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श्री संवेगरंगशाला
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इन्द्रियों के उत्कृष्ट को वश करने वाले, निर्दयता रूपी पराग को नाश करने में कठोरतर पवन के समान और माया रूपी सर्प को नाश करने में हे गरूड़ ! आपकी जय हो। हे करूणारस के सागर ! हे जहर को शान्त करने वाले अमृत ! हे पृथ्वी को जोतने में बड़े हल समान ! अथवा विष तुल्य जो रोग है तद्रूप पृथ्वी को जोतने के लिए तीक्ष्ण हल समान। और रम्भा समान मनोहर स्त्रियों के भोगरस के सम्बन्ध से अबद्ध वैरागी। आप की जय हो ! हे प्राणीगण के सुन्दर हितस्वी बन्धु ! हे राग दशा को नाश करने वाले । हे करण सित्तरी और चरण सित्तरी के श्रेष्ठ प्ररूपणा रूप धनवाने दातार ! और नयो के समूह से व्याप्त सिद्धान्त वाले प्रभु ! आप विजयी हो। हे वन्दन करते सुर असुरों के मुकूट के किरणों से व्याप्त पीले चरण तल वाले और कंकोल वृक्ष के पत्तों के समान लाल हस्त कमल वाले हे महाभाग प्रभु ! आप विजयी हो। हे संसार समुद्र को पार उतरने वाले ! हे गौरव की खान ! हे पर्वत तुल्य धीर ! और फिर जन्म नहीं लेने वाले ! हे वीर ! आप को मैं संसार का अंत करने के लिए बार-बार वंदन करता हूँ।
इस प्रकार संस्कृत, प्राकृत, उभय में सम शब्दों वाली 'जैसे संसार दावा की स्तुति' गाथाओं से श्री वीर भगवान की स्तुति कर जैन धर्म को स्वीकार कर, अति प्रसन्न चित्त वाले नन्द मणियार सेठ अपने घर गया, फिर जिस तरह स्वीकार किया था उसी तरह बारह व्रत रूप सुन्दर जैन धर्म को वह पालन करने लगा और वीर प्रभु भी अन्य स्थानों में विचरने लगे। फिर अन्यथा कभी सुविहित साधुओं के विरह से और अत्यन्त असंयमी मनुष्यों के बार-बार दर्शन से, प्रतिक्षण सम्यक्त्व अध्यवसाय स्थान घटने से और मिथ्यात्व के समूह हमेशा बढ़ने से, सम्यक्त्व से रहित हुआ उसने एक समय जेठ भास के अन्दर पौषधशाला में अट्ठम (तीन उपावास) के साथ पौषध किया। फिर अट्ठम की तपस्या से शरीर में शिथिलता आने से तृषा और भूख से पीड़ित नन्द सेठ को ऐसी चिन्ता प्रगट हुई कि वे धन्य हैं और कृतपूण्य हैं कि जो नगर के समीप में पवित्र जल से भरी बावड़ियाँ बनाते हैं। जो बावड़ियों में नगर के लोग हमेशा पानी को पीते हैं, ले जाते हैं और स्नान करते हैं। अतः प्रभात होते ही मैं भी राजा की आज्ञा प्राप्त कर बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ तैयार करवाऊँगा। ऐसा विचार कर उसने सूर्य उदय होते पोषह को पार कर स्नान किया, विशुद्ध वस्त्रों को धारण कर, हाथ में भेंट वस्तुएँ लेकर वह राजा के पास गया। और राजा को विनयपूर्वक नमस्कार करके निवेदन करने लगा कि हे देव ! आप श्री जी की आज्ञा से नगर के बाहर समीप में ही बावड़ी बनाने