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॥ ॐ अहं नमः॥
॥ नमोऽस्तु श्री जैन प्रवचनाय ॥ श्री आत्मवल्लभ ललित पूर्णानन्द प्रकाश सूरि गुरू वरेभ्यो नमः
(२) द्वितीय द्वार परगण संक्रमण द्वार
दूसरे द्वार का मंगलाचरण
अपहं अरयं अरूप अजरं अमर अरागमध्य ओसं।
अभयऽमकम्ममऽजम्मं सम्मं पणमह महावीरं ॥ ४१६६ ॥ अर्थात् :–पाप से रहित, रज रहित, जरा-वृद्धावस्था से रहित, मृत्यु से रहित, राग से रहित, द्वेष से रहित, भय से रहित, कर्म से रहित एवम् जन्म से रहित श्रवण भगवान श्री महावीर देव को हे भव्यात्माओं! सम्यग् रूप से नमस्कार करो।
प्रथम द्वार में परिकर्म विधि का जो वर्णन किया है उसका गण संक्रमण करते आराधकों के लिए शुद्धि विधि करूँगा, इसमें प्रतिद्वार दस हैं। वे इस प्रकार हैं :-(१) दिशा द्वार, (२) क्षामणा द्वार, (३) अनुशास्ति द्वार, (४) परगण गवेषण द्वार, (५) सुस्थित (गुरू) गवेषणा, (६) उप-सम्पदा द्वार, (७) परीक्षा द्वार, (८) प्रतिलेखना द्वार, (६) पृच्छा द्वार, और (१०) प्रतिपृच्छा द्वार हैं। इनका वर्णन क्रमशः कहते हैं ।
पहला दिशा द्वार :-दिशा अर्थात् गच्छ, क्योंकि दिशा से यहाँ यति समूह के कहने योग्य कहता हूँ। इसलिए अब वह दिशा-गच्छ की अनुज्ञा को यथार्थ रूप कहता हूँ। इस ग्रन्थ के पूर्व द्वार में विस्तारपूर्वक कथनानुसार जिसने (संस्ताक) दीक्षा स्वीकार की है, वह श्रावक अथवा दीर्घकाल प्रवज्या को पालन करने वाला कोई साधु अथवा निर्मल गुण समूह से पूज्य सूरिपद को प्राप्त करने वाले साधु-सूरि (आचार्य) ही निरतिचार आराधना विधि को कर सकते हैं। उसमें जो आगम विधिपूर्वक दीर्घकाल सूरिपद का अनुपालन करके, समस्त सूत्र अर्थ का अध्ययन द्वारा शिष्यों को पालन-पोषण करके,