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श्री संवेगरंगशाला
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ब्राह्मण की कथा शत द्वार में नगर में सोमदेव नाम का ब्राह्मण पुत्र रहता था। उसने यौवन वय प्राप्त करते रति सुन्दरी नामक वेश्या के रूप और स्पर्श में आसक्त होकर उसके साथ बहुत काल व्यतीत किया। पूर्व पुरुषों से मिला हुआ जो कुछ भी धन अपने घर में था उस सर्व का नाश किया, फिर धन के अभाव में वेश्या की माता ने घर से निकाल दिया, इससे चिन्तातुर होकर वह धन प्राप्ति के लिए अनेक उपायों का विचार करने लगा, परन्तु ऐसा कोई उपाय नहीं मिलने से धनवान के घर में जीव की होड़-बाजी लगाकर रात्री में चोरी करने लगा और इस तरह मिले धन द्वारा दो गुंदक देव के समान उस वेश्या के साथ में यथेच्छ आनन्द करने लगा। धन लोभी वेश्या की माता भी प्रसन्न होने लगी।
परन्तु उसकी अति गुप्त चोर क्रिया के कारण अत्यन्त पीड़ित नगर के लोगों ने राजा को चोर के उपद्रव की बात कही। इससे राजा ने कोतवाल को कठोर शब्द से तिरस्कारपूर्वक कहा कि-यदि चोर को नहीं पकड़ोगे, तो तुमको ही दण्ड दिया जायेगा। इससे भयभीत होते कोतवाल तीन रास्ते पर, चार रास्ते पर, चौराहा, प्याऊ, सभा आदि विविध स्थानों में चोर की खोज करने लगा। परन्तु कहीं पर भी चोर की बात नहीं मिलने से वह वेश्याओं के घर देखने लगा और तलाश करते हुए वहाँ चन्दन रस से सुगन्धित शरीर वाला अति उज्जवल रेशमी वस्त्रों को धारण किए हुए और महा धनाढ्य के पुत्र के समान उस वेश्या के साथ सुख भोगते उस ब्राह्मण को देखा। इससे उसने विचार किया कि-प्रतिदिन आजीविका के अन्य घरों में भीख माँगते इसे इस प्रकार का श्रेष्ठ भोग कहाँ से हो सकता है ? इसलिए अवश्यमेव यही दुष्ट चोर होना चाहिए। ऐसा जानकर कृतिम क्रोध से तीन रेखा की तरंगों से शोभते ललाट वाले कोतवाल ने कहा कि-विश्वासु समग्र नगर को लूटकर, यहाँ रहकर, हे यथेच्छ घुमक्कड़ अधम ! तू अब कहाँ जायेगा? अरे ! क्या हम तुझे जानते नहीं हैं ? उन्होंने जब ऐसा कहा, तब अपने पाप कर्म के दोष से, भय से व्याकुल हुआ और 'मुझे इन्होंने जान लिया है' ऐसा मानकर उसे भागते हुये पकड़ा और राजा को सौंप दिया। फिर रति सुन्दरी के घर को अच्छी तरह तलाश कर देखा तो वहाँ विविध प्रकार के चोरी का माल देखा और लोगों ने उस माल को पहचाना। इससे कुपित हुए राजा ने वेश्या को अपने नगर में से निकाल दिया और ब्राह्मण पुत्र को कुंभीपाक में मारने