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श्री संवेगरंगशाला महा पारिष्ठापना की विधि :-साधु जब मास कल्प अथवा वर्षा कल्प (चौमासा) रहे, वहाँ गीतार्थ सर्व प्रथम महा स्थंडिल अर्थात् मृतक परठने की निरवद्य भूमि की खोज करे। फिर किस दिशा में परठना ? उसके लिए विधि कहते हैं-(१) नैऋत्य, (२) दक्षिण, (३) पश्चिम, (४) अग्नेयी, (५) वायव्य, (६) पूर्व, (७) उत्तर और (८) ऐशान। इस क्रमानुसार प्रथम दिशा में परठने से अन्न पानी सुलभ होता है, दूसरे दिशा में दुर्लभ होता है, तीसरे में उपधि नहीं मिलती, चौथे में स्वाध्याय शुद्ध नहीं होता है, पांचवें में कलह उत्पन्न होता है, छठे में उनका गच्छ भेद होता है, सातवें में बीमारी और आठवें में मृत्यु होती है। उसमें भी यदि प्रथम दिशा में व्याघात किसी प्रकार का विघ्न हो तो दूसरे नम्बर वाली दिशा आदि में क्रमशः वह गुणकारी होती है जैसे कि नैऋत्य प्रथम श्रेष्ठ कही है वहाँ यदि विघ्न हो तो दूसरी दक्षिण दिशा प्रथम दिशा के समान गुण करती है। दूसरी दिशा में भी यदि विघ्न आता हो तीसरी पश्चिम प्रथम दिशा के समान गुण करती है। इससे सर्व दिशाओं में मृतक को परठने की शुद्ध भूमि को खोज करना। जिस समय मुनि काल धर्म को प्राप्त करे उसी समय अंगूठे आदि अंगुलियों को बांध लेना और श्रत के मर्म को जानने वाला धीर वृषभ समर्थ साधु अंग छेदन तथा जागृत रहना । और यदि कोई व्यंतर आदि देव उस शरीर में आश्रय करे और इससे मृतक उठे, तो धीर साधु शास्त्र विधि से उसे शान्त करना। और यदि डेढ़ भोग वाले नक्षत्र में काल धम प्राप्त करे तो दर्भ (घास) के दो पुतले और यदि समभोग वाले नक्षत्र में काल धर्म प्राप्त करे तो एक पुतला करना, यदि आधे भोग वाले में काल करे तो नहीं करना। उसमें तीन उत्तरा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा ये छह नक्षत्र पैंतालीस मुहूर्त के डेढ़ भोग वाले हैं। शभिषक्, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा ये छह नक्षत्र आधे भोग वाले हैं और शेष नक्षत्र समभोग वाले हैं। गाँव जिस दिशा में हो उस दिशा में गाँव की ओर मृतक का मस्तक रहे इस तरह उसे ले जाना चाहिए, और पीछे नहीं देखते उसे स्थंडिल परठने की भूमि ओर ले जाना। इससे किसी समय में यक्षाविष्ट होकर यदि मृतक नाचे तो भी गांव में नहीं जाना चाहिये।
सूत्र अर्थ और तदुभय का जानकार गीतार्थ एक साधु पानी और कृशतृण लेकर पहले स्थंडिल भूमि जाए और वहाँ सर्वत्र उस तृणों को समान रूप से बिछा दे। यदि उस तृण के ऊपर मृतक का मस्तक, मध्य में कटिभाग और नीचे पैर का भाग में विषम-ऊंचा, नीचा हो, तो अनुक्रम से आचार्य, वृषभ साधु और सामान्य साधु का मरण अथवा बीमार होगी । जहाँ तृण न हो वहाँ चूर्ण-वास से अथवा केसर के पानी की अखण्ड धारा से स्थंडिल भूमि के ऊपर