Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 548
________________ श्री संवेगरंगशाला ५२५ वैर का बदला लेना आदि कारण से कषाय द्वारा कलुषित हआ यदि तूने मनुष्यों का भी अपहरण किया हो अथवा बन्धन, वध, छेदन, भेदन, धन हरण या मरण आदि द्वारा कठोर दुःख दिया हो उसका भी सम्यक् क्षमा याचना कर। क्योंकि यह तेरा क्षमापना का समय है। तथा देवत्व में ही महद्धिक जीवन से अन्य देवों को जबरदस्ती आज्ञा पालन करवाई हो, वाहन रूप उपयोग किया हो, ताड़ना या पराभव किया इत्यादि चित्त रूपी पर्वत को चूर्ण करने में एक वज्र तुल्य यदि महान् दुःख दिया हो, उसे भी सम्यक् क्षमापना कर । क्योंकि यह तेरा खिमत खामणा का समय है। इस तरह नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों के जीव को खामना करके अब तू पाँच महाव्रतों में लगे हुये भी प्रत्येक अतिचारों का त्याग करके जगत के सूक्ष्म या बादर सर्व जीवों का इस जन्म में या पर जन्मों में अल्प भी दुःख दिया था, उसकी भी निन्दा कर। जैसे कि : अज्ञान से अन्धा बना हुआ तूने प्राणियों को पीड़ा-हिंसा की हो और प्रद्वेष या हास्यादि से यदि असत्य वचन कहा हो, उसकी भी निन्दा कर । पराया, नहीं दी हुई वस्तु को यदि किसी प्रकार लोभादि के कारण ग्रहण करना, नाश करना इत्यादि बढ़ते हुए पाप रज को भी गर्दा द्वारा हे भद्र ! उसे रोक दो। मनुष्य, तिर्यंच और देव सम्बन्धी भी मन, वचन, काया द्वारा मैथुन सेवन से यदि किसी प्रकार का पाप बन्धन हुआ हो, उसकी भी त्रिविधत्रिविध निन्दा कर। सचित्त, अचित्त आदि पदार्थों में परिग्रह-मूर्छा करते यदि तूने पाप बन्धन किया हो, उसका भी हे क्षपक मुनि ! त्रिविध-त्रिविध निन्दा कर । तथा रस गृद्धि से अथवा कारणवश या अज्ञानता से भी कभी कुछ भी जो रात्री में खाया हो, उन सर्व की भी अवश्य निन्दा कर । भूत, भविष्य या वर्तमान काल में जीवों के साथ में जिस प्रकार वैर किया हो, उन सर्व की भी निन्दा कर । तीनों काल में शुभाशुभ पदार्थों में यदि मन, वचन, काया को अकुशलता रूप प्रवृत्ति की हो, उसकी भी निन्दा कर। द्रव्य, क्षेत्र, काल अथवा भाव के अनुसार शक्य होने पर भी यदि करणीय नहीं किया और अकरणीय को किया, उसकी भी निन्दा कर, हे क्षपक मुनि ! लोक में मिथ्यामत प्रवृत्ति से, मिथ्यात्व के शास्त्रों के उपदेश देने से, मोक्ष मार्ग को छुपाने और उन्मार्ग की प्रेरणा देने से इस तरह तू अपना और पर को धर्म समूह के बन्धन करने में यदि निमित्त बना हो, तो उसका भी त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर । अनादि अनन्त इस संसार चक्र में कर्म के वश होकर परिभ्रमण करते तूने प्रति जन्म में जो-जो पापारम्भ में तल्लीन रहकर विविध शरीर को और अत्यन्त रागी कुटुम्बों को भी ग्रहण

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