Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 643
________________ ६२० श्री संवेगरंगशाला । भव्य जीवों के आज भी शरीर के रोमांच को अनुभव होता है । पुनः निपुण श्रेष्ठ व्याकरण आदि अनेक शास्त्रों के रचने वाले, जग प्रसिद्ध बुद्धि सागर सूरि नामक दूसरे शिष्य हुए उनके चरण कमल रूपी गोद के संसर्ग से परम प्रभाव प्राप्त करने वाले श्री जिनचन्द्र सूरीश्वर जी उनके प्रथम शिष्य हुए और पूर्णिमा के चन्द्र के समान भव्यात्य रूपी कुमुद के वन को शीतलता करने वाले, जगत में महा कीर्ति को प्राप्त करने वाले श्री अभयदेव सूरीश्वर जी दूसरे शिष्य हुए राजा जैसे शत्रु को नाश करता है वैसे उन्होंने कुबोध रूपी महा शत्रु को नाश करने वाला श्री श्रुतधर्म रूपी राजा के नौव अंगों की वृत्ति को करने द्वारा उसकी दृढ़ता की है । वे श्री अभयदेव सूरि की प्रार्थना वश होकर श्री जिनचन्द्र सूरी जी ने माली के समान मूल सूत्र रूपी बाग में से वचन रूप उत्तम पुष्पों को वाणी रूप एकत्रित करके अपनी बुद्धि रूपी गुण-धागे से गूंथकर विविध विषय रूपी सुगन्ध के समूह वाली यह आराधना नाम की माला रची हुई है । श्रमणो रूपी भ्रमरों के हृदय को हरण करने वाली रक्षमाला को विलासी मनुष्यों के समान भव्य प्राणी अपने सुख के लिए सर्व आदरपूर्वक उपयोग करे । 1 ग्रन्थ रचना में सहायक और प्रेरक :- उत्तम गुणी मुनिवरों के चरणों नमस्कार करने से जिसका ललाट पवित्र है उस सुप्रसिद्ध सेठ गोवर्धन के प्रसिद्धि पुत्र सा० जज्जनाग के नामक पुत्र हुए हैं, इन्होंने अति प्रशस्त तीर्थ यात्रायें करने से प्रसिद्ध अप्रतिम गुणों द्वारा कुमुद सदृश निर्मल महान् कीर्ति को प्राप्त की है, तथा श्री जिन विम्बों की प्रतिष्ठापन, आगम लिखवाना इत्यादि धर्म कार्यों से अन्य का आत्मोत्कर्ष करने वाला और इर्ष्या रखने वालों के चित्त को चमत्कार कराने वाला जिनागम से संस्कार प्राप्त कर बुद्धिमान बने हैं । उस श्री सिद्धवीर नामक सेठ की सहायता से और अत्यन्त भावनापूर्वक इस आराधना माला की रचना की है । ग्रन्थकार का आशीर्वाद :- इस रचना द्वारा हमें जो किंचित् भी पुण्य उपार्जन किया हो, उससे भव्य जीव श्री जिनाज्ञा के पालन रूप श्रेष्ठ आराधना को प्राप्त करे । ग्रन्थ रचना का स्थान और समयादि : - 'आराधना' ऐसा प्रगट स्पष्ट अर्थ वाली यह रचना छत्रावली नगरी में रोठ जेज्जय के पुत्र सेठ पासनाग की वसति में विक्रम राजा के समय से ग्यारह सौ के ऊपर पच्चीस वर्ष अर्थात् ११२५ विक्रम सम्वत् में यह ग्रन्थ पूर्णता को प्राप्त किया, एवं विनय

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