Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 627
________________ ६०४ श्री संवेग रंगशाला वहाँ चौदह राजलोक के ऊपर धर्मास्तिकाय के अभाव में कर्म मुक्त उसकी आगे ऊर्ध्व गति नहीं होती है और अधर्मास्ति काय द्वारा उसकी वही सादि अनन्त काल तक स्थिरता होती है । औदारिक, तेजस, कार्मण इन तीनों शरीर को यहाँ छोड़कर वहाँ जाकर स्वभाव में रहते सिद्ध होता है और धनीभूत जीव प्रदेश जितनी रोककर उतना चरम देह से तीसरे भाग में न्यून अवगाहना को प्राप्त करता है । 'इषत् प्रागभार' नाम की सिद्धशिला से एक योजन ऊँचे लोकान्त हैं उसमें उसके नीचे उत्कृष्ट से एक कोश का छठा विभाग सिद्धों की अवगाहना के द्वारा व्याप्त होते हैं। तीन लोक के मस्तक में रहे वे सिद्धात्मा द्रव्य पर्यायों से युक्त जगत को तीन काल सहित सम्पूर्ण जानते हैं और देखते हैं । जैसे सूर्य एक साथ समविषय पदार्थों को प्रकाशमय करता है वैसे निर्वाण हुए जीव लोक को और अलोक को भी प्रकाश करते हैं । उनकी सर्व पीड़ा बाधाएँ नाश होती हैं, उस कारण से सभी जगत को जानते हैं तथा उनको उत्सुकता नहीं होने से वे परम सुखी रूप में अति प्रसिद्ध हैं । अति महान् श्रेष्ठ ऋद्धि को प्राप्त होते हुए भी मनुष्यों को इस लोक में वह सुख नहीं है कि जो उन सिद्धों को पीड़ा रहित और उपमा रहित सुख होता है । स्वर्ग में देवेन्द्र और मनुष्यों में चक्रवर्ती को जो इन्द्रियजन्य सुख का अनुभव करते हैं उससे अनन्त गुणा और पीड़ा रहित सुख उन सिद्ध को होता है । सभी नरेन्द्र और देवेन्द्रों को तीन काल में जो श्रेष्ठ सुख है उसका मूल्य एक सिद्ध के एक समय में भी सुख जितना नहीं है । क्योंकि उन्हें विषयों से प्रयोजन नहीं है, क्षुधा आदि पीड़ा नहीं हैं और विषयों के भोगने का रागादि कारण भी नहीं है । इससे ही प्रयोजन समाप्त हुआ है, इससे सिद्ध को बोलना, चलना, चिन्तन करना आदि चेष्टाओं का भी सद्भाव नहीं है । उन्हें उपमा रहित, माप रहित अक्षय, निर्मल, उपद्रव बिना का, जरा रहित, रोग रहित, भय रहित, ध्रुवस्थिर, ऐकान्तिक, आत्यंतिक और अव्याबाध केवल सुख ही है । इस तरह केवली के योग्य पादपोयगमन नाम का अन्तिम मरण का फल आगम की युक्ति अनुसार संक्षेप से कहा है । इस आराधना के फल को सुनकर बढ़ते संवेग के उत्साह वाले सर्व भव्यात्मा उस पादपोगमन मरण प्राप्त कर मुक्ति सुख को प्राप्त करो। इस प्रकार इन्द्रिय रूपी पक्षी को पिंजरे तुल्य सद्गति में जाने का सरल मार्ग समान, चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला चौथा मूल समाधि लाभ द्वार में फल प्राप्ति नाम का आठवाँ अन्तर द्वार कहा है । प्रथम से यहाँ तक जीव के निमित्त धर्म की

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