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श्री संवेगरंगशाला
कर और निमेष मात्र में महसेन मुनि के पास पहुँचा । फिर प्रलयकाल के समान भयंकर बिजली के समूह वाला, देखते ही दुःख हो और अतसी के पुष्प कान्ति वाला, काले बादलों के समूह उसने सर्व दिशाओं में प्रगट किया । फिर उसी क्षण में मूसलाधारा समान स्थूल और गाढ़ता से अन्धकार समान भयंकर धाराओं से चारों तरफ वर्षा को करने लगा, फिर समग्र दिशाओं को प्रचण्ड जल समूह से भरा हुआ दिखाकर निर्यामक मुनि के शरीर में प्रवेश करके महसेन राजर्षि को वह कहने लगा कि - श्री मुनि ! क्या तू नहीं देखता कि यह चारों ओर फैलते पानी से आकाश के अन्तिम भाग तक पहुँचा हुआ शिखर वाले बडे-बड़े पर्वत भी डूब रहे हैं और जल समूह मूल से उखाड़ते विस्तृत sit आदि के समूह से पृथ्वी मण्डल को भी ढक देते ये वृक्ष के समूह भी नावों के समूह के समान तर रहे हैं, अथवा क्या तू सम्यक् देखता नहीं है कि आकाश में फैलते जल के समूह से ढके हुए तारा मण्डल भी स्पष्ट दिखते नहीं
? इस प्रकार इस जल के महा प्रवाह के वेग से खिंच जाते तेरा और मेरा भी जब तक यहाँ मरण न हो, वहाँ तक यहाँ से चला जाना योग्य है । हे मुनि वृषभ ! मरने को इच्छा छोड़कर प्रयत्नपूर्वक निश्चल आत्मा का रक्षण करना चाहिए, क्योंकि ओध नियुक्ति सूत्र गाथा ३७वों में कहा है कि - मुनि सर्वत्र संयम की रक्षा करे, संयम से भी आत्मा की रक्षा करते मृत्यु से बचे, पुनः प्रायश्चित करे, परन्तु मरकर अविरति न बने। इस तरह यहाँ रहे तेरे मेरे जैसे मुनियों का विनाश होने के महान् पाप के कारण निश्चय थोड़े में भी मोक्ष नहीं होगा, क्योंकि हे भद्र ! हम तेरे लिए यहाँ आकर रहे हैं, अन्यथा जीवन की इच्छा वाले कोई भी क्या इस पानी में रहे ?
इस प्रकार देव से अधिष्ठित उस साधु के वचन सुनकर अल्प भी चलित नहीं हुआ और स्थिर चित्त वाले महसेन राजर्षि निपुण बुद्धि से विचार करने लगे कि क्या यह वर्षा का समय है ? अथवा यह साधु महासात्त्विक होने पर भी दीन मन से ऐसा अत्यन्त अनुचित कैसे बोले ? मैं मानता हूँ कि कोई असुरादि मेरे भाव की परीक्षार्थ मुझे उपसर्ग करने के लिये ऐसा अत्यन्त अयोग्य किया है । और यदि यह स्वाभाविक सत्य ही होता तो जिसे तीन काल के सर्व ज्ञेय को जानते हैं वे श्री गौतम स्वामी मुझे और स्थविरों को इस विषय में आज्ञा ही नहीं देते ! इसलिए यद्यपि निश्चल यह देव आदि का कोई भी दुष्ट प्रयत्न हो सकता है, फिर भी हे हृदय ! प्रस्तुत कार्य में निश्चल हो जा ! यदि लोक में निधन आदि की प्राप्ति में विघ्न होते हैं तो लोकोत्तर मोक्ष के साधक अनशन में विघ्न कैसे नहीं आते हैं ? इस प्रकार पूर्व कवच द्वार में