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श्री संवेगरंगशाला
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करण को प्राप्त करते हैं । शैलेशी की व्याख्या इस प्रकार की है कि-शैलेश अर्थात् पर्वत का राजा मेरू पर्वत उसके समान जो स्थिरता हो उसे शैलेशी होता है। अथवा पूर्व में अशैलेश अर्थात् कम्पन वाला होता है, उसे स्थिरता द्वारा शैलेशमेरू तुल्य होता है । अथवा स्थिरता से वह ऋषि शैल समान है, अतः शैल+ ऋषि शैलेशी होता है और उसी शैलेशी के लेश्या का लोप करने से अलेशी बनता है । अथवा शील अर्थात् समाधि उसे निश्चल से सर्व संवर कहलाता है। शील+इश=शीलेश और शीलेनी की जो अवस्था वह शब्द शास्त्र के नियम से शैलेशी होता है। शीघ्रता अथवा विलम्ब बिना जितने काल में पाँच ह्रस्व स्वर बोले जाएँ उतने काल मात्र में वह शैलेशी अवस्था रहती है । काय योग निरोध के प्रारम्भ से सर्व योग निरोध रूप शैलेशी करे तब तक वह तीसरा सूक्ष्म क्रिया-अनिवृत्ति ध्यान को तथा शैलेशी के काल में चौथा व्युच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती ध्यान को प्राप्त करते हैं। उसमें यदि पूर्व अपूर्वकरण गुणस्थानक में उस शैलेशीकरण से असंख्यात् गुणा गुण श्रेणि द्वारा जो कर्म दलिक की रचना निषेध किया था, उसे क्रमशः समय-समय पर खत्म करते शैलेशी काल में सर्व दलिक को खत्म कर, पुनः उसमें शैलेशी के द्विचरम समय में कुछ प्रकृतियों को सम्पूर्ण खत्म कर और चरम समय में कुछ सम्पूर्ण खपाते हैं । वह विभाग रूप में कहा है।
मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय, जाति, त्रस, बादर, पर्याप्ता और सौभाग्य, आदेय तथा यशनाम ये आठ नामकर्म, अन्यवर, वेदनीय मनुष्यायु और उच्च गौत्र, तथा सम्भव-तीर्थकर हों तो जैन नामकर्म अतिरिक्त नरानुपूर्वी ये तेरह अन्य ग्रन्थों के आधार पर मतान्तर से नरानुपूर्वी के बिना बारह, और अन्त समय में बहत्तर मतान्तर से तिहत्तर को द्विचरम समय में केवली भगवन्त सत्ता में से क्षय करते हैं। यहाँ पर जो औदारिकादि तीन शरीर को सर्व विप्पजहणाओं से त्याग करे ऐसा कहा है उन सर्व प्रकार के त्याग से छोड़े ऐसा जानना । पूर्व में जो संघातन के परिशाटन द्वारा दलिक बिखेरता था, वह नहीं, परन्तु सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, अनन्त सुख और सिद्धत्व, इसके बिना उसका भव्यत्व और सारे औदयिक भावों को एक साथ नाश करता है। और ऋजुगति को प्राप्त करते वह आत्मा अन्य समय में आत्मा की अचिन्त्य शक्ति होने से बीच में अन्य आकाश प्रदेशों को भी स्पर्श किए बिना ही एक ही समय में वह सिद्ध होता है । अर्थात् वह सात राज ऊँचे सिद्ध क्षेत्र में पहुँचता है। फिर साकार ज्ञान के उपयोग वाला उस बन्धन से मुक्त होने से तथा स्वभाव से ही जैसे रेडी का फल बन्धन मुक्त होते ऊँचा उछलता है, वैसे ऊँचा जाता है, फिर