________________
श्री संवेगरंगशाला
५८३ अतिचार से मुक्त, उपशम का भण्डार, पण्डित मरण के लिए मोह के सामने युद्ध भूमि में विजय ध्वजा प्राप्ति कराने के लिए एक सुभट बना हुआ, उसउस प्रकार के त्याग करने योग्य सर्व पदार्थों के समूह का त्यागी, और 'यह करने योग्य है' ऐसा मानकर स्वीकार करने योग्य कार्यों को स्वीकार करता हूँ, उस-उस काल में नया-नया उत्कृष्ट संवेग होता है, उस गुण द्वारा आत्मा को क्षण-क्षण में अपूर्व समान अनुभव करता हूँ, शत्रु मित्र में समचित्त वाला, तृण और मणि में, सुवर्ण और कंकर में भी समान बुद्धि वाला, मन में प्रतिक्षण बढ़ते समाधिरस की उत्कृष्ट अनुभव करते, अत्यन्त श्रेष्ठ अथवा अति खराब भी शब्दादि विषयों को सुनकर, देखकर, खाकर, सूंघ कर, और स्पर्श कर के भी प्रत्येक वस्तु के स्वभाव के ज्ञान बल से अरति, रति को नहीं करने से शरद ऋतू की नदी के निर्मल जल के समान अति निर्मल चित्त वाले, महा-सत्त्वशाली गुरूदेव और परमात्मा को नमस्कार करके उचित आसन पर बैठा हुआ वही, उस समय में यह राधावेध का समय है' ऐसा मन में विचार करते, सारे कर्म रूपी वृक्ष वन को जलाने में विशेष समर्थ दावानल के प्रादुर्भाव समान धर्म ध्यान को सम्यक् प्रकार से ध्यान करे, अथवा वहाँ उस समय श्री जिनेश्वर भगवान का ध्यान करे । जैसे कि :
पूर्ण चन्द्र के समान मुखवाले, उपमा से अति क्रान्त अर्थात् अनुपमेय रूप लावण्य वाले, परमानन्द के कारण भूत, अतिशयों के समुदाय रूप चक्र अंकुरा वज्र ध्वज मच्छ आदि सम्पूर्ण निर्दोष लक्षणों से युक्त शरीर वाले, सर्वोत्तम गणों से शोभते, सर्वोत्तम पूण्य के समूह रूप, शरद के चन्द्र किरणों के समान, उज्जवल तीन छत्र और अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान, सिंहासन पर बैठे, दुंदुभि की गाठ गर्जना के समान अर्थात् गर्जना युक्त गम्भीर आवाज वाले देव असुर सहित मनुष्य की पर्षदा में शुद्ध धर्म की प्ररूपणा (उपदेश देते) करते जगत के सर्व जीवों के प्रति वत्सल, अचिन्त्यतम शक्ति से महिमा वाले प्राणी मात्र के उपकार से पवित्र समस्त कल्याण के निश्चित कारण भूत, अन्य मतवाले को भी शिव, बुद्ध, ब्रह्मा, आदि नाम से ध्यान करने योग्य केवल ज्ञान से सर्व ज्ञेय भावों को एक साथ में यथार्थ रूप में जानते और देखते मुर्तिमान देह धारी धर्म और जगत के प्रकाशक प्रदीप के समान श्री जिनेश्वर प्रभु का ध्यान कर । अथवा उसी जिनेश्वर भगवान के कथन का तीन जगत में मान्य और दुःख से तपे हुए प्राणियों को अमृत की वर्षा समान श्रुत ज्ञान का ध्यान कर । यदि अशक्ति अथवा बिमारी के कारण वह इतना बोल न सके तो 'अ-सि-आ-उ-सा' इन पाँच अक्षरों का मन में ध्यान करे। पाँच परमेष्ठिआ