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श्री संवेगरंगशाला
प्रायः कर समान धर्म के अभाव में पदार्थ दृष्टान्त नहीं बनता है। जो कष, छेदन, ताप और ताडन इन चार क्रियाओं से विशुद्ध परीक्षित होता है वह सुवर्ण ऊपर कहे वह विष घातक, रसायण आदि गुण युक्त होता है वैसे साधु में भी (१) विशुद्ध लेश्या वह कष है, (२) एक ही परमार्थ ध्येय का लक्ष्य वह छेद है, (३) अपकारी प्रति अनुकम्पा वह ताप है और (४) संकट में भी अति निश्चल चित्त वाले वह ताड़ना जानना । जो समग्र गुणों से युक्त हो वह सुवर्ण कहलाता है, वह मिलावट वाला कृत्रिम नहीं है। इस प्रकार साधु भी निर्गुणी केवल नाम से अथवा वेशमात्र से साधु नहीं है । और यदि कृत्रिम सोना सुवर्ण समान वर्ण वाला किया जाए फिर भी दूसरे गुणों से रहित होने से वह किसी तरह सुवर्ण नहीं बनता है। जैसे वर्ण के साथ में अन्य गुणों का समूह होने से जातिवन्त सोना-सोना है, वैसे इन शास्त्रों में जैसे साधु गुण कहे हैं उससे युक्त हो वही साधु है । आर वर्ण के साथ में अन्य गुण नहीं होने से जैसे कृत्रिम सोना-साना नहीं है वैसे साधु गुण से रहित जो भिक्षा के लिए फिरता है वह साधु नहीं है । साधु के निमित्त किया हुआ खाये, छहकाय जीवों का नाश करने वाला, जो घर मकान तैयार करे, करावे और प्रत्यक्ष जलचर जीवो को जो पीता हो उसे साधु कैसे कह सकते हैं ?
___ इसलिए कण आदि अन्य गुणों को अवश्यमेव यहाँ जानना चाहिए और इन परीक्षाओं द्वारा ही यहाँ साधु को परीक्षा करनी चाहिए। इस शास्त्र में जा साधु गुण कहे है उन का अत्यन्त सुपरिशुद्ध गुणो द्वारा मोक्ष ।साद्ध होती है, इस कारण से जा गुण वाला हो वहा साधु है । इस प्रकार मोक्ष साधक गुणी का साधन करने से जिसे साधु कहा है, वहा धर्मोपदेश देने से गुरू भी है । इसलिए अब सव लोगों का सावशेष ज्ञान करवाने के लिए सम्पूर्ण साधु के गुण समूह रूपी रत्नों से शोभित शरीर वाले भी गुरू की परीक्षा किस तरह करनी उस कहते है । पुनः उस परीक्षा से यदि साधु परलोक के हित से पराङमुख हो, केवल इस लोक में ही लक्ष्य बुद्धि वाला और सद्धर्म की वासना से राहत हो तो उसे परीक्षा करने का अधिकार नहीं है और जो लोक व्यवहार से देव तुल्य गिना जाता हो तथा अति दुःख से छोड़ने वाले माता, पिता को भो छोड़कर, किसी भी पुरुष को गुरू रूप स्वीकार करके श्रुत से विमुख अज्ञानो मात्र गडरिया प्रवाह के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला और धर्म का अर्थी होने पर भी स्व बुद्धि अनुसार कष्टकारी क्रियाओं में रूचि करने वाला, स्वेच्छाचारी उस सन्मार्ग में चलने की इच्छा वाला हो, अथवा दूसरे को चलाता हो, फिर भी इस प्रकार के साधु का भी विषय नहीं। परन्तु निश्चय रूप जिसने संसार की