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श्री संवेगरंगशाला
की इच्छा करता हूँ । अतः राजा ने उसे आज्ञा दी । फिर उसने शीघ्र वृक्षों की घटा से शोभित महान् विस्तारपूर्वक इष्ट प्रदेश में, मुसाफिरों को आरोग्य पद भोजनशाला से युक्त तथा सफेद कमल, चन्द्र विकासी कमल और कुवलय के समूह से शोभित, पूर्ण पानी के समूह वाली नन्दा नाम की बावड़ी तयार की । वहाँ स्नान करते, जल क्रीड़ा करते और जल को पीते लोग परस्पर ऐसा बोलते थे कि - उस नन्द मणियार को धन्य है कि जिसने निर्मल जल से भरी, मछली, कछुआ भ्रमण करते, पक्षियों के समूह से रमणीय इस बावड़ी को करवाई है । ऐसी लोगों की प्रशंसा सुनकर अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त करते वह नन्द सेठ स्वयं अमृत से सिंचन समान अति आनन्द मानता था ।
समय जाते पूर्वं जन्म के अशुभ कर्मों के दोष से शत्रु के समान दुःखकारक – (१) ज्वर, (२) श्वॉस, (३) खाँसी, (४) दाह, (५) नेत्र शूल, (६) पेट में दर्द, (७) मस्तक में दर्द, (८) कोढ़, (६) खसरा, (१०) बवासीर, (११) जलोदर, (१२) कान में दर्द, (१३) नेत्र पीड़ा, (१४) अजीर्ण, (१५) अरूचि, और (१६) अति भगन्दर । इस तरह सोलह भयंकर व्याधियों ने एक साथ में उसके शरीर में स्थान किया और उस वेदना से पीड़ित उसने नगर में उद्घोषणा करवाई कि जो मेरे इन रोगों में से एक का भी नाश करेगा उसकी मैं दरिद्रता का नाश हो इतना धन देऊँगा । उसे सुनकर औषध से युक्त अनेक वैद्य आए और उन्होंने शीघ्र अनेक प्रकार से चिकित्सा की, परन्तु उसे थोड़ा भी अन्तर नहीं हुआ अर्थात् ज्वर जैसा था वैसा ही बना रहा । अतः लज्जा से युक्त निराश होकर जैसे आए थे वैसे वापिस चले गये । और रोग के विशेष वेदना से पीड़ित नन्द सेठ मरकर अपनी बावड़ी में गर्भज मेंढक रूप उत्पन्न हुआ । वहाँ उसने 'नन्द सेठ धन्य है कि जिसने यह बावड़ी करवाई है ।' ऐसा लोगों द्वारा बात सुनकर शीघ्र ही अपने पूर्व जन्म का स्मरण ज्ञान हुआ । इसके संवेग होते 'यह तिर्यंचगति मिथ्यात्व का फल है' ऐसा विचार करते वह पुनः पूर्व जन्म में पालन किए देश विरति आदि जैन धर्म के अनुसार पालन करने लगा और उसने अभिग्रह स्वीकार किया कि - आज से सदा मैं लगातार दो-दो उपवास की तपस्या करूँगा और पारणा केवल अचित्त पुरानी सेवाल आदि को खाऊँगा, ऐसा निश्चय करके वह मेंढक महात्मा स्वरूप रहने लगा ।
एक समय वहाँ श्री महावीर प्रभु पधारे। इससे उस बावड़ी में स्नान करते लोग परस्पर ऐसा बोलने लगे थे कि - 'शीघ्र चलो जिससे गुणशील चैत्य में विराजमान और देवों से चरण पूजित श्री वीर परमात्मा को वन्दन करें ।'