Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 594
________________ श्री संवेगरंगशाला ५७१ ___ गाँव नगरपुर आकर, कर्वट, मण्डव, आश्रम और शून्य घरों में विहार करते पुंडरिकीणी नगरी में पधारे वहाँ देवों ने आश्चर्यकारक श्रेष्ठ समवसरण की रचना की। उसमें वज्रसेन तीर्थनाथ विराजमान हुए और उसी समय अपने भाईयों को साथ आकर वज्र नाभ चक्री ने भक्तिपूर्वक प्रभु को वन्दन स्तुति कर पृथ्वी के ऊपर बैठे। श्री जैनेश्वर भगवान ने संसार के महाभय को नाश करने में समर्थ धर्म उपदेश दिया, उसे सुनकर चार भाईयों के श्री वज्रनाभ चक्रवर्ती दीक्षा ली। उसमें समस्त सूत्र, अर्थ के समूह के ज्ञाता भव्य को मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले, स्वाध्याय और ध्यान में एकाग्र चित्त वाले, शत्र, मित्र के प्रति समष्टि वाले वज्रनाभ आराधना में दिन व्यतीत कर रहे थे। वे बाहु और सुबाहु भी तपस्वी और ग्यारह अंगों को सम्यग् प्रकार से अभ्यास कर शुभमन से बाहु मुनि तपस्वी साधुओं की आहार आदि की भक्ति और सुबाहु मुनि साधुओं की शरीर सेवा करते थे। तथा दूसरे पीठ और महापीठ दोनों उत्कटुक आदि आसन करते स्वाध्याय ध्यान में प्रवृत्त रहते थे। बड़े भाई वज्रनाभ मुनि श्री जैन पद को प्राप्त कराने वाला वीस स्थानक तप की आराधना करते थे और बाहु मुनि की विनय वृत्ति तथा सुबाहु की भक्ति की हमेशा प्रशंसा करते थे। क्योंकि श्री जैन मत में निश्चल गुणवान के गुणों की प्रशंसा करने को कहा है। उसे सुनकर कुछ मानपूर्वक पीठ और महापीठ ने चिन्तन किया कि 'जो विनय वाला है उसकी प्रशंसा होती है, नित्य स्वाध्याय करने वाले हमारी प्रशंसा नहीं होती है। फिर आलोचना करते उन्होंने इस प्रकार के कुविकल्प को गुरू को सम्यक् नहीं कही। इससे चिरकाल जैन धर्म की आराधना करके भी स्त्रीत्व को प्राप्त करने वाला कर्म बंधन किया। फिर आयुष्य पूर्ण होते उन पाँचों ने सवार्थ सिद्ध में देवत्व की ऋद्धि प्राप्त की, उसके बाद वज्रनाभ इस भरत में नाभि के पुत्र श्री ऋषभदेव भगवान हुए, बाहु भी च्यवन कर रूप आदि से युक्त ऋषभदेव का प्रथम पुत्र भारत नाम से चक्री हुआ और सुबाहु बाहुबली नामक अति बलिष्ठ दूसरा पुत्र हआ। पीठ और महापीठ दोनों ऋषभदेव की ब्राह्मी और सुन्दरी नाम से पुत्री हुईं। इस प्रकार पूर्व में कर्म बन्धन करने से और आलोचना नहीं करने से माया शल्य का दोष अशुभकारी होता है। इस प्रकार हे क्षपक मुनि माया शल्य को छोड़कर उद्यमी तू दुर्गति में जाने का कारणभूत मिथ्यात्व शल्य का भी त्याग कर। ३. मिथ्यात्व शल्य :-यहाँ मिथ्यात्व को ही मिथ्या दर्शन शल्य कहा है, और वह निष्पुण्यक जीवों को मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय करवाता है, (१) बुद्धि के भेद से, (२) कुतीथियों के परिचय से अथवा उनकी प्रशंसा से

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