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श्री संवेगरंगशाला
नहीं होता हो ? इस आम्र वृक्ष के अनुमान से ही बुद्धिमान को अनित्यता से व्याप्त स्वशरीरादि सर्व वस्तुओं के भी राग का स्थान क्यों होता है ? इस प्रकार विविध तथा चिन्तन कर महासत्त्वशाली वह राजा राज्य, अन्तःपुर और नगर को छोड़कर प्रत्येक बुद्ध चारित्र वाला साधु बना। यह कथा सुनकर, हे सुन्दर मुनि ! तू एकान्त में गीतार्थ साधु के साथ में सर्व पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन मनन कर । इस प्रकार जिस कारण से संसार जन्य समस्त वस्तुओं की अति अनित्यता है उस कारण से ही उन प्राणियों का अल्पमात्र भी शरण नहीं है । जैसे कि
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२. अशरण भावना :- सर्व जीव समूह का रक्षण करने में वत्सल, महान् और करूणा रस से श्रेष्ठ एक ही श्री जैन वचन हैं । इनको छोड़कर जन्म, जरा, मरण उद्वेग, शोक, संताप और व्याधियों से विषम और भयंकर इस संसार अटवी में प्राणियों का कोई शरण नहीं है । तथा केवल एक श्री जिनवचन में रहे आत्मा के बिना पुरुष अथवा देवों में किसी दिव्य शक्ति द्वारा बख्तर सहित मस्त हाथी, चपल घोड़े, रथ और योद्धा के समूह की रचनाओं द्वारा, बुद्धि द्वारा, नीति बल द्वारा, अथवा स्पष्ट पुरुषार्थ बल द्वारा भी पूर्व में मृत्यु को जीता नहीं है । माता, पिता, पुत्र, स्त्री, मित्र और अत्यन्त स्नेही स्वजन तथा धन के ढेरों ने भी रोग से पीड़ित पुरुष को अल्प भी शरणभूत नहीं होता है । एक ही श्री जिनवचन बिना अन्य मंगलों से मन्त्र पूर्वक स्नानादि से, मंत्रित चूर्णों से, मन्त्रों से और वैद्यों की विविध औषधियों से रक्षण नहीं होता है । इस प्रकार विचार करते इस संसार में कोई भी वस्तु शरण रूप नहीं है । उसी कारण से ही दुःसह नेत्र पीड़ा से व्याकुलित शरीर वाला, प्रथम दिव्य यौवन को प्राप्त कर बुद्धिमान कौशाम्बी के धनिक पुत्र सर्व सम्बन्धों का त्याग करके संयम उद्योग को स्वीकार किया था । उसकी कथा इस प्रकार :
सेठ पुत्र की कथा :- राजगृही नगरी के स्वामी श्रेणिक राजा घूमने निकले । वहाँ मंडिकुक्षि नामक उद्यान में वृक्ष नीचे बैठे हुए, रतिरहित कामदेव हो, ऐसे शोभायमान तथा शरद ऋतु के चन्द्र की कला समान कोमल शरीर वाले एक उत्तम मुनि को देखा । उसे देखकर रूप आदि गुणों की बहुत प्रशंसा करके तीन प्रदक्षिणा देकर आदर पूर्वक नमस्कार करके उनके नजदीक में बैठा और दोनों हाथ से अंजलि जोड़कर विस्मय पूर्वक राजा बोला कि हे भगवन्त योवनावस्था के अन्दर साधुधर्म में क्यों रहे हो ? साधु ने कहा किहे राजन् ! मेरा कोई भी शरण नहीं था इसलिए दुःखों को क्षय करने वाली इस दीक्षा को मैंने स्वीकार की है । फिर हाय से उछलते दांत की उज्जवल कान्ति से प्रथम उदय होते सूर्य समान लाल कान्ति वाले होठ को उज्जवल करते