Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 637
________________ ६१४ श्री संवेगरंगशाला करना, निमित्त बिना ही गात्र भंग बताने से विकार को बतलाती, बहुत हावभाव आश्चर्य आदि सुन्दर विविध नखरे करने में कुशल और हे नाथ ! प्रसन्न हो! हमारा रक्षण करो! आप ही हमारी गति और मति हो। इस प्रकार दो हाथ से अंजलि करके बोलती वे देवांगनाएँ अनुकूल उपसर्ग करने लगी, फिर भी वह महासत्त्वशाली महसेन मुनि ध्यान से चलित नहीं हुए। इस प्रकार अपने प्रतिकूल और अनुकूल तथा महा उपसर्गों को भी निष्फल जानकर निराश होकर वह देव इस प्रकार चिन्तन करने लगा कि-धिक् ! धिक् ! महामहिमा वाले इन्द्र को सस्य बात की अश्रद्धा करके पापी मैंने इस साधु की आशातना की। ऐसे गुण समूह रूपी रत्नों के भण्डार मुनि को पीड़ा करने से पाप का जो बंधन हआ, अब मेरा किससे रक्षण होगा ? बुद्धि की विपरीतता से यह जीव स्वयं कोई ऐसा कार्य को करता है कि जिससे अन्दर के शल्य से पीड़ित हो, वैसे वह दुःखपूर्वक जीता है । इस प्रकार वह देव चिरकाल दुःखी होते श्रेष्ठ भक्ति से महसेन मुनि की स्तवना कर और आदरपूर्वक क्षमा याचना कर जैसे आया था वैसे वापस चला गया। मान अपमान में और सुख दुःख में समचित्त वाले उत्तरोत्तर सविशेष बढ़ते विशुद्ध परिणाम वाले वह महसेन मुनि भी अत्यन्त समाधि पूर्वक काल करके सर्वार्थ सिद्ध विमान में तैतीस सागरोपम की आयुष्य वाला देदीप्यमान देव हुआ। फिर उसका काल धर्म हुआ जानकर, उस समय के उचित कर्तव्य को जानकर और संसार स्वरूप के ज्ञाता स्थविरों ने उसके शरीर को आगम विधि के अनुसार त्रस, बीज, प्राणी, और वनस्पति के अंकुर आदि से रहित पूर्व में शोधन की हुई शुद्ध भूमि में सम्यक प्रकार से परठन क्रिया की। उसके बाद उस मुनि के पात्र आदि धर्मोपकरण को लेकर अत्वरित, अचपल मध्यगति से चलते श्रा गौतम स्वामी के पास पहुंचे और तीन प्रदक्षिणा देकर उनको वन्दन करके उनको उपकरणों को सौंप कर नमे सिर वाले इस प्रकार से कहने लगे कि हे भगवन्त ! क्षमापूर्वक सहन करने वाले, दुर्जय काम के विजेता, सर्व संग से रहित, सावध-पाप के सम्पूर्ण त्यागी, स्वभाव से ही सरल, स्वभाव से ही उत्तम चारित्र के पालक, प्रकृति से ही विनीत और प्रकृति से ही महासात्त्विक वह आपका शिष्य महात्मा महसेन दुःसह परीषहों को सम्यक् सहकर पंच नमस्कार का स्मरण करते और आराधना के असाधारण आराधना कर स्वर्ग को प्राप्त किया है। फिर मालती के माला समान उज्जवल दांत की कान्ति से प्रकाश करते हो। इस तरह श्री गौत्तम स्वामी ने मधुर वाणी से स्थविरों को कहा कि हे महानुभाव ! तुमने उसकी निर्यामण

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