Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 634
________________ श्री संवेगरंगशाला ६११ से घिरा हुआ हाथी शोभता है, वैसे निर्यामक पक्ष से भद्रिक जातिवन्त अति स्थिर और इन्द्रियों को वश करने वाले निर्यामकों से शोभित धीरे-धीरे श्री गौतम प्रभु के चरण कमलों को नमस्कार कर पूर्व में पडिलेहन की हुई बीज त्रस जीवों से रहित शिला ऊपर बैठे और वहाँ पूर्व में कही विधि पूर्वक शेष कर्तव्य को करके महा पराक्रमी उन्होंने चार प्रकार के सर्व आहार का त्याग किया। स्थविर भी उनके आगे संवेग जनक प्रशममय महा अर्थ वाले शास्त्रों को सुनाने लगे। फिर अत्यन्त स्वस्थ मन, वचन, काया के योग वाले धर्म ध्यान के ध्याता, सुख दुःख अथवा जीवन मरणादि में समचित्त वाले, राधावेध के लिए सम्यक् तत्पर बने मनुष्य के समान अत्यन्त अप्रमत्त और आराधना करने में प्रयत्न पूर्वक स्थिर लक्ष्य वाले बने उस महसेन मुनि की अत्यन्त दृढ़ता को अवधि ज्ञान के जानकर, अत्यन्त प्रसन्न बने सौधर्म सभा में रहे इन्द्र ने अपने देवों को कहा कि-हे देवों ! अपनी स्थिरता से मेरू पर्वत को भी जीतने वाले समाधि में रहे और निश्चल चित्त वाले इस साधु को देखो देखो ! मैं मानता हूँ कि प्रलय काल में प्रगट हुआ पवन के अति आवेग से उछलते जल के समूह वाले समुद्र भी मर्यादा को छोड़ देता है परन्तु यह मुनि अपनी प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ता है। नित्य स्थिर रूप वाली नित्य की वस्तुओं को किसी निमित्त को प्राप्त कर अपनी विशिष्ट अवस्था को छोड़े किन्तु यह साधु स्थिरता को नहीं छोड़ता है। जिसने लीला मात्र में कंकर मानकर सर्वकुल पर्वत को हथेली में उठा सकते हैं, और निमेषमात्र के समय में समुद्र का भी शोषण कर सकते हैं, उस अतुल बल से शोभित देव भी मैं मानता हूँ कि निश्चल दीर्घकाल में भी इस साधु के मन को अल्प भी चलित करने में समर्थ नहीं हो सकता है। यह एक आश्चर्य है कि इस जगत में ऐसा भी कोई महापराक्रम वाला आत्मा जन्म लेता है कि जिसके प्रभाव से तिरस्कृत तीनों लोक में भी असारभूत माना जाता है। इस प्रकार बोलते इन्द्र महाराज के वचन को सत्य नहीं मानते एक मिथ्यात्व देव रोष पूर्वक विचार करने लगा कि-बच्चे के समान विचार बिना सत्ताधीश भी जैसे तैसे बोलता है, अल्पमात्र भी वस्तु की वास्तविकता का विचार नहीं करते हैं। यदि ऐसा न हो तो महाबल से युक्त देव भी इस मुनि को क्षोभ कराने में समर्थ नहीं है ? फिर भी निःशंकता इन्द्र क्यों बोलता है ? अथवा इस विकल्प से क्या प्रयोजन ? स्वयमेव जाकर मैं उस मुनि को ध्यान से चलित करता हूँ और इन्द्र के वचन को मिथ्या करता हूँ। ऐसा सोचकर शीघ्र ही मन और पवन को जीते, इस तरह शीघ्र गति से वह वहां से निकल

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