Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Padmvijay
Publisher: NIrgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 593
________________ ५७० श्री संवेगरंगशाला अथवा केवल आग्रहपूर्वक पूछने पर आलोचना करे, वह भी सम्यग् आलोचना नहीं करता, परन्तु माया युक्त करता है। इस प्रकार के माया शल्य के त्याग किए बिना तप में रागी है और चिरकाल तप का कष्ट सहन करने पर भी आत्मा को उसका शुभ फल नहीं मिलता है । इसीलिए ही चिरकाल तक श्रेष्ठ दुष्कर तप करने वाले भी उस निदान के कारण पीठ और महापीठ दोनों तपस्वी को स्रीत्व प्राप्त हुआ। वह इस प्रकार : पीठ, महापीठ मुनियों की कथा पूर्व काल में श्री ऋषभदेव भगवान का जीव निज कुल में दीपक के समान वैद्य का पुत्र था। वह राजा, मन्त्री, सेठ और सार्थपति इन चारों के चार पुत्र मित्र हए । एक समय शुभ धर्म ध्यान में निश्चल लीन परन्तु कोढ़ के कीड़ों से क्षीण हुए साधु को देखकर भक्ति प्रकट हुई और उस वैद्य पुत्र ने उस साधु की चिकित्सा की । इससे श्रेष्ठ पुण्यानुबन्धी समूह को प्राप्त किया और आयुष्य का क्षय होते प्राण का त्याग करके श्री सर्वज्ञ परमात्मा के धर्म के रंग से तन्मय धातु वाले वह वैद्य पुत्र चारों मित्रों के साथ अच्युत देवलोक में अति उत्तम ऋद्धि वाले देव हुए। फिर उन पाँचों ने स्वर्ग से च्यवन कर इसी जम्बू द्वीप के तिलक की उपमा वाला, कुबेर नगर के समान शोभित पूर्व विदेह का शिरोमणि श्री पुन्डरिकीणी नाम की नगरी में इन्द्र से पूजित चरण कमल वाले श्री वज्रसेन राजा की निर्मल गुणों को धारण करने वाली जग प्रसिद्ध धारणी रानी की कुक्षि से अनुपम रूप सहित पुत्र रूप में उत्पन्न हुए, और अप्रतिम श्रेष्ठ गुण रूप लक्ष्मी के उत्कर्ष वाले वे उत्तम कुमार क्रमशः वृद्धि करते यौवन अवस्था प्राप्त की। उसमें से नगर की परिधि समान लम्बी, स्थिर और विशाल भुजाओं वाला प्रथम श्री वज्रनाभ चक्री, दूसरा बाह कुमार, तीसरा सुबाह कुमार, चौथा पीठ और पांचवाँ गुणों में लीन महापीठ नाम से प्रसिद्ध हुए। फिर पूर्व में बन्धन किए श्री तीर्थंकर नामकर्म वाले देवों द्वारा नमस्कार होते श्री वज्रसेन राजा ने अपना पद श्रेष्ठ चक्रवर्ती की लक्ष्मी से युक्त वज्रसेन की दी, और स्वयं राज्य का त्याग कर पाप का नाश करके आनन्द के आंसु झरते देव, दानवों के समूह द्वारा स्तुति होते सैंकड़ों राजाओं के साथ उत्तम साधु बने। फिर मोह के महासैन्य को जीतकर केवल ज्ञान प्राप्त कर सूर्य के समान भव्य जीवों को प्रतिबोध करते पृथ्वी मंडल को शोभायमान करते, अज्ञान रूप अंधकार के समूह को नाश करते वे सर्वत्र विचरते थे।

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