Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 605
________________ ५८२ श्री संवेगरंगशाला से समृद्ध अगम्य वचनातीत रूप के धारक और शिव पदरूपी सरोवर में राजहंस समान सिद्धों को नमस्कार करता हूं। यह 'मैं' प्रशम रस के भण्डार, परम तत्त्व-मोक्ष के जानकार और स्व सिद्धान्त-पर सिद्धान्त में कुशल आचार्यों को नमस्कार करता हूँ। यह 'मैं' शुभध्यान के ध्याता भव्यजन वत्सल और श्रुतदान में सदा तत्पर श्री उपाध्यायों को नमस्कार करता हूँ। और यह 'मैं' मोक्ष मार्ग में सहायक, संयम रूपी लक्ष्मी के आधार रूप और मोक्ष में एक बद्ध लक्ष्य वाले साधुओं को नमस्कार करता हूँ। यह 'मैं' संसार में परिभ्रमण करने से थके हुए प्राणी वर्ग का विश्राम का स्थान सर्वज्ञ प्रणीत प्रवचन को भी नमस्कार करता हूँ। तथा यह 'मैं' सर्व तीर्थंकरों ने भी जिसको नमस्कार किया है. उस शुभ कर्म के उदय से स्व-पर विध्न के समूह को चूर्ण करने वाला श्री संघ को नमस्कार करता है। उस भूमि प्रदेशों को मैं वन्दन करता है, जहाँ कल्याण के निधानभूत श्री जैनेश्वरों ने जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान और निर्वाणपद प्राप्त किया है । शीलरूप सुगन्ध के अतिशय से श्रेष्ठ अगुरू को भी जीतने वाले उत्तम कल्याण के कुल भवन समान और संसार से भयभीत प्राणियों के शरणभूत गुरू देवों के चरणों को में वन्दन करता है। इस प्रकार वन्दनीय को वन्दन कर प्रथम सेवकजन वत्सल संवेगी, ज्ञान के भण्डार और समयोचित्त सर्व क्रियाओं से यूक्त स्थविर भगवन्तों के चरणों में सुन्दर धर्म को सम्यक स्वीकार करते मैंने सर्व त्याग करने योग्य त्याग किया है और स्वीकार करने योग्य स्वीकार किया है। फिर भी विशेष संवेग प्राप्त करते मैं अब वही त्याग स्वीकार कर अति विशेष रूप कहता हूँ। ___ उसमें सर्वप्रथम में सम्यक् रूप से मिथ्यात्व से पीछे हटकर और अति विशेष रूप में सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ, फिर अट्ठारह पाप स्थानक से पीछे हटकर कषायों का अवरोध करता हूँ, आठ मद स्थानों का त्यागी, प्रमाद स्थानों का त्यागी, द्रव्यादि चार भावों के राग से मुक्त, यथासम्भव सूक्ष्म अतिचारों की भी प्रति समय विशुद्ध करते, अणुव्रतों को फिर से स्वीकार कर सर्व जीवों के साथ सम्पूर्ण क्षमापना करते, अनशन को पूर्व कथनानुसार र्वस आहार का त्याग करते, नित्य ज्ञान के उपयोगपूर्वक प्रत्येक कार्य की प्रवृत्ति करते पाँच अणुव्रतों की रक्षा में तत्पर, सदाचार से शोभते, मुख्यतया इन्द्रियों का दमन करते, नित्य, अनित्यादि भावनाओं में रमण करते मैं उत्तम अर्थ की साधना करता है। इस प्रकार कर्तव्यों को स्वीकार करके बुद्धिमान श्रावक जीने की अथवा मरने की भी इच्छा को छोड़ने में तत्पर, इस लोक, परलोक के सुख की इच्छा से मुक्त, कामभोग की इच्छा का त्यागी, इस प्रकार संलेखना के पाँच

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