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श्री संवेगरंगशाला
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आज अनुमोदन करता हूँ । बढ़ते शुभ भाव वाला मैं, अनेक प्रकार के गुणों को करने वाला और सुख रूप मत्सर को पकड़ने में श्रेष्ठ जाल तुल्य भावनाओं के समूह की दृढ़ता से स्मरण करता हूँ । हे भगवन्त ! सूक्ष्म भी अतिचार को छोड़कर मैं अब स्फटिक समान निर्मल शील को सविशेष अस्खलित स्वीकार करता हूँ | गन्ध हस्ति का समूह जैसे हाथी के झुन्ड को भगाते हैं वैसे सत्कार्यों रूपी वृक्षों के समूह को नाश करने में सतत् उद्यमशील इन्द्रियों के समूह को भी सम्यग् ज्ञान रूपी रस्सी से वश करता हूँ । अभ्यन्तर और बाह्य भेद स्वरूप बारह प्रकार के तपकर्म को शास्त्रोक्त विधि पूर्वक करने के लिए मैं सम्यग् प्रयत्न करता हूँ । हे प्रभु! आपने तीन प्रकार के बड़े शल्य को कहा है, उसे भी अब मैं अति विशेषतापूर्वक त्रिविध-त्रिविध से त्याग करता हूँ । इस प्रकार त्याग करने योग्य त्याग कर और करने योग्य वस्तु को आचरण को स्वीकार करने वाला क्षपक मुनि उत्तरोत्तर आराधना के मार्ग श्रेणि के ऊपर चढ़ते हैं । फिर वह प्यासा बना क्षपक मुनि को बीच-बीच में स्वाद बिना का खट्टा, तीखा और कड़वे रहित पानी जैसे हितकर हो उसके अनुसार दे। फिर जब उस महात्मा को पानी पीने की इच्छा मिट जाए तब समय को जानकर निर्यामक गुरू उसे पानी का भी त्याग करवा दे |
अथवा संसार की असारता का निर्णय होने से धर्म में राग करने वाला कोई उत्तम श्रावक भी यदि आराधना को स्वीकार करे तो वह पूर्व में कही विधि से स्वजनादि को क्षमा याचना का कार्य करके संस्तारक दीक्षा स्वीकार कर इस अन्तिम आराधना में उद्यम करे । और उसके अभाव में संथारे को स्वीकार नहीं करे, तो भी पूर्व में स्वीकार किए बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को पुनः उच्चारण कर सुविशुद्धतर और सुविशुद्धतम करते, वह ज्ञान दर्शन अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के अतिचारों को सर्वथा त्याग करते, प्रति समय बढ़ते संवेग वाला दोनों हस्त कमल को मस्तक पर जोड़कर दुश्चरित्र की शुद्धि के लिए उपयोग पूर्वक इस प्रकार से बोले - भगवान श्री संघ का मैंने मोहवश मन, वचन, काया से यदि कुछ भी अनुचित किया हो उसे मैं त्रिविध खमाता हूँ। और असहायक का सहायक, मोक्ष मार्ग में चलने वाले आराधक का सार्थवाह, तथा ज्ञानादि गुणों के प्रकर्ष वाला भगवान श्री संघ भी मुझे क्षमा करों । श्री संघ यही मेरा गुरू है, अथवा मेरी माता है अथवा पिता है, श्री संघ परम मित्र है और मेरा निष्कारण बन्धु है । इसलिए भूत, भविष्य या वर्त्तमान काल में राग द्वेष से या मोह से भगवान श्री संघ की मैंने यदि अल्प भी आशातना की हो, करवाई हो, या अनुमोदन किया हो, उसकी सम्यक्