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श्री संवेगरंगशाला
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स्थानों में स्त्रियाँ विविध मंडलीपूर्वक गीत गाने लगीं, और तरूण स्त्रियाँ नृत्य करने लगीं, तब वहाँ अपनी मंडली में रहे वह चिन, संभूति भी अत्यन्त सुन्दर गीत गाने लगे। उनके गीत और नत्य से आकर्षित सारे लोग और उसमें विशेषतया युवतियाँ चित्र, संभूति के गीत सुनकर उसके पीछे दौड़ीं। इससे ईर्ष्या के कारण ब्राह्मण आदि नगर के लोगों ने राजा को विनती की कि-हे देव ! निःशंकता से फिरते इन चंडाल पुत्रों ने नगर के सारे लोगों को जाति भ्रष्ट कर दिये हैं, इससे गजा ने उनका नगर प्रवेश बन्द करवा दिया। फिर अन्य दिन कौमुदी महोत्सव प्रारंभ हुआ। इन्द्रियों के चपलता से और कुतूहल से उन्होंने सुन्दर श्रृंगार करके राजा की आज्ञा का अपमान करके नगर में प्रवेश कर एक प्रदेश में रहकर वस्त्र से मुख ढाककर हर्षपूर्वक गाने लगे और गीत से आकर्षित हुए लोग उसके चारों तरफ खड़े हो गये। इससे अत्यन्त स्वर वाले यह कौन हैं ? इस तरह जानने के लिए मुख के ऊपर से वस्त्र दूर करते यह जानकारी हुई कि-यह तो वे चंडाल पुत्र हैं इससे क्रोधित होकर लोगों ने 'मारो, मारो' इस प्रकार बोलते अनेक प्रकार के चारों तरफ से लकड़ी, ईंट, पत्थर आदि से मारने लगे। मार खाते वे महा मुश्किल से नगर के बाहर निकले और अत्यन्त संताप युक्त विचार करने लगे कि रूपादि समग्र गुण समूह होते हुए भी हमारे जीवन को धिक्कार है कि जिससे निंद्य जाति के कारण इस तरह हम तिरस्कार के पात्र बने हैं । अतः वैराग्य प्राप्त कर उन्होंने मरने का निश्चय कर स्वजन बन्धु आदि को कहे बिना दक्षिण दिशा की ओर चले। मार्ग में जाते उन्होंने एक ऊँचे पर्वत को देखा और मरने के लिए ऊपर चढ़ते उन्होंने एक शिखर के ऊपर घोर तप से सूखे हुए काया वाले परम धर्म ध्यान में प्रवृत्त कोयोत्सर्ग मुद्रा में रहे एक मुनि को हर्षपूर्वक देखा। उन्होंने भक्तिपूर्वक साधु के पास जाकर वन्दन किया और मुनि ने भी योग्यता जानकर ध्यानपूर्ण करके पूछा कि तुम कहाँ से आये हो ? उन्होंने भी उस साधु को पूर्व की सारी बात कह दी और पर्वत से गिरकर मरने का संकल्प भी कहा। तब मुनि ने कहा कि-महानुभाव ! ऐसा विचार सर्वथा अयोग्य है यदि वास्तविक वैराग्य जागृत हो, तो साधु धर्म स्वीकार करो। उन्होंने वह स्वीकार किया और अपने ज्ञान के बल योग्य जानकर मुनि श्री जी ने उनको दीक्षा दी।
कालक्रम से वे गीतार्थ बने, और दुष्कर तप करने में तत्पर वे विचरते किसी समय हस्तिनापुर पहुँचे। और एक उपवन में रहे फिर एक महीने के तप का पारणा के दिन संभूति मुनि ने भिक्षा के लिए नगर में प्रवेश किया।