Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 598
________________ श्री संवेगरंगशाला ५७५ यह सुनकर भक्ति प्रगट हुई और अति समूह भाव वाला मेंढक श्री वीर प्रभु को वन्दन के लिए अपनी तेज चाल से शीघ्र गुणशील उद्यान की ओर जाने के लिए रवाना हुआ। इधर शणगारित हाथी के समूह ऊपर बैठे सुभटों से मजबूत गाढ़ घिराव वाले और अति चपल अश्व के समूह की कठोर खुर से भूमि तल को खोदते तथा सामन्त, मन्त्री, सार्थवाह, सेठ और सेनापतियों से घिरे हुए हाथी के ऊपर बैठे, मस्तक ऊपर उज्जवल छत्र धारण करते और अति मूल्यवान अलंकारों से शोभित श्रेणिक महाराजा शीघ्र भक्तिपूर्वक श्री वीर परमात्मा को वन्दनार्थ चला। उस राजा के एक घोड़े के खुर के अग्रभाग से भक्तिपूर्वक प्रभु को वन्दनार्थ जाते वह मेंढक मार्ग में मर गया । उस प्रहार से पीड़ित उस मेंढक ने अनशन स्वीकार किया । प्रभु का सम्यग् स्मरण करते वह मरकर सौधर्म देवलोक में दर्दुरावतंसक नामक श्रेष्ठ विमान में दुर्दुरांक नामक देव उत्पन्न हुआ । वहाँ से च्यवन कर अनुक्रम से वह महाविदेह में से मुक्ति को प्राप्त करेगा । अल्पकाल में सिद्धि प्राप्त करने वाला भी नन्द यदि इस तरह मिथ्यात्व शल्य के कारण हल्की तिर्यंच गति को प्राप्त की थी, तो हे क्षपक मुनि ! तू उस शल्य का त्याग कर । और तीनों शल्यों का त्यागी तू फिर पाँच समिति और तीन गुप्ति द्वारा शिव सुख साधने वाला सम्यक्त्व आदि गुणों की साधना कर । प्यासा जीव पानी पीने से प्रसन्न होता है, वैसा उपदेश रूपी अमृत के पान से चित्त प्रसन्न होते क्षपक मुनि निर्वृति को प्राप्त करता है । इस प्रकार संसार सागर में नाव समान, सद्गति में जाने का सरल मार्ग रूप, चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अन्तर द्वार से रची हुई समाधि लाभ नामक मूल चौथे द्वार के अन्दर अट्ठारह अन्तर द्वार से रचा हुआ प्रथम अनुशास्ति द्वार का अन्तिम निःशल्यता नाम का अन्तर द्वार कहा है, और इसे कहने से यह अनुशास्ति द्वार समाप्त हुआ । अब इस तरह हित शिक्षा सुनाने पर भी जिसके अभाव में कर्मों का दूरीकरण न हो उसे प्रतिपत्ति (धर्म स्वीकार) द्वार कहता हूँ । दूसरा प्रतिपत्ति नामक द्वार : - इस प्रकार अनेक विषयों की विस्तार पूर्वक हित शिक्षा सुनकर अति प्रसन्न हुए और संसार समुद्र से पार होने के समान मानता हर्ष की वृद्धि से विकसित रोमांचित्त वाला क्षपक मुनि, मस्तक पर दो हस्त कमल को जोड़कर हृदय में फैलता सुखानन्द रूपी वृक्ष के अंकुरों के समूह से युक्त हो इस तरह वह 'आपने मुझे सुन्दर हित शिक्षा दी है' गुरू

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