Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 599
________________ ५७६ श्री संवेगरंगशाला देव को बार-बार कहता भक्ति के समूह से वाणी द्वारा कहे कि - हे भगवन्त ! तत्त्व से आपसे अधिक अन्य वैद्य जगत में नहीं है कि जिसे आप श्री इस तरह मूल में से कर्मरूपी महाव्याधि को नाश करते हो । आप ही एक इन्द्रियों के साथ की युद्ध की रंगभूमि में बलवान अन्तर शत्रुओं से मारे जाते अशरण जीवों का शरण हैं । आप ही तीन लोक में फैलते मिथ्यात्व रूपी अन्धकार के समूह को नाश करने में समर्थ ज्ञान के किरणों का समूह रूप सूर्य हैं । इससे आपने मुझे जो अत्यन्त दीर्घ संसार रूपी वृक्ष के मूल अंकुर समान और अत्यन्त अनिष्टकारी अठारह पाप स्थानक के समूह को हमेशा त्याग करने योग्य बतलाया उन तीनों काल के पाप स्थानकों को मैं त्रिविध त्याग करता हूँ । उत्तम मुनियों का अकरणीय, मिथ्या पण्डितों, अज्ञानियों के आश्रय करने योग्य, निन्दनीय आठमद स्थान रूपी मोह को मुख्य सेना की मैं निन्दा करता हूँ | तथा दुःख के समूह में कारण भूत दुर्गतियों के भ्रमण में सहायक और अरति करने क्रोधादि कषायें को भी अब से त्रिविध-त्रिविध से त्याग करता है | और प्रशम के लाभ को छोड़ाने वाला और हर समय उन्माद को बढ़ाने वाला समस्त प्रमाद को मैं त्रिविध - विविध त्याग करता हूँ । पाप की अत्यन्त मैत्री करने वाले, और प्रचण्ड दुर्गति के द्वार को खोलने वाले राग को भी बन्धन के समान मैं त्रिविध - त्रिविध त्याग करता हूँ । इस प्रकार त्याग करने योग्य त्याग करके पुनः आपकी समक्ष उत्कृष्ट शिष्टाचारों में एक उत्तम सम्यक्त्वकों में शंका आदि दोषों में रहित स्वीकार करता हूँ । और हर्ष के उत्कर्ष से विकसित रोमांचित वाला मैं प्रतिक्षण श्री अरिहन्त आदि की भक्ति को प्रयत्नपूर्वक स्वीकार करता हूँ । जन्म मरणादि संसार की पुनः पुनः परम्परा रूप हाथियों के समूह को नाश करने में एक सिंह समान श्री पन्च नमस्कार को मैं सर्व प्रयत्नपूर्वक स्मरण करता हूँ । सर्व पाप रूपी पर्वत को चूर्ण करने में बज्र समान और भव्य प्राणियों को आनन्द देने वाले सम्यग् ज्ञान के उपयोग को मैं स्वीकार करता हूँ, और आपकी साक्षी में संसार के भय को तोड़ने में दक्ष और पाप रूपी सर्व शत्रुओं को विनाश करने वाले पाँच महाव्रतों की रक्षा मैं करता हूँ । तथा तीन जगत को कलेश कारक राग रूपी प्रबल शत्रु के भय को नाश करने में समर्थ और मूढ़ पुरुषों को दुर्जय चार शरणों को मैं स्वीकार करता हूँ । पूर्व जन्म में बन्धन किए वर्तमान काल के और भविष्य के अति उत्कन्ठ भी दुष्कृत्य की बार-बार मैं निन्दा करता हूँ | तीनों लोक के जीवों ने जिसके दोनों चरण कमलों को नमस्कार किया है वे श्री वीतराग देव के वचनों के अनुसार मैंने जो-जो सुकृत किया हो, उसे मैं

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