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श्री संवेगरंगशाला
पापों का पराक्रम है। अनेक द्वार वाला तालाब जैसे अति विशाल जल का संचय करता है, वैसे जीव, जीव हिंसादि से, कषाय से, निरंकुश इन्द्रियों से, मन, वचन और काया से, अविरति से और मिथ्यात्व की वासना से जिस पाप का संचय करता है, उन सब पाप को आश्रव कहते हैं। वह इस प्रकार से-जैसे सर्व ओर से बड़े द्वार बन्द नहीं करने से गन्दे पानी का समूह किसी प्रकार से भी रुकावट के बिना सरोवर में प्रवेश करता है, वैसे नित्य विरति नहीं होने से जीव हिंसा आदि बड़े द्वार से अनेक पाप का समूह इस जीव में भी प्रवेश करता है। उसके बाद उससे पूर्ण भरा हुआ जीव सरोवर में मच्छ आदि के समान अनेक दुःखों का भोक्ता बनता है, इसलिए हे क्षपक मुनि ! उस आश्रव का त्याग कर । आश्रव के वश बना जीव तीव्र संताप को प्राप्त करता है, इसलिए जीव हिंसादि की विरति द्वारा उस द्वार को बन्द कर ।
८. संवर भावना:-सर्व जीवों को आत्म तुल्य मानने वाला जीव सर्व आश्रव द्वारों का संवर करने से सरोवर में पानी के समान पाप रूपी पानी से नहीं भरता है। जैसे बन्द किए द्वार वाले श्रेष्ठ तालाब में पानी प्रवेश नहीं करता है वैसे पाप समूह भी आश्रव द्वार को बन्द करने वाले जीव में प्रवेश नहीं है। उनको धन्य है, उनको नमस्कार हो। और उनके साथ में हमेशा सहवास हो ! कि जो पाप के आश्रव द्वार को दूर करके उससे दूर रहते हैं। इस प्रकार सर्व आश्रव द्वारों को अच्छी तरह रोककर हे क्षपक मुनि ! अब नौवी निर्जरा भावना को भी सम्यग् चिन्तन कर । जैसे कि :
६. निर्जरा भावना :-श्री जिनेश्वरों ने पर को अति दुष्ट आक्रमण करने वाले दुष्ट भाव में बन्धन किए पूर्व में स्वयं किए कर्मों की मुक्ति उसके भोगने का कथन किया है, तथा अनिकाचित्त समस्त कर्म प्रकृतियों की प्रायः कर अति शुभ अध्यवसाय से शीघ्र निर्जरा होती है। और पूर्वकृत निकाचित कर्मों की भी निर्जरा दो, तीन, चार, पाँच अथवा आधुमास के उपवास आदि विविध तप से होती कथन किया है । रस, रुधिर, मांस, चर्बी आदि धातुएं एवं सर्व अशुभ कर्म तपकर भस्म हो जाए उसे तप कहते हैं । इस प्रकार निरूक्ति (व्याख्या) शास्त्रज्ञों ने कहा है। उसमें भोगने से कर्मों का निर्जरा नारक. तिर्यंच आदि की होती हैं । शुभ भाव से निर्जरा भरत चक्रवर्ती आदि की होती है। और तप से निर्जरा शाम्ब आदि महात्माओं को होती है ऐसा जानना। वह इस तरह से निरन्तर विविध दुःखों से पीड़ित नारकी आदि के कर्मों की निर्जरा केवल देश से कही है। अत्यन्त विशुद्धि को प्राप्त करते श्रेष्ठ भावना वाले भरतादि को भी उस प्रकार की विशिष्ट कर्म निर्जरा सिद्धान्त में कहा