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श्री संवेगरंगशाला
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प्रकार के रौद्र ध्यान में जो भेद हैं उन सबको अनशन में रहे क्षपक साधु अच्छी तरह जानता है। उसके बाद ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य रूपी चार भावनाओं से युक्त चित्त वाला क्षपक चारों प्रकार के श्रेष्ठ धर्म ध्यान का चिन्तन करे, प्रथम आज्ञा विचय, दूसरा अपाय विचय, तीसरा विपाक विचय और चौथा संस्थान विचय, इस प्रकार क्षपक मुनि चार प्रकार के धर्म ध्यान का चिन्तन करे । उसमें-१. आज्ञा विचय -- सूक्ष्म बुद्धि से श्री जैनेश्वर की आज्ञा को निर्दोष, निष्पाप, अनुपमेष, अनादि अनन्त, महा अर्थ वाली, चिरस्थायी, शाश्वत, हितकर, अजेय, सत्य, विरोध रहित, सफलतापूर्वक मोह को हरने वाली, गम्भीर युक्तियों से महान्, कान को प्रिय, अवाधित, महा विषय वाली
और अचिन्त्य महिमा वाली है, ऐसा चिन्तन करे । २. अपाय विचय में-इन्द्रिय, विषय, कषाय और आश्रवादि पच्चीस क्रियाओं में, पाँच अव्रत आदि में वर्तन, मोहमूढ़ जीव के भावि नरकादि जन्मों में विविध अपाय का चिन्तन करना। ३. विपाक विचय में - वह क्षपक मुनि मिथ्यात्वादि बन्द हेतु वाली कर्मों की शुभाशुभ प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और उसके तीव्र, मन्द, अनुभाव-रस, इस प्रकार कर्म के चारों विपाकों का चिन्तन करे । ४. संस्थान विचय में-श्री जैनेश्वर कथित पंच अस्तिकाय स्वरूप, अनादि अनन्त लोक में अधोलोक आदि तीन भेद को तथा ति लोक में असंख्य द्वीप समुद्र आदि का विचार करे। और ध्यान पूर्व होते नित्य अनित्यादि भावना से चिन्तन वाला बने, वह भावना सुविहित मुनियों को आगम के कथन से प्रसिद्ध है । वह इस ग्रन्थ में चौथे द्वार के अनुशास्ति द्वार में कहा है। क्षपक जब इस धर्म ध्यान को पूर्ण करे तब शुद्ध लेश्या वाला चार प्रकार के शुक्ल ध्यान का ध्यान करे । श्री जैनेश्वर प्रथम शुक्ल ध्यान 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' कहा है, दुसरे शुक्ल ध्यान को एकत्व वितर्क अविचार' कहा है, तीसरा शुक्ल ध्यान को 'सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति' कहते हैं और चौथे शुक्ल ध्यान को 'व्युच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति' कहते हैं।
उसमें पृथक् अर्थात् विस्तार ऐसा अर्थ होता है इसलिए पृथक्त्व अर्थात् विस्तारपूर्वक ऐसा अर्थ होगा। वह विस्तारपूर्वक तर्क करे उसे वि+तर्क= वितर्क कहते हैं। यहाँ प्रश्न करते हैं कि विस्तारपूर्वक इसका क्या मतलब ? उत्तर देते हैं कि-परमाण जीव (जीव-जड़) आदि किसी एक द्रव्य में, उत्पत्ति, स्थिति और विनाश अथवा रूपी, अरूपी आदि उसके विविध पर्यायों का विस्तारपूर्वक उसे जो अनेक प्रकार के नय भेद द्वार विचार करना वह पृथक्कत्व है, वितर्क अर्थात् श्रुत के लिए पूर्वगत श्रुत के अनुसार चिन्तन करना अर्थात् अन्योन्य पर्यायों में चिन्तन करना यानि अर्थ में से व्यंजन से और व्यंजन में से अर्थ में