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श्री संवेगरंगशाला
अब अशुचिमय घड़ी समान स्त्री को किस तरह भोगूंगा ? पूर्व में दुर्गन्ध मनुष्य शरीर के गन्ध से दूर भागता था। अब उस अपवित्र मनुष्य के शरीर में जन्म लेकर कहाँ भोगंगा ? हा ! दीनों का उद्धार नहीं किया, धर्मीजनों का वात्सल्य नहीं किया, और हृदय में श्री वीतराग देव को धारण नहीं किया, मैंने जन्म को गंवा दिया, मैंने मेरू पर्वत, नन्दीश्वर आदि में शाश्वत चैत्यों में श्री जिन कल्याणक के समय पर, पूण्य और कल्याण कारक महोत्सव नहीं किया, विषयों के विष से मूछित और मोह रूपी अन्धकार से अन्ध बन कर मैंने श्री वीत राग देवों का वचन अमृत नहीं पीया, हाय ! देव जन्म को निष्फल गंवा दिया। इस प्रकार च्यवन समय में देव के वैभव रूपी लक्ष्मी को याद करके हृदय चुराता हो, जलता हो, कम्पायमान होता हो, पीलता हो, अथवा चीरता हो, टकराता हो,या तड़-तड़ टूटता हो इस प्रकार देव एक मकान से दूसरे मकान में, एक वन से दूसरे वन में, एक शयन में से दूसरे शयन में लेटता है, परन्तु तपे शिला तल के ऊपर उछलते मच्छर के समान किसी तरह शान्ति नहीं। हा! पुनः देवियों के साथ में उस भ्रमण को, उस क्रीड़ा को, उस हास्य को और उसके साथ निवास को अब मैं कब देखंगा ? इस प्रकार बड़बड़ाते प्राणों को छोड़ता है। ऐसे च्यवन के समय भय से काँपते देवों की विषम दशा को जानते धीर पुरुष के हृदय में धर्म बिना अन्य क्या स्थिर होता है ?
इस प्रकार पराधीनता से चार गति रूप इस संसार रूपी जंगल में अनन्त दु:ख को सहन करके हे क्षपक ! अब उस से अंन्तवाँ भाग जितना इस अनशन के दुःख को स्वाधीनता से प्रसन्नतापूर्वक सम्यक् सहन कर ! और तुझे संसार में अनंतीवार ऐसी तृषा प्रगट हुई थी कि उसको शान्त करने के लिए सारी नदी और समुद्र भी समर्थ नहीं हैं। संसार में अनंत बार ऐसी भूख तुझे प्रगट हुई थी कि जिसे शान्त करने के लिए समग्र पुद्गल समूह भी शक्तिमान नहीं है । यदि तूने पराधीनता से उस समय ऐसी प्यास और भूख को सहन की थी अब तो 'धर्म है' ऐसा मानकर स्वाधीनता से तू इस पीड़ा को क्यों नहीं सहन करता है ? धर्म श्रवण रूप जल से, हित शिक्षा रूपी भोजन से और ध्यान रूपी औषध से सदा सहायक युक्त तुझे कठोर भी वेदन को सहन करना योग्य है। और श्री अरिहन्त, सिद्ध, और केवली के प्रत्यक्ष सर्व संघ के साक्षी पूर्वक नियम किया था, उसे भंग करते मरणा अच्छा है। यदि उस समय तूने श्री अरिहन्तादि को मान्य किया हो तो हे क्षपक मुनि ! उसके साक्षी से पच्चक्खान किया था उसे तोड़ना योग्य नहीं है जैसे साक्षात् करके राजा का अपमान करने वाला मनुष्य महादोष का धारक बनता है वह