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श्री संवेगरंगशाला
६०७ मस्तक के भाग में 'क' और नीचे पैर के भाग में 'त' अक्षर लिखे। मृतक किसी समय उठकर यदि भागे तो उसे गाँव की तरफ जाने से रोके, मृतक का मस्तक गाँव की दिशा तरफ रखना चाहिये। और अपने को उपद्रव नहीं करे इसलिए साधुओं द्वारा मृतक की प्रदक्षिणा हो इस तरह वापिस नहीं आना। साधु की मृतक निशानी के लिए रजो हरण, चोल पट्टक, मुहपत्ति मृतक के पास में रखे । निशानी नहीं रखने से दोष उत्पन्न होता है जैसे कि क्षपक मुनि देव हुआ हो फिर ज्ञान से मृतक को देखे तब चिन्ह के अभाव में पूर्व में स्वयं को मिथ्यात्व मानकर वह मिथ्यात्व को प्राप्त करता है अथवा किसी लोगों ने इसका खून किया है ऐसा मानकर राजा गाँव के लोगों का वध बंधन करता है । इस तरह अन्य भी अनेक दोष श्री आवश्यक नियुक्ति आदि अन्य ग्रन्थ में कहा है। वहाँ से जान ले। जो साधु जहाँ खड़े हों वहाँ से प्रदक्षिणा न हो इस तरह वापिस आए और गुरू महाराज के पास आकर परठने में अविधि हुई हो उसका काउस्सग्ग करे, परन्तु वहाँ नहीं करे । काल करने वाला यदि आचार्यादि या रत्नादिक बड़े प्रसिद्ध साधु हो अथवा अन्य साधु के सगे सम्बन्धी या जाति वाले हों तो अवश्यमेव उपवास करना और अस्वाध्याय रखना, परन्तु स्व पर यदि अशिवादि हो तो उपवास नहीं करना। सूत्रार्थ में विशारद गीतार्थ स्थवीर दूसरे दिन प्रातःकाल क्षपक के शरीर को देखे और उसके द्वारा उसकी शुभाशुभ गति जाने। यदि मृतक का मस्तक किसी मांसाहारी पशु-पक्षी द्वारा वृक्ष या पर्वत के शिखर पर गया हो तो मुक्ति को प्राप्त करेगा। किसी ऊँची भूमि के ऊपर गया हो तो विमानवासी देव हुआ, समभूमि में पड़ा हो तो ज्योतिषी-बाण व्यंतर देव तथा खड्डे में गिरा हो तो भवन पति देव हुआ है ऐसा जानना । जितने दिन वह मृतक दूसरे से अस्पर्शित और अखण्ड रहे उतने वर्षों तक उस राज्य में सुकाल कुशल और उपद्रव का अभाव होता है । अथवा मांसहारी श्वापद क्षपक के शरीर को जिस दिशा में ले जाए उस दिशा में सुविहित साधु के विहार योग्य सुकाल होता है। इस तरह श्री जैनचन्द्र सूरीश्वर ने रची हुई सद्गति जाने का सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौवाँ अन्तर द्वार वाला चौथा समाधि लाभ द्वार में विजहना नाम का नौवाँ अन्तर द्वार कहा है। यह कहने से समाधि लाभ नामक चौथा मूल द्वार पूर्ण किया है और यह पूर्ण होने से यहाँ यह आराधना शास्त्र-संवेगरंगशाला पूर्ण हुआ।
इस प्रकार महामुनि महसेन को श्री गौतम गणधर देव ने जिस प्रकार यहाँ कहा था उसी प्रकार सब यहाँ पर बतलाया है। अब पूर्व में गाथा ६४०