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श्री संवेगरंगशाला
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आनन्द महत्तम से विवाह किया। उसकी पतिव्रता को देखकर लोग सीतादि महासतियों को याद करते हैं। इस मन्त्री आनन्द महत्तम को विजयमती से पृथ्वी में प्रसिद्ध और राजमान्य शरणित्र ठाकुर नामक पुत्र हुआ। वह रोहणाचल की खान के मणि समान तेजस्वी और अपने गोत्रों का अलंकार स्वरूप और हांसी रहित था। उसे धाउका नामक बहन थी। वह शान्त होने के साथ सतीव्रत में प्रेम रखने वाली और सर्व को सुन्दर उत्तर देने वाली तथा चतुर थी। राजीनी ने भी श्रेष्ठ निष्कलंक और स्वजन प्रिय पुत्र को जन्म दिया, उसका नाम 'पूर्ण प्रसाद' रखा । वह अपने भाई शरणिन को अति प्रिय था, तथा वह स्वयं पूज्यों के प्रति नम्र था और इससे राम, लक्ष्मण के समान बढ़ती मैत्रीभाव-हितचिंता वाले थे। राजीनी को कोमल भाषी और हंसनी जैसे सदा जलाश्य में रागी समान वह देव स्थान में प्रेम रखने वाली पूर्ण देवी नामक पुत्री को भी जन्म दिया।
फिर किसी एक दिन उस आनन्द महत्तम ने गुरू महाराज के पास में मुमुक्षुओं को मोक्ष प्राप्त कराने वाला उत्तम श्रुत और चारित्र रूप धर्म को सम्यक् रूप में सुना। उसमें भी श्री जैनेश्वर ने ज्ञान रहित क्रिया करने से जीवन की सफलता नहीं मानी है, इसलिए सर्व दोनों में वह ज्ञान दान को प्रथम कहा है और भी कहा है कि जो उत्तम पुस्तक शास्त्रादि की रक्षा करता है अथवा दूसरों को लिखाकर ज्ञान दान करता है, वह अवश्यमेव मोह अंधकार का नाश करके केवल ज्ञान द्वारा जगत को सम्बग् जानकर जन्म-मरणादि संसार से मुक्त हो जाता है। जो यहाँ पर जैन वाणी-आगम साहित्य को लिखाता है वह मनुष्य दुर्गति, अन्धा, निर्बुद्धि, गूंगा और जड़ या शून्य मन वाला नहीं होता है । इसे सुनकर महत्तम आनन्द ने अपनी पत्नी राजीनी के पुण्य के लिए मनोहर यह संवेगरंगशाला को ताड़पत्र के ऊपर लिखवाई है। जहाँ तक सिद्धि रूपी राजमहल, अरिहंत रूपी राजा, अनुपम ज्ञान लक्ष्मी रूपी उनकी पत्नी, सिद्धान्त के वचन रूपी न्याय, श्री-शोभा अथवा संपत्ति तथा उसके त्याग रूप साधु धर्म और उसके साधन रूप प्राप्त करने वाले गृहस्थ धर्म दुःख को प्राप्त करने वाला निर्गुणी-पापी के लिए धम्मा, वंशा आदि सात कैदखाना (नरक) और गुणीजन के लिए स्वर्ग तथा मोक्ष धाम, अतिरिक्त नियोग-नौकर और साम्राज्य ये भाव इस जगत के हैं, वहाँ तक यह ग्रन्थ प्रभाव वाला बने।
॥ इति शुभम् ॥