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श्री संवेगरंगशाला
उत्पन्न हुआ उस राग द्वेष का त्याग करे। और क्षपक देव और मनुष्य के भोगों की अभिलाषा नहीं करे, क्योंकि विषयाभिलाष को विराधना का मार्ग कहा है। राग, द्वेष रहित आत्मा वह क्षपक, इष्ट और अनिष्ट शब्द, स्पर्श रस, रूप और गन्ध में तथा इस लोक परलोक में, या जीवन मरण में और मान या अपमान में सर्वत्र समभाव वाला बने। क्योंकि राग द्वेष क्षपक को समाधि मरण का विराधक है। इस प्रकार से समस्त पदार्थों में समता को प्राप्त कर विशुद्ध आत्मा क्षपक मैत्री, करुणा, प्रमोद और उपेक्षा को धारण करे । उसमें मैत्री समस्त जीव राशि में करुणा दुःखी जीवों पर, प्रमोद अधिक गुणवान जीवों में और उपेक्षा अविनीत जीवों में करे । दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य और समाधि योग को त्रिविध से प्राप्त कर ऊपर के सर्व क्रम को सिद्ध करे। इस प्रकार कुनयरूपी हरिणों की जाल समान, सद्गति में जाने के लिए सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नामक आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला चौथा समाधि लाभ द्वार में समता नाम का पांचवां अन्तर द्वार कहा है। अब समता में लीन भी क्षपक मुनि को अशुभ ध्यान को छोड़कर सम्यक् ध्यान में प्रयत्न करना चाहिए, अतः ध्यान द्वार को कहते हैं।
छठा ध्यान द्वार :-राग द्वेष से रहित जितेन्द्रिय, निर्भय, कषायों का विजेता और अरति-रति आदि मोह का नाशक संसार रूप वृक्ष के मूल को जलाने वाले, भव भ्रमण से डरा हुआ, क्षपक मुनि निपुण बुद्धि से दुःख का महा भण्डार सदृश आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान को शास्त्र द्वारा जानकर त्याग करे और क्लेश का नाश करने वाला चार प्रकार के धर्म ध्यान तथा चार प्रकार के शुल्क ध्यान को शुभ ध्यान जानकर ध्यान करना चाहिए। परीषहों से पीड़ित भी आतं, रौद्र ध्यान का ध्यान नहीं करे, क्योंकि ये दुष्ट ध्यान सुन्दर एकाग्रता से विशुद्ध आत्मा का भी नाश करता है।
चार ध्यान का स्वरूप:-श्री जैनेश्वर भगवान ने १-अनिष्ट का संयोग, २-इष्ट का वियोग, ३-व्याधि जन्य पीड़ा, और ४-परलोक की लक्ष्मी के अभिलाषा से आत ध्यान (आत=दुःखी होने का ध्यान) चार प्रकार का कहा है । और तीव्र कषाय रूपी भयंकर १-हिंसानुबन्धि, २-मृषानुबन्धि, ३-चौर्यानुबन्धि, और ५-धनादि संरक्षण के परिणाम । इस तरह रौद्र ध्यान को भी चार प्रकार का कहा है। आर्त ध्यान विषयों के अनुराग वाला होता है, रौद्र ध्यान हिंसादि का अनुराग वाला होता है, धर्म ध्यान धर्म के अनुराग वाला और शुक्ल ध्यान राग रहित होता है। चार प्रकार के आर्त ध्यान और चार