Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 633
________________ ६१० श्री संवेगरंगशाला छोड़कर, सर्व उपादेय वस्तु के पक्ष में लीन बने स्वयं कुछ काल निःसंगता से एकाकी रूप विचरण किया। फिर मांस रुधिर आदि अपनी शरीर की धातुओं को अति घटाया, और शरीर की निर्बलता को देखकर विचार करने लगा कि आज दिन तक मैंने अपने धर्माचार्य कथित विस्तृत आराधना के अनुसार समस्त धर्म कार्यों में उद्यम किया है, भव्य जीवों को प्रयत्न पूर्वक मोक्ष मार्ग में जोड़ना, सूत्र, अर्थ के चिन्तन से आत्मा को भी सम्यक् वासित किया और अन्य प्रवृत्ति छोड़कर शक्ति को छुपाये विना इतने काल, बाल, ग्याल आदि साधु के कार्यों में प्रवृत्ति ( वैयावच्च) की । अब आँखों का तेज क्षीण हो गया है, वचन बोलने में भी असमर्थ और शरीर की अत्यन्त कमजोर होने से चलने में भी अशक्त हो गया हूँ अतः मुझे सुकृत्य की आराधना बिना का इस निष्फल जीवन से क्या लाभ ? क्योंकि मुख्यता धर्म की प्राप्ति हो उस शुभ जीवन का ज्ञानियों ने प्रशंसा की है । अतः धर्माचार्य को पूछकर और निर्यामणा की विधि के जानकार स्थविरों को धर्म सहायक बनाकर पूर्व में कहे अनुसार विधिपूर्वक, जीव विराधना रहित प्रदेश में शिला तल को प्रमार्जन कर भक्त परिज्ञाआहार त्याग द्वारा शरीर का त्याग करना चाहिए। ऐसा विचार कर वह महात्मा धीरे-धीरे चलते श्री गणधर भगवन्त के पास जाकर उनको नमस्कार करके कहने लगा कि - हे भगवन्त ! मैंने जब तक हाड़ चमड़ी शेष रही तब तक यथाशक्ति छट्ठ, अट्ठम आदि दुष्कर तप द्वारा आत्मा की संलेखना की । अब मैं पुण्य कार्यों में अल्प मात्र भी शक्तिमान नहीं है, इसलिए हे भगवन्त ! अब आप की आज्ञानुसार गीतार्थ स्थविरों की निश्रा में एकान्त प्रदेश में अनशन करने की इच्छा है, क्योंकि अब मेरी केवल इतनी अभिलाषा है । भगवान श्री गौतम स्वामी ने निर्मल केवल ज्ञान रूपी नेत्र द्वारा उसकी अनशन की साधना को भावि में निर्विघ्न जानकर कहा कि - ' हे महायश ! ऐसा करो और शीघ्र निस्तार पारक संसार से पार होने वाले बनो।' इस प्रकार महसेन मुनि को आज्ञा दी और स्थविरों को इस प्रकार कहा कि - हे महानुभावों ! यह अनशन करने में दृढ़ उद्यमशील हुए को असहायक को सहायता देने में तत्पर तुम सहायता करो। एकाग्र मन से समयोचित सर्व कार्यों को कर पास में रहकर आदर पूर्वक उसकी निर्यामण करो ! फिर हर्ष से पूर्ण प्रगट हुए महान् रोमांच वाले वे सभी अपनी भक्ति से अत्यन्त कृतार्थ मानते श्री इन्द्रभूति की आज्ञा को मस्तक पर चढ़ाकर सम्यक् स्वीकार कर प्रस्तुत कार्य के लिए महसेन राजर्षि के पास आए, फिर निर्यामक से घिरे हुए वह महसेन मुनि जैसे भद्र जाति अति स्थिर उत्तम दांत वाले बड़ा अन्य हाथियों

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