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श्री संवेगरंगशाला
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संक्रमण, (३) ममत्व का उच्छेद और (४) समाधि लाभ । वे चारों द्वार क्रमशः यथार्थ रूप कहेंगे। इसलिए प्रस्तुत अर्थ आराधना के विस्तार की प्रस्ताव करने में ये चार मुख्य होने से वे मूल द्वार हैं और इन चार द्वारों में योग्यता लिंग शिक्षा आदि नाम वाले प्रति द्वार हैं और उसके अनुक्रम से पन्द्रह, दस, नौ
और नौ प्रति द्वार हैं। उसका वर्णन फिर उस द्वार में विस्तृत विवरण प्रसंग पर करेंगे, केवल ये द्वार की अर्थ-व्यवस्था (वर्णन पद्धति) इस तरह कही है परिकर्म विधि द्वार में 'अर्ह द्वार आदि त्याग द्वार' तक जो वर्णन करेंगे, उसमें कहीं-कहीं पर गृहस्थ साधु दोनों सम्बन्धी, और कहीं पर दोनों का विभाग कर अलग-अलग रूप कहेंगे, उसके बाद मरण विभक्ति द्वार से प्रायः साधु के योग्य ही कहेंगे, क्योंकि श्रावक भी उसको विरति की भावना जागृत होने से उत्कृष्ट श्रद्धा वाले अन्त में निरवध प्रवज्या ग्रहण करके काल कर सकता है, इसलिए उसे अब आप सुनो। इस विषय में अब अधिक कहने से क्या प्रयोजन ?
अतिचार रूपी दोष से रहित निर्दोष आराधना को अंतकाल में अल्प पुण्य वाला नहीं प्राप्त कर सकता है। क्योंकि जैसे ज्ञान, दर्शन का सार शास्त्र में कहा हुआ उतम चारित्र है, और जैसे चारित्र का सार अनुत्तर मोक्ष कहा है जैसे मोक्ष का सार अव्याबाध सुख कहा है वैसे ही समग्र प्रवचन का भी सार आराधना कहा है, चिरकाल भो निरतिचार रूप में विचरण कर मृत्यु के समय में ज्ञान, दर्शन, चारित्र की विराधना करने वाले अनन्त संसारी होते हुए देखे हैं। क्योंकि बहुत आशातनाकारी और ज्ञान चारित्र के विराधक का पुनः धर्म प्राप्ति में उत्कृष्ट अन्तर अर्ध पुद्गल परावर्तन असंख्यकाल चक्र तक कहा है, और मरने के अन्त में माया रहित आराधना करने वाली मरूदेवा आदि मिथ्या दृष्टि भी महात्मा सिद्ध हुए भी दिखते हैं। वह इस प्रकार :
श्री मरूदेवा माता का दृष्टांत नाभि राजा के मरूदेवा नामक पत्नी थी, वह ऋषभदेव प्रभु ने दीक्षा लेने के शोक से संताप करती हुई हमेशा आंसु झरने के प्रवाह से मुख कमल को धोती हुई रो रही थी और कहती कि-मेरा पुत्र ऋषभ अकेला घूम रहा है, श्मशान, शून्यधर, अरण्य आदि भयंकर स्थानों में रहता है और अत्यन्त निर्धन के समात घर-घर पर भीख मांग रहा है और यह उसका पुत्र भरत घोड़े, हाथी, रथ वगैरह उत्कृष्ट सम्पत्ति वाला तथा भय से नम्रता युक्त सामन्तों के समूह वाला राज्य भोग रहा है। हा ! हा! हताश ! हत विधाता ! मेरे पुत्र को ऐसा दुःख देने से हे निघृण ! तुझे कौन-सी कीर्ति या कौन से फल की प्राप्ति