमादः - तदर्थमेव सर्वारम्भेष्वपि प्रवर्तनम् । असंप्राप्तकामदः । दश० १९४ । प्रमादः - विषयक्रीडाभिष्वङ्गरूपः श्रेयस्यनुमात्मकः । आचा० १२० । प्रमादोविकथारूपोऽस्थगिततै लभाजनघरणादिरूपो वा । उपा० ५। प्रमादोऽज्ञानादि ठाणा ० १३५ । प्रमादः - अज्ञानम् । भ० ४७ । प्रमादः - विषयकषायाभिष्वंगरूपः शरीरा धिष्ठान | आचा० १२० । पमादः - कार्यशैथिल्यम् । - आचा० १५० । प्रमत्तत्वं - आभोगशून्यता हिताप्रवृत्ती । ठाणा० ३६० । प्रमादः - शैथिल्यमाशाऽतिक्रमो वा । ठाणा० ३६१ । प्रमादः - धर्मं प्रत्यनुद्यमात्कमः । उत्त० ३३६ । प्रमादः - अज्ञानम् । ओघ० ४७ । पमायइ - प्रमाद्यति -प्रमादं करोति । ३४६ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ २०४ । पमायठाण - प्रमादस्थानं उत्तराध्ययनेषु द्वात्रिंशत्तममध्यय नम् । उत्त० ६ । पमायठाणाइं- उत्तराध्ययनस्य द्वात्रिंशत्तममध्ययनम् । सम० ६४ । बमायति प्रमादयति-परित्यजति । आव० ५३४ । पमायपर - प्रमादपरः- प्रमादनिष्ठः । आव ० ५८८ । पमायप्पमाय- प्रमादाप्रमादस्वरूप भेदफलविपाकप्रतिपादकमध्ययनं प्रमादाप्रमादम् । नंदी० २०४ । यस्मादस्मिन्नध्यवने प्रमादोऽप्रमादश्च पञ्चविधो वर्ण्यते तस्मादे तत् प्रमादाप्रमादम् । उत० १६१ । पमायबहुलो - प्रमादबहुलः । आव० ३३० । पमार - प्रमारं - मरणक्रियाप्रारम्भम् । भग० प्रमारो-मूच्छविशेषो मारणस्थानं वा 1 ठाणा० ६६१ । पमायए - प्रमादयेत्-विषयादिप्रमादवशगो भूयात् । आचा० पमोद-प्रमोद : - महोत्सवः । अन्त० १६ । ज्ञात ० १ । पमुक्ख प्रमोक्षः प्रतिवचनम् । उत्त० ५२४ । पमुच्चते - प्रमुच्यते । प्रश्न० ६० । पमुह-प्रमुखं, द्वारम् । प्रज्ञा० २८ । पश्चाशत्तममहाग्रहः । ठाणा० ७९ । प्रमुख:- एकोनञ्चाशत्तममहागृहः । जं० प्र० ५३५ । प्रमुखं- गृहद्वारम् । बृ० द्वि० ६२ म । प्रमुखंप्रवेशनिर्गममुखम् । बृ० द्वि० १४८ बा । पमेइल - प्रमेदुरः - प्रकर्षेण मेदः सम्पन्नः । दश० २१७ । पमेदिल-अतीव मेदो जस्स सो । दश० चू० ११० । पमेह रोगो संततकायियं उभरंतं मच्छति । नि० चू० प्र० ११७ अ । पमोअ - प्रमोद:- उत्सवः । जं० प्र० २७६ । प्रमोद :संयोगजो हर्षः । आव० ७२१ । प्रमोदः प्रमोदोत्पादकस्वात् । अहिंसाया एकत्रिशत्तमं नाम । प्रश्न० १६ । पमोक्ख प्रमोक्षं - उत्तरम् । उत्त० १५७ । प्रमोक्षं-उतरम् । भग० ११४ । यः प्रकर्षेण मोक्षयसि - मोचयतीति प्रमोक्षः - आत्मनो दुःखापगमहेतुः । उत्त० ६२१ । प्रमोक्षः अपगमः । उत्त० ६२१ । [ म्हगावती ३०५ । पमुइय - प्रमुदित:- हृष्टः । ज्ञाता० ४० । प्रमुदितः । पम्हगावती ( ६५९ ) पन्ह - पक्ष्मः कर्पास रुतादि । ठाणा० २०३ । पक्ष्मं - बहुलत्वम् । भग० १२ । नवसागरोपमस्थितिको देवः । सम० १५ । पद्म - पद्मगर्भः । विपा० ३४ । पचमबहुलत्वम् । मो० ८३ । पद्म- पद्मकेसराणि । सूर्य ० ४ ॥ पद्मम् । भग० १२ । पद्म पक्ष्मकेशरम् । भग० ६२ । अवयवे समुदायोपचारात् पद्मशब्देन पद्मकेसराप्युच्यन्त तद्वद् गौर इति । जं० प्र० १५ । पक्ष्म विजयः । जं० प्र० ३५७ । पम । अनु० १७६ । पम्हकंत - नवसागरोपसस्थितिको देवः । सम० १५ पम्हूकूड - नवसागरोपमस्थितिकदेवः । सम० १५ । पद्मकूट:नीलवन्तवक्षस्कारपर्वते कूट: । जं० प्र० ३४६ | पक्ष्मकूट:विद्युत्प्रभवक्षस्कारे कूटः । ज० प्र० ३५५ | पम्हगंध- पद्मसमगन्धः, भारते वर्षे मनुष्यभेदः । भग० २७६ । पद्मगन्धाः । जं० प्र० १२८ । पम्हगावई - पक्ष्मकावती विजयः । ज० प्र० ३५७ । भग० । ठाणा० ८०। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पम्हज्झय ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पयग्ग पम्हज्झय-नवसागरोपमस्थितिकदेवानां विमानम् । सम० | पम्हुसाविया-विस्मारिता । उत्त० ८७ । पयंग-पतङ्गः-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । पम्हहा-विस्मृता । बृ.तृ. १४ आ। पतङ्ग'-व्यन्तरनिकायानामपरिवत्तिनो ध्यन्तरजातिविपम्हप्पम-नवसागरोपमस्थितिकदेवानी विमानम् । सम० शेषाः । प्रभ० ६९ । चतुरिन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२। पतङ्गः-वाणमन्तरविशेषः । प्रज्ञा० ६५ । पतङ्ग:-चतुपम्हलसुकुमाला-पक्ष्मवती सुकुमालाचेत्यर्थः। भग०४७७ । रिन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६६६ । पक्ष्मला च सा सुकुमारा च पक्ष्मलसुकुमारा। जीवा० | पयंगवाहिया-भिक्षाविशेषः । नि० चू० तृ० १२ । २५३ । पयंगविही-भिक्षाचर्यायां भेदः । उत्त० ६०५ । पम्हला-पक्ष्मला, पक्ष्मवती । ज० प्र० २७५ । पर्यड-प्रकाण्ड:-उत्कटः । प्रचण्डो दुःसाध्यसाधकत्वात् । पम्हलेस-नवसागरोपमस्थितिकदेवानां विमानम् । सम० सम० १५७ । प्रकाण्ड:-अत्यर्थम् । सम० १२७ । प्रकाण्ड:-प्रचण्डः । प्रभ०७४ । प्रचण्ड:-प्रकाण्डो वा पम्हवणं-नवसागरोपमस्थितिकादेवानां विमानम् । सम० दुःसाध्यसाधकत्वात् । प्रश्न. ७४ ।' १५ । पयंडा-प्रचण्डा-शोघ्र शरीरव्यापिका, घोरा प्रचण्डपरिपम्हसिंग-नवसागरोपमस्थितिकादेवानां विमानम् । सम० वत्तितत्वात् । प्रश्न० १७ । १५। पयंडेमाण-प्रचण्डयन-आज्ञाप्रधानः सन्मवश्यं कर्तव्यतया पम्हसिट्ठ-नवसागरोपमस्थितिकदेवानां विमानम् । सम० निरूपयनु । जीवा० १६६ । पय-पदं-प्रकरणम् । भग० १०७ । पदम् । ओघ०१८ । पम्हा । ठाणा० ८० । पदम् । आव० ७९३ । पदं-निमित्तकारणम् । आचा. पम्हावई-पद्मावती रम्यग्विजये नगरी। ज०प्र० ३५२ । १६७ । पद-स्थानम् । आव० ८३९ । पदं-पद्यते गम्यते ठाणा० ८० । गुणानादिभिरिति । ज्ञानादिगुणस्थानम् । उत्त० ५८ । पम्हावती-सीतानदीदक्षिणे वक्षस्कारः । ठाणा० ३२६ पदं-पादविक्षेपरूपम् , स्थानं च । उत्त० २१७ । पदं८०। निराकाक्षतयाऽर्थगमकत्वेन वाक्यमेव । उत्त० ५७४। पम्हावत्त-नवसागरोपमस्थितिकदेवानां विमानम् । सम• अस्थपरिछेय वायगं पयं । नि• चू० प्र० २ अ । पदं आवश्यकपदाभिधेयम् । अनु० २० । पदं-धूलीबहुलभूमिपम्हुछ-विस्मृतम् । ठाणा० ४०३ । विस्मृतम् । प्रभ० समुत्थचरणप्रतिबिम्बम् । पिण्ड० २९ । पदं-मुष्टिस्थानम् । १२४ । प्रमृष्ठः । ओघ० ९७ । विस्मृत्या त्यक्तम् । बृ० भग० १६४ । सुप्तिङन्तं समयप्रसिद्ध वा सङ्ख्येयम् । द्वि० २४ अ । विस्मृतम् । ज्ञाता० १४८ । विस्सरियं । अनु० २३४ । नि० चू० प्र० २१३ अ । पडियं, वीसरियं । नि० चू० | पयइस्सभाव-प्रकृतिस्वभावः । आव० ३५१ । प्र० २७४ आ । विस्मृतम् । बृ० द्वि० २०६ अ । पयउ-परः । तं० । विस्मृतम् । बृ० द्वि० २४ अ । विस्मृतम् । व्य० प्र० पयए-पदग:-दाक्षिणात्यपदगतव्यन्तराणामिन्द्रः । प्रज्ञा० ६३ अ । पम्हुट्ठदिसाभाए-विस्मृतदिग्भागः । ज्ञाता० २४०।। पयक्खिणाणुकुलं । ज्ञाता० २२८ । पम्हुत्तरडिसगं-नवसागरोपमस्थितिक देवानां विमानम् । पयगवई-पदगपतिः-ओदीच्यपदगतव्यन्तराणामिन्द्रः। प्रज्ञा० सम० १५ । १८। पम्हुसइ-विस्मरति । आव० ३०७ । पयग्ग-पदाग्रं-पदपरिमाणम् । सम० ३६ । ( ६६०) Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयच्छामो] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [पयला पयच्छामो-मवते एव दद्यः, सामान्यतः प्रयच्छामः प्रकर्ष- पयतकड-प्रयत्न कृतम् । आचा० ३६० । ति-विशेषः । भग० ४७६ । पयबद्ध-यदेकाक्षरादि यथा-ते ते इत्यादि । ज० प्र. पयट्ट-प्रवृत्तः । आव० ३८५ । ओघ० १४२ । पयट्टओ-प्रकर्षक:-प्रवर्तकः । प्रश्न. ५ । पयय-प्रयत:-प्रयत्नः । ओघ०१६९ प्रयत्न:-सद्भावः। पयट्टाविओ-प्रवत्तितः । आव० ४३६ । ओघ. १७६ । पट्टिए-प्रवृत्तान् प्रवत्तितान वा । उत्त० २०६ । पयया-प्रयता-प्रकृष्टयत्नवतः । अनुत्त० ३ । पर्याट्टयं-प्रवर्तितम् । आव० १७३ । पयरंगुले-सूची सूच्यैव गुणिता प्रतराङ्गुलम् । अनु० पट्टिया-प्रवत्तिता । आव० ३९८ । १५८ । प्रतरागुलम् । अनु० १७३ । पयडत्या-प्रकटार्था-जिनवचनतत्त्ववेदिनामुत्तानार्था। सूर्य पयर-प्रतरं-भूषणविधिविशेषः। जीवा० २६६ । प्रतरम् । २९६ । अनु० १५६ । प्रतरम् । अनु० १७३ । श्रेणिरेव श्रेण्या पयडि-प्रकृतिः-श्रुतज्ञानांशस्तभेदोऽङ्गप्रविष्टादि, हेतुर्वा- गुणिता प्रतरः । उत्त० ६०१ । प्रतर:-प्रस्तरः। ज. बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नो यः श्रुतज्ञानस्य स, श्रुतस्य स्व. प्र० २६८ । नंदी० ११० । श्रेणि रेव श्रेण्या गुणिता भावो वैकेन्दियादीनां चतुर्दशपूर्वधरान्ताना जीवनां तार- प्रतरः । उत्त०६०१ । प्रतर:-आभरणविशेषः । औप. तम्येन भिन्नरूपः प्रकृतिः । विशे० २५१ । । ५३ । प्रतर:-एकप्रादेशिकश्रेणिरूपः । प्रज्ञा० २७६ । पयडिय-प्रपतितं-प्रकर्षण श्लथीभूतम् । ज्ञाता० १३७ । । | पयरइ-प्रचरति । आव० ८१४ । पयडी- णालिएरि । नि० चू० प्र० १२१ अ । प्रकृतिः- पयरग-प्रतरकं-वृत्तप्रतल:-आभरणविशेषः । औप० ५५। भेदः । आव २४ । प्रकृतिः-स्वभावः । आचा. प्रतरक-सुवर्णपत्रकम् । जीवा० १८१। प्रतरकं-आभरण३५३ (?) । विशेषः । प्रभ० ७५ । प्रतरक:-पत्रक:। ज०प्र० २४ । पयण-पचनम् । प्रश्न० १४ । पचनं-कडिल्लकाकृतिः ।। प्रतरक-स्वर्णादिमयं आभरणविशेषः । ज्ञाता. १४ । सूत्र. १२६ । पतनं-स्थानम् । उत्त० ४४ । पाक- प्रतरक-प्रतरप्रवृत्तरूपं आभरणम् । ज्ञाता. ३५ । स्थानं चुल्ल्यादि । हाता० ११० । पयरच्छेय-प्रतरच्छोदः-तरिकाछेदः । औप.० १८७ । पयणगं-प्रचनक-प्रचण्डम् । आव० ६५१ । पयरण-प्रतरणं-प्रथमदातव्यभिक्षा । बृ० द्वि० १८७ आ। पयणसाला-जहिं पच्चंति भायणाणि | नि० चू० तृ० भिक्खं । नि० चू० प्र० १५५ आ। २१ आ। पचनशाला-वर्षासु भाजनापाकस्थानम् । बृ० | पयरतव-श्रेण्या गुणिता श्रेणिः प्रतरः उच्यते, तद्रपलक्षित द्वि० १७५ अ। षोडशपदात्मकं तपः प्रतरतपः । उत्त० ६०१ । पयणु-प्रतनु:-अति मन्दीभूतः । जीवा० २७७ । पयरवट्ट-वाहल्यतो हीनं प्रतरवृत्तं मण्डकवत् । भग० पयणुए-प्रतनुकं-अघनम् । भग० १८६ । पयत- प्रयत:-आटियमाणः । ज० प्र० १६३ । प्रयत:- पयराभेद-प्रतरभेदः । प्रज्ञा० २६७ । प्रयत्नवान् । पदतवा:- तथाविधानुस्मर्यमाणसूत्रालापकात।। पयलइ-छिन्तरहावनस्पतिः । भग० ८०४ । उत्त० ५८ । प्रकृष्टसंयमयुक्त त्वात् प्रयताम् । ठाणा० | पयला-प्रचला-ऊर्वस्थितनिद्राकरणलक्षणा । भग०२१८ । २४७। प्रयत्नो-आदरः। बृ०प्र० २३ अ । पदत्र:-सिद्धान्तः। प्रचला-या ऊध्र्व स्थितस्यापि वा पुनश्चैतन्यमस्फुटो. उ० मा० गा० ३२६ । प्रयत्न:-यथागमादरः। पिण्ड० कुर्वतो समुपजायते निद्रा सा प्रचला । जीवा० १२३ । १४७ । प्रदत्ता-गुरुभिरनुज्ञाता । अनुत्त० ३ । प्रदत्त:- उपविष्ट ऊर्वस्थितो वा प्रचलत्यस्यां स्वापावस्थायामिति अनुज्ञातो गुरुभिः, प्रयतो वा-प्रयत्नवान् प्रमादरहित प्रचला । ठाणा० ४६७ । प्रचला-निषण्णस्य सुप्तजागराइत्यर्थः । भग० १२५ । वस्था । बृ० द्वि. २०७ आ । उपविष्टः ऊर्ध्वस्थितो (६६१ ) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः पयलाइआ ] वा प्रचलयति घूर्णयति यस्यां स्वापावस्थायां सा प्रचला । प्रज्ञा० ४६७ । पयलाइआ - भुजपरिसर्पविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । पयलाएज्ज-प्रचलायेत्- प्रचलां - उर्ध्व स्थितनिद्राकरणलक्ष- पयारधम्म-चक्षुरादीन्द्रियवशतारूपादिषु प्रवृत्तिः प्रचारणां कुर्यात् । भग० २१८ । पयलापयला - प्रचलातोऽतिशायिनी प्रचलाप्रचला । प्रज्ञा० ४६७ । धर्मः । दश० २१ । पयलायइ प्रचलयति-निद्रां गच्छति । आव० ७६८ । पयलाया - भुजपरिसर्पः तिर्यग्योनिकः । जीवा० ४० । पयलिय - प्रचलितम् प्रवलिकं - प्रजातवलोकम् । १३३ । ज्ञाता० पयलिज्ज - प्रचलेत् - कम्पेत् । आचा० ३३७ । पल्ले - चतुपश्चाशत्तममहाग्रहः । ठाणा० ७६ । पयविभाग - पदविभागः । विशे० ८४१ । पदविभागसा - माचारी, छेदग्रन्थगतसूत्ररूपा । विशे० ८४२ । पद विभाग :- सामाचारी । श्राव० २५८ । पयस पायसम् । आव० १५८ । पयसमं - पदसमं - यद् गेयपदं नाभिकादिकमन्यतरबन्धेन बद्ध 47 स्वरे अनुपाति भवति तत्तत्रैव यत्र गीते गोयते तत् पदसम् । ठाणा० ३६६ । पया - प्रजाः - जन्तवः । आचा० २०३ । प्रजा- स्त्री । आचा०१६३ । प्रजाः पृथिव्यादयो जन्तवः स्त्रयो वा । सूत्र० १८९ । प्रजा - जनसमूहरूपा, प्रजायत इति वा प्राणा । उत्त० १८२ । पयासि प्रजनिष्यति । विषा० ७७ । पयाग - प्रयागं - तीर्थविशेषः । आव० ६८६ । पयाण- प्रतननं प्रतानो विस्तारस्तद्रूपः स्वप्नो यथा तथ्यः तदन्यो वा प्रतान इत्युच्यते । पञ्चस्वप्ने द्वितीयः । भग० ७०६ । पयाणय | ओघ० ४६ । पयाणीक - पदात्यनीकः - चतुर्थी सेना । जीवा० २१७ । पयानुसारिबुद्धि - पदानुसारिनुद्धिः । प्रज्ञा० ४२४ । पयानुसारी - पदेन - सूत्रावयवेनैकेनोपलब्धेन तदनुकूलानि पदशतान्यनुसरन्ति- अम्यूहयन्तीत्येवंशीलाः पदानुसारिणः । औप० २८ । [पयोगविससापरिणय पयायामि - प्रजनयामि । ज्ञाता० ८१ । पयार- प्रचारं - अटनम् । ओघ० १६१ । प्रचारम् । बोघ० १५० । पयारेइ - प्रतारयति । दश० ५६ । पावह - प्रथम वासुदेवपिता । सम० १५२ । प्रजापति:पोतनपुरे राजा । आव० १७४ । प्रजापतिः- त्रिषष्ठवासु देवपिता । आव० १६३ । प्रजापतिः । दश० ६६ प्रजापत्यः । सूर्य० १४६ । प्रजापतिः - लोकप्रभुः । प्रश्न आव० ४७० । पया हिणावत्तमंडल - प्रकर्षेण सर्वोतु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादीनां दक्षिण एवं मेरुर्भवति यस्मिन्नावतन-मण्डलपरिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिणः प्रदक्षिण आवर्ती येषां मण्डलानां तानि प्रदक्षिणावत्तानि मण्डलानि येषा ते तथा । सू० २७६ । प्रकर्षेण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादीनां दक्षिण एवं मेरुर्भवति यस्मि नाव - मण्डलपरिभ्रमणरूपे स प्रदक्षिणः २ आवर्ती यस्य मण्डलस्य तत् तच्च मण्डलं मे ं प्रति यस्य स प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलः । जावा० ३३७ । पयोग-प्रयोग:- परप्रतारणव्यापारः । आचा० १९७ । पयोगकस्मं - प्रयोगकर्म - वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतवीर्ये - णात्मन: प्रकर्षेण युज्यते इति प्रयोगः । आचा० ६४ । पयोगपरिणता - प्रयोगपरिणता - जीवव्यापारेण तथाविधप रिणतिमुपनीता | ठाणा ० १५२ । पयोगविससापरिणय-प्रयोगेण - जीवव्यापारेण विश्वसया च स्वभावेन परिणत अवस्थान्तरमापन्नः । ज्ञाता० १७४ । ( ६६२ ) ३३ | पयावण - प्रतापनं शीतापनोदाय । आचा० ५०। प्रतापनंउत्तेजनम् । बृ० तृ० १४२ मा । पावणा प्रतापना - अग्निप्रज्वलना । बोघ० १२४ । पयाविज्जा प्रतापनं- निरन्तरं बहु तापनम् । दश० १५३ । पयास - प्रकाशः - प्रकटत्वं - आविर्भावः । विशे० १०६२ । पयासयर - प्रकाशकरः - प्रभासकरो वा । आव० ५१० । पयाहिणजलं - प्रदक्षिणजलं सामायिकदानस्य स्थानम् । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयोस ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [परक्कम %3 - पयोस-प्रद्वेषः-मात्सर्यः । ठाणा० ४८४ । उत्पत्यनन्तरं द्वियादिसमयवर्ती । प्रज्ञा० ३०४ । परंआभियोजितुकामा-परमभियोक्तकामः-अभिभवितुका- परंभर-परं बिभर्तीति परम्भरः। ठाणा० २४८ । मः । ज्ञाता० १६१ । परंमुहो-पराङ्मुखः । आव० २२० । पराङ्मुखः । परंगण-नृत्यद् । निरय० ३४ । आव० ४२७ । परंगामण-भूमौ सर्पणम् । भग० ५४५ । पर-पर:-तीर्थकृत । आचा० २२८ । पर:-शत्रुः । आव० परंघया-पर्यन्ता । ध्य. द्वि० २२७ । ६० । पर:-मोक्षः । आव० ३२६ । पर:-चोदकः । परंति-सर्वतो भ्रमन्ति । प्रश्र० ५३ । ओघ० १०५ । परं-देशविरताद्ययोगिकेवलिपर्यन्तं गुणपरंदम-परान्-अन्यान् दमयति-यत्कृत्याभिमतकृत्येषु प्रव. स्थानकम् । आचा० १७३ । संयमः । आचा० १७३ । तयति इति परन्दमः । उत्त० २७५ । सम्यगहष्टिगुणस्थानः । आचा० १७३ । परशब्दविषयेपरंपर-दृष्टिवादे सूत्रस्य भेदः । सम० १२८ । परम्परं- नामादिः षड्विधो निक्षेपः । आचा० ४१५ । आरवाची व्यवहितम् । भग० २१५ । परे च परे चेति विष्सायां नि० चू० प्र० १२६ आ। पर:-तीर्थकृत , सर्वशः । परम्परशब्दनिष्पतिः । प्रज्ञा० १८ । परम्परक-विकार- आचा० २०। परं-स्वर्गम् । आचा० १७३ । परं-दर्शनपरम्परा । पिण्ड १० । मोहनीयचारित्रमोहनीयक्षयं, घातिभवोपनाहिकर्मणां परंपरगए-परम्परया-मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानकाना वा म. वा क्षयम् । आचा० १७३। परं-परलोक:-प्रव्रज्यापनुष्यादिसुगतीनां वा पारम्पर्येण गतो भवाम्भोधिपारं प्राप्तः यः मोक्षो वा । सूत्र. ५६ । परं-परलोकाख्यं परम्पारगतः । भग० १११ । नारकादिकं वा । सूत्र. १५२ । परं-प्रकृष्टः । भग० परंपरगढिया-परम्परैः-व्यवहितः सह प्रथिता परम्पर- ७४६ । परं-अग्रतः । उत्त० ६५६ । स्वामी । व्य. ग्रथिता । भग० २१५ । प्र० १७२ अ। परंपरघाए-परम्परा-निरन्तरता तत्प्रधानो घात:- परइड्डी-परमद्धिः-अष्टमवासुदेवनिदानकारणम् । आव. ताडनः परम्पराघातः उपर्युपरिघातः । भग० २५१ । । १६३ टी० । परंपरबंध-येषां तु बन्धानां द्वितीयादिः समयो वर्तते परए-परकं-अतिक्रमः । उत्त० ६५४ । तेषां परम्परबन्धः । भग० ७६१ । परक-भाजनविधिविशेषः । जीवा० २६६ । परंपरय-परम्परकम् । आव० ५२० । परकड-परेण-गृहिणाऽऽत्मार्थ परार्थ वा कृतं-निवतितं परंपरवल्ली-मातापित्रोर्मात्रादिषट्करूपा । बृ० तृ० ४२ पकृतम् उत्त० ६० । . आ । परकडपरनिट्टिय-परायं कृतं-आरब्धं परार्थ च निष्ठितं परंपरसिद्धा-परे च परे चेति वीप्सायां पृषोदरादय इति अन्तं गतं परकृतपरनिष्ठितम् । दश० ६७ । परम्पराशब्दनिष्पत्ति, परम्परे च ते सिद्धाश्च परम्पर- | परकिरिआ-परस्मै-स्त्र्यादिपदार्थाय क्रिया परक्रिया विषसिद्धाः । अनु० ११३ । योपभोगद्वारेण परोपकारकरणं, परेण वाऽऽत्मनः सम्बाधपरंपरा-परम्पग-अव्यवच्छिन्न शिष्यप्रशिष्यसन्तानलक्षणा। नादिका क्रिया परक्रिया । सूत्र० १२० । (?) । परम्परा-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा मिथ्याश्यादि- | परक्कंत-पराक्रान्त:-पराक्रमस्तपःप्रभृतिकम् । भग०१६३॥ भेदभिन्ना । प्रज्ञा० ११२ । परक्क-परकीयम् । विशे० ३१ । परंपराफासो-परम्परास्पर्शः । आव० ३२४ । परक्कम-पराक्रमः-पुरुषकारः । ठाणा० २३ । पराक्रमः । परंपरोगाढ-परम्परावगाढः यदात्मप्रदेशान्तर्वत्तीनि तदव- ठाणा० ११६ । पराक्रमः स एव निष्पादितविषयो बल गाढसम्बन्धात् परम्परावगाढम् । भग० २१ । पर्ययोापारणम् । ठाणा० ३०४ । पराक्रमः-शरीरपरंपरोववग्णगा-परम्परोपपन्नक:-परम्परया उपपत्रक: सामर्थ्यात्मकः । उत्त० ३४६ । पराक्रमः-उत्तरोत्तरगुण ( ६६३) Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परक्कमइ ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [परपक्खजयणा प्रतिपत्त्या कर्मारिजयसामर्थ्यलक्षणः । उत्त० ५७१ । परद्वाणंतरं-परमाणोयंस्परस्थाने-द्वयणुकादावन्तर्भूतस्थापराक्रम-जीववीर्योल्लासरूपमुत्साहम् । उत्त० ३११ ।। नन्तरं-चलनव्यवधानं तत्परस्थानान्तरम् । भग० ८८६ । पराक्रम्य-आसेव्य । दश० २३३ । पराक्रमः-उत्साहाति- | परद्वाण-परस्थान-छन्बकादिकम् । पिण्ड० ८६ । रेकः । ठाणा० ४४१ । पराक्रम:-मार्गान्तरः। आचा० पर परट्टाणवड्डो-विसरिसं जहा मासलहुयाउ दोमासियं, ३३८ । पराक्रम:-निष्पादितस्वविषयः । ज्ञाता १३५ । । दुमासातो तेमासितं एवं सव्वा विसरसा परट्ठाणवट्ठी । प्रकम्यतेऽनेनेति-प्रक्रमः मार्गः। आचा० ३३७। पराक्रमः- नि० चू० प्र० २३४ प्रा। स एव साधिताभिमतप्रयोजनः । शत्रुवित्रासनम् । ज० परटाणसन्निगासेणं-विजातीययोगमाश्रीत्येत्यर्थः । भग० प्र० १३० । पराक्रमः-शत्रुवित्रासनशक्तिः । ज० प्र० १८२ । पराक्रमः । सूर्य० २८६ । पराक्रम:-साधिता- परततियवावड-परतप्तिब्यावृत्तः-परकृत्यचिन्तनाक्षणिकः। भिमतप्रयोजनः शत्रुनिराकरणं वा । भग० ५७ । प्रश्न० ३८ । पराक्रमः-निष्पादितस्वप्रयोजनः। भग० ३२३ । पराक्रमः- परत-परत्र । उत्त० ५४० । अन्यमार्गः । दश० १६४ । पराक्रमः-प्रवृत्तिबलम् । दश० परतर-पच्छित्तकरणे समत्थं णस्थि, वेयावच्चकरण लद्धी २७६ । पराक्रम:-सामर्थ्यम् । सूत्र० २७३ । साधिताभि- से अस्थि । नि० चू० तृ० १२३ अ । मतफल:-पुरुषकारः पराक्रमः । प्रश्न० ७३ । पराक्रम:- परत्तीकते । ज्ञाता. ६६ । विक्रमः। जीवा० २७० । पराक्रम:-चेष्टा । आव० १८१। परत्य-पराथं मोक्षार्थम् । आव० ३२६ । परत्रवनिष्पादितस्वविषयः पराक्रमः । प्रज्ञा० ४६३ । पराक्रम:- जन्मान्तरे अर्थ आस्था वा यस्य स परार्थः। ठाणा० २४। कषायजयः । आव० ३६१ । परत्र-पश्चात्कालम् । नंदो० १५ । परक्कमइ-पराक्रमते-चेष्टते । दश० १०६ । परद्ध-विक्षितम् । आव० १६६ । व्याप्तः । भक्त। परक्कमणं-विवक्षितदेशगमनं पराक्रमणम् । सूत्र. २७३|| परद्धा-पराभविता । नि० चू० प्र० ११ आ । परक्कममाण-उल्ललयद् । निरय० ३४ । परघणमि गेही-परधने गृद्धिः, अधर्मद्वारस्य सप्तमं नाम। परक्कमितवं-पराक्रमितव्यं-शक्तिक्षयेऽपि तत्पालने परा. प्रश्न. ४३ । क्रमः-उत्साहातिरेको विधेय इति । ठाणा० ४४१ । परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्त-त्रयोविंशतितमवचनातिथयः । परक्रियासप्तककः-षष्ठं सप्तिकाऽध्ययनम् । ठाणा० ३८७। सम० ६३ । परग-वंशनिष्पन्नं छञ्चकादि । आचा० ३५७ । परकं- परपंडित-पर:-प्रकृष्टः पण्डितः परपण्डित:-बहुशास्त्रज्ञः, येन तृणविशेषेण पुष्पाणि ग्रथ्यन्ते । आचा० ३७२ । परो वा मित्रादि: पण्डितो यस्य स । ठाणा० ४५२ । सूत्र. ३०७, ३०६ । परपइट्टिय-परप्रतिष्ठित:-परेणाक्रोशादिना प्रतिष्ठितः-उदीपरग्ध-पराधं-उत्तमाघ, महाघम् । दश० २२१ ।। रितः परस्मिन् वा प्रतिष्ठितो-जातः परप्रतिष्ठित इति । परचक्कराया-परचक्रराजा-अपरसैन्यनृपतिः । ज्ञाता. ठाणा० ६२ । परेणाक्रोशादिनोदीरितः परप्रतिष्ठितः १५१ । परविषयो वा । ठाणा० १६३ । परचक-दुरितविशेषः । भग० ८ । परपक्ख-गवादयोऽसंयतः । बृ० द्वि० १६४ अ । गृहस्थः । परज्झ-पारवश्यम् । भग० ३१४ । देशीपदस्वात् परवशः बृ० द्वि० ११४ अ । परपक्षा:-पाखण्डिनः । बृ० तृ. रागद्वेषग्रहग्रस्त मानसतया न स्वतन्त्रः । उत्त० २२८ । | ५ अ । परपक्ष:-गृहस्थादिः । ओघ० १२० । परपक्ष:परतन्त्रता । ठाणा० ५०५ । परवशीकृतः । बृ० त० गृहस्थः । पिण्ड० ६७ । असंजतो। नि० चू. तृ० १४ १२३ अ । पराधीनः । महाप्र० । पराक्रमः । मर० । परज्झा -प्रारब्धः । मर० । परपक्खजयणा-जयणाए तईयो भेओ । नि० चू० तृ. ( ६६४ ) Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परपक्षः] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०३ [परमद्दा १२ आ । परब्भमाण भा० ६७७ । परपक्षः-अपरभिक्षाचरवर्ग: । आचा० ३२६ ।। परब्भाहए-पराभ्याहतो-बाधितः । ज्ञाता० ६३ । परपक्षकषायदुष्ट:-राजवधकः । ठाणा १६४ । परभवसंकामकारय-भरभवसङ्कमकारक:-प्राणवियोजिपरपज्जया-परपर्यया:-इकारादिसम्बन्धिनो घटादिगताश्चा- तस्यैव परभवे सङ्क्रान्तिसद्भावात् , प्राणवधस्य सप्तदऽस्य परपर्यायाः । विशे० २६२ । शम: पर्यायः । प्रश्न० ५ । परपज्जाय-परपर्यायः । भग० ३६३ । परभविय-वर्तमानानन्तरभाविन्यनुगामितया यद्वर्तते तत् परपतिढिए-यदा पर दोरयति आक्रोशादिना कोपं तदा | पारमाविकम् । भग० ३३ । किल तद्विषयः क्रोध उपजायत इति स परप्रतिष्ठितः। परभाग-शोभा । उत्त० ४८३ । प्रज्ञा० २६० । परभाववंकणया-परभावस्य वनता-वञ्चनता या कूटपरपरिवाए-विप्रकीर्ण परेषां गुणदोषवचनम् । भग० ८० लेखकरणादिभिः सा परभाववडूणता । ठाणा० ४२ । परप रेवादः-प्रभूतजनसमक्षं परदोषविकत्थनम् । प्रज्ञा परभाववंचणा-परभाववञ्चनता-मायाप्रत्यायको कियाया ४३८ । परपरिवादः-परेषामपवदनं परितापः । भग० द्वितीयो भेदः । आव० ६१२ । ५७२ । पञ्चदशमं पापस्थानकम् । ज्ञाता० ७५ । पर- परमंगाणि-परमाणि च तानि प्रत्यासन्नोपकारित्वेन अपरिवाद:-विकस्थनम् । प्रश्न० १२४ । ङ्गानि च मुक्तिकारणत्वेन परमाङ्गानि । उत्त० १८१। परपरिवात-परपरिवादः-परदोषपरिकीर्तनम् । ठाणा. परमंता-परे-गृहस्याः तेषां मन्त्रा:-तत्कार्यालोचनरूपाः २७५ । परमन्त्राः । उत्त० ४४६ । परपरिवाय-परेषां परिवादः परपरिवाद:-विकत्थनम् । परम-मोक्षं ज्ञानादिकम् । आचा० १५६ । सुहं । दश० ठाणा. २६ । चू० ६२ था। परमः-अत्युग्रो रसः । दश० २६७ (?) । परपुट्ठ-परपुष्टः-कोकिलः । ज० प्र० ३२ । परपुष्ट:- परमकेवलं-परमं च तत्केवलं च-परिपूर्ण विशुद्धं वा कोकिलः । प्रज्ञा० ३६० । मतिश्रुतावधिमनःपर्यायापेक्षया क्षायिकज्ञानमिति । प्रश्र० परपासंड-परपाषण्ड:-सर्वज्ञप्रणीतपाषण्डव्यतिरिक्तः । १३५ । आव. ८१६ । परमग्गसूर-परमाप्रशूर:-दानसंग्रामशूरापेक्षया प्रधान: परपासंडपसंता-परपाषण्डप्रशंसा-सर्वज्ञप्रणोतपाषण्डब्य- शूरः । दश० २५४ । तिरिक्तनां प्रशंसा, प्रशंसनं प्रशंसा-स्तुतिः । आव० ८११ । परमट्ट-परमार्थः-मोक्षः । उत्त० ४८७ । परपासंडसंथव-परपाषण्डसंस्तव:-सर्वज्ञप्रणीतपाषण्डव्य- परमपए-परमार्थपदं-सम्यग्दर्शनादि । उत्त० ४८७ । तिरिक्तस्तवनम् । आव० ८११ । परमटमेदक-परमार्थभेदक-मोक्षप्रतिघातकम् । प्रभ० परपासंडो-अण्णाणं मिच्छत्तं कुव्वंतो कुतिस्थिए वाएति, ३६ । जिणवयणं च णाभिगच्छति सो परपासंडो । नि० चू० परमणं-परमानं-पायसलक्षणम् । आव० १४४ । परतृ० ८४ अ । मान-पायसम् । जीवा० २६८ । परपिंडतक्कक-परपिण्डतर्कक:-परदत्तभोजनगवेषकः । परमत्थ-परमार्थ:-जीवादिः । उत० ५६६ । परमार्थप्रश्र० ६३ । हेयोपादेयवचनंदपर्यम् । प्रश्न १० । परपेस-परप्रेषः । उत्त० २६३ । परमत्थसंथव-परमाश्च-तात्त्विकाश्च तेऽर्थाश्च जोवादयस्ते परप्पवित्त-परस्मै प्रवृत्त-परः स्वार्थ निष्पादितत्त्वेन पर. | परमार्थाः-तेषु संस्तवः-परिचयः, तात्पर्येण बहुमानपुरस्सरं प्रवृत्तम् । उत्त० ६५६ । जोवादिपदार्थावगमायाभ्यासः । प्रज्ञा० ५६ । परम्भंत-उपद्रुतः । नि० चू० प्र० १७३ आ। परमद्दा-पडिमइंति जे ते परमद्दा शयनकाले परिपिटुंति (अल्प.८४) ( ६६५) Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमनिउण ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [परविवाहकरण नि० चू०प्र० २७७ । । असुरकुमारविशेषः । प्रभ० १४३ । परमधर्मः-परमं परमनिउण-परमनिपुणः, तत्र मोक्षाङ्गत्वात अभ्यंसक- सुखं तउर्मा-सुखधर्मा-सुखाभिलाषी । दश० १४२ । स्वाच । आव.६१ । परमाहोहिओ-परम-आधोवधिकादयः स परमाऽधोपपरमन्न-परमान्नं क्षरेयि । भग० ६६४ । विकः । स च समस्तरूपिद्रव्यासङ्घयातलोकमात्रालोकपरमपय-परपदम् । ज्ञाता० ५५ । खण्डासङ्खयातावसप्पिणीविषयावधिज्ञानः । भग• ६७ । परमसम्भाव-परमसद्भाव:-अत्यंतसत्यता वस्तूनामदम्प- परमोहि-परमावधिः प्रभूतावधिः । व्य० प्र० १०६ अ । र्यम् । सम० १११ । परलाभ-परलाभः परस्माद् द्रव्यांगमः,अधर्मद्वारस्य पञ्चम परमसाहू-परमसाधुः-नष्ठिकमुनिः । प्रश्न० ११४ ।। नाम । प्रश्न० ४३ । परमसुक्कज्झाणं-परमशुक्लध्यानं शुक्लध्यानचतुर्थ भेद-परलिङ्ग-कुतीथिकलिङ्ग गृहस्थलिङ्गम् । भग० ८६५ । रूपम् । प्रश्र० १३५ । परलोइया-हयगयादी । नि० चू० द्वि० ७१ आ। परमसुक्का-शुक्लध्यानतृतीयभेदावसरे या लेश्या सा | परलोकमयं-परभवात् यत् प्राप्यते । आव० ४७२ । परमशुक्लो, साऽपीतरजीवशुक्ललेश्यापेक्षया स्नातकस्य विजातीयात्तिर्यगादेमनुष्यादिकस्य भयम् । प्रश्न० १४३ । परगशुक्ला । भग० १०२ । परलोग-प्रधानलोक: परलोक:-मोक्षः । आव० ५३१ । परमसुह-परमसुखं आत्यन्तिकसुखं-निःश्रेयः । ज० प्र० परलोक:-देवलोकः । आव० ८४० । परलोगभत-विजानीयात-तिर्यग्देवादेः सकाशान्मनुष्यापरमसोमणस्सिए-परमं सौमनस्य-सुमनस्कता संजातं | दीनां यद्भयं तत् परलोकभयम् । ठाणा० ३८९ । यस्य स परमसौमनस्यितस्तद्वाऽस्यास्तीति परमसौमन | परलोगभय-परलोकभयं-यद्विजातीयात् । सम० १३ । स्यिकः। भग० ११९ । शोभनं मनो यस्यासी सुमना. परलोकभयं विजातीयात्तिर्यगदेवादेः सकाशाद् यद्भयम् । स्तस्य भावः सौमनस्य परमं च तत सौमनस्यं च परम- आव० ६४५ । सौमनम्यं तत्संजातमस्मिन्निति परमसोमनस्यितः । जीवा० | परलोगसंवेयणी-परलोकसंवेदनी, यथा देवा अपि ईया विषादमदक्रोधलोभादिभिर्दुःखरभिभूता किमङ्ग पुनः परमहंस-परमहंस: परिव्राजक: । औप०६१ । तिर्यग्नारका: । दश०.११२ । परलोगसंवेदनी-देवादिपरमा-महास्थितयो महाकर्मता। भग. ७६१ । भवस्वभावकथनरूपा, देवा अपीयविषादभयवियोगादिदुःपरमाण-परमाश्च तेऽणवश्च परमाणवो निविभागद्रव्यरूपाः | खैरभिभूता: कि पुन स्तर्यगादय इति । ठाणा० २१ । स्कन्धत्वपरिमाणरहिताः केवला: परमाणवः । प्रज्ञा० | परलोगासंसप्पओग-परलोकाशंसाप्रयोग:-देवलोकाभिला. षप्रयोगः । आव० ८३९ । परमाणुपुग्गला-परमाणपृद्गला: स्कन्धस्वपरिणामरहिताः | परलोयावाय-परलोकावाय:-नरकगमनादिः । आव. केवग: परमाणवः । जीवा० ७ । अनु० १६० । ५८६ । परमान-पायसम् । ज० प्र० १०४ । परवडिय-परानीतं यदशनादि । आचा० ४०३ । । परमाराम-परमाराम:-परमश्चासावारामश्च-ज्ञाततत्त्वमपि | परवत्थ-परवस्त्रं-प्रधानं वस्त्रं परस्य वा वस्त्रं परवस्त्रम् । जन हामविलासोगङ्गनिरीक्षणादिभिविब्बोकोहयतीत्यर्थः आचा० ३ ६ । । आचा० २१८ । परववएसे-परव्यपदेश:-आत्मव्यतिरिक्तव्यपदेशः । आ. परमावता-सप्तापतीगङ्गास्वरूपा । भग० ६७४ । । १८३ (?)। परमाहम्मिअ-परमाधार्मिक:-असुरविशेषः । सम० २६ । | परवारिज्जति ।नि० चू० तृ० ५२ अ। परमाहम्मिय-परमाधार्मिक:-नारकाणां दुःखोत्पादक:- परविवाहकरण-परं-स्वापत्यव्यतिरिक्तमपत्यं तस्य कन्या. ( ६६६ ) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवेयावचकम्मपडिमा ] फललिप्सया स्नेहबन्धनेन वा विवाहकरणं परविवाहकर णम् । आव० ८२५ । परवेयावञ्चकम्मपडिमा परेषां मात्मव्यतिरिक्तानां वैयावृ । स्वकर्माणि - भक्तपानादिभिरुपष्टम्भक्रियास्तद्विषया प्रतिमाः अभिप्रहविशेषाः परवैयावृत्यकर्म्म प्रतिमाः । सम० ६५। परशुराम: - मानहतः । भक्त० ७ । जमदग्निसुतः - सप्तवा रान् निःक्षत्रा पृथिवीकर्ता । सूत्र० १७०, ३०५ । कृतवीर्यं व्यापादकः । सूत्र० ३६५ । अप्रतिष्ठाननरके वेदनावेदक: । जीवा० १२१ । परसमय- परसमय:- साङ्ख्यशाक्यादिसिद्धान्तः । दश० १११ । • अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ परसमयसूत्रं यथा पचखंधे वयं तेगे । वृ० प्र० २०१ आ । परसम्पत्-विभूति: । आव ५८७ । परसरीरसंवेणी- परसरीरं चेव असूई, अहवा परस्स सरीरं वण्णेमाणो सोयारस्स संवेगमुप्पाएई परशरीरसंवेजनी । संवेजनीकभाषाया द्वितीयो भेदः । दश० ११२ । परशरीरसंवेगनी - परशरीरं मृतशरीरं शरीरमेतदशुचिः । ठाणा० २१० । परसु- परगृः कुठारः । प्रश्न० २१ । परशुः- शस्त्रविशेषः । आव० ६५१. ८३१ । परशुः- कुठारः । उत्त ४१३ । परशुः- कुठारः । बृ० द्वि० २३३ आ । परशुः- कुठारः । अनु० २२३ । परसुविज्ञा-पशुंविया । आव० ३९२ । परस्पर- एर्ककः । उत० ३५२ । परस्पर गुण निकाय| आचा० २४६ । परस्सर - परस्पर:- गण्डः । जीवा० । २८२ । परस्पर:गण्ड: । प्रज्ञा० २५४ । परासरः- सनखश्चतुष्पदवि शेषः । जीवा० ३८ । शरभः । भग० ३०६ । सनखपदचतुष्पदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । परस्सलोभाविल- परस्य-अन्यस्य सम्बन्धिरूपवद्वस्स्वति गम्यते 'लोभावलिः' - लोभकलुषः, यद्वा परेषां स्वं परस्थं प्रक्रमाद् यद्रूपवस्तु तस्मिन् लोभो-गार्थं तेनाविल: म्पर, स्वलोभाविलः । उत्त० ६३२ । परह - परस्मात्सकाशाद् धृतं परहतम्, अधर्मद्वारस्य द्वितीयं नामा । प्रश्न० ४३.१. परत्यपाणाइवाय किरिया - परहस्तेनापि तथैव परहस्तप्राणातिपातक्रिया | ठाणा० ४१ । पर हुअ - परभृतः - कोकिलः । जं० प्र० २०० । पर हुय- परभृतः - कोकिलः । ज्ञाता० २२२ । परभृतः - कोकिलः । ज्ञाता० २१ । परा-असिएण दात्रेण । नि० चू० प्र० ३२४ अ । नि० चू० प्र० १३ आ । प्रधानां । आव० ८३७ । मृणविशेषः । प्रश्न० १२८ । पराइए - पुरुष सहवासुदेवनिदानकारणम् । टो० । पराइय- आगतः । पउ० ९५ । पराइज्जइ [ पराजिणिस्सइ आय० १६३ । भग० ६४ । | भग० ६४ । पर इणइ पराकय - परसम्बन्धिनि | उत्त० ६६५ । पराक्कममाण- पराक्रममाणः - गच्छनु । आचा० ३३७ । परावक मिला- पराक्रमेत गच्छेत्। आचा० ३७७ ॥ पराक्रम- बलवीर्ययोर्व्यापारणमिति । ठाणा० ३८४ । पराक्रान्त- आक्रान्तं - स्थानमेकाकिनो भवति । ठाणा० ३५४ ( ? ) । पराधाए - पराघाते वासनायाम् । विशे० २०७ । पराधातनाम - यदुदयात् पुनरोजस्वी दर्शनमात्रेण वाक्सोवेन वा महानृपसभामपि गतः सभ्यानामपि त्रासमापादयति प्रतिवादिनश्च प्रतिभाविधातं करोति तरपराधात नाम । प्रज्ञा० ४७३ । पराधाय-पराघातः- गर्तापातादिसमुत्थः । आव० २७२ । पघात:- निसृष्ट भाषा द्रव्यंस्तदन्येषां तथापरिणामापादनक्रियावत् प्रेरणम् । दश० २९८ । पराघायनाम-यतोऽङ्गावयव एव विषात्मको दंष्ट्रास्वगादि परेणोपघातो भवति तत्पराधातनाम । सम० ६७ । पराजइत्थ- पराजितवान्- हारितवान् । भग० ३१७ । पराजिओ-पराजितः - पराभवमन्यमानः । उत० ३७६ पराजिणित्ता-भृशं जित्वा परिभङ्ग वा प्राप्य सुमना भवति पराजितवान् प्रतिवादिनः । ठाणा० १३१ । पराजिनिस्सइ - राजेष्यते-अभिभविष्यति । निश्य० ६ । ( ६६७ ) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराजिय] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [परिकम्म पराजिय-पराजित:-तद्विधराज्योपार्जने कृतसम्भावना परिअ-पर्यायः अन्यथा भवनम् । उत्त० २०२ । भङ्गः । औप. १२ । परिअट्ट-परावतः-पुद्गलपरावर्तः । अनन्तोत्सपिण्यवसपि. पराणग-परकोयम् । ग० । णीप्रमाणो द्रव्यादिभेदः भिन्नः । आव० ४६५ । पराणि-द्रव्येन्द्रियमनांसि पुद्गल मयत्वात् । बृ० प्र० ८ परि अट्टणा-परावर्तना-पुन: पुन: मूत्राभ्यासलक्षणा । अनु० १६ । पराणुग्गहपरायणा-परानुग्रहपरायणः-धर्मोपदेशादिना प- परि अष्ट्रय-पर्यायक:-परिपूर्णः । औप० २१ । परिवर्तकः रानुग्रहोयुक्तः । आव० ५६७ । वृद्धिकारी अग्रेगामी परिपूर्णों वा । औप० २१ । पराभए-पराभव: । विपा० ३६ । परिअणं-परिजन:-दासादिः । ज० प्र० २७० । पराभग्ग-पराभग्नः । आव० ६७ । परिआए पर्याय:-प्रव्रज्यारूप: । दश० २७६ । पर्याय:परामटू-यद्विपर्यासी कृतं भङ्क्ते तदेतत् परामृष्टम् । ओघ तीर्थकृतः केवलीत्वकालः । जं० प्र० १५५ । पर्याय:१६२ । चारित्रपालनम् । ज० प्र. १५४ । परामर्श-प्रमार्जनम् । ओघ० १६० । परिआयट्राण-पर्यायस्थान-प्रव्रज्यारूपम् । दश० २३८ । परामुट्ठो परामृष्टः । आव० ३६७ । परिआविअ-परितापित:-समन्ततः पीडितः । आव० परामुसंति-पराशन्ति-उपतापयन्ति दण्डकशताडनादिभितियन्तीत्यर्थः । आचा० १६८ । परिउवट्टिय-पर्युपस्थितः-उभयत्रोद्यतः । उत्त० ५१२ । परामुसइ-परामृशति-गृह्णाति । भग० २३० । गृलाति । परिएसिज्जमाणे-तदीयमानाहारेण भोज्यमानान् । आचा० विपा० ८७ । परामृशति-हस्तेन स्पृशति गृह्णाति । ज० | ३२७ । प्र० ३ । परामृशति-स्पृशति । जं० प्र० २०० । परिकंखए-प्रतिकाङ्क्षति-प्रतिपालयति । उत्त० २७३ । परामृशति-आरभते । आचा० १४१ । परिकच्छिय-परिक च्छित:-परिगृहीतः । जं० प्र० ४०३ । पगमुसह-परामशत-नानापोडाकरणबधियत । आचा० परिकट्टलिय-परिदृलितं-एकत्र पिण्डोकृतम् । पिण्ड० २७३ । परामुसिए-परामृश्य तथाविधकरणव्यापारेण संस्पृश्य । परिकप्पेह-सन्नाहवतं करेह । ज्ञाता० ३५ । भग० २१८ । परिकम्म-परिकर्म-संकलिताद्यनेकविध गणितप्रसिद्धं तेन पगयग-परकोयम् । आव० ८२६ । नि० 'चू० प्र०२९३ ।। यत्सत्येयस्य सङ्ख्यानं-परिगणनं तदपि परिकर्म । परायण-परायणः - उद्युक्त: । आव० ५८७, ५६७ ।। ठाणा० ४९७ । दृष्टिवादप्रयमभेदः । सम० १२८ । परारि- आचा० १२२ । परिकर्म । आव० १८ । परिकर्म-वस्त्रपारादेः छेदनपरावय॑मानः । नंदी० २०६ । सोवनादि । ठाणा ३२० । परिकर्म-संलेखना। उत्त. परासर-सरभः । भग० १६१, ५४२ । पाराशर:-माहण- ६०३ । परिकर्म-रोगोत्पत्ती चिकित्सारूपम् । • उत्त० परिव्राजकः । औप० १ । १४६ । प्रतिकर्म । आव० २२६ । परिकर्म-स्थाननिषपरासुः-मृतः । नंदी० १५५ । दनत्ववर्तनादिना विश्रामणादि च तपभेदः । उत्त०६०२ । परास्कन्दी-लुण्टाकः। नंदी० ६३ । पराक्रम्य-समीपमागत्य अभिभूय वा। सूर्य० १० परिपराहुत-पराङमुखम् । आव० ५४१ । पराङ्मुखः । कर्म-क्रियाविशेषेण यो वस्तूनां गुणविशेषपरिणामो गुण ओघ० १८० । पराङ्मुखः-पराभिमुखः । ओघ० १७६ । विशेषधि नमित्यर्थः । विशे० ४३४ । परिकर्म:-तद्वमापारे परि-सर्वतः । प्रज्ञा, ५२७ । पुन: 'पुनः बहिर्वा । आव ० लग्नः । ओघ० १२८ । परिकर्म-द्रव्यस्य गुणविशेष८२८ । • परिणामकरणम् । व्य० प्र० १ अ । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकम्मण ] अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ [ परिगुव्वति परिकम्ण - सिक्खावणं । नि० चू० प्र० ३ श्रा । नि० परिक्खित्त परिक्षिप्तः परिषेकः । प्रश्न० २१ । परिक्षिप्त: व्यासः । जं० प्र० ३७ । परिक्षिप्त:- विस्तारितः । ज० प्र० ३७ । अन्त० ७ । परिक्षिप्तं वेष्टितम् । ज्ञाता० २२२ । परिविखत्ता - परिक्षिता-परिकरिता । भग० ४७५ | चू० द्वि० १६६ अ । परिकम्मणा - उवहिप्पमाणप्पमाणेण संजयप्पा उग्गं करेति । नि चू० प्र० २३५ अ । परिकमिजमाण - क्रियमाणशोधनार्थोपक्रमः । भग० २५४। परिकम्मोवघाते - परिकर्म्म-वस्त्रात्रादेः छेदन सोवनादि तेन तस्योपघातः अकल्प्यता परिकर्मोपघातः । ठाणा० ३२० । परिकर - वागुरा । राज० १२२ । परिकरण - पात्रबन्धादिकम् । ओघ० १३२ । परिकर्म - दृष्टिवादप्रथमभेद: । सम० ४१ | अवस्थितस्यैव द्रव्यस्य गुणविशेषापादनम् । ज० प्र० ५ तुलना । विशे० ११ । द्रव्यस्य गुणविशेषपरिणामकरणम् । आव ० ५४ | विनाश:- गुणान्तरोत्पादनम् । ठाणा० ४ । परिकर्षकः - अग्रेगामी । औप० २१ । परि किष्ण - परिकीर्णः - परिवृतः । उत्त० ३४६ । परिकि लेस - परिक्लेशो महामानसायासः । भग० ४७० । परिक्लेश: - उपतापः । प्रश्न ३७ । परिकुंचनाप्रायश्चित्तं - प्रायश्चित्तप्रकारः । व्य० प्र० ११ व्य० प्र० ४० बा । परिक्षेपणं - परिवेष्टनम् । उत्त० १७४ । अ । परिखा - उपरि विशाला । सम० १३७ । परिखा-अध उपरि च समखातरूपा । भग० २३८ । उपरि विशाला saः सङ्कुचिता । जीवा० १५६ । परिकुविय - परिकुपितः शरीरे समन्ताद् दर्शितकोपविकारः परिखेव - परिक्षेपः- परिधिः । परिगयपरिगतं - वेष्टितम् । प्रश्न० ७३ । परिगृहीतं - परिवेष्टितम् । ज्ञाता० ४२ । परिगतम् । आव ० ४२६ । जीवा ० ६७ ॥ परिगर - परिकरः- मल्ल कच्छवन्धेन युद्धोचितवस्त्रबन्धवि शेषः । जं० प्र० २०१ । परिकरः - प्रगाढगात्रिकाबन्धः । ज० प्र० २०५ । परिगलत्स्रोतः- जलाशयः । आचा० २२० । परिगालण परिगालनं- शुक्तिशङ्ख मत्स्यादिग्रहणार्थं जलनिःसारणम् । प्रश्न० १४ । परिगिज्झ - परिगृह्य - अङ्गीकृत्य । उत्त० ६४ । परिगृह्य. आश्रित्य । आचा० १२३ । परिगीयं -परि-समन्ताद् गीतं ध्वनितं यत्र तत् । ज्ञाता ० भग० ३२२ । पक्कि मंति- परातु वा - इन्द्रियकम्मंरिपूनु आक्रमन्ते - पराक्रमन्ते । आचा० २३३ । पराक्रम: - वीयं परेषामाक्र मणमाक्रमः पराक्रमः । विशे० ४८६ । परिक्कम परिकर्म-अवस्थितस्यैव वस्तुनो गुणविशेषाधानम् । अनु० ४६ । परिक्कमिज्ज - पराक्रमेत विहरेत् तिष्ठेद्वा । आचा० २७ । परिक्क मे परिक्रमेत् चङ्क्रम्याद् | आचा० २९३ | परिवकेस परिक्लेशयतीति परिक्लेश: - पुत्रकलत्रादिसं बन्धः । उत्त० ५२२ । परिवखग- जेहि सहसत्याणि णयादीणि सत्याणि अधीताणि ते । दश० चू० १८ । परिक्खभासी परीक्ष्यभाषी आलोचितवक्ता । दश०२२३ । परिवखा-परीक्षा- युक्तायुक्तविचारणम्। आचा० १७५। परिक्षिता-वेष्टिता । ज्ञाता० २३६ । परिक्खित्तिया-परिक्षिप्तो विस्तारितः । भग० ४६० । परिविखया - परीक्षिता-पराजिता । आव० ५०४ । परिविखव - प्रतिक्षिपेत् सूत्रतोऽर्थंत उभयतो वा न्यसेत् । सूर्य० २६६ । परिक्षेप:- परिरयः । ज० प्र० २१ परिक्षेप:- भित्यादेरेव परिधिः नगरपरिखादिव । अनु० १५४ | बाहिरिका । नि० चू० प्र० १६८ अ । परिक्षेप :- परिधिः । भग० ११६ । परिक्षेपः-संक्षेपः । आचा० २६४ । परिक्षेपः । अनु० १७५ ( ? ) । परिवखेव परिक्षेपः- वृत्तिवरंडकादिसमन्विते अबाह्ये । ४० । परिमुव्वति परिगुप्यति व्याकुलोभवति, मतं भ्रमती( ६६९ ) Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गह आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: (परिच्छेय त्यर्थः । ठाणा० ५०३ । परिघट्टिया-परिघट्टिता-संस्पृष्टा । जीवा० १६३ । परिग्गह-परिग्रहः-धर्मोपकरणवर्जवस्तु स्वीकारो धर्मोप- परिघासियं-परिगुण्डितम् । आचा० ३२१ । करणमूर्छा च । भग० ४२ । परिग्रहः-परिवारः ।। | परिघासेउ-परिघासयितुं-भोजयितुम् । आचा० २७२ । प्रभ० ४७ । पञ्चमं पापस्थानकम् । ज्ञाता० ७५ । परिचित्तवा-परिग्राह्या भृत्यदासदास्यादि, ममतपरिगृ. परिग्रहः-अङ्गीकारः । ज० प्र० १२७ । परिग्रहः- हतः । आचा. १७६ । परिवारः । प्रभ० ४७ । परिगृह्यत इति परिग्रहः- परिघोलणं-परिघोलनं-विचार: । आव० ४२६ । नंदो० हीरोपध्यादिः, परिग्रहणं वा परिग्रहः-स्वकारः, परिग्रहस्य प्रथमं नाम । प्रभ० ६२ । परिग्रहः-धर्मोकरण- परिघोलेमाणे-गमागमं कुर्वन् । औप० ६१ । वर्जवस्तुस्वाकार: धर्मोपकरणमूर्खा च । प्रशा० ३३५ । परिचत्तकामभोग-प्ररित्यक्तकाम भोगः-सम्पविरतः । परिग्रहः-स्वस्वामिभावेन मूर्खा । प्रज्ञा० ४३८ । परिग्रहः- | ठाणा० १२६ । स्वीकारः । प्रश्न० ४ । प्रतिग्रहम् । आव० २६२ । परिचत्तलोगवावार-परित्यक्तलोकव्यापार:, मुनेलक्षणम्। परिसमन्तात् गृह्यत इति परिग्रहो-द्विपदचतुष्पदधनधान्य- आव० ४०० । हिरण्य सुवर्णादिषु ममोकारः । सूत्र० १७७ । परिसमन्ता- परिचय-परिचय:-हेवाकः । बृ० प्र० २०७ अ । गृह्यत इति परिग्रह:-धनधान्य द्विपदचतुष्पदादिसंग्रहः, | परिचयसंस्तव-सम्बन्धिसंस्तवः । पिण्ड० १३६ । मात्मात्मीयग्रहो वा । सूत्र. १९२ । परिग्रहः-संयमा- | परिचार-एकोनपञ्चाशततमकला । ज्ञाता० ३८ । तिरिक्तमुपकरणादिः । आचा० १३२ । परिगृह्यते-स्वी. परिचारग-परिचारक:-कामुकः, यः परिचारणां-मंथुना. क्रियत इति परिग्रहः । ठाणा० २६ । परिग्रहणं परिग्रहः- भिष्वङ्ग करोति स । प्रभ० ३० । मूर्छा । ठाणा० २६ । परिग्रहः-धम्मसाधनव्यतिरेकेण परिचित-दिट्ठी भट्ठो पुवझुसितो पुश्व एगगामणि. धनधान्यादयः । ठाणा० ४६ । वासी वा । नि० चू• द्वि० ११५ बा । स्थिर: । परिगाहसण्णा-परिग्रहसंज्ञा-परिग्रहाभिलाष:-तीव्रलोभो | आचा. १९५ । दयप्रभव आत्मपरिणाम: । आव० ५८० । परिचितसूत्रता-उस्क्रमकमवाचनादिभिः स्थितसूत्रता । 'परिग्गहसन्ना-लोभोदयात् प्रधानभवकारणाभिष्वङ्गपूर्विका | उत्त० ३६ । सचित्तेतरदम्योपादक्रियेव परिग्रहसञ्ज्ञा। भग० ३१४ । परिचोइओ-परिचोदितः । आव० १६५ । पहिसज्ञा-लोभावपाकोदयसमुत्थम परिणाम रूपा । आइत्तए-परित्यक्तम् । ज्ञाता० १३४ । जीवा० १५ । लोभोदयात्प्रधानसंसारकारणाभिष्वङ्गपू. परिचाग-विवेगकरणं । नि० चू० प्र. १७ अ । विका सचित्तं तर द्रव्योपादानक्रिया परिग्रहसञ्झा । प्रभ० परिच्छडो ।नि० चू०प्र०७ । २२२ । परिच्छा -तुलणा । नि० चू० प्र० २६४ अ । परिग्गहिया-परिग्रहो-धर्मोपकरणवर्जवस्तुस्वीकार: धर्मो- परिच्छाय-परिच्छेदः-आच्छादन कटकम्बादिभिरावरणम् । पकरणमूर्छा स च प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिको, ज. प्र. २०६ । सम्यादृष्ट द्वितोया किया। प्रज्ञा० ३३४ । प्रगृहीता-अ. परिच्छि-नयरये व्यवस्थापितम् । विशे० ३०७ । आर० भिग्रहयुक्ता । बृ. प्र. २२४ म । परिग्रहे भवा पारि- ५६१ ।' अदिकी। ठाणा० ४१ । पारिवाहिका-विशतिक्रियामध्ये परिच्छो-प्रीतीच्छिकी । ग. । द्वितीया । आव० ६१२. परिच्छेद-गणि: । नंदी० १६३ । परिग्गाहिय-परिगृहीत:-६ कुतः । ओघ० १४०।। परिच्छेय-परिच्छिक:-लघुः । औप० ६३ । परिच्छेकोपरिघट्टांत-परिघट्यमानः । उत्त० ३०३ । लघुः । ज्ञाता० २२१ । ( ६७०) Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ এলিল) अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [परिणिमत परिजण-परिजन:-दासादिः । भग० ४८३ । परिझुसिय-सेवितः पीतः । भग० ६२५ । परिजनकथा-परिजनसम्बन्धकथा । प्रश्न. १३६ । परिज्ञा-प्रार्थना । आच० ३७६ । परिजवन-परिजल्पनं परिजल्पः । नि० चू० प्र० १८४ | परिज्ञानं-परिपालनम् । आचा० १६९ । परिदविज-प्रतिष्ठापयेयु:-त्यजेयुः । आचा० ३८४ । परिजविय-परैः-साधं भृशमुल्लापं कुर्वन् । आचा० ३८० । परिदृविजमाणं-परित्यज्यमानं देवायतनाच्चतुर्दिक्षु क्षिप्यपरिजाणामि-परिजानामि-आसेवनपरिज्ञानेन परिवदधे मानम् । आचा० ३३७ । ऽहमित्यर्थः । आचा. २७१ ।। | परिविजा-प्रतिष्ठापयेत्-ब्युस्सृजेत् । दश० १७८ । परिजाणित-परियानं-देशान्तरगमनं तत्प्रयोजनं येषां परिट्रविय-परिष्ठापितम् । व्य० द्वि० ३०८ अ । तत् परियानिक गमन प्रयोजनम् । ठाणा०५१८ । -परिस्थापिता-पतिता परित्यक्ता । बृ० द्वि० परिजायकुसुम-परिजातकुसुमम् । प्रज्ञा० :६१। ६७ । परिजितं-समन्ताजितं, परावर्तनम् । अनु० १५ । परिदृवे -परिष्ठापयति । ओघ० १५४ । परिजिय-परिचितः । ठाणा० ३४२ । परिजितम् । परिदृवेइ-परिष्ठापयेत्-परित्यजेत् । प्राचा० ३५२ । विशे० ४०५ । परिट्टवेजा-परिष्ठापयेद् बहिर्नीत्वा त्यजेत् । उपा० ४२ । 'परिजुण्णा-परिघुना दारिदयात् । ठाणा० ४७४ । परि- परिट्ठवेत्ता-प्रतिस्थाप्य प्रतिनिवृत्य । ओघ० १७३ । समंतओ जुग्णा-दुब्बलभावमुवगता । दश० चू० १३५ । परिट्ठावणं-परिस्थापन-प्रदानभाजनगतद्रव्यान्तरोग्झनल• परिजुन्न-परिजीर्ण-समन्ततोदुर्बलभावमापन्नम् । दश क्षणम् । आव० ५७६ । पारित:-सर्वैः प्रकारैः स्थापन २४८ । परिजीर्ण-समन्तात् हानिमुपगतम् । उत्त० अपुनर्ग्रहणतया न्यासः । आव० ६१६ । ६२ । परिट्टावणिया-परिस्थापनं-प्रदानभाजनगतद्रव्यान्तरोज्म. परिजुन्ना-दशविधप्रवज्यायां तृतीया,पत्ािना-दारिद्रयात्का- नलक्षणं तेन निवृत्ता या परिस्थापनिका, येन भाजनेन टहारकस्येव या सा परिघुना । ठाणा० ४७४ । . भिक्षां ददाति तस्मिनु पतितौदानादि जातं सहसा परिजुसित-निसेवितः परिमुसियः-परिक्षीणो जरादिना । परि स्थापितम् । आव० ५७६ । ठाणा० १८८ । परिद्वाविज-परिस्थापयेद्-व्युत्सृजेत् । दश० २३१ । परिजुसिय-पर्युषितं-रात्रिपरिवसनम् । ठाणा० २२० । परिठाणुववाइयं-परिस्थानोपपातिकम् । प्रज्ञा० २०८ । परिजुषित:-सेवितः प्रोतो वा । औप० ४३ । सेवित:- परिणइ-विश्रम्भः । पउ० १३-२५।। पीतः । भग० ६२५ । । परिणए-परिणतं-पर्यायान्तरमापनम् । भग० २४६ । परिजसियसंपन्न-पर्यषितसम्पन्न:-पर्यषितं-रात्रिपरिवसनं । परिणत परिनिष्ठततां गतम् । अनु० १७७ । तेन सपन्नः । ठाणा. २२० । परिणता-सूत्तेन वयेण य वत्ता-ध्यक्ता । नि० चू० प्र० परिजूर इ-गरिजीयंति-सर्वप्रकारां वयो हानिमनुभवति । २६ आ। धर्मश्रद्धालव: स्थिरचेतसश्च । बृ० द्वि० उत्त० ३३८ । १६६ आ । परिजूसियकामभोगसंग्ओगसंपउक्त-परिजुषितकामभो- परिणद्ध-परिणहनम् । ज्ञाता० १३३ । परिगतम् । गसप्रयोगसंप्रयुक्त:-सेवितः प्रीतो वा य: कामभोगः- ज्ञ ता० १६१ । शब्दादिभोगो मदनसेवा । औप० ४३ । परिणमति-परिणमति अतिक्रामति । ठाणा० ३४५ । परिजए-कृष्णपुद्गलः । सूर्य० २८७ । परिणति-भवति । भग० ५५ । परिणति-प्रपद्यते । परिज्मा-कामभोगपिवासा । दश० चू. १४ । | जीवा० ३०७। परिणमति-परिसमाप्तिमुपयाति । सूर्य. परिज्झिमो-अनुगओ । दश० चू० १४ ।। १७२ । विपरिणामं भजते । व्य० द्वि० १६० अ। . ( ६७१ ) Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणममाणसि ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [परिणिय परिणममाणंसि-परिणमति, पूर्यमाणे, परिपूर्णप्राये । ज० पाक: । जीवा० २७७ । परिणाम:-द्रव्य क्षेत्रादिसामप्र० १६८ । ग्रीवशतस्तत्तद्रपास्कन्दनम् । जीवा० ३७४ । परिणाम:परिणममाण-पूर्यमाणे-परिपूर्णप्रायः । शाता० ३४ ।। आहारपरिणतिः । प्रश्न० ८३ । परिणमनं परिणति:परिणमिज्जा-परिणमेत-निवर्तेत । आचा० १२६ । प्रवृत्तिभावमङ्गलपरिणामः । विशे० ३४ । परिणामःपरिणमिय-परिणामित:-पूर्वस्वभावत्याजनेनात्मभावनीतः। अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनम् । ठाणा० २०१। परिणाम:भग० ६८३ । आकारबोधक्रियाभेदात् त्रिधा । ठाणा० १८३ । परिपरिणय-परिणत:- गीतार्थः । ओघ. ७९ । परिणतं- णाम:-सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः । उदकदायकावस्थाप्राप्तम् । ठाणा० १४२ । परिणतः ठाणा० २८३ । परिणामः पर्यायः स्वभाव: धर्मः । परिनिष्ठिततां गतः । ६० प्र० ३८७ । परिणत:-परिगतः ठाणा० ३७५ । परिणामः-विपाकः । ठाणा० ३७५ । औप. ७। परिणत:-प्रस्तावादास्मरूपनामापन्नम् । उत्त० परिणाम:-अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्यैव तद्धावगमनमित्यर्थः। ६६२ । परिनिष्ठिततां गतः। भग० ६३१ । परिणतः ठाणा० ३७८ । परिणाम:-धर्मः । सम० ४२ । अवस्थान्तरमापन्नः । ज्ञाता० १७४ । परिणत:-स्वकाय- सम्यक्परिणतजिनवचनास्तु मध्यस्थवृत्तिः परिणामः । परकायशस्त्रादिना परिणामान्तरमापादितः, अचित्तीभूतः ।। विशे० ९३१ । परिणाम परिसमापकम् । सूर्य ठाणा० ५४ । १११ । नदी० १४४ । परिणयवए-सम्पन्नावस्थाविशेषः, तरुणः परिणतवयः । परिणामक-तत्तथा श्रद्दधाति तमेवं श्रद्धानं रोचयंत जानीहि प्रश्न०२८। परिणामकं साधुम् । बृ० प्र० १३२ अ । परिणयवय परिणयवयः-विगतयौवनः । ज्ञाता. १५७ । परिणामगा-अववादसद्दहणा । नि० चू० प्र० ३२४ आ। परिणयापरिणय-दृष्टिवादे सत्रभेदे द्वितीयो भेदः । सम. परिणामणय-परिणतिरिन्द्रियादिविभागः । भग०६०४ । १२८ । शब्दादिविषयोग्भोगः । सम० १४६ । परिणाम-परिणाम:-भावः । भग. ८९ समन्तानमनं | परिण मपयं-प्रज्ञापनानां त्रयोदशं पदम् । भग० ६४१ । परिणामः-सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्म-परिणामिकारणं-मृत्पिण्डः । ठाणा० ४६४ । धर्मः । आव० ४१५ । समन्तानमनम् । ज० प्र० (?)। परिणामिणी-कायिकी । बृ तृ० १४८ प्र। सर्वथा रित्यक्तपूर्वावस्थस्य यद्रूपान्तरेण भवनं परिणामः । परिणामिया-परिणामान्तरपापादितम् । भग० ५७६ । अनु. १२० । संघर्षम् । आचा० ३६३ । परिणामः- परिणामेइ-कथयति । आव० ४२३ । परिसमापकः । जं० प्र० ५०५ । परिणामः, प्रज्ञापनायां परिणामेज्जमाणे-परिणम्यमानः । ठाणा० ४७२ । त्रयोदशमं पदम् । प्रज्ञा० ६ । परिणाम:-इहलोकाद्या- | परिणाह-परिणाहः-ज्याधनुः पृष्ठयोर्यत्प्रमाणम् । ठाणा शंसालक्षणः । आव० ८४८ । परिणामः-विभ्रसारूपः ।।६। परिणाहः-परिधिः। ठाणा०६९। परिणाह:-मध्य. भग० १८८। परिणाम:-परिणतिः । औप०६९ पििधः । ज. प्र. २३४ । परिणाह:-परिधिः । जं. परिणाम:-अध्यवसाय विशेषः । आव० ३३९ । परिणाम- प्र० ३१२ । परिणाहः-परिधिः । ठाणा०६८ । विस्थारो। ५र्यायान्तरापत्तिलक्षणम् । दश० २३७ । परिणाम:- नि० चू० प्र० २६६ आ। नातिस्थौल्यं नातिदुर्बलता आहारपरिपाकः । जं० प्र० १२७ । परिणामः-परिपाक: बाह्वाविष्कम्भोर्वा । बृ० प्र० ३०६ प्रा। ज० प्र० १६८ । भवांतरगमणं । दश. चू० १२७ । परिणिट्रिय-परिनिष्ठितं-सुनिष्पन्नम् । जं. प्र० २११ । परि:-समन्तानमनं परिणाम:-सुदीर्घकालपूर्वापरावलो. परिणिट्टिय-परिनिष्ठितं-सिद्धम् । उत्त० ११७ । परि. कनादिजन्य आत्मधर्मः । भग. ५७३ । परिणामः | निष्ठित:-ज्ञाननिष्ठा प्राप्तः । आव. २६४ । परार्थजीवपरिणतिः । जं० प्र०२७९ । परिणाम:-आहार- मचितीकृतम् । . द्वि० १०६ अ । परि-समन्तात् (६७२) Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणिन्वाइ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [परित निष्ठित: परिनिष्ठितो, ज्ञाननिष्ठां प्राप्त इत्यर्थः । आवपरितण-परिजन:-शिष्यवर्गः । ठाणा.४४१ । २६४ । परितलिय-परितलितं-सूकूमालिकादि । ओघ० ४६ । परिणिवाइ-परिनिर्वाति सामस्त्येन शीतीभवति । प्रज्ञा० परितात-पर्यायः जन्मकालः प्रव्रज्याकालो वा । ठाणा. ३५८ । परिवार-परिकरः । ठाणा० २७२ ।। परिणिवाण-परिनिर्वाणं-मरणम् । भग० १२१ ।। परिताभाए-परिवेसयति । नि० चू० प्र० ३५ अ । शरोरपरिष्ठापनम् । भग० १२६ । परितायति-परिसमन्तात् पोडयति-तापयति । आचा. परिणिवाणयत्तियं-परिनिर्वाणं-मरणं तत्र यच्छरीरस्य । ७१ । परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव तदेव प्रत्ययो-हेतुर्यस्य परितायथेरा-पर्यायस्थविरा:-विशतिवर्षप्रमाणप्रव्रज्यापर्यास: परिनिर्वाणप्रत्ययम् । भग० १२६ । यवन्तः । ठाणा० ५१६ । परिणिवाति-परिनिर्वाति-सकलकर्मकृतविकारव्यति- परितारण-वेदोदयप्रतीकारः, तत्र स्त्रीपुंसयोः कायेन परि. करनिराकरणेन शोतिभवति । ठाणा० १८१ ।। चारणा-मैथुनप्रवृत्तिः । ठाणा० ३०३ । परिणिवुय-परिनिवृतः-कषायान्युपशमन:-समन्तात् शीती. परिताव-निठुरवायणतजियस्स जो महणं संतावो सो। भूतः । उत्त० ३४१ । | दश० चू० १३६ । परिताप:-रविकिरणादिजनितस्तापः। परिणता-अभिग्गहिया । नि० चू० द्वि० १११ ब । उत्त० ८६ । परितापः-पीडाकरणम् । भग० १८१ । परिणा-परिज्ञा-अनशनम् । बृ० द्वि० २१५ अ । परिज्ञा- | परितावणेअण्हओ-परितापनपूर्वक आश्रवः परितापनाश्रवः दिवसचरिमप्रत्याख्यानम् । बृ० तृ० ११७ आ। परिज्ञा- प्राणवधस्य षड्विंशतितमः पर्याय: प्रभ. ६ । नवानु-अनशनी । बृ० तृ० ५ आ । प्रत्याख्यानं तपो परितावणा-परितापना दुःखासिका । ओघ६५। . वा । बृ० तृ० १५० अ । परिज्ञा । आव० ६३७ । परिताविय-परितापितः क्वचितम् । बृह० प्र० २३४ प्रत्याख्यानम् । व्य० प्र० ११५ अ । नि० चू० प्र० आ। परितलितम् । ओघ० ६७ । १३४ अ । अणासगं । नि० चू० प्र० ३५२ आ । परितावेइ-परितापयति-समन्ततः पीडयति । भग० २३०॥ पच्चक्खाणं । नि० चू० प्र० ३०७ आ । पच्चक्खाणं । परितावेति-परितापयति-पीडयति । प्रशा० ५९२ । नि० चू० तृ० १३३ अ। परिक्षा-अन्तक्रियालक्षणा | परितावेह-परितापयथ-समन्ताज्जातसन्तापां कुरुथ । भग. सम्यगविधेया । ठाणा० ४४५। परि-समन्ताज्ज्ञानं पापपरित्यागेन परिज्ञा सामायिकमिति । आव० ३६४ । परितासं-परित्रासम् । ज्ञाता० ३६ । परिण्णाय-परिज्ञाय-परिज्ञया ज्ञात्वा । भग) १०० । परितिर्यक्कटनं-कटादिभिः समन्ततः पार्वाणामाच्छाद. परिज्ञातं-प्रत्याख्यातम् । आचा० ६६ । परिज्ञातः- नम् । ६० प्र० ६२ अ । तस्वस्वरूपादिपरिज्ञानात्प्रत्याख्यातः। सम० २० । परित्त-परित्त:-परिमितः । राज. ४७। परित:-समस्तपरिणी-अणसणोवविट्ठो। नि० चू० प्र० ८६अ। देवादिभवाल्पतापादनेन समन्तास्खण्डितः, परिमित इति । परितंत-परितान्त:-सर्वतः खिन्नः । ज्ञाता० १३६ ।। उत्त० ७०८ । त्राणम् । पउ० ३१.२१ । परित्तः-प्रत्येकपरिश्रान्तः । दश० १०५। परिश्रान्तः । आव० १९२।। शरीरी शुक्लपाक्षिकश्च । प्रज्ञा० १३ । परीत्तं-नियतपरितान्त:- सर्वथा श्रान्तः । आव० ५३५ । परिधान्तः- परिमाणम् । भग० २४८ । प्रत्येकम् । पिण्ड० १४६ । गुरुवयावृत्यकरणादिना। बाव.७८४। परितान्त:-खिनः। परीत्तः-प्रत्येकशीरी । जीवा० ४८ । परीत:-भवकायउत्त० १२९ । रोगातः । ओघ० २०० । परितान्त:- भेदभिन्नः । प्रज्ञा० १३६। परीतं-प्रदेशतः परिमितम् । सर्वथा खिन्नः । ज्ञाता० २२७ । उद्विग्नाः । बृ० तृ० भग०२४८ । परीत:-परि:-समन्तादितो-गतः प्रभष्ट ५९ आ। इति । सूत्र. ३९३ । परीत:-प्रत्येकशरीरी-आभि(अल्प० ८५) ( ६७३ ) Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परित्तजीव आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [परिनिव्वुओ निबोधिकज्ञानविचारे पञ्चदशमद्वारम् । आचा० २१ । | परिदेवणता-परिदेवनता-पुनःपुनः क्लिष्टभाषणम् । ठाणा० परीत:-पृथगशरीराणामेकद्वित्रिअसंख्येयानां जीवानामा. १८६ । श्रयः । ओघ० ३४ । विशे० ५४४ । परिमितोपधिः । । परिदेवणया-परदेवनता-पुनःपुन: क्लिष्टभाषणता। भग बृ० द्वि० १६ आ । नि० चू० प्र० ९५ आ । एक- ९२६ । प्रदेशिकत्वेन विष्कम्भाभावेन परिमितः । भग० ५५६ । । परिदेविय-परिदेवित:-विलपितः । प्रश्न० २० । परित्तजीव-प्रत्येकशरीरजीवात्मकम् । प्रज्ञा० ३६ । । परिद्यन:-परिपेलव:-निःसारः । आचा० ३५। परित्तमिस्सय-परीतविषयं मिश्रक परीत्तमिश्रकं यथा | परिधानीय-शृङ्खलकम् । जं० प्र० २७५ । अनन्तकायलेशति परित्तोपरीत्तोऽयमित्यभिदधतः।ठाणा० परिन्नाय-परिज्ञात: परिनिष्ठित:-अप्रतिष्ठितो ४६१ । वा । व्य० द्वि० ३६० मा । यथायोग विधिर्यतनया परित्तमिस्सिया-प्रत्येकवनस्पतिसङ्गातमनन्तकायिकेन सह वा सम्यक परिज्ञात:-प्रतिष्ठितः । व्य० प्र० ३९० आ। राशीकृतमवलोक्य प्रत्येक वनस्पतिरयं सर्वोऽपीति वदता | परिनिटिय-परिनिष्ठितः कृतः । ओघ० १६६ । प्रत्येकमिश्रिता । प्रज्ञा० २५६ । परिनिर्वाप्यवाचना-परीति सर्वप्रकारं निर्वापयतो निरो परित्तमीसग-परीतमिश्रा-सत्यामृषाभाषाभेदः । दश० निर्दग्धादिषु भृशार्थस्यापि दर्शनात् भृशं गमयत:-पूर्व२०६ । दत्तालापकादि सर्वात्मना स्वात्मनि परिणमयतः शिष्यस्य परित्तमीसय-सस्यामृषाभाषायां अष्टमीभाषा । ठाणा सूत्रगताशेषविशेषग्रहणकालं प्रतीक्ष्य शक्यनुरूपप्रदानेन ४६० । प्रयोजकत्वमनुभूय परिनिर्वाप्य वाचना-सूत्रप्रदानम् । परित्तसंखेजय-परीत्तासङ्ख्येयक, संख्याविशेषः । अनु० | उत्त० ३६ । २३६ । | परिनिव्वाइ-स एव तेषां कर्मपुद्गलानामनुसमयं यथापरित्तसंसारिता-परीत्तसंसारिका:-संक्षिप्तभवाः । ठाणा० यथा क्षयमाप्नोति तया तथा शीतीभवन परिनिर्वातीति । ६०। भग० ३४ । परित्तसंसारी-परीत्तसंसारी-कतिपय भवाम्यन्तरमुक्तिभाग। परिनिव्वाइस्सति-परिनिर्वास्यति- कर्मकृतविकारविरहाउत्त० ७०८ । | च्छोती भविष्यति । सम० ७ । परित्ता-परीत्ता:-प्रत्येकशरीराः। ठाणा० १३२ । संख्येया परिनिवाण-परि-समन्तानिर्वाणं-सकलकर्मकृतविकार आद्यन्तोपलब्ध नन्ता । सम० १०८ । परिमिता ।। निराकरणत:-स्वस्थीभवनं परिनिर्वाणम् । ठाणा. २५ । नंदी. २१० । परिनिवृति:-परिनिर्वाण आनन्दसुखावाप्तिः । सूत्र०३४१ । परित्ताणतय-परीत्तानन्तकं सत्याविशेषः । अनु० २४२।। परिनिर्वाणं-सुखम् । आचा० ७१ । परित्तास-परिवास:-आकस्मिकं भयम् । जं० प्र० १५०। परिनिव्वाणवत्तिय-परिनिर्वाणमुपरतिमरणं, तत्प्रत्ययोपरित्तीकरेति-स्तोकं कुर्वति । भग० ६५ । निमित्तं यस्य स परिनिर्वाण रत्ययः मृतकपरिष्ठापना परित्तीकुर्वति-संसारसागरं ह्रस्वनां नयति । सम० १२७ ।। कायोत्सर्गः । ज्ञाता० ७७, १९८ । परिवाह-परिदाहः-बहिः स्वेदमलो बहिर्वा अन्तश्च तृष्णाया | परिनिवाति-परिनिर्वाति सर्वथा सिद्धि प्राप्नुवति । दश० जनितदाहस्वरूपः । उत्त० ५। ११६ । परिदाहपडियाए- आचा० ३८० । परिनिव्वायति-परिनिर्वाति कर्मदावानलोपक्षमेन । उत्त० परिदेवइजा-परिदेवयेत्-स्वेदं यायात् । दश० २५३ । । १७२ । परि-समन्तात् निर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोति। परिदेवण-परिदेवनं-पुनःपुनः क्लिष्टभाषणम् । आव० आव० ७६१ । ५८७ । परिनिव्वुओ-परिनिर्वृत:-क्रोधादिज्वालानिर्वाणाद। आचा० (६७४) Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ परिभाजयितुं १५० । परिनिव्वुड - परिनिर्वृत्तः - रागद्वेषविरहाच्छातो भूतः । सूत्र ० ६४ । परिनिर्वृतः कम्मं कृतविकारविरहात् स्वस्थीभूतः । ठाणा० ३६ | भग० १११ । स्वास्थ्यातिरेकात् । ज्ञाता० गृहम् । विशे० ६२७ । परिपूर्णकः येन घृतपूर्णयोग्यं पानं गल्यते । बृ० प्र० ५५ अ । परिपूर्णकः - घृतक्षीरगालनकं सुगृहाभिधचटिकालायो वा । ( ? ) । १०३ । परिन - परिज्ञा- भक्तप्रत्याख्यानम् । बृ० द्वि० ५ अ । परिन्नचारि - परिज्ञानं परिज्ञा - सदसद्विवेकस्तया चरितु शीलमस्येति - परिज्ञाचारी ज्ञानपूर्वं क्रियाकारी । आचा० ४३१ । परिपूय- परिपूतं वस्त्रेण गालितम् । औप० ९४ परिपूर्णेन्द्रियता - अनुपहतचक्षुरादिकरणता । उत्त० ३६ । परिनिब्बुडा - जाइज रामरणरागादीहिं सव्वप्यगारं गति परिपेरंत - पयन्तेषु परितः । आव० २१७ । परितः पर्यन्ते । faceमुक्का । दश० चू० १२ आ । आव० २१६ । ओघ १५० । परिपेलवर सः - मन्दानुभावः । भग० ३५ । परिफल्गु - निस्सारम् । अनु० २६१ । परिफल्गुवचसः - परिव्राजकादयः । आचा० ४७ । परिब्भट्ठय - परिभ्रष्टः । आव० ४२२ । परिभमति - परिभ्राम्यति । आव० २६३ । परिब्भुसित - बुभुक्षितः । नि० ० प्र० १५१ आ । परिभजमाण- परिभृज्यमान: । आव० ८१४ । परिभट्टिया - परिभ्रष्टा । आव० ४२६ । परिभव- खिसना | ओघ० २१५ । परिभवः - विधेयकरणम् । आव० ७५६ । परिभवणिज्जे- परिभवनीयोऽनुम्युत्थानादिभिः । ज्ञाता० ६४ । परिना - परिज्ञा वस्तुस्वरूपस्य ज्ञानं तत्पूर्वकं च प्रत्याख्यानम् । ठाणा० ३१७ । परिज्ञा ज्ञानपूर्वकं प्रत्याख्यानम् । ठाणा० ४४४ । परिण्णा - परिज्ञा - प्रत्याख्यानम् । ओघ० १६६ । परिनिवुड ] अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ परिनाविवेग - परिज्ञाविवेकः परिज्ञानविशिष्टता, कस्यचित् कोsव्यध्यवसायः संसारवैचित्र्यहेतुः । आचा० २११ । परिपग-विपाकः । व्य० प्र० २० आ । परिपच्छति - पर्यवस्यति । उ० मा० गा० १३ । परिट्टगा - वस्त्रपरावतं गृह्णन्ति जे ते परियदृगा, आभ मंडयं । नि० चू० प्र० २२७ अ । परिपड - परिपतति - तिर्यग् निपतति । जीवा० २४ = | परिपडति - परिपतति तिर्थंग् निपतति । जं० प्र० ४१६ । परिपाण्डु: - । प्रज्ञा० २५६ | परिपंडित - अव्यवच्छिन्नं करचरणं वचनकरणं वा यस्य । बृ० पृ० ११ आ । | परिपिडिय- परिपिण्डितं प्रभूतानेकवन्दनेन वन्दते अवर्तान् व्यञ्जनाभिलापानु वा व्यवच्छिन्नान् कुर्वन् कृतिकर्मणि | चतुर्थः दोषः । आव० ५४३ । परिपिरिय- कोकिल पुटकावनद्धमुखो वाद्यविशेषः । भग० परिभवह- परिभवः समस्तपूर्वोक्तपदाकरणेन । भग० २१६ | परिभाइजमाणं - परिभज्यमानं विभज्यमानं - स्तोकं स्तोकमन्येभ्यो दीयमानम् । आचा० ३३७ । परिभाइत्ता - परिभाज्य - विभागीकृत्य । आचा० ४०१ । परिभाइयपुण्व - पूर्वमेवास्माभिरियं भातृव्यादेः परिकल्पितेत्येवंभूता भवेत् । आचा० ३६६ । परिभाएउं - परिभाजयितु ं दायादादीनां परिभाजने तत्परिणामं दन्तवन्तो । ज्ञाता० ३९ । परिभाएजमाण- पार्श्ववतिभ्यो मनाक् मनाक् दीयमानं परिभाज्यमानम् । जं० प्र० ३६ । परिभज्यमानं - पार्श्ववतिभ्यो मनाक् मनाक् दीयमानम् । जीवा ० १६२ । परिभाएत्ता - दातव्यं विभज्य, दातव्यद्रव्यात्किञ्चिदंशं गृहीत्वेत्यर्थः । श्राचा० ३५५ । २१६ । परिपुरण - परिपूर्ण - संभिन्नम् । प्रज्ञा० ५४१ । परिपूणग-परिपूणक :- घृतपूर्णक्षीरकगालनकं चिटिकावासो | परिभाएह- परिभजध्वं विभज्य | आचा ३३६ ॥ वा । आव० १०२ । परिपूणको नाम सुधरीचिटिका- परिभाजयितुं - दायादादीनां परिभाजने तत्परिणामं दन्तविरचितो नीडविशेषः । विशे० ६३२ । सुघरोचिटिकावन्तो । ज्ञाता० ४४ । ( ६७५ ) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभामिया ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ परियदिखमाण परिमामिया-परिभ्रामिताः कृतप्रभाभ्रंशाः । ज्ञाता० २७।। षणा । उत्त० ५१६ । परिभायंतियं-परिभाजयन्तिकां-पर्वदिने स्वजनगृहेषु खण्ड- परिभ्रष्टः-व्यपगतः । जीवा० १०३ । खाधाद्यः परिभाजनकारिकां महानसे नियुक्ता । ज्ञाता. परिमंडल-परिमंडलं-वृत्तभावः । औप० ६७ । पारि माण्डल्यं-वृत्तत्वम् । जं० प्र० ३६७ । वृत्तम् । प्रभ. परिभावणाओ-आभाव्यार्थपरिहारेण न्यविक्रयाः । औप० ७५ । परिमण्डल:-संस्थानविशेषः । प्रज्ञा० २४२ । १०३ । षट्संस्थाने प्रथमः । भग० ८५८ ।। परिभावितं-विचारितम् । नंदी० १५२ । परिमंडिया-परिमण्डिका-धात्रीविशेषः । ज्ञाता० ४१ । परिमावेमाण-परिभावयन् ददत् । भग० १६४ । परिमण्डलसण्ठाणपरिणया-परिमण्डलसंस्थानपरिणता परिमाव्य-विचार्य । नंदो० १६७ । बलयवत् । प्रशा० ११ । परिभाषा-लोकन्यायः । आव० ४८४. २५७ । परिमणं-परिमर्दनं-सर्वतः शरीरमलनम् । प्रश्न० १३७ । परिभास-परिभाषणं परिभाषा अपराधिनं प्रति कोपा- | परिमर्दनं-पिष्टादिमलनमात्रम् । ठाणा० २४७ । विष्कारेण मा यासीति अभिधानम् । ठाणा० ३६६ । | परिमहा-पुणो पुणो सा संवाहणा । नि० चू० प्र० ११६ परिभासणा-परिभाषणा-भरतकाले दण्डनीतिः । जं० प्र० अ । अणेगसो संबाधेति सा । नि० चू०प्र० १८८ अ । १३४ । परिभाषणा-परिभाषणं परिभाषा-कोपावितकर- परिमन्थू ।ठाणा० ३४३ । णेन मा यास्यसीत्यपराधिनोऽभिधानम् । आव० ११४ । परिमाण-परिमाणं-नियमनम् । ठाणा० २६१ । परिभासी-परिभाषो- पराभवकारी । आव० ६५४ । । परिमाणकड-दशधाप्रत्याख्याने सप्तमम् । परिमाणसंख्यानं परिभातेइ-परिभाषते-निन्दति । सूत्र० ४२५ । दत्तिकवल गृहभिक्षादीनां कृतं यस्मिंस्तत्परिमाणकृतम् । परिभुंजणया-परिभोजनता-अवस्थानम् । सम० ४५ । ठाणा० ४९८ । परिमाणकृतं-दत्त्यादिकृतपरिमाणम् । परिभुंजमाण-परिभुज्यमान-परिभागायोपयुज्यमानम् । आव० ८४० । जं० प्र० ३६ । परिमाणकय-दत्यादिकृतपरिणामम् । भग० २६६ । -मोज्यं भूखान:-परिभूानः। भग०१६४। परिमासा-परिमो-जलधिजलस्पर्शः। ज्ञाता० १५७ । परिभुक्ता ।७० प्र० १०४ आ । | परिमितपिंडवाय-परिमितपिण्डपात:-अर्द्धपोषादिलाभः । परिभङते-आसेवते । ठाणा० ३०० । औप० ३९ । परिभुजइ-परिभुज्यते बध्यते छोड्यते च । पिण्ड ० १०७। परिमितपिंडवाविते-परिमितो-द्रव्यादिपरिणामतः पिण्डपरिभुजति कम्म ण कारविज्जति । नि० चूद्वि० १०६ अ।। पातो-भक्तादिलाभो यस्यास्ति स परिमितपिण्डपातिकः । परिभुज्जमाणं-परिभुज्यमानं परिभोगायोपभुज्यमानम् । ठाणा० २६८ । जोव० १६२ । परािमपिंडवाइय-परिमितपिण्डपातिक: परिमितगृहपरिभुत्तं-परिभुक्तम् । आचा० ३२५ । प्रवेशादिना वृत्तिसक्षेपवान् । प्रश्न० १०६ । परिभोग-परिभोग:-उपयोगः । पिण्ड० २० । परिभोगः- परिमोस-परिमोषः। उत्त० २१४ । पुनःपुनर्भोगः, बहिर्मोंगो वा । आव० ५२८। तेन कार्य- | परियंचिऊणं-परीत्य । आव० १९६ । कारणमित्यर्थः । नि० चू० प्र० १३० आ । परिभोगः परियंतजगं-पर्यन्तयुगं कलियुगम् । प्रश्न. ५१ । पुनःपुनर्भोगः । भग० २९७ । परियंति-पर्यटन्ति । उत्त० ५५३ । परिभोगपरिहरण-यत् सौत्रिक कल्पादिपरिभुङ्क्ते प्रावृ. | परियंदा-रमयति क्रीडयति उल्लापयति वा । आव० णोति । व्य. प्र. ४५ अ । ८२४ । परिभोगेसणा-परिभोगः-प्रासेवनं तद्विषयषणा परिभोग-' परियं विजमाण-स्तूयमानः । राज० १४८ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिय] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [परियाणामि परिय-पर्यायः द्वारम् । सूत्र० ५। उत्त० २१६ । परिच्छिन्चाइ-परीक्ष्यते परिज्ञायते । आव• ६२८ । परियरबंध-परिकरबन्धः-विशिष्टनेपथ्यरचना । अनु. परियटुं-परिवर्तनम् । विपा० ३७ । १४३ । परियट्टइ-पर्यटति पौनःपुन्येन भ्रमति । भग ६५। । परियन-पर्यटनः। नि० चू० प्र० १८५ आ। परावर्तकः । परियट्टण-पूर्वाधीतस्यैव सूत्रादेरविस्मरणनिजरार्थमभ्यासः वेष्टनम् । ओघ० २१४ । परिवर्तनम् । ठाणा० १६० । परियस्सअ-परिपाव॑तः । भग० ६३० । परियट्टणा-परिवर्तना सूत्रस्य गुणनम् । प्रभ० १२६ । परियाइए । सूर्य०३। परिवर्तना-प्रच्छनाविशोधितस्य सूत्रस्य मा भूद्विस्मरणं इति परियाइणया-पर्यादानता पर्यादानं-यथायोगमङ्गप्रत्यङ्गसूत्रस्य गुणनम् । ठाणा० ३४६ । परावर्तना-गणनम् ।। र्लोभहारादिना समन्ततः पुद्गलादानं तद्भावः । प्रज्ञा० उत्त० ५८४ ।। ५४४ । परियट्टणाए ।ज्ञाता०६१ ।। परियाइत्त-पर्यादाय-परिग्रह्य । भग० १८६ । परिट्टिउं-परिकर्षयितु, परिवर्द्धयितु वा परिपालयितु- परियाइय-पर्यायमतीताः पर्यायातीता: पर्यात्ता वा सामस्त्यमिति । प्रश्न. १५३ । गृहीताः कर्मपुद्गलवत् । ठाणा० ६४ । पर्यापन-अङ्गपरियट्टिए-परिवर्तितं साघुनिमित्तं कृतपरावर्त, दशम उद्- प्रत्यङ्गः समन्तादापानम् । भग० ६०४ पर्याप्तम् । राज. गमदोषः । पिण्ड० ३४ । परिट्रिय-अप्पणिज्जं देति परसंतियं गेण्हावेति ति | परियाइयाई-पर्याप्तानि जीवेन सर्वावयवरात्तानि तद्रसापरियट्टियं । नि० चू० द्वि० २०५ अ । दानद्वारेण । भग० ५६९ । परियट्टियलावणं-परिवतितं कालपरिणत्याऽन्यथाकृतं | परियाइयकंडकलावा-विचित्रकाण्डकलापयोगात पत्तिलावण्य-अभिरामगुणात्मकमस्येति परिवर्तितलावण्यम् । काण्डकलापः । जीवा० २५६ । उत्त० ३६४ । परियाइयणय-पर्यादानमङ्गप्रत्यङ्गः समन्तात्पा(दादा)नपरियट्टेइ-परिवर्तयति-गुणयति । ओघ० १६६ । मित्यर्थः । सम० १६४ । परियडति-सातत्येन पर्यटति । उत्त० २६६ । परियाए-पर्यायः अवस्था । भग० ६७३ । परियण-परिजनः दासादिः । भग० १६३ । परिजन:- परियाएति-पर्यादत्ते । भग० १५५ । परिवर्ग:। उत्त० ३०७ ।। परियागं-पर्यायान विचित्रपरिणामानु । ठाणा० ४६६ । परियणादिकंजेण दोसा समिज्जति तं च परियणादिकंपरियागते-पर्याय: प्रसवकालक्रमेणागत: पर्यायागतः । नि० चू० द्वि० ६६ आ । ज्ञाता० ९१ । परियत्तंति-रियटुंति य परिवर्त माना अतिक्रामन्ति । परियागयं-पर्यागतं । प्रज्ञा० ३२८ । पर्यायागत:-पर्यायउत्त० ४७६ । गत: वा सर्वनिष्पन्नतां गतः । ज्ञाता० ११६ । परियत-संभावना । बृ० द्वि० १२ आ (?) । परियागववत्थणा-पज्जोसवणा । जम्हा पज्जोसवणादिपरियत्तणं-इयरदिसोकरणं । नि० चू० प्र० २११ । वसे पवाज्जापरियागो व्यपदिश्यतेपरियत्ते-परावृत्तमधोमुखं स्थितम् । ओघ० १६१ ।। एत्तियो वरिसा मम उवटाविस्सत्ति तम्हा परियागवत्थपरिवर्तिते अधोमुखीकृते । ओघ• १६८ । वण्णा । नि० चू० प्र० ३३६ आ । परियतेति-अधोदेशस्य तथैव पुनःस्थापनेन परिवर्तयति । परियाणति-परिजानति-अनुमन्यते । राज. ४८ । ज्ञाता० ६४ । परियाणाति-परिजानाति-प्रत्यभिजानाति । ज्ञाता० ३४॥ परियर-परिकर:-कवचः । प्रश्न० ४७ । परिकरः । । परियाणामि-ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्यास्थानपरिज्ञया ( ६७७) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परियाणिया ] प्रत्याख्यामि प्रतिजानामि । आव० ७६१ । परियाणिया-परियायते गम्यते यैस्तानि परियानानि तान्येव परियानिकानि परियानं वा- गमनं प्रयोजनं येषां तानि परियानिकानि यानकारकाभियोगिकपालकादिदेव कृतानि । ठाणा० ४४० परियादिया-विवक्षितं पर्यामतीताः पर्यायातीताः पर्यात्ता वा सामस्त्यगृहीता कर्मपुद्गलवत् । ठाणा० ६३ । परियानं तिर्यग्लोकादिवतरणादि ठाणा० १४६ | देशान्तरगमनम् । ठाणा० ५२८ । विविधव्यतिकरपरिगमनम् । भग० ६६१ । परियायत कर भूमी - पर्यायः तीर्थंकरस्य केवलित्वकालस्तत्यान्तरभूमिर्यासा । ज्ञाता० १५४ । परियाय- पर्याय: व्यवस्था प्रव्रज्यादिलक्षणा । ठाणा० २०७ । पर्यायः - श्रामणिः । आचा० २४३ । पर्यायः - प्रव्रज्याप्रतिपत्तिलक्षण | आव० २६६ । पर्याय:- प्रव्रज्या सम्यक्समितया वा पर्याय: | आचा० २०२ । परियायइ-पर्याददाति सामस्त्येनोपादत्ते निघत्तादिकरोति । भग० २६१ । परियार परिचार:- प्रवीचारः । प्रज्ञा० ५४६ । परिवार :स्वकपरिवारः । भग० ५०६ । परिचारः - वृत्तिः, खड्गादिकोशो वा । प्रश्न० १३ । आचार्यश्री आनन्दसागरसू रिसङ्कलितः परियारग - परिचरति सेवते स्त्रियमिति परिचारकः । ठाणा० १०० । [ परियाविज्जति परियारेमाणे - परिचारयन्- कामक्रीडां कुर्वन् । भग० ५७६ । परियाल - परिवारः । भग० १६३ । परियावज्जण पर्यापद्यते - कोथमायाति । पिण्ड० ६० । पर्यावदनं पर्यापत्तिरासेवेतियावत् । ठाणा० १७४ । परियावज्जिज्जा - पर्यापद्येरन् भवेयुः । आचा० ४०१ । परियावज्जेज्ज -पर्यापद्येत जलरूपतया परिणमेत् । अनु० १६२ | पर्यापद्येत - विनश्येत् । भग० २३३ । परियावण - परिताप:- पीडाकरणम् । प्रज्ञा० ४३५ । परियावणियं - परियापनिका च कालान्तरं यावत् स्थितिरित्युत्थानपरियापनिकं च तत्परिकथयतीति । ज्ञाता० १५६ । परियावणिया - परितापनं परिताप:- पीडाकरणमित्यर्थः, तस्मिन् भवा तेन वा निर्वृत्ता परितापनमेव वा पारितापनिकी । चतुर्थी क्रिया । प्रज्ञा० ४३५ । परियावणं - पर्यापन्नम् । आव० ७४२ । पर्यापनम् । आव० ७४३ | पर्यापन्न- विवर्णी भूतम् । व्य० द्वि० २४६ आ । जहा रुहिरं चैव पूयपरिणामेन ठियं । नि० चू० तृ० ७२ आ । परिष्ठानम् । बृ० द्वि० ९४ मा परियावन्न - उववासिगमादी आवलिया तेसि भोतिगादि अवलिया एय पुछिऊण परिद्वावणाए गतो एतदेव परियावन्नं । नि० चू० द्वि० १४ आ । विस्मृतं पर्याव । बृ० तृ० ४७ अ । पर्यापन्नं लब्धम् । आचा० ३५२ । पर्यायापन्नः - सूक्ष्मपर्याय मापन्नः- भावसूक्ष्मः । दश० १२२ । परियारण- सागारियसेवणं । नि० चू० प्र० ११३ अ । परियारणय- शब्दादिविषयोपभोगः । भग० ६०४ । परियारणा यथायोगं शब्दादिविषयोपभोगः । प्रज्ञा० ५४४ । परिचारणा - देवमैथुनसेवा । ठाणा० १०६ । परिचारणाकामासेवा | ठाण० १७३ । आसेवना । आचा० ३३१ | परियारणासदं - पुरिसेणित्थी परिभुज्जमाणा जं सद्द करेंति । नि० चू० प्र० ११२ आ । परियावन्नग पर्यापन्नः - व्यापिनः । प्रशा० ७४ । परियावसह - पव्वज्जापरियाए द्विता तेसि आवसहो परियावसहो । नि० चू० प्र० १५३ अ । परियावह - पर्यावसथः मठः । आचा० ३६५ | पर्यावसथ:भिक्षुकादिमः । आचा० ३४८ । परियार सद्दो- पुरुषेण स्त्रीभुज्यमानायं शब्दं करोति स परियावाए- परिवादाय दस्युरयं विशुनो वेत्येवं मर्मोदघपरियारशब्दः । बृ० द्वि० ५७ अ । ट्टनाय | आचा० १६३ । । परियारिया - पडिभुज्जमाणि । नि चू० प्र० १०६ आ । परियाविज्ज - परितापयेत् - पीडामुत्पादयेत् । आचा० ४२८ । परियारेई-मैथुनं सेवते | ठाणा० ६२ । परिचारयति - परियाविज्जति-परिताप्यते । आव० ३७१ । पर्यापद्यते । परिभुङ्क्ते । भग• १३२ । आव० ४०० । ( ६७८ ) Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परियाविया ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [परिवाविय परियाविया-परिताविया-पीडिता । ७६६ । परिवयंत-परिवदन्-निन्दन् । प्रभ० ६४ । परियास-पर्यास:-परिक्षेयः, परिभ्रमणं वा। सूत्र. २२१ । परिवयति-परिवदति-परि - समन्ताद्वदति - यथाऽयं न परिरओ-परिरयः-परिधिः । उत्त० ६५५ । म्रियते नापि मञ्चकं ददाति यदि वा परिवदति-परिपरिरब्भमाण-रूध्यमानः । आव० ८१५ । भवतो त्युक्तं भवति । आचा० १०५। निन्दति, अवगापरिरय परिभ्रमणम् । बृ० प्र० १५६ आ। श्रीन्वारानु यति परिभवति । आचा० १०५ । भ्रमणम् । बृ० द्वि० १८७ आ । परिरय:-परिधिः । परिवसंति । ठाणा० २३० । सम० ११४ । मार्गान्तरेण गमनम् । बृद्वि०६४ । परिवसइ-परिवासयति-आक्रोशति । आव० ४२८ । परिरयः-परिक्षेपः । जं० प्र० २१ । परिरयः-भ्रमणम् ।। | परिवसणा-जम्हा एगलेते चत्तारिमासा परिवसतित्ति ओघ०२० । परिरयः-भ्रामड्यः । ओघ० ५९ । परिरयः- तम्हा परिवसणा । नि० चू० प्र० ३३६ आ । गिरिसरित्परिरयः । परिहरणायाः चतुर्थो भेदः । आव० परिवहइ-सर्वतो व्यथते-कदर्थयति । भग० १६६ । ५५२ । गिर्यादेः । ओघ० २० । परिवाइणि-परिवादिनी-सप्ततन्त्री वीणा। जंप्र० १०१। परिरयवुढी-परिरयवृद्धि । सूर्य० ३८ । परिवाइणी-परिवादिनी-सप्ततन्त्री वीणा । जीवा० २६६। परिलितणिद्धो-परिलीयमानगृद्धः । प्रभ० ५०। परिवाओ-परिवाद:-काक्वा परदोषापादनम् । सूत्रों परिलित-परिलीयमाना अन्तत मागत्य लयं यात २६३ । शाता० ५ । परिलितः परिलीयमानः-संश्लिष्यतः । परिवाग-परिपाक:-परिपूर्णः पाकः । प्रज्ञा० ३६५ । शाता० २७ । परिवाडी-परिपाटी-गृहपंक्तिः। उत्त०५६। परिपाटि:परिली-गुच्छाविशेषः । प्रशा० ३२ । पद्धतिः । सम० ४ । परिपाटि:-पद्धतिः । बृ० द्वि० परिल्लं-चरमम् । आव० ६०६ । परिवंदण-परिवन्दनं-संस्तव:-प्रशंसा । आचा. २६ । परिवाद-अयसो-अगुणकित्तणं । नि० चू० प्र० २७६ अ। परिवन्दनं-परिसंस्तवः । वाचा. १६९ । परिवादादिदोषत्रयास्पृष्ट- । आचा० १०९। परिवच्छिय-परिक्षिप्तः-परिगृहीतः । ज्ञाता० २२ परिवादिनी-सप्ततन्त्री. वीणा । राज. ५० । परिपक्षित:-परिगृहीतः । ३१७ ।। परिवाय-परिवाद:-निन्दा । औप० १०६ । परिवजियाण-परिवापमानं अवगणण्य । आचा०३०६। परिवायओ । आव० ४२२ । परिवट्टणं-परिवर्तनं-पुनर्वामपानव वर्तनम् । आव० | परिवायग-परिव्राजक:-पापवर्जकः । दश ० २६२ । नि० ५७४ । परिवर्तनं-द्विगुणत्रिगुणादिभेदभिन्नम् । आचा० । चू० प्र० १८६ अ। . १०० । परिवर्तनं-पन:पनभवनम । प्रश्न. २२ । परिवार-परिवार:-दासीकर्मकरादिकः परिकरो वा, ग्रहापरिवडणा-परिवर्तना-परिवर्तन, अभ्यसनं, गुणनमिति, देवृत्त्यादिकः । सूत्र० ३०६ । कोश: । सूत्र० २७६ । वा । दश ० ३२ । परिवारण-निराकरणम् । प्रश्न. २२ । परिवा-परमाणूनां मीलनानि । भग० ५६८ । परिवारणा-परिवारकरणम्, परिवारस्थापनम् । ज० प्र० परिव?ति-पुणो पुणो परिवटेति । नि० चू० प्र० ११६, ३२८ ।। आ। परिवारिए-परिवार:-परिकरः सजातोऽस्येति परिवापरिवत्य-निर्णयः । ७० द्वि. ३ आ । रितः । उत्त० ३५१ । परिवत्थिय-परिपक्षितं-परिगृहीतं-परिवृत्तम् । औप०६२। परिवारियं-परिवारितं-समन्तता वेथितम् । जीवा० परिवत्थुणिसो-भदं तं चेव भणति तुम जातिहीनो ।। १६० । नि० चू० प्र० २७७ आ । परिवाविय-द्विस्त्रिा उत्पाट्य स्थानान्तरारोपणतः परि( ६७९) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवासियं ] वपनवती शालिकृषिवत् । ठाणा० २७६ । परिवासियं| बृ० प्र० ३० आ । परिवुसिए - पर्युषितः - स यमे उक्त विहारी । अन्तप्रान्तभोजी । आचा० २४२ । पर्युषितः । आचा० ३७६ । पर्युषितः- संयमे व्यवस्थितः । आचा० २८० । पर्युषितःव्यवस्थित इति । आचा० २४४ | परिवुसे - पर्युषिते, वसे । नि० चू० प्र० २७४ अ । परिवृह - सप्तचत्वारिंशततमकला । ज्ञाता० ३८ । परिवेदिओ - सवदिसि ठितेसु दिसि विदिसासु विच्छिण्ण ठिते परिवेष्टितः, दुग्गादिसु पंतीसु समंता परिट्ठियासु परिवेष्टितः । नि० ० ० ४६ आ । परिवेदिय - पुरतो पितो पासीता ठिच्चा । नि० चू प्र० १८४ आ । परिवेसंतिया - परिवेषयन्तिका -भोजनपरिवेषणकारिका । ज्ञाता० ११७ । परिवेसति-परिवेशयति-भोजयति । ज्ञाता० ८६ । परिव्राजका-चरगा । नि० चू० तृ० ३१ अ । परिवाओ - सव्वसो पावं परिवज्जंतो । दश ० चू० ३३अ । परिव्वाय ए-परिव्राजकः । ज्ञाता० १०५ । परिव्राजक: आचार्यश्री आनन्द सागरसूरिसङ्कलितः [ परिसुक्कमुह परिसडियकंदाहारा। निरय० २५ । परिसप्प - उरसा भुजाभ्यां वा परिसप्पंतीति परिसर्पः । प्रज्ञा० ४५। उरसा भुजाभ्यां वा परिसर्पतीति परिसर्पः, अहिनकुलादय: । जवा० ३८ । परिसर - परिसरः । आव० ३६८ | सरभम् । आचा० ३३८ । परिसर्प - षष्ठं क्षुद्रकुष्ठम् । प्रश्न० १६१ । परिसर्प - शुद्रकुष्ठे पचम् | आचा० २३५ । परिसा परिषद् । सूय० २ । परिषद् - परिवार विशेष:यथा मातापितृपुत्रादिका अभ्यन्तरपरिषद् दासोदासमित्रादिका बाह्यपरिषदिति । सम० १२० । परिषत्परिवारः । ठाणा० ११७. १२८ । पषंतु-परिवारः । भय० ४६० । परिसाड - परिशाट:- उज्झनम् । आव० ५७६ । परिसाडइत्ता - परिशाटयित्वा - विनाशयित्वा । प्रज्ञा ०५०३ । परिसाडणा - परि:- समन्ताच्छटतां पृथग् भवतामोदारिकादिपुद्गलानां यदात्मनस्तान्प्रति तत्तच्छरीरविमोक्षात्मकं प्रयोजकभवनं सा परिशाटना । उस० १९८ । परिसाडी - गच्छतो यत्र धूल्यादि निपतति । ओघ० ३१ । कुसातितणसंथारए परिभुज्जमाणे जस्स किचि परिसडति सो परिसाडी । नि० चू० प्र० १६८ अ । परि० शाटी । प्रोष० १५२ । परिसामंत - पार्श्वतः । भग० ६०७ । परिसामियं परिश्यामितः - कृष्णकृतः । ज्ञाता० २७ । परिसाविय - परिस्राव्य-निर्माल्य | आचा० ३४७ । परिसिच्चेला - परिषिञ्चेत्-आद्रीकुर्यात् । उत्त० ६० । परिसिद्ध - परिशिष्ट- प्रभूतत्वाद् भूतोद्धरितम् । आचा० १२३ । परिसित्तग- उन्होदगेन दहिमट्टिया तिब्वगलिज्जति तं परिसत्तियं । नि० चू० प्र० २०३ आ । परिसित्तिय परिषक्तपानकम् । बृ० प्र० २५३ अ । परिसिल सव्वस्स संविग्गा संविग्गस्स परिसनिमित्तं संगर करेति । नि० चू० तृ० २६ आ । परिसडइ-परिशति उपयुज्यते । आचा० ३५२ । परिसडिय - परिसटित: पतितः । ज्ञाता० ११४ । परि | परिसुक्कमुह-परिशुष्कं विगत निष्ठीवन तयाऽनार्द्रतामुपगतं सटितं कुष्ठाद्युपहताङ्गमिव विध्वस्तम् । प्रश्न० १३४ । मुखमस्येति परिशुष्क मुखः । उत्त० ८६ । ( ६८० ) कपिलमुनिसूनुः । प्रज्ञा० ४०५ । परिव्वायगा गेरुश्रा । नि० चु० द्वि० १८ अ । परिशाटकरणं - करणस्य द्वितीयभेदः । आव० ४५८ । परिशिल्पमाना- प्रभ्यस्यमाना । नंदी० १०७ । परिषा परिषत् - सदेवमनुजासुरा सभा । उत्त० ५१२ । परिसं कमाण - परिशङ्कमानः - अपायं विगणयन् । २१७ । उस० दश० परिसंखाय - परिसङ्ख्याय - सर्वेः प्रकारः ज्ञात्वा । २६२ (१) । परिसंठिय-परिस्थितं स्वच्छीभूतम् । ओघ० १८४ । परिसंता - पाहुणगादि । नि० चू० तृ० ७३ आ । परिसविकर - परिष्वष्कितुं शीलं येषां ते तथा । ज्ञाता० २६ । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसूअं ] परिसूअं - | ओघ० ६७ । परिसेय - परिषेकः । ठाणा० ३३९ । परिषेकः- दुष्टव्रणा परि जलसिञ्चनम् । पिण्ड० ११ । परिसेवणापारंची - प्रतिसेवनापाराचिकः । ठाणा० १६३ । परिसोसिय-परिशोषितः - नीरसीकृतः । ज्ञाता० ६५ । परि-समन्ताच्छोषितं - अपचितीकृतमांसशोणितं कृशीकृतमिति परिशोषितम् । उत्त० ३५८ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ परिस्थूरम्। जीवा० १३४ । परिस्संत - परिश्रान्तः । उत २७७ । परिश्रान्त:प्राघूर्णकादि: । आव० ७४६, आव० ५१३ । परिस्समं परिश्रमम् । आव० २३७ । परिस्वति - कहेति । नि० चू० तृ० १२८ आ । परिस्तवा - परिस्रवाः - कम्र्मनिर्जरास्पदानि । आचा० 1 १८१ । परिस्रवाः - निर्ज्जरका । आचा० १८२ । परिहए - परिहितं - निवसितम् । ज्ञाता० २१३ । परिहत्य - (देश्यः) परिपूर्णम् । राज०४६ । परिहस्तः- दक्षः । प्रश्न ६२ । परिहस्तः-दश: । औप० ४७ । पूर्णः । मर० । आलम्बनम् । मर० । युद्धनिपुणः । पउ० ६०-१५ । परिहरंत - परिहरन् - प्रतिसेवमान: । ओघ २१९ । इयं सामयिकी परिभाषा प्रतिसेवनार्थे वर्तते । ओघ० २१६ । प्रतिसेवयन् । ओघ० २१६ | परिहरइ - करोति । नि० ० ० ८९ आ । परिहरणं - परिरयः | ओघ० २० । परिहरणदोस-परिहरणं - प्रासेवा स्वदर्शनस्थित्या लोक रूढ्या वा अनासेव्यस्य तदेव दोषः परिहरणदोषः, अथवा परिहणं - अनासेवनं सभारूढ्या सेव्यस्य वस्तुनस्तदेव तस्माद्वा दोषः परिहरणदोषः, अथवा वादीनोपन्यस्तस्य दूषणस्य असम्यकपरिहारो जात्युत्तरं परिहरणदोषः । ठाणा० ४६२ । परिहरणया वस्त्रादेः शास्त्रीययाऽऽमेवनया ठाणा ० ४८६ । परिहरणा - आसेवा तयोपध्यादेरकल्पता । ठाणा० ३२० ॥ परिभोगः | आव० ३२५ | सर्व प्रकारैर्वर्जना । प्रतिक्रमण तृतीय- अष्टभेदभिन्नं प्रतिक्रमणमेव ( ? ) । परिभोगः । आव० ३२५ । परिभोगो । नि० चू० प्र० २३५ आ । परिहरणोवघाते - परिहरणा - आसेवा तयोपध्यादेरकल्प्यता, ( अल्प० ८६ ) [ परिहार तत्रोपधेर्यथा एकाकिना हिंडकसाघुना यदासेवितमुपकरणं तदुपहतं भवतीति समयव्यवस्था | ठाणा० ३२० । परिहरति परिहरति- परिभुञ्जते । दश० १९९ । परिभोगपरिहारेण धारणापरिहारेण परिहरति । दश० २०२ । परिहरति- कुर्वतीत्यर्थः । भग० ६६८ | आचरति । नि० चू० प्र० १४० आ । परिहरितए - परिहर्तुं - प्राचरितुम् । बृ० द्वि० परिहर्तुं - कत्तुम् । बृ० तृ० ३१ आ । भोक्तुम् । बृ० द्वि० २०१ अ । परिहरितते - परिभोगः । ठाणा० १३८ । परिहर्तुं - परि भोक्तुम् । ठाणा० १३८ । परिहर्तुं - आसेवेतुम् ठाणा० ३३८ । परिहरिय- परिवृत्य - निक्षिप्य । उत्त० ३५६ । परिहरियवं परिहर्तव्यं परिभोक्तव्यम् । प्रश्न० १५६ ॥ परिहरियध्वं - परिभोक्तव्यम् । प्रश्न० ११२ । परिहरे- परिभुज्जे । नि० चू० प्र० २३३ । परिहवंत- परिभवन्तः पार्श्वस्थादयः । प्र० प्र० ५४ आ । परिहविता - पात्यादो । नि० चू० तृ० १४ । परिहा - परिखा उपरि विशाला अघः सङ्कुचिता । ज० प्र० ७६ । परिखा - अधः सङ्कीर्णोपरि विस्तोर्णा खातरूपा । अनु० १५६ । खातिया । नि० चू० द्वि० ६९ आ । परिहाइ - परिहायइ - परिहीयते । आव० ४४३ । परिहाई - परिहीयते । ज्ञाता० १७१ । परिहाणी - परिहानिः - सूत्रार्थं विस्मरणम् । ओोष० ४ | परिहायति - परिहायते । आव० ११० । परिहारंतर - परिहारान्तरम् । आव० ६७ । परिहार - परिहारः- तपोविशेषः । ठाणा ० ३२४ । परिहार:तपोविशेषः । आव ० ७० । परिहारः- तपोविशेषः, अनेषणीयादेः परित्यागो वा । अनु० २२१ । परिहार:पुरीषम् | ओघ० २१३ । तपोविशेषः । भग० ३५१ । परिहारः - परिभोगः । भग० ६६८ । परिहरणं परिहार:तपोविशेषः । प्रज्ञा० ६४ । परिहारः- वर्जनम् । व्य० प्र० ४५ अ । परिहार:-लौकिक लोकोत्तरभेदभिन्नः परिहर पञ्चमो भेदः । आव० ५५२ । परिहारः - विशिष्टतपोरूपः । उत्त ५६६ । परिहार:-स्थापना । ( ६८१ ) ८६ अ । परिहर्तुं -परि Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविशुद्धिककल्प] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [परूवणा % 3D बृ० वि० ७० मा । परिहरणं परिहार:-तपोविशेषः । उत्तराध्ययनेषु द्वितीयमध्ययनम् । सम० ६४ । परीषहःविशे० ५५४ । धारणपरिभोगरूपम् । बृ० १० ३१ आ। उत्तराध्ययनेषु द्वितीयमध्ययनम् । उत्त० ६ । परोषहःपरिहार:-पुरीषः । पोष१३५ । परिहार:-पुरीषम् । क्षुपिपासादिः । दश० ११९ । परिपद्यमाणं-निश्चलपिण्ड० २० । जो गिरि नदी वा परिहरंतो जाति चित्ततया धार्यमाणम् । उत्त० ८३ । परीषहः-बरतिपरिहारो । नि० चू• तृ. ८९ बा । परिभोगो । नि. परीषहः। भग० ८६ । परीषहाः-परीषहचमूर्गािच्यवनचू० द्वि० ११८ आ। पुरीषम् । बृ० द्वि० १८१ आ। निर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः । ६० प्र० २१६ । मासलघुकादि । बृ० द्वि० १७० अ । वजणं-वहणं ।। परीसहप्रभंगुरा-परीषहप्रभाञ्जिनः परीषहः सद्धिर्भगुनि० चू० तु. ८५ अ। राः। आचा० २७५ । परिहारविशुद्धिककल्प-कल्पविशेषः । विशे० १० । परीसहा-चमत्कारा, पहाविता । नि० चू० द्वि० ४३ परिहारविशुद्धिकल्पिक:-साधुभेदविशेषः । भग० ४। आ। परीति-समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्यवनपरिहार विसुद्धिय-परिहार:-तपोविशेषस्तेन विशुद्ध,अथवा निर्जराथं साध्वादिभिः सह्यन्त इति परीषहाः । भग परिहार:-अनेषणीयादेः परित्यागो विशेषेण शुद्धो यत्र | ३८६ । परीषहा क्षुदादयः । भग० २०१ । परीषहातत्परिहारविशुद्धं तदेव परिहारविशुद्धिकम् । अनु० २२१ । सम्यगदर्शनादिमार्गाच्यवनाथं ज्ञानावरणादिकर्मनिर्जराथं च परिहारस्तपोविशेषः, तेन विशुद्ध परिहारविशुद्धम्, अथवा | परि-समन्तादापतन्तः क्षत्पिपासादयो द्रव्य क्षेत्रकालभावातकोऽसौ परिहारो विशेषेण शुद्धो यत्र तत्परिहारविशुद्धम्, | पेक्षा: सोढव्या-सहितव्या इत्यर्थः । आव० ६५६ । तदेव स्वार्थिकप्रत्योपादानात् परिहारविशुद्धिकम् । विशे० | परीसहोवसग्ग-परीषहा:-क्षुदादयस्त एवोपसर्गा-उपसर्ज नात्-धर्मभ्रंशनात् परीषहोपसर्गाः. अथवा द्वाविंशतिपरिहारविसुद्धीयं-परिहरणं परिहारस्तपोविशेषः तेन परीषहाः तथा उपसर्गाः-दिव्यादयः । भग० १०१ । कर्मनिर्जरारूपा विशुद्धियस्मिश्चारित्रे परिहारविशुद्धिकम् । परूढपणयं-प्ररूढप्रणयम् । उत्त० २०७ ।। विशे० ५५४ । परिहारविशुद्धिकं । परिहरणं परिहारः | परूण्ण-प्ररूण्णः । आव० २२५ । प्ररुहिता । आव० तपोविशेषः तेन विशुद्धिर्यस्मिस्तत् । आ० १७६ (?)। ३५३ । प्ररूदिता । उत्त० ३०२ । परिहारिका- । ठाणा० ३२४ । परूत । आचा० १२२॥ परिहारियकूल-गुरुगिलाणबालवुढादेसमादियाण जस्थ | परूवंति-प्रभेदादिकथनतः-प्ररूपयन्ति । ठाणा० १३६ । पाउग्गं लभति ते । नि० चू० प्र० २६४ आ। एवं "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" "मिथ्यात्वापरिहित-परिहित:-निवसितः । सूर्य० २६२ । ज्ञाता० विरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः" "स्वरूपभावेन सदसती २७ । तत्त्वं-सामान्यविशेषात्क"मित्यादिना प्रकारेण प्ररूपयन्ति । परिहिय-परिहितः-परिहितवान् । प्रज्ञा० ६१ । आचा० १७६ । परिहिस्सामि-परिधास्यामि । आच० २४४ । परूवइत्ता-प्ररूप्य प्रभेदतः । ठाणा० ११६ । पग्हेिरगं-रूढ्यवसेयम् । औप० ५५ । परूवग-परूपक: मूलकृतस्याख्याता । दश० ११४ । त्त-परिमितः। बृ०प्र० ११६ । प्रत्येकवनस्पतिकायः। | परूवण-प्ररूपणं-स्वरूपकथनम् । आव० ६१९ । प्ररूपणं प्र०७१ । परीत्तः-प्रत्येकशरीराः। अल्पसंसारी वा प्ररूपणाकारकमध्ययनम् । नंदी० ५४ । स्वरूपकथनम् । सुष्यः । भग० २५७ । नि. चू० प्र० २४ अ । परासह-परीषहा:-क्षुत्पिपासादयः । आव० १३४ । परूवणा-भासा विभासा अर्थ-व्याख्या इत्यर्थः । निक परीषा-परि-समन्तात स्वतभिरुदीरिता मार्गाच्च्यवन- चू० प्र० २१ आ । प्ररूपणा- एककभङ्गनिरूपणम् । निर्जराथं साध्वादिभिः सह्यत इति । उत्त० ७२ ।। वृ० द्वि० २१७ आ। पन्नवणा । नि० चू.प्र. १७ आ। ( ६८२) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परूविज्जति] अल्पपरिचितसद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [पर्वाणि प्ररूपणा-विस्तारवती व्याख्या । अनु० १७६ । प्ररूपणा- पर्याणं-मिलानम् । औप० ७० । पर्याणम् । ६० प्र० प्रदर्शना। उस० २३० । प्ररूपणा यथास्वं विनियोगः ।। आचा० ७ । पर्याणादिका ठाणा. २४० । परूविज्जति-नामादीनामेव भेदानां सप्रपञ्चस्वरूपकथनेन पर्यापत्तिः-समूर्छनम् । आचा० ५५ । पृथग्विभक्ताः ख्याप्यन्ते । ठाणा• २१२ । पर्याप्ति-क्रियापरिसमाप्तिः । तत्वा०८-१०। क्रियापरिपरूवियं-प्ररूपितं भेदानुभेदकथनेन । प्रश्न. ११३ ।। समाप्तिरात्मनः । तत्त्वा० ६-१२ । परूविया-प्ररूपिता-प्रसाधिता । आचा० ५८ । पर्याय-स्वभावः । ठाणा० ३७५। पर्ययः । ठाणा. परूवेति-प्ररूपयन्ति भेदकथनतः । भग० १८। ३४८ । देशः प्रस्तावः अवसरः विभागः । विशे० ९३७ । परूबेइ-प्रतिसूत्रमर्थकथनेन । भग० ७११ । प्ररूपयति । पर्ययः । ठाणा० ३४८ । उपपत्तितः । जं. ५४० । पर्यायगुण-द्रव्यस्यावस्थाविशेषः पर्यायः स एव गुणः परवेज उपपत्तिकथनतः । भग० ४३६ । पर्यायगुणः । आचा० ८६ ।। परूवेति-प्ररूपयति प्रतिसूत्रमर्थकथनेन । ठाणा० ५०२।। पर्यायागत-प्रव्रज्यापर्याप्राप्तम् । (?) परेण परं अस्थि-परेणापि परमस्ति-तीक्ष्णादपि तीक्ष्ण- पर्यायास्तिक:-नयविशेषः । सम० ४२ । तरमस्ति । आचा० १७४ । पर्यालोचनं-अनुचिन्तनम् । आव० ५८६ । परेवं-परतरे । पिण्ड० ६२ । पर्यालोचयति-ईहते । आव० २६ । परोक्खं-प्रक्षस्य-प्रात्मनो द्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमनश्च पुद्गल- | पर्याहार-निर्गमः । ठाणा० २९४ । मयत्वात् पराणि वर्तन्त-पृथग्वतन्ते इत्यर्थः, तेम्यो पर्याहारप्रवेशः ।आचा० ३२६ । यदक्षस्य ज्ञानमुदयते तत्परोक्षम् , परैः-इन्द्रियादिभि:- पर्युपासीन:-उपासनाकारकः । नंदी. १६७ । सह उक्षः-सम्बन्धो विषयविषयिभावलक्षणो यस्मिन् | पर्युपास्ति-सेवना । प्रज्ञा० ६० । ज्ञाने न तु साक्षादात्मनो, धूमादग्निशानमिव तत्परोक्षम् । पर्युषणाकल्पः-नियमवद्वस्तुमारब्धः-ग्युनोदरताकरणं । नंदो० ७२ । परोक्ष:-न जानाति । बृ० प्र० ८९ अ। विकृतिनवकपरित्याग: २, पीठफलकादिसंस्तारकादान ३ परोक्ष-इन्द्रियमनोव्यवधानेनात्मनोर्थप्रत्यात्मसाक्षात्कारी, मुचारादिमात्रकस ग्रहणं ४, लोचकरणं ५, शैक्षाप्रव्राजनं पररूक्षा-सम्बन्धनं-जन्यजनकभावलक्षणमस्येति-परोक्षम् । ६, प्रागगृहीतानां भस्मगडगलकादीनां परित्यजनमितरेषा ठाणा० ५० । ग्रहणं ७ द्विगुणवर्षापग्रहोपकरणधरण ८ मभिनवोपकरणापरोवदेस-परोपदेशः । आव० ८२२ । ग्रहणं ६ स क्रोशयोजनात् परतो गमनवर्जन १० मित्या परोहड-गृहस्य पश्चादङ्गणः । ओघ० १५२ । दिक: । ठाणा० ३१. । पर्जन्य-मेघविशेषः । जं० प्र० १७३ । पर्युषितं-सन्निधिः । दश. १९८ । पर्यः -शयनः । दश० ६१, २०४, २२८ । ठाणा० २६६ । पर्व-नियः । प्रज्ञा० ३६ । पर्या-जिनप्रतिमानामिव या पद्मासनमिति रूढा । पर्वणिः-पौर्णमास्याममावास्यायां वा चन्द्रादित्ययोरूपठाणा० ३०२ ।। रागं करोति । सम० ३० । पर्वणो-कौमुदीप्रभृतिः पर्यन्त-पार्श्वतः । ६० प्र० ३१० अ । अधिकरागभूतम् । ज्ञाता. ८१ । पर्ययः- . .. । ठाणा० ३४८ । पर्वत-चन्द्रगुप्तसहायकः । ज० प्र० २६३ । पर्यवगुणे-निभंजना । आचा० ८६ । पर्वतविद्रुमर्य-अनेकपर्वत संघातः । व्य० (?) । पर्यवचरक-अवमवरकः । उत्त०६०६ । पर्वमध्य-अन्तरूच्छयम् । आचा० ४०५ । पर्यापलस्रोत-. . . . . . । पाचा० २२० ।' पर्वागि-अष्टम्यादितिथयः । आव० ८३५ । (६८३ ) Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्शुराम: ] पर्शुराम: - जामदग्निसुतः । जीवा० १२१ । पलंजी - पलञ्जी - असारधान्यम् । उत्त० २५६ । पलंडु - कन्दविशेष: । उत्त० ६६१ । पलाण्डु - कन्दविशेषः । आव० १०१ । पलंडू - पलण्डूकन्दः, वनस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ३७ | पलंब - विशतिसागरोपमस्थितिक देवविमानम् । सम० ३८ । प्रलम्बं - तालफलादि । दश० १७६ । प्रलम्बः- इषल्लम्बमानः । ज० प्र० ११५ । प्रलम्बमानाश्वलं गृहीतं । ओघ० ११० । प्रलम्ब:-आलम्बः । भग० १७५ । त्रिषष्ठीत महाग्रहः । ठाणा ७६ । प्रलम्ब : - ईषल्लम्ब मानः । प्रश्न० ८४ । प्रलम्बः - एकषष्ठीत ममहाग्रहः । ज० प्र० ५३५ । विषमगहणं व कोणं वा । ओघ० ११० । प्रलम्ब:- फलम्। ठाणा० १८५ । प्रलम्ब-यद्विषमग्रहणेन प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रकोणानां लम्बनम् । उत्त० ५४१ । प्रलम्बा - आप्रदीपना । सम० १५८ । पलंबजाय - पलंबजातं फलसामान्यम् । आचा० ३४८ । पलंबमाण - प्रलम्बमानं - भुम्बमानम् । भग० ३१९ । पलंबवणमाला - प्रलम्बो - मुम्बनकं वनमाला- आभरणविशेषः । प्रलम्बवनमाला । आप० ५० । पलंवा-फला । नि० चू० प्र० ५२ आ । पल-कर्षचतुष्टयम् । अनु० १५३ । पलञ्जी Harish आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः | आव० ८२३ । पलप्यमाण- पलप्रमाणः । अव० ४२७ । पलयं - प्रचारम् । दश० ४८ । पलल - पललं - तिलक्षोदः । पिण्ड० ७२ । पल लिय- प्रललितः - प्रक्रीडितः । ज्ञाता० ६३ । प्रललितं ललितमेव "हस्तपादाङ्ग" इतिश्लोकोक्तलक्षणः । प्रश्न० १४० । पलवितं - प्रलपितं - अनर्थभाषणम् । प्रभ० २० । पलाइय - पलायितं - पलायनं कुतश्चिन्नाशनम् । दश० १४१ । पलाई - राज्यान्तरे गतो भटः । बृ० द्वि० ८२ अ । पलाण-नष्ठः । अध० १७२ । पलादिण - जे भडादिया रण्णो अणापुच्छते सपुत्तदारघणादिया अक्षरजं गंतुकामो ते पलादिणो । नि० चू० द्वि० ११ व । [ पलि उंचंति पलायंत - पलायमान | आव० २६७ । पलाय - पलायितः । आव० १९६ । पलायण - पलायनं - कुतश्चिन्नाशनम् । दश० १४१ । पलायति नश्यति । नि० ० प्र० १०२ अ । देशान्तरं गच्छति । नि० चू० प्र० ३७ अ । पलालं - प्रकृष्टा लाला यत्र तत्पलालम् । अनु० १४१ । कग्वादीनाम् । प्रभ० १२८ । पलाल खेला- नि० चू० प्र० ३२७ अ । पलालपुंज - पलाल पुञ्ज :- मञ्चोपविव्यवस्थितः । आचा० ३०६, ३०७ ॥ पलाला । सम० ३०७ 1 | पलालुण्हा - पलालोष्मा | आव० ४१६ पलाव - प्रलाप:- जल्पः । प्रश्न० ७४ । प्रलापः - निरर्थकं वचनम् । ठाणा० ४०६ । प्रलापः - बालापः । सम० १५७ । पलाविति हिति-प्रप्लाविष्यते । ओघ २१ । पलावियं-प्लावितम् । आव० ६३० । प्लावितम् । बृ० द्वि० २०६ अ । पलासं - कोमलं । नि० चू प्र० ११५ आ । अष्टमभवनवासो देवस्य चैत्यवृक्षः । ठाणा० ४८७ । वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । पलाश: - वरुणस्य पुत्रस्थानीयो देवः । भग० १६६, ५११ । पलाश:- किंशुकः । प्रज्ञा० ३१ । पलाश:- मंदरपर्वते दिग्हस्तिकूटनाम । ज० प्र० ३६ । पलाश:- किंशुकः, भगवत्यामैकादशशत के तृतीयोद्देशकः । भग० ५११ । पलाश:- दलः । ज्ञाता० ६६ । पलिअंक - पर्यङ्कः । जं० प्र० ८५ । पर्यङ्कः पद्मासनम् । ज० प्र० १५८ । पलिअ - पलितं - पाण्डुरः । ज० प्र० १६६ । कर्म्म जुगुसितमनुष्ठानम् । आचा २४२ । पलिआमं-जं परियाए कतं परियायं वा पतं तहावि आमं तं पलिआमं । नि० चू० द्वि० १२५ आ । पलिडंगच - प्रतिकुखकः स्वदशेषप्रच्छादकतया । उत० ६५६ । पलिउंचति तत् प्रयोजनानिष्पादन पृष्टाः सम्तोऽपड्नुवते वत्र वमुक्ताः । गता वा तत्र वयं नववी इष्टेति । ( ६८४ ) Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलिउंचण ] अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ उत्त० ५५३ । पलिउंचण - पलिकुचनं परि-समन्तात् कुश्वयन्ते वक्रतामापायन्ते क्रिया येन मायानुष्ठानेन तत् । माया । सूर्य० १७१ । पलिउंचणा - परिकुवनं- अपराधस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावानां गोपायनमन्यथा सतामन्यथा भणनं परिकुश्वना परिवञ्चना वा । ठाणा० २०० । पलिउंचणापायच्छित - परिकुञ्चनं- अपराधस्य द्रव्यक्षेत्र - कालभावानां गोपायनमन्यथा सतामन्यथा भणनं परिकुञ्चनापरिवञ्चना वा प्रायश्चित्तम् । ठाणा० १६६ । पलिउंचयंति - निनुवते, सदपि प्रमादस्खलितमाचार्यादिनाऽऽलोचनादिकेऽवसरे पृष्टाः सन्तो मानृस्थानेनावर्णवादभयान्निनुवते । सूत्र० २३३ । पलिउंचिअ - मनोज्ञं गोपित्वा । आचा० ३५५ । पलिउंचुणया - प्रतिकुश्वनं सरलतया प्रवृत्तस्य वचनस्य खण्डनम् । भग० ५७३ । पलिउंचे मोहनीयस्य एकोनविंशतितमस्थानम् । आव ० ६६१ । पलिउंजिय-परि-समन्ताद् योगिकाः परिज्ञानिनः । भग० १५० । पलिओम - पत्योपमः । अनु० १८० । पल्योपमम् (?) । पश्येनोपमा येषु तानि पल्योपमानि असङ्ख्यातवर्ष कोटाकोटीप्रमाणानि । ठाणा ० ८६ । पल्यवत्पल्यस्तेनोपमा स्मस्तत्पत्योपमम् | ठाणा० ६० । पल्योपमं -कालमानविशेषः । भग० २१० । पत्योपमम् । भग० २७५।८८८ । पल्येन वक्ष्यमाणस्वरूपेणोपमा यस्य तत्पल्योपमम् । ज० प्र० ९२ । पल्योपमं -उद्धाराद्वा० क्षेत्र भेदस्त्रिधा प्रत्येकं बादरसूक्ष्मतया द्वेषा अङ्गुलमानवाल ससाष्टखण्डतदसङ्ख्य खण्डोद्वारात् प्रतिसमयवर्षशत - [ पलिमत्ता पलित्त - पराभग्नः । बृ० द्वि० ७२ अ । प्रकर्षेण दीप्तः प्रदीसः । ज्ञाता ०६१ । प्रकर्षेण ज्वलितम् । भग० १२१ । प्रदीसः । दश० ९२ । पर्याप्तः प्रतिपूर्णः । जीवा० २६६ । प्रदीप्तम् । श्राव० ६१ पलित्तक-प्रदीप्तकं प्रदीपकनम् । प्रभ० ६० । पलित्तजाला - प्रदीप्तज्वाला | प्रश्न० १४ । पलित्तनेह - पर्याप्तः प्रतिपूर्णः स्नेहः तैलादिरूपो यस्य तत् पर्याप्तस्नेहम् । जीवा० २६६ । पलित्तपायं-प्रलिप्तपादम् । आव० १३७ । पलित्तयं प्रदीप्तम् । उत्त० १०२ । पलिपासग - बंधणा । नि० चू० द्वि० ५६ आ । पलिबाहिर -परि-समन्तात् गुरोरवग्रहात् पुरतः पृष्टतो स्थानात् सदा कार्यमृते बाह्यः स्याद् । आचा० २१५ । पलिभंजणं - पायम्मि पलिभंजणं । नि० चू०प्र० २४५ अ । पलिमलह - प्रतिभज्यते । बव० ३०८ ॥ पलिभाग - प्रतिभागं - प्रतिबिम्बम् । प्रज्ञा० ३०५ । प्रतिभाग :- सादृश्यम् । भग० ८६७ । प्रतिभागः - सादृश्यम् । प्रज्ञा० ४६१ । प्रतिरूपो भागः प्रतिभागः - प्रतिबिम्बम् । आव० ३३८ । पलिओ - खंडाखंडकरणं । नि० चू० प्र० २४४ आ । पलिमंथ-पलिमन्यः - कालचणगः । ठाणा० ३४४ । मोषधिविशेषः । प्रज्ञा० २३ । पलिमन्थः- दोषविशेषः । ओघ ० १७७ । पतिमन्यः - विघ्नः । सूत्र० ६४ । संजमो मंथिज्जति जेग सो नि० चू० प्र० १६६ मा । पलिमन्यः - विलोडनं विघातश्च । सूत्र० ४२५ । विघ्नः । । परिमन्थ:- स्वाध्यायादिक्षतिः । उत्त ५६८ | पलिमन्थः- दोषविशेषः । ओष ० ४९ । पलिमन्थः - दोषविशेषः । ओोष० १०५ । ठाणा० ८ स्पृष्टोत्तरप्रदेशापहारेः । अनु० १०० । बलिच्छिन- परिच्छिन:- यथास्व विषयग्रहणं प्रतिनिरुद्धः । | पलिमंथए- बग्नीयात् । उत्त० ३११ । आाचा० १९३ । परिच्छिन्नः - परिवारवस्त्रादिलक्षणेः सूत्रा | पलिमंथग-वृत्तचनकः कालचनकः 1 भग० २७४ यमश्व युकः । व्य० द्वि० १ अ । प्रतिच्छन्नः धाम्यविशेषः । भग० ८०२ । धाच्छादितः । ज्ञाता० ६६ । पलितं मि-प्रदीप्ते - अस्याकुलीकृते । उत० ४५५ । पलिमंत्र - परिमन्यूः - घातकः । ठाणा० ३७३ | पलिमत्ता - गोभक्तः । व्य० प्र० १२१ म । ( ६८५ ) Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलियंक] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पलव पलियंक-गिहिनिसेज्जा । नि० चू० द्वि० ६५ अ। पलोक्कइ-प्रलोक्यते-प्रकर्षेण निश्चीयते । भग० २४६ । अङ्कः । नि० चू० द्वि० २५६ अ । पल्पङ्कः-शय्या. पलीट्टइ-प्रलोटति-परिवर्तते । भग० १०२। प्रलोट्यते । विशेषः । व्य. द्वि० ३७० आ। पर्यङ्कः-मञ्चकादि। आव० ६२१ । सम० ३६ । पर्यङ्कः आसनविशेषः । भग० १६१ । पलोठेति-विप्रतारयति । बृ० तृ० ८६ आ । पर्या -विशिष्टशय्या । भग० २४९ । पर्यङ्कः । दश पलोयए-प्रलोकयेत्-पर्यालोचयेत् । आचा० ४२९ । ११७ । बासनविशेषः । ठाणा० २९१ । पलोयणा-रसवतीए पलिं विसित्ताओ अणाति पलोइउं पलियंकणिसण्ण-पलयकनिषण्णः-पर्यशासननिषण्णः । भणाति इतो इतो य पयत्याहित्ति एस पलोयणा । नि. जीवा. २२८ । चू० प्र. १८५ आ । पलियंतं-पल्योपमान्तं-पल्योपमस्थान्तः मध्ये वर्तते तत् पल्लंक-पल्यतः । आव० ५७८ । परि-समन्तात् अन्तोऽस्येति पर्यन्तं-सान्तमिति । सूत्र. पल्लंघणं-प्रकृष्टं लङ्घन-प्रलिङ्घनम् । भग०६२५ । पौनः पुन्येनातिक्रमणं प्रलङ्कनम् । औप० ४२ । प्रलङ्कनम् । पलियंतकर-पर्यन्तं कर्मणा संसारस्य वा करोति तच्छी- प्रज्ञा. ६.६ । प्रलनं अर्गलादेः । ठाणा० ४०६ । लश्चेति पर्यन्तकरः । आचा० १७१। प्रलनं-सामान्येन गमनम् । उत्त० ५११ । पलिय-अनुष्ठानम् । आचा. २५२ । पल्योपमम् ।। पल-पल्यं-वंशकटकादिकृतो धान्याधारविशेषः । ठाणा. भाव० ३६ । पलितं-कर्म । आचा. १८६ । पलितं- १२४ । पल्य:-वंशादिमयो धान्याधारविशेषः । भग कर्म । आचा० २०३ । कर्म । आचा० ३०७ । २७४ । पल्पो-धान्याश्रयविशेषः । ज० प्र. ६५ । पलियत्तणं-परावृत्तिम् । नि० चू० तृ. २७ अ ।। पल्यम् । अनु० १८० । पोट्ट । नि० चू० द्वि० १४७ पलियस्सओ-परिपार्श्वतः । भग० २६६ । पा। पल्पं-वंशकटकादिकृतो धान्याधारः । बृ० वि० पलिसप्पइ-परिसर्पति परि समन्ताद्गच्छति । भग पलक-पल्लक:-लाटदेशे धान्याधारविशेषः । नंदी. ८८। पलिहा-परिघा-अध उपरि समखातरूपा । औप०३। पल्लग-पल्यङ्क:-लाटदेशप्रसिद्धो वंशदलेन निर्मापितो धान्यापलिहोच्छूढ-पर्यवक्षिप्तः-प्रसारितः । प्रौप० १८।। धारकोष्ठकः । जं. प्र. ३००। पल्लक:-लाटदेशे धान्यापलीणा-प्रकर्षेण लीनाः लयं-विनाशं गताः प्रलोनाः ।। लयः । आव० ४१। ध्य. दि. ४४० आ। पल्लच्छिति-प्रस्तीयंते-प्रच्छादयति । आव० ६२३ । पलोवणग-प्रदीपनकः । आव० ७४२ । प्रदोपनक- पलट-पर्वतशिखराद् गण्डशैल इव स्वाभयाचलितम् । प्रश्न अग्निः । आव० २२० । १३४ । पलीवेइ-प्रदोपयति । आव० ५२ । पलत्थ-पर्यस्तं-निवेशितम् । विपा. ४६ । पलेड-प्रकर्षण लीयते प्रलीयते-अनेकप्रकारे संसारं बम्भ्रः | पल्लत्थय ।नि. चू० प्र० ७ अ । मोति । सूत्र. २३५ । पल्लत्थिया-पर्यास्तिका प्रसिद्धा । उत्त०८।। पलेमाण-प्रलोयमानः । आचा० १८० । प्रलीयमानः- पल्लत्थेइ । दश० चू. ४४ अ । मनोजेन्द्रियार्थेषु पौनःपुन्येनैकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिकां जाति । पल्लय-पल्लक:-लाटदेशे धान्यधामः । आव० ७५ (१) । प्रकल्पयति संसाराविच्छित्ति विदधतीत्यर्थः । आचा० पल्ललं-पल्वलं-नड्वलम् । प्रभ०१४। पल्वलं-प्रल्हादन१८१ । शोलः । भग० २३८ । पलोएंत-प्रलोकमानः। आव० १९६.. पललए-पस्वलं-आखतं सरांसि । प्रज्ञा० ७२ । बलोति-प्रति । नि० चू० दि. १६ आ.. 'पल्लव-कोमलं पत्रम् । प्रभ० ६२ । किशलयम् । शता.' (६८६) १६८ आ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ पहलवग J ३६ । पल्वलः - प्रल्हादनशीलः । ज्ञाता० ६३ । पल्लव:जातपूर्ण प्रथमपत्रभावरूपः । जं० प्र० ३२४ । पल्लव:अङ्कुशः । सम० ६१ | शाखाभङ्गः । आचा- ३४५ । पत्य:- सञ्जातपरिपूर्ण प्रथमपत्रभावरूपः । जीवा० २२६ । पल्लवन - पर्ययपरिमाणं - अभिषेयादि तद्धर्मसङ्ख्यानं यथा 'परिता तसा ', पर्यय शब्दस्य 'पल्लव'त्ति निर्देश:, प्राकृतत्वात् पर्यङ्कः - पल्यङ्कः इत्यादिवदिति, अथवा पल्लवा इव पल्लवाः - अवयवास्तत्परिमाणम् । सम० ११३ । पल्लवग्राहिणी - पल्लवमात्रग्राहि । बृ० प्र० ५८ आ । पल्लवप्रविभक्तिकं विशतितमनाट्यभेदः । जं० प्र० ४१७ ! पल्लावाङ्कुर - प्रवाल: । प्रज्ञा० ३१ । पल्लि प्राम: । बृ० तृ० ७२ अ । गामो । नि० चू० प्र० ११५ अ । पल्ली - सनिवेश: । आव० ५७८ । पल्यन्तेऽनया दुष्कृति विधायिनो जना इति, वृक्षगहनाद्याश्रितः प्रान्तजननिवासः उत्त० ६०५ । पल्लीण - प्रलीनः - पश्चात् प्रकर्षेण लीनः । भग० ९२४ ॥ पल्ली पतिपल्लोट्ट-प्रवृत्त - उत्पन्नः । ज्ञाता० २६ । पल्लोय| द० ( ? ) | पल्लोघम - पल्योपमं - शीर्षपहेलोकंव गणितस्य विषयोऽतः परमोपमिक कालपरिमाणम् । जीवा० ३४५ । पल्हगा । आव० १४८ । पल्हत्थ - पर्यस्तं - अधोमुखतया न्यस्तम् । भग० १८० । स्थापितः । आव० ७०३ । पल्हत्थमुह - पर्यस्तं - अधोमुखतया न्यस्तं मुखम् । भग० १५० । पल्हत्थिय - पर्यस्तितं पर्यस्तोकृतं सर्वतः निक्षिप्तम् । ज्ञाता० २१६ । भग० १६० । पर्यस्तम् । दश० ४४ । पहस्थिया - पर्यस्तिका | योगपटः । बृ० द्वि० २५३ मा पर्यस्तिका जानुजङ्घपरिवस्त्रवेष्टनाऽऽत्मिका । उत्त० ५४ । पल्हव म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । पल्हवदेशज - पल्हविकः । ज० प्र० १६१ । पल्हवि - प्रल्हत्तिः । ठाणा० २३४ । प्रल्हत्तिः- दुष्प्रतिलेखित दुष्यपञ्चके प्रथमो भेद: । आव० ६५२ । । ठाणा० २७० । [ पवडगता पल्हविण - पल्हविक:- देशविशेषः । ज्ञाता० ४१ । पल्हविय। भग० ४६० । पल्हाओ - क्रोधादिपरितापोपशमात् प्रल्हादित :- आपन्नसुखः + आचा० १५० । पल्हायणभाव - प्रल्हादनभावः- चित्तप्रसत्तिरूपोऽभिप्रायः । उत्त० ५८४ | पल्होटू - पल्हुठं- एकान्तेन विस्मृतम् । व्यं० द्वि० ७७ आ । पवंच-प्रपञ्चः - पर्याप्तकापर्यासक सुभगादिद्वन्द्वविकल्पः । आचा० १७० । प्रपवः - संसारः । सूत्र० १६५ । प्रपवः - विस्तार: । प्रश्न० २२ । प्रपञ्चः - उपहासवचनम् । बृ० द्वि० ६० आ । प्रपवः - प्रत्युपेक्षणमनुकरणम् । बृ० द्वि० १५० अ । पचए - उद्धट्टकान् कुर्वन्ति । ओघ० ८९ । पवंचणं प्रवखनं विप्रतारणम् । प्रश्न० १७ । पवंचा-प्रपञ्चते: -व्यक्तीकरोति प्रपञ्चयति वा, विस्तारयति लेखकासादि या सा प्रपवा, प्रपञ्चयति वा-स्रंसयति आरोग्यादिति प्रपचा । ठाणा० ५१९ । इषत् प्रपवा, जन्तो: सप्तमी दशा । दश० ८ । पर्वचेति - प्रवञ्चयते - मुखमर्कटिकां करोति । उत्त० ५१ । पवए - प्लवक : - उत्प्लवनकारी | भग० ६२८ । पवग-प्लवक:- यो झम्पादिभिगंर्तादिकमुत्प्लवत्ते गर्तादिलङ्घनकारी, तरति नद्यादिकं यो इति । ज० प्र० १२३ । प्लवक:-य उत्प्लवते नद्यादिकं वा तरतीति । औप० ३ । प्लवक -य उत्प्लुत्य गर्तादिकं झम्पाभिर्लङ्घयति नद्यादिकं वा तरति सः । अनु० ४६ । प्लवकः-य उत्प्लवते नद्यादिकं वा तति । प्रश्न० १४१ । प्रवक:सुपर्णकुमारः । प्रश्न० १३५ । पवगा - समुद्दादिसु जे तरंति ते पवगा । नि० चू० प्र० २७७ अ । पवट्टइ-प्रवर्त्तते । आव० ५५६ । पवडण - प्रपतनम् | ठाणा० ३२८ | पाणत्यो उड़ उप्पइत्ता जो पडइ । नि० चू० द्वि० ५२ अ । प्रपतनंभूमिप्राप्तं सर्वगाव पतनम् । बृ० तृ० २२९ श्रा । पतनं तिष्ठत एवं गच्छतो वा यहलुटुनम् । प्रज्ञा० ३२६॥ पवडणता-प्रपतनता - प्रपतनया वा । ठाणा० २५० । ( ६८७ ) Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवडणया] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ पवयणमावणा पवडणया-प्रपतनता-नच प्रयत्नेन चक्रम्यते तत्र जं. प्र. १२५ । दुःख्यते । आव० ४०५ । प्रपतना-वङ्कगतेश्चतुर्थो भेदः ।। पवय-प्लवकः । आव० ४२७ । प्लवकः । नंदी० १६५। प्रज्ञा० ३२८ । पवयण-प्रवचन-द्वादशानं जिनशासनम् । प्रश्न० २ । पवडक-कटकम् । ओघ० ५२ । प्रवचनम्-श्रुतम् । आव० ३२६ । प्रवचनम् । आ०(?) पवण-प्लवनं-मनाक् पृथुतरविक्रमगतिगमनम् । जीवा० ४८६ । प्रवचनम्-द्वादशाङ्ग सूत्रार्थतदुभयरूपम् । आव० १२२ । प्लवनं-मनाग विक्रमवद् गमनम् । जं० प्र० ५१० । प्रवचन-तीर्थम् । आव० ३२५ । प्रकर्षणो. ३८८ । प्लवनं-बावनम् । उत्त० १३५ । प्लवने- | च्यतेऽभिधेयमनेनेति प्रवचन-आगमः । भग० ७६३ । मनाक पृथुतरविक्रममति गमने । राज० २२ । प्रवचन-आगमः । भग० ६१ । प्रवचन-तीर्थम् । बृ. पवणसुय-पवनसुतः । पउ० ५०-१ । प्र०१६६ आ। प्रकृष्ट-प्रशस्तं प्रगतं वा वचनं-आगम:पवण्ण-प्रपत्रः । उत्त० २२० । . प्रवचनं द्वादशाङ्गः तदाधारो वा सङ्घः । ठाणा० ५१५ । पवतणनिण्हग-प्रवचन-आगमं निहनवते-अलपत्यन्यथा प्रवचन-श्रुतज्ञानम् । ज्ञाता० १२२ । प्रवचनं-प्रोच्यतेऽनेन प्ररूपयतीति प्रवचननिह्नवः । ठाणा० ४१० । जीवादयः पदार्था इति प्रवचनम्। प्रशब्दस्याऽव्ययत्वेनाऽनेपवति-प्रयुक्ति-वार्ताम् । ज्ञाता० २१५ । कार्थद्योतकत्वात् प्रगतं जीवादिपदार्थब्यापक प्रधानं. पवत्त-वृत्तं-उत्क्षेपावस्थीतो विक्रान्तं मनाग्भारेण प्रवर्त- प्रशस्तं आदौ वा वचनं-प्रवचनं द्वादशाङ्ग-गणिपिटमानम् । जीवा० २४७ । कम् । चतुर्विधश्रीश्रमणसङ्गोऽपि प्रवचनमुच्यते. जीवादिपवत्तए-प्रवृत्तिः निर्गमो यस्य स तथा। ज० प्र० २६०। तत्त्वं प्रवक्तीति प्रवचनम् । विशे० २ । प्रवचनम् । पवत्तण-प्रवर्तन:-प्रथमप्रारम्भः । वृ० द्वि० १९६ आ।। भग०६६ । प्रवचनं-सामान्यश्रुतज्ञानम् । आव० ८६ । पवत्तय-प्रवृत्तकं प्रथमसमारम्भाद्रढमाक्षेपपूर्वकप्रवर्त्तमा ! प्रवचनं-श्रुतज्ञानं सङ्गो वा, विशतिस्थानके तृतीयः । नम् । जीवा० १९४ । आव० ११९ । प्रवचन:-द्वादशांग:-तदाधारे वा सनः। पति-प्रवृत्तिः-तपःसंयमयोमेषु यो यत्र योग्यस्तं तत्र सम० १४ । प्रवचनं-आगमः । आव०६१ । प्रवचनप्रवर्तति । असहं च निवर्तयति गणचिन्तकः प्रवृत्तिः । द्वादशाङ्ग गणिपिटकं सो वा । आव०६८ । प्रवचनंप्रभ० १२६ । प्रवर्ती प्रवर्तकः । प्रज्ञा० ३२७ । प्रशस्तवचनं-प्रधानवचनं-प्रथमवचन वा । अनु० ३८ । पतिणी-पंचविहसंयतीए पढमा । नि० चू० प्र० १३२ प्रवचनं-चतुर्वर्णसङ्घः । बृ० द्वि० १९८ आ । दुवाल. आ। प्रवत्तीनि-समस्तसाध्वीनां नायका, आचार्यस्था- संग संघो । नि० चू० प्र० १०३ अ । प्रवचन-प्रवचननीया । व्य० प्र० १४१ । मपि तीर्थम् । विशे० ५६१ । त्रक-ताम्रमयमगुलीयकम् । ज्ञाता० १०। पक्यण उब्मावणता-प्रवचनस्य-द्वादशाङ्गस्योद्भावनं-प्रभायथोचितप्रशस्तयोगेषु साधन प्रवर्तयन्तीत्येवंशीलः । व्य० वनं प्रावनिकत्वधर्मकथावादादिलब्धिभिर्वर्णावादजननं प्र० १७१ आ। प्रवत्तित:-प्रेरितः । सम० ८५ । प्रवचनोद्धावनं तदेव प्रवचनोद्धावनता । ठाणा० ५१५ । प्रवतितम्-प्ररूपितम् । उत्त० ४७५ । पवयणकुसल-सूत्रार्थ हेत्वादिप्रवचनावर्णवादिनिग्रहान्तगुणः पवत्तिवाउ- । नि० चू० प्र० ३४६ म । । व्य० प्र० २३६ । पवत्ती-प्रवर्तयति-साधूनाचार्योपदिष्टेषु वैयावृत्यादिष्वि- पवयणगोयत्थ-प्रवचनगीतार्थ:-सर्वसारेण प्रवचनस्य गृही. ति प्रवर्ती । ठाणा० १४३, २४४ । प्रवृत्ति:-वार्ता। तोऽर्थः । व्य० द्वि० ४१२ आ । ओघ० ५६ । पवयणपभावणया-प्रवचनप्रभावनता-यथाशक्त्या मार्गपवत्तीए-प्रवृत्तिकः । ज्ञाता? ३६ । देशना, विशतितमस्थानकम् । णाव० ११६ । पवनबाण-पवनबाण:-तथाविधपवनस्वरूपतया परिणतः। पवयणभावणा-यथाशक्तिमार्गदेशनादिकया च प्रवचन (६८८ ) Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणमाऊ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [पवाल प्रभावना । ज्ञाता० १२२ । पवातखड्डा-प्रपातगर्ता । आव० ३७४ । पवयणमाऊ-प्रवचनमाता । आव० ७७८ । पवाय-प्रपाणं-उत्तरोष्ठतलम् । ज, प्र० २३७ । प्रपात:पवयणमाय-प्रवचनमातृ प्रवचनमातं वा, उत्तराध्ययनस्य | पर्वतात्प्रपतज्जलसमूहः । सम० ८५। प्रपात:-प्रपतजल. चतुर्विशतितममध्ययनम् । उत्त० ५१३ । सन्तानः । सम० ४५ । प्रपात:-गर्तः । विपा० ५५ । पवयणरहस्स-अपवादपदं, छेदसुतं । नि० चू० तृ० प्रपातः भृगवो यत्र मुमूर्षवो जनः झम्पां ददति, अथवा ८१ आ । प्रवचन रहस्य-अपवादपदम् । बृ० प्र० १३१ प्रपातः रात्रिधाटी: । ज० प्र० ६६ । प्रपात:-भृगुर्यत्र जन: काश्चित् कामनां कृत्वा प्रपतति । ज० प्र० १२४ । पवयणवच्छल्लया-प्रवचनं-द्वादशाङ्गं तदाधारो वा सङ्क- प्रपात:-गच्छज्जनस्खलन हेतु: पाषाण: भृगूः वा । ज० स्तस्य वत्सलता-हितकारिता प्रत्यनीकत्वादिनिरासेनेति प्र. २२३ । प्रवाद:-प्रकर्षण प्रतिवादनमस्मिन्निति । उत्त. प्रवचनवत्सलता । ठाणा० ५१५ । ७३ । प्रपात:-भृगुः । ज्ञाता० ६९ | पवादं-सर्वज्ञोपपवयणसार-प्रवचनसार:-चारित्रः । ज्ञाता. १६६ । । देशम् । आचा० २२७ । छनटकानदी प्रपातः । भृगुपवर-प्रवर:-सुभगः। जोवा० २७६ । पातादिकं वा । व्य० प्र० ६१ आ । प्रवाद:-प्रकृष्टो पवर कुंदुरुक्क-प्रवरकून्दुरुषक-चीडाभिधानं गन्धद्रव्यम् । वादः प्रवाद:-आचार्यपारम्पर्योपदेश:-प्रवादः । आचा. सम० ६१ । प्रवरकुन्दुरुषक:-चीडाभिधानो गन्धद्रव्यवि. २२७ । शेषः । ज० प्र० ५१ । पवायए-प्रकर्षेण प्रधान आदी वा वाचक: प्रवाचकः । पबरगवल-प्रवरगवलं-वरमहिषशृङ्गम् । ज्ञाता० २२२।। आव० ६१ । पवरवर-वरवर:-अतिप्रधानः । ज्ञाता० १२। पवायतड-प्रपाततट:-भृगुतटः । ज्ञाता० २६ । पवह-प्रवहे यतः स्थानात नदी प्रवर्तते स प्रवहः। पवाया-प्रवाताः । आचा० ३२६ । प्रवाता-या ग्रीष्मबं० प्र० २६३ । प्रवहः-मूलः । ज० प्र० २६५ । प्रवहः- कालेऽपरान्हे उपलेपनादिकरणेन धर्म नाशयति । वृ. ह्रदनिर्गम: । जं० प्र० ३०९ । प्र. २६३ (?)। पवहणं किच्च-प्लवनकृत्यं-तरकाण्डम् । ज्ञाता० १६१ । | पवालंकुर-प्रवाल:-शिलीदलं तस्याङ्कुरः प्रवालाङ्कुरः । पवहण-प्रवहणं-वेगसरादि । औप० ५६ । प्रवहणं- प्रज्ञा० ३६१ । यानम् । आव० ४२० । पवाल-प्रवाल-विद्रुमम् । भग. १६३ । प्रवाल:-पल्ल. पवा-प्रपा-उदकदानस्थानम् । आचा० ३६६ । प्रपा- वाइकुरः । भग० ३०६ । प्रवाल:-पल्लवाङ्कुरः। जं. उदकदानस्थानम् । आचा० ३०७ । प्रपा-आगमन गृहम् । प्र.२६,३० । प्रवाल:-पल्लवाङ्कुरः । प्रज्ञा० ३१ । प्रवा. ठाणा०१५७ । भग० २३७ । प्रपा-जलदानस्थानम् ।। लम् । ज० प्र. १२२ । प्रवाल:-पल्लव: । जं. प्र. प्रभ० ८। प्रपा-जलदानस्थानम् । औप० ४१। प्रपा- | १६८ । प्रवाल-पल्लवाइकुरः। ठाणा० ३४५ | प्रवालंजलदानस्थानम् । प्रभ० १२६ । प्रपा-जलदानस्थानम् ।। पृथिवीभेदः । आचा. २६ । प्रवाल:-शिलादलम् । ज० प्र० १४४ । प्रपा-जलस्थानम् । ज्ञाता० ७६ । प्रज्ञा० ३६२ । प्रवालं-विद्रमः। प्रज्ञा. २७ । प्रवाल:गिम्हादिसु उदगदाण ठाणं । नि० चू० वि०६९ मा। पल्लवाङकुरः । औप० ७ । प्रवाल:-ईषन्मीलितपत्रपवाए-प्रपात:-प्रपतज्जलौघः । ज० प्र० २६ । प्रपात:- भावरूपः। (?) । प्रवालं पल्लवम् । दश. १८५ । गतः । ज्ञाता. १९१ । प्रवाढः-व्याजः । सूत्र० ११३। प्रवालक-विद्रमः । उत्त० ६८६ । प्रवालं-विमः । प्रपातो-यत्र पर्वतात् पानीयं पतति । वृ० द्वि० १०६ ।। जीवा. २३ । प्रवालं-विद्रमम् । प्रभ०३८ । प्रवालंपाओ गर्ता । वृ० तृ० ५७ अ । पल्लवाङ्कुरम् । जीवा० १८८। प्रवाल:-पल्लवाङ्कुरः । पवात-प्रपातः । वृ० द्वि ३१ अ। जीवा० १८७ । प्रवाल:-रत्नविशेष:, प्रवालाङ्करः । ( अस०८७) ( ६८९ ) Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवालता] आचायोआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [पवेइय जोवा० १६१ । प्रवाल:-ईषदुन्मीलितपत्रभावः । जीवा० पविद्धत्थं-प्रविध्वस्तं-सर्वथा भस्मसाद्भुतम् । जीवा. २२० । प्रवाल:-ईषदुन्मीलितपत्रमाव:-पल्लवः । जीवा० १२२ । २६४ । पविभत्त-प्रविभक्तं-प्रतिनियतम् । प्रज्ञा० ३२६ । पवालता-प्रवालता-नवाकुरता । ठाणा० २६७ । पविभत्ती-प्रविभक्ति:-प्रकर्षण स्वरूपसम्मोहाभावलक्षणेन पवालवण्ण-प्रवालवर्ण:-विद्रुमवर्णः । ज्ञाता० २३० । विभागः पृथक्त्या । उत्त० ८३ । पवालिणो परिणमंति-प्रवालिनः परिणमन्ति-प्रवाल:- पवियक्खणा-प्रविचक्षणा, अभ्यासातिशयतः क्रियां प्रति पल्लवाकुरस्तधुक्ततया परिणमन्ति । सूर्य० १७२ । । प्राविण्यवन्तः । उत्त० ३२० । पवाह-प्रवाहः-अनादिकालसन्ततिपतितः। जीवा० २१७ । पवियारणा-प्रविचारणा, प्रज्ञापनायाश्चतुस्त्रिंशत्तमं पदम् । प्रवाहः-अनादिकालसन्ततिपतितः । ज० प्र० ६२ ।। प्रज्ञा०६। पविइण्ण-प्रविकीर्ण:-गमनागमनाभ्यां व्याप्त: । औप०४। पवियारियंत-प्रविचारयन् । उत्त० ३८६ । पविइन्न-प्रविकीर्ण:-गमनागमनाभ्यां व्याप्तः। ज्ञाता० ३। पविरल-प्रविरलं-लम्बमानम् । जीवा० २६८ । पविकत्थइ-प्रविकत्थते-आत्मानं श्लाघते । सम० ५४ । | पविरलपप्फुसियं-प्रविरलाः प्रस्पृश्किा-विषो यत्र पविज्जआयति-प्रकर्षेण विद्युतं कुर्वति । जं० प्र० तत्तथा । भग० ६६५ । ३८६ । पविरलफुसिय-प्रविरलस्पृष्टं-प्रविरलानि धनभावे कर्दमपविजल-रुधिरपूयादिना पिच्छिलः । सूत्र १३६ ।। सम्भवात्मकर्षेण यावता रेणवः स्थगिता भवन्ति तावन्मात्रेपविज्जुयाति । भग०६६५ । णोत्कर्षेण स्पृष्टानि-स्पर्शनानि यत्र वर्षे तत् प्रविरलपविट-प्रविष्ठः-एककालं तद्भावेन परिणतः । जीवा० स्पृष्टम् । जीवा० २४५ । १८ । प्रविष्ठः व्यवस्थितः । जीवा० १०५ । पविरलसाहुसहिओ-प्रविरलसाधुसहितः । आव० २६३ । पविठ्ठपुव-प्रविष्ठपूर्वः-परिणतपूर्वः । जीवा०६८। पविलीणं-प्रविलीनं-नवनीतमिव सर्वथा गलितम् । जीवा० पबिणेति-प्रविनयति-क्षपयति । भग० १०० ।। पवितर-प्रवितरं-स्फुटितम् । जीवा० १२२ । । पविरल्लियं-विस्तारवत् । प्रश्न० ६२ । पवित्तय-पवित्रक-ताम्रमयान्य ङ्गुलीयकम् । औप०६५। पविस इ-प्रविशति-पविसइ । आचा० ३६५ । पवित्रक अङ्गुलीयकम् । भग० ११३ । पवित्रकं-अगु- | पविसमाणे-प्रविशन् । सुय० १२ । लीयकम् । औप० ६३ । पविसारिय-प्रविसारितम् । दश० ६६ । पवित्ता-पवित्रा-अहिंसायाः पञ्चपञ्चाशत्तमं नाम । प्रश्न पविसिणि-णिगच्छति णिति । नि० चू० प्र० ५१ अ। ६६ पविसियओ-प्रोषितः । आव० ४२३ । पवित्ति-प्रवृत्तिः । आव० ५१३ । पवीलए-तत उद्धंमधीतागमः परिणतार्थसद्भावः सन् पवित्तिवाउय-प्रवृत्तिध्यापृत्त:-वार्ताव्यापारवान वार्तानि- प्रकर्षेण विकृष्टतपसा पीडयेत् प्रपोडयेत् । आचा० १६२ । वेदक इति । औप० १३ । पवीला-प्रपीडनं-बहपीडनम् । दश० १५३ । पवित्ती-प्रवृत्तिः यथायोगं वैयावृत्त्यादी साधूनां प्रवत्तंकः ।। पवुट्ठदेव-प्रवृष्टो देवः । आचा० ३८६ । आचा० ३५३ । पवेअए-प्रवेदयति-कथयति । दश० २६६ । पवित्थर-प्रविस्तार:-धनधान्यादिविस्तारः परिग्रहस्य विश- पवेडआ-प्रकर्षेण प्रशस्ताऽऽदौ वा वेदिता प्रवेदिता । तितम नाम । प्रश्न० ६२ । प्रविस्तार:-धनधान्याद्विपद- आचा० २५ । चतुष्पदादिविभुतिविस्तरः । उपा० २ । पवेडय-प्रवेदित:-प्रकर्षण-स्वयं साक्षात्कारित्वलक्षणेन पविद्ध-प्रवृद्धं-उपचाररहितम् । बृ. तृ० ११ अ । ' ज्ञातः । उत्त० ८१ । ( ६९०) १२२ । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवेइया ) अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ पश्वराहू पवेइया-प्रवेदिता-केवलालोकेन प्रकर्षण वेदिता प्रवेदिता प्रश्न. १५६ । पवंग:-इक्षुप्रभृतिः । भग० ३०६ । विज्ञाता । दश १३७ । पवंग:-इक्ष्वादि । ज० प्र. १७४ । पर्वगः । प्रज्ञा. पवेईयं-प्रवेदितं-प्रतिपादितम् । आचा० १३४ । ३७ । पर्वग:-इक्ष्वादि । जीवा० २६ । वनस्पतिविशेषः । पवेतणं-प्रवेदन-प्ररूपणं फलकथनम् । ६० . २५ अ सूत्र. ३०७ । पवेदणं-प्रवेदनं-पूत्कृतम् । बृ. द्वि० ६३ आ । पव्वड । ज्ञाता. २०२ । पवेपति-प्रवेपते दन्तवीणादिसमन्वित: कम्पते । आचा. पवजा-प्रव्रजन-गमनं पापाचरणव्यापारेष्विति प्रव्रज्पा । ३०९। ठाणा० १२६ । प्रव्रज्या । ठाणा० ४७३ । पवेस-प्रवेश:-कुड्यस्थूलत्वमष्टयोजनान्युच्चमिति । ठाणा० पवट्टणं-पुणो पुणो पब्वट्टणं । नि० चू० प्र० १६० आ। २२७, २६४ । प्रवेश:-निमज्जनं जलप्रवेशः । उत्त० फवणी-पर्वणी-कात्तिक्यादि । भग० ४७३ । ७११ । प्रवेश:-उपपातः । आचा० ६९ । पवतओ-पर्वतः-दासचेटः । आव० ३४३ । पवेसण-नवमशतकसत्कनृतीयोद्देशके गाङ्गेयाभिधानानगर- पवर्तिद-पर्वतेन्द्रः । सूर्य० ७८ । कृतनर कादिगतप्रवेशनविचारः । भग० ३३६ । पव्वतियग-पर्वत्रिकम् । आव० २१० । पवेसणए-गत्यन्तरादुवृत्तस्य विजातीयगतौ जीवस्य प्रवे-पव्वदेसकाल-पर्वदेशकालः । आव० १४६ । 2. शनं, उत्पाद इत्यर्थः । भग० ४४२ । पवपेच्छतिणो-काश्यपगोत्रभेदः । ठाणा० ३९०। पवेसियल्लओ-प्रवेशितः । आव० ४०५ । पवबोय-पर्वबीज:-इक्ष्वादिः । सूत्र० ३५० ।। पवेसेत्ता-प्रवेशयित्वा-नीत्वा । आव० ६६२ । पवय-पर्वग:-तापस भेदः। आव०६७३ । पर्वतः । जं. पव्य-पर्व-मेघलादि दष्टा पर्वतो वा । सूत्र० १४७ ।। प्र० ४२६ । तृणविशेषः । प्रज्ञा० ३३। पर्वतः । भग० पर्व-जानुकुपैरादि । उत्त० ८४ । पर्व:-पक्षः । सूर्य १७०। पर्वता: पर्वतनात्-उत्सवविस्तारणात्पर्वता:-क्रीडा. १५५ । प्रसव:-पुत्रजन्मः । ज्ञाता० ५३ । अमावासी पवताः, उज्जयन्तवैभारादिः । भग० ३०६ । पर्वत:पौर्णमासी वा तदुपलक्षित: पक्षोऽपि पर्व । ठाणा० ३७० । क्रीडापर्वत: । ज०१० १६८ । पर्वत:-क्षुदगिरिः । प्रर्व-कौमुदीप्रभृतिः । ज्ञाता. ७६ । ज० प्र०६६ । पर्वग:-इक्ष्वादिः । उत्त० ६९२ । पवइए-प्रवजित:-पापानिष्क्रान्त: । दश , २६२ । प्रव्रजेयं पर्वतः-तितिक्षोदाहरणे द्वितीयो दासचेटः । आव० ७०२। गृहानिष्कामेयम् । उत्त० ४०६ । पर्वत:-मथुरायां राजा आव० ३४४ । पवइओ-प्रवृजित:-प्रकर्षण-विषयाभिष्वङ्गादिपरिहाररू. पवयकडगं-पर्वतकट के भगुः । प्रश्न० ५६ । पेण जितो-निष्क्रान्तः । उत्त० ४४२ । प्रवजितः । पवयगिह-पर्वतगृह-पर्वतगुहः । आचा० ३८२ । आव. ४३४ । पवयमह-पर्वतमहः । जीवा० २८१। पर्वतमहोत्सवः । पवइतो-पर्वत:-इन्द्रदत्तराजस्य दासचेटः। उत्त०१४८।। ज्ञाता० ३६ । पवइय-प्रवजित:-शाकयादिः । अनु० २४४ । प्रवजित:- पव्वयय-द्वितीयवासुदेवपूर्वभवः । सम० १५३ । । प्रगतः-प्राप्तः, प्रवजित:-प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः । जं० प्र० प.वयराया-पर्वतराज:-पर्वतेन्द्रः। जीवा० ३४७ । १४२ । प्रजित:-द्विपृष्ठवासुदेवपूर्वभवः । आव० टी० पवयविदुग्गं-पर्वतदुर्ग:-पर्वतसमुदायः । भग० ६२ । सूत्र. ३०७ । पवए-वंसो । नि. चू० प्र० ६० आ । पन्वया-पर्वजा:-पर्वाणि सन्धयस्तेभ्यो जातः । उत्त० पवओ-उभओ पेहरहितं । नि० चू० त० २३ अ । ६६२ । पन्चगो-दम्भसारित्थो । नि० चू० द्वि० ६९ प्रा। पर्वगः- पवराहू-पर्वणि-पौर्णमास्यां अमावास्यायां वा यथाक्रम स्थावरविशेषः । सूत्र० ३०७ । पर्वक:-वाद्यविशेषः ।! चन्द्रस्य सूर्यस्य वा उपरागं करोति स पर्वराहुः । सूर्य 1809) Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्वहइ ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः २६० । पर्व राहुः यः कदाचिदकस्मात्समागत्य निजविमानेन चन्द्रविमानं सूर्यविमानं वाऽन्तरितं करोति । जीवा० ३३९ । पर्व राहुः । भग० ५७६ । पव्वहइ - प्रव्यथते - प्रकृष्टव्यथामिवोत्पादयति । भग०१६६ । पश्चिमरुचक - दिक्कुमारिवास्तव्यपर्वतः । ज्ञाता० १२७ ॥ पवहणा - प्रव्यथना भयोत्पादनम् । औप० १०३ । पसंग - प्रसङ्गः - अनुष्ठानम् । आचा० ६६ । प्रसङ्गः-मासेपन्हेज - प्रव्यथते - बाधते अन्तर्भूतकारितार्थत्वाद्वा प्रवाह- वनः । ओघ० १६२ । प्रसङ्गो - अवशस्यानिष्टप्राप्तिः । येत् । ठाणा० ३०१ ! प्रव्यथेत - ग्रामाच्चालये निष्काशयेत् नि० ० प्र० २५ अ प्रसङ्गः - परम्परा । बृ० द्वि० कश्चित् उदर्को वा आगच्छति ततो नश्येदिति । ठाणा० ३१० । । १२३ । प्रसङ्गः- भूयः काररापणम् । बृ० द्वि० १९३ आ । प्रसङ्गः - अभ्यासः । आव० ४२६ । प्रसङ्गःआसेवनारूपः । सम० ४६ । प्रसङ्गः तथाविधासक्तिरूपः । उत्त० ६१७ | प्रसङ्गः - अभ्यासः । नंदी० १६४ । प्रसङ्गः - कामेषु प्रसजनमभिषङ्गः, अब्रह्मण एकोनत्रिंशत्तमं नाम । प्रश्न० ६६ । पसंत - प्रशान्त-सर्वथाऽसदिव । जं० प्र० ३८६ । प्रशान्तः बहिर्वृत्त्या | भग० ४६०, ६२४ । प्रशान्तः - प्रशाम्यति क्रोधादिजनितोत्सुक्यरहितो भवत्यनेनेति परमगुरुवचःश्रवणादिहेतुसमुल्लसित उपशमप्रकर्षात्मरसः । अनु० १३५ । प्रशान्तः - क्रोधादिदोषपरिहारात् । अनु० १४० । प्रस्वान्तः - प्रकृष्टचित्तः । जं० प्र० १४६ । प्रशान्तः । और० ३५ । पसंतजीवी - प्रशान्तजीवी बहिर्वृत्यपेक्षया । प्रभ० १०६ । पसंते पसन्ते - कषायोदयस्य विकलीकरणात् । ज्ञाता० पठवा - लोकपालस्य तृतीया परसद् । ठाणा० १२७ । पढवाओ - पर्वाणि - जानुकूपं रादीनि । उत्त० २५१ । पवाण - प्रम्लानं मनःक् शुध्वम् । ओघ० १७० । पवाय - प्रम्लानः- अर्ध शुष्कः । पिण्ड० १६ । प्रम्लानंम्लानवृन्तम् । ब्र० प्र० १७६ आ । पव्वायचिक्खल-प्रवातकर्दमः । ओघ० ७३ । पत्वायण- प्रव्राजन-रजोहरणादिवेषदानेन संयमस्वीकर णम् । भग० १२२ । पव्वायणा- प्रव्राजना । दश० ३१ । पवायणायरिओ-प्रव्राजनाचार्य:- आचार्य विशेषः । दश० प्र० २८५ आ । पशवः - पश्यन्ति प्रसूयन्ते वा । सम० ६२ ॥ पञ्चात्कत्तु - पराजेतुम् । नंदी० १५० । ३१ । पत्वायणायरित प्रवाजनाचार्यः । ठाणा० २३९ । पल्वावण्णा - पव्वावणिजपरिक्खा पवावण्णा । नि० चू० द्वि० ४६ आ । वावित्तए - प्रव्राजयितुं रजोहरणादिदानेन । ठाणा० ५६ । फवाहा - प्रवाहाः - अपकृष्यनि प्रकर्षवन्ति उदकवहनानि । भग० १६६ । लोभः । सूत्र० ६६ पविद्धं - प्रविद्ध-वन्दनकं दददेव नश्यति, कृति कर्मणि पसंसइ - प्रशंसति स्तोति बहुमन्यते । आव० ५८७ । तृतीयो दोषः । आव० ५४३ । ससा - प्रशंसा-वन्दनं संस्तव: । आचा० २६ । प्रशसनंपरिवहति-परिसेण विहि विवति । नि० चू० प्र० प्रससा स्तुतिः । प्राव० ८१६ । पसंसिंए प्रशंसित:- स्तुतः । आचा० १२८ । पसइओ - प्रसृतिः - नावाकारतया व्यवस्थापिता प्राञ्जलकरतलरूपा । ज० प्र० २४४ । २५६ आ । पव्वीसग पव्वीसकं वाद्यविशेषः । प्रश्न० ७० । फवोणीए - अमोग्गतिता, सन्मुखगमनम् । नि० चू० प्र० [ सजणा पश्चात्तापकृत्-पश्चादनुतापकः । उत्त० ३४० । पश्चानुपूर्वी- गणनानुपूर्थ्यां द्वितीयो भेदः । ठाणा० ४। पश्चिम - अधिक्षेपः । नंदी० २१ । १०३ । पसंघण - पसन्धनं सातत्येन प्रवत्तनम् । पिण्ड • १३३ । प संस- प्रशस्य :- प्रशस्यते सर्वेरप्य विगानेनाद्रियत इति पसई द्वे असृती प्रसृतिः । ज्ञाता० ११६ । प्रसृतिःनावाकारता व्यवस्थापित प्राञ्जलकरतलरूपा । अनु० १५२॥ पसजणा - प्रसजना- प्रायश्चित्तवृद्धिः । बृ० द्वि०६ अ । ( ६९२ ) Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसज्झ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [ पसासेमाणे पसज्झ-प्रसह्य-प्रकटमेव । सूत्र० ६६ । प्रसह्य-धर्मनिर- विशेष: । ज० प्र० १०० । प्रसन्नं-परिणतम् । दश० पेक्षतया प्रकटम् । दश० २७७ । २०७ । प्रसन्ना-सुराविशेषः । जीवा० २६५ । प्रसन्नंपसद-प्रस ह्य-अनेकदिवसस्थापनेन प्रकटम् । दश० १७६।। विकाररहितम् । उत्त. ४४२ । प्रकर्षण शठः प्रशठः । सूत्र. ३६४ । पसन्नचंद-प्रसन्नचन्द्र:-उस्कृष्टबाह्यकरणवतः सप्तमनरकप्रा. पसण्ण-प्रसन्न:-द्राक्षादिद्र व्यजन्या मनःप्रसक्तिहेतुरिति योग्यकर्मबन्धकः । आव. ५२६ । प्रसन्नचन्द्रः-द्रव्यविपा० ४६ । प्रसन्नः-सूराभेदः । ज्ञाता. २०६। व्युत्सर्गोदाहरणे क्षितिप्रतिष्ठितनगरे राजा। आव०४८७। यसण्णकित्तीणं-प्रसन्नकोत्तिः । पउ० ५०-१६ । पसम-प्रशमः । आव ५६१ । प्रकर्षेण श्रमः प्रश्रमःपसण्णचंद- ।नि० चू० तृ० २३ आ। खेदः स्वपरसमयतत्त्वाधिगमरूपः । आव० ५६१। पसत्ता-प्रशास्ता-बुवयुपजीवीमन्त्रिप्रभृतिः । सूत्र० २७८। | पसमथेलाइगुणगणोवेओ-प्रश( अ )मस्थैर्यादिगुणगणो. पसत्थ-प्रशस्तं-उचितसेवनया हितम् । जीवा० ४ ।। पेत:-प्रश्रमः-स्वपरसमयतत्त्वाधिगमरूपः खेद: स्थय जिनप्रशस्तं-शोभनम् । जीवा० २०७ । प्रशस्तम् । आ० शासने निष्प्रकम्पता प्रभावनादिकं च त एव गुणास्तेषां ३५५ (?) । प्रशस्तं-सामायिकस्य तृतीयपर्यायः । आव० गणः-समूहस्तेनोपेतो-युक्तोः यः सः । अथवा प्रशमादि४७४ । प्रशस्तः-प्रशंसास्पदीभूतः । जीवा० २२६ । । गुणगण:-प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणः। पसंस्थदमसासण-प्रशस्तदमशासन:-प्रशस्त:-प्रशंसास्पदो आव० ५६१ । दमश्च-उपशम: शासनं च सर्वज्ञागमात्मकं यस्य सः । पसय-पसय:-आटविको द्विखुरश्चतुष्पदविशेषः । अनु० उत्त० ४६५ । ३६ । प्रशयः-द्विखुर आटव्यपशुविशेषः । प्रश्न० ७ । पसथनिडराए-प्रशस्तनिर्जराक:-कल्याणानुबन्धनिर्जरः।। पसय:-आटव्यो द्विखुरश्चतुष्पदविशेषः । भग० ३४५ । भग. २५१ । प्रश्नयः-द्विखुरः आटव्यपशुविशेषः । ज० प्र० १२४ ॥ पसत्थर-प्रकर्षण शास्ता प्रशस्ता तं धर्मपाठकादिलक्षणम्।। पसय-आटव्यचतुष्पदविशेषः । ज्ञाता०६३ । आव० ५१६ । पसर-प्रसरम् । ओघ. १४८ । प्रसर:-विस्तारः । प्रभा पसत्थाई-प्रशस्तानि-प्रशसितानि - श्वाधितानि । ठाणा० २६७ । पसव-प्रसवः-पुत्रादिजन्मः । ज्ञाता० ७६ । पसत्थार-प्रशस्तार:-धर्मशास्त्रपाठकः । औप० २७ । पसवई-प्रसूते-निर्वतयति । दश० १८७ । प्रशास्ता-अनुशासको मर्यादाकारी सभानायकः सभ्यो वा। पसवसरित्थ-पशुसदृशः । पउ० २८, ६४ । ठाणा० ४९२ । प्रशास्ता-लेखाचार्यादिः धर्मशास्त्रपाठकः। पसाय-प्रसादः-शुभस्वरूपता । विशे० १२४५ । ठाणा० १२६ । प्रशास्ता-धर्मोपदेशकः। ठाणा० ५१६ । पसायट्री-प्रसादार्थी-गुरुपरितोभिलाषी । उत० ५५ । लेखाचार्यः, भर्ता वा। आव० ६६३ ।। पसायपेक्खि-प्रसादप्रेक्षी-प्रसादं प्रेक्षितुं-आलोचितुं शीलपसत्यारथेरा-प्रशासति-शिक्षयन्ति ये ते प्रशास्तार:- मस्येति । उत्त० ५५ । धोपदेशकास्ते च ते स्थिरीकरणात् स्थविराश्चेति प्रशा. पसारंति-मन्त्रयति । व्य० प्र० २७६ । स्तृस्थविराः । ठाणा० ५१६ । पसार-पर्यालोचः । उ० मा० गा० ४७५ । पसत्यारदोस-प्रशास्ता-अनुशासको-मर्यादाकारी सभया. | पसारण-प्रसारणं-अङ्गानां विक्षेपः । आव० ५७४ । नकः सम्यो वा तस्माद् द्विादपेक्षकाद्वा दोषः प्रतिवा- पसारिय-प्रसारित:-विरलीकृतः । उत्त० ३६७ । प्रसादिनो जयदानलक्षणो विस्मृतप्रमेयप्रतिवादिनःप्रमेयस्मार | रितं-गात्रविततकरणम् । दश. १४१ । जादिलक्षणो वा प्रशास्तृदोषः । ठाणा० ४९२ । पसारेख-प्रसारयेत् । आव० ८५३ । पसन-प्रसत्रा-सुराविशेषम् । उपा० ४६ । प्रसन्ना-सुरा.' पसासेमाणे-प्रसाधयन्-पालयन । ज्ञाता० ६ । ( ६९३ ) Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसाह ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पह - पसाह-प्रशाख:-शाखाविनिर्गतशाखः । जं० प्र० ३२४ । । आशङ्कापरिहाररूपा । आव० ३७७ । पसाहण-प्रसाधनम् । आव० ५५५ । प्रसाधनं-मण्डनम् । पसिमा-अंबफलाइ । नि० चू० द्वि० ६० म । ज्ञाता० ३६, ६३ । पसु-पशु:-ग्राम्यः । सम० ६२ । पशु:-छगलकः । अनु. पसाहणघरगं-प्रसाधनगृहक-यत्रागस्य स्वं परं च मण्ड. ३९ । मण्डल । नि० चू० द्वि० ८६ अ । यति । जीवा. २०० । प्रसाधनगृहक-यत्रागत्य स्वं परं पसुधम्म-पशुधर्म:-मात्रादिगमनलक्षणः । दश० २२॥ च मण्डयति । ज. प्र. ४५ । पसुपाली-पशुपाली । आव० ५३८ । पसाहन-प्रसाधनं-मण्डनम् । ज्ञाता० ४३ । पसुया-द्विखुरविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । पसाहि-प्रसाधि-प्रतिपालय । उत्त० ३८६ । पसुवह-पशुवधः । आव० ६५। । पसाहिउं-प्रसाध्य-प्रगुणय्य । आव० ७०३ । पसू-पशु:-अश्वादिकः । उत्त० १८८ । पसाहिए-प्रसाधित:-संस्कृतः । उत्त० ४६३ । पसूअ-प्रसूतः-निर्गतशीर्षकः । दश० २१९ । पसाहिता-प्रसाध्य-वशीकृत्य । उत्त० ४४८ । पसूई-प्रसुतिः-शालिरत्नम् । आव० ४३५ । पसिअ-प्रसित:-प्रकर्षण बद्धः । ज० प्र २११ । पसूति-प्रसूति:-नखादिविदारणेऽपि चेतनया असंविति: पसिढिलं प्रशिथिलं दृढम् । ओघ० ११० । प्रशिथिलं- स्तद्रूपः । ओघ० १६३ । दोषो यददृढमनिरायन्तं वा वस्त्रं गृह्यते। उत्त० ५४१ । पसूया-प्रसूता-कणिशानां पत्रगर्भेभ्यो विनिर्गमात् । ज्ञाता० प्रशिथिलं-अदृढम् । ओघ० ११० । पसिणं-प्रश्न-आदर्श प्रश्नादि । सूत्र० १८१ । प्रश्रः । पसेढि-श्रेणेर्या विनिर्गताऽन्याश्रेणिः सा प्रश्रेणिः । ज०प्र० आव० ७६३ । प्रश्नः । भग० ११६ । प्रश्न:-शिष्यपृष्ट ३१ । स्यार्थस्य प्रतिपादनरूप: । जं० प्र० ५४१ । प्रश्न:- पसेढी-प्रश्रेणि:-श्रेणेर्या विनिर्गताऽन्या श्रेणिः प्रश्रेणिः । अङ्गुष्ठस्वप्नप्रभादि । वृ०४० ३३ अ। प्रश्नं पृच्छचमा- | जीवा० १८६ । नत्वात् । ज्ञाता. ११० । प्रश्नः-अङ्गुष्ठकुड्यप्रश्नादिः | पसेणइ-अस्यामवसरपिण्यां पञ्चमकुलकरः । ठाणा० ठाणा० ३०१ । ३८६ । पसिणवागरण-प्रश्नव्याकरणम् । उपा० ३६ । प्रश्नव्या- | पसेणइए-प्रसेनजित्-पञ्चमकुलकरः । आव० १११ । करणं-प्रश्नोत्तरम् । ज्ञाता० ११० । पसेणई-प्रसेनजित्-योगसंग्रहे शिक्षादृष्टान्ते कुशाग्रपुरे पसिणसयं-प्रश्नशतं-या विद्या मन्त्रो वा विधिना जप्य- राजा । आव० ६७१ । प्रसेनजित्-द्वादशमकुलकरनाम । भान: पृष्टा एव सन्तः शुभाशुभ कथयन्ति ते प्रश्नाः ज० प्र० १३२ । प्रसेनजित्-औत्पत्तिकीबुद्धिदृष्टान्ते मुद्रातेषामष्टोत्तरं शतम् । नंदी. २३४ ।। रत्ने राजा। आव० ४१७ । प्रसेनजित-श्रावस्तिनृपतिः । पसिणाइ-प्रश्न विद्या । ठाणा० ५१२ । उत्त० २८६ । पञ्चम कुलकरः । सम० १५० । पसिणापसिण-प्रक्ताप्रश्नं स्वप्न विद्यादि । भग०५१ । पसेणती-प्रसेनजित-अन्तकृशानां प्रथमवर्गस्य नवममध्यप्रश्नाप्रश्नः स्वप्नविद्यादि । प्रज्ञा० ४०६ । प्रश्नाश्न:- __ यनम् । अन्त० १ । पृच्छतोऽपृच्छतो वा शुभाशुभकथनम् । नंदो० २३४ । प्रश्नप्रश्न-"पसिणापसिणं सुमिणे विज्जासिद्ध कहेइ पसेवय-प्रसेवक:-क्षुरादिभाजनम् । उपा० १२ । अन्नस्स । अहवा आइंखिणिया घटिय सिटुं परिकहेइ।" पस्स-पश्यन्-अवलोकयन् । उत्त० २६८ । ब. प्र. २१५ अ । सविणयविज्जाकहियं कथितस्स | पस्सवण-प्रश्रवणं-मत्रम । दशः १७ । पसिणापसिणं भवति । नि० चू० द्वि ८५ अ । पहंस-प्रधयॆ-पराभूय । उत्त० ३५३ । पसिद्ध-प्रसिद्ध-प्रख्यातम् । प्रश्न० ११३ । प्रसिद्धिः- | पह-वस्त्रंषणायां द्वितीया ऐषणा। आचा० २७७ । पन्था ( ६९४ ) Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहओ ] रथ्या । भग० १३७, २०० । प्रभाकरः - सम्यग्दृष्टो महाबलस्य राज्ञश्चित्रकर:- प्रभासः । बाव० ७०६ । पन्थःसाधारणमार्गः । अनु० १५६ । पन्या- रथ्यामात्रम् । औप० ५७ | पन्था - सामान्यमार्गः । प्रश्न० ५८ । पन्थाउपदेशतो सम्यग्दर्शनप्राप्तो दृष्टान्तः । आव० ७५ । पन्धा - मार्ग: । आव० १३६ । पथ: - पथमात्रम् । ज्ञाता० २८ । प्रभा - एक कदुर्नयाभ्युपगमपरिस्फूर्तिः । नंदी० ४५। पथः - रथ्यामात्रम् । ठाणा० २६४ । पहओ - प्रहतः - आसेवितः । आव० ३८६ | पहकर - पहकर :- सङ्घातः । जीवा० १८८ । समूहः । भग० ४६४ । समूहः । मर० । पहकरः-समुदायः । प्रश्न० ४७ | पहकर:- संघातः । जं० प्र० ३० । पहकर :सङ्घातः । राज० ३ । देशीशब्दोऽयं समूहवाची । जं० प्र० १४५ । विस्तारवृन्दं देशोशब्दः । जं० प्र० १६६ । समूहः । जं० प्र० २०० । पट्ट - प्रहृष्टः - प्रहसितवदनः समुद्भूतरोमहर्षः । बृ० प्र० २४७ आ । प्रहृष्टः- प्रहर्षवान् । उत्त० २८७ | प्रहृष्टः अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ समर्थस्तरुणः । ओघ० १२६ । पहण - प्राहन - प्रहतवान् । उत्त० ४४८ । पहयर - प्रकरः- समूहः । विपा० ३६ | पहरणं - प्रहरणं - अक्षेप्यं शस्त्रम् । प्रश्न० ४७ । प्रहरणं | करवालादि । प्रश्न० १३ । प्रहरणं क्षेप्यम् । विपा० ४६ । प्रहरणं सिकु·ादि । जीवा २५१ । प्रहरणंखड्गादि । उत्त० १४३ । प्रहरणं खड्गादि । आव० ३४६ । प्रहरणं - अक्षेप्यास्त्रम् । भग० १६४ । प्रहरणं । भग० ३१८ । प्रहरणं - क्षेप्यास्त्रं नाराचादि । भग० १३८ । प्रहरणं - लकुट मुसुष्ट्यादि । आचा० ६० । प्रहरणः खड्गः । ठाणा० ४५० । प्रहरणं - अस्यादि । ज० प्र० २५६ । प्रहरणं कुन्तादि । ज्ञाता० २२१ । पहरणकोस - प्रहरणकोशः - प्रहरणस्थानम् । जीवा० २३२ । पहराइया - लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । बहराय - पञ्चमवासुदेवस्य प्रतिशत्रुः । सम० १५४ । दत्तवासुदेवशत्रुः, सप्तमवासुदेवशत्रुः । आव० १५६ । पहलिय - म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । पहवति प्रभवति । आव ० ३८४ | पहसित-प्रहसितः । भग० ५४५ । पहसिय-प्रहसितं हसितुमारब्धम् । ज्ञाता० १३३ । प्रभा तथा सित इव बद्ध इव प्रहसित इव प्रकर्षेण हसितः इव । जं० प्र० २९७ । प्रहसितं - हसितुमारब्धम् । विपा० ८२ । प्रभासितः प्रभा तथा सित इद बद्ध इव । प्रहसितः - प्रकर्षेण हसितः । जीवा० २०६ । पहसति प्रहसति । उत्त० ५१ । पहसिए - प्रहसित: - प्रहसित इव प्रभापटलपरिगततया प्रह सितः प्रभया वा सित:- शुक्लः संबद्धो वा प्रभासित इति । भग० १४५ । पहा - प्रभा - ज्योत्स्ना । आव० ५१० । पहाइओ - प्रधावितः आगतः । आव० ६६५ । पहाडेति - स्वेच्छयेतश्चेतश्वानाथं भ्रमयति । सूत्र० १२५ । पहाण - प्रधान:- क्कथितः । जीवा० २६८ । पाषाणम् । आव० ६१३ । पहाणदव्वसुद्धी - प्राधान्यद्रव्यशुद्धिः द्रव्यशुद्धिर्भेदः । उत्त० २११ । [ पहास पहाणपर- प्रधानत्वेन परः प्रधानपरं द्विपदानां तीर्थंकरः चतुष्पदानां सिंहादिः अपदानामर्जुन सुवर्णपनसादिः । आचा० ४१५ । पहाणाय - प्रकृष्टं हीनम् - अपगमः प्रहाणं तस्यायो - लाभ: प्रहाणायः प्रहाणः प्रहानि वा । उत्त १८३ । पहायदेसकाल प्रभात देशकालः | आव० ३६८ पहार - प्रहारः- कशादिभिस्ताडनम् । दश० २६७ । पहारेत्ता - प्रधारयिता - स्थापयिता । भग० २३१ । पहारेत्थ - प्रधारितवान् सङ्कल्पितवान् । भग० ११६ । प्रधारितवानु - विकल्पितवान् । ज्ञाता० १३१ । संप्रधारितवान् । अन्त । १२ । प्रधावितवान् । जीवा० २५४ । प्रधारितवान् । ज० प्र० २६६ । प्रधारितवान्चिन्तितवान् प्रवृत्तवान् । ज्ञाता० ३४ । पहावण - प्रधावनं - क्षेत्रमार्गणा क्षेत्रप्रत्युपक्षणा उपधिमा - गंणा च । व्य० द्वि० ३५४ अ । पहाविओ - प्रधावितः । आव० ५६८ । पहावेति - प्रधावयति-भ्रमयति । आव० ६५० । पहास - प्रहासः - अतीव हा सरूपः । दश० २३५ । ( ६९५ ) Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहासा ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पाईओ पहासा-पंचसेले अच्छरा । नि० चू० द्वि० ४२ अ । पहप्पते-पर्याप्यते । मोघ० ५४ । प्रहासा-पञ्चशैले-विद्युन्मालेरग्रमहिषी । नि० चू० प्र० पहुव्वति-पर्याप्यते । ओघ० ११२ । ३४५ अ। पह-प्रभुः-समर्थः योग्यो वा । आचा. ७५ । प्रभु:पहिअकित्ती-प्रथितकीतिः । उत्त० ३२१ । वीर्यान्तरायक्षयतो विशिष्टसामर्थ्यवान् । उत्त० ६६८। पहिल्जमाणे-प्रहीयमाणं-प्रभ्रश्यनु, परिपतत् । भग० १८। स्वगृहमात्रनायकः । पिण्ड० ११२ । प्रभवति-सम्बन्धिहिमूहवण्ण-प्रहृष्टमुखवर्णः । उत्त० २८६ । प्रहष्टः- वस्तु तत्र तत्र स्वकृत्ये नियोक्तं समर्था भवतीति पभुः । प्रहर्षवान् मुखवर्णो-मुखछाया यस्य स तथा, यद्वा प्रहृष्टः । उत्त० ४२ । मुखस्येव मुखवर्णो यस्य । उत्त० २८७ । पहेण-वध्वा नीयमानाया यत्पितृग्रहभोजनमिति । आचा पहिया-पथि गच्छन्तीति पथिकाः, प्रहिताः केनापि क्वचित् | ३३४ । प्रेषिता । ज्ञाता० १५२ । गाणाविधगामणगादेशहिंडगा, पहेणग-प्रहेणक-लाहनकम् । पिण्ड० १०३ । पहपडिवण्णगा पहिया । नि० चू० द्वि० ११ अ । हेणय-प्रहेणकं-लाहनकम् । व्य० द्वि० ३५४ अ० । पहोण-प्रहाणं-जीवप्रदेशः सह संश्लिष्टस्य कर्मणस्तेभ्यः | ओघ ७ । पतनम् । भग० १६ । प्रक्षोणं प्रहीणं वा। भग० ८६ । पहेणाए-प्रहेणकार्थम् । आचा० १३० । प्रहीण:-किचित्सत्तावन्तः । ठाणा० २९४ । प्रहीनं प्रहेरक:-आभरणविशेषः । प्रश्न. १५६ । प्रकर्षण हानि गतम् । प्रक्षोणम् । उत्त० ५६६ । पहेलिअ-प्रहेलिका-गूढाशयपद्यम् । ज० प्र० १३८ । पहोणगोत्तागार-प्रहीणगोत्रागार-प्रहीणं वीरलीभूतमानुषं | पहेलिय-द्वाविंशतितमकला । ज्ञाता० ३८ । गोत्रागारं तत् स्वामिगोत्रग्रहम् । भग० २०० । पहोइज्ज-प्रकर्षण वा हस्तादेविनं कुर्यात् । आचा. पहीणजरमरण-प्रक्षीणजरामरणः कारणाभावात् । आव० ३४२ । ५०७ । पांडुराया-मायाहता । भक्त० । पहोणमग-प्रहोणमार्गम् । भग० २०० । पांशुक्षारः-उषः । दश० १७० । पहोणसंसार-प्रवीणसंसार:-प्रहीणचतुर्गतिगमनः । भग० पांशुपिष्टः । ठाणा० ४७७ । पांसुलि-पांशुलिका-पाङस्थि । अनुत्त० ५ । पहोणसंसारवेयणिज्जे-प्रक्षीणसंसारवेदनीयः । प्रक्षीण- पाइ-पात्री-अयोमयं भाजनम् । सूत्र० ३४० । संमा वेद्यकर्मा । भग० १११ । पाइक्क-पदातिः । प्रपन. ४८ । पहोणसामिय-प्रहीणस्वामिक-स्वल्पोभूतस्वामिकम् ।भग० पाइक्कबलं चउम्मले पढमं । नि. चू० प्र० २७२ । २०० । पाइण-प्राची पूर्वः । दश० २०१। पहीणसे उय-पहीणसे चक:-प्रहीण:-अल्पी भूतः सेक्ता- | पाइणण-तुत्तगो। आव० ७६७ । से चक:-धनप्रक्षेसा । भग० २०० । पाइणवाय-यः प्राच्या दिशः समागच्छति वातः स पह-नेता स्वामी । आव० ६६१ । प्राचीनवात: । प्रज्ञा० ३० । पहच्चमाण-पर्याप्यते । ओघ० १७३ । पाइल्लक-कटकरणम् । विशे० १२५६ । पहुट्ठो-प्रकर्षेण दृष्टः प्रहृष्टः प्रहसतिमनः । नि• चू० प्र० पाइल्लग-नूपुरविशेषः । उत्त• १६५ । २०. आ। पाई-पात्री । जीवा० २१३ । प्राची-पूर्वादिक् । दश० पहुप्पंति-तत्तदनुष्ठीयते । प्रोष० १०२ । २०१ । पात्री । ज. प्र. ४१० । पात्री । ज० प्र. । ओघ० १५२ ।। २ । पहप्पति-प्रमवति- समर्था भवति । दश० १०७। पाईओ-पायो । राज० ७० । ( ६९६ ) पहुप्पइ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशम्दकोषः, भा० ३ [ पाउसिया पाउणति प्रापयति- पूरयति । औप० ६२ । प्राप्नुवति । प्रश्न० ६६ । २०७ । पाउंणिज्जति प्राक्रियते प्रावायंते । आव ० ६३१ । परिभुंजति । नि० ० ० ८६ मा । पाईणवडीणा - पूर्वपश्चिमम् । ज्ञाता ६६ । पाईणवाय-य: प्राच्या दिशः समागच्छति वातः सः पाउणित्ता प्राप्य । सम० ७२ । पालयित्वा । उपभुज्य । प्राचीनवातः । जीवा० २६ । पाउं पातुं - अभ्यवहर्तुम् । आचा० ४७ । पातुं पीरवा । पाण ] पाईण- प्राचीनं पूर्वा । ज० प्र० ६६ । पाईन दाहिणं - प्राचीन दक्षिण - पूर्वदक्षिण दिगन्तरम् । भग० आबा ३३० । पाउंछण प्रादप्रोछतम् । ठाणा० ३३० । १५० । पाउ - प्रादुः - प्राकाश्यम् । भग० १२७ । प्रादु: - प्राकाश्ये । अनु० २३ । पाउता - प्रावृत्ता - प्रमाणातिरिक्तमहा मूल्यवस्त्राच्छादितवपुष बृ० ० २५३ आ । पाउआउ - पादुके । आव० ३६० । पाउआओ-पादुके, पादत्राणे । ज० प्र० १५७ | आजाय - पादुकायोगः - पादुकायुगम् । औप० ६६ । पाउआणालिया - पादुकानालिका । आव० ३६० । पाउओ - प्रावृतः । आव ० ११७ । पाउकरणं - प्रादुः क्रियते-अन्धकारापवरकादेः साध्वर्थं बहिः करणेन दीपमत्यादिधरणेन वा प्रकाश्यते यत्तत् प्रादुष्करणं अशनादि । प्रभ० १५४ । पाउक्त्त प्रयुक्तं- माणिक्य युक्तकरणम् । औप० ५५ । पाउन्भवत्तिए। ज्ञाता० ३१ । पाउदभवज्ज - आगताः । भग० ६५६ । पाउभाव - प्रादुर्भाव:- आगमनम् । सम० १२३ । पाउय - प्रावृत्तम् । ओघ० ५५ । पाउयापाउर - प्रादुः- प्रकटं प्रत्युपेक्षणयोग्यमशुषिरम् । आचा० । भग० ११३ । २६३ । पाउकरे - प्रादुष्कृत्य- कांश्चिदर्थतः कांचन सूत्रतोऽपि प्रकाश्य प्रज्ञाप्य । उत्त० ७१२ । प्रादुष्करोमि - प्रकटीकरोमि - पाउरण प्रावरणं वर्षाकल्पादि । उत्त० ४३२ । प्रावरप्रतिपादयामीति । उत्त० ४४६ । णीयं- अजिन निष्पन्नं वस्त्रम् । आचा० ३९४ । पाउक्करिस्सामिप्रादुष्करिष्यामि उत्पादयिष्यामि । पाउल्लाइं-मोजे काष्टपादुके वा । सूत्र० ११८ । पाउदाउं- पादोदकदायिका पादशोचदायिका । ज्ञाता० उत्त० २० । | पाउग्गं - प्रायोग्य आहारपानीयादिकम् । आव० ७०० (?) । प्रायोग्यं नाम समाधिकारकम् । नि० चू० प्र० १०१ बा । ओसहं भत्तं पाणं वा । नि० चू० प्र० ३३४ अ । उग्गम उप्पादण सणाहि सुद्धो । नि० ० प्र० १६७ अ । प्रायोग्यो- अप्रतिहार्यः । व्य० (१) । गुरुमादीपुरिसविभागेण जोग्गो सो । नि० चू० प्र० १६७ अ । पाउड- प्रावृत्तः - छादितः । आचा० १२७ । प्रावृत्तः गुण्ठितः । आचा० ११३ । ज० प्र० १५८ । पाउणिस्सामि-प्रावरिष्यामि । आचा० २४४ । पाउणीओ प्रावृत्तः । नाव ६३१ । पाउणेज्ज -प्राप्नुयात् । भग० २७३ । प्राप्नुयात् । ठाणा ११७ । पाउस - प्रावृड्-आषाढभावणी । ज्ञाता ०६३, १६० । आसाढो सावणो य दो मासो । ( ? ) । प्रावृड् । सूर्य ० २०९ । प्रावृड्-आसाढो सावणी सावणो भद्दवओ वा । वृ० द्वि० ७७ आ । प्रावृट् श्रावणादिः । भग० ४६२ । पाउ सिआ - प्रद्वेषो-मरस रस्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी । सम० १० । पाउसिए - प्रदोषिक-प्रकृष्टदशेषम् । आचा० ४२५, ४२८ । प्रकृष्टदोषं प्रदोषिकम् । बाचा० ४२५ । पाउण - प्रावृत्य | ओघ० ३४ । पाउणइ प्राप्नोति । औप० ११३ । प्राप्नोति अयोगता पाउसिया- प्रद्वेषः - मत्सरतत्र भवा तेन वा निर्वृत्ता स । प्रायभिमुखो भवति । प्रज्ञा० ६०९ । एव वा प्राद्वेषिकी । भग० १५१ । प्रद्वेषो-मत्सरस्तेन ( ६९७ ) ( अल्प० ८८ ) Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाऊय] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः पाखिए - निर्वृत्ता प्रादेषिकी । ठाणा० ४१ । प्राद्वेषिकी-पञ्चविध. १७४ । पाक:-बलवान् रिपुः । ( ? ) ३८८ । पाको क्रियायां नृतीया । प्रज्ञा० ४३५ । प्रद्वेषः मत्सरस्तेन नाम बलवान् । उपा० २६ । पाक:-बलवान् रिपुः । निर्वृत्ता क्रिया प्राषिकी । आव० ६११ । प्रद्वषः- प्रज्ञा० १०१ । मृगेषु दुष्टभावस्तेन निर्वृत्ता प्रापिकी । भग०६३ । पागइय-प्राकृतिक:-प्रकृतीनां मध्ये यः । ओघ १२० । पाऊय-प्रावृत्तम् । उत्त० १०५ । पागट्ठी-प्राकर्षी-प्रकर्षको अग्रगामी । ज्ञाता० ६३ । . पाए-प्रगे-प्रभृति । बृ० प्र० २४१ अ । पागड-प्राकृत:-अनतिशायी । सूर्य० २७४ । प्रगट:-जगत पाएस-प्राचारप्रकल्पस्य पञ्चदशो भेदः । आव० ६६०।। प्रतीतः । ज.० प्र० १८४ । प्रकट: । मर० । पाएसरोया-पात्रकेसरिका-मुवत्रिका । ओघ० ११८ । पागडभाव-प्रकटभावः-निर्मायता । प्रभ० १५८ । पात्र केसरिका पात्रकमुखस्त्रिका । ओघ०११७।। पागडा-चरणमालिका-संस्थानविशेषकृतं पादाभरणम् । पाएसा- आचाराले पञ्चदशममध्ययनम् । सम० ४४ । ज.प्र. १०६ । आचाराङ्गस्य पञ्चदशममध्ययनम् । स्त्त० ६४७ .?| पागत-प्राकृतः । आव० १९२ । पाओअर-प्रादुः-प्रब टत्वेन देयस्य वस्तुनः करण प्रादुष्क- पागतितो-छिराते हातो. राउलवग्गस्स अबकतितो पागरणम् उपचारात् भक्ताद्यपि, सप्तम उद्गमदोषः । पिण्ड ० यजणस्स हरंति उ पातितो । नि.चू० द्वि०३८ आ। २४ । साधुनिमित्तं मण्यादिस्थापनेन भित्ताद्यपनयनेन पागय-प्राकृतः-अनतिशायी । जीवा० ३३६ । प्राकृतंवा प्रादुः-प्रकट त्वेन देयस्य वस्तुनः करण प्रादुष्करणं, भोजनम् । ओघ० ७२ । प्रकृतिषु भवः-प्राकृतः । तद्योगोद्भक्ताद्यपि प्रादुष्करणं यद्वा प्रादुः-प्रकटं करणं आव० २३६ । यस्य तत् प्रादुए। रणम् । पिण्ड० ३५ । पागसासग-पाको नाम बलवान् रिपुः स शिष्यते-निरा. पाओउक्खितो-पाद उत्क्षिप्तः-प्रतिज्ञा कृता। आव०४३३॥ क्रियते येन सः पाकशासन: इन्द्रः । प्रज्ञा० १.१ । पाओगिअं-योगेन निर्वृत्तं प्रायोगिकम् । आव . ४५७१ पाको नाम बलवान् रिपुस्तं यः शास्ति निराकरोत्यसो पाओग्ग-प्रायोग्यम् । श्राव. ३४७ । स पाकशासन:-इन्द्रः । भग० १७४ । पाक:-बलवाद पाओवगत-पादपवत उपगतो-निश्चेष्टतया स्थितः पाद- रिपुः स शिष्यते-निराक्रियते येन सः पाकशासनः इन्द्रः। पोपगत:-अनशनविशेष प्रतिपन्नः । ठाणा० २३७ । जीवा० ३५५ । पाओवगमण-पादयनिस्पन्दतयाऽवस्थानम् । भग० ६२१ पागसासणि-पाकशासनी-इन्द्रजालसंज्ञिका विद्या । सूत्र नियमादप्रतिकर्म-शरीरप्रतिक्रिगवजं पादपोपगमनम् । ३१६ । ठाणा०६४ । पादपस्योगमनं-अस्पन्दतयाऽवस्थानम् पागार-प्राकार:-वप्रः । भग. २३७ । प्राकारः, शालः । पादपोपगमनम् । और० ३८ । पादपोपगमनं. मरणस्य प्रज्ञा. ८६ । प्राकारः । जीवा० २५८, २६६ । सप्तदशो भेदः । उत्त० २३० । . प्राकार:-वप्रः । ज० प्र० १०६ । प्राकार:-शालः । पाओवगमणमरण-पादवस्येवोपगमनं-अवस्थानं यस्मिन् प्रश्न. ८ । प्रकर्षण मर्यादया च कूर्वन्ति तमिति प्राकार: नत् पादोपगमनं तदेव मरणम् । सम० ३५ । धूलीष्टकादिविरचितः । उत्त० ३११ । ज्ञाता०६४ । पाओवगय-पादोपगत:-पादो-वृक्षस्तस्य भूगतो मूलभाग-पागारछाया- प्राकारछाया । सूर्य० ६५ । स्त येवाप्रकम्पतयोपगतं-प्रवस्थानं यस्य सः । ज.प्र.पगारजढं-प्राकारजढं प्राकाररहितम् । आय. २३४ । २८० । ज्ञाता० ७४ । पागारसंठिय-प्राकारसास्थतः । सूर्य १३० । पाओसिया-प्रादोषिका प्रदोषकाले भवा पौरुपी सूत्रपौरुषो।पागारा-प्राकारा । आचा० ३३७ ।। ओघ २२ । पाजावच्चे-प्राजापभ्यः स्थावरकायविशेषः । ठाणा०२६२ । पाग-पाक:- एतन्नामा इन्द्रस्य ब वान् रिपुः । भग. 'पाजिए-प्रानिका-प्रापिका मातृमातुः पितृमानुर्वा माता। ( ६९८ ) Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाडिहर नंगरी । नि० चू० वि० १०२ अ । पाटलिपुत्रं - योगसंग्रहेऽनिश्वितोपधानदृशन्ते नगरम् । आव ० ६६८ । पाटलिपुत्र- वनयिकी बुद्धिदृष्टान्ते ग्रन्थिविषये मुरुण्डराज - घानी । बाव० ४२४ । पाटलिपुत्रं - आचारोदाहरणे नगरम् । आव ० ७०७ । पाटलिपुत्र - प्रशंसाविषये नगरम् । आव ० ८१७ | पाटलिपुत्र- गुणोदाहरणे नगरम् । आव० ८१९ । अशोकचन्द्रराजधानी । गृ० प्र० ४७ अ० । अशोकनृपस्य नगरम् । नि० ० तृ० ४४ था । नि० ० प्र० २४३ अ । पाटलिपुत्रं - घनश्रेष्ठिनगरम् । आव० २९३ । पाटलीपुत्रं - मगदविशेषः । यत्र जितशत्रु राजा, लोभे च लुब्धनन्दो वणिक् । आव ३९७ । पाटलिपुत्र- शिल्प सिद्दष्टान्ते जितशत्रु राजधानी । आव० ४०६ । पाटलिप परिणामिकी बुद्धिदृष्टान्ते नगरम् । आव० ( ? ) ४३३ । पाडलिसंड- पाटलिसण्डं - सुपार्श्वनाथस्य प्रथमपारण कस्थानम् । आव ० १४६ । पाडव। नि० चू० प्र० २७४ अ । पडि प्रतिविशिष्टं - असाधारणम् । राज० ३ । पाडिऊण- पातयित्वा । आव० ३५४ । पाडि एक्कं एकमात्मानं प्रति प्रत्येकं पितुः फलकाद्भिन्नमित्यर्थः । भग० ६६१ । पाडिक्कएणं- एकं जीवं प्रति गतं यच्छरीरं प्रत्येक शरीरनामकर्मोदयात् तत्प्रत्येकं तदेव प्रत्येककम् | ठाणा० १६ । विपा० ४२ । पाडल - चतुर्दशतीर्थंकर चत्यवृक्षः । सम० १५२ । पुष्प- पाडिच्छ्गा - सूत्रार्थग्रहणार्थ- ये प्राचार्य समीपमागच्छन्ति । विशेषः । दश० १७४ । बोध० १३६ । पाडियक्क-पृथक - विभिन्नम् । निरय० ३३ । प्रत्येकम् । पाडलपुड। ज्ञाता० २३२ । पाडलय-पाटल:- कथाकथकस्ता लाचारः । उत्त० १३४ । बाडलसंड-पाटलखण्डः, सिद्धार्थ राजधानी । विपा० ७४ । पाडला - गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । पाटला गौविशेषः । पाञ्चजन्य ] दश० २१६ । पाञ्चजन्य- वासुदेवस्य शङ्खः । उत्त० ३५० । विष्णुशङ्खः । प्रश्न० ८८ । शङ्खविशेषः । प्रभ० ७७ । शङ्ख विशेषः । सम० १५७ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ पाटक । बोध० १४६ । पाटनम् - । आव० ५६८ । । पाटल - वृक्षविशेषः । जीवा० १६१ पाटला- पुष्पजातिविशेषः । ज्ञाता० २३१ । पाटलिपुत्र - नगरम् । भग० ३२ । वसतिदृष्टान्ते नगरम् । अनु० २२५ । पाटलिपुर - मरुण्डराजराजधानी । नंदी० १६२ । पाटलीपुत्र - मौर्यवंशीय शोकश्री भूपनगरम् । विशे० ४० ६ । नगरम् । उत० ७९ । पाटीगणितं - गणितविशेषः । ठाणा० ४६७ । पाठ-पठनं पाठः, पठ्यते वा व्यक्तीक्रियते तदिति पाठः । विशे० ५६१ । संमूच्छिमत रुजीवः । आचा० ५७ । पाठक - सूत्रधरः पृच्छति प्रश्नयति सूत्रादिव्याकरोति ब्रूते तदेवेति । ठाणा० १६७ । पाठान्तर - वाचनाभेदः । जं० प्र० ८७ । पाठीण पाठीन:- मत्स्यविशेषः । प्रश्न० ७ । पाडंतिय-प्रतिश्रुतिकं - द्वितीयोऽभिनयविधिः । जीवा० २४७ ॥ पाडग - घरपंती | वाडग । नि० चू० प्र० १८७ अ । पाडणा-येरुपायैरखण्ड एवं गर्भः पतति सा पातना । आव० ६८ । पाडलावासि-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ । पाडलिपुत्त - पाटलिपुत्र क्षितिप्रतिष्ठितस्य षष्ठं नाम । उत्त० १०५ । पाटलिपुत्रं दक्षिणापथे नगरम् । दश०४४ । पाटलिवृक्षोत्पत्तिस्थानम् । भग० ६५३ | चन्द्रगुप्तनृपते व्य० द्वि० २०६ आ । पाडियाओ- उत्तरीयवस्त्राणि । भग० ६६३ । पाडियाछगण नि० चू० प्र० ३५६ आ । पाडिवहिया - प्रातिपथिकाः समुखाः पथिकाः । आचा० ३८२ । पाडिवेसिअ - प्रातिवेश्मिकः । बोध० १९४ । पाडिस्सुइअं - प्रानिश्रुतिकं अभिनय विशेषः । जं०प्र०१२ ॥ पाडिहर-प्रातिहार्यम् । दश० ४८ । ( ६९९ ) Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहिहारिक । आचार्यश्रोमानन्दसामरसूरिसङ्कलित: [पाणगार पाडिहारिक-प्रत्यार्पणीयः । नि० चू० प्र० १६७ था। पाढामिए-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०४ । पाडिहारितं-गिहिसंतिय उवकरणं पडिहरणीयं पाहिहा- पाढो-पाठी यः सकलं वाहडादि पठति स । पाठो-सकलं रितं । नि० चू. प्र. ७३ आ । प्रतिहियते-प्रति- वाहडादि पठति स । ओघ० ४२ । नीयते यत्तत्प्रतिहारप्रयोजनत्वात् प्रातिहारिकम् । ठाणा० | पाढेह-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०४ । पाणंधि-(दशीपदं ) वत्तिली । व्य० प्र० १७७ आ । पाहिहारिय-प्रत्यर्पण तदहं प्रातिहारिकम् । बृ• तृ० | पाण-पानं-सुरादि । सूर्य० २६३ । पानम् । आव० २६ अ । अधुवं । नि० चू० द्वि० ११७ आ । प्राति । ११५। पानं-मद्यम् । प्रभ० १६३ । पानं-पेयमुदकादि । हारिक:-पुन: समर्पणीयः । राज. १२८ । प्रातिहाकि आव० ८१६ । अनु० २१७ । चाण्डालः । आव० ४.१ । पुनः समय॑णीयम् । ज्ञाता० १०७ । चाण्डाल: । व्य० प्र०५२ अपाण:-चाण्डाल: । आव० पाडिहारेय-प्रतिहारिक:-सागारिकभुक्तशेषः। व्य० द्वि० ७१७ । पाण:-मातङ्गः । आव० ७४३ । पाण:३३६ आ । | भाजन विशेषः । बनु० ५। पान:-यायामादि । उत्त० पाडिहेर-प्रतिहारो-दौवारिकस्तद्वत्सदा सनहितवृत्तिर्देव. २६६ । पानं-द्राक्षापानादि । आव० ८११ । गुल्म. ताविशेषोऽपि प्रतिहारस्तस्य कर्म तिहार्यम् । उत्त० विशेषः । प्रज्ञा० ३२ । मातङ्गः । ठाणा० २६४ । ५४ । प्रातिहार्यम् प्राव० २६५ । चाण्डालः । भग० १६४ । उड्रम्बरः। व्य० द्वि० २४७ पाडिहेराई-प्रातिहार्यानि- यथाभिलषितार्थोपढोकनलक्ष. अ । पान-सुरादि । भग० ३२६ । पोयते तत् पानं णानि । बृ० दि० २६७ अ । मृद्वीकापानादि । दश० १४६ । उच्छ्वासनिःश्वासो य पाडिहेरिए-प्रातिहारिकं भूयोऽप्यस्माकं प्रत्यर्पणोयम् । इति गम्यते एषः प्राणः । जं० प्र०६० । गुच्छाविशेषः । बृ० दि० २०० आ। प्रज्ञा० ३२ । पानं-धान्यरससंस्कृतं जलम् । उपा० २२॥ पाडुच्चिया-बाह्यवस्तु प्रतीत्य-आश्रित्य भवा प्रातीत्यगी। पानं-सुरादि । ठाणा० ११६ । पानं-आचाम्लादि । ठाणा० ४२ । जीवादीन् प्रतीत्य या । ठाणा० ३१७। उत्त० ५२४ । पीयत इति पानं वर्जूररसादिः । उत्त. प्रातीत्यिकी-विंशतिक्रियामध्येऽष्टमी । आव० ६१२ ।। ६.७ । प्राणिः-द्वीन्द्रियादिः । दश० १५६ । पाडेड-पातयति निर्यातयति । ० तु. १४६ अ। पाणइवाइए । आचा० ४२५। पाडेक्क-प्रत्येक-एक कशः । औप० ६१ । पाणक्कमणं-द्वीन्द्रियादित्रसप्राणिनां आक्रमण-पादेन पोडनं पाढ-पाठ:-पठनं पठ्यते वा तदिति पाठः, पठ्यते वाऽने- | प्राण्याकमणम् । आव० ५७३ । नास्मादस्मिन्निति वाऽभिधेयमिति पाठः व्यक्तीक्रियते । पाणक्खय-प्राणक्षयः-बलक्षयः । १९७ । इति । आव० ८६ । पाणग-पानक-द्राक्षापानकादि । सूर्य० २६३ । पानकपाढट्टिओ-पाठार्थी । ओघ० ६५ । द्राक्ष.पानकादि । प्रश्न. १६३ । पानक-काञ्जिकम् । पाढव-पार्थवमिव पार्थिव शीतोष्ण दिपरिषहसहिष्णुतया पिण्ड, १७ । पानक-द्राक्षापान दि प्राणानां-इन्द्रिया. समदुःख सुख तया च पृथिव्यामिव भवं पार्थिवम् । उत्त.. दिलक्षणानामुपग्रहे-उपकारे यद् वर्तत इति तत् । (?) । १८६ । पृथिव्या विकार: पार्थिवः, स चेह शेलः, ततश्च पानक-द्राक्षापानकादि । भग, ३२६ । जलविशेषः । शैलेशोगप्त्यपेक्षयाऽतिनिश्चिलतया शैलोपमत्वात्पर. भग० ६८४ । पानक-आचाम्लम् । ओघ० १३३ । सिद्ध्या वा पार्थिवम् । उत्त० १८६ ।। पानक-द्राक्षापानकादि । ठाणा० ११६ ।। पाढा-पावारणबादरवनस्पतिकाय विशेषः । प्रज्ञा. ३४। पाणगजाय-पानकजातं-पानीयसामान्यम् । आचा० ३४६॥ पाठा-वनस्पतिविशेषः । प्रज्ञः ३६४ । पानकाक्षणिकम् । ओघ० १०४ । पाढणं- देशविशेषः । भग ६८० । पाणगारं-जस्थ पाणियाम्म तो सुरामधुपीधूखंडगं मच्छं. ( ७००) Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणगोरि अल्पपरिचितसवान्तिकशम्बकोषः, मा० ३ [पाणाई डियमुद्दियापभित्तीणि पाणगाणि । नि० चू० प्र० २७२ कुथु जा चलमाणावि नाविज्जइ ठिग दुन्विभवो एवं आ। तं । दश० चू० १२१ । पणगोरि-कलालावणे । नि० चू० तृ० ६६ आ। पाणा-प्राणा:-सत्त्वाः । आचा० ३६ । प्राणा:-द्वित्रिचतुपाणजाइया-प्राणिजातयः-भ्रमरादिकाः । आचा० ३०२१ रिन्द्रियाः । जं. प्र. ५३९ । ये ग्रामस्य नगरस्य च पाणत-एकोनविंशतिसागरोपमस्थिकदेवविमानम् । सम. बहिराकाशे वसन्ति तेषां गृहाणामभावात् प्राणा । व्य ३७ । प्र. २८५ । प्राणा:-द्वीन्द्रियादित्रसा: । प्रश्न. १५७ । पाणपोय-प्राणप्रीत:- उश्वाच्छवासादिप्राणप्रियः प्राणपीत: प्राणाः-द्वीत्रिचतुरिन्द्रियाः । प्रज्ञा० १०७ । प्राणा:भक्षितप्राणः । प्रश्र० ५९ । हूँ न्द्रियादयः । प्रशा० ४३५ । ये ग्रामस्य नगरस्य च पाणभोयणविपरियासिया-पान भोजनवैपर्यासिकी-रात्री बहिराकाशे वसन्ति तेषां गृहणामभावात् । व्य० प्र० पानभोजनपरिभोग एव तद्विपर्यासः । प्राव० ५७५ । २३१ अ । प्रकर्षणानन्तीति-श्वसन्तीति प्राणा:पाणभोयणा-प्राणिनो-रसजादयः भोजने दध्यौदनादौ द्वीन्द्रियादयः । उत्त० ३७० । हृष्टस्य अनवकल्पस्य सङ्गट्टयन्ते-विराध्यन्ते व्यापाद्यन्ते वा यस्यां प्राभूतिकायां निरुपक्लिष्टस्य च जन्तोरेक-उच्छवासयुक्ता नि:श्वासाः सा, प्राणिभोजना । आव० ५७५ । प्राणा: । अनु. १७६ । द्वीन्द्रियादयः। ठाणा० १३६ । पाणमंति-प्राणन्ति । भग, १९ । “णमु प्रहत्त्वे" इत्ये. प्राणा:-पृथव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाश्चे. तस्याऽनेकार्थत्त्वेन श्वसनार्थत्वात् प्राणमन्ति । भग० १६ । न्द्रियबलोच्छ्वासनिश्वासायुष्कलक्षणप्राणधारणात प्राणाः । प्राणन्ति अन्तःस्फुरन्तो निःच्छ्वासकियां कुर्वन्ति । प्रज्ञा० आचा० १७६ । प्राणा:-प्राणिनः । आचा० ३४० । २१६ । प्राणा:-उच्छ्वासादयो बलं वा । ठाणा० ३६० । जातिपाणयं-प्राणमन्ति-द्विपृष्ठवासुदेवागमनम् । आव० १६३ ।। जंगितविसेसो । नि० चू० द्वि. ४३ आ । मातङ्गा। टी० । बृ० तृ० १५२ अ । मातङ्गा । नि० चू० तृ० ७२ पाणया-प्रानता:-कल्पोपपन्नवैमानिकभेदः दशमवैमानिकः। आ। प्राणा-"द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः" । ज्ञाता० ६० । प्रज्ञा० ६६ । प्राणिन:-द्वित्रिचतुरिन्द्रियः । आचा० ७१ । प्राणा-प्राणीपाणयाडिसए-प्राणतावतंसक:-प्राणतदेवलोकस्य मध्ये द्वीन्द्रियादिवसः । आव० ५७३ । प्राणिन:-पृथिव्यादयः । ऽवतसकः । जोवा० ३६२ । ओघ । प्राणिन्-दविधाः प्राणा: विद्यन्ते येषां ते पाणवत्तियाए-प्राणसंधारणार्थम् । ओघ. १८९ । . प्राणिनः ते । सामान्यतः संज्ञिपंचेन्द्रियाः । आचा, पाणवह-प्राणवध:-प्राणिघातः । प्रश्न. ५ । २५६ । । पाणवाडग-चाण्डालपाटकः । उत्त० २६३ । पाणाइवाए-प्रथमं पापस्थानकम् । ज्ञाता० ७५ । पाणविक । प्रभ. ६. । | पाणाडवाओ-पाणाणमइवाओ तेहि पाहि सह विसंजोगआणविहि-पानविधि दकमृत्तिकालया प्रसादितस्य सहज. करणं । दश. चू० ६५ अ । निमलस्य तत्तत्संस्कारकरणं, अथवा जलपानविधि जल पाणाहवाय-प्राणा:-इन्द्रियादयः तेषामिति पातः प्राणातिपानविषये गुणदोषविज्ञानम् । ज० प्र० १३७ । पात: जीवस्य महादुःखोत्पादनम् । दश० १४४ । । पाणसाला-जत्य उदगादिपाणं सा । नि० चू० प्र० २७२ पाणाइवायकिरिया-प्राणातिपातक्रिया - प्राणातिपातविआ । षयाक्रिया। आव०६१२ । प्राणातिपातिकी-प्राणातिपाणसिव । नि० चू० प्र. ८ आ। पातः प्रसिद्धस्तद्विषया क्रिया प्राणातिपात एव वा क्रिया पाणसुहुम-प्राणिसूक्ष्म-अनुदरिः कुन्थुः । दश० २३० ।। प्राणातिपातक्रिया । भग० १८१ । प्राणसूम -अनुरि: कुन्थुः । ठाणा० ४३ । अणुधरी पाणाई-पानकादि । ओष० ११४ । (७०१) Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणा आचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कुलितः [पादपुंछण पागाउ-द्वादशमं पूर्वम् । ठाणा० १९६ । अत्र प्राणि | पाण्डकम्बला-शिलाविशेषः । सूर्य० ७८ । नामायुविधान-सभेदमभिधीयते तत् प्राणायुर्दादशं पूर्वम् । पाण्डकवनं-अचलेन्द्र निस्थितं वनम् । आव० ४७ । सम० २६ । पाण्ठमथुरा । ठाणा० ४३३ । पाणाउपूव्वं-प्राणा-जीवा आयुश्चानेकधा वर्णन्ते तत्प्रा- | पादरतलहम्य । जीवा० २६६। णायु:- द्वादश पूर्वम् । सम० २६ । पाण्डुराजः-हस्तिनागपुरपतिः युधिष्ठिरादिपिता । प्रश्न पाणाऊ-प्राणायु-प्राणा: पञ्चेन्द्रियाणि श्रोणि मानसा- | ८७ । दीनि बलानि उच्छवासनिश्वामी चायुश्च ततो यत्र प्राणा | पाण्डू-पाण्डुमृत्तिकानाम देशविशेषे या धूलीरूपा पाण्डू आयुश्च सप्रभेदमुपवर्ण्यन्ते तदुपचारतः प्राणायुः । द्वादशम इति प्रसिद्धा । प्रज्ञा० २६ । पूर्वम् । नंदी० २४१ । पात-पातः । सूर्य० १०८ । पात्र-भाजनम् । उत्त० पाणागार- नागार-मद्यगेहम् । ज्ञाता० ७९ । २६५। विपा० ५२ । पातकहत-पातकेन-ब्रह्महत्यालक्षणेन मातापित्रादिपातक. पाणाच्चए-प्राणात्यये- प्रत्यर्थम् । ओघ० १६५। लक्षणेन वा हत: पातकहतः। व्य० प्र० ७मा । पाणाणकंपा-प्राणानुकम्पा-दयाप्रकर्षः । ज्ञाता० ६६ । पातन-गालनम् । निरय० ११ । पाणाम । भग० १८६ । पातनिका-अवतरणम् । नंदी. ८५ । पाणामा.पणामिको । आव० २१३ । भग० १६१।। पाताल-पातालकलशः । अनु० १२१. १७१ । पाणावली-भाजनविशेषावली । अनुत्त० ५। पाताललङ्कापुरं-खरदूषणसम्बन्धिपुरम् । प्रभ० ६ । पाणि । ज्ञाता० ३६ । पाति-नृपः । नि० चू० प्र० २४३ आ । पाणिक्खय-प्राणिक्षय:-गवादिक्षयः । ज० प्र० १२५ । पातीणगामिणी प्राचीनगामिनी । आव० २२७ । पाणिरत्तं-प्राणिपात्रम् । आव० १६१ । पात्र:-अभिनेतव्यप्रकारः । ज० प्र०२६३ । पाणिपरियावन्ना-पाणिपर्यापनां-हस्तस्थिताम् । आचा. पात्रकर्णम्-ओघ १४ । ३५७ । पात्रकल्पिक:-कल्पिके भेदः । ६० प्र० १०८ अ । पाणिपिता-प्राणिपेयः-तटस्थप्राणिपेया नदी। दश० २२० पात्रपरिकरः-पात्रनिर्योगः । ओघ० २०८ । पाणियमंचिता-पानीयमञ्चिका । आव० ८४५ । पात्री-भाजन विधिविशेष: । जीवा० २६६ । पाणियमंडुक्को पानीयमण्डूकः । आव० ६४१ ।। पाद-पादा-षडङ्गुलप्रमाणः । भग० २७५ । प्रात:पाणी-वल्ली विशेषः । प्रज्ञा० ३२ । चाण्डाली । उत्त. | प्रभातसमः। सूयं ४५। पादो-वृत्तपाद: । ठाणा० ३६७ । पादकाचनिका-पादधावनयोग्या काञ्चनमयो पात्रो । पाणीय-पानीयं-जलम् । ठाणा० ११६ । पानीयं-जलम् । जोवा० २६६ । सूर्य० २६३ । पानीयं-जलम् । प्रभ० १६३ । पानीयं- पादकेसरिया-पात्रकेसरिका-पात्रप्रमार्जनपोतिका । प्रश्न. बलम् । भग० ३२६ । १५६ । पाणीपाय-पाणिपात्रः । आव० ३२३ । पादठवणं-पात्रस्थानं यत्र कम्बलखण्डे पात्र निधीयते । पाणु-प्राण:-मनुष्यादेरेक उच्छ्वासेन सह निःश्वास उच्छ्- | प्रश्न १५६ । वासनि:-श्वासः य इति गम्यते एषः प्राण इत्युच्यते । पादददरयं-पाददर्दरकं पादेन भूम्यास्फोटनरूपम् । जं० प्र० भग० २७६ । ४१६ । पाणू-णासो । दश• चू० ५४ छ । पादपीठं-पासनविशेषः । उत्त० ४ ३ । पाण्ड:-राजाविशेषः मायारहितः । सूत्र० १७३ । पादपुंछण-पट्टयदुनिसिज्जवज्जियं रओहरणं । नि०चू प्र. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादपोपगमन] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [पायच्छित्तं - १२६ आ । पादपुञ्छनं-पादकम्बलम् । उत्त० ४३४ । उद्यतकं यद्गृह्यते तत् । सूत्र० १८० । अपमित्यकपावपोपगमन-अभ्युद्यतमरणम् । विशे० १० । अनशन- उद्यतक-उच्छिन्नम् । प्रश्न० १५४ । प्रापित्य-साध्वर्थविशेषः । ठाणा० ५८ । अनशनभेदः । ठाणा० ३६४ । मुच्छिद्य दानलक्षणम् । दश० १७४ । अपमित्यकतत्र हि सव्याघाताव्याघातभेदतो द्विभेदेऽपि पादपवनिश्चे. साध्वर्थ मुद्धारगृहीतम् । ठाणा० ४६० । अपमित्यं-भूयोऽपि टतयव स्थीयते अविचारं अनशनभेदः । उत्त० ६०२ । तव दास्वामीत्येवमभिधाय साधुनिमित्तमुच्छिन्नं यद् गृह्यते पादबंधण-पात्रबन्धनं पात्रबन्धः । प्रश्न० १५६ । भक्तादि । नवम उद्गमदोषः । पिण्ड • ३४ । पावबन्धकतन्तुः-जलचरजन्तुविशेषः । पिण्ड० १०२ । | पामिच्चित्तं-उच्छिण्णं । नि० चू० तृ' ६३ अ । पादमूलिया-पिडिंगरा । नि० चू० द्वि० १४४ अ । पामिच्चेइ । भग० ४६६ । पादलिप्तसूरिः-मुरुण्डेनोपलक्षितसूरिः। पिण्ड ० १४१।। पामिच्चेति-उच्छिण्णं । नि० चू० द्वि० १०४ अ । पादलिप्ताचार्या:-पाटलिपुरे आचार्यविशेषः । नंदी० पामूलं-पादमूलम् । आव० ३६१ । पादमूलम् । भक० पामोक्ख-उत्तर-आक्षेपस्य परिहारः । ज्ञाता० १४६ । पादसमा-पादसमया उच्छ्वासा-यावद्भिः समयः पादो पायंक-पादाङ्क-मुद्राविशेषः । प्राव० ४३२ । वृत्तस्य नीयते तावत्सपया उच्छ्वासा गीते भवतीत्यर्थः। पायंचणिउ-पादकाचनिका पादधावनयोग्या काञ्चनमयी • ठाणा. ३९४. ३९६ । पात्री । ज• प्र० १०१ । पादा- मूलं । दश० चू. ५ आ । पाय-पाद:-आसन्नलघुपर्वतः । ज्ञाता० ३५। षडङ्गुलानि पादाद्याक्रमणम्-आगमनम् । उत्त० १५६ । पादः, पादस्य मध्यतलप्रदेशः, अथवा पादो-हस्तचतुर्थांशः। पादीणवाह-प्राचीनवाहः सरस्वत्त्याः पूर्वादिग्वाहः । ज० प्र. ६४ । प्रात:-प्रभातः । उत्त० ३७० । पाद:वृ० द्वि० १३६ अ । श्लोकपाद: । आव० ७६७ । पाद:-षडङ्गुलानि । अनु० पादुगालेव-पादुकालेप: । आव० ४१२ । १५७ । पाद: । ठाणा० २६९ । पाद:-चतुर्थाशः । पादुन्भूए-प्रादुर्भूतः । सूर्य० ३ । सूर्य०१३४ । पाक्यं-पाकप्रायोग्यम् । दश. २४७ (?)। पादोज्जल-पादोज्वलं-भूषणविधिविशेषः । जीवा०२६६॥ पात्र भाजनम् । आचा० ३३२ । पाद:-मूलपादः । ज० पादोनपौरुषो-पूर्वदिक संबद्ध चतुर्भागः । उत्त० ५३६ । प्र० २८५ । पादं-गाथादिचतुर्था रूपम् । अनु० २३३ । पादोसिय-प्रादोषिकम् । आव० ८६ । प्राषिकम् । पाप-अधोभागः । ज्ञाता. २८ । दश० १०३ । प्रादोषिक प्रदो० । ?) । पायओ-घोषणा । आव. ४१९ । पाधोवण-पुणो पुणो पापोवणं । नि० चू० प्र० ११६ | पायकंबल-पादकम्बल-पादपुञ्छनम् । उत. ४३४ । पायकेसरिया-पात्रकेसरिका-पात्रप्रत्युपेक्षणिका। बृ. द्वि० पानोयसामान्यं-पानकजातम् । आचा० ३४६ । । २३७ अ । पात्रकेसरिका-पात्रकमुखस्त्रिका । ओघ० पाप-ऐश्वर्यात् जोविताद्वा भ्रपनं पापम् । नि० चू० प्र० | ३०३ अ । धुनम् । दश. २.४ । पायकुक्कडसामवन्ना-पादकुक्कुट:-कुक्कुटविशेषः तद्वत् पामरकः । उत्त० ५५० ।। श्यामवर्णः । ज्ञाता० २३० । पामा-कुटुभेदो । नि० चू० द्वि० ६२ अ । नि० चू० पाय वज-पाकचाद्यं-बद्धास्थी। दश० २१८ । पाकखाद्यंप्र. १८८ आ । दशमं क्षुद्रकृष्टम आचा० २३५ । बदास्यो , आचा ३६१ । कच्छूः । भग. ३०८ । दशम क्षुद्रकुष्टम् । प्रश्न० १६१। पायगो-पादप.-लघुवृक्षः । आव० ६८९ । पामिच्च-उच्छिन्नम् । आचा० ३२५ । अपमित्यक-पायच्छिन-पाप छिनत्तीति पापच्छित, यथावस्थित प्रायसाध्वर्थ मुद्धारगृहीतम् । ठाणा० ४६७ । साध्वर्थमन्यत । श्चित्त शुद्ध मान्नति प्रयविनम् । दश० ३०पादच्छून ७०३ । २०८. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायच्छितकरणं ] आचार्य भी आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः - [ पायबंद | परार्थं पादेन पादे वा छुप्तम् । भग० १३७ | | पायनिज्जोग - पात्र नियोगः- पात्र परिकरः । ओष० २०८ | पापच्छेदक प्रायश्चित्तविशोधकं वा । ठाणा० १३७ | पायनियोग-पात्रनिर्योगः । बृ० द्वि० ८६ अ । पापस्छेदकस्वात् प्रायश्चित्तविशोधकत्वाद्वा प्राकृते प्राय पायपडिलेहणीआ पात्रकप्रत्युपेक्षणिका पात्रक मुखवनिका च्छितमिति शुद्धिः उच्यते तद्विषयः शोधनीयातिचारोऽपि ओघ २१२ । प्रायश्चित्तम् । ठाणा० १६० । प्रायश्चित्तं - अभ्यन्तरतपे प्रथमम् । भग ε२२ । प्रायश्चित्तं - अतिचारविशुद्धिः । औप० ४१ । प्रायश्चितम् । आव० ५२ पापं छिनत्ति प्रायश्चित्तं वा विशेषयतीति नेरुक्तविधिना प्रायश्चितम् । उत्त० ५८३ । पाप-कर्मोच्यते तत् पापं छिनत्ति यस्मात् कारणात् प्राकृतशंल्या पायच्छित्त । संस्कृते तु पापं छिनत्तीति पापच्छिदुच्यते, प्रायसो वा चित्तं जीवं शोधयति कर्म मलिनं विमलीकरोति तेन कारणेन प्रायश्चित्तम् । प्रायो वा बाहूल्येन वित्तं स्वेन स्वरूपेण अस्मिन् सतोति प्रायश्चितम् । आव० ७८२ । प्रायश्चित्तं - अपराधशुद्धिः । भग० ६२४ । पायच्छित करणं प्रायच्छितकरणम् । आव० ७७९ । प्रायश्चित करणं योगसंप्रहे एकत्रिंशत्तमो योगः । आव ० ६६४ । पाय पोपगमण-अनशनिनः पादपस्येवोपगमनं - सामीप्येन वर्तनं पादपोपगमनम् । दश० २६ । पायच्छिरा-पादशिरा । आव० ३७१ । पायपोस - अपानदारं । नि० चू० प्र० पायठवणं - पात्रस्थापनकं - कम्बलमयं पात्रस्थापनम् । बृ० पाय बद्धं पवृत्तादिचतुर्भागमात्रे पादे द्वि० २३७ अ । पायड - प्रकटम् । आव० ५२० । प्रकटः तथाविधविशिष्ट वचनरचनाविशेषतः सुखप्रतिपाद्यो योऽक्षरेष्वव्याख्यातेष्वपि पाय: स्वयमेव परिस्फुरनिव लक्ष्यते स प्रकटः । पिण्ड० २५ । पायपरियावन्न पात्रपर्यापता पात्रस्थिता । आचा०३५७ । पायपीढ- पादपीठ:- पदासनम् । ज० प्र० १५७ । पायपुंछण-पादपुच्छनकं - रजोहरणम् । ओोघ० १७५ । पादप्रोञ्छनं - रजोहरणम् । ठाणा० ३०५ । पात्रपुञ्छ नम् । अनु० २५३ । पादपूञ्छन कंरजोहरणम् । आचा २४० । पापप्रोञ्छनं रजोहरणम् । ज्ञाता० २०६ । पादप्रो छनक - रजोहरणम् । राज० १२३ । पादप्रोञ्छनंरजोहरणम् । प्रश्न० १२० । पादपुग्छनं- आसन विशेषः । उत्त० ५५ । पादप्रोज्छनं रजोहरणम् । भग० १३६ । पादपुञ्छनं रजोहरणम् । दश० १६९ । पादप्रोग्खनम् । आव० ७६३ । पादपुछनम् । आचा० ४०६ । पादप्रोक्षणम् । औप० १०० । भग० पायत्त पदातीनां पतीनां समूहः पादातम् । ठाणा० ३०३। पादातं पत्तिसमूहः । भग० ४७६ । पादातीनां समूहः पादातम् । उत्त० ४३८ । पादात्तं तेयविशेषः । जं० ० ४२३ ( ? ) । पायरासु पत्ताणीयं - पाइककबलदरिसणा पायताणीयं । नि० ० पायलित्तायरियं - आयरियविसेस | द्वि० ७१ अ । पायदद्दर - पाददर्द :- पापप्रहारः । प० ६० । पायदद्दरग - पादददं रक- भूमेः पादेनास्फोटनम् । १७५ । पायद्दश्य - पाददर्द रकम् । जीवा० २४७ । प्रथमतः समारभ्यमाणम् । ज० प्र० ३६ । पायभूमीए। नि० चू० द्वि० ११० ब पायमूल- पादमूल - मूलभूमी । ज० प्र० २७७ । पायय- पात्रकं - समाधिस्थानम् । आचा० ४११ । प्राकृतः । ज्ञाता० ५० । प्राकृतः । मर० । पायरास - प्रातराशं - प्राभातिकं भोजनकालम् । ज्ञाता० १५० । प्रातराशः- प्रातरशनम् । आव ० १३६ । प्रातरशनं - प्रातराशः । आचा० १३० । १५० आ । बद्धं - उत्क्षिप्तकं, ( ७०४ ) ३०२ अ । पायलेहणिया-पादलेखन का - वटोंदुबरप्लक्षालिकाकाष्टमय वर्षासु पादक मापनयनी । बृ० द्वि० २५३ अ । पायल्लग - हथियार विशेष: । नि० चू० प्र० १०५ अ । पायबंदते । ज्ञाता० २६ । आचा० ४२२ । नि० चू० द्वि० Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायवगमण ] पायवगमण - पादपस्येवोप- सामीप्येन गमनं वर्त्तनं पादपो पगमनम्। आचा० २६२ । पायवच्चं अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, मा० ३ | नि० चू० प्र० २४७ मा पायविवखंभ - पादविष्कम्भ - पानीयम् । आव० ३८८ । पायवोढग - पादशीर्षकं - पादानामुपरितनोऽवयवविशेषः । जीवा० २१० । पायसंखा - पादसङ्ख्या- गाथादिचतुर्थांशरूपसङ्ख्या | अनु० २३३ । पायसंहरण-पाद प्राणिनि निपतन्तं धारयतीत्यर्थः । श्रोष० १२७ । पावस- परमान्नम् । जोवा० २६८ । पायसमास - पादसमासो-गाथापादसंक्षेपः । आचा० १८७ । पायसीसग - पादशीर्षकं - पादस्योपरितनाऽवयवविशेषः 1 ज० प्र० ५५ । पायहंसा - लोमपक्षीविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । पायहर-विद्धपादः । मर० । पायाल - पातालं - समुद्रजलतलम् । प्रश्न० ६२ । पाताल:पातालकलशः वलयामुखप्रभृतिः । प्रज्ञा ७१ । महापातालकलश: वलयामुखादिः । भग० ४३६ । पाताल:समुद्रः । सूत्र० ८६ | पाताल:-पाताचकलशः । प्रभ० ६२ । | पायावन्च - प्राजापत्यः । जं० प्र० ४९३ । नि० चू० प्र० ११५ अ । नि० चू० प्र० ७८ आ । पायावरणा-पात्रावरणं- स्थगनपटलम् । ओघ० २१३ । पारंचिए - प्रायश्चित्तं दशमो भेदः । ठाना० २०० । सर्वोपरितमं प्रायश्चित्तम् । पारं प्रायश्चित्तान्तमश्वति गच्छतीति पारविकम् । पुरुषविशेषस्य स्वलिङ्गराजपत्म्याद्या सेवनायां यद् भवति । आव० ७६४ । पारंचिय-पाराविको बहिर्भूतः क्रियते तत् । ठाणा० ४८७ दशमप्रायश्चित्तभेदवन्तमप हतलिङ्गादिकमित्यर्थः । ठाणा० ३०० | पारं तीरं तपसा अपराधस्याश्वति गच्छति ततो दीक्ष्यते यः स पाराव स एव पाराचिकः तस्य यदनुष्ठानं तच्च पाराविकं दशमं प्रायश्चितं, लिङ्गक्षेत्रकालतपोभिर्बहिःकरणमिति भावः । ठाणा ० १६३ । पारंचियारिह-दशविधप्रायश्चित्ते दशमम् । भग० ६२० । ( अल्प० ८९ ) पारञ्चिकाई - तपोविशेषेण वा तिचारपारगमनम् । औप० ४२ । पारंपरम्प सिद्धी - पारम्पर्य प्रसिद्धि - स्वरूपसत्ता । आव ० ५३३ । पार-पार:- मोक्ष: संसाराटवितटवृत्तित्वात्तत्कारणानि ज्ञानदर्शनचारित्राण्यपि पारः । आचा० ११३ | तटः । आचा० १२४ | ज्ञानदर्शनचारित्रम् । आचा० ११४ । क्षय:- आयुष्कपुद्गलानां क्षय:- मरणम् । आचा० २६५ । निष्ठा । आव० २६६ । निर्वाणम् । बृ० प्र० २०१ अ । मोक्षम् । बृ० प्र० ५१ अ । पारए - पारग:- पारगामी । ज्ञाता० ११० । पारग:-पादगामी । भग० ११२ । पारग- पारग:- सर्वेषां संशयानां छेदकः । प्रश्न० १५७ । पारगः- सम्यग्वेत्ता | आचा० २६० । पारगए - संसारसागरस्य पारंगतः । भग० १११ । पारगय- पारगतं - इन्द्रियविषयात्परतोऽवस्थितम् । भग० २१७ | पारं - पर्यन्तं संसारस्य प्रयोजनवातस्य वा गत इति पारगतः । प्रज्ञा० ११२ । पारणय-यत्पार्थते - पर्यन्तः क्रियते गृहीत नियमख्यानेनेतिपारणं तदेव पावणकं भोजनम् । उत्त० ३६६ । पारणा - तपसः श्रुतस्कन्धादिश्रुतस्य वा पारगमनम् । प्रश्न० १२६ । पारपाजग पारत-परत्र । तदु० । पारत गुण - परत्रगुणः - ग्लानादिप्रति जागरणादिकः । बोध● ३९ । पारसियं पारत्रिकम् । आव० ४०५ । पारद-सासनम् । प्रज्ञा० २७ । पारदारिय- पारदारिकः परेषां दारेषु रतः । दश० ४२ । ज्ञाता० २३६ । पारदोच्चा चोरभयम् । ब्र० द्वि० २२८ मा । पारद्ध-उपसगंधितुं प्रारब्ध: । आव० ४११ । प्रारब्ध:अभिभूतः अपराद्धो वा प्रभ० ६० । प्रारम्धः । आव ० ४११ । प्रारम्भः हन्तुमारब्धः । आव० ६७१ । प्रारब्धंआरब्धम् । ज्ञाता २२ । पारपाणग-पाणगविशेषः । ज्ञाता० २२६ । ( ७०५ ) Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारमाणि आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पारियासियं पारमाणि-परमक्रोधसमुद्घातं अतीति भावः । गणा० पारिजातकुसुमं-कुसुमविशेषः । जीवा० १६१ । पारिद्वावणिया-परित:-सर्वः प्रकार परिस्थापन-अपुनर्गपारयित्वा-भोजयित्वा । ओघ० ६६ । हणतया न्यास इत्यर्थः । तेन निर्वृत्ता पारिस्थापनिको । पारलोइय-पारलौकिकं दानादि । दश० १२६ । आव० ६१६ । पारस-पारस:-चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः । प्रभा पारिट्रावणियागारो-पारिष्ठापनिकाकारः । आव० ८५३, १४ । म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । पारसदेशजः- ८५४ । पारसीकः । ६० प्र० ११६ । पारिणामिय-परिणमन-परिणामः स एव पारिणामिकः । पारसकुलं-साहिरण्णस्स रायहाणी । नि० चू० प्र० ३०४ | भग० ६४६ । परिणमनं-तेन तेन रूपेण वस्तूनां भवनं आ। परिणामः, स एव तेन वा निवृत्त: पारिणामिकः । अनु० पारसविसओ-पारसविषय:-वैनयिकोबुद्धी लक्षणे देश विशेषः । आव० ४२४ ।। पारिणामिया-परि:-समन्तानमनं परिणाम:-सुदीर्घकाल. पारसी-धात्रीविशेषः । ज्ञाता० ४१ । देशविशेषः । भग० | पूर्वापरावलोकनादि जन्म आत्मधर्म इत्यर्थः, स कारण४६० । मस्यास्तत्प्रधाना वा पारिणामको बुद्धिः, बुद्धः चतुर्थो पारसीक-अश्वस्वामी। नंदी० १६१ । भेद: । आव० ४१४ । पारिणामिकी-प्रायो वयोविपाकपाराइं-लोर कुसी विशेषः । प्रभ० ५७ । जन्या । राज० ११६ । पाराए-पारे महानदीपूरम् । आचा० ११३ (१) । पर- पारितापणिया-परितापनं-ताडनादिदुःखविशेषलक्षणं तेन लोकसुखभाजः । सू० २१० (?) । निवृता परितापनिको । सम० १. । परितापनं-ताडपाराक्यम् । आचा० १८५। नादिदुःखविशेषलक्षणं तेन निवृत्ता पारितापनिकी किया। पारापत-पानार्थिनः, पक्षिविशेषः । आचा० ३१४ ।। व० ६१२ । पारायणं-नाम सूत्रार्थतदुभयानां पारगमनम् । व्य० द्वि० पारिप्पव-पारिप्लव:-पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८ । * १ अ । सूचकाद्या. परिपाट्यः । व्य० प्र० २५७ । । पारिप्पवा-लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । पाररासर-पाराशर:-महषिर्यः शीतोदकबोजहरितादिपरि- पारिप्लव:-उदभिज्जपक्षिविशेषः । दश० १४१ । भोगात्सिद्धः । सूत्र ० ६५ । पारासरः शरभः । ज्ञाता पारिभाषिक संज्ञा-रूढसंज्ञा कल्पितसंज्ञा वा । भग ६५ । महाकायः आटव्यपशुविशेषः, यो हस्तिनमपि पृष्ठे २२५ । समारोपयति । प्रश्न. ७ (?) । वाशिष्ठगोत्रे सप्तम म-: पारिया ह्यभ्रमिः । नंदी० ४३ । भेदः । ठाणा० ३६० ।। पारियाणिए-पारियानिकं उद्यानादिगमनार्थो रथः । बृ. पारासरढढण-अलाभसंहः । मर० । द्वि० २३३ आ। 'पारि-दुग्वभरणमानविशेषः । पिण्ड० १११ । पारियानिकम्-चरितम् । विदो० ६६१ । पारिआसिए-परिवासितं-ह्यस्तनमित्यर्थः । भग० ६६१। पारियावणिया-परितापनं-परिताप:-पोडाकरण तत्र भवा पारिओसियं-पर्युषितम् । आव० ६५ । तेन वा निवृत्ता तदेव वा पारितापनिकी, क्रियाविशेषः । पारिगा- । नि० चू० प्र० २५५ अ । भग० भग० १८१ । परितापनं-ताइनादिदुःखविशेषलक्षणं तेन पारिच्छं-जं परिच्छिजति तं च रयणमादि । नि० चू० निवृत्ता पारितापनिकी । ठाणा० ४१ ।.. प्र० ८६ आ। पारियाविए- । आचा० ४२५ । पारिजाणिए-परियानप्रयोजना: पारियामिकाः । भग० पारियासियं णाम रातो पज्जुसियं । नि० चू. द्वि० ५४७ । ५० आ । (७०६ ) ह्यपृष्ठस्य Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिवय] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [पालग पारिवय-पारापतः । व्य. द्वि । २०४ अ । पाणि-गृह्णाति पार्श्वतो ग्रामेषु यथास्वेच्छ विहरति । पारिषद्या:-वयस्यस्थानीयाः । तत्त्वा० ४-४ । वृ० प्र० ५१८ मा । पारिसाउणिया-परिशाट:-उज्झनलक्षणः प्रतीत एव पाणिः - गुल्फयोरधोरमागः । नंदो० १६१ । तस्मिन् भवा पारिशाटनिका । आव० ५७६ । पाणित्र-चर्मकोशः । आचा० ३७० । पारिसाडि-पारिशाटिः । आव० ७११ । पालंक-शाकविशेषः (महाराष्ट्रीयः) बृ. ३० ३१४ आ। इच्छि । ओघ ४ । पालब-प्रालम्ब-तपनीयमयो विचित्रमणिरत्नभक्तिचित्र पारिहत्यिय-प्रकृत्येव दक्षः सर्वप्रयोजनानामकालहीनतया आत्मप्रमाण आभरणविशेषः । ज० प्र० २७५ । प्रालम्ब कति । ठाणा० ४५२ । भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६६ । प्रालम्बं-दीर्घम् । पारिहारिकाणि-स्थापनाकुलानि कुत्सितानि कुलानि | भग० ३१९ । प्रालम्ब:-आप्रदीपन आमरणविशेषः । जुगुप्सितानि । बृ० द्वि० ७१ अ । आचा० ३६३ । प्रालम्ब:-तपनीयमयो विचित्रमणिरल. पारिहारिय-पारिहारिक:-परिहरणं परिहारस्तेन चरति भक्तिचित्र आत्मनः प्रमाणेन स्वप्रमाण आमरणविशेषः । पारिहारिक:-पिण्डदोषपरिहरणायुक्तविहारो साधु इत्यर्थः। जीव, २५३ । प्रलम्बते इति प्रलम्स:-पदकः। राजा आग० ३२४ । १६ । प्रालम्ब अम्बनकम् । ज० प्र० १०६ । पारिहिदिक्षीर-पड्डुच्छिक्षोरम् । ओष. ४८ । पालंबसुत्त-भूषणविशेषः । आचा० ४२३ । पारिहेरग-पारिहार्य-बलयविशेषः । ज० प्र० १०६ । । पाल-हस्तिपाल: । वृ० तृ. २३१ आ। पारी-पारी-स्नेहभाण्डम् । ज० प्र. १०१। भाजनविधि- पालइत्ता-पालयित्वा अतिपाररक्षणेन, परावर्तनादिना विशेषः । जीवा० २६६ । अभिरक्ष्य । उत्त० ५७२ । पारुषख-यदिन्द्रियद्वारेण मनोद्वारेण वाऽऽत्मनो ज्ञानमुप- पालए-खंदगगच्छमारगो । नि० चू० प्र० ३०३ अ । जायते तत्परोक्षम् । पृष्ठोदरादित्वात्परशब्दात्परः सकारा- पालओ-पालक: । बाया. १२४ । गमः, परैर्द्रव्येन्द्रियमनोरुक्षा-सम्बन्धो यस्मिन् तत्परोक्षम्। पालक-पालक:-विमानविशेषः । औप० ५२ । स्कन्दका६० पृ० ८ ब। परोक्षं-पुनरक्षस्य वर्तमानं ज्ञानं चार्यस्य विरूपं कर्ता । सूत्र. २३६ । द्रव्यसङ्कोचो न भवति । ५० प्र०८अ । भवसकोच इत्येकः, यथा पालकस्य । आव० ३७६ । पारुदरुद्ध-परुवरुदः-बतिष्टः । सम. ११७ । जन्माभिषेकागमनविमानकारक: देवविशेषः । ज्ञाता. पारेवत-विभसागती फलविशेषः । प्रज्ञा. ३२८ । । १२७ । द्रव्यसखोचो न मावसङ्कोचः, यथा पालकः । पारेवय-पाशपतः पक्षिविशेषः । उत्त० ६५३ । लोम- विशे. ११२६ । द्रव्यसङ्कोचो न भावसङ्कोचे दृष्टान्तः पक्षिविशेषः । जीवा..पारापत:-फलविशेषः ।। ज. प्र. १०। यानविमानम् । प्रभ० ६५ । प्रज्ञा० ३६५ । पालकी-हरितभेदः । आचा. ५७ । पारेवयग-पारापतक:-पक्षिविशेषः । प्रभ. . पालक्का-हरितविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । पारेवयगोवा-पारापतग्रोवा, नीललेल्यावर्णः । प्रज्ञापालग-पालक:-स्कंधकादिपञ्चशतमनिघातको मन्त्री । उत्त० ११४ । वासुदेववृत्तो भत्तिबहुमाणच उभंगे पढमममगे पारेवया-लोमपक्षिविशेषः । प्रजा. ४६ । . दिटुंतो । नि० चू. प्र. ८ अ । पालकविमानकारकः । पारोकसी-परोक्षेषु विषयेषु भवं पारोक्ष-परोक्षविषयं भग० ७० । पालको नाम महक: पुरोहितः । व्य. झानं तदस्यास्तोति पारोक्षी । ज्य० (?) । द्वि० ४३२ अ । पालक-ग्रामविशेषः । आव० २२५ । पार्यते-पर्यन्तः क्रियते । उत्त० ३६६ । पालक:-अज्ञातोदाहरणे प्रद्योतजेष्ठपुत्रः । आव० ६६६ । पार्वम् । आचा० ३८ ।' पालक:-कालिकपुत्रः । आव० ६८१। . (७०७) Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पावम - पालत-पालक-पालकदेवनिर्मितं सौधर्मेन्द्रसम्बन्धियानम् । पालेइ-असकृदुपयोगेन पालयति प्रतिजागरणात् । भग० ठाणा० २५० । १२४ । सततोपयोगप्रतिजागरणेन रक्षति । उपा० १५॥ पालय-पालक-यानविमान-सौधर्मेन्द्रसम्बन्ध्याभियोगिक-पालेति-पालयति-असकृदुपयोगेन प्रतिजागरणात् । माता. पालकाभिधानदेवकृतं क्रियम् । सम० २ । पालक:- ७२ । अभियोगिको देवः । ६० प्र० ३९६ । पालक:-कृतिकर्मपाव-पापं-पांशयतीति पापं, पिबति वा हितम्, कर्मवा। दृष्टान्ते मुख्यो वासुदेवपुत्रो द्रव्यवन्दकः । आव० ५१५।। आव०-४०७ । पापं-कर्म । आव० ७८२ । पापंपालक:-कृतिकर्मणि पञ्चमो दृष्टान्तः, द्वारिकायां वासुदेव- पांशुलकराकीर्णत्वादिभिरशोमनम् । उत्स० ११० । वल्लीपत्रो द्रव्यवन्दक: । आव० ५१५। । विशेषः । प्रज्ञा० ३२ । पापं-पापानुष्ठानम् । आचा. पालयामि । ज्ञाता. १६३ । २६८ । पातयति, पासयतीति पापम् । आचा० ११५ । पालयित्थ-पालितवन्तः । ठाणा ७६ । पापम् । आव० ७८२ । पापं-क्लिष्टं-ज्ञानावरणादि । पालयित्वा-तद्विहितानुष्ठानस्यातिचाररक्षणेन । उत्त० दश० १५६ । पापं-घातिकर्म । ठाणा० ५२६ । ५७२ । पातयति नरकादाविति पापम् । आव०८३० । पाप:पाल विहि-सप्तदशमकला । ज्ञाता० ३८ । कर्मः। उत्त० ५६२। पाप:-अपुण्यरूप: । ज्ञाता० २०५ । पालाआ-पालका-महत्तरिका । व्य० द्वि० ३५.आ। पावए-पापक:-अमनोज्ञः । ज्ञाता० २३३ । पालासय-संनिवेसविशेषः । भग० १०२ । पावकम्म-पापकर्म-ज्ञानावरणादि । औप.८५। पापकर्म पालि-पालि:-सेतुः । राज० ११३ । पालि:-जीवित- प्राणातिपाताति । भग ३६ । पापकर्म-शानावरणायनलधारणाद्भवस्थितिः सा चोत्तरत्र महानन्दोपानादिह शुभं कर्म । भग०३६ । पापकर्म-घातिकर्म सर्वमेव वा पल्योपमप्रमाणा । (?।। ज्ञानावरणादि । ठाणा० १०१। पापकर्म-ज्ञानावरणादि। पालित-पादलिस:-विद्यामन्त्रद्वारदिवरणे सरिः । पिण्ड. ज्ञाता०२२१ । पापकर्म-ज्ञानावरणीयादि। दश०.१५२ । १४२। पावकम्मकरण-पापकर्मकरणम.अधर्मद्वारस्य द्वादशं नाम। पालित्तय-पादलिप्ताचार्यः । बृ० तृ. ६६ अ । प्रश्र. ४३ । पालित्तयकए-पादलिप्तसूरिकृतः । नि०चू०४०११८ आ। पावकम्मनेम्म-पापकर्मणां-ज्ञानावरणादीनां मूलम् । प्रभा पालित्ता-पादलिप्ता: वैयिस्यां ग्रन्थिविषये आचार्यः । आव. १२४ । पापकम्मोवएस-पापकर्मोपदेशः-पापप्रधानकर्मण उपदेशः । पालिय-पालित:-पुनःपुनरुपयोगप्रति जागरणेन रक्षितः । आव० ८३० । आव० ८५१ । पुनःपुनरुपयोगप्रति जागरणेन रक्षितः पावकारी-पापकारी-पातकनिमित्तानुष्ठानसेवी । उत्त० ठाणा० ३८८ । पालित-सततं सम्यगुपयोगेन प्रतिचरि- २०७ । .. तम् । प्रभ० ११३ । पालित:-चम्पायां श्रावकः । उत्तपावकोव पाप-अपुण्यप्रकृतिरूपं कोपयति-प्रपञ्चयति पुष्णाति यः सः पापकोपः, 'पापंचासौ कोपकार्यस्वात पाली-सयममहातडागस्यानतिक्रमणलक्षणः सेतुः । वसति । कोपश्चेति वा, प्राणवधस्यकोनविंशतितमः पर्याय: । बृदि० २०५ अ । पालि:- सेतु । जीवा० २६० । प्रश्न ५ । प्रज्ञा० ८५ । पावग-पावक-शुभमनुष्ठानम् । उत्त० ४८ । पावकंपालंगानहरय-'माहरयत्ति अनम्लरसानि शालनकानि अत्यन्तमहितम् । दश० १५७ । पावकः-अग्निः । उत्त: 'पालङ्गत्ति वलिफलविशेषश्च । उपा० ४ । १३५ । पावकं-पापमेद पापकम् । उत्त० ४८ । पालु-अपानं । नि० चू० प्र० १८६ आ । पापक-अशुभम् । ज्ञाता००५ । (७०८) लगा Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावजीवी ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशम्बकोषः, भा० ३. [पास पावजीवी कोंटलाजीवी । व्य. प्र. २५१ । पावसुयपसंगा-पापोपादानानि श्रुतानि पापश्रुतानि तेषु पावण-प्लावनं-रल्लणम् । पिण्ड० ११ । प्रसञ्जनानि प्रसङ्गाः-तथाविधासक्तिरूपाः पापश्रुतप्रसङ्गा: पावनुवण-प्राप्नुवन्-गुण्हन् । जं० प्र० ४४६ । उत्त• ६१७ । पावपरिक्खेवी-पापैः-कथञ्चित्समित्यादिषु स्खलितलक्षणः पावा-पापा-नगरीविशेषः । आव० २४० । पासयति परिक्षिपति-तिरस्कुरुत इत्येवंशील: पापपरिक्षेपी । उत्त० पातयति वा भवावतं इति पापा। उत्त. ८८ । भङ्ग जनपदे आक्षेत्रम् । प्रज्ञा० ५५ ।। पावमण-पापमना:-अवस्थितमना अनवस्थितमना वा । पावाइया-प्रायादिका:-प्रकर्षेण मर्यादया वदितुं शोलं आव० ३६६ । येषां ते प्रावादिनः त एव प्रावादिका: यथावस्थितार्थस्य पावय-पुनातीति पापक: समयप्रसिद्धय प्रतिपादनाय वावदूकाः । आचा० १८६ । पकः । पावकः-लोकप्रसिद्धचा अग्निः । उत्त० १८६ । पावाजीवी-पापेन-विद्यादिना परद्रोहकरणरूपेण जोवनप्राप्नुहि । ज्ञाता० ५५ । शोला: पापाऽऽजीवीनः । पिण्ड० १४२ । पावयणं-प्रवचन-शासनम् । ठाणा, २४६ । प्रावचनं पावाभिगम-पापाभिगम:-पापमेवोपादेयमित्यभिगमः । प्रकर्षणाभिविधिनोच्यन्ते जीवादयो यस्मिन् तत्प्रावचनम् । प्रश्न० १५ । प्रागतं । आव० ७६० । प्रावचनं, प्रगतं, प्रशस्त, प्रधा-पावार-प्रावारः। ठाणा० २३४ । प्रावार:-दुष्प्रतिलेखितनम्, आदी वा जीवादिध्वभिविधिमर्यादाम्यां वचनं प्राव- दूष्यपञ्चके तृतीयो भेदः । ६५ । चनम्, शिवप्रापकं वा वचनं प्रावचनमुच्यते । विशे० | | पावारग-प्रावारकम् । आव० ८३३ । प्रावारक:- उल्व. ५६१ । प्रशस्तं प्रगतं प्रथम वा वचनं प्रवचनम्, आगमः। गोमा बृहत्कम्बलः । बृ० द्वि० २२० अ । ठाणा० १७६ । प्रवचनं जैन शासनम् । ज्ञाता०४७ । पाविओ-प्राप्तः । ज्ञाता० १६६ । पावणि-प्रावचनी-आचार्यादिर्युगप्रधानः । आचा ४३८। पाविज्जइ-प्रोच्यते । आव० २७४ । पावयणी-प्रावनिका-प्रवचनार्थकयननियुक्ताः । नंदी० पाविया-प्रापयति नरकमिति प्रापिका, पापा एव वा पापिका, कुत्सिता, पापहेतुर्वा । उत्त० २६२ । पाव पावलोभो-पापलोभ:-पापं-अपुण्यं लुम्यति-प्राणिनि | पापिका-कुत्सिता । उत्त० ३८७ । स्निह्यति संश्लिष्यतीति यावत् यत: स: पापलोभः, पापं पाषाणधातुः-धातुविशेषः । उत्त० ६५३ । चासो लोभश्चेति वा तकार्यत्वात्पापलोभः । प्राणवस्य पासंड-पाषण्ड-व्रतम् । अनु० २५ । पाषण्डं-व्रतम् । विशतितमः पर्यायः । प्रश्न. ५ । उत्त० ५०१ । पाषण्डः । आव० २२३ । लिङ्गिनः । पावरण-प्रावार:-प्रावरणविशेषः । ज्ञाता०२२६ । वस्त्रम्। ज्ञाता० १५० । पाषण्ड:-शेषवतिः । उत्त० ५०१ । आचा० ३६३ । पाखण्ड-पाखण्डि जनोत्थापितमिथ्यावादः । ज० प्र०६६ । पावसमण-पापेन उक्तरूपेणोपलक्षिनः श्रमणः पापश्रमणः पाखण्ड:-शाक्यादिः । ज० प्र० १६७ । उत्त० ४३२ । पासंडत्थ-पासण्डस्थः । आव० ३६७ । पावसमणिज्य-पापश्रमणीयं, उत्तराध्ययनेषु ससदशम. पासंडधम्मे-पाखण्डधर्म:-पाखण्डिनामाचागः । ठाणा. मध्ययनम् । सभ० ६४ । पापभमणीयं-उत्तगध्ययनेषु ५१५ । सप्तदशममध्ययनम् । उत्त०६। पास डिमिसं-पाषण्डिमिश्र, मिश्रस्य द्वितीयो भेदः । ६० पावसुतं-वागरणादि । नि० चू० तु. १३ अ प्र० ८३ अ। पावसुय-एकोनत्रिंशत् पापश्रुत गतः । प्रश्नः । पासंडी-पाषण्डी-पानाड्डीनः । दश० २६२ । १४५ । पास-पश्यति समस्त भावान् केवलालोकनावलोकत इति 1000 । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास] आचार्यश्रोमानवसागरसूरिसङ्कलितः [पासवर्ण - पश्य: ! उत्त० २७० । पाश:-छूतोपकरणम्, उस्वस्ता- पासणिओ-जणवयववहारेसु णडणट्टादिसु वा जो पेक्षणं धादिबन्धनं वा । औप० ६६ । पश्यति सर्वभावानिति करेति सो पासणिो । नि० चू० द्वि० ६२ अ। पार्धाः, त्रयोंविंशतितमो जिनः, यस्मिन् गर्भगते माता | पासणिय-प्राभिकः-सभ्यः । व्य० द्वि० १६० अ। सप्तशिरसं नागं शयनीये निविजने दृष्टवतो तेन पार्श्वः। पासतो- । ज्ञाता० १९० । आव० ५०६ । पाश:-स्यादिः । उत्त० २०६ । । पासत्थ-पाव-बहिनिादीनां देशतः सर्वतो वा तिष्ठतीति छिडिका । ७० द्वि० ६०। पार्व:-आसन्नः । ओघ. पावस्थः । ठाणा० ५१४ । पावस्थ:-शानाचारादि. १६२ । पार्श्व:-पाश्वनाथस्तीर्थकरः । भग. २४८ ।। बहिर्वर्ती साध्वाभासः । प्रभ० १७ । पाशस्थ:-पाशेषु पाश बन्धनम् । भग० ६३ । प्रयोविंशतितमतार्थकरः। ति ठतीति पाशस्थः । व्य० प्र० १६० । दर्शनादीनां ज्ञाता० २५३ । पाश:-कूट जालः एव बन्धनविशेषः।। पावें तिष्ठतीति पाश्वंस्थः मिध्यात्वादिपाशेषू वा उत० ४६० । पाश:-बन्धनम् । आचा० ४७ । तिष्ठतीति पाशस्थः । आव० ५१७ । प्रकर्षण आपार्था । ठाणा० २९९ । पाश:-शनिबन्धनविशेषः। समंतात् ज्ञानादिषु निरुद्यमतया स्वस्थ: । व्य० प्र० प्रभ० १५ । पासा-धतोपकरणानि उत्वस्ताश्वादिबन्ध- १६० अ । ज्ञानादीनां पावं तिष्ठतं ति पाश्वंस्थ:नानि वा । ज० प्र० २६४ । म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा. पाशस्थ: । व्य० प्र० १५७ मा। पार्वज्ञानादीनां बहिस्तिष्ठतीति पार्श्वस्थ:-गाढग्लानत्वादिकारणं विना पासइ-पश्यति-अवग्रहापेक्षयाऽवबुध्यते । भग० ३५८ । शय्यातराम्याहृतादिपिण्डभोजकत्वाद्यागमोक्तविशेषणः । पश्यति-शिरूपलब्धिक्रिय इत्यत उपलभते-अवगच्छति । शाता. ११३णाणदंसणचरित्ताण पासे ट्रितो पासत्थो। बाचा. १९६। नि• चू० प्र० २१७ अ । पासग-पक्ष्यतीति पश्यक:-पर्वशः। भावान२४ । पश्यक:- पासस्थविहारी-पावंस्थानां यो विहारो-बहूनि दिनानि सर्वनिराकरणात्पश्यति-उपलभत इति पश्यः स एव पश्यक: यावत्तथा वर्तनं स पार्श्वस्थविहार: सोऽस्यास्तीति पार्श्व. तीर्थकृत् । बाचा० १७१ । पश्यक:-परमार्थतः ।। स्थविहारी । शाता० १११ । आचा. १४८ । ज्ञात० १६.। पासत्थि-ज्ञानादिवहिवंती । भग० ५०२। पासगबद्ध-पासिकबद्धः-कसाबद्धः। ३. द्वि० २५२ आ। पासपयट्रिय-पाशा इव पाशाः स्यादयस्तेषु प्रवृत्तः तेन पासजाइपहे-पाशा:-अत्यन्तपारवश्यहेतवः कलत्रादिसम्ब. प्रवत्तितः पाशप्रवृत्तः-पाशप्रबत्तितः । उत्त० २०६। धास्त एव तीव्रमोहोदयादिहेतुतया जातीनां एकेन्द्रि- पासपरिवत्ती-पाश्वपरिवर्ती । आव० ४२१ । यादिजातीनां पन्थान:-तत्प्रापकत्वाग्मार्गाः पाशजातिपथाः पासपुट-पार्श्वस्पृष्टः-दुतमात्र: । ठाणा• ४७१ । । उत्त० २६४ । | पासमिओ-पाश्र्वमितः साकेतनगरस्योत्तरकुरूद्याने यक्षः । पासट्रोनं-अटुविहा उ कम्मपासा उडीणो । दश० चू० विपा० ६५ ३३ आ। पासय-द्वादशमकला । शाता. ३८ ।। पासणया-पश्यत्ता-पश्यतो भाव: पश्यतोपयोग इत्यर्थः । पासनी-पार्वतः । पाव. ६४८ ।। विशे० ३०१ । पश्यतो-भावः पश्यत्ता-गोषपरिणाम- | पासवर्ण-प्रश्रवण-मूत्रम् । भाव० ६१६ । कायिकी। विशेषः । भग० ७१४ । पश्यत्ता-संदर्शनम् । मोघः आव० ७९८ । प्रश्रवणं-कायिकी। आव. ६३४ । ३६ । दर्शनता-प्रज्ञापनायास्त्रिंशसमं पदम् । प्रज्ञा०६। प्रश्रवणः-मूत्रः । मम० ११ प्रकर्षण बक्तोति-प्रभवण पश्यतो भाव:-पश्यत्ता । प्रज्ञा० ५२९ । पश्यत्ता-पंदर्श एकिका । आचा०४०६ । ज्ञाता०६१। प्रश्रवण-मूत्रम् । नम् । ओघ ३६। | उत्त० ५१७ । माता० १०३ । प्रभवणं-मूत्रम् । जं.प्र. पासहिए। नि० चू० प्र० २९२ अ ।' १४८ । मनुष्यानां अशुचिभूतस्थानम् । प्रज्ञा० ५० । (१०) Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासव्रणभूमि ] पासवण भूमि - प्रश्रवणभूमि: द्वादशभेदभिन्ना भूमिः । आव० ७८४ । पाससूल - पार्श्वशूलम् । भग० १६७ । पासहत्य-पाश:- शकुनिबन्धनविशेषः स हस्ते यस्य सः पार्श्वहस्तः । प्रश्न० १३ । पासा - पाशा: - अत्यन्त पारवश्यहेतवः कलत्रादिसम्बन्धाः । उत्त० २६४ । पासाइय- प्रसादीयं - कृष्णावभासस्वादिना गुणेन मनःप्रसा दहेतुः । राज० ३ । पासाइया - प्रासादेषु भवा प्रसादीया - प्रासादबहुला । राज० ३। पासाईय प्रासादीयः - मनः प्रसादकरः दर्शनीयस्तं चक्षुषा पानपि न श्रम गच्छति । ठाणा० २३२ । पासाईया - चित्तप्रसादजनिका । ज्ञाता० १३ । प्रासादीयं प्रसादाय मनः प्रसत्तये हितानि - मनःप्रसत्तिकारीणि । जीवा० १६१ । । पासाण - पाषाण :- विजातीयरत्नम् । दश० १६३ । पासाणजलं - जल विसेसो । नि० चू० द्वि० ७६ अ । पासाणधातू - जत्य पासाणे जुत्तिणा जुत्ते वा धम्ममाणे • सुवण्णादि पति सो । नि० चू० द्वि० ८६ आ । पासादिय - प्रासादाः संजाता यस्मिस्तत् प्रासादितम् । सूत्र० ४०७ । प्रसादीयं - मनःप्रसत्तिकारि । प्रज्ञा० ८७ । मनः प्रसादहेतुः । सूर्य० २६४ । परसादीया - प्रासादीया - प्रासादबहुला । सूर्य० २ । प्रसा दाय - मनः प्रसत्तये हिता तत्कारित्वात् प्रासादीया मनःप्रल्हादकारिणीति भावः । जं० प्र० २१ । पासामो। ज्ञाता० १०१ । पासाय- प्रासादः - प्रासादा, आयामाद्विगुणोच्छ्रितवास्तुविशेषः । जं प्र० २६७ । प्रासादः । जं० प्र० ३९६ । प्रासाद: - एकस्तम्भं हर्म्यम् । दश० २१८ । प्रासाद:नरेन्द्राभयः । प्रश्न० ८ । प्रासादः । जीवा० २६६ । प्रासादः - राज्ञां देवतानां च भवनम् उत्सेधबहुलो वा । जीवा० २७ε| प्रासाद:-नरेन्द्राश्रयः । ज० प्र० १०६ । प्रासादः - देवतानां राज्ञां वा गृहं उच्छ्रयबहुलो वा । ज० प्र० १२१ । प्रासादः - देवस्य राज्ञो वा भवनम् अथवा अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [ पाहणगं भग० २३८ । प्रासादः मत उत्सेध बहुल: प्रासादः । भूमादि । उत्त० ३०८ । प्रासादः - द्वितीयभूमिका । आचा० ३६२ । प्रासादः - आयामद्विगुणोच्छ्रायः ज० प्र० ८८ । प्रासाद:- सप्तभूमिकादि । भग० ४८३ । पासार्वाड सग - प्रासादावतंसको नाम प्रासादविशेषः । ज० प्र० ५३ । पासायवडसय-प्रासादावतंसकः प्रासादविशेषः । जीवा ० २०६ २१६ । प्रासादः अवतंस इव- शेखरक इव प्रधानत्वात् प्रासादावतंसकः । भग० १४५ । प्रासादावतंसकः - स्वस्वकूटवत्तक्रीडावासः । ज० प्र० ३८४ । पासाय व डेंसग - प्रासादावतंसकः - प्रासादविशेषः । ६६ राज ० पासायसंठिय- प्रासादसंस्थितः । जीवा० २७६ पासायसंठिया - प्रासादस्येव संस्थानं यस्याः सा प्रानादसंस्थिता । सूर्य० ६६ । पासाया- राजानां देवतानां च भवनानि प्रासादा: उत्सेधबहुला वा प्रासादा: । अनु० १५६ ॥ पासायालोअण- प्रासादे प्रासादस्य वाऽऽलोकनं तस्मिन् - सर्वोपरिवर्तचतुरिकरूपो गवाक्षः प्रासादलोकनम् । उत० ४५१ । पासावञ्चिज्ज - पाश्र्वपित्यस्य पार्श्वस्वामिशिष्यस्यापत्यं - शिष्यः पार्श्वापत्ययः । सूत्र० ४०६ । पार्श्वापश्यीयंपार्श्वजिनशिष्यस्येयं पार्श्वापत्यीयः । भग० १०० । १३६, २४७ । पार्श्वापत्यः । आव० १९१, २०३ । पासावश्चिभा नि० चूं० प्र० २८३ आ । ० सिय-वनस्पतिविशेषः । अग० ८०३ । पासिल उव्व- पृष्ठतो वा, अर्द्धावनतादिस्थानतः पार्श्वस्थितो वा तिर्यस्थितो वा । आव० ४४३ । पासिल्लए- पार्श्वगतः । तन्दु० । पासू-पार्श्वे । ओघ० ११७ । पासुत्त - प्रसुप्तः । उत्त० १३६ । पासुतेल्लय प्रसुप्तः । आव ० ६३२ । प/सेल्लिय- पार्श्वग: । आव० ४२७ । पाहण गं - बहुधरातो वरगिहं । जमन्न गिहं निज्जति तं । नि० चू० द्वि० २२ अ । ७११ ) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहणाउ ] पाहणाउ - उपानही । ठाणा० ३०४ । पाहणाओ आचार्य श्री आनन्दसागरसू रिसङ्कलितः [ पाहुनिय प्राभृतिका - बालादिनिमित्तं संस्थाप या ददाति भिक्षा सा प्राभृतिका । पिण्ड० १६२ । पाहुडियासंखा - प्राभृतिकासंख्या-दृष्टिवादे सङ्ख्याविशेषः । अनु० २३४ । आव० ७२८ । प्राभृतिका । वृ० प्र० ८७ पाहुडिया - प्राभृतिका आव० ४०५, ६४० । प्राभृतिका, भिक्षा अर्चनिका । व्य० द्वि० १४ अ । प्राभृतिका - भिक्षापि अर्ध्वनिकापि । बृ० प्र० ८८ अ । भिक्खावलि करपरिसाडणं वा । नि० चू० प्र० १७२ आ । प्राभृतिका - सार्वजनिका । आ । प्राभृतिका - वसतेश्छादनलेपनादिरूपा । बृ० प्र० २६१ आ । प्राभृतिका - सुरेन्द्रादिकृता समवसरणरचना । वृ० प्र. १६६ अ । प्राभृतिका - हरितछेदनाद्यधिकरणरूपा । बृ० प्र० २४० अ । प्राभृतिका बलिः | बृ० प्र० २२३ अ । कस्मंचिदिष्टाय पूजाय वा बहुमान पुरस्सरी कारेण यदभिष्टवस्तु दीयते तत्प्राभृतमुच्यते ततः प्राभृतमिव प्राभृतं साधुभ्यो भिक्षादिकं देयं वस्तु, प्राभृतमेव प्राभृतिका, पूर्वं नपुंसकत्वेऽपि कप्रत्यये समानीते सति स्त्रीत्वं यद्वा 'प्र' इति प्रकर्षण 'बा' इति साघुदानलक्षणमर्यादया 'भृता' निर्वासिता यका मिक्षा सा प्राभृता, ततः स्वार्थिककप्रत्ययविधानातु प्राभृतिका । पिण्ड० ३५ । अधिकरणदोषः । नि० चू० प्र० ३२४ अ । प्राभृतिका सुरविरचितसमवसरण महाप्रातिहार्यादिपूजा लक्षणा । बु० तृ० ७६ अ । पाहुण - प्राघूर्णकः - आगन्तुकः भिक्षुकः । ठाणा० ४६७ कुलगणसङ्घानां स्थविरः । वृ द्वि० २०८ आ । प्राघूर्णकः । ओघ० ५१ । सङ्ख्या | अनु० २३४ । पाहुणग - प्राघूर्णकः । भाव० ८५८ । पाहुडसीलया - प्राभृतशीलता कलहनसम्बन्धता | ठाणा पाहुडसंखा - प्राभृतसंख्या पूर्वान्तर्गतश्रुताधिकारसंख्या । | पाहुणगभत्त - प्राघूर्णकः - कोऽपि कचिद्रतो यत्प्रतिसिद्धये अनु० २३४ । संस्कृत्य ददाति प्राघूर्णका वा साध्वादय इहायाता इति यद्दापयति तत्प्राघूर्ण भक्तम् । औप० १०१ । भग०४६७ । पाहुणभत्त- प्राघूर्णका:- आगन्तुकाः भिक्षुकाः एव तदर्थं यद्भक्तं तत्तथा प्राघुर्णको वा गृही स य पयति तदर्थं संस्कृत्य तत्तथा । ठाणा० ४६०, ४६७ । पाहुणिय-षष्ठी : महाग्रहः । ठाणा० ७८ । प्राधुनिकाः षष्ठी महाग्रहः । जं० प्र० ५३४ । सूर्यं ० २९४ । . ( ७१२ ) । भग० ६६३ । पाहाणगुण - प्राधान्यगुणं वैमल्यगुणम् । आव० ५२१ । पाहाण-पाषाण: । दश० १६ । पाषाणः । प्रा० ( ? ) १६७ । पाहाणजलं - पाषाणजलं यत्पाषाणानामुपरि वहति । ओघ ० ३२ । आव० १२३ । पाहाणवट्टओ-पाषाणवर्तुलः पाहाणोदग - पाषाणजलं यत्पाषाणानामुपरि वहति । ओघ० ३२ । पाहुड - प्राभृतं लोकप्रसिद्ध यदभीप्राय देशकालोचितं दुर्लभं वस्तु परिणामसुन्दर मुपनीयते, प्रकर्षेणासमन्ताद् भ्रियतेपोष्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुषस्यानेनेति प्राभृतम् । सूर्य ० ७ । प्राभृतं - अधिकारविशेषः । सम० ८२ । प्राभृतं - प्राभृतिका । प्रश्न० १५४ । प्रदत्तम् | आचा० ३६७ । प्राभृतं नरकपालकौशलिकं परमक्रोधः । ठाणा० १६६ । प्राभृतं - अधिकरणकारी कोपः । ठाणा० २४७ । प्राभृतं - योनिप्राभृतम् । व्य० द्वि० ४ मा प्राभृतं अधिकरणम् । बृ०६० १४६ अ । प्राभृतमिव प्राभृतः तीव्रक्रोधः । वृ० तृ० १०४ मा । कलहः । नि० चू० प्र० २४४ अनि० चू प्र० २६४ अ नि० चू० तृ० २८ अ । प्राभृतं - कलहम् । व्य० द्वि० २२३ अा ५. हुडछेदा अर्थछेदा । नि० ० ० ११७ आ । पाहुडपाहुड - प्राभृतप्राभृतं प्राभृतेषु अन्तरगतम् । सूर्य० ७। प्राभृतादि - प्राभृतम् । दश० ६५ । पाहडपाहुडिअसंखा - प्राभृतप्राभृतिका संख्या, दृष्टिवादे २७५ । प हुडा - 'प्र' इति प्रकर्षेण 'आ' इति-साधुदानलक्षणमर्यावा भृता' - निर्वर्तिता यका भिक्षा प्राभृता । पिण्ड० ७५ पहुडि - प्राभृतनामश्रुतस्कन्धः । व्य० द्वि० ७८ आ । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहुणं ) अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [पिडिम पाहुण्णं-प्राधूयम् । आव० ३५५ । पोषः । आचा० ३२६ । पिण्ड:-प्राहारोपधिरूपः । पाहेज्जं-पाथेयं-कंट कमर्दनवेतनम् । बृ० प्र० २९७ आ।। ठाणा० ३११ । पिण्डनं पिण्ड:-संघातरूपः । भिक्षापाहेणग-प्रहेणक मोदकादि। पिण्ड० ६२ । शोधिः । औष. १२ । यदशनादिकं सम्पन्नं विशिष्टा. पिंकारे-अपिकारे । ठाणा० ४६३ । हारगुणयुक्तं षट्रसोपेतम् । बृ. दि१७८ अ । पिंगल-कपिलम् । ठाणा० ३९७ । पिङ्गलं-कपिलम् । पिण्ड्यो-सुम्न्यः । ज० प्र० २५ । ज्ञाता० १३३ । पिङ्गल:-कपिलः । ज्ञाता० १६ । पिडकरित-प्रत्येकं त्रिकं त्रिकमवसातव्यमेषः पिंडकल्पिक: चत्वारिंशत्तममहाग्रहः । ठाणा० ७६ । बृ० ८३ अ। पिंगलक्खग-पिङ्गलाक्ष:-पक्षिविशेषः । प्रभ० ८। पिडगुड-पिण्डगुड:-पिण्डीभूतो गुडविशेषः । आव० ८५४ । गिलगणिहि-सर्व आमरणविधि , य: पुरुषाणां यश्च | पिंडगुल-पिण्डगुड:-पिण्डीभूतो गुडः । आव० ८५७ । महिलानां तथाऽश्वानां हस्तिनां च स यथोचित्येन पिङ्ग- पिडग्गह-पिण्डग्राह्य-पिण्डरूपतया हस्ते ग्रहीतुं शक्यते लकनिधिः । ज० प्र० २५८ । पिण्डविकृतिर्वा । बृ० द्वि० १७८ आ। पिंगलते । ठाणा० ४२८ (?) पिडणिगर-दाइयभत्तं, पितिपिडपदाणं । नि. चू० प्र० पिंगलय-पिंगलक:-स्कन्दकचरित्रे श्रावसतीनगाँ वैशा- २६८ आ । लिकश्रावको भगवद्वचनामृतपाननिरतः श्रमणः । भग. पिडनियर-पिण्डनिकर:-पितृपिण्डः । आचा० ३२८ । ११२ । कृष्णपुद्गलः । सूर्य० २८७ । पिंगलक:-चत्त्वा-पिंडय-उण्डकः पादयोर्यः पिण्डरूपतया लगति स पिण्डकः । रिशत्तममहाग्रहः । जं० प्र० ५३५ । सूर्य० २६४।। मोघ० २६ । पिंगला-पिङ्गला-कपिला । अनु० १३३ । पिङ्गला- पिंडरस-पिण्डरसः खजूरादिमिश्रम् । ६० प्र० २६७ आ। पोतस्य लघुसुता ब्रह्मदत्तराज्ञी । उत्त. ३७६ । पिंडलग-पटलकं पुष्पभाजम् । ठाणा० ३८६ । पिंगलायणा-कुत्सगोत्रे भेदः । ठाणा० ३६० । पिडवाय-पिण्डपात: भिक्षालामः । आचा० ३२१ । पिंगा-पिङ्गा कपिला । सूत्र० ६८ । पिण्डपातं बाहारम् । आचा० ३३१ । पिण्डपातं-भक्षम्। पिंगायण-पिङ्गायनं मघागोत्रम् । जं० प्र० ५०० । आचा० ३३६ । पिण्डपातं-भिक्षाम् । आचा० ३५१ । पिंगायणसगोत्त-मधानक्षत्रगोत्रम् । सूर्य० १५० । पिण्ड्यते इति पिण्डो-भिक्षा तस्य पात:-पतनं प्रक्रमापापिंगुल-पिङगुलः पक्षिविशेषः । प्रभ० ८ । श्रेऽस्मिन्निति पिण्डपातं-भिक्षाटनम् । उत्त० ६६७ । पिजितं-पिंजनिकया तडितं स्तम् द्या । बृ० द्वि० ११६ पिण्डपात:-विशुद्धसमुदानम् । दश० १७६ । आ। | पिडपायपडियाए-पात्रे पिण्डस्य प्रवेशः तत्प्रतिज्ञा । बृ० पिंड-अद्रवः स्त्याद्यानः विकृत्यादिकम् ? । बृ• तृ. द्वि० ८६ अ । २०६ आ । ओदनादिक:। बृ० द्वि०८६ अ । भत्त, विडवायपडियाय-पिण्डपातो-भिक्षालाभस्तत्प्रतिज्ञा-अह. नि० चू० प्र. १४२ प्रा । पिण्ड:-समुदायः। विशे. मत्रभिक्षा लप्स्य इति । आचा० ३२१ । पिण्डस्य पातो ४२६ । पिण्ड:-पिण्डनीयं पिण्डनं वा, परिग्रहस्य नवमं भोजनस्य पात्र गृहस्थानिपतनं तत्र प्रतिज्ञा-जानं-बुद्धिः नाम । प्रश्न. ९२ । पिण्ड:-प्रोदनादिरन्नः । उत्त. पिण्डपातप्रतिशा । भग० ३७४ । २६६ । पिण्ड:-आहारः। उत्त० ६० । पिण्डं पिण्ड:- पिंडहलिद्दा-अनन्तकायभेदः । भग० ३०० । सवातरूपः । ओघ० १२ । पिण्ड:-गुडपिण्डादिरूपः । पिंडार-पिण्डारः-भिक्षु कजातिविशेषः । आव० ५६१ । पिण्ड० २ । पिण्डं -शाल्योदनादिकम् । आचा. ३३६ । नि० चू० द्वि०४१ आ। पिण्ड्य ने-सङ्घात्यते, कोऽर्थ: ? गृहिम्य उपलभ्य सम्मील्यत | पिडि-पिण्डो-लुम्बी । भग० ३७ । इति पिण्डस्तमायामकादि । उत्त० ४१६ । पिण्ड:- पिडिम-पुद्गलसमूहरूपः । ज० प्र० ३० । पिण्डिम:(अल्प०६०) ( ७१३ ) Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिडिमणीहारिमा ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पिट्टण पुद्गल समूहरूपः । औप० ८ । पिण्डिमः-बहलः । प्रश्न. पिउडं । नि० चू० प्र० ६३ अ । . १६२ । घोषवजितः शक्कादिशब्दवत् । ठाणा० ४७१। पिउडाई-सिक्यादि । विशे० ९४५ । पिडिमणीहारिमा-पिण्डिमं निहारिमा पुद्गलसमूहरूपः | पिउत्था ।ज्ञाता. २२५ । : दूरदेशगामिनी च । औप० ८ । पिउदत्त-पितृदत्तः गाथापतिः । आव० २०५ । पिडिमा-पिण्डिता । राज. ७ ।। पिउपज्जयागए-पितृप्रायक:-पितुः प्रपितामहः । ज्ञाता० पिडिय-पिण्डित:-मिलितः । ओघ० १०३ । पिण्डितं- । ४६ । स्वकर्मणा संयोजितम् । जवा० २७३ । पिण्डितः- पिउमंद- : । नि० चू० प्र० २२४ आ । : एकजातिमापन्नः । आव २८३ ।। | पिउसिया-पितष्वसा-पितर्भगिनी । विपा० ५७ । पिडिया-पिण्डिका-पाषाणपिण्डिका । औप. १६ । पिउसेणकण्हा-पितृषेणकृष्णा-अन्तकृद्दशानामष्टमवर्गस्य डिसिया-पिण्ड शिका, पिण्डो-भोजनम् । भग०४८२। नवममध्ययनम् । अन्त. २५ । निरयावल्या:प्रथमवर्गस्य पिडी-पिण्याकपिण्डिका वायसपिण्डिका । बृ० द्वि० १३३ नवममध्ययनम् । निरय० ३ । । . अ। पिण्डि:-भिन्नकम् । सूत्र० ३६६ । पिएण-प्रीत्या । आव० ३४७ । पिडीभूत-पिण्डीभूतः । आव० २७४ रिक्कमंसि-पक्वा-संस्कृता मांसीति - गन्धद्रव्यविशेष: पिडेसण-प्राचाराने दशममध्ययनम् । सम० ४४ । पिण्ड- पक्वमांसी । प्रश्न० १६२ । षणा- आचाराङ्गस्य दशममध्ययनम् । उत्त० ६१६ । । पिक्खुर-पिक्खुरानु, म्लेच्छविशेषान् । ज० प्र० २२० । पिडेसणा-पिण्डैषणा-आचारप्रकल्पे द्वितीयश्रुतस्कम्धस्य | पिचुगाला-निर्गलितम् । आव० ८५५ । प्रथममध्ययनम् । प्रश्न० १४५ । पिण्डषणा-सप्तपिण्डे अरिष्ठो वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । षणा । आव० ७७८ । पिण्डषणा-आचारप्रकल्पस्य पिच्च-जनपदसत्यस्वे उदाहरणं, पयः, उदकम् । दश० दशमो भेदः । आव० ६६० । २०८। पिडोलग-पिडोलक:-परपिण्डप्रार्थकः । सूत्र० ८१। पिच्चिय-कुट्टितत्वकम् । ठाणा० ३३६ । पिंडोलय-पिंडावलगा:-यः स्वयमाहाराभावतः परदत्तो-विच्छ-पत्रम् । प्रश्न० ८ । पजीवो । उत्त० २५० । पिण्ड्यते-तत्तद्गृहेभ्य आदाय पिच्छज्झया-पिच्छध्वजा-पिच्छचिह्नोपेता ध्वजा ।जीवा. " सङ्घात्यत इति पिण्डः तमवलगति-सेवते पिण्डावलगः ।। २१५ । उत्त० २५० । पिच्छिका-वस्टा । प्रज्ञा० ५८ । पिअ-प्रियः- भूयोऽभिलषणीयः । प्रज्ञा० ४६३ । पिछिदिति-पिच्छइ । बृ० प्र० ४७ आ । पिअण-पानम् । आचा० ४१ । पिजियं-रूयपडलं पिंजियं । नि० चू० प्र० २२८ आ। पिअवयस्स-प्रियवयस्यः महाबलमित्रः। आव० ११६ । । पिज्ज-प्रेम-प्रियेषु प्रीतिहेतुः । उत्त० २६१ । पेयाः पिइयंग-पितृकाङ्ग, शुक्रविकारबहुलम् । भग० ८८ । यवागूः । पिण्ड. १६८ । प्रेम्णि निश्चितम. दशविधपिइय-गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । मृषाभाषायां पञ्चमी । ठाणा० ४८६ । पिउं-पिबामि । आव० १० । पेज्जे-पाययं स्तन्यम् । पिण्ड० १२२ । पिउ-पितुः । आव० ६६६ । पिञ्जनकः-रथावयवी । ज० प्र० २०० । पिउगा-वीहीपक्का भजिता तट्टे फुड्डिया तुसावण्णिया | पिञ्जनिक-धनस्वरभेदः । ठाणा० ६३ । पिउगा भण्णति । नि० चू० द्वि. १५७ आ । पिटक-भाजनविशेषः । पिण्ड० ७८ । पिउग्गाम-पुरुषमैथुनम् । नि० चू०प्र० २५३ था। पिट्टण-पिट्टनं-मुद्गरादिना हननम् । छोप० १०७ । पिउच्छा-पितृष्वसा । आव० १७३ । ताडनम् । बोध. १२३ । पिट्टन- कुट्टनम् । पिण्ड. ( ७१४ ) Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिट्टणा ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [पिडिगा पिद्वि-पेषणम् । नि० चू० तृ. ६ अ । पृष्ठः-स्कंधः । पिटणा-पिट्टना नापि पिट्टयति काष्ठपिट्टनेन स्त्रीवत् । ठाणा० ११६ । ओघ० १३३ । पिटिमसं-पृष्ठिमांस-परोक्षदोषकीर्तनरूपम् । दश०२३५ । पिट्टति-पिट्टयति । आव० ३४३ । पिट्टिमंसभक्खयं-जं परमुहस्स अववोलिजइ तं तस्स । नि०० त०७१। दश० ० १२५ आ । पिट्टापिट्टि- । नि० चू० प्र० २६५ आ। पिट्टिमंसिय-पृष्ठिमांसाशिक:-पराङ्गमुखस्य परस्यावर्णपिदापिटी-केशाकेशी । प्राव० १०३ । वादकारी, दशममसमाधिस्थानम् । सम० ३७ । पृष्ठपिटावण ता-पिट्रणप्रापणा । भग० १८४ । मांसाद:-यः पराङ्मुखस्यावणं भणति, दशममसमाधिपिट्टिणिका-दई रोपरि विभागविशेषः, दर्दू रोपरि माल- स्थानम् । आव० ६५३ । प्रवेशमार्गछादनम्, यन्त्ररूपकपाटम् । पिण्ड० १०६ । पिढिमाइया-अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य सप्तमपिट्रेति-पियति । याव० ७०३ । मध्ययनम् । अनुत्त० २।। पिदेत-पियितुम् । आव. ८१९ । पिटुंत-अपानद्वारम् । नि० चू० प्र० २५२ आ। पिट्ठीचंप-पृष्ठिचम्पानगरी-भगवन्महावीरविहार क्षेत्रम् ।। पिट-पिष्टं-अच्छटिततन्दुलचूर्णः । आचा. ३४२ । पिट:शालिलोटः । ज्ञाता० ६१ । पृष्ठ-फलकम् । प्रश्न | पिट्ठीचंपा-पृष्ठिचम्पा-शाल राजधानी । उत्त० ३२१, ८३ । पृष्ठ-पाश्चात्यभागः । ज० प्र० ६७ । पिष्टः- ३२३, ३२४ । आमतण्डुलक्षोदः । दश० १७० । पृष्ठः-मार्गः । दश पिटुडि-पिष्टं-विसारितम् । बृ० तृ. ९० मा । २३५ । चूर्णम् । नि० चू० तृ० ६ अ । पिष्टं-मुद्गादि पिष्टस्य -शालिलोटस्य डण्डी-पिण्डो पिषोण्डी । ज्ञाता चूर्णम् । बृ० प्र० २६७ आ। पिष्टं-सूक्ष्मतंदुलादिचूर्ण- ६१ । निष्पन्नम् । बृ० प्र० १४२ अ । पिठर-पिठरं-स्थाल्यादि । पिण्ड०.१५५ । पिठर:-पृष्ठिपिओ किच्चा-पृष्ठतः कृत्वा-धर्मबन्धनहेतुरियमितिमत्या, चम्पायां यशोमतीमत् । आव० २८६ ।। तिरस्कृत्य । उत्त० ६६ । पृष्ठतः-पश्चाद्भागः । ज्ञाता पिठरक-भाजनम् । आचा० ३४४ । पात्रकम् । भग० ६६१ । भाजनम् । आचा० ३२७ । पिट्रकड- । नि० चू० प्र० १९६ । पिठरी-स्थाली । सूर्य० २६३ । । पिट्टकरडग-पृष्ठकरण्डकं, पृष्ठवंशवर्युग्नताः अस्थिखण्डाः पिडग-पिटकमिव पिटक-आश्रयः । भग० ७११ । पिटकं पंशुलिका । ज०प्र० ११७ । वणिज इव सर्वस्वस्थानम् । ठाणा० ५०२। पिटकंपिटुकरंडय-पृष्ठकरंडक:-पृष्ठवंशः । जीवा० १५४ । । सर्वस्वभाजनं गणिपिटकम् । सम. १०७ । पिटक-सर्व. पृष्ठकरण्डकः । तन्दु० । स्वाऽऽधारः । उत्त० ५१३ । पिटकं-सर्वस्वं समूहश्च । पिटुग-पिष्टम् । आव० ६२२ । नंदी. १९३ । पिटक-सर्वस्वमाधारी वा। सूत्र० २५३ । पिट्ठपयणगं-पिष्टपचनक-यत् सुरासन्धानाय पिष्टं पच्यते पिटक-चन्द्रद्विकसूर्यद्विकरूपम् । जीवा० ३३६ । पिटक-दो तत् । जोवा० १०५ । चन्द्रौ द्वौ सूर्यों च । सूर्य ० २७५ । पिटकं-सर्वस्याऽऽधारः। पिट्ठपयणगसंठितो-पिष्टपचनकसंस्थितः-आवलिकाबाह्य- | उत्त० ५१३ । स्य द्वितीयं संस्थानम् । जीवा. १०४ । पिडगर-पिडगृह-चिक्खिल्लपिडेनिष्पादितम् । व्य० द्वि० पिट्ठपोवलिया-पृष्ठपोलिका । आव० ८५५ । १०६ अ। पिट्ठा-पिष्ठा । भग० ७६६ । पिडिगा-पिटिका । दश० ४४ । ( ७१५ ) Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिटर ] आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ पियदसण पिढर- पिढरं स्थाली । पिण्ड० ८ । पिठरः- यशोमती विधपरी- पिप्पली- वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । इच्छियामि. भर्त्ता । उत्त० ३२३ । हाणी । नि० चु० प्र० १६२ आ । पिणद्ध - पिनद्धं - आविद्धम् । जीवा० २०७ । पिनद्धं बद्धम् । पिप्पल - पिप्पल:-हस्वक्षुरः । विपो० ७१ । पिप्पलः जं० प्र० १८६ 1 स्वाद्ये वृक्षविशेषः । आव० ८२८ । पिलंक्खुः । नि० चू० प्र० १२४ अ । ठाणा० ३३६ । पिप्पलक :- किञ्चिद्वक्र: क्षुरविशेषः । पिण्ड० १७ । पिप्पलकः - क्षुरकः । मोघ० पिण्डं - बाल्यम् । ज० प्र० ५३ । पिण्डहरिद्रा - वनस्पतिकायिकभेदः । जीवा० २७ । पिण्डोलक:- कृपणः । दश० १८४ | पिण्ड्यते प्रक्रियते । मोघ० १४७ । विष्णात - घयगुलमिस्सो, सत्तुओ । नि० ० तृ० ३६ १३३ । श्रा । पिप्पलग - पिष्पलकः क्षुरप्रः । बृ० द्वि० २५३ मा । नि० चू० द्वि० १८ आ । रिप्पलपोतग - पिष्पलपोतकः । आव० ५५५ । विप्पलि-वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । पिपलिया - गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । पिप्पली - वृक्षविशेषः । आचा० ३४८ । प्रज्ञा० ३६४ । पिणियं विनिकाध्यामकाख्यं गन्धद्रव्यम् । उत्त० १४२ । पितदरसण - नवग्रैवके पश्चमः प्रस्तरः । ठाणा० ४५३ | तिषम्म पालोचनाऍं दृष्टान्तः । ठाणा० ४८४ । वितियंगा - पित्रङ्गानि प्रायः शुक्रपरिणतिरूपाणीत्यर्थः । विध्यलोचुण्ण-पिप्पलीचूर्णम् । प्रज्ञा० ३६४ | पिप्पलीमूलं - पिप्पलीमूलम् । प्रज्ञा० ३६४ । आाचा० ८८ । ठाणा० १७० । पितु से कण्हा - पितृसेण कृष्णा-मुक्तावलीतपकारिका 1 अन्त० ३१ । पितृग्राम:-त्रिविधा पुरुषाः । नृ० प्र० १५४ मा । पितृपिण्ड - पिण्डनिकरः । आचा० ३२८ । पितृवन - श्मशानम् । दश० २६७ । पितृवनका - श्मशानकाष्ठः । आचा० २५३ । पित्तं - दोषः शेषः । प्रश्न० ८ । पित्तं-दोषविशेषः । ज्ञाता ० १४७ | मनुष्याणामशुचिस्थानम् । प्रज्ञा० ५० । पित्तज्जर- पित्तज्वरः । ज्ञाता० १११ । पित्तमुच्छा-पित्तन्छ- पित्तप्राबल्यात् मनाग् मूर्च्छा । आव० ७०६ 1 पियंकर- प्रियङ्करः- प्रियं- अनुकूलं करोतीति । उत्त० ३४७ । पियंगाला - चतुरिन्द्रियविशेषः । प्रशा० ४२ । त्रियंगु - सुमतिनाथस्य चैत्यवृक्षः । सम० १५२ । प्रियङ्गुः - धनदेव सार्थवाहभार्या । विपा० ८८ । प्रियङ्गुः - संवेगो दाहरणेऽमात्यधर्मं घोषभार्या । आव० ७०९ पिय-प्रियं - अनुकूलम् । उत्त० ३४७ । प्रियः प्रियार्थः । जं० प्र० १४३ । प्रियः - प्रेमकर्त्तः । ज्ञाता० १६५ । प्रियं प्रेमकारी । सूर्य • २९२ । ज्ञाता० ३७ ॥ पियए- अभिनन्दनजिनचैत्यवृक्षः । सम० १५२ । पियकारिण- प्रियकारिणः समाधिविधित्सवः । बृ० प्र० पितित-चतुषु वाधिषु द्वितीयः पीतोद्भवः । ठाणा० २६५ | पैलिकः । आव० ४०५ । पिना । सूत्र० २७७ । पिनाग - पिण्याक:- खलः । सूत्र० ३६६ । पिपासा -विषयेच्छा | आद० ५६ । पिपीलिका पृथिव्याश्रितो जीवभेदः । आचा० ५५ । काष्ठनिभिता पिपीलिका । आचा० ५५ । समूच्छेनु विशेषः । दश० १४१ । त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । पिपोलिया - पनलिका:-कीटिकाः । उत्त० ६६५ । ( ७१६ ११. 1 पियकारिणी - त्रिशलायाः तृतीयं नाम । आचा० ४२२ । शिवगंध-गीतप्रियः । ज्ञाता० २१३ । चिदो- प्रियचन्द्र:- कनकपुरनगरनृपतिः । विपा० ६५ । पियण-पकायस्य परिभोगे दृष्टान्तः । ठाणा० ३३६ । पियदंसण- प्रियदर्शनः घातकीखण्डद्वीपे महद्धिको देवः । जीवा ३२८ । देवविशेषः । ठाणा ० ७६ ॥ श्र० भ० महावीरपुत्री । आचा० ४२२ । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पियदसणा] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकवादकोषः, मा० ३ [पिसुण - पियईसणा-प्रियदर्शना, चन्द्रावतंसकराजपत्नी । आव०पिलक्खुमंथु-पिपरीमथुः । आचा० ३४८ । ३३६ । प्रियदर्शना, अपरनामाऽनवद्याङ्गी। उत्त० १५३ । पिलवखुरुक्ख-वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । ग्यिधम्म-प्रियो धर्मों यस्य तत्र प्रीतिभावेन सुखेन च रिलक्ख-पिप्पलभेदो । नि० चू० प्र. १९२ । प्रतिपत्तेः स प्रियधर्मा । ठाणा. २४२ । प्रियधर्मा- | ।नि० चू० प्र० १८६अ। धर्मप्रियः । प्रभ० ११६ । प्रिय:-इष्टो धर्मोऽस्येति पिलुंख-खाद्यवृक्षविशेषः । आव० ८२८ । प्रियधर्मा । ओघ० २०२ । पिलुक्ख-प्लक्ष:-वृक्षविशेषः । प्रशा० ३२ । ' पियधम्मा-प्रियधर्मा हतधर्मा । भग. १२७ । रिल्लओ-प्रेरकः । ६० प्र० ३१० आ। दियपुच्छय-प्रियपुच्छकः । आव० २२१, २२६ । पिलक-निणंकः । ध्य० प्र० १८० अ । रियमित्त-षष्ठवासुदेवस्य पूर्वभवनाम । सम० १५३ । पिलग-अपत्यम् । उत्त• १३५ । प्रियमित्र:-पुरुषपुण्डरीकवासुदेवपूर्वभवः । आव. १६३ पिलण-प्रेरण, आरूढस्य पुंसोऽभिमुखदर्शनधावनादिना टी० । प्रियमित्र:-चक्रवर्ती। आव. १७७ । प्रिय- | संज्ञाकरणपूर्वकं प्रवर्तनम् । ज. प्र. २३७ । मित्र:-चक्रवत्तिविशेषः। आव० १६७ । पितृमित्रम् । | पिल्लति-प्रेरयति निष्काशयति । उत्त० १३६ । बाव० २१९ । पिल्लियय-प्रेरितः । आव० २२४ । पियसेण-प्रियसेनः-नपुंसको गणिकापुत्रः। विपा० ५४ । पिल्लुक्किय-पीतः, पूटकृतः । आव० ६६३ । पिया-पिता "जनेता चोपनेता च, यस्तु विद्यां प्रयच्छति । पिवास-पिपासा । आव० २३७ । अन्नदाता भयत्राता, पर्वते पितर स्मृताः ।" ज्ञाता० पिवासा-पिपासा-प्राप्तेऽप्य तृप्तिः । भग० ८६ ॥ २४० । सुदंसणगाथापतेः पत्नी। निरय० ३७ । ज्ञाता० पिपासा। आव० ७११। पिपासा-वध्यं प्रतिस्नेहरूपा। ८८ पाति-रक्षत्यपत्यमिति पिता । उत्त.१८।। प्रश्र. ५ । पिपासा-अप्राप्तामामाकाक्षा । बोप० पियादए-आत्मवत् सुखप्रियत्वेन प्रियादया-रक्षणं येषां । ४७ । पिपासा-द्वितीयः परीषहः । आव० ६५६ । तानु प्रियदयान, प्रिय मारमा येषां तान् प्रियात्मकान् । पिवीलिया-पिपीलिका-कीटिका,सामायिकलाभे दृष्टान्तः । उत्त० २६५ । आव- ७५ । पियापुत्ताणि-पितापुत्र्यो । उत्त० १२६ । पिवरिया-विपर्ययकरणम् । नि० चू० प्र०८ अ। पियायया-आयत:-आश्माऽनाद्यनन्तस्वात् स प्रियो येषां पिसल्लग-पिसलक:-पिशाचकः। प्रश्न. १६२। पिसल्लय:ते तथा । आचा० १२२ । पिशाचः । प्रश्न २५ । पियाल-वृक्षविशेषः । भग० ८.३ । प्रियालं-प्रियाल- 1 पिसाचा-व्यन्तरभेदविशेषः । प्रज्ञा०६६। फलम् । दश० १८६ । प्रियाल:-वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० | पिसाची-पिशाची-ग्रथिला । ६० तृ० २३३ अ । पिसाय-पिशाच:-ग्रथिलः । ६० प्र०५६ म। पिशाचः। पिरलो-नृणरूपवाद्यविशेषः । जीवा० २६६ । जं० प्र० आव० ४२१ । पिसिय-विसितं-मांसम् । आव०८५४ । पिरिपिरिता-तस्स मुहत्याणे खरमुहाकारं कटुमयं मुहं | पशुक:-चञ्चट: । जे० प्र १४ । कजति । नि० चू• तृ. ६२ अ । 15 पशुक:-चञ्चटादिः । जीवा० २८२ । पिरिपिरिया-कोलियकपुटावना वंशादिनलिका । आचा० पिसुण-पिशुनं-परदोषाविष्करणरूपम् । प्रभ० ३६ । ४१२ । पिशुनं-परोक्ष्यस्य परस्य दूषणाविष्करणरूपम् । प्रश्न पिलंखु-पिप्परी । आचा० ३४८ । ११६ । पिशुन:-पृष्टिमांसवाद: । दश० २५१ । पिशुन:लिंक्खुरुक्खे-शीतलजिनचंत्यवृक्षः । सम० १५२ । छे भेदकर्ता । दश० २५४ । पिशुन:-खलः । प्रभा Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिसुणग] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [पोठिका ४१ । पिशुन:-परदोषोद्धाटकः । उत्त० २४५ । पिशुन:- १७६ आ । जवगोहुमादीणं । दश० चू० ११२ अ। . सूचकः । उत्त० ५४६ । पीति सुण्णं करेतीति । दश पिहजण-पृथग्जनः-सामान्यलोकः । दश० २५६ । चू० १३८ । पोति सुण्णं करेति, प्रीति विच्छेदं करोति । पिहुण-बहः । आचा० ३४५ । पेहुणं-मयूरादिपिच्छम् । नि० चू० तृ. ८० आ । दश० १५४ । । पिसुणग-पिशुनकम् । आव० ३८५ । | पिहुणहत्थ-पेहुणहस्त:-मयूरादिपिच्छसमूहः । दश० १५४। पिसुया-त्रोन्द्रियजन्तुविशेष: । जोवा० ३२ । त्रीन्द्रिय- बहकलापः । आचा० ३४५ ।। विशेषः । प्रज्ञा० ४२ । पिहुभिन्न-पिहितोद्भिन्नम् । नि० चू० त० ५६ आ । पिहजण-पृथग्जन:-सामान्यजनः । ठाणा० १२२ । पिहुय-पृथुकं शाल्यादिलाजान् । आचा० ३४२ । पृथुकंपिहड-यत्र प्रभूतजनयोग्यं धान्यं पच्यते । जीवा० १०५। भुग्नशाल्याद्यपगततुषम् । आचा० ३५७ । पृथुकम् । पिहडय-पिठरकं-स्थाली: । उपा० ४० । . आचा० ३२३ । पिहण-पिघानं-स्थगनम् । आव० ८३८ । पिहुल-पृथुलं-विस्तीर्णम् । ठाणा० २५ । पिहाइ-स्पृहयति अभिलषति पिधत्ते वा, अथवा अक्षिणी हला-पृथुला दक्षिणोत्तरतः। जीवा० २७५ । पिधत्ते-निमोलयति । भग० १७५ । पिहेंति-पिधन्त:-स्थगयन्तः । ज्ञाता० १६६ । पिहिआसव-पिहिताश्रवः-स्थगितप्राणातिपाताद्याश्रवः । पिहेइ-पिदधाति--स्थगयति अपनयतीति । उत्तः ५८० । दश० १५७ । इ-प्रीति:-प्रोणनं-आप्पायनम् । भग० ३१७ । चित्तोपिहिउभिन्नं-आदी पिहितं पश्चादुद्भिन्नं पिहितोद्भिन्नम्। लासः । जं० प्र० ५२८ । जीवितम् । आव० ६९० । पिण्ड० १०५ । प्रीति:-प्रियत्वं न कार्यवशादित्यर्थः । ज्ञाता. ३५।।। पिहित-घट्टितम् । ओघ० १६६ । पीइगम प्रीतिगमः षष्ठदेवलोके विमानम् । औप० १२। पिहितकपाट-अर्गलितकपाटम् । ओघ० १६६ । पीडदाण-प्रीतिदानं-सन्तोषदानं प्राभूतरूपम् । ज. प्र. पिहितेन्द्रिय-निरुदहषीक: । प्रश्न० १६० । २०४ । मिहिमिहीभूत-पृथक्पृथग्भूतः । आव० २०८ । पोइमणे-प्रोतिमना:-प्रोतिः प्रीणनमाप्यायनं मनसि यस्य पिहिमोदणं- ।नि० चू० प्र० ३२८ आ। सः । भग० ११६ । प्रीतिर्मनसि यस्यासो प्रीतिमनाः । 1 पिहिय-पिहितः स्थगितः कम्बलाद्यावृतशरीरः । आचा० | जीवा० २४३ । ३०९। पिहित:-स्थगितः। आचा० ३०३ । पिहितं-सचि. पीडवद्धण-प्रोतिवर्द्धनः-द्वादशममासनाम । ज०प्र०४६०॥ तेन स्थगितम् चतुर्थ एषणादोषः । पिण्ड० १४७॥पिहितं. पोई-प्रीति:-साम्मत्यलक्षणा। प्रज्ञा० ५९९ स्थगितम् । भग० २७४ । स्थगितः । ठाणा० १२४ । पोईसुण-पिशुनी-प्रीति शून्यां करोतीति पिशुनी, नरुक्तीपिहियच्च-पिहितार्च:-पिहिता-स्थगिताऽचर्चा-क्रोध- शब्दनिष्पतिः। ६० प्र० १२८ मा । ज्वाला येन स तथा, यदि वा पिहिता! गुप्ततनुः । पीटुं-पिष्टम् । आव० ८५५ । आचा० ३०४ । पीठ-पाषाणभेदः । प्रज्ञा० २७ । आचा० ३७६ । पिहिस्सामि-पिधास्यामि-स्थगयिष्यामि । आचा० ३०१। पीठमद्द-पीठमई:-अस्थाने आसनासन्नसेवकः, वयस्यः । पिहुंड-पिहुण्डं-नगरविशेषः । उत्त. ४८२ । औप० १४ । पिहुखज-पृथुकभक्ष्यं पृथुकभक्षणयोग्यम् । दश० २१६। पीठमहा-पीठमर्दा:-आस्थाने आसन्न प्रत्यासनसेवका वयमिहग-पृथुकीकृतः । आव० ८५५ । स्याः । राज. १२१ । पिहुगा-पृथुका-ये व्रीहयः परिपङ्काः सन्तो भ्राष्ट्रादौ | पोठरक-भाण्डम् । प्रभ० १२७ । भृज्यन्ते ततः स्फुटिता अपनीतत्वचः पृथुका । बृ० प्र० पीठिका-ग्रन्थभूमिका । आव० ३८२ । उपवेशनादिस्थान (७१८) Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [पोहति विशेषः । (?)। पीणित-प्रोणित:-उपचयं नीतो यो योगः । सूर्य० २३३ । पीठिकागीत-पीठिकामात्रम् । बृ० प्र० ५६ अ ।। पीणिय-प्रीणितः । दश० २१७ । पीठी-ऊर्ध्वम् । ओघ० १७८ ।। पीणियसरीर-पोन शरीर: । उत्त० २७२ । पीडय-पीडकः । ओघ० २०६ । पोतकणवीर-पीतकणवीरः । प्रज्ञा० ३६१ । पीडा-विणासो । दश० चू० ७५ । पीतबन्धुजीव-पोतबन्धुजीव: । प्रज्ञा० ३६१ । पीढं-पीठम् । प्रज्ञा. ६०६ । पीठं-आसनविशेषः ।। पोतासोग-पीताशोकः । प्रज्ञा० ३६१ । आव० ६५४ । पोठं-गोमयादिमयासनम् । पिण्ड० | पीतिदाणं-स्वप्नपाठके दानम् । ज्ञाता० २१ । १०६ । आचा० ३७८ । पोठं-आसनम् । भग० १३६। पीतिबद्धणे-प्रीतिवर्द्धनः-लोकोत्तरे चतुर्थमासनाम । सूर्य० पीठं-आसनविशेषः । ज० प्र० १६४ । पीठ:-वज्रसेन- १५३ । धारिण्योः पुत्रः । आव० ११७ । पीठ- पट्टादिकम् । पीयवाई-केनचिदप्रियमुक्तोऽपि प्रियमेव वदतीत्येवंशीलः ठाणा० ३१२ । पीठ-आसनम् । उत्त० ४३४ । आस- प्रीयावादी आचार्याभिप्रायानुवत्तितयैव वक्ता । उत्त.. नम् । ज्ञाता० १०७ । पीठकम् । आचा० ३४४ । । १४७ । पीढग-नृषिका वा काष्टमयं वा पीठकम् । बृ० वि० पोरिपोरिया-पीरिपोरिका-कोलिकपटावनद्धमुखवाद्यवि. २११ अ । नि० चू० प्र० २०८ । पलालपीढगादि । शेषरूपम् । राज० ४६ । दश० चू० ६६अ। पीठक-काष्ठमयं छगणमयं वासनम् । पीलग-पिलको रूढिगम्यः । ज० प्र० १७२ । बृ० द्वि० २५३ अ। पोलण-पीडन-इक्ष्वादेरिव । आव० २७३ । । पीढगा-पोठिका-चयिका । पिण्ड० १०७ । पीलिम-पोडावत्-संवेष्टितवस्त्रभङ्गावलीरूपम् । दश० पीढमद्द-पोठमई:-आस्थाने आसनासीनसेवक: वयस्य ८६ । पोडावत्-संवेष्टितवस्त्रभङ्गावलीरूपम् । दश०८७ इत्यर्थः । भग० ३१८ । पीलिय-पीडितः जलाईवस्त्रे निष्पीड्यमाने । ठाणा० पीढमद्दण-पीठमई:-आस्थाने आसनासन्नसेवक:-वयस्यः ।। ३३६ । पीलित:-अचित्तस्य तृतीयो भेद:-पोत्तचम्माई । वेश्याचार्यः । ज० प्र० १९. । • ओघ० १३३ । पीढय-पीठकं काष्ठपीठादि । दश० १७२ । पहाणपीढयं पीलियग-पीडितको यन्त्ररिक्षवद् । औप० ८७ । नाणपीढाइ । दश० चू० ८० आ । पोलु-वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । क्षीरं-पयः । पिण्ड. पीढसप्पि-जन्तुर्गर्भदोषात पीठसप्पित्वम् । आचा० २३३ । .. ५० । पीलुः-वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । पीढाणित-पीठानीक-अश्वसैन्यम । ठाणा०३०३.४०७।। पील्ल-पीलू । आव० ६२२ । पीढि-पीढः । ओघ० १.६ ।। पीवर-पीवरः-महान् । प्रश्न० १५२ । स्थूलः । ज्ञाता. पीढियावाहग-पीठिकावाहकः । आव० २११ । १६ । पोवर:-स्थूरः । ज्ञाता० १६० । पीण-पीनः-स्थूलः । प्रश्न० १५२ । पीनं-पीवरम् । (१)। पीवरगन्भा-पीवरगर्भा-आसमप्रसवकाला । ओघ०७४। पीगाणिज-प्रोणनीयं-रसादिधातुसमताकारि । ठाणा पीवरपउट-पीवरप्रकोष्ठः-अकृशकलाचिकः । जीव० २७१॥ ३७५ । रसरुधिरादिधातुसमताकारी । औप०६५। पीसंतिय-पेषयन्तिका-गोधूमादीनां घरट्टादिना पेषणकापोणति-पोनयति-पीनमात्मानं करोति-स्थूलो भवति । - रिकाम् । ज्ञाता० ११७ । जीव० २४७ । पीसे-पेषयन्ती । ओघ• १६५ । पोणाइय-पीनाया-मड्डा तया निर्वृत्तं पनायिकम् । ज्ञाता० | पोहग-पीहक:-हारः । ७० प्र० ३७ अ। पोहगपा ।निरया० ३४ (१)। पोगिए-प्रीणित:-तपितः । उत्त० २७३ । पोहति स्पृहयति-अनावाप्तमवाप्तुमिच्छति । औप० २४ । ( ७१९) Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोहय ] पीह-स्पृह्यं - पृथुकम् । आव० ६३ । बृ० प्र० २६ आ । पीहे स्थगयेत् । सूत्र० ६५ । पीहेज्ज - स्पृहयेद्-अभिलषेद् | ठाणा० १४५ । पीहेति आचार्य श्री आनन्दसागरसू रिसङ्कलितः । ज्ञाता० १६६ । २०१ । द्वादशसागरो २२ । पुंख-पृङ्खः - पृष्ठभागः । ज० प्र० पमस्थितिकदेव विमानम् । सम० पुंछ - प्रोञ्छ- उन्मीलय | बृ० द्वि० पुंछडा - १ञ्चम् । बृ० द्वि० पुंछणं - रजोहरणम् । बृ० द्वि घर्षणम् । बृ० प्र० २७० आ । पुंछणी - पुज्छनी - निपीडतरच्छादन हेतु श्लक्ष्णतरतृणविशेष स्थानीया । ज० प्र० २३ । जीवा० १५० । पुंछन-आसनम् । उत्त० ४२३ । पुंछे वस्त्रतृणादिभि: पुञ्छयेत् । दश० २२८ । पुंज-पुञ्ज:- राशि: ओघ० १६३ | पुञ्जः । विशे० ४२६ । निकरः । ज्ञाता० २२६ । पुञ्जः । बव० ४२२ । पुंड. पुण्ड्र:- जनपदविशेषः । अन्त० १६ । पुण्ड्र :- पुण्ड्र देश:, यत्र विशिष्टानि हरितानि शाड्वलानि भवन्ति । जीवा० ३५५ । द्वादश सागरोपमस्थितिकदेव विमानम् । सम० २२ । पोण्डं - पुष्पम् । उस० १४३ । वैताढ्यगिरिप्रदेशे जनपद: । ठाणा० ४५८ । पुण्ड्र : - वरुणस्य पत्रस्थानीयो देवः । भग० १६६ । पुंडपइया पुण्डानि धवलानि पदानि पादा येषां ते ते एव पुण्डपदिकाः । ज्ञाता० २३० । पुंडरंगिणी - पुण्डरीकिणी - पुष्करावतीविजये नगरम् । आव ० तथा १६७ अ । ११७ । पुंडरिगिणि- पुण्डरीकिणी - उत्तररूचक वास्तव्या दिक्कुमारो | आव० १२२ । पुण्डरी करायन गरी विशेषः । आव० २८८ । पुण्डरीकिणी- पुष्कलावती विजये नगरी । उत्त० ३२६ । जम्बूपूर्वविदेहे पुष्कलावतिविजये नगरी । ज्ञाता० २४२ । पुंडरीअ - अष्टादश सागरोपमस्थितिकदेव विमानम् । सम० ३५ । पुंडरीअनार्य - पुण्डरीक ज्ञातम् । उत्त० ३२१ । [ पुंडरीयगुम्मं पुंडरीआ - पुण्डरीका - उत्तररूचकवास्तव्या तृतीया दिक्कुमारी महतरिका । ज० प्र० ३६१ । पुंडरीए - पुण्डरीकं षष्ठाङ्गे एकोनविंशतितमं ज्ञातम् । ज्ञाता० १०८ । १४६ अ । पुंडरीओ - स्तोककाले नोगामी । मर० । ८६ अ । प्रोञ्छनं- पुंडरीक - ऋषभस्वामिनो ज्येष्ठगणवरः । व्य० द्वि० १०६ । उत्त० ६१४ । पुंडरीए पव्वए- आदिदेवगणधर निर्वाणत उपलक्षितः पर्वतः स तत्र प्रथमनिर्वृतस्वा स्पुण्डरीकपर्वतः - शत्रुञ्जयः । भ । पुंडरी किणी महाविदेहे नगरी । विपा० ६४ । पुंडरी गणी- पुण्डरीकिणी-पश्चिम दिग्भाव्यञ्जन पर्वतस्योत्तरस्यां पुष्करिणी । जीवा० ३६४ । पुण्डरी किणी - राजधानी नाम । ज० प्र० ३४७ । पुंडरीय - पुण्डरीकं - सितपद्मम् । जीवा० २७३ | पुण्डरीकसूत्रकृताङ्गे सप्तदशममध्ययनम् । ३२६ । पौण्डरीकःपुण्डरीक इव प्रधान:- तियंक्षु मनुष्येषु देवेषु च प्रधानानामुपमा । सूत्र० २६७ । पुण्ड योकः -क्षीरवनदीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जोवा० ३५३ । पुण्डरीकं - सूत्रकृतागे द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमाध्ययनम् । आव० ६५८ । पुण्डचरीकं - सूत्रकृताङ्गस्य सप्तदशममध्ययनम् । उत्त० ६१६ । पुण्डरीकं - सिताम्बुजम् । प्रज्ञा० ३६३ । पुण्डरीकंप्रधानम् । उत्त० ४८४ । महापद्मपद्मावत्योः पुत्रः । ज्ञाता० २४३ । पुण्डरीकः - महाराजपुत्रः सदनुष्ठानपरायणतयाऽस्य शोभनत्वे उपमा । सूत्र० २६८ । पुण्डशक:- अलोभोदाहरणे साकेतनगराधिपतिः । आव ० ७०१ । पुण्डरीकः - महापद्मराजस्य ज्येष्ठसुतः । उत्त० ३२६ । पुण्डरीक:- पुण्डरिकिण्यां राजा । आव० २८८ ॥ पुण्डरीकं-सितपथम् । ज्ञाता० ९६ । पुण्डरीकः - ज्ञाता कोनविंशतितममध्ययनम् । आव० ६५३ । पुण्डरीकं - सितम् । भग० ५२० । पौण्डरीकः- शिखरीणः पर्वते हृदः । ठाणा० ७३ । सूत्रकृताङ्गस्य सप्तदशममध्ययनम् । सम० ४२ । पुण्डरीकं सहस्रपत्रम् । भग० ७ । पुंडरीय गुम्मं - अष्टादशसागरोपमस्थिकदेव विमानम् । सम० ३५ । ( ७२० ) Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरायणाय ] पुंडरीयणाय - पुण्डरीकशातम्, ज्ञातायां प्रथमश्रुतस्कंधे एकोनविंशतितममध्ययनम् । ज्ञाता० ६ । पुंसयति रुक्षयति । बृ० प्र० ७१ मा । पुस्कली पुष्प - कूष्माण्ड काकुसुमम् । जं० प्र० ३४ ॥ पु-पूः शरीरम् । आव० २७७ । पुक्कंत - पूरकुर्वनु- पूरकारं कुर्वाणः । प्रश्न० ४६ । पुक्करिमाणे। ज्ञाता० २४० । पुक्खर - पुष्करं - चर्मपुटम् । राज० ३१ । पुष्करं चर्मपुटकम् ज० प्र० ३१ । पुष्करं चर्मपुटकम् | जीवा० १८९ । पुवख र कण्णिया - पुष्कर कणिका - पद्ममध्यभागः । ठाणा० १४५ | पुष्करकर्णिका - पद्मबीजकोशः । जीवा० १७८ । पुष्करकणिका - पद्मबीजकोश:- कमलमध्यभागः ॥ ज० प्र० १६ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ क्खरणी - पुष्करिणी - तडागरूपा । सूत्र० २८६ । चतुरखा वापी पुस्करणी । ठाणा० ८६ । पुष्करिणीवृत्ता पुष्करवती वा । औप० ८ । पुष्करिणी-वृत्ताकारा वापी, पुष्कराणी विद्यते यस्यां सा वा । जीवा० १६७ । चाउरस्सा पुक्खरणी । नि० चू० द्वि० ७० मा । पुवखरबर- पुष्करवरः- पुष्करवरोपलक्षितो द्वीपः । जीवा० ३३३ । पुष्कराणि - पद्मानि तैर्वर:- प्रधानः पुष्करवरः द्वितीयो द्वीप: । आव० ७८८ । पुष्करवरः - कालोदधिसमुद्रानन्तरो द्वीपः । प्रज्ञा० ३०७ । पुक्खर वर दीव - पुष्करवरद्वीप:- पद्मवरोपलक्षितो द्वीपः । अनु० ६० । [ पुग्गल जीवा० १८८ । वापी वृत्ता । ज० प्र० ३० । पुष्करिणी - वृत्ताकारा । प्रज्ञा० २६७ । वृत्ताकारा | ज० प्र० ४१ । वृत्ताकारा वापी - पुष्करिणी, यदि वा पुष्कराणि - पद्मानि विद्यन्ते यासु ता पुष्करिण्यः । प्रज्ञा० ७२ । पुष्करिणी वृत्तः पुष्करवान् वा जलाशयविशेषः । भग० २३८ । पुक्खरोद - पुष्करोदः - समुद्रविशेषः । ज्ञाता० १२८ पुष्करोद:- पुष्करवरद्वीपपरितोऽपि शुद्धोदक रसास्वादः समुद्रविशेषः । अनु० १० । पुक्खल - पद्मकेसरम् | आचा० ३४८ । पुष्कलं - प्राचुर्यम् । सूत्र० २८६ । पुष्कलं - सम्पूर्णम् । आय ० ७८८ । पुष्कलं सर्वं अशुभानुभावरूपं भरतभूरोक्यदाहादिकम् । ज० प्र० १७३ । पुक्ख लविजय - पुष्कलावर्तः सप्तमो विजयः । ज० प्र० ३४६ । पुक्खल विभंग- पद्मकन्दम् । माचा० ३४८ | पुक्खलसं वट्टओ-पुष्करसंवर्त्तकः - जम्बूद्वीप प्रमाणो महामेघः । आ० १० (?) । पुक्खल संवट्टग - पुष्कल संवर्त्तकः - महामेषः । भग० २३२ । पुक्खल संवत - एकया वृष्टा वर्षसहस्रं वासयितुं समर्थो मेघः । ठाणा० २७० । पुक्खल संवट्टध- पुष्कलं - सर्व अशुभानुभावरूपं भरतभूरीदाहादिकं प्रशस्तस्वोदकेन संवर्तयति-नाशयतीति पुष्कलसंवर्तकः । ज० प्र० १७३ । पुक्खला - महाविदेहे विजयः । ठाणा० ८० । पुक्खलावद्दविजओ- पुष्कलावतीविजय: । आव ० ११६, ११७ । पुक्खलावई - जम्बूपूर्वविदेहे विजयः । ज्ञाता० २४२ ॥ महाविदेहे विजय: । ठाणा० ८० । पुक्खला वईकूड - पुष्करावतीकूटं एकशे लवक्षस्कारकूटनाम । पुवखरवर समुद्द- पुष्कर व रसमुद्रः - पुष्करवर द्वीपानन्तरं समुद्रः । प्रज्ञा० ३०७ । पुक्खर संवहग - पुडकल संवर्त्तकः - उदकरसो प्रथमो महामेघः। पुष्कलं प्रचुरपि सर्वमशुभानुभावं भूमिरूक्षतादाहादिकं प्रशस्तोदकेन संवर्तयति-नाशयति । अनु० १६० । पुक्खरसारिया - लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । क्खरिणी - पुष्करिणी वृत्ता वाप्येव जलाशया पुष्करवती वा । अनु० १५९ । पुष्करणी - पुष्करवती वर्तुला । प्रश्न० १६० । पुष्करिणी वर्तुलः । औप० ९३ । पुष्करिणी - पुष्कराण्यस्यां विद्यन्त इति । जीवा० १२३ । पुष्करिणी-वृत्ता वापी, पुष्कराणि विद्यन्ते यस्यां सा वा । पुग्गल - पुद्गलं लेष्ट्वादिकम् । जीवा० ३७५ । पुदुगलं - ( अल्प ० ६१ ) ( ७२१ ) नाम । ज० प्र० ३४७ । ज० प्र० ३४७ । पुक्खलावतोविजओ-पुष्कलावती विजयः - जम्बू महाविदेहे विजयः । उत्तः ३२६ । पुक्खलावत्तकूड - पुष्करावर्तकूट - एकशैलवक्षस्कारकूट Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुग्गलपरियट्टा] आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पुढतो % 3D उष्णोदनादि । दश० १५४ । पुद्गल:-आत्मा । प्रधानः ।। पूज्यशास्त्रः । उत्त० ६६ । पूज्याः शास्ता गुरुरस्येति सूत्र० २३७ । पुद्गलं-मांसम् । दश० १७६ । पूज्यशास्त्रकः । उत्त० ६६ । पूज्यश्चासौ शस्तश्चेतिपुग्गलपरियट्टा पुद्गल:-पुद्गलद्रव्यैः सह परिवर्ता:- पूज्यशस्तः । उत्त० ६६ । परमाणूनां मिलनानि पुद्गलपरिवर्ताः । भग० ५६७ । पुञ्छणा-पुञ्छनि-निबिडतराच्छादन हेतुश्लक्षणतरतृणविशे. पुच्छ-वालघौ । उत्त० ५५१ । मेहनम् । औप० ८७। षस्थानीया । राज० ६२ । पुच्छण-प्रोच्छनं-दारूदण्डकम् । बृ० द्वि० १०८ प्रा। पृट-काष्ठादिगन्धद्रव्यम् । जीवा० १६२ । पुच्छणा-पृच्छना-इङ्खिणिकादिलक्षणा । आव० १२९ । पुटकः । दश० ११८ । पृच्छना-विस्मृतसूत्रार्थ प्रश्नः । प्रश्न० १२६ । गृहीतवाच- | पुटग-पुटकः खल्लकम् । बृ० द्वि० १०१ अ । नेनापि संशयाद्युत्पत्तौ पुनः प्रष्टव्यमिति, पूर्वाधीतस्य सूत्रादेः पुटभेद: । प्राचा० ५९ । शङ्कितादौ प्रश्नः, प्रच्छना । ठाणा० ३४६ । प्रच्छना- पृट्ट-उदरम् । बृ० प्र० २३५ ना। गुरु प्रति प्रभलक्षणा । अनु० १६ । पृच्छना-सूत्रस्य | पुट्टपत्थर-नि० चू० प्र० ३१८ आ । अर्थस्य वा प्रच्छना । दश० ३२ ।। पुट्टिल-चतुर्थो वासुदेवः । ठाणा० ४५७ । पुच्छणाए। ज्ञाता. ६१ । पुट्टिला । ज्ञाता० २०४ । पुच्छणो-पृच्छी-अविज्ञातस्य संदिग्धस्य वाऽर्थस्य ज्ञानार्थ | पुटुं-स्पृष्ट-बद्धस्पृष्टनिकाचितम् । सूत्र० ७१ । पृष्टंतदभियुक्तप्रेरणरूपा । भग० ५००। पृच्छनी-अविज्ञातस्य उपरितलम् । सूत्र. १२६ । आत्मप्रदेशस्पर्शवति । भग. सन्दिग्धस्य कस्यचिदर्थस्य परिज्ञानाय तद्विदः पार्श्व २१ । गाढतरबन्धेन पोषितम् । भग० ६० । स्पृष्टंचोदना, असत्यामृषाभाषाभेदः । प्रज्ञा० २५६ । प्रच्छनी, अग्निसम्पर्कानन्तरं सकृत धनकुट्टितः सूचीकलापयत् । असत्यामृषाभाषाभेदः । दश० २१० । प्रज्ञा० ४०२ । अतीव स्पर्शेन स्पृष्टम् । प्रज्ञा० ४५६ । पुच्छा-अपुणरुत्तं जाव बिओ कड्ढिउं पुच्छति सा पुच्छा स्पृष्टं-आत्मप्रदेशस्पर्शविषयम् । जीवा० २० । कथिततिहिं सिलोरोहिं एगा पुच्छा, जत्थ पगतं समप्पति थोवं त्त्वादिना अकिञ्चित्करः । व्य० द्वि० ३०६ अ । स्पृष्टंबहुं वा सा एगा पुच्छा बत्तियं मायरिएण तरइ, | स्पर्शमात्रोपेतम् । जीवा० १३ । स्पष्टः-इन्द्रियसम्बद्धः । उच्चारित घेत्तुं सा एगा पुच्छा । नि० चू० तृ० ६७ था। ठाणा० २५३ । स्पृष्टम् । भग० १३१ । पृष्ठं-चक्रपुवदितै पच्छा, नामेण वा गोत्तेण वा दिसाए वा परिधिरूपम्. यल्लोके पूंठी इति प्रसिद्धम् । ज० प्र० पुच्छा । नि० चू० प्र० १६६ अ । बाहारणतद्देशे २११ । स्पृष्टः- अभिद्रुत: । उत्त० ८६ । स्पृष्टः-व्याप्तः, तृतीय भेदः । ठाणा. २५३ । पृच्छा । आव० ३८२ । पृष्ट इव पुष्टः । उत्त० ११६ । स्पृष्टः बाधितः । उत्त. पृच्छा- जिज्ञासोः प्रश्नः । व्याख्याने एकादशमद्वारम् । १४० । स्पृष्टं-प्राप्तम् । ज०प्र०६७ । स्पष्टः-विदाउत्त० ७३ । पृच्छा-प्रभः । दश० ४६ । रितः । प्रोप० ८८। स्पृष्टः-स्पृष्टवान् । जीवा० २६१ । पृच्छियटुं-मांशयकार्थप्रकरणात् । भग० १२५ : सं ये स्पृष:-व्याप्तः । प्रज्ञा० ६०११ स्पृष्टः-यथाऽबद्धः । आव० सति परस्परतः । भग० ५४२ । संशये सति पुच्छिय? । ३२१ । स्पृष्टं-तनी रेणुवत् । भग० ५६६ । पुष्टःज्ञाता० १०६ । उपचितः । ज्ञाता. ११ । पृष्ठ:-पुष्टः । उत्त० १२० । पुच्छीअ-पृष्टवान् । प्राव. १५८ । प्रोञ्छितं-सुधृष्टम् । वृ० प्र० २७१ अ । स्पृश्यत इति "पुच्छे । भग० ११४ । स्पृष्टस्तं स्पृष्ट तनौ रेणुबदालिङ्गितमात्रमेवेत्यर्थम् । विशे० पुच्छेज-पृच्छेत-अर्थयेत् । भोष० १३५ । १९६ । फुडं-जीवप्रदेशः स्पर्शनात स्पृष्टम् । भग० १८४ ॥ पुज-पूज्य:-पूजाह:-कल्याणभाग् । दश० २५२। | आत्मप्रदेश विषयम् । प्रज्ञा० ५०२ । पुखसत्य-पूज्य-सकलजनश्लाघादिना पूजाहं शास्त्रमस्येति- 'पुटुतो-पृष्ठतः । ज्ञाता० १६० । ( ७२२) Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुटुपविट्ठ ] पुट्टपविट्ठ- श्रोत्रादीनि चक्षुरहितानि स्पृष्टमर्थं प्रविष्टम् । भग० १३१ । पुट्ठलाभित- पृष्टस्यैव साधो ! दीयते ते ? इत्येवं यो लाभस्तेन चरतीति प्राग्वत् पृष्टलाभिकः । ठाणा० २६८ । पुट्ठलाभिय- पृष्ठलाभिकः यः कल्पते इदं इदं च भवते साधो ! इत्येवं प्रश्नपूर्वकमेव लब्धं गृह्णाति यः सः । प्रश्न० १०६ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ पुट्ठा पुट्ठ- दृष्टिवादे सूत्रे चतुर्दशमो भेदः । सम० १२८ ॥ पुट्ठेया- पुष्टि:-पृच्छा ततो जाता पृष्टिजा-प्रभजनितो व्यापार:, अथवा पृष्टं - प्रश्नः वस्तु व तदस्ति कारणत्वेन यस्यां सा पृष्टिका, अथवा स्पृष्टिः-स्पर्शनं ततो जाता सृष्टिजा, तथैव स्पृष्टिकाऽपीति । ठाणा० ४२ । जीवादीन् रागादिना पृच्छतः स्पर्शतो वा । ठाणा० ३१७ | स्पृष्टिजा स्पर्शन क्रिया, विशतिक्रियामध्ये सप्तमी । आव० ६१२ । स्पर्शकी - स्पर्शनक्रिया । आव० ६१३ । पुट्ठिल- अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य नवममध्ययनम् । अनुत्त० २ । पुट्टी - पुष्टि:- अतिशायी पोषः । जीवा० २६८ । पुष्टि:पुण्योपचयः, अहिंसायास्त्रयोविंशतितमं नाम । प्रश्न० ६६ । पुष्टि: । आव० ३५० । पुडा -पुटा-पुटिका । भग० ७१३ । पुडिया पुटिका । आव० ३६६ । पुटुवंसा - पृष्ठवंशा मध्यवलकाः । ज० प्र० २३ | पुटुवई - प्रोष्ठपदी । सू० १२७ । पुट्ट सेणियारिकम्मे - दृष्टिवादे परिकर्मे तृतीयो भेदः । सम० १२५ । पुट्ठा - स्पृष्टा छुप्तवती । ज० प्र० ६८ । स्फुटाः-स्फुटी- पुढवी - पृथिवी, पृथ्व्याः प्रथमभेदः । आचा० २९ । पृथिवीकृता शोधिता । ज्ञाता० ११६ । धूलि: । आचा० ५१ । इशान देवेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी । ठाणा० २०४ | भग० ५०५ । भगवत्यां त्रयोदशशत के प्रथम चतुर्थ उद्देशकी | भग० ५६६ । पृथिवीति-भामा सत्यभामावत् शुद्धपृथिवी च नदीतटभिस्यादिरूपा । प्रज्ञा० २७ । पृथिवी - केदाराद्युपरिवत्तिनी शुष्कको पट्टिका खटिका निमित्ता वा । बु० प्र० १६१ आ । पृथ्वी रत्नप्रभादिः । अनु० १७३ । पुढवीओ-पृथिव्य : भगवत्याः प्रथमशतके पचमोद्देशकः । भग० ६ । पुढवीकाय-पृथिवीकाय: - उदयभूधरशिरः । अस्तमयभूधरशिरो वा । सूर्य ० ४७ ॥ पुडवीवडेंसय- पृथिव्यवतंसकं - रोहोटकनगरे उद्यानम् F विपा० ८२ । पुढवी सिरी- पृथिवी श्री:- इन्द्रपुरनगरे गणिका । विपा० ६५ । पुड- पुटं - नासापुटम् । उपा० २१ । पुष्करम् । उपा० २१ । पुडमेयण - कुङ्कुमादीनां पुटा यत्र विक्रयार्थं भिद्यन्ते पुढेगत्तं पृथवकालदेशभेदेन कदाचित्कचिदित्यर्थः । ठाणा तत् पुटभेदनम् । बृ० प्र० १८१ आ । पुटभेदनंप्रधाननगरम् । उत्त० ४७५ । ३८४ । पुढो पृथक् प्रत्यक्षज्ञानी परोक्षज्ञानी च । आचा ३६ ॥ पृथग्भेदेन । उत्त० १५१ । पृथग् - विभिन्नम् । आचा० ३५ । पृथग प्रत्येकम् | आचा० १२१ । पृथग्-विभिन्नम् । आचा० १४१ । [ पुढोछंदा १५१ । पुढवि - भगवत्यां द्वादशशतके रत्नप्रभा पृथिवीविषय: तृतीयोद्देशकः । भग० ५५२ । पृथिवी - लोष्टादिरहिता । दश० १५२ । पुढविकाइया- पृथिव्यैव कायो येषां ते पृथिवीकायिक, पृथिवीकायिका, पृथिव्यैव वा काया-शरीरं सो यस्य अस्ति ते पृथिवीकायिकाः । ठाणा० ५३ । पुढवि सत्य - पृथ्वी शस्त्रम् । आव० ५१४ । पुढविसिलावट्टय - पृथिवीशिलारूप: पट्टक:- आसनविशेषः पृथिवीशिलापट्टकः । भग० १२७ । पृथिवीशिलापट्टक:आसनविशेषः । ज० प्र० २५० । पुढ - पृथग्भूतः - व्यवस्थितः । सूत्र० ५५ । पुढवाए -पुटपाका:- कुष्ठिकानां कणिकावेष्टितानामग्निना पुढोछंदा - पृथग्-भिन्नः छन्द:- अभिप्रायः येषां ते पृथग्पचनानि, अथवा पुटपाका:- पाकविशेषनिष्पन्ना । ज्ञाता० छन्दा: । आचा० २०५ । ( ७२३ ) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढोजण ] पुढोजण- पृथग्जन:- प्राकृतपुरुषः अनार्यकल्पः । सूत्र० ८१ । पुण - पुनः । प्रश्न० १५५ । पुनः- एवकारार्थः । आचा०१० । पुन:- द्वितीयवादापेक्षः । व्य० प्र० १५७ अ । पुनःशब्द:केवलार्थः । व्य० द्वि० ११ अ । पुणउत्ति - ( देसी, भासते वुच्चति । नि० चू० प्र० १२१ अ । पुट्ठा-साधुवादानङ्गीकरणेन यत्पुग्यार्थं कृतम् । दश० आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः १७३ । पुणनंद - श्रेयांस जिन प्रथमभिश्चादाता । आव० १४७ । पुणम्भव - पुनर्भवः - संसारः । प्रज्ञा० १०८ । पुणभवलया - पुनर्भवः । मर० । पुणभद्द - चंपायां चत्यम् । उपा० १ । पुणरावती - पुनरावृत्तिः - परावृत्तिः सुस्थता । आव० ८६३ । पुनरावृत्तिः । दश० ६४ । पुणरावि - पुनरपि भूयोऽपि । उत्त० ३३६ । पुणरुत्त-शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तम्, सूत्रदोषविशेषः । आव० ३७४ । पुनरुवतं शब्दतोऽर्थतश्च पुनर्वचनम् अनु० २६१ । अर्थादापन्नस्य स्वशब्दस्य पुनर्वचनम् । बाव० ३७५ । पुणव्वसु- पुनर्वसुः - नारायणवासुदेवपूर्व भवः । आव ० १६३ । नक्षत्रम् । ठाणा० ७७ 1 शीतलनाथप्रथमभिक्षादाता | सम० १५१ । अष्टमबलदेव पूर्वभवनाम | सम० १५३ । [ पुण्णभद्द पुण्ण- प्रणति - शुभीकरोति पुनाति वा पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यं - शुभकम्म | ठाणा० १७ । पुण्यं पुण्यहेतुभूतं शुभानुष्ठानम् । उत्त० ३८८ । पुण्यः षष्ठो दक्षिणनिकायेन्द्रः । भग० १५७ । पूर्णः । जीवा० १७० । पुष्यार्थं यत्र बहु रन्धयित्वा भ्रमणानानां दीयते, अथवा पूर्णं यदुगृहस्थ बहुभिस्तत् । ओघ० १५६ । पूर्ण: - सम्भृतः । जीवा० २६५ | पूर्णः - क्षोदोदे समुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३५५ | महर्षिकः । बृ तृ० १७० अ । भृतो जलस्य भग० ८३ । पूर्ण उदात्तादिघोषर्यंत् परिपूर्णम् । विशे० ४०६ | पुण्या - पवित्रा । ज्ञाता० १३६ । पुण्यं श्रुत• चारित्रफलभूतं शुभकर्म । भग० ९० । यत्स्वय कलाभिः पूर्ण गीयते तत्पूर्णम् । जीवा० १९४ । यत् स्वरकलाभिः पूर्ण गीयते तत् पूर्णम् । ज० प्र० ४० । स्वरकलाभिः सर्वाभिरपि युक्तं कुर्वतः पूर्णम् । अनु० १३२ । पुण्यकूट - वैताढ्यकूटः । ज० प्र० ३४१ । पुण्णकलस - पूर्णकलशः - अनार्यंग्रामः । आव २०७ ॥ पुण्णघोस - जम्ब्वंश्वत आगामिन्यां उत्सर्पिण्यां तीर्थंकरः । सम० १५४ । पुण्णणंद- श्रेयांसनाथप्रथमभिक्षादाता । सम० १५१ । पुण्णपत्त - पूर्णपात्रं - अक्षतभूतपात्रम् । उत्त० ३८१ । पुण्णप्पभ - पूर्णप्रभः- क्षोदोदे समुद्रे पश्चिमार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३५५ । पुण्णप्पमाण- पूर्ण प्रमाण:- स्वप्रमाणं यावज्जलेन पूर्णः । जीवा० १२२ । पूर्ण प्रमाण:- पूर्ण वा जलेनात्मनो प्रमाणं यस्य, मानं वा यस्य पूर्णमात्मनः । भग० ८३ । पुणण्वसू - पुनर्वसुः । सूर्य ० १३० । शीतल जिनप्रथमभिक्षादाता | आव० १४७ । पुणोपुणो-करेति एवं प्रसङ्गः । नि० चू० प्र० २३३ पुण्णभद्द - पूर्णभद्रः - चम्पायां यक्षविशेषः । आव० २२५ । आ । पौनःपुन्येन यावृत्या | आचा० २०१ । पुण्डरीक:- औत्पत्तिक्यां स्त्रीलम्पटः । नंदी० ११४ । ज्याघ्रः । उत्त० १३५ । सूत्रकृताङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथममध्ययनम् । ठाणा० ३८७ । पुण्डरीकदलं- श्वेतपद्मम् । जीवा० १९१ । 'पुण्ड्र - तिलकः । सम० १३६ । तिलकः । जीवा० १७५ । पुण्ड्र प्रभा- वापीनाम । जं० प्र० ३७१ । 'पुण्ड्रवर्धनक: पुण्यभद्र:- दक्षिणनिकाये तृतीयो व्यन्तरेन्द्रः । भग० १५८ । पुण्यभद्रं - रविविषयप्रश्ननिर्णये चम्पानगर्यां चैत्यम् । भग० २०६ । पूर्णभद्रः । अन्तः १९ । पूर्णभद्रं - चम्पायां चैत्यविशेषः । उत० ३२१ । सोधर्मकल्पवासिदेवः । निरय० ३६ । सोधर्मकल्पे विमानविशेषः । निदय० ३६ | चंपानगर्यो उत्तरपूर्वाय चैत्यः । ज्ञाता ० ३ । घात किखण्डभरतचम्पार्या वैश्यम् । ज्ञाता० २२२ । चंपायां चैत्यम् । उपा० १६ । नि० चू० प्र० २३ अ । पूर्ण भद्र:- चम्पानगर्यां चैत्यविशेषः । प्रभ० १ । पूर्ण मद्रः( ७२४ ) पुण्ड्रा - वापीनाम । ज० प्र० ३७१ । | व्य० द्वि० २०४ भा । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्णभद्दकूड ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [पुप्फ यक्षेन्द्रः । जीवा० १७४ । चम्पायां चैत्यम् । ज्ञाता० | पुत्थी-पुस्ती-पोतस्य ज्येष्ठा सुता, ब्रह्मदत्तराज्ञी । उत्त० २५२ । जितशत्रुराजोः चंपानगयाँ चैत्यम् । ज्ञातो. ३७९ । १७३ । मणिपतिकानगयाँ गाथापतिः। निरय० ३६ । पुत्रभाण्ड: आचा० १०६ । पुष्णभद्दकूड पूर्णभद्रनाम्नो व्यन्तरेशस्य कूटं पूर्ण भद्रकूटम्। पुद्गलोद्वेशः-भगवत्यामुद्देशकः । आव० १०६ । ज० प्र० ३३८ । पूर्णभद्रनाम्नो देवस्य निवासभूतं कूटं पुधोवणं-पुणो पुणो धोवणं पुधोवणं । नि० चू० द्वि० पूर्णभद्रकूटम् । ज० प्र० ७७ । ११८ आ। पुण्णमासी-पूर्णो मासो यस्यां सा पौर्णमासी, पूर्णो मा:- पुन-प्रथमो द्विपकुमारेन्द्रः । ठाणा० ८४ । पूर्णः-द्वीपचन्द्रमा अस्यामिति वा पौर्णमासी । जोवा० ३०५।। कुमाराणामधिपतिः । प्रज्ञा० ६४ । पूर्ण-भृतं प्लुतम् । पुण्णरत्ता-परिपूर्णमधुरा । उपा० २८ । ज्ञाता० ७१ । पूर्ण-स्वरकलाभिः । ठाणा० ३६६ । पुण्णस्स-तीर्थकरगणधरा र्यादिना येन प्रकारेण पुण्यवान् । यन प्रकारेण पुण्यवान् । पुण्यं पुण्य हेतुत्वात् । सूत्र० ४०३ । सुरेश्वरचक्रवत्तिमाण्डलिकादिः । आचा० १४५ । पुन्नभद्द-चम्पायां जक्षायतनम् । भग० ४८४ । भग० पुण्णा-धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य नवममध्ययनम् । ज्ञाता. ६१८ । शुद्धपाणके देवः । भग० ६८० । पूर्णभद्रः-- ३२५२ । चम्पायां चैत्यविशेषः । अन्त० १। पूर्णभद्रः-अन्तकृद्दशानो पुण्यं-शुभम् । आव० ५९२ । षष्ठवर्गस्य एकादशममध्ययनम् । अन्त० २३ । पूर्णभद्रंपुता-नातिमन्दा नातित्वरिता । बृ० प्र० २५६ अ । चम्पानगर्यामुद्यानम्, तत्रैव यक्षश्च । विपा० ६५ . पुताई-उद्भ्रामिका । बृ० तृ० २११ आ। महापद्यस्य सेनाकर्मकरदेवः । ठाणा० ४५९ । द्वितीयो पुत्तंजीव-वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । जक्षेन्द्रः। ठाणा० ८५ | पुण्यभद्रः वैभमणस्य पुत्रस्थानीयो पुत्तंजीवय-पुत्रजीवकः वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । देवः । भग २०० । चंपायां चैत्यः । ज्ञाता० १६३ ॥ पुत्त-पुनाति पितुराचारानुवत्तितयाऽऽस्मानमिति पुत्रः ।। चम्पाया चैत्यः । निरय० १९ । पूष्पिकायाः पञ्चमउत्त० ३८ । पुनाति पितरं पाति वा पितृमर्यादामिति | मध्ययनम् । निरय० २१ । चम्पानगरयां चैत्यम् । पुत्र-सूनुः । ठाणा० ५१६ । पुत्र:-पुत्रमांसोपमया निरय० ४ । चम्पायो चैत्यम् । अन्त०१ । पूर्णभद्रः भोक्तव्यम्. साधो क्तव्य उपमा। दश० १९ । वनम् ।। चम्पायां चैत्यविशेषः । अन्त० २५ । विपा० ३३ । बृ० प्र० २८ अ । परिधानवस्त्रम् । बृ० तृ० २५३ अ। पूर्णभद्रः-अन्तकृदृशानां षष्ठवर्गस्य एकादशममध्ययनम् । पुत्तगो-पुत्तलकः । बृ० तृ. १४८ अ । अन्त० १८ । पुत्तजम्म-पुत्रजन्म । आव. ३४४ । पुन्नरक्ख-पुण्यरक्ष: वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः । भग० पुत्तभंड-पुत्रभाण्डम् । आव० २०५ । आव. २७३। २००। पुत्तपिड-असदुभावस्थापनायां दृष्टान्तः । ओघ १२६ । पत्ररूव-पूर्णरूप: पुण्यरूपो वा विशिष्टरजोहरणादिद्रव्यपुत्तलिका-पुस्तकर्मविशेष: । ओघ० १२६ । लिङ्गसद्भावात् सुसाधुरिति । ठाणा० २७६ । पुत्ता-पूर्णभद्रजक्षस्य प्रथमा अग्रमहिषी । ठाणा० २०४। पुन्नसेण-पुण्यसेनः-अनुत्तोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य पुत्तागुपुत्तियं-पौत्रानुपुत्रिकां-पुत्रपौत्रादियोग्यम् । माता. त्रयोदशममध्ययनम् । अनुत्त० २ । पन्ना-जक्षेन्द्रस्याग्रमहिषी । भग० ५०४ । पुत्तिया-चतुरिन्द्रियजीवः । उत्त० ६६६ । चतुरिन्द्रिय. पुन्नाग-लताविशेषः । आचा० ३० । वृक्षविशेषः। भग. जन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । । ८०३ । पुनाग:-एकास्थिक वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । पुत्थ-पुस्तं-वस्त्रकृतम् । आव० ७६७ । पुष्फ-विशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् । सम०५८। पुत्थारा-तुन्नाकषिशेषः-शिल्पाचार्यः । प्रज्ञा. ५६ । ' पुष्पं-कुन्दकलिका । जीवा० १६३ । सूचनात सूत्रमिति ( ७२५) Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्फकंत] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [पुप्फयविमाण कृत्वा सप्रशिखा पुषभृता चङ्गेरी पुष्पचङ्गेरी परिगृह्यते, | ११८ आ । तदाकारोऽवधि]वेयकविमानवासि देवानाम् । विशे० पुप्फचूलिया-पुष्पितायाः अधिकृतार्थविशेषप्रतिपादिका ३५३ । पुष्पशिखावलिरचिता चङ्गेरी पुष्पचङ्गेरी। पुष्पचूडाः । नंदी० २०८ । निरयावल्युपाङ्गस्य चतुर्थों आव० ४१ । पुष्यः-नक्षत्रविशेषः । सूर्य० १३० । वर्ग: । निरय० ३ । पुष्पं-अच्छोदकम् । नि० चू० प्र० १५० अ । पुष्पं- पुष्फच्छजिया-छाद्यते-उपरि स्थग्यते इति छाद्या छाधव विकसितं अग्रथितम् । अनु० २४ । पुष्पं-वर्णगन्धोपेतम् । छाधिका-पुष्प ता छाधिका पुष्पच्छाद्यिका । जं० प्र० आचा० ३५२ । ३६. । पुरकत-विशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् । सम० पुप्फछलिया-पुष्पच्छजिका द्वारशाखा । आव० ११४ । य-विंशतिसागरोपमस्थिकदेविमानम् । सम. पुप्फ रु-पुष्पक:-देवविमानः । औप० ५२ । ३८ । पुष्फकरंडए-पुष्पकरंडकं-हस्तिशीर्षनगरे उद्यानम् । पुष्फतंबोल-पुष्पताम्बूलम् । आव० ८३१ । विपा० ८६ । पुप्फथामं-पुष्पस्थानम् । दश० ८७ । पुष्फकरंडगहत्थगय-पुष्पकरंडकहस्तगतः । आव ० ३७०। कदंत-हस्ति राजा । ठाणा० ३०३ । पुष्पदन्तः-क्षीरपुप्फकरंडय-पुष्पकरहकं राजगृह उद्यानम् । आव० वरद्वीपेऽपरार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३५३ । पृष्फदत्त-पुष्पदत्त:-अणगारविशेषः । विपा.१५ । पुप्फकुंथुत-पुष्पकुन्थुः पुष्पकोटः । आव० ८३१ ।। पुप्फपडलग-पुष्पपटलक-पुष्पाधारभाजनविशेषः । . पु-का-पुष्पकेतुः-सप्ताशीतितममहाग्रहः । ठाणा० ७६ । प्र० ३६० । ज० प्र० ५३५ । जम्ब्वरवते आगामिन्यामुत्सपिण्यां पुप्फरडलय-पुष्पपटलकम् । जीवा० २३४ । सप्तमतीर्थकरः । सम० १५४ । पुष्पकेतुः-पुष्पभद्रनगरा- पुप्फपभ-विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् । सम धिपतिः । आव० ६८८ । पुष्यकेतुः-पुष्पपुरे राजा । बृ० प्र० २१८ आ। पुप्फपुंजोक्यार-पुष्पुखोपचार:-बलिप्रकारः । जं० प्रः पुप्फग-बुध्नम् । अोघ० ११७ । पुप्फचंगेरिया- पुष्पचङ्गेरिका । जं० प्र० ३९० । पुप्फपुडिया-पुष्पपुटिका । आव० ६७६ । पुष्फवंगेरो-पुष्पचङ्गेरी । जीवा० २१४, २३४ । पुष्प- पुप्फपुर-पुष्पकेतो राजधानी । बृ० प्र० २१८ आ। चङ्गेरी । जं० प्र० ४१० । पुप्फपूयय-पुष्पशेखरम् । ज्ञाता० २०५ । पुष्फचूल-पुष्पचूल:-वैनयिक्यां पुष्पसेनराजपुत्रः । आव० पुप्फबेटिया-त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । ४२६ । पुष्पचूलः-पुष्पभद्रनगराधिपतिः पुष्पकतोः पुत्रः। पुप्फभई-पुष्पभद्रं-गङ्गातटे नगरम् । आव० ६८८ । आव० ६८८ । पुष्पचूलः-अङ्गेषु चम्पास्वामी, यो ब्रह्म- पुष्पभद्र पारिणामिकीदृष्टान्ते नगरम् । आव० ४२६ । पत्न्याश्चुलिन्या भ्राता । उत्त० ३७७ ।। पुप्फमाणव-पुष्पमाणवः-लक्षणविशेषः । जीव० १८६ । पुप्फतूला-पाश्र्वनाथस्य प्रथमा शिष्या । सम० १५२ । पुप्फमाला-पुष्पमाला अधोलोकवास्तव्या सप्तमा दिक्कुपुष्पचूला-वनयिक्यां पुष्पसेन राजपुत्री । आव० ४२९ । मारी । जं० प्र० ३८३ । पुष्पमाला-अधोलोकवास्तव्या आपिकालामद्वारे आर्या । आव० ५३७ । पुष्पभद्रनगरे | दिवकुमारी । आव० १२१ । पुष्पकेतोः पुत्री। आव०.६८८ । निरयावलिकायाः पुप्फय-पुष्पक:-ईशानेन्द्रस्य विमानकारी देवः । ज० प्र० 'चतुर्थवर्गे साध्वीविशेषः । निय० ३८ । पार्श्वनाथस्य | ४०५ । शिष्या । ज्ञाता० २५३ । पुष्पकेतोः दारिया । बृ० प्र० पुप्फयविमाण-पुष्पकविमानम् । बाव. १४४ । (७२६ ) Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्फलेस] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [पुरंदरा पुप्फलेस-विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् । सम. पुप्फावत्त-विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् । सम० ३८ । पुप्फवई-पुष्पवती-पुष्पकेतो राज्ञी। बृ० प्र० २१८ आ। | पुप्फासव-पुष्पासवः । प्रज्ञा० ३६४ । पुनासवः-पुष्पपुष्पकेतोः देवी । बृ० प्र० २१८ आ। पुष्पवतो- रससारः । जीवा० ३५१ । पारिणामिक्यां पुष्पभद्रनगरे पुष्पसेन राज्ञो । आव० ४२६ । पुप्फाहार-पुष्पाहारकः । निरय० २५ । पुप्फवण्ण-विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् । सम पुल्फिआ-पुष्पिता-यासु ग्रन्थपरतिषु गृहवासमुत्कलन३८ । परितागेन प्राणिनः संयमभावपुष्पिता: सुखिता उषिता पुप्फवती-धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य चतुर्विंशतितममध्यय- भूयः संयमभावपरित्यागतो दुःखावाप्ति मुकुलनेन नम् । ज्ञाता० २५३ । किम्पुरिसेन्द्रस्य चतुर्थी अग्र- मुकुलिताः पुनस्तस्परित्यागेन पुष्पिताः प्रतिपद्यन्ते ता: महिसी । ठाणा० २०४ । मल्लिनाथस्य प्रथमा शिष्या। पुष्षिताः । नंदी० २०७ । सम० १५२ । पुष्पवती-गङ्गातटे पुष्पभद्रनगरे पुष्पकेतु. पुल्फिया-निरयावल्युपाङ्गस्य तृतीयो वर्ग: । निरय०३,२१॥ राज्ञी । आव० ६८८ । किम्पुरुषस्य चतुर्थाऽयमहिषो । पुप्फुत्तर-पुष्पोत्तरं-विमानविशेषः। उत्त० २६६ । विमान. भग० ५०४ । पुष्पवतिक-तुङ्गिकानगर्या चत्यम् । भग० | विशेषः । आचा० ४२१ । पुष्पोत्तर:-शर्कराभेदः । ज० प्र० ११८ । पुप्फवद्दलं-पुष्पवद्दलं यः क्षितिविभूषा । आव० २३० । पुप्फुत्तरडिसग-विंशतिसागरोपस्थितिकदेवविमानम् । पुप्फबद्दलयं-पुष्पवईलम् । आव. १२२ । सम• ३८ । पुष्फपासा-पुष्पवर्षा-कुसुमवर्षणम् । भग• १६९ । पुप्फुत्तरा-पुष्पोत्तरा-आस्वादविशेषः। प्रज्ञा० ३६४ । पुप्फवुट्ठी-पुष्पवृष्टिः । भग० १६९ । पुप्फुत्तरि-पुष्पोत्तरावतंसकः-विमानविशेषः । आव० पुप्फसाल-पुष्पशाल:-मगधविषये गूबरग्रामे गाथापतिः।। १७७ । आव० ३५५ । पुष्पशाल:-श्रोत्रेन्द्रियोदाहरणे सुस्वरो पुप्फोत्तरा-पुष्पोत्तरा । जीवा० २७८ । गान्धर्वक: । आव० ३९८ । पुप्फोवयार-पुष्पोपचार:-पुष्पप्रकरः । सम० ६१ । पुप्फसालसुय-पुष्पशालसुतः-पुष्पशालगाथापतिपुत्रः । पुप्फोवयारसंठित-पुष्पोपचारसंस्थितः-शतभिषानक्षत्रसंआव० ३५५ । स्थितः । सूर्य० १३. । पुप्फसिंग-विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् । सम० | पुलि-पुतत टि-पुनप्रदेशम् । भग० ६७६, ६८४ । पुयावइत्ता-प्लावयित्वा अन्यत्र नीत्वाऽऽर्यरक्षितवत्, पूर्त पुप्फसिद्ध-विंशतिसागरोपमस्थितिकदेवविमानम् । सम० वा दूषणब्यपोहेन कृत्वा या सा पूतयित्वा । ठाणा० २७६ । लुङ्गतो' इति प्लावयित्वा-अन्यत्र नीस्वा पुप्फहुमं-पुष्पसूक्ष्म-वटोदुम्बराणां पुष्पाणि । दश मार्यरक्षितवद् या प्रव्रज्या दीयते सा । ठाणा० १२६ । २३० । पुष्पसूक्ष्मं वटोदुम्बराणां पुष्पाणि तानि तद्वर्णानि | पुरंदर-पूश्च शरीरमप्युच्यते तद्विकृष्टतपोऽनुष्ठानतो, दारयसुक्ष्माणि । ठाणा० ४३० । वडउंबरादोणि संति पुष्पाणि तीव दायितीति पुरन्दरः । उत्त० ३५१ । असुरादिसुहुमाणि । दश० चू० १२१ । पुगणां दारणात पुरन्दर:-इन्द्रः। भग० १७४ । पुरन्दर:पुप्फसेण-पुष्पसेनः-पारिणामिकीबुद्धिदृष्टान्ते पुष्पभद्रनगरे | लोकोक्त्या च पूर्भरणात पुरन्दरः । उत्त० ३५० । राजा । आव० ४२६ । पुरंदरजसा-कुम्भकारकटे देवी । व्य० द्वि० ४३२ अ । पुप्फावकिण्णं-पुष्पाणीव इतस्ततोऽवकोणं विप्रकोणं , पुरन्दरयसा-जितशत्रुराजकन्या । उत्त० ११४ । पुष्पावकीर्णम् । जीवा० ३९८ । परंदरा-चंगाणामणगरी तत्थ खंदगो राया तस्स भगिणी। (७२७) Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुर ] नि० चू० तृ० ४४ अ । पुर-नगराकदेशभूतं प्राकाराव्रतम् । ठाणा० २९४ । नि० आचाय भीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः - चू० प्र० २६५ अ । पुरओ-पुरतः - अग्रतः । ज्ञाता० १६२ । पुरओकाउं- अग्रे विधाय पुरस्कृत्य वा प्रधानीकृत्य वा । पुरा - पूर्वभवः । ज्ञाता० २०५ । पुराका उं - पुरस्कृत्य - आश्रित्य भग० १२३ । पुरकम्म- भिक्षायाः पुरतः प्रथममेव यत्कृतं कर्म कडुच्छुकादिप्रक्षालनादि तत् पुरःकर्म । ओघ० १७० । पुरः कर्म-अकाय म्रक्षिते प्रथमभेदः भक्तादेर्दानात् पूर्वं यत्साध्वयं कर्म हस्तमात्रा देर्जलप्रक्षालनादि क्रियते तरपुर:कर्म । पिण्ड० १४६ | पुरस्कार- पुरस्कार:- सद्भूतगुणोत्कीर्त्तनम् । वन्दनाभ्युत्थानासनप्रदानादिव्यवहारश्च । आव० ६५८ । पुरस्करःअभ्युत्थानासनादिसम्पादनम् । उत्त० ८३ । पुरस्कार:सर्वकार्येष्वग्रतः स्थापनम् । आचा० २१६ | पुरस्कार:राजादिकृताभ्युत्थानादिः भग० ३६ । पुरस्करणंपुरस्कार:- गुणवानयमिति गौरवाध्यारोपः । उत्त० ५८० पुरुस्कार :- अभिमानविशेषः । ज्ञाता० १४० । पुरवखड - पुरस्कृतः परोवर्त्ती । भग० २६ । पुरस्कृतः पुरोवर्त्तीि भविष्यतु । भग० २११ । पुरस्कृतः - अतीसमयः | सूर्य ० १६६ । I पुरच्चरण- पुरश्चरणम् । उत्त० २६३ । पुरच्छिम - पूर्वदिक् । ठाणा० ६८ । पौरस्त्यः । भग० ६ । पूर्वस्याम् । ज० प्र० ७३ । पुरतोउदया पुरत उदया । सूर्य० ६५ । पुरत्थरुयग- पौरस्त्य रुचकम् । ज्ञाता० १२७ । पुरस्थि - प्रात: । सूत्र० ४२२ । पुरत्थम- पूर्वा दिकू । ज० प्र० ४७ । पुरस्थिम तुंगार - पूर्व तुङ्गारः । आव० ३८७ | 'पुरस्थिमवेयालीएपुरस्थिमसत्तासुय - पूर्व सत्त्वासुकः । आव० ३८६ । पुरमंतरं जि-पुरमन्तरखिका - सप्तमनिवोत्पत्तिस्थानम् । । ज्ञाता० । २१७ । विशे० ९३४ । [ पुरिमड्ड पुरवरधम्म- पुरवरधर्मः प्रतिपुवरं भिन्नः क्वचित् क्वचि द्विशिष्टोऽपि पोरभाषाप्रदानादिलक्षणः सद्वितीया योषिद् गेहान्तरं गच्छतीत्यादिलक्षणो वा । दश० २२ । पुरसमाणवो - मागधः । शाता० १३३ । कृत्य । उत्त० २८३ । पुराण- पच्छाकडो । नि० चू० प्र० १२० अ । पच्छाकडो । नि० चू० प्र० ३२५ अ । पश्चात्कृतः । बृ० द्वि० १२७ अ । प्रभूतवर्षघृतः । उत्त० २६४ । चिरन्तनम् । ठाणा० २६४ । पुराणे - पुरातनम् । ज्ञाता० ३ । बृ० प्र० २९३ अ । वृद्ध: - शास्त्रविशेषः । ठाणा० ४५२ । बहुकालीनम् । ठाणा० ३६४ । पुराण:- अग्रेतनः । प्रज्ञा० ५०३ । पुराण: । आव० ४०८ । पुरातनवस्तुविषयम् । ठाणा० ४५० । जूर्णम् । ओघ० १३८ । अनेकमवोपात्तत्वेन चिरन्तनम् । उत्त० ८ । पुराणकुम्मास - पुराण कुल्माषं - बहुदिवस सिद्धस्थित कुल्मा पुरस्कृत्य - मुख्यतयाऽङ्गी षम् । आचा० ३१५ पुराणगहणं - प्राग्गृहित - चोलपट्टादेः कर्पूरादिना ग्रहणम् । बृ० द्वि० २८५ आ । पुराणसंविग्ग - प्रासंविग्नः पश्चात्पार्श्वस्थः । बृ० नृ० १४२ अ । यस्तु संविग्नमुण्डितस्वात् पूर्वं संविग्नः पश्चादवसन्नीभूतः स पुराणसंविग्नः । बृ० प्र० २०७ अ । पुराणसड्ड- पुराणभाद्धः । आव ०७३६ । पुराणिय- पौराणिकम् । आव० ४३२ । पुरिमंतरं जि - पुरमन्तरज्जि त्रैराशिक निवोत्पत्तिस्थान पुरवर - नगरैकदेशभूतम् । प्रश्न० ६२ । राजधानीरूपम् । पुरिमकंठभाउवगता प्रभ० ६६ । नम् । आव० ३१२ । पुरिम - कर्दममयं कुण्डिकारूपं अनेकछिद्रं पुष्पस्थानम् । दश० ८७ | आदिमम् । आव० ५६३ । पूर्वा:- पूर्व क्रियमाणतया तिर्यक्कृतवस्त्रप्रस्फोटनात्मका क्रियाविशेषः । उत्त० ५४१ । पुरिमम् । ओघ० १०८ । पूरिमम् । ओघ० १०८ । पूरिमं यत् पूरणतो भवन्ति कनकादिप्रतिमावत् । ज्ञाता० १७६ । । सूर्य० ६५ । पुरिमड्ड - परिमार्द्ध - प्रथम प्रहरद्वयकालावधिप्रत्याख्यानम् । ( ७२८ ) Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिमताल] अल्पपरिचितसेवान्तिकशब्दकोषः, मा०३ [पुरिसवरगंधहत्यि - - बाव० ८५२ । पुरि शयनात पुरुषः-जीवः । सूत्र० ४०२ । पुरीषः ।। पुरिमताल-महाबलराजधानी । विपा० ५५ । विनीता. ज्ञाता० ४९ । नगयाँ उद्यानस्थान-पुरिमतालम् । आव० १४७ । पुरिसकार-पुरुषकार:-पौरुषाभिमानः । सूर्य० २८६ । २१० । चित्रजन्मस्थानम् । उत्त० ३८२ । उदितोदय- पुरुषकार:-साधिताभिमतप्रयोजनम् । सूर्य० २६६ ।। राज्ञः पुरः । नंदी० १६६ । उदितोदयस्य राजधानी। पुरुषकार:-अभिमानविशेषः । ठाणा. २३ । नंदी० १६६ । नगरम् । भग० ६५३ । पुरिमताल: पुरिसक्कार-पुरुषकारः पौरुषाभिमानः पुरुषक्रिया वा । नगरविशेषः । जं. प्र. १५० । पुरिमतालं-पुरविशेषं भग• ५७ । पुरुषकार:-पुरुषाभिमानः । भग० ३२३ ।। ऋषभदेवस्य केवलोत्पत्तिस्थानम् । आव० १३९ ।। पुरुषकार:-कर्मशन प्रति स्ववीर्योत्कर्षलक्षणः । दश. पुरिमपुर-द्रव्यव्युत्सर्ग गान्धारविषये नग्गतिराजधानी । ११ । पुरुषकार:-अभिमानविशेषः । प्रज्ञा० ४६३ ।। आव० ७२० । पुरुषकारः अभिमानविशेषः। ठाणा० ११६। पुरुषाकार:पुरिमयाल-पुरिमतालं-पारिणामिक्यां नगरविशेषः । पौरुषाभिमानः पुरुषकारः पुरुषक्रिया। ज० प्र० १३० । आव० ४३० । पुरिसक्कारपरक्कम-पुरुषाभिमानेन साधितस्वप्रयोजनः । पुरिमा-भरत रावतेषु चतुर्विशतेरादिमाः । ठाणा० २९६ । भग० ३११ । उसभसामिणो सिस्सा । नि० चू० प्र० ३५३ ।। पुरिसगार-पुरुषकार:-अभिमानविशेषः । ज्ञाता० ७१ । पुरिमार्द्ध-पूर्वाह्नलक्षणं प्रत्याख्यानविशेषः । ठाणा पुरिसच्छाया-पुरुषच्छाया-प्रथमतः सूर्यस्योदयमानस्य २९८ । दृष्टिपथासता । सूर्य० ५८ । पुरिय-पुरिकानगरो । आव० २६५ । पुरिसजाता-पुरुषजातानि पुरुषप्रकाराः । ठाणा० ११३ । पुरियाइ आव० ५३६ । पुरिसजाया-पुरुषजातानि पुरुषप्रकाराः। ठाणा० १३१ । पुरिल्ल-पुरोवर्ती अभिधारित पाचार्यः । बृ० तृ. १३२ पुरिसजुग-पुरुषयुगं-पुरुषकालम् । ठाणा० ४३१ । पुरुषअ । पाश्चात्येऽनन्तानुबन्ध्यादिके कर्मणि क्षपयितुमारब्धे | युगं-पुरिसजुगाई पुरुषा:-शिष्यप्रशिष्यादिक्रमव्यवस्थिता सावशेष एव । विशे० ५०५ । पुरातनम् । व्य० प्र० युगानीव-कालविशेषा इव क्रमसाधात्पुरुषयुगानि । ३१ अ । पौरस्त्यः । आव० ३४५ । सम०६८। पुरिवट्टा-पुरिवर्ता आर्यसार्धपञ्चविंशतिजनपदे जनपदः । पुरिसजुगा-पुरुषा-गुरुशिष्यऋमिणः पितापुत्रक्रमवन्तो वा प्रज्ञा० ५५ । युगानि इव पुरुषयुगानि । ठाणा० १७८ । पुरिसंतकाड-पुरुषादपरः पुरुषः पुरुषान्तरं तत्कृतं वा पुरिसनपुंसगी- । नि० चू० द्वि० २५ आ। पुरुषान्तरकृतम् । आचा० ३२५ । पुरिसनिवडण-पुरुषनिपतनं महायुद्धादिकार्यभूतम् । भग० पुरिस-पुरुष:-जन्तुः मनुष्यो वा । आचा० २४ । पुरुषः १६७ । सामायिकलाभे दृष्टान्तः । आव० ७५ । पुरि शयनात पुरिसपुंडरीय-पुरुषपुण्डरीक:-षष्ठो वासुदेवः । आव० पुरुषः । दश. ५५ । पुरुष-पारिणामिकादिरूपम् । दश० ११५ । पुरुष:-शकुः पुरुषशरीरं वा । नंदी २०५ । पुरिसपुर-पुरुषपुर-नग्गतिराबधानी । उत० ३०४ । पुरि-शरोरे शयनाद् वा पुरुषो-जीवः, पूर्णः सुखदुःखाना- पुरिसयार-पुरुषकार:-अभिमानविशेषः, पुरुषकर्तव्यम् । मिति पुरुषः । विशे० ३७६ । पूर्ण:-सुखदुःखयोः पुरि- ठाणा० ३०४ । शयनाद्वा, पुरुषो-जन्तुः । आचा. १६८ । पूर्णः-सुख- पुरिसलक्खण-त्रयोविंशतमकला । ज्ञाता० ३८ । दुःखानामिति पुरुषः पुरि शयनाद्वा । आव० ४६ । पुरुषः पुरिसवरगंधहत्थि-वरश्वासो गन्धहस्ती च वरगन्धहस्ती पुरुषं ननित्यादिवक्तव्यतार्थः चतुस्त्रिशत्तमं । भग० ४२५।' पुरुष एव वरगन्धहस्तो पुरुषवरगन्धहस्ती, यथा गन्ध(बल्प०६२) ( ७२९ ) Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवरमंघहत्थी] आचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [पुरेकम्मिया % 3D हस्तिनो गन्धेनैव सर्वगजा भज्यन्तो तथा भगवतस्तद्देश- चतुर्थाध्ययनम् । अनुत्त० १। अन्तकद्दशायां चतुर्य-' विहरणेन ईतिपरचक्रदुभिक्षजनडमरकादीनि दुरितानि वर्गस्य चतुर्थमध्ययनम् । अन्त० १४ । शतयोजनमध्ये नश्यन्तीति अतस्तेन पुरुषवरगन्धहस्तिनः। पुरिसादाणिय-पुरुषश्चासौ पुरुषाकारवर्तितया आदानी. सम० ३ । यश्च आदेयवाक्यतया पुरुषादानीयः । उत्त० २७० । पुरुषपुरिसवरगंधहत्थी-पुरुषोवरगन्धहस्तीव परचक्रदुभिक्ष. ऽऽदानीयो ज्ञानादिगुणतया । उत्त० २७० । पुरुषा• मारिप्रभृतिषुद्रगजनिराकरणेनेति पुरुषवरगन्धहस्ती । दानीयः-पुरुषाणां मध्ये आदानीयः-उपादेयः पुरुषश्चासाजीव० २५५ । पुरुष एव वरगन्धहस्ती पुरुषवरगन्ध वादानीयश्चेति वा । ठाणा० ३६६। हस्ती महावीरः । भग० ७ ।। पुरिसादाणीय-पुरुषरादीयते पुरुषादानीयः । निरय ०२२ । पुरिसवरपुंडरीय-पुरुष एव वरं पुण्डरीकं प्रधान धवल पुरुषाणां मध्ये आदानीयः-आदेयः पुरुषादानीयः । भग० सहस्रपत्रं पुरुषवरपुण्डरीकं महावीरः । पुरुषाणां-तत्सेवक- २४८ । जीवानां वरपुण्डरीकमिव-वरच्छत्रमिव । भग० पुरिसुत्तम-पुरुषोत्तमः-चतुर्थो वासुदेवः । आव० १५६ । ७ । वरं च तत्पुण्डरीक च वरपुण्डरीक-धवलं सहस्र- पुरुषाणामुत्तमः पुरुषोत्तमः । जोवा० २५५ । पुरुषाणां पत्रं पुरुष एव वरपुण्डरीक पुरुषवरपुण्डरीकम् । सम० मध्ये तेन तेन रूपाद्यतिशयेन ऊर्ध्ववत्तित्वादुत्तमः पुरुषो. ३ । पुरुषो वरपुण्डरीकमिव संसारजलासङ्गादिना धर्म- तमः महावीरः । भग० ७ । कलापेनेति पुरुषवरपुण्डरीकः । जीवा० २५५ । पुरिसोत्तम-पुरुषाणां मध्ये तेन तेनातिशयेन रूपादिनोद्गपुरिसविचओ-पुरुषविचयः पुरुषा विचीयन्ते-मृग्यन्ते । तत्वाद् ऊर्ध्वत्तित्वादुत्तमः पुरुषोत्तमः । सम० ३। विज्ञानद्वारेणान्वेष्यन्ते येन सः । उत्त० ३१७ (?)। पुरिसोवयार-पुरुषोपचार:-कामशास्त्रप्रसिद्धः । विपा० जय-पुरुषविजयः केषाञ्चिदल्पसत्त्वानां तेन ज्ञानलवेनातिधिप्रयुक्तेनानानुबन्धिना विजयात् । सूत्र. पुरीष-पची । ओघ० १५२ । विट् । नंदी० १५२ । ३१८ । ज्ञाता० ४६ । पुरिसविजा-उत्तराध्ययनेषु षष्ठमध्ययनम् । सम० ६४ । पुरुष-शकुः पुरुषशरीरं वा । नंदी० १०५। पुरिसवेद-पवणविकोवितपत्तिधणंत रजलिय तिब्वएलालद- पुरुषच्छाया-चक्षुः स्पर्शः । जं० प्र० ४४२ । वग्गिसमागोवत्तलक्खणो पुरिसवेदो। नि० चू० द्वि० ३१ / पुरुषविज्ञान-किमयं प्रतिवादो पुरुषः साङ्ख्यः सौगतोऽज्यो वा प्रतिभादिमानितरो वेति परिभावनम् । उत्त० ३६। पुरिसवेय-पुरुषस्य वेदः पुरुषवेदः । पुरुषस्य स्त्रियं प्रत्य- पुरुषविलयः । आव० ७७० । भिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यकर्मापि पुरुषवेदः। प्रज्ञा० पुरुषवृक्षभा-किंपुरुषभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । ४६६ । पुंसः स्त्रियामभिलाषः पुंवेदः । जीवा० १८ । पुरुषा-किंपुरुषभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । पुरिसवेसिणी-पुरुषद्वेषिणी देवदत्ता गणिका । दश०१०८।। पुरुषाद्वैत । ठाणा० ४२५ । पुरिससिंह-पुरुषसिंहः-सिंह इव सिंहः पुरुषश्चासौ सिंह- पुरुषोत्तमा-किंपुरुष भेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । श्चेति पुरषसिंहः । सम० ३ । पुरुषाणां मध्ये शौर्या- पुरेकडं-पुरा-पूर्व तत्कालापेक्षया कृतं-विहितम् । उत्त० धिक्येन सिंह इव सिंहः पुरुषसिंहः महावीरः । भग० ७ । ३३५ । पुरुषसिंहः-तीर्थकरादिः । प्राव. १७६ । पुरुषसिंहः- पुरेकम्म-पुरः भोक्ष्याम इति पुरःकर्म । दश० २०३ । पञ्चमो वासुदेवः । आव० १५६ । पुरुषः सिंह इव | पुरेकम्मकय-पुर:-अग्रतः कृतं-प्रक्षालनादिकं कर्म-क्रिया कर्म गजान प्रति पुरुषसिंहः । जीवा० २५५ । यस्य । आचा० ३४१ । पुरिससेण-पुरुषसेनः-अनुत्तरोपपातिकदशावां प्रथमवर्गस्य 'पुरेकम्मिया-पुरः कर्म यस्यामादौ सा प्राभृतिका पुर: (७३०) Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरेक्खड ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [पुलाय कमिका । आव० ५७६ । पुलग-पुलकः-लवः । सूर्य० ४। पुलक:-बिन्दुः । सूर्य पुरेक्खड-पुरस्कृत:-अनागतकालमावी । प्रज्ञा० ५६३ । ४ । पुलक:-प्राहविशेषः । जीवा० ३६ । पुलको-लवः । पुराकृतं-पूर्वभवकृतम् । प्रश्न. २२ । राज. ५७ । पुलको-द्रव्यत्वे सति बिन्दुः। राज० ५७ । पुरेवाय-मनाक सत्रहवाताः । भग० २१२ । पूलकः रत्नविशेषः । ज्ञाता० ३४ । पुलक:-लवः । पुरेवाया-पुरोवाता:-मनाक सस्नेहवाताः । ज्ञाता० १७१। निरय० २। पुलक:-लवः । ज्ञाता० ६ । पुलक:-लवः । पुरेसंखडी-पुरःसङ्खडी पूर्वाल्लसंखडी। बृ० द्वि० १३५ ।। विपा० ३४ । पुवदिव्वे पुरे संखडी । नि० चू० प्र० ३१० अ।। | पुलनिप्पुलाय-पुलाकनिष्पुलाकः-संयमासारतापादकदोषपुरेसंथया-पुरः संस्तुताः भ्रातृव्यादयः । आचा० ३३६। रहितः मुनिः । दश० २६८ । पुरःसस्तुता:-यदन्तिके प्रवजितस्तत्संबधिनः । आचा० पुलय-पुलक:- लवः । भग० १२ । पुलक:-लवः, सारो ३५३ । वा वर्णातिशयः । ओप० ८३ । पुनककाण्डं-रत्नप्रभापुरोसंखडो-पूर्वाह्न या क्रियते-पुर:सङ्खडी । पूर्वाहया खरकाण्डे पुलकानां सप्तम, विशिष्टो भूभामः । जीवा. संखडी । बृ० तृ० १७६ आ । ८६ । पुलकः । प्रज्ञा० २७ । पुलक:-सारः वर्णातिशयः, पुरोहड-गृहपुरत: । आव० १६४ । अग्रद्वार: । ओघ० बिन्दुः । भग० १२ । पुलक:-लवः । ज० प्र. १५॥ १९८ । गिहस्स वा पासे अंगणं । नि० चू. द्वि० पुलक:-मणिभेदः । उत्त० ६८९ । १२७ अ । गृहपश्चाद्भागः । ७० प्र० ३१० आ । पुलया-ग्राहविशेषः । प्रज्ञा० ४४ । दुःशीलजनपरिवृतम्, वृ० द्वि० ६ अ । बृ० प्र० ५६अ। पुला-पुलकिका लघुतरस्फोटिका । ठाणा० ५२१ । पुरोहिअरयण-पुरोहितरत्नं शान्तिकर्मकृत् । ज० प्र० पुलाकत्वं-ऋद्धिविशेषः । ठाणा० ३३२ । .२६३ । पुलाकादि-साधुभेदविशेषः । भग. ४ । पुरोहित-सपुरजणवयस्स रणो जो होमजावादिएहि पुलाकिमिया-पुलाकृमिः अपानवायुप्रदेशोत्पन्ना कृमिः । असिवादी पसमेति । नि० चू० प्र० २०९ अ । पुरोहितः- - जी० ३१ । पुलाकिमिया नाम अपानवायुप्रदेशोत्पन्न कृमिः । शांतिकर्मकारी । ठाणा० ३६६ । प्रज्ञा० ४१ । पुरोहिरयण-पुरोहितः शान्तिकर्मकारी । ठाणा० ३६८। पुलाकोद्देशकादि । विशे० ६४५ । पुरोहिय-पुरोहितः कार्य प्रति प्रवत्र्तयिता। सूत्र० २८३ । पुलाग-असारः। उत्त० २५६ । पुलाक:-निग्रंन्थे प्रथमपुरोहितः-शान्तिकर्मकारी । प्रज्ञा० १०६ । पुरोहितः । भेदः । व्य• द्वि० ४०२ अ । असारं-निष्पावादीनि शान्तिकर्मकारी । जीवा० ३६३ । पुरोहितः शान्तिकर्ता। धान्यानि विकटपलांदुलसुणादीनि दुर्गन्धानि क्षीरचिचिणिउत्त० ३९७ । पुरोहितः शान्तिकर्मकारी। प्रभ० ६६ । काद्राक्षरसादीनि वा । बृ० तृ. २११ अ । पुलाकम्पुरोधा-पुरोहितः शान्तिकारी । ठाणा० ४६२ । असारं वल्लचनकादि । उत्त० २६५ । पुलाकं-यवनिष्पापुरोहितः-शान्तिकर्मकारी । प्रभ० ७६ । वादि । आचा० ३१५ । पुलंपुलं-पुलम्पुलं-अनवरतम् । औप० ४६ । अनवरतम्। पुलागलधि-लदिवेसेसो । नि० चू० प्र० २७६ ब । प्रभ० ५० । पुलात-पुनाक:-बासेवापुलाकः । ठाणा० ३३७ । पुलाक:पुलंपुलप्पभूया-पुलम्पुलप्रभूता-अनवरतोद्भूता । औप० तंदुलकणशून्या पलंजि तद्वद् यः तप:श्रुतहेतुकाया: सङ्घा. दिप्रयोजने चक्रवदेिरपि चूर्णन समर्थाः लब्धेस्सजीवनेन पुलक-पृथ्वीकायभेदः । जीवा० २३ । ग्राहविशेषः ।। मानाद्यतिचारसेवनेन वा संयमसाररहितः स पुलाकः । सम० १३५ । ठाणा० ३३६ । पुलकित- । नंदी० १५० । 'पुलाय-पुलाक:-निस्सारो धान्यकणः पुलाकवरपुलाक: (७३१ ) Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलिद ] प्राचार्यश्रीआनन्दसामरसूरिसङ्कलितः [पुश्वतव संयमसारापेक्षया स प संयमवानपि मनाक् तमसारं अनु० २१३ । पूर्व-चतुरशीतिः पूर्वाङ्गशतसहस्राणि । कुर्वन पुलाक इत्युच्यते । भग० ८६१ । जीवा० ३४५। पूर्वश्रुतप्रत्याख्यानम् । आव० ४७६ । पुलिद-पुलिन्दः-शबर:-बनार्यविशेषः । भग० १७०। पूर्व-कारणम् । दश० ८२ । 'प पालनपुरणयो' रित्यस्य पुलिन्द्रः-चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । प्रभ० १४ ॥ धातोः पूर्यते प्राप्यते च येन कार्य तत्पूर्व औणादिकोम्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा०५५ । पुलिन्द्रः-भिल्ल जातिविशेषः । वक्प्रत्ययः, कारणमित्यर्थः । नंदी० १४१ । पूर्वाङ्गमेव आव० ८२६ । पुलिन्द्रः । ओघ० २२३ । पुलिन्द्र:- चतुरशीतिलक्षगुणितं पूर्वम् । ठाणा० ८६ । उस्सगो। देशविशेषः । ज्ञाता० ४१ । नि. चू० १० १४६ अ । चतुरशीतिः पूर्वाङ्गशतसहपुलिदकोटुं- ।नि० चू० वि० १२८ अ । स्राणि यानीति गम्यते तदेकं पूर्वम् । ज० प्र० ६१ । पुलिवदृष्टान्तः १ (?)। चतुरशीत्या लक्ष्यः पूर्वाङ्गः पूर्वम् । अनु० १०० । पूर्वःप्रलिदि-पुलिन्द्री: धात्रीविशेषः । ज्ञाता० ४१।। अतीतः । प्रज्ञ. ५०६ । पूर्व:-कालमानविशेषः । भग. पुलिदी-म्लेच्छविशेषः । भग. ४६० । २७५ । पूर्वः । भग० ८८८ । पत्र-पौर्णमासिरमावापुलिस-पुलितं-गतिविशेषः । जं० प्र० २६५ । सिश्च । भग० ५७७ । पूर्व-अतिक्रान्तम् । आचा० १६७ । पुलिन्द्र-म्लेच्छविशेषः । आचा० ३७७ । पूर्वः-असंयमोऽनादिभवाभ्यासात्तेन । आचा० १६२ । पुलिन्द्रदेशजः-पुलिन्द्यः । ज० प्र० १६१ । पुश्वकालियवयण-पूर्वकालिकवचनं-वक्तुकामस्य वचनाद् पुलिय-पुलितं-गतिविशेषः। भग० ४८० । औप०७०। यत् पूर्वतरमभिधीयते पराभिप्रायं लक्षयित्वा तत्पूर्वकाज० प्र. ५२९ । लिकं वचनम् । प्रभ० ३० । पुलिस-पुरीषम् । उत्त० १३७ । पुठ्वकीलिय-स्त्र्यादिभिरेव पूर्वकालभावि दुरोदरादिरमपुलोन्द्र-वनचरः । प्रश्न. ३८ । णात्मकं पूर्वक्रीडितम् । उत्त० ४२६ । पूर्वकोडितं-गृहपुलुय-पुलक:-ग्राहविशेषः । प्रभ०७ । स्थावस्थायां धूतादिरमणलक्षणम् । ठाणा० ४४५ । पुव्वंग-पूर्वाङ्ग-चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि । जीवा० पूर्वक्रीडितं-गृहस्थावस्थाभयं द्यूतादिक्रीडनम् । प्रश्न ३४५ । पूर्वानं-चतुरशीतिवर्षलक्षप्रमाणम् । ज० प्र० १४० । ४८५ । चतुरशीतिवर्षलक्षप्रमाणं पूर्वाङ्गम् । ठाणा०८६। पुत्वग-श्रामण्यपूर्वकम् । प्रोघ. २०३ । पूर्वाङ्ग-चतुरशीतिवर्षलक्षानाम् । भग० २११, ८८८। पुठवगत-सर्वश्रुतात्पूर्व क्रियन्त इति पूर्वाणि उत्पादपूर्वादी पूर्वाङ्गः-प्रथमदिवसनाम । ज. प्र. ४६० । पूर्वाङ्गः। चतुर्दशः तेषु गतः-अभ्यन्तरीभूतस्तस्य भावः पूर्वगतः । सूर्य० १४७ । चतुरशीतिः वर्षशतसहस्राणि यानीति ठाणा० ४६१ । पूर्वगतं-दृष्टिवादाङ्गभागभूतानि तेषु मतं गम्यते तदेकं पूर्वाङ्गम् । ज. प्र. ६१ । पूर्वाङ्ग- प्रविष्टं तदम्यन्तरीभूतं तत्स्वरूपं यच्छतं तत्पूर्वगतम् । चतुरशीतिलक्षवषैः । अनु. १००। ठाणा० ११७ । पुवंति-प्लवन्ते-गच्छन्ति । भग० ६७० । पुरवगय-तेषु गतं-प्रविष्टं यत् श्रुतं तत्पूर्वगतं-पूर्वाण्येव । पुत्वंमागा-पूर्वभागानि चन्द्रस्याग्रयोगीनि । ठाणा०३६८ । ठाणा• २०० । तीर्थकरः तीर्थप्रवर्तनाकाले गणधराणां सूर्य. १०४ । सर्वसूत्राधारस्वेन पूर्व-पूर्वगतम् । सम० १२८ । पुठव-पुरा-परिचिता मातृपित्रादयः पूर्वः । उत्त० २६०। पुबढ़िया-पूर्वस्थिता:-क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः । ओष० ९४ । पूर्वः-परिमाणं वर्षाणां सप्ततिकोटिलक्षाः षट्पञ्चाशय पुव्वण्हिकाइकाला-पूर्वाह्लादिकालः । उत्त० २२६ । कोटिसहस्राः । आचा० २४६ । 'पू पालनपूरणयो' रित्यस्य | पुव्वण्डिय-पौर्वाह्निकम् । आव० ३६६ । धातोः पूर्यते प्राप्यते पाल्यते च येन कार्य तत्पूर्वम् । पुठवतराय-पूर्वमेव । पाव० ७२ । नंदी० १४१ । विशिष्टं पूर्वोपसग्मं चिह्न पूर्वम् । 'पुवतव-पूर्वतपः-सराणावस्थाभाषि तपस्या । भग• ( ७३२) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुन्वतवसंजमा ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [पुवाउत्त नम् । अनु० २१३ । पुठवतवसंजमा-सामादियं छेदोवद्वावणियां परिहारविसु- | पुत्वविदत्तं-पूजितम् । आव० ५५८ । वियं सुहुमसंपरागं च, एते पुवतवसंजमा । नि० पू० पुष्वविदेह-पूर्वस्यां दिशि विदेहः पूर्वविदेहः । ठाणा• द्वि०७। ६८ । नीलवर्षधरपर्वते कूटम् । ठाणा००२ । पूर्वविदेहो पुठववारयं-यस्मिन् नक्षत्रे पूर्वस्यां दिशि गच्छतः प्रायः | यो मेरोजम्बूद्वीपगतः प्रागविदेहः । ज० प्र० ३२० । शुभमुपजायते तनक्षत्रं पूर्वद्वारकम् । सूर्य० १०४ । पूर्वविदेहाधिपकूटम् । ज० प्र० ३७७ । पूर्वविदेहः । पुत्ववारिआ-अभिजिवादीनि ससदशनक्षत्राणि पूर्वद्वारि- पाव० ११७ । जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहः । ज्ञाता. २४२ । काणि, पूर्वदिशि येषु गच्छतः शुभं भवति । सम० १३॥ पुत्वविदेहकूड-निषधवर्षधरपर्वते पूर्वविदेहपतिकूटम् । ज. पुव्वदारिता-पूर्वद्वारिकाणि पूर्वस्यां दिशि गम्यते येष्वि. | प्र० ३०८ । त्यर्थः । ठाणा० ४१४ । पुश्वविसारया-पूर्वविशारदाः-पूर्वेषु विपश्चितः । आव० पुस्वदेस-पूर्वदेशः । माव• २९५ । पुव्वधर-पूर्वाणि धारयतीति पूर्वधरः-दशचतुर्दशपूर्ववित् । पुत्ववेताली-पूर्ववताली पूर्वसमुद्रतीरम् । प्रशा० ३२७ । - आव० ४८ । पुत्ववेतालीया पूर्ववैतालिका । दश० ५५ । पुवपक्ख-पूर्वपक्षः । आव० ३१९ । पुव्वसंगइय-पूर्वसङ्गतिकः । ओघ० १५६ । पूर्वसङ्गतिकः । पुवपच्छिम-पूर्वपश्चिमम् । जीवा० २८६ । आव० २६१ । पुल्वपडिले हिए-गहितो । नि. चू० द्वि० १४७ आ। | पुथ्वसंगतिए-पूर्वसङ्गतिकः । ज्ञाता० ३४ ।। पुग्यपयवाहय-पूर्वपदव्याहतं-पूर्वपदं-देवत्वं व्यभिचरति। पुरवसंगतिय-पूर्वसङ्गतिकः-गृहस्थत्वे परिचितः । भग० विशे० ८८५ । | १६७ । पुव्वपरिच्चओ-पूर्वपरिचयः । आव० ३४३ । पुठवसंजोग-पूर्वसंयोगः मातापित्रादिभिः । बाचा० ४१ पुब्वमहाकडे-यान्येकखण्डानि अतूणितानि च तानि यथा. पूर्वसंयोगः पूर्वैर्मातृपित्रादिभिः संयोगः-- 4 'पूर्वसं. कृतानि पूर्व-प्रक्षालयति । ओघ० १३२ । योगः । उत्त० २६०। पुज्वरत-पूर्वरतं-गृहस्थावस्थायां स्त्रीसम्भोगानुभवनम् । पृथ्वसंठिती-पूर्वसंस्थितिः-भवितव्यता । आव० ८२४ । ठाणा. ४४५ । पुव्वसंथव-पूर्वसंस्तव:-मात्रादिकल्पनया परिचयकरणम् । पुल्वरत्त-पूर्वरात्र:-रात्र पूर्वो भागः । भग० १२७ । पिण्ड० १२१ रत्तीए पढमो जामो । दश० चू० १६४ आ। पुव्वसंथुया-पूर्व-वाचनादिकालदारतः संस्तुतः-परिचिता पुठवरत्तावरत्त-रात्रः पूर्वभागे पश्चाद्भागे वेति, पूर्वरात्रा- सम्यक्स्तुता वा पूर्वसंस्तुता । उत्त० ६५ । पररात्रकालसमयः । विपा० ८६ । पुव्वसंलत्त-पूर्वसंलप्तः । आव० ७२५ । पु-वरत्तावरत्तकाल-रात्रौ प्रथमचरमो प्रहरी । दश० पुरवसूर-पूर्वसूर्य:-पूर्वाह्नः । आव० १३५ । २८३ । पुत्वहोत्त-पूर्वाभिमुखः । आव २६० । पुश्वरत्तावरत्तकालसमय-प्रदोषसमयः-प्रातःसमयः । पुवा-जिगमिषितदिशं गच्छतोऽभिमुखा दिक् पूर्वा । ज. जीवा० १६३ । प्र० ५२७ । पूर्वा । आव० ६३० । पुज्वरयं-पूर्वरतं-पहस्यावस्थाभाविनी कामरतिः । प्रभ. पुवाइ-पूर्वाणि-प्रभूतानि वर्षाणि । आचा० २४५ । १४० । पुवाउत्त-पूर्वमेव दण्डधारिघोषणानन्तरमुपयुक्तः । पोष. पुष्पराय-पूर्वरात्र-रात्रः प्रथमो यामः । बाचा० २१०। २०३ । बागमनात् पूर्व तुल्यमारब्धो रन्धनायाः । मागपुग्धव-पूर्ववत्-पूर्वोपलव्धविशिष्टचिल्द्वारेण गमकपनुमा. मनात पूर्व पाकाय समीहितम् । आगमनात पूर्व रहस्य। (०३३ ) Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुटवाआसाढा ] आचार्यबीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पुहत्त स्वभावेन राज्यमानः । व्य० द्वि० १३५ बा । पूर्वायुक्तं पुवेनयं । ओघ० १८८ । पूर्वतप्तम् । बृ० प्र० २६८ मा ।। पुवोवट्ठपुराण-पूर्वमुपस्थ-उपस्थितः पूर्वोपस्थितः स पुरुवाआसाढा-नक्षत्रम् । ठाणा० ७७ । चासो पुराणश्च पूर्वोपस्थपुराणः । व्य० वि० ४४६ अ । पुवाणुना-यो अवग्रहः पुरातनसाधुभिरनुज्ञापितः स यत्या- | पुष्कलः-समर्थः । आचा० ४८ । श्वात्य रेवमेव परिभुज्यते । न भूयोऽनुज्ञाप्यते सा पूर्वा- | पुष्टका-कम्बिका । जीव० २३७ । नुज्ञा । बृ० प्र० १०८ आ । पुष्पक-यानविमानम् । प्रश्न० ६५ । पुवाणुपुस्वि-पूर्वश्च स पूर्वानुपूर्वः एत्थ णिदरिसणं पुष्पकेतु-पुष्पपुरनगरे राया । बृ० प्र० २१८ मा । एकाग्गस्स दो अणु तेयगितस्स पुवादुम्स्सतित्ति अणुतेय. | पुष्पचूल-पुष्पकेतुः पुत्रः । बृ० प्र० २१८ आ। . चउक्कग्गस्स पुवो अहवा पूर्व वा अनुपूर्वः स एव पूर्वा- | पुष्पचूला-पुष्पवत्याः पूत्री । नंदी० १६६ । नुपूर्वी-अणुपरिवाडी । नि० चू० तृ० १३५ आ। पुष्पपुर-पुष्पकेतो राजधानी । बृ० प्र०. २१८ मा। पु वाणुपुवो-पूर्वः-प्रथमस्तस्मादारभ्यानुपूर्वी-अनुक्रमः पुष्पफलोकुसुम-कूष्माण्डीकुसुमम् । जीवा० १६१ । परिपाटो:-निक्षिप्यते-विरच्यते यस्यां सा पूर्वानुपूर्वी । पुष्पमाण-नाट्यविशेषः । ज० प्र० ४१४ । अनु० ७३ । पुष्पमालिनी-वापीनाम । ज० प्र० ३७१ । पुवापोटुवता-पूर्वा प्रौष्ठपदा । सूर्य० १३० । पृष्पमित्र-तगरायामाचार्यस्य शिष्यः । ब्य० प्र० ३१७ । पुव्वाफग्गुणी-पूर्वाफाल्गुनी । सूर्य० १३० । पुष्पलम्बूसक-गण्डूकः । राज० १०४ । गण्डूकः । जीवा. पुवालोइयकवडो-पूर्वालोचितकपटः । आव० ४०१ । । २५३ । गेन्दूकः । ज० प्र० २७५ । पुरवावर-पूर्वापरः । सूर्य० १५५ । पुष्पवतो-वापीनाम । ज० प्र० ३७१ । पुष्पचूलामाता। 'पुवावरण्हकालसमय-प्रत्यपराहकालसमयो-विकालः । | नंदी० १६६ । ज्ञाता० ६० । पाश्चात्यापराहकालसमयः-दिनस्य चतु. पुष्पा पुंस्फ)लिका-सुवर्णयूथिका । प्रज्ञा० ३६३ । .)प्रहरलक्षणः । निरय० २७ । लः-नाट्यविशेषः । ज० प्र० ४१४ ।। पुरवा. जत्तं-पुन्वसुत्तनिबद्धो पच्छासुत्तेण अविरुज्झ. पुष्पोत्तर-दशमदेवलोके विमानः । सम० १०६ । माणो पुव्वावर नत्तं । नि० चू० द्वि० ३६ अ । | पुष्पोत्तरा-वापीनाम । ज० प्र० ३७१ । पुवासाढाणक्खत्तं-पूषिाढानक्षत्रम् । सूर्य० १३० । | पुष्यमित्र: ।व्य० द्वि० १७० आ ।' पुवाहारिय-पूर्वाहत:-पूर्वकाल एकीकृतः सङ्ग्रहीतः पुसकोइलगं-पुंसकोकिलगं-पुमांश्चासो कोकिलश्च परपुष्टः अभव्यहृतो वा । भग० २३ ।। पुंस्कोकिलकः । ठाणा० ५०२ । पुवाहूत्त-पूर्वमुखः । आव० २१५ । पुस्स-सुविधिनाथप्रथमभिक्षादाता । सम० १५१ । पुष्यःपुस्वि-पूर्व-पूर्वानुभूतम् । आचा० १६७ । सुविधिजिनप्रथमभिक्षादाता । आव० १४७ । पुश्विआ-पूर्विका कारणिका । नंदी० १६० । पुस्सभूती-पुष्यभूतिः-सूक्मेध्याने कुशल आचार्यः । व्य० पुहिवयावणं-कान्दविकापणम् । आव० ४१७ । | प्र. १६८ मा । २०. था। पुवुच्चय-पूवावाचतः-प्रामगृहातः । आव० ५३७ । पुस्सायण-पूण्यायनं रेवतीगोत्रम् । जं० प्र० ५०० । पुखुट्टाइ-पूर्व-प्रव्रज्या अवसरे संयमानुष्ठानेनोरथातुं शील- पुस्सायणसगोत्त-पोष्यायनसगोत्रं रेवतीनक्षत्रगोत्रम् । मस्येति पूर्वोत्थायी । आचा० २०९ । सूर्य० १५० । पुन्वुत्तरा-पूर्वोत्तरा । माव० ६३. । पुहत्त-पृथक्त्वं-भिन्नत्वम् । विशे० ४६१ । पृथक्त्वंपुवुद्दिट्ट-आयरिएण जीवं तेण उद्दिटुं तं । नि० चू० भेदः । विशे० ९२१ । पृथक्त्वम् । विशे० ४६२ । तृ. २९ अ । पृयक्त्व-पृथमेव । विशे० ४९।। पृथक्त्वं-विस्तारः । ( ७३४ ) Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुहत्तमत्थ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [ पूज्य दश० चू० १६ आ। पृथक्त्वं-द्विप्रभृतिरानवभ्यः ।। व्यन्ति । दश० १८७ । जीवा० ४० । पृथक्त्वं-बहुः । जीवा० ११६ । पृथक्त्वं- पूअणवत्तिया-पूजनप्रत्ययं-अभ्यर्चननिमित्तम् । आव. द्विप्रभृतिरानवभ्यः । प्रज्ञा० २६६ । ७८६ । पुहत्तमत्थ-अर्थपृथक्त्वं-श्रुतज्ञानसंज्ञा । विशे० ४६२। पूअफलि-पूगफली-क्रमुकतरुः । ज० ० ६८ । पुहविविजयलंभ-पृथ्वीविजयलाभमिति । ज० प्र० २१३।। 1-पूजा-वस्त्रमाल्यादिजन्या । आव० ४०६ । पुहवी-पृथिवी-शातवाहनस्याग्रमहिषी । व्य० द्वि० १६८ पूइंतराणि-पूत्यन्तराणि-देहस्य मध्ये पूतिविशेषानु । अ । सुपार्श्वनाथमाता। सम० १५१ । तृतीयवासुदेव. आचा० १३७ । माता । सम० १५२ । पृथिवी-पाश्चात्यरूचकवास्तव्या पूइअ-पूजितं-सेवितं आचरितम् । दश० १८६ । पूर्ततृतीया दिवकुमारी महत्तरिका । जं० प्र० ३६१ । पृथ्वी- निबुंसीकृतम् । जं० प्र० २४४ । पश्चिमरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव० १२२ । पृथ्वी- पूइआलुगं । आचा० ३४८ । सुपार्श्वमाता । आव० १६० । पृथ्वी-स्वयम्भूवासुदेव- पूइएइ । भग० ४५५ (१)। जननी । आव० १६२ । पृथिवी-इन्द्राग्निवायूभूतीनां पूइकड-पूतिकृतं-आषाकर्मादिसिक्थेनाप्युपसृष्टम् । सूत्र० माता । आव० २५५ । पुहत्तं-पृथक्त्वं-बहुत्वम् । भग० २३१ । पृथक्त्वं-द्विप्रभृति- पूइकम्म-पूतिकर्म-सम्भाव्यमानाधाकर्मावयवसंमिश्रलक्ष. रानवभ्यः । आव. ३६३ । पृथक्त्वं-एकद्रव्याश्रिताना- णम् । दश० १७४ । मुत्पादादिपर्यायाणां भेदः पृथुत्वं वा विस्तीर्णभावः । पूइपिन्नाग-पूतिपिन्नागं-कुथितखलम् । आचा० ३४८ । ठाणा० १६१ । पृथक्त्वं-द्विप्रभृतिरानवभ्यः । भग० पूतिपिण्याकं सर्षपखलम् । दश० १८५ । २६ । पृथक्त्वं-द्विप्रभृतिरानवभ्यः । भग० ३१ । पृथक्त्वं- पूइम-पूज्य: । दश० २७५ । द्विप्रभृति रानवभ्यः । आव० ३१ । पृथक्त्वं-बहुस्वं पूइय-वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । पूतिः-एकास्थिकवृक्षसामस्त्यापेक्षया । उत्त० ६८६ । पृथक्त्वं-समयपरि- विशेषः । प्रज्ञा० ३१ । पूजितः पूष्पादिना । भग० भाषया द्विप्रभृत्यानवभ्यः । विशे० ३२१ । पृथक्त्वं- ५८२। पूजितः सुगन्धिपुष्पप्रकरप्रक्षेपादिना । द्रव्यस्तवेन। अनेकत्वं यमलशङ्खादिशब्दवत् । ठाणा० ४७१ । नंदी० १६२ । पुहुत्तवियक्के सविआरी-पृथक्त्वेन-एकद्रव्याश्रितानामुत्पा- पूइयपूता-पूजितेन पूजा पूजितपूजा । आव० २३५ । दादिपर्यायाणां भेदेन वितर्को-विकल्पः पूर्वगतश्रुतालम्ब- पूइया नि० चू० प्र० २४४ प । नो नानानयानुसरणलक्षणे यत्र तत् पृथक्त्ववितर्क, तथा पई-पूति-कुथितं स्वस्वभावचलितम् । जीवा० २८२ । विचार:-अर्थाद्वयञ्जने व्यञ्जनादर्थे मनःप्रभृतियोगानां पूती:-परिपाकत: कुथितगन्ध पक्वरक्तं वा पूतिः । उत्त० चान्यस्मादन्यतरस्मिन् विचरणं सह विचारेण यत्तत्स- ४५ । विचारि । औप० ४४ । पूईकम्म-पूतिकर्म-पूतीकरणम् । पिण्ड • ६२ । पूंठी-चक्रपरिधिरूपं पृष्ठम् । ज० प्र० २११ । पूर-समूच्छिममनुष्योत्पत्तिस्थानम् । प्रज्ञा० ५० । पू:-शरीरम् । विशे० ८६४ । पूगफलं-तंबोलपत्तसहिया खायइ, तंबोलदव्वं । नि० चू० पूअ-पूजा-वस्त्रपात्रादिभिः सपर्याम् । उत्त० ४१६ । वयं- द्वि० ६० अ । आव० ८१६ । कणिकादिमयम् । दश० १७६ ।। पूजयंत-पूजयतः । विशे० ११४० । पूअण-पूजनं-विशिष्टवस्त्रादिभिः प्रतिलाभनम् । उत्त० पूजयामु-पूजयामः-सत्कारयामः । सूत्र० ८७ । पूजिय-पूजितं श्लाषितम् । वृ० द्वि० २८७ प । पूअणट्ठा-पूजार्थ-स्वपक्षपरपक्षाभ्यां सामान्येन पूजा भवि- पूज्ज-पूजयितुमर्हः पूज्य: आचार्यादिः । उत्त० ६५ । ( ७३५ ) Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूण्णभद्द] आचायश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पूर D पूण्णभद्द-चंपायां चैत्यम् । ज्ञाता. १५६ । समभ्यर्चनम् । ज० २७ । पूतणा-पूतना-कृष्णपितृवैरिणी विकुवितगन्त्रीरूपा विद्या- | पूर्वणा-पूतना-दुष्टव्यन्तरी । पिण्ड० १२६ । पूतनाघरयोषित् । प्रभ० ७५ । डाकिनी गडरिका वा । सत्र. १००। पूजना-कामपूतनी ।व्यप्र. २१७ । विभूषा । सूत्र. १०० । पृतवा । निचू.द्वि. ९५ पतफलिवण-पूगीफलवचनम् । जीवा० १४५ । आ। पूतरक-उदकाश्रितजीवः । बाचा० ४६ । पूणिअ । ओध. १३७ । पूतरग-बूतरक:-अप्काये जीवविशेषः । आव० ६३१ । पूणिज्ज पूजनीयं पुष्पैः । औप० ५ । पूजनीयं-वस्त्रा. पूता-पूजा स्तवादिरूपा । ठाणा० ३५८ । दिभिः । सूर्य० २६७ । पूतासक्कार-पूजा-स्तवादिरूपा तत्पूर्वकः सत्कारो-वस्त्र. पूणिज्जाओ । भग० ५०५। भ्यर्चनं, पूजायां वा आदरः पूजासत्कारः । ठाणा० ३५८ । पूयफल-वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । पूजासत्कारं-पुष्पार्चनवस्त्राद्यर्चनम् । ठाणा. ३८६ । | पूयफली-वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । एत-वावण्ण-विट्ठ कुाहत । नि० चू० प्र० १२८ अ। पूयरअ-पूतरकः । बाव० ६२५ । पूतिः-कुथितः । उत्त० २८४ । पूयलग-पूपम् । आव० ८१४ । ब्य० प्र० १०७ अ। पूतिकेश उपा०६ । पूर्यालय-पूपलिका । आव० ६२१ । पूतिगन्धय-अशुचिः । सम० १३६ । पूलियाखाओ-पूपलिकाखादक:-अव्यक्तवाक्वृद्धः । बृ पूतित-अविसोधिकोटिदोसजुएणं सम्मिस्सं पूतितं भण्णति। द्वि० ५६ । नि० चू० प्र० १२८ अ । पूया-पूजनं पूजा-द्रविणवस्त्रानपानसत्कारप्रणामसेवाविशे. पूतिय सिद्धथपिंडगो । दश० चू० ८६ । पूतिक-जीर्ण- षरूपा । आचा. २६ । पूता-पवित्रा पूजा वा भावतो तया कुथितप्रायम् । ज्ञाता. १६०। शुद्धमपि कर्माद्या | देवतार्चनम्, अहिंसायाः सप्तपञ्चाशत्तमं नाम । प्रभ. वयवैरपवित्रीकृतं पूतिकम् । ठाणा० ४६० । १९ । पूजा-प्रशस्तमनोवाक्कायचेष्टा । आव० ५११ । पूत्कृत: । विशे० २७४ ।। पुष्पादिपूजनम् । ठाणा० ५१५। पूजा-उचितप्रतिपत्तिपूपलिय-पूपलिका । बृ० प्र० ७५ मा । रूपा । उत्त० ३४४ । असणपाणखातिमसातिमवस्थपूपा-अपूप:-भक्ष्यपिष्टपदार्थः । पिण्ड १५४ । कम्बलाती जस्स वा & पाउग्गं तेण से पडिलाभर्ण पूपिकापण-आपणः । नंदी० १५० । पूया । नि० चू० प्र० १३ । पूजनाह:-उपाध्यायः पपूरपुण्णा - । नि० चू० प्र० १३६ आ ।। गुरुर्ग, गुरोः सम्बन्धिपितृव्यादिः। वृ० द्वि० २८१ अ । 'पूय- यद् आधाकर्मावयवसंपृक्तं शुद्धमप्याहारजातं पूति पूजनाहः-उपाध्यायः गुरुः पितृव्यादि । बृ० द्वि० १६ भवति तद् । सूत्र० १८० । रुतं । नि० चू० द्वि०६१ / | बा। सादरस्निग्धमधुरभोजनादिरूपा । बृ• तृ० १२४ म। अ । पूति:-अशुचिविशेषः । प्रज्ञा० ८० । पूतिक- पूज्या:-स्वामिकलाचार्यादयः । वृ० द्वि० २०० आ । कुशितम् । भग० ४७० । पूयम् । आचा० ३५२ ।। पूजा-पुष्पादिभिः । ठाणा० १३७ । पूयम् । ज्ञाता० ४६ । पूयासंसप्पतोग-पूजा-पुष्पादिपूजनं मे स्यादिति पूजापूयइ-आपूपिकः । नंदी० १६५ । शंसाप्रयोगः । ठाणा० ५१३ । पूयण-पूजनं वस्त्रादिलामरूपम् । सूत्र७४ । पूजनं- पूयाहिज्ज-पूजाहार्यः। ठाणा० ३४२ । पूजाहार्यः-पूजित. गन्धमाल्यादिभिः समभ्यर्चनम् । जं० प्र० ३९८ । पूजनं- पूजकः । पिण्ड० १३१ । गन्धमाल्यादिभिरभ्यर्चनम् । आव० ७८७ । वत्यादि- पूरंती-पूरयंती । ६० प्र० ५६ मा । दाणं । दश० चू० १६३ । पूजन-गन्धमाल्यादिभिः पूर-पूर:-पूर्णता । उत्त० ३०५ । पूर:-क्षीरप्रवाहः । ( ७३६ ) Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचितसेवान्तिकसम्मकोषः, मा. ३ [प्रसमापन - - D उत्त० ६५३ । पूर्णम् । माव० ८२६ । पूरः-समूहः। पूर्ण-लोकपालः । ठाणा० २०५ । प्रभः ६२ पूर्णभद-यक्षभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७.। पूरण-पूरणा-असुरकुमारगतिशक्तिप्ररूपणायां विध्यपाद-पूर्वगत-ष्टिवादे तृतीयभेदः । सम० ४।। मुले 'बेभेले'-नामकसन्निवेशे गाथावती। भग० १७१। पूर्वदेश-धान्यपूरकाभिधानसनिवेशः । बाग. २०२॥ पुरण:-अन्तकृशानां द्वितीयवर्गस्य सप्तममध्ययनम् । पूर्वधरता-लब्धिविशेषः । ठाणा. ३३२ । अन्त० ३। कर्णमलादिना भरणम् । आव० ७६४ । पूर्वपदव्याहत-गत्यागतिलक्षणभेदः । आव० २८१ । अन्तकृद्दशायां प्रथमवर्गस्य सप्तममध्ययनम् । अन्त० पूर्वपूर्व-चतुर्दशानां पूर्वाणामाद्यम् । दश० ८५ । ३ । भगवत्यामभिहितो बालतपस्वी । उपा० १५ । पूर्ववत् त्रिविधानुमाने प्रथममनुमानम् । भग० २२ । महाबलबालवयंसकः । ज्ञाता० १२१ ।। | पूर्वानुपूर्वी-आनुपुर्व्याः प्रथमो भेदः । ठाणा० ४ । पूरणतापस:-कूणिकजीवावस्थानान्तरम् । भग० ३२२ । पूर्वाषाढा-तोयमित्यवरनाम नक्षत्रम् । ज. प्र. ४६६ पूरयंतीपर्षद्-अघोतश्रुता । बृ० ५० (?) ।. लिका । नि० चू. प्र. ३५० अ । पूरावेरयं-पूर:-पूर्णता अवरेको-रिक्तताऽनयोः समाहारे पूर्व-आईखाद्यम् । वृ. द्वि० १७८ अ । नि० चू० प्र० .. पूरावेरकम् । उत्त० ३०५ । १४७ अ । पूरिअ-पूरितं-परिपूर्णब्याप्तम् । प्रभूतीकृतं स्वप्रमाण-पूवलगं- नि० चू०प्र० ११ आ। मानीतं स्वव्यक्ती समर्थीकृतं वा । नंदी० १८०। विगा-पूवलगादि । नि० चू० तृ० ४५ अ । पूरितगण्डपार्श्व-रूपवान् । ओघ० १८३ । पूविय-आपूपिकः । आव० ३५४ । पूरिम-पूरिम-मृन्मयमनेकछिद्रं, वंशशलाकादिपञ्जरं वा पूवियसाल-आपूपिकशाला । आव० ३६७ । यत्पुष्पः पूर्यत इति । ठाणा० २८६ । येन वंशशला- पूव-पूर्वशब्दः पूर्वानुपूर्वीवाचकः । व्य० प्र० ११६ । कामयपञ्जरकादि कूर्चादि वा पूर्यते । भग० ४७७ । येन पूर्वः-पूर्वशब्दश्चायमिह कारणपर्यायो द्रष्टव्यः । विशे. वंशशलाकादिमयपञ्जरी पूर्यते । जीवा० २५३ । यल्लघु. ७० ! पूर्वः-असंयमोऽनादिभवाभ्यासः । आचा० १९२ । च्छिद्रेषु पुष्पनिवेशेन पूर्यते । जीवा० २६७ । पूरणेन पूर्व-अतिक्रान्तम् । आचा० १६७ । निवृत्तं पुष्पपूरितवंशपञ्जरकरूपशेखरकवत् । प्रश्न० १६० । पूवपूरिस-पूर्वपुरुषः-अतीतनरः । ज्ञाता० ३ । पूरिम-यल्लघुच्छिद्रेषु पुष्पनिवेशेन पूर्यते। ज० प्र० १.४। ०प्र० १०४। पूव्वसूराओ ।ाचा. ४२२ । पूरिमं-येन वंशशलाकामयपञ्जरकादिकूर्चादि वा पूर्यते । पूस-षष्ठं नक्षत्रम् । ठाणा० ७७ । पुष्पः-सामुद्रिकपुरुषज्ञाता० ५३ । पूरिम-भरिम-पित्तलादिमयप्रतिमावत् । विशेषः । आव० १६६ । पुष्य:-प्रभासजन्मनक्षत्रम् । अनु० १२ । आव० २५५ । पुष्यः-नक्षत्रविशेषः । ज्ञाता० १३३ । पूरिमा-गान्धारग्रामस्य तृतीया मूच्छंना । ठाणा० ३६३ । पूसनंदी-पुष्पनन्दी-वैश्रमणदत्तराजकुमारः । विपा०५२। गान्धारस्वरस्य तृतीया मूर्च्छना । जीवा० १९३। । पुष्पनन्दी-युवराजः । विपा० ८५ । पूरिमाणि-यान्यन्तः पूरणेन पुरुषाद्याकृतीनि भवन्ति । पूसफलं. । ओघ० १६० । पुष्पक (पुंस्फ)लम् । आचा० ४१४ । प्रज्ञा० ३७। पूरी-पूरिका-स्थूलशणगुणमयपदात्मिका । बृ० द्वि० २२० पूसफलिका-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ । पसफली-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । पूरेइ-पूरयति-व्याप्नोति । बारा० ८६ । पूरयति- पूसभूई-आर्यपुष्पभूति:-ध्यानसंवरयोगविषये शिम्बावर्द्धनपरिपूर्ण करोति । भग० १२४ । । गरे बहुश्रुत आचार्यः । आव० ०२२ । पूरेसंथुया-पूर्वसंस्तुता:-पितृम्यादयः । चाचा० ३५१ । । पूसमाणव-पुष्पमाणवः-मागधः । ज०प्र० १४२ । मागधः। (बल्प. ६३) ( ७३७ ) Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूसमिस ] आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ पेज्जवत्तिता भग० ४८२ । पुष्पमाणवः- नग्नाचार्यः । ज्ञाता० ५८ । पेच्चाभाविय-प्रेत्य-जन्मान्तरे भवति शुद्धफलतया परि पुष्पमानवः - मागधः । श्रोप० ७३ । गमतीत्येवंशीलं प्रेत्यभाविकम् । प्रश्न० ११० । पूस मित्त- पुष्यमित्र:- ध्यानसंवपयोगविषये आचार्य पुष्य. पेच्चेह - आक्रमथ । भग० ३८१ । भूतिशिष्यो बहुश्रुतः । आव० ७२२ । पुष्यमित्र:- कौशिक- पेच्छंता-प्रेक्ष्यमाणा - दृश्यमाना । ज्ञाता० १३३ । जीव:, स्थूणायां ब्राह्मणः । जाव० १७१ । पुष्यमित्र:- पेच्छण प्रेक्षणं प्रेक्षणकम् । ज्ञाता० ९३ । तगरायामाचार्य शिष्यः । व्य० प्र० २५६ आ । नि० पेच्छणघर- प्रेक्षणक गृहं यत्रागत्य प्रेक्षणकानि विदधति चू० प्र० ३३२ ब । निरीक्षन्ते च तत् । जीवा० २०० । पूसमीत्त - पुष्यमित्रं सद्व्यवहारकाचार्यः । व्य०प्र० २५६ । पेच्छणयं - प्रेक्षणकम् । आव० ८१४ । पूसियार - तेतली पुरनगरे पुष्यकारः श्रेष्ठी । आव० ३७३ । पेच्छमाणी- प्रेक्षमाणा पश्यन्ती । ज्ञाता० ३८ । पृथक्कृत-रूपादिभ्यो व्यावृत्तम् । विशे० १६१ । पेच्छयण - पेक्षणकम् । आव० ३६० । पृथक्त्ववितर्कसविचार - शुक्लध्यान प्रथमभेदः । आव० पेच्छा - 'प्रेक्षा' इति पदेकदेशे पदसमुदायोपचारात् प्रेक्षा६०३ । गृहं - नाट्यगृहम् । ज० प्र० १२१ । प्रेक्षा- प्रेक्षणकं, कौतुक दर्शनोत्सुकजनमेलकः । ज० प्र० १२३ | पेच्छा हिसं ठिअ - प्रेक्षागृहसंस्थितः । जीवा० २७६ । पेच्छाघर प्रेक्षागृहं वास्तुविद्याप्रसिद्धम् । सूर्य० ६६ । पेच्छा घर मंडव - प्रेक्षा- प्रेक्षणकं तदर्थं गृहरूपो मण्डपः प्रेक्षागृह मण्डपः । ठाणre २३० । प्रेक्षागृह मण्डपः । जीवा० २२८ । प्रेक्षागृह मण्डप :- रङ्गमण्डपः । ज० प्र० ३२३ | प्रेक्षागृह मण्डप :- प्रेक्षाः प्रेक्षणकं तदर्थं गृहरूपो मण्डपः । ठाणा० २३२ । पृथक्त्वानुयोगः- अनुयोगद्वितीयभेदः, यत्र क्वचित् सूत्रे चरणकरणमिव क्वचित् पुनर्धर्मकथं वेत्यादि । दश० ४ । पृथक्प्रहेणार्थ। सूत्र० ३०० । पृथग्भूत- उन्मुक्तः प्राबल्यमुक्तः । आव ० ५०८ | पृथग्विमात्रा:- पृथग् विविधा मात्रा येषूपसर्गेषु ते पृथग्विमात्रा:- हास्यादित्रयान्यतरारब्धाः । आचा० २५५ । पृथुत्व| विशे० ४९२ | नंदी ६१ । पृष्ठ- शरीराङ्गम् । आचा० ३८ । पृष्ठमांसकत्व - परोक्षस्या वर्णवादित्वम्, दशममसमाधिस्था पेच्छाघर संठिता-पेक्षागृहस्येव वास्तुविद्याप्रसिद्धस्य संस्थितं संस्थानं यस्याः सा । सूर्य० ६६ । पेज्जजमाण - शब्दायमानम् । राज० ३६ । पेज्ज - प्रियस्य भावः कर्म प्रेम-अनभिव्यक्तमायालोभलक्षणभेदस्वभावमभिष्वङ्गमात्रम् । ठाणा० २६ । प्रेम:- अनभिव्यक्तमाया लोभस्वभावमभिष्वङ्गमात्रम् । भग० ८० । प्रेयं उण्णं सत् शीतम् । आव० ८५८ | प्रेम | औप० ७६ । प्रेय: प्रकर्षेण वा इज्या-पूजाऽस्येति प्रेज्यं प्रेर्यम् । औप० ६५ । प्रियस्य भावः कर्म वा प्रेमः । ठाणा० २६ । प्रेन:-पुत्रादिवषयः स्नेहः । भग० ५७३ । दशमं पापस्थानकम् । ज्ञाता० ७५ । पेज्जणि स्सिया - प्रेमनिःसृता यदतिप्रेमवशाद्दासोऽहं तवेत्यादि वदतो भाषा । प्रज्ञा० २५६ । पेज्ज निस्सिआ - प्रेमनिसृता मृषाभाषाभेदः । दश० २०६ । पेज्जवत्तिता-प्रेम: - रागो वृत्तिः- वर्त्तनं रूपं प्रत्ययो वा( ७३८ ) नम् । प्रश्न० १४४ । पृष्टवंश - पृष्ठकरण्डकः । जीवा० १५४ । पॅखोलमाण- प्रेङ्खोलमानः- चञ्चलम् । ज्ञाता० ३५ । पेङ्खोलमानं - दोलायमानम् । ज्ञाता० ३५ । पॅडिओ - मरहट्ठविसए फलाण कयलकप्पमाणाम्रो पेंडिओ । नि० चू० तृ० ३६ आ । पेआल - पेयालं प्रमाणं सारः । आव० ४२३ । पेए- पेचक:- पुच्छमूल: । ठाणा० २०६ । पेक्खणं - प्रेक्षणं- रूढिवशात्साका रपश्यत्तायां चिन्त्यमानायां प्रदीर्घ कालं अनाकार पश्यत्तायां चिन्त्यमानायां प्रकृष्टं परिस्फुटरूपमीक्षणम् । प्रज्ञा० ५३० । पेच्च प्रेत्य-जन्मान्तरे । आचा० १६ । पेच्चभव - प्रेत्यभव:- जन्मान्तरम् । भग० ११५ । पेच्चा - ज्योतिष्केन्द्रसूर्यस्य बाह्या पर्षतु । जीवा० १७६ । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेज्जा ) अल्पपरिचितसवान्तिकशब्दकोषः, मा०३ [पेल्लवा हेतुर्यस्याः सा प्रेमवृत्तिका प्रेमप्रत्यया वा। ठाणा० | पेयाल-रहस्यम् । संस्ता० । प्रमाणं-सारः । नंदी०१५६ । ६८ । पेम्मराग इत्यर्थः, प्रेमप्रत्ययिकी विशतिक्रिया- प्रमाणम् । नंदी० ५० । सार:-प्रधानः । उपा० ६ । मध्ये अष्टादशी । आव० ६१२ । पेयाल:-सम्यग्विपश्चतसूत्रार्य इति तात्पर्यायः । व्य० प्र० पेज्जा-पेया । आव० ८१४ । ३३७ आ। परिमाणम् । व्य. प्र. २३०, २६२ । पेज्जामोल्लं-पेया(पोषण मूल्यम् । आव० ४३३ ।। पेयालिय-विचारितः । विशे० ६३८ । पेज्जायअ-पेयायायी । आव. ८१४ । पेरंत-पर्यन्तः । ६० प्र० १४२ आ। पर्यन्तम् । आव. पेटुक-वेणूकार्यविशेषः । सूत्र० ११७ । ६७४ । पर्यन्तं-बहिःप्रदेशः । जीवा० १९२ । पर्यन्तः। पेट्ठग । नि० चू० प्र० २७२ अ । जीवा० २०४ । पेठीवंस-पृष्टवंश:-उपरितनस्तिर्यक्यातो । ६० प्र०६२। पेरंतचक्कपालं-पर्यन्तचक्रवालं बाह्यपरिधिः । प्रश्न०६१॥ पेडा-पेटा-यस्यां तु साधुः क्षेत्रं पेटावच्चतुरस्र विभज्य | पेरुउ-पव्वदेससहितं । नि० पू० तृ० २३ अ।। मध्यवर्तीनि गृहाणि मुक्ता चतसुष्वपि दिक्षु समश्रेण्या पेलव-मृदुः । भग०४७७ । पेलव:-प्रतनुः । व्य. द्वि० भिक्षामति सा पेटा । बृ० प्र० २५७ अ । पेटा- ४०८ आ। पेलवत्वं मृदुत्वलघुत्वलक्षणः । ज्ञाता० २७ । वंशदलमयं वस्त्रादिस्थानम् । ठाणा० ३६६ । पेडिका अदृढम् । बृद्वि० २२४ अ । पेलवं-कोमलम् । ज० इव चउकोणा । उत्त. ६०५ । प्र० २७५ । पेडिया-पेटिका मञ्जूषा । आव० ५६१। पेलवगहणं-इमे अदिण्णदाणा जो आगच्छति तमो पेढ-पीठम् । आव० ५१३ । । भासंति । नि० चू० प्र० १८४ अ । पेढाल-पेढालं-उद्यानविशेषः । आव० २१६ । नि० चू० | पेलवसत्त-पेलवसत्त्वा-तुच्छधृतिबलः। बृ० द्वि०६०। द्वि० ४६ । पेला-अभिग्रहविशेषः । नि० चू० तृ० १२ अ । ओघ० पेढालग-पेढालक:विद्यासिद्धः परिव्राजकः । आव०६८५ १६७ । . . पेढालक:-विद्यासिद्धः परिव्राजकः । आव० ६५ (?)। पेलु-रुतपूणिका । आव० ४५६ । रुतपूणिका । पिण्ड. पेढालपुत्त-जम्बुद्वीपे आगमिन्यामवसपिण्यामष्टमतीर्थकृत् ।। ६२ । पेलुः-पूणिका । विशे० १२५६ । वलितं । सम० १५३ । पेढालपुत्र:-अनगारः, अनुत्तरोपपातिक- नि० चू० प्र० २२८ आ। दशानां तृतीयवर्गस्याऽष्टममध्ययनम् । अनुत्त. २ ।। पेलुगा-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ । पेढालपुत्रः-प्रधानः दर्शनवतोऽपि चारित्रेण विनाऽधर | पेलेज्जा । औप० ६८। गति नरकति प्राप्तिः । आव० ५३२ । पेल-दरिद्रः । नि० चू० द्वि० ४५ अ । डिम्भः । विपा० पेढालपुत्र-प्रद्वेषे दृष्टान्तः । आचा० १४६ । पेणि-प्रेणी-हरिणीविशेषः । प्रश्न. ७० । पेल्लए-अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य चतुर्थमध्यय. पेम्माणुराग-सर्वज्ञप्रवचनप्रीतिलक्षणकुसुम्भादिरागेण रक्ता नम् । अनुत्त० २ । इव रक्ता । ज्ञाता० १०६ । | पेलओ-प्रेरक:-प्रमाणभूतः । बृ० द्वि० १२८ । पेयकाइय-प्रेतकायिक:-व्यन्तरविशेषः । भग० १९८। | पेल्लण-प्रेरणं-विक्षेपणं आधातः । ओघ० १६२ । अक्क. पेयदेवतकाइय-प्रेतदेवकायिक:-प्रेतसत्कदेवतानां सम्बन्धी। मणं । नि० चू० द्वि० ४८ आ। भग० १६८ । पेल्लणा-बलामोटिका । बृ० त० ५८ । । पेया-महती काहला । राज० ४६ । ओघ० ६७ ।। पेलणया-प्रेरणा । बृ० ३० ३०६ आ । यवागूः । वृ० प्र० २३४ आ । | पल्लवा-अणालोइयपुन्वावरक्कारिणो पेल्लवा । नि० चू० पेयापेया द्वि० १२२ म। ( ५३९ ) Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेस्लिमो] आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः ____ [पेहि पेल्लिओ-प्रेरितः । बाव. १७३ । पेसारंभ-प्रेषारम्भः । आव०६४७ । पेल्लिजिहिह-प्रेरयेत् । आव० ६४ । पेसिता-प्रेष्याः । नि.चू० प्र० २७७ । पेल्लितं-लुष्टितम् । आव० ८२२ । पेसिया-पेशिका-खण्डम् । अनुत्त० ५ । पेल्लितो-आक्रान्तः । नि. चू० प्र० १३७ अ । | पेसी-दीहागारा । नि० चू० द्वि० १२४ आ । अर्बुदपेल्लिय-पेल्लियः-शिशुः । आव० ६७० । पातितम् । व्य. जाता। तन्दु । प्रलम्बानामूई वयिताः फालयः । बृ० प्र० प्र. १८४ अ। १७९ आ । मांसपेसिका आम्रपेशिका वा । ७० प्र० पेल्लियमुह-प्रेरितमुख:-चम्पितमुखावयवोष्ठनासिकः। पिण्ड०, ३.६ आ । १२३ । पेसुन-पंशुन्यं-पिशुनकर्म प्रच्छन्नं सदसदोषाविनम् । पेल्लु-पूणिकया वलितं रुतम् । ६० द्वि० ११६ । । ठाणा० २६ । पेल्लेइ-प्रेरयति-उल्लंघयति । आव० ६१७ । -पंशुन्यं-परोक्षे सतोऽसतो वा दोषस्योद्घाटनम् । पेल्लेज्जा -प्रेरयेव-अतिकामयेत् । ओष. १४६ । प्रज्ञा० ४३८ । प्रच्छन्न-असहोषाविष्करणम् । भग०००। पेल्लेयव-प्रेरणीयः । ओष. १५ । चतुर्दशमं पापस्थानकम् । ज्ञाता० ७५ । पैशुन्यं-कर्णपेस-प्रेष्यः भृत्यादिः । वाचा. ११ । प्रेष्य:-बलादि- अपत्वं, परगुणासहनतया तद्दोषोघट्टनम् । सूत्र० २६३ । नियोज्यः । आव० ६३५ । प्रेष्यः-आरम्भेषु व्यापार- पेसेल्लिया-प्रेष्यिका । आव० ३६७ । णीयः । सम०२०। सिन्धुविषय एव, सूक्मचर्माः पशवः पेस्स-प्रेयः-आदेश्यः । प्रभ० ४१ । प्रेष्य:-प्रेषणयोग्यः । तच्चर्मनिष्पनम् । बाचा. ३९४ । प्रेष्य:-प्रेषणयोग्यो जीवा० २८. प्रेष्यत्वं यस्य स प्रेस्यः। प्रमा० १०६। भृत्यदेश्यः । सूत्र. ३३१ । प्रेष्यः-प्रेषणाही जनो प्रेष्यः-ये तथाविधप्रयोजने नगरान्तरादी प्रेष्यते । दूतादिः । ज० प्र० १२२ । प्रेष्यः-शूद्रः। सूत्र. ४०३ । | ज्ञाता० ८८ । दासमादी । नि० चू० द्वि० ६६ अ । प्रेष्यः-प्रयोजनेषु प्रेषणीयः । प्रभ० ९१ । प्रेष्यवजंक:- | पेस्सजण-प्रेष्यजन:-प्रयोजनेषु प्रेषणीयो लोकः । प्रभ. भावकस्य नवमी प्रतिज्ञा । बाव. ६४६ । ३८ । पेसण-प्रेषणम् । आव० ३०३ । प्रेषणः-व्यापारः । पेहइ-पश्यति । उत्त० ४५२ । ६० द्वि० ४ अ । प्रेष्यः । उपा० १० । पेहति-पश्यति । प्रशा० ३०५ । प्रतिलेखयति प्रस्थापेसणकारिआ-. ज्ञाता. ३९ । पयति वा । आव० ७१६ । पेसपरिण्णाय-अष्टमी उपासकप्रतिमा। सम० १६। पेहमाणे-प्रेक्षममाणः । आव० १२४ । पेसल-पेशल-सुश्लिष्टं, प्राणिनामहिंसादिप्रवृत्त्या प्रीति- पेहा-प्रेक्ष्यतेऽनयेति प्रेक्षा दृष्टिः । दश० ६३ । आव० कारणम् । सूत्र. १४ । पेशलं आस्वादमनोशत्वात् । ७९८ । प्रेक्ष्य-आलोच्य प्रेक्षया वा । उत्त० ५८ । जीवा० ३३१ । पेशलं-शोभनम् । आचा० २५८ ।। प्रेक्षा-प्रत्युपेक्षणा । वृ० दि० ६० । प्रेक्ष्य । 'पेशलं-अतिमनोज्ञम् । उत्त. २९८ । पेशल:-मिष्टवाक्यो नि० चू० द्वि. २२ मा । नि० चू० प्र० २७४ अ । विनयादिगुणसमन्वितः । सूत्र० २३४ । पेसल:-मनोशः। वित्ता । दश० चू० ३८ अ । जोवाः ३५१ । सूक्ष्मचर्मपक्षोः चमंसूक्ष्मपक्षनिष्पन्नम् । पहाए-प्रेक्ष्य । भग० ७५४ । प्रेक्षितं-दृष्टम् । आचा० आचा० ३६४ । ३६५ । पेसला-पेशला-मनोज्ञा । प्रज्ञा० ३६४ । | पेहावत्थं-प्रेक्षावस्त्रं प्रेक्षाऽऽलोकनं तत्पुरःसरं यद्वस्त्रादि पेसवणप्पओग-प्रेष्यप्रयोगः-बलादिनियोज्यस्य प्रयोगः । याच्येत तत् । बृ० प्र० ६७ । आव. ८३४ । पेहाहि-पेक्षस्व-निरूपय लभस्वेति । सूत्र० ११६ । पेसा । नि० चू० प्र० २५५ अ । पहि-कथय । सूत्र० १४४ (७४०) Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेहिता] अल्पपरिचितसेवान्तिकशब्दकोषः, मा०३ [पोग्गल पेहिता-प्रेक्ष्य । भाव० ७८४ । पोंडरीयदल-पुण्डरीकदल-सिताम्बुजपत्रम् । प्रज्ञा० ३६१॥ पेहिय-प्रेक्य । सूत्र० ५५ । प्रेक्षितं-अर्धकटाक्षनिरी- पोंडरीयय-जलरुहविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । क्षितादि । उत्त० ४२८ । पोंडरीया-लोमपक्षीविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । पेहुजण-पृथग्जनो लोकः । वृ० प्र० ६ अ । पोंडा-कप्पासो । नि. चू० प्र० १९१ बा । पेहुण-पिच्छम् । बृ० द्वि० ६१ अ । मयूराङ्गगिरः । पोअए-पोत:-बोहित्थः । आव० १२८ । प्रकर्षण उतनं बृ० तृ० ३३ आ। मयूराङ्गमयी पिच्छिका । (?) । मयू- प्रोतः मुक्ताफलादीनां प्रोतनम् । आव० १२६ । राङ्गम् । प्रश्न. १६३ । प्रश्न० ८ । मयूरपिच्छम् । पोअण-पोतनं-त्रिपृष्ठपुरम् । आव० १६२ । पोतनंप्रश्न० १५२ । जीवा० १९१ । ज० प्र० ३५। मयू- | पुरुषोत्तमवासुदेवनिदानभूमिः । आव० १६३ टी० । राङ्गम् । प्रभ० १६३ । मयूरपिच्छम् । राज. ३३ । प्रोतन-प्रवेशनम् । आव० ४७४ । नि० चू० प्र० ६० आ। पोअणपुरं-पोतनपुरं नगरम् । आव० १७४, १७६ । पेहुणकलाव-मयूरङ्गकलापः । ज्ञाता० ६५ । पोअया-पोतं-वस्त्रं-तद्वजरायुर्वजितत्वाज्जाताः, पोतादिङ पेहुणमिजिया-पेहुणमिञ्जिका-मयूरपिच्छमध्यवत्तिनी• वा बोहित्याज्जाताः पोतजाः । ठाणा० ११४ । मिञा । जीवा० १६१ । पेहुणं-मधूरपिच्छं तन्मध्य- | पोआई-पोताकी-शकुनिका, पोताकीविद्या । आव० ३१८॥ वत्तिनी मिजा पेडणमिजा । प्रज्ञा० ३६१। पोइय-पोतितं-निमग्नम् । ओघ• ६४ । पेहुणहत्थ- नि० चू० प्र० ६० था। पोइयलय बोष. १८०. पेहे-पश्यति । ओष. १२७ । निरूपयति । बोध० १३३ । पोइया-पोतिता:-त्रासिताः । वृ० प्र० ३१७ अ । पेहेति-पडिलेहित्ति । नि० पू०प्र० २०८ ब । पोक्कण-पोक्कणः-चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । पोंड-पौण्ड-फलम् । प्रश्न. २ । पुण्डरीक-पपम् । प्रभ० १४ । आव. ९६ । पौण्ड-अविकसितावस्थं कमलम् । विशे० पोक्काउ- ।नि० चू० प्र० १९२ । पोक्खरं-पुष्करम् । आव० २६६ । पोंडमया-खोम्मा । नि० पू० प्र० २५४ था। पोक्खरकण्णिा -पुष्करकणिका-पद्यमध्यभागः । सम० बोंडयं-पोण्डगं-वनीफलादुत्पन्नं कार्पासिकम् । विपा० १३७ । १२ । पुण्डजम् । उत्त० ३४२ । कप्पासो । नि० चू० पोक्खरगय-पुष्करं-मृदङ्गमङ्गयादिभेदभिन्नं तद्विषयको प्र० १२१ अ। विज्ञानं पुष्करगतम् । ज० प्र० १३७ । अष्टमिकला। पोंडरिगिणी-अजनपर्वते पुष्करणी। ठाणा० २३० ।। ज्ञाता० ३८।। ठाणा.. | पोक्खरणी-पुष्करणी-वर्तुला पुष्करवती। ज्ञाता० ६३, पोंडरिय-पुण्डरीक-श्वेताम्बुजम् । राज.५। ६७। पुष्करिणी पूकरवती चतुकोणा था। प्रभ०८। पोंडरी-सप्तदशसागरोपमस्थितिकं देवविमानम् । सम० पोक्खरथिमाय-पुष्करास्थिभागः कमलबीजविभागः । ज० प्र० २८४ । पोंडरीगिणी-जम्बूमहाविदेहे पुक्खलावतीविजये राजधानी। पोक्खल-पद्मकेसरम् । आचा० ३४९ । जलरहविशेषः । ज्ञाता. १९१ । प्रज्ञा. ३३ । पोंडरीय-पुण्डरीक-श्वेतपनम् । ज० प्र० २६ । पुण्ड- | पोक्खलत्यिभूय-जलाहविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । लोकं ज्ञातायां एकोनविंशतितमं ज्ञातम् । सम० ३६ । | पोक्खलावती-जम्बूमहाविदेहे विजयः । ज्ञाता० १९१ । पौण्डरीक-सिताम्बुजम् । जीवा० १७७ । पुण्डरीक:- पोक्खली-श्रावस्त्यां भमणोपासकः । भग० ५५२ । लोमपक्षिविशेषः । जीवा. ४१ । पोग्गल-पुद्गलपरिणाभनामाष्टमशतके प्रथमोद्देशकः। भग० (७४१) Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलगती] आचार्यभोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [पोत ३२८ । पुद्गलविषयो द्वादशशतके चतुर्थोद्देशकः । भग० ज० प्र० १२५ । जठरम् । उपा० २२ । उदरं । ५५२ । पुद्गलार्थाभिधायक: चतुर्दशशतके चतुर्थोद्देशकः। दश० चू० १२३ । भग० ६३० । पुद्गलः-पूरणगलनधर्मा । आव० २५७ । पोट्टदरा-कडपलादि पोट्टाणि चेव पोट्टदरा । नि० चू० पोग्लं-मासम् । पिण्ड० २२ । पुद्गलः-जीवः । दश० वि० १४७ आ। ५० । पुद्गलं-मांसम् । आव० ७४० । पुद्गल:-मूर्तः। पोट्टल-मरः । तन्दुः । भग० १५० । पुद्गलम् । बाव० ८५४ । पुद्गला:- पोट्टलग-पोट्टलकः । ओघ० १०० । पूरणगलनधर्माणः । ठाणा० ३४ । पुद्गला:-पूरणगलन-पोट्टलय-पोट्टलिकः । उत्त० २०६ । धर्माण:-परमाण्वादयोऽनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्ताः । अनु० -वस्त्रकदेशेन निबद्धं वस्तुजातम् । भग० ७६ । ७४ । पुद्गल:-परमाणुः । भग० ६६ । पौद्गलं- | पोट्टलिया-पोट्टलिका । आव० ६९४ । मांसम् । विशे० १३९ । मांसम् । नि० चू० प्र० ३६ | पोट्टशाल-परिव्राजकविशेषः । ६० प्र० १२४ अ । 18 । पौदगलं पुद्गलसमूहो मेघः । ठाणा० १४२। पोट्रसरणी-अतिसारः । आव० ६६८, ८१३ । पोग्गलगतो-पुद्गलगतिः-विहायोगतेः पञ्चमो भेदः । प्रशा० पोट्टसाल-पोदृशालः । उत्त० १६८ । पोट्टशाल:-लोह। ३२७ । पट्टबद्धपोट्टः-जम्बूवृक्षशाखायोगात् लोके 'पोट्टशाल' इति पोग्गलपरिअट्ट-पुद्गलपरावतः-अनन्त उत्सपिण्यवसप्पि- नाम जातम् । विशे० ९८२ । . णोमानः । अनु० ६६ । पोट्टसूलं-पोट्टशूलं-उदरशूलम् । ओघ० २१७ । पोग्गलपरियट-पुद्गलाना-रूपिद्रव्याणामाहारकवजिताना पोट्रिया-पोट्टिक: महोदरः जलोदरी । आव० ६७८ । । औदारिकादिप्रकारेण ग्रहणतः एकजीवापेक्षया परिवर्तनं- पोट्रिल-अनगारविशेषः । ठाणा० ४५६ । राजपुत्रः । सामस्स्येन स्पर्शः पुद्गलपरिवर्तः, स च यवता कालेन सम० १०६ । जम्बूभरते आगामिन्यामुत्सपिण्यां नवमभवति स कालोऽपि पुद्गलपरिवर्तः । ठाणा० १५८ ।। तीर्थकृतः । सम० १५३ । प्रोष्ठिल:-प्रियमित्रक्रिधर्माअन्तसमयात्मकः । भग० ८८८ । चार्यः । श्राव. १७७ ।। पोग्गलपरियट्टा-पुद्गलद्रव्यैः सह परिवर्ताः-परमाणूणां पोटिला-कलादमूषिकारश्रेष्ठिसुता । विपा० ८८ । पुष्पमीलनानि पुद्गलपरिवृत्ताः । भग० ५६८ । कारबेष्ठिदुहिता । आव० ३७३ । भद्राकालकयोः पोग्गलरस-पुद्गलस्सः । आव० ८५७ । पुत्री । ज्ञाता० १८४ । पोग्गलादिण्णं-पुद्गलं-मांसं तेन सर्वमाकीर्ण-व्याप्तम् | पोट्टिल्ल-आगामिन्यामुत्सपिण्यां चतुर्थतीर्थकृत्पूर्व भवनाम। पुद्गलाकीर्णम् । आव० ७४० । सम० १५४ । पोग्गलिय-पौद्गलिक:-शाल्यौदनः पिण्ड ० १०० । दश० | पोट्रवया-प्रोष्ठपदा उत्तरभद्रपदा । सूर्य० ११४ । १७५ । पोदवात-पोष्ठवए-पोष्ठपदः भाद्रपदः । सूर्य० १०७ । पोग्गलहस-भगवत्या पुद्गलोहेशकः। विशे०६४७। पोडह-वक्षविशेषः । भग०८०३ । पोच्चड-पूर्णम् । नि० चू.द्वि. ४३ अ । विलोनम् । पोडला-तणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । ज्ञाता० १७७ । अतिनिबिडम् । प्रश्न १४ । असारम् | पोढ-प्रौढः-समर्थः । बृ० प्र० ६१ म। ज्ञाता० ६४ । प्रोढा-प्रौढा-समर्था । वृ० प्र०६१ आ। पोच्चडग-श्लथत्त्वम् । नि० चू० प्र० २८६ बा। पोणओ- ।नि० चू० प्र० १२१ । पोट्ट-उदरम् । ओघ० १४८ । उदरम् । आव० ३१८, पोत-पोतं-लघुबालोचितवस्त्रखण्डम् । पिण्ड० ६६ । ३५३, ४३४, ८१६ । पृष्टः । उत्त० १६८ । जठरः । अपक्व जायओ पक्खिसावो। दश०१२६ बा। पोतकोउ. मा. गा० ४८८ । उदरम् । दश० ११ । उदरम् । बालक इति वस्त्रम् । ठाणा० ४६५ । पोतज:-पोतमिव (७४२) Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोतजा] अल्पपरिचितसशान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [ पोरपरिग्गह वस्त्रमिव पोतादिव वा बोहिस्थादिव जातः हस्त्यादिः । | पोत्थयं-पोतं-वस्त्रम् । अनु० ३४ । पुस्तकः-पत्रकसङ्घातप्रश्न. ६० । वनम् । ६० प्र० १४१ (?) निष्पन्नः । अनु० ३४ ।। पोतजा-पोतजाः हस्तिवग्गुलीप्रभृतयः । ठाणा० ३८५। | पोत्थयपणगं-गंडी-कच्छपी-मुष्टिः-सम्पुटफलः सृपाटिका पोतनपुर-शुद्धाहारगवेषणादृष्टान्ते नगरम् । पिण्ड० ७५। रूपं पुस्तकपञ्चकम् । ठाणा० २३३ । पोतनपुर:-परतीथिकवादस्थानम् । व्य० प्र० १८८ आ। पोत्थयरयणं-पुस्तकरत्नम् । जीवा० १३७ । पोतिए- नि० चू० प्र० ३२७ आ। पोत्रक-वृषणः । उमा० २२ । पोतितं-देशीवचनस्वास्त्रासितम् । वृ० प्र० २३१ आ। पोदकी-श्वापदविशेषः । उत्त० ४१७ । पोत्त-पोत्तं-वस्त्रम् । आव० ३६६ । वस्त्रम् । आव० पोमे । नि० चू० प्र.१९० अ। ८२४ । वस्त्रम् । आव० ६० । वस्त्रम् । ओघ० ७२ । | पोम्हं-अदसं । नि० चू० प्र० २४५ आ । पोत्तग-ताड्यादिपत्रसङ्घात निष्पन्नम् । आचा० ३६३। पोय-पोतः शिशुः । आचा० २४८ । पोत:-ब्रह्मदत्तराज्यो। पोत्ति-चिलिमिनीम् । ओघ०६२ । वस्त्रम् । उत्त०८। पुरतीपिङ्गलयोः पिता । उत्त० ३७६ । मुखवस्त्रिका । ओघ० १३२ । पीयघाय-पोतघात:-शवघातकः । प्रभ० १३ । पोत्तिय-पोतमेव पोतक-काप्पासिकम् । ठाणा० ३३८ । पोयय-पोतजः-हस्स्यादिः । औप० ३७ । पोतजःकासिक-वस्त्रम् । बृ० द्वि० २०१ अ । वल्गुल्यादिः । भग० ३०३ ।। पोत्तिया-वस्त्रधारिणः तापसविशेष: । निरय० २५ । पोयया-पोता एव जायन्त इति पोतजाः हस्तिवस्गुलीन पोत्ती-वस्त्रम् । आव० ३०७ । जलोकाप्रभृतयः । दश० १४१ । पोत्तीया-वस्त्रिका । आव० ६३ । पोयवहणं-पोतवाहनं-नौ । उत्त० २२० । पोत्तुल्लए-वस्त्रमयपुत्रिका । ज्ञाता० २३५ । पोयसत्थो-पोतसार्थ:-बोहित्यसमुदायः शावकसमूहो वा। पोत्थं-पोतं-वस्त्रम् । पुस्तक-सम्पुटकरूपं, ताडपत्रादि ।। प्रश्न. ३९ । अनु० १३ । प्रोत्थं वस्त्रं प्रकृष्टोत्थानरूपम् । उत्त० ४७५। पोयहंस-पोतहंस:-लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । प्रोत्था-प्रकृष्टोत्थानरूपा । उत्त० ४७५ । लेप्पगं । नि० | पोया-महती काहला । भग० २१६ । चू० तृ. २ आ। पुस्त-लेप्यम् । विशे० ६१५ । पोयाइ-पोताफ्यः शकुनिकाः । विशे० ९८२ । पुस्ते धीउल्लिकादि पुत्तलिकादि । ओघ० १२६ । पुस्तं- पोयागी-पोताकी-शकुनिका । उत्त० १६६ । वस्त्रम् । ज्ञाता० १७६ । पुस्तं-वस्त्रम् । प्रश्न० १६० । पोयाल-मृगादिपोतलकः । बोघ० १५८ । साण्डवृषभः। पोत्थकम्म-पोस्थ-पोतं वस्त्रमित्यर्थः, तत्र कर्म-तत्पल्लव- ध्य० प्र० १८४ ।। निष्पन्नं धोउल्लिकारूपकमित्यर्थः, अथवा पोत्थं-पुस्तकं पोर-अङ्गुष्ठपर्वः । ओघ० २१४, २१८ । नि० चू० प्र० तच्चेह संपुटकरूपं गृह्यते, तत्र कर्म-तन्मध्ये वतिका. लिखितं रूपकमित्यर्थः, अथवा पोत्थं-ताडपत्रादि तत्र पोरकव्वं-पुरःकाव्यं-पुरतः पुरतः काव्यं-शीघ्रकवित्वम् । कर्म-तच्छेदनिष्पन्नं रूपकम् । अनु० १३ । पुस्तकर्म- ज० प्र० १३७ । लेप्यकर्म । आचा० ४१४ । पोरग-हस्तिविशेषः । प्रज्ञा. ३३ । पोत्थकार-पोस्तकारः । अनु० १४६ । पोरजाय-पर्वतजातम् । आचा० ३४६ । पोत्थगपणगं- ।नि० चू० प्र० १८१ अ । पोरपरिग्गह-पोरं-अङ्गुष्ठपर्व तस्मिन्नगुष्ठपर्वणि लग्नया पोत्थपणय-पुस्तकपञ्चकं-गण्डी १ कच्छपी २ मुष्टि ३, प्रदेशिन्या यद्भवति छिद्र तद्यथा पूर्यते तेन दण्डनकेन संपुटफलक ४ सृपाटिका ५ पुस्तकलक्षणम् । आव० | बाह्यनिषद्यादयरहितेन तथा कर्तव्यं । अङ्गुष्ठपर्वप्रदे६५२ । शिनीकुण्डलिकापूषणम् । ओघ० २१४ । ( ७४३ ) Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरबीय ] आचार्य मोआनन्दसागरसूरिसकुलितः [ पोस पोरबीय-पर्वगबीज-इक्वादि । बाचा० ३४६ । पर्वबीज:- राक्षसा इति । उत्त० ३९४ । इक्ष्वादयः । ठाणा. १८७ । पर्वबीज:-इक्षुवंशवेत्रादि। पोरेकच्च-चतुर्दशकला । ज्ञाता०३८ । आचा० ५७ । पर्वबीजं इक्ष्वादि । दश० १३६ ।। |पोरेवच्चं-पुरस्य पतिः पुरपतिः तस्य कर्म पौरपत्पोरवच्चं-पुरपतेः कर्म पौरपत्य-सर्वेषामात्मीयानामग्रेस- सर्वेषामग्रेसरत्वम् । प्रज्ञा० ८६ । पुरोवत्तित्वं-अग्ररत्वम् । जीवा० १६२ । गामित्वम् । सम० ८६ । पुरोवत्तित्वं-अग्रगामित्वम् । पोराण-तिस्थयरभासितो जस्सत्थो गंथो य गणधरनिबद्धो भग० १५४ । पुरस्य पति: पुरपतिस्तस्य कर्म पौरपत्यंतं पाययबद्ध । नि० चू० द्वि० ३६ । पुराण-प्रागु- पुरपतेः कर्म, सर्वेषामग्रेसरस्वम् । जीवा० २१७ । पात्तम् । दश० १७ । पुराणम् । भग० १६३ । पुरा. पोलंडे-पोलंडेत्ति-प्रकर्षेण द्विस्त्रिोल्लघयति । ज्ञाता० तनम् । सम० ३८ । पुराणः-जरठः, कक्खडीभूत इति । विपा० ३८ । अतीतकालभावि । ज्ञाता० २०५। तीर्थ- पोलास-पोलासं-श्वेतविकायामुद्यानविशेषः। आव० ३१५ । करगणधरलक्षणः पूर्वपुरुषः । बृ० तृ० १०३ अ। पोलासं-चैत्यविशेषः । आव २१६ । श्वेताम्ब्यामुद्यानपोराणगा-पुराणतरा अज्ज, जस्स पपोत्तादिभावो । नि० विशेषः । उत्त० १६० । चू० द्वि० २९ आ । पोलासपुर-अतिमुक्तकुमार श्रमणवास्तव्यनगरम् । अन्त० पोराणय-पुरातनम् । मर० । ६ । विजयराजधानी । अन्त० २३ । जितशत्रो राजपोराणिय-पुराणामेव पौराणिकीम् । उत्त० ३०६ । धानी । उपा० ३६ । पुराणामेव पौराणिकी-चिरन्तनीम् । उत्त० ३६७ । पोलिन्दी-लिपिविशेषः, भाषायें अष्टादशमः । प्रज्ञा पोरायाम-अगुष्ठपर्वणि प्रतिष्ठितायाः प्रदेशिन्या | ५६ । यावन्मानं शुषिरं भवति तदापूरकम् । ओघ० २१४ । | पोलियं-पोलिका । उत्त० १४७ । पर्यायाम अङ्गुष्ठपर्वप्रदेशिन्यपान्तरालायायम् । वृ० द्वि० पोल्ल-अन्तःशुषिरः । उत्त० ४७८ । ऊसिरं जीवाश्रय२३९ । स्थानमित्यर्थः । नि० चू० द्वि० ६० आ । पोरिसि-पुरुषप्रमाणा पौरुषी आत्मप्रमाणा वीथो । पोल्लक-पोइल्लक-कटनिवर्तकमयोमयं चित्रसंस्थानम् । आचा० ३०२ । रुतपुणिकानिर्वत्र्तकं शलाकाशल्यकाङ्गरुहादिर्वा । आव० पोरिसिअद्धा-पौरुषीकालः । ओघ०६७ । ४५६ । पोरिसिमंडल-पुरुषः-शकुः पुरुषशरीरं वा तस्मानिष्पमा पोल्लर-शुषिरा । उत्त० ४७८ । पौरुषी, पौरुषी यत्राध्ययने व्यावर्ण्यते तदध्ययनं पौरुषी-पोल्लरुक्ख-शुषिरवृक्षः : ज्ञाता० ६३ । मण्डलम् । नंदी० २०५ । पोल्लिया-पोलिका । भाव० ३५४ । पोरिसी-पौरुषो । आव० ८५२ । पोवलिय-पोलिका । आव० ३४३ । पोरिसोच्छाया-पुरुषे भवा पौरुषो तां पौरुषी छाया यद्यपवासिना पौरुषोच्छाया । सूर्य० ६२ । ध्यपगतस्नानानुलेवनगन्धमाल्यालंकारेण न्यस्तसर्वसावद्यपोरुष-पुरुषाणां समूहः पौरुषम् । उत्त० २६५ । । योगेन कुशसंस्तारकफलकादीनामन्यतमं संस्तारमास्तीर्यपोरुसं-पारुषेयं पदात्यादिपुरुषसमूहः । उत्त० २६५ । स्थानं वीरासननिषद्यानामन्यतममास्थाय धर्मजागरिका। पौरुषेयं-पदातिसमूहः । उत्त० १९८ । तत्त्वा० ७-१६ । पोरसा-पुरुषाणां चरमावस्थां प्रासाः, अत्यन्तवृद्धा एव | पोस-अपानम् । प्रभ० ८३ । पोस:-अपानवेशः । जीवा० पौरुषाः । सूत्र. १५८ । २७७ । पोस:-अपानदेशः। ज.प्र. ११७ । अधिष्ठापोरसादा-पौरुषादा:-प्रस्तावात्पुरुषसम्बन्धिमांसभक्षका ' नम्। ओघ० १८४ । तेन सेव्यमानेन पुष्यत इति ( ७४४ ) Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसए ] पोषः, आत्मानं वा तेन तेन पोषयतीति पोषः, तदर्थनो वा तं पोषयतीति पोषः मृगीपदमित्यर्थः । नि० चू० प्र० २५२ आ । अपानदेशः । औप० १६ । पोसए - उपस्था । ठाणा० ४५१ । 3 बोसणं- पोषणं - यवसादिदानतः पुष्टिकरणम् । प्रश्न० ३८ | पोसवत्थं - कामं पुष्णातीति पोषं कामोत्कोचकारि शोभनमित्यर्थः तच्च तद्वस्त्र पोषवस्त्रम् । सूत्र० १०५ । पोससुद्ध - पोषमास शुद्धः । ज्ञाता० १५२ । पोसह - पौषषं पर्वदिनानुष्ठेयं तप उपवासादिः । ज० प्र० १६७ । पोषधः - अष्टमादिपर्वदिनम् । औप ८२ । पौषधः - पर्वोपवासः । प्रश्न० ३२ । पोषधः - व्रताभिग्रहविशेषः । सूत्र० ४०८ । आव० ७६३ । पोषं दधातीति पोषधम् । व्य० प्र० २८ आ । पोषधः - पोषणं पोषः, स चेह धर्मस्य तं धत्त इति पोषघ: - प्राहारपोषघादिः । उत्त० २५१ । पोषं धर्मपुष्टि घत्त इति पौषषः अष्टम्यादितिथिषु व्रतविशेषः । उत्त० ३१५ । पौषधं अभिमतदेवता साधनार्थं कव्रतविशेषो अभिग्रहः । ज० प्र० १६७ । पौषधं पर्वम् | आव० ८३५ । पोषषं - अष्टम्यादिपर्वः । प्रज्ञा० ३६६ । पोषधशब्दोऽष्टम्यादिपर्वषु रूढः । उपा० ११ । पौषधं - पर्व दिनानुष्ठानम् । भग० १३६ । पोषधप्रतिमा - भावकस्य चतुर्थी प्रतिज्ञा । आव० ६४६ | पौषधः - पर्व दिनमष्टम्यादि । ठाणा १२६ । पौषध:अष्टम्यादिपर्वदिनं तत्रोपवसनं - आहारशरीरसत्कारादित्यागः । सम० १२० । पोषघं-पर्वादिनानुष्ठानमुपवा• सादि । ज्ञाता० ३४ । - पोसह पडिमा - पौषषकाले प्रतिमा, पञ्चमी श्रावकप्रतिमा । आव० ६४६ । पोसहिय- नौषधिक:- आसनपारितपोषघव्रतः । ज० प्र० २१३ । पौषधिक:- अष्टम्यादिषु पर्वेषु परं तपः कारयतः व्य० द्वि ३६६ अ । पोस हियतव - पौषधिक:- अष्टमीपाक्षिकादिपोषधे भवं पौष धिकं तच तत् तपश्च पौषधिकतपः । व्य० प्र० २८ आ । पोसहोववास - पौषधः पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवसनं, अभ कार्थ :- पौषधोपवासः । ठाणा० २३६ । पौषधोपवासः अष्टम्यादिषु पर्वदिनेषूवसनं बहारशरीरसत्काराब्रह्मव्या प्रकटत्व- आविर्भावः । विशे० १०६२ ( अल्प ० ६४ ) ( ७४५ ) अल्पपरिचित संद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [ प्रकटत्व पारपरिवर्जनमित्यर्थः । ज्ञाता० १३४ । पोषधः रूढया पर्व:, पर्वाणि - अष्टम्यादितिथयः, पूरणात् पर्व, धर्मोपचयहेतुत्वादित्यर्थः पौषधे उपवासनं पौषघोपवासः नियमविशेषाभिधानं चेदं पौषधोपवासम् । आव० ८३५ । पौषधोपवासः - पर्वदिनोपवसनम् । भग० ३६८ । पोषघोपवासः - पर्व दिनोपवासः । भग० ३२३ । पौषधोपवास:अष्टम्यादिपदिनेषूपवसनम् । औप० १०१ । पौषधोपवास: । आव० ८३५ । पोसहोववासनिरय- पोषं पुष्टि कुशलधर्मणां धत्ते यदाहारत्यागादिकमनुष्ठानं तत्पौषधं तेनोपवसनं अवस्थानमहोरात्रं यावदिति पोषधोपवास इति अथवा पोषघंपर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवास: - अभक्तार्थः पौषधोपवास इति, इयं व्युत्पत्तिरेव, प्रवृत्तिस्त्वस्य शब्दस्याहारशरीरसत्काराब्रह्मचर्यव्यापारपरिवर्जनेष्विति, तत्र पौषषोपवासे निरतः - आसक्तः पौषघोपवासनिरतः (यः) सः । भावकस्य चतुर्थी प्रतिमा । सम० १९ । पोह-गोमयं छगणशेहः । पिण्ड० ८३ । पोहत्तं पृथुस्वम् । भग० १३१ । पृथुत्वं विस्तारः । प्रज्ञा० २६३ । पोहत्तिए- पृथत्वसूत्रं - बहुवचनसूत्रम् । भग० २१८ । पोहब्वं त्रिस्थारो । नि० चू० प्र० १३९ अ । पोहदरा। नि० चू० प्र० १२६ अ । पौण्डक - पौण्डजं - यद्वमनितिन्दुकोद्भवं यथा कर्पाससूत्रम् । उत्त० ५७१ । पौण्डरीक - षष्ठं महाकुष्ठम् । प्रभ० १६१ । सप्तममहाकुष्ठी पञ्चमः । आचा० २३५ । पौद्गलिक व्य० द्वि० १७४ आ । पौरुषघ्नी - भिक्षाविशेषः । उत्त० २० । पौलाषाढ- चैत्यविशेषः । विशे० ( ? ) । पौलोमी - इन्द्राणी । नंदी० १५० । टिपणण-अर्पणम् । आव० १०३ । प्र - 'प्र' शब्दः- अनुवृत्तार्थे । ज० प्र० ४१५ । 'प्र' शब्दः आदिकर्मार्थः । ज०प्र० २५ । 'प्र' शब्द आदिकर्मार्थत्वे । ठाणा० १४३ । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकम्पित ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [प्रतिज्ञप्त प्रकम्पित-विधूतः, अपनीतः । आव० ५०७ । नामनिक्षेपः । ज० प्र०९। प्रकर-धान्यस्य मर्दनम् । ओघ० ७५ । प्रज्ञप्तिविद्या-विद्याविशेषः । विशे० ६१० । प्रकरण-संङ्खडी । ओघ० ४७ । जिनवचनमुपादातुं प्रज्ञा-स्वबुद्धिः । सुय० ३६८ । बुद्धिः । ठाणा० ५१६ । प्रकारः । आव० ६८ । प्रकृतं, प्राघूर्णभोजनादिकम् । प्रकर्षेण ज्ञायते उत्सर्गापवादः तत् । बृ० प्र० १३० अ । पिण्ड० १४८ । आचा० ३२८ । प्रज्ञापना-प्रज्ञापनोपानं तस्यैव प्रथमं पदं च । जीवा० प्रकर्ष-भावसारम् । दश० ११६ । प्रकर्षगति-पारम्पर्यम् । आचा. १७४ । प्रज्ञाप्तं-प्रज्ञया भव्यजन्तुभिराप्तं-प्राप्तम् । अनु० २। प्रकामशायी-अतिनिद्रः । दश० २३५ । प्रज्ञाप्तभूमिः- । व्य० द्वि० ४४६ अ। प्रकारकात्स्न्यम्-कतिचित्पर्यायान्वितम् । उत्त०५५५ (१) प्रणाला-जिबिका । ज० प्र० २६१ । प्रकाश:-श्वेतता । सुर्य० ६ । ओजः । सुर्य० ७ । प्रणालिका-ढिः । जीवा० ८ । प्रकाशक्षेत्र-उदयास्तान्तरं तापक्षेत्रम् । ज०प्र० ४१५। प्रणिधानं-प्रयोगः । आव० ८३४ । प्रणिधानम् । भग० प्रकाशवीप-प्रकाशाय दीपः प्रकाशदीपः। बाचा. २४७।। ५० (?) । प्रकीर्णक-चामरम् । प्रभ० ७० । पौरखनपदस्थानीयः। | प्रणिहितेन्द्रिय-पिहितेन्द्रियः । प्रभ० १६० । तत्त्वा . ४-४ । प्रतनुकषायं बाव. १२६ । प्रकीर्णकया-सा बोत्सर्गकथा, व्यास्तिनयकथा वा, प्रतर- . । दश० १५७ । कवायाः चतुर्थों भेदः । सम० २४ । प्रतरपरिमण्डलं-विशतिपरमाण्वात्मकं विधतिप्रदेशावप्रकृतिः-प्रजा । आचा० ११, २०१।। गाढं च, तच्च-प्राच्यादिषु चतसृषु दिशु प्रत्येकं चस्वा. प्रकृष्ट-प्रधानः । सूय० ६ । सर्वसूक्ष्मः-निरंशः । अनु० श्चत्वारोऽणवः स्थाप्यन्ते विदिनु र प्रत्येकमेककोऽणुः '६७ । स्थाप्यन्ते । प्रज्ञा० १२ । प्रेक्षते-गणयति बालोचयति च । बा० (?) ५२६ ।। प्रतरभेद-अभ्रपटलस्येव । ठाणा० ४७५ । अभ्रपटलानाप्रेक्षापूर्वकारिता बाप. ८५० ।। मिव यो भेदः । भग० २२४ । प्रक्षेपक-साधुनामेवार्थाय या वनस्थापना स । वृ.प्र. प्रतारयति-छलति । नंदी० १५७ । प्रति-अनुरूपं-समानम् । नंदी० ४३ । प्रगाढा-प्रकर्षवती । ठाणा० ४६१ । प्रतिकारविधिः-उपायविधिः । नंदी. १६२ । प्रगुणं-सरलम् । उत्त० १२६ । प्रतिकृति-प्रतिमा । बाचा० ८० । सदृशः । सूर्य. प्रगृहीततर-पूर्वस्थानाद् भक्तपरिङ्गितमरणरूपाप्रकर्षण | २६४ । ग्रहोऽत्र पादपोपगमने, प्रग्रहिततरमेतदित्यर्थः । आचा० प्रतिक्रमण-मिथ्यादुष्कृतसंप्रयुक्तः प्रत्यवमर्शः प्रत्याख्यानं २९४ । कायोत्सर्गकरणं च । तत्त्वा० ९-१२ । प्रगृहीता-षष्ठी पिण्डषणा । आचा० ३५७ । प्रतिमारग-प्रतिचारकः । आव. २०६ । प्रग्रह:-रश्मिः । उत्त० ५०७ । प्रतिच्छन्दभूतः-सदृशः । नंदी० १४७ । प्रचय-कायः । ठाणा० २१७ । प्रतिच्छन्ना-भूते नवमभेद: । प्रज्ञा० ७० । प्रचूरा-प्रशस्ता अतिशायिनी वा । ठागा० ३३२ । प्रतिजिह्वा-शरीरावयवः । प्रज्ञा० ४७३ । प्रजन-प्रसवः । नंदी० १६१ । चिह्नम् । वृ० द्वि० २४ | प्रातजिह्निक -आत्मोपघातकः । सम० ६७ । अ। प्रतिज्ञप्त-वैयावृत्यकरणायापर रुक्तः - अभिहितः । प्रज्ञप्ति-स्वसमयप्ररूपणा । व्य० प्र० २८६ । विद्यादेवी आचा० (१)। ( ७४६ ) Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिज्ञापनम् । अल्पपरिचितसद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० ३ [प्रत्याख्यानक्रिया प्रतिज्ञापनम् । नंदी० १७९ । प्रतिधान्तः-विश्रान्तः । बृ० द्वि० १५ आ । प्रतिद्वन्दी-प्रतिपक्षी । नंदी. १५० । प्रतिश्रुतिः जं.प्र. १७७ । प्रतिनियत-प्रतिभक्तम् । प्रज्ञा० ३२६ । प्रतिष्ठा-गाथा निश्चितिश्च । आव. ८०४ । प्रतिनिर्यातव्य-समर्पणीयम् । व्य० द्वि० ३०७ आ। प्रतिष्ठानपुरं-विद्यामन्त्रद्वारविवरणे मुरुण्डराजधानी । प्रतिपत्तिः- सर्वातिशयनिधानमतीन्द्रियार्थोपदर्शनाव्यभिचा- पिण्ड० १४२ । रि चेदं जिनप्रवचनमित्येवंरूपा प्रतिपत्तिः । सम० १२५। प्रतिष्ठितः- व्य० द्वि० ३६० आ। रीतिः । आव० ४४१ । कालः। प्रशा० ३८५ ! नंदी० प्रतिसंलोन-गुरुसकाशेन्यत्र वा कार्य विना न यतस्त१६७ । वार्ता । वारकः । नंदी०५१ । उपमा । तश्चेष्टते । उत्त० ३४७ ।। ध्य० प्र० २७४ । प्रतिसंलीनताप्रतिमा-पञ्चप्रतिमायां चतुर्थी । सम० प्रतिपादनता:-प्रतिपत्तय इति विग्रहः । सम० १२० ।। ६६ ।। प्रतिबोधक-गृहचिन्तक: । व्य० प्र० २२२ अ । प्रतिसेवक-कारणभावेऽपि पञ्चकादीनि प्रायश्चितस्थानानि प्रतिभा-प्रकाशः । जीवा० १६४ । मतिविशेषः । प्रज्ञा प्रतिसेवते । व्य० प्र० ३११ । प्रतिसेवना-सम्यगाराधनविपरीता प्रतिगता वा सेवना। प्रतिभास: । सूय०७। ठाणा० ३३७ । प्रतिमा-कायोत्सर्गः । आव. १४३ । प्रतिसेवनानुलोम्य-आलोचनानुलोम्यः, ये यथाऽऽसेवितः । प्रतिमाकल्पिक:-साधुभेदविशेषः । भग० ४।। आव० ७८१ । प्रतिमान-गुज्जा,वल्लादि। ठाणा० १९८ । सुवर्णादिमान- प्रतिसेवमानः-प्रथमभङ्गवर्ती। व्य० प्र० ८ आ। हेतुः गुजादि । जं० प्र० २२७ । प्रतीत्यमहत्-आपेक्षिकम् । दश० १००। प्रतिमाप्रतिपत्ति:-प्रतिज्ञा । ठाणा० ३८१ । प्रतोली-नगरद्वारम् । नंदी० १४६ । नगरस्यैव कपाटम् । प्रतिराश्यते सम० १३८ । प्रतिरूप-असाधारणं रूपं आकारो यस्य स । सूर्य० २। । आचा० २४४ । प्रतिरूपकव्यवहार-सुवर्णारूप्यादीनां द्रव्याणां प्रतिरूपक- प्रत्यश्वा-ज्या-धनुष्यारोप्यमाणा रज्जुः । भग० १६३ । क्रियाव्याजीकरणानि च । तत्त्वा०७-१६ । जीवा-दवरिकेति । सूर्य० २२ । दवरिका । सूर्य० ४८ । प्रतिरूपयोगयोजन-औपचारिकविनयविशेषः । उत्त. जीवा-दवरिका । सूर्य• २३३ । धनुःसत्का जोवा । उत्त० ३११ । प्रत्यय-उपयोगः । विशे० ३६ । प्रतिरूपा-भूतद्वितीयो भेद । प्रज्ञा० ७० । प्रत्ययिक:- । आचा० १०६ । उत्त० ३७८ । प्रतिवचन-उत्तरम् । सर्य० ११।। प्रत्यर्पणम् । आव० ४४१ । प्रतिविधान-उपायः । नंदी० ६१ । प्रत्यवतार: ।भम० २६ (?). प्रतिविशिष्ठ-असाधारणम् । सूर्य० २ । प्रत्यवस्था-समाधानम् । आचा० १२ । प्रतिवृषभग्रामः- ।वृ०प्र० ३०५ आ। प्रत्यवस्थान-प्रतिवचनम् । बृ०प्र० १३६ अ । गुरुकथ. प्रतिशठः-प्रतिपक्षी शठः । नंदी० १५२ । नम् । दश० २१ । प्रतिशब्द:-पडहवाची । नंदी. १७३ । प्रत्याख्याताशनादिभोजनं-सप्तमः शबलः । प्रथ०१४४ । प्रतिशलाकापल्यः-सङ्ख्यापरिमाणे द्वितीयःपल्यः प्रत्याख्यान-कषायस्य द्वितीयो भेदः । आचा० ६१ । २३७ । प्रत्याख्यानक्रिया-सूत्रकृताङ्गद्वितीयश्रुतस्कंधे तृतीयममध्य( ७४७ ) Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यानत्रय ] [ प्रभास यनम् । ठाणा० ३८७ । निरंशदेशार्थता परमाणुत्वमितिभावः । अनु० ६७ । प्रत्याख्यानत्रय-संभोगोपकरणाहाराणां प्रत्याख्यानम् । प्रदेशोदीरणा प्राप्तोदर्य नियतपरिमाणकर्म्म प्रदेश : सहा प्राप्तोदयानां नियतपरिमाणानां कम्मं प्रदेशानां यद्वेदनं आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: उत्त० ५८६ । प्रत्याख्यानपूर्वम्प्रत्याचक्षीत प्रपन्हुवीत । आचा० ४४ । प्रत्याचक्षे - प्रतिषेधस्यादरेणाभिधानं करोमीति । ४५५ । प्रत्यात्मेन्द्रकाणि - अहमिन्द्राणि । सम० ४३ । प्रत्यालीढ- पालीढाद्विपरीतं स्थानम्, पञ्चस्थाने द्वितीयम् । उत्त० १०५ । अग्रतो मुखमाधाय दक्षिणमुरु पश्चान्मुखमपसारयति अन्तरा चापि पादवोन्यं च पादास्ततः पूर्वप्रकारेण युध्यते तत्प्रत्यालीढम् । व्य० प्र०४६ आ । तृतीयं योधस्थानम् । आचा० ८६ । ठाणा०३ । प्रत्यावर्त्तः - नाट्यविशेषः । जं० प्र० ४१४ । प्रत्यासत्तिः- न्यायविशेषः । विशे० ५७ । ७६४ | प्रत्युत्पन्न - लोकरूढम् । ठाणा० ४९७ । प्रत्युपेक्षितं - आलोकितम् । आचा० ४२८ । प्रत्युपेक्षेत - पर्यालोचयेत् । आचा० ३५१ । प्रत्यूष : गोष: । आव० ७८१ । प्रत्येक बुद्धाः प्रतीत्येकं किश्वित् वृषभादिकं अनित्यतादिभवन करणं वस्तु बुद्धा: - बुद्धवन्तः परमार्थमिति प्रत्येक बुद्धा: ठाणा० ३३ । प्रथमानुयोग - तीर्थंकरादिपूर्व भवादिव्याख्याग्रन्थः । ठाणा० ४१ दृष्टिवादे चतुर्थो भेदः । सम० ४१ । प्रथमालिकार्थम् - प्रदर्शन-चिह्नम् । आव० ८३० । प्रदश्यन्ते उपमाप्रदर्शनेन । नंदी० २१२ । प्रदानं यः सम्प्राप्तो धनोत्सर्गः, उत्तमाधममध्यमः । प्रतिदानं तथा तस्य गृहीतस्यानुमोदनम् ।” ठाणाο १५२ । | आचा० २६५ । प्रदोपित -ज्वालितम् । उत्त० ३७८ । प्रदेश निष्पन्न - द्रव्यप्रमाणे प्रथमो भेदः । ठाना० १६८ । प्रदेशार्थता - प्रकृष्टो देशः प्रदेशो निरवयवोऽशः, स चासावर्थश्चेति प्रदेशार्थः, तस्य भावः प्रदेशार्थता - गुणपर्याया धारा ( रता) अवयवलक्षणार्थं तेतियावतु | ठाणा० ११ । | आचा० ३२० । आव० सा। ठाणा० २२१ । प्रदोषसमयः - प्रातः समयः । जीवा० १९३ । प्रद्युम्न - कृष्णस्य अहमघन्यत्वे दृष्टान्तः । ठाणा० ४३३ । प्रद्धोतः- गणिकाभिरभयकुमादवश्वक: । सूत्र० ३२९, ३१३ । वरत्रक महर्षेरुपहसिता । बृ० प्र० ३०६ आ ।' प्रद्वेष:- वरम् । उत्त० २६५ । | प्रधान:- महान् प्रभूतो वा । आव० ५६६ । प्रधानक्षत्रिय - संकरक्षत्रिय:- द्विजेन क्षत्रिययोषितो जातः । आचा० ५ । प्रधानफरक - वरफलकम् । प्रश्न० ४७ । प्रधानाग्र - सचित्तादि । आचा० ३१८ । प्रधावसि - प्रकर्षेण प्रकृतो वा धावसि । बृ० प्र० १९१ आ । प्रपचते व्यक्तीकरोति । ठाम ० ५२० । प्रपञ्चयति स्रंसयति विस्तारयति । ठाणा० ५२० । प्रतिज्ञः - विनेयविशेषः । उत्त० ४७ । प्रज्ञा० ४२५ । प्रपतन्ती। ठाणा० ३२५ । प्रपुत्राटा - स्वपविबोधवत्यौषधिः । आचा० ६६ । प्रबध्नाति -प्रन्थिबन्धं करोति । भग० २०२ । प्रभवन - लोकपाल विशेषः । ठाणा० २०५ । रत्नसञ्चयकुटाद्वतीयनाम | ठाणा० २२४ । प्रभव जम्बूस्वामिशिष्यः परम्परागमवान् । आव० ५७ । नालोद्घाटित्यवस्वापिन्यादिभिरुपेतः चोरः । व्य० प्र० २४० | चतुर्दश पूर्वी । उत्त० २४० । arratr दृष्टान्तः । बृ० प्र० १६६ अ । प्रभवा-प्रभवति । उत्त० ३५२ । प्रभविष्णुः - सहिष्णुः | बृ० प्र० १७६ अ । प्रभा - आकारम् । ज० प्र० ३१६ । प्रभावक: प्रभावति - उदायनराज्ञी | प्रश्न० ८६ । प्रभाविच्छुरितंप्रभास - वृत्तवंताढ्ये देवः । ठाणा० ७१ । ( ७४८ ) (?) १-१-३ । | नंदी० १६७ । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभूतः ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० ३ [प्रस्खलन्ति प्रभूत:-महान् प्रधानो वा । आव० ५६६ । प्रवादः-किंवदन्ती । नंदी० ६१ । संलापः । आव० प्रभूताग्रं-द्वितीयं भावाप्रम् । आचा० ३१८ । २४१ । प्रभूतविढपितार्थ-लन्धार्थः । सूर्य० १९२ । प्रवाल-हरितम् । आचा. २८५ । प्रमई-चन्द्रः मध्येन तेषां गच्छतीत्येवंलक्षणम् । सम० १४। प्रवाहः-वंशः, आवलिका । ज०प्र० २५८ । सन्तानः। प्रमहंता-परिणतवया । नि० चू० प्र० २६७ अ आव० ६०१ । आचा० ३४१ । वंशः, आवलिका। प्रमाणं-निश्चितं निर्गमः । ठाणा. ४३५ । स्वाइगुले- ज० प्र० १६६ । नाष्टोत्तरशताङ्गलोच्छ्रयता। भग० ११६ । शास्त्रीयो० प्रविधतियंकशल्यं- । नंदी० १५५ । पक्रमे तृतीयः । आव० १६ । शास्त्रीयोपक्रमे तृतीयः। प्रवी(वि चारः-मैथुनविषयोपसेवनम् । तत्त्वा० ४-८ । ठाणा० ४ । स्वलक्षणम् । ठाणा० ४९३ । प्रवीचार:-परिचारः मैथुनोपसेवनम् । प्रशा० ५४६ । . प्रमाद-स्मृत्यनवस्थानं कुशलेष्वनादरः योगदुष्प्रणिधानं च। | प्रवृत्तिः-गतिः । विशे० २२० । तत्त्वा० ८-१। प्रवेश:-आगमनम् । ठाणा० २६४ । प्रमादनिष्ठ-प्रमादपरः । आव० ५८८ । प्रव्रज्या ।नंदी. ४४ प्रमादबहुल:-प्रमादबहुलो व्याप्तः । उत्त० ३३६ ।। प्रवाजनाचार्य-दीक्षादाताचार्यः । ठाणा. २६६ । प्रमेयरत्नमञ्जूषा-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तिनाम । ज० प्र० | प्रवाजयति-समस्तं लोचं करोतीति भावः । व्य०वि०६१ १,८८। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तिः । ज० प्र० ४२४ । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका । ज० प्र०५४६ । ६० प्र०१। प्रवाजयितुं सामायिकार्पणतः । व्य. द्वि० २१६ । प्रमोद-विनयप्रयोगः वन्दनस्तुतिवर्णवादवयावृत्त्यकरणा-| प्रशंसा-ज्ञानदर्शनगुणप्रकर्षोंदुभावनम् । तत्त्वा० ७-८। दिभिः सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपोऽधिकेषु साधुषु पारमो. प्रभ-अङ्गुष्ठादिप्रश्नविधा, विद्याविशेषश्च । प्रमः ।। भण्कृतपूभाजनितः सर्वेन्द्रियाभिव्यक्तो मनःप्रहर्षः । सशयापत्ती असंशयाचं विद्वत्सन्निधौ स्वविवक्षासूचक तत्त्वा० ७-६ । व्य० प्र० २१७ अ । वाक्यम् । आव० ६८ । प्रमोदविजय-गृहविशेषः । ज० प्र० २०९ । प्रभवाहन-कुलविशेषः । अनु० २७१। प्रम्लानम् । ओष०१३४।। प्रश्रव्याकरण-प्रभाः अङ्गुष्ठादिप्रभविद्या व्याक्रियन्ते अभिप्रयत्न-आदरः। ज० प्र० १९२ । धायन्तेऽस्मिन्निति । प्रभ० १। प्रयोगमतिसम्पत्-आत्मपुरुषक्षेत्रवस्तुविज्ञानात्मिका । | प्रश्रवण-मूत्रम् । ठाणा० ३४३ । प्रज्ञा० १०५ । उत्त० ३६ । प्रणि-नाट्यविशेषः । ज० ४१४ । प्रयोजन-करणम् । नंदी. १४४ । प्रस्तावः । विशे० प्रसङ्ग आसेवनारूपः । आव० ६६० । ८५६ । प्रसङ्गसाधन-न्यायविशेषः । विशे० ६६६ । प्रलंब-प्रकर्षण लंबते प्रलंबं मूलम् । बृ० प्र. १३५ अ। प्रसा । आचा. ३३० प्रसन्नचन्द्र-स्वल्पकालेन सप्तमनरकप्रायोग्यमसतावेदनीयमूलम् । ६० प्र० ३५ आ। कर्मबन्धकः । विशे० ८४५ । प्रलप्त-भाषणम् । राज. ५ । प्रसभं-प्रसभम् । ओघ० १२६ । प्रलयोभूताः-नष्टाः । उत्त० २६३ । प्रसरं समन्ततः । पिण्ड० १३६ । प्रलेप:-चित्रादौ । आव० ८८ । प्रसृता-जङ्घा । प्र० ७० (?)। प्रवचन-श्रुतम् । विशे० ४१६ । प्रसेनजित-श्रेणिकपिता । नंदी० १५० । प्रवहति । उत्त० ३५२ ।' प्रस्खलन्ति-गत्या प्रपतन्ती । ठाणा० ३२८ । ( ७४९ ) Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्ताव] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [प्रियङ्गुलतिका प्रस्ताव-अधिकारः-प्रयोजनम् । विशे० ८५६ । अवसरः । प्रावोषिका-सूत्रपौरुषीम् । ओघ० २२ । विशे० ६३७ । प्रादोशिकादि:-कालविशेषः । उत्त० ५८३ । प्रस्फोटका-चक्षुषा निरूप्य परावर्त्य । ठाणा० ३६२ । प्राप्तख्यातिः-लब्धशब्दः । प्रश्न० ७१ । प्रहतः । आचा० ४४ ।। प्राप्ति-देशान्तरविषया पर्यायान्तरविषया । प्रज्ञा प्रहरणं-अस्त्रम् । भग० ६४ । ३२८ । प्रहसनिका-हासः । प्रभ० १३६ । प्राबल्येन मुक्त:-उन्मुक्तः पृथग्भूतः । बाव० ५०८ । प्रहेगक-फलिकम् । ठाणा० १४८ । औप० ३९ । । प्रामृतं-पूर्वान्त रगतः श्रुतविशेषः । विशे० ५०६ । आव० प्रहेलिका-कुहेटका। वक्रोक्तिविशेषरूपा । बृ० १० ११३ | | ६८ । प्राभृतं-इष्टः श्रुतस्कंधः। व्य० दि० ७८ । आ। प्राभृतिका-दानार्थ कल्पिता वसतिरिह गृह्यते । आचा प्रहेलिकादानं-क्रीडादानम् । उत्त• ४७ । ३६९ । भिक्षा । आव. ४७८ । अन्हुत-प्रप्लुतम् । प्रश्न० १६ । प्रायश्चित्त-दानादित्रिप्रकारं प्रायश्चितम् । ६० प्र० ४प्रांशुत्व-महाकायः । सूत्र० २७७ । आ। प्राकारकः । आ० ८३५ । प्रायसः-उत्सन्नं । आव० २८५ । प्राकारकोष्ठकं-अट्टालकम् । उत्त० ३११ । प्रायिकत्वं-कादाचिकत्वम् । ठाणा० ५६ । प्राकृत-सामान्यः । भग०८। प्रायोगिक-कुसुम्भरागादिः, नोकर्मद्रव्यरागभेदः । आव प्राग्भार । आचा० २२६ । ३८७ । प्राग्विदेह -निषधपर्वते चतुर्थकूटम् । ठाणा० ७२ । प्रार्थयत्ति-निरूपयति । ओष० ७९ । प्राचुर्य-उत्पूरम् । प्रश्न० ४३ । प्रार्थित-लब्धुमाशंसितः । ज्ञाता० ३४ । प्राजनक:-तोत्रम् । उत्त० ६२ । तोत्रम् । उत्त० ५४८। प्रायिका-प्राजिका मातृमातुः पितृमातुर्वा माता । दश.. प्राजिता-सारथिः । भग० ३२२ । २१६ । .प्राज्ञाप्त-प्राज्ञान-तीर्थकरादाप्तं प्राज्ञाप्तं गणपरिति प्रार्वत्तत । नंदी. १५७ । गम्यते, अथवा प्राज्ञः गणधरैराप्तं प्राज्ञाप्तम् । नंदी० प्रावचन:-कालापेक्षया बह्वागमः पुरुषः । भग०६१ । प्रावरण । दश० २१२ । प्राञ्जलता । उत्त० ५९० । प्रावीण्यं-कुशलत्वम् । उत्त० १४३ । प्राञ्जला: । विशे० २०७ ।। प्रासाद-उच्छ्रतं गृहम् । आव० ८२६ । प्राण: । भग• ११२ । प्रासादबहुल-प्रासादीयः । सूर्य० २ । प्राणतकल्प-देवलोकः । आव० १७७ । प्राहारिकपुरुष-रक्षकपुरुषः । उत्त० ३५१ । प्राणापानपर्याप्ति-यया पुनरुच्छ्वासप्रायोग्यानि दलिका- पाहुणक-मादेशः । उत्त० २७५ । म्यादायोच्छ्वासरूपतया परिणमय्यालम्ब्य मुञ्चति सा। प्रियङ्कर-आधाकर्मरहितशुद्धाहारगवेषकः क्षपकः । पिण्ड वृ० प्र. १८४ आ। प्रातःसमय-प्रदोषसमयः । जीवा० १६३ । | प्रियङ्ग-पुष्पविशेषः । जीवा० १३६ । प्रातिभं-"प्रज्ञा नवनवोल्लेखशालिनी मता" सैव प्रातिभं, प्रियङ्गुरुचिका-गोचरविषयोपयुक्ततायां गुणसेनपत्नी । नत्वत्र श्रुतकेवलातिरिक्तं सामर्थ्ययोगजन्यं प्रातिभम् ।। पिण्ड० ७८ ।। ज्ञानम्, आ, (?) | प्रियङ्गुलतिका-गोचरविषयोपयुक्ततायां गुणचन्द्रपत्नी । प्रतिवेशिक । आचा० ३७१ । पिण्ड० ७८ । (७५०) Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियसारिका ] प्रियङ्गुसारिका - गोचर विषयोपयुक्ततायां गुणशेखरपत्नी । पिण्ड० ७८ । प्रियङ्गसुन्दरी - गोचर विषयोपयुक्ततायां गुणचूडपत्नी । पिण्ड० ७८ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० ३ प्रियदर्शना- आधासंवासगृष्टान्ते वसन्तपुरे अरिमर्द्दन । (?) प्रियमति - परग्रामदूतोत्वदोषविवरणे घनदत्तस्त्री । पिण्ड० १२७ । प्रीति- बाह्या प्रतिबन्धः । उत्त० ३६४ । श्रीतिदानं - यत्पुनः स्वनगरे भगवदागमन निवेदकाय नि. युक्ताय वा हर्षप्रकर्षाधिरूढमान संर्दीयते तत् । बृ० प्र० १९६ अ । आव० २३० । प्रमा प्रमेयर प्रेतभूमिः श्मशानम् । उत्त० ६६५ । प्रेत्य-मृत्वा पुनर्जन्म - परलोकः । जाव० २४२ । प्रेत्यसञ्ज्ञा - प्राक्तनी घटादिविज्ञानसंञ्ज्ञा । आव २४३ । प्रेरयति - विनयति अतिवाहयति च । प्रश्न० ६४ । प्रेहा प्रेक्य । नि० ० द्वि० २२ आ । प्रोथ:- घ्राणम् । ज० प्र० २३७ । प्रोषितः - विदेशप्राप्तः । नंदी० १६३ । प्रोषित पिता - श्रोतेन्द्रियनष्टः । भक्त । प्रौढी । वाचा० १०६ आगमोद्धारक - आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलित - अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोशस्य तृतीयो भागः समाप्तः " श्रेष्ठी देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्डे ग्रन्थाङ्क. ११६ [ प्रौढो " Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेठ देवचंद्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड गोपीपुरा बडेखांनो चकलो, सुरत. वेचाणमां नवीन पुस्तको किंमत ६५ ३-०० ४५ ३-०० ४-०० प्रेसमां ५+३ ५+३ प्रेसमां नाम सम्पादक १०१, ११५ अल्पपरिचितसैद्धांतिक शब्दकोष भाग १+२ गणि कंचनसागरजी १०३ दशवकालिक वृत्ति (सुमति साधुकृत ) गणिकंचनसागरजी १०४, ११२ उत्तराध्ययन-अवचूरि भाग १+२ गणिकंचनसागरजो १०५ पिंडनियुक्तिअवचूरि गणिकंचनसागरजी १०६ श्राद्धविधिकौमुदी आ. विजयविक्रमसूरिजो १०७, ११३ नंदीअवचूरि भाग १+२ आ० म० विजयविक्रम सूरिजो १.८ आवश्यकअवचूर्णि.. भाग १+२ पं० मानविजयजी १०९, ११० सुयगडांगर्द पिका भाग १+२ पं० बुद्धि मुनिजा १११ जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिचुणिकरण गणि अभयसागरजो ११४ ज्ञातासूत्र ५० भद्रकर विजयजी (आ. लब्धिसूरिमना) ११६ अल्पपरिचित०कोश. भाग ३ गणिकंचनसागरजी ११७ भगवती अवचूरि आ० म० विजयविक्रमसूरिजी ११८ आचारांग दीपिका ११९ जंबुवृत्ति गणिअभयसागरजी १२० योगशास्त्रभाषान्तर आ. हेमसागर सूरिजो १२१ ओपनियुक्तिअवचूरि गणिसूर्योदयसागरजो १२२ स्थानांग दीपिका मित्रानंद विजयजी (पं० भानू विजयना शिष्य ) १२३ आवश्यक अवचूर्णि भाग ३जो मुनि प्रमोदसागरजी १२४ चउपन्न महापुरिस चरियं भाषान्तर ___ आ० हेमसागर सूरिजी १२५ जोवाभिगम हारिभद्रीय पं० मानतुंग विजयजी ( आ.रामसूरिना शिष्य ) १२६ अल्पपरिचितःकोष भाग ४ गणि कंचन सागरजी Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શેઠ દેવચંદ લાલભાઈ જૈન વિદ્યાર્થી ભવન જે મકાનમાં શેઠ દેવચંદ લાલભાઈ જૈન પુસ્તકે ધાર ફન્ડ પ્રકાશિત પુસ્તકને સંગ્રહ છે તેમજ પુસ્તકાલય છે. 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