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श्री संवेगरंगशाला
वह पूर्व में चित्र के जीव को जाति स्मरण होने से घर बार का त्यागकर सम्यग् दीक्षा को स्वीकार करके अप्रतिबद्ध विहार करते उस नगर में आये और श्रेष्ठ धर्म ध्यान से तल्लीन एक उद्यान में एक ओर रहे। उस समय वहाँ एक रहट चलाने वाले के मुख से वह आधा सुना और उपयोग वाले मुनि ने भी उसे समझकर उसकी उतरार्द्ध श्लोक इस प्रकार कहा :
'एषानौषष्टिका जाति रन्योन्याभ्यां वियुक्तया।' अर्थात्-'यह हमारा छठा जन्म है, जिसमें हम एक दूसरे से अलग हुए हैं। मुनि के मुख से आधा श्लोक की उत्तरार्द्ध पंक्ति सुनकर रहट चलाने वाले ने राजा के पास जाकर उस श्लोक का उत्तरार्द्ध सुना कर श्लोक पूरा कर दिया। उसे सुनकर भाई के स्नेह वश राजा मूच्छित हो गया। इससे राजपुरुषों में 'यह राजा का अनिष्ट कारक है' ऐसा मानकर रहट वाले को मारने लगे। मार खाते उसने कहा कि मुझे मत मारो यह उत्तरार्द्ध मुनि ने रचा है। इतने में राजा ने चेतना में आकर सुना। अतः सर्व सम्पत्ति सहित वह साधु के पास गया और अतीव स्नेह राग से उनके चरणों में नमस्कार कर वहाँ बैठा । मुनि ने सद्धर्म का उपदेश दिया, उसकी अवगणना करके चक्रवर्ती ने साधु को कहा कि हे भगवन्त ! कृपा करके राज्य स्वीकार करो, विषय सुख भोगो और दीक्षा छोड़ो ! पूर्व के समान हम साथ में ही समय व्यतीत करें। मुनि ने कहा कि हे राजन् ! राज्य और भोग ये दुर्गति के मार्ग हैं, इसलिए जिनमत के रहस्य के जानकार तू इसे छोड़कर जल्दी दीक्षा स्वीकार कर जिससे साथ में ही तप का आचरण करें, राज्य आदि सभी सुखों से क्या लाभ है ? राजा ने कहा कि भगवन्त ! प्रत्यक्ष सुख को छोड़कर परोक्षा के लिए बेकार क्यों दःखी होते हैं ? जिससे मेरे वचन का इस तरह विरोध करते हो ? फिर चित्र मुनि निदान रूप दुश्चेष्ठित के प्रभाव से राजा को समझाना दुष्कर है । ऐसा जानकर धर्म कहने से रुके। और काल कम से कर्ममल को नाश करके शाश्वत स्थान मोक्ष को प्राप्त किया। चक्री भी अनेक पापों से अन्त समय में रौद्र ध्यान में पड़े मरकर सातवीं नरक में उत्कृष्ट आयुष्य वाला नरक का जीव हुआ। इस प्रकार के दोषों को करने वाला निदान का, हे क्षपक मुनि ! तू त्याग कर। इस तरह निदान शल्य कहा है, अब माया शल्य तुझे कहता हूँ।
२. माया शल्य :-जो चारित्र विषय में अल्प भी अतिचार को लगाकर बड़प्पन, लज्जा आदि के कारण गुरू राज के समक्ष आलोचना नहीं करता है