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श्री संवेगरंगशाला
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चक्षु इन्द्रिय का दृष्टान्त पद्म खण्ड नगर में समर धीर नामक राजा राज्य लक्ष्मी को भोग रहा था। समस्त नीति का निधान वह राजा पर स्त्री, सदा माता समान, परधन तृण समान और परकार्य को अपने कार्य के सदृश गिनता था। शरण आये का रक्षण, दुःखी प्राणियों का उद्धार आदि धर्म कार्यों में प्रवृत्ति करते अपने जीवन का भी मूल्य नहीं समझा था। एक समय सुखासन में बैठे उसे द्वारपाल ने धीरे से आकर आदरपूर्वक नमस्कार करते विनती की कि- हे देव ! आपके पाद पंकज के दर्शनार्थ शिव नामक सार्थपति बाहर खड़ा है। 'वह यहाँ आये या जाये ?' राजा ने कहा कि आने दो। फिर नमस्कार करते हुए प्रवेश करके उचित आसन पर बैठा और इस प्रकार से कहने लगा कि हे देव ! मेरी विशाल नेत्र वाली रूप से रंभा को भी लज्जायुक्त करती, सुन्दर यौवन प्राप्त करने वाली, पूनम के चन्द्र समान मुख वाली, उन्मादिनी नाम की पुत्री है। वह स्त्रियों में रत्नभूत है, और राजा होने से आप रत्नों के नाथ हो, इसलिए हे देव ! यदि योग्य लगे तो उसे स्वीकार करो। हे देव ! आपको दिखाये बिना कन्या रत्न को यदि दूसरे को दं तो मेरी स्वामी भक्ति किस तरह गिनी जाये ? अतः आपको निवेदन करता हूँ, यद्यपि माता, पिता तो अत्यन्त निर्गुणी भी अपने सन्तानों की प्रशंसा करते हैं, वह सत्य है, परन्तु उसकी सुन्दरता कोई अलग ही है। जन्म समय में भी इसने बिजली के प्रकाश के समान अपने शरीर से सूतिका घर को सारा प्रकाशित किया था और ग्रह भी इसके दर्शन करने के लिये हैं। वैसे स्पष्ट ऊँचे स्थान पर थे। इस कारण से हे देव ! आप से अन्य उसका पति न हो। इस तरह जानकर अत्यन्त विस्मित मन वाले राजा ने उसे देखने के लिए विश्वासी मनुष्यों को भेजा।
उनको साथ लेकर सार्थवाह घर आया, घर में उसे देखा और आश्चर्यभूत उसके रूप से आकर्षित हुए। फिर मदोन्मत्त मूछित अथवा हृदय से शून्य बने हों, इस तरह एक क्षण व्यतीत करके एकान्त में बैठकर वे विचार करने लगे कि-अप्सरा को जीतने वाला कुछ आश्चर्यकारी इसका उत्तम रूप है, ऐसी अंग की शोभा है कि जिससे हम बड़ी उम्र वाले भी लोग इस तरह मुरझा गए हैं। हमारे जैसे बड़ी उम्र वाले भी यदि इसके दर्शन मात्र से भी ऐसी अवस्था हो गई है तो नवयौवन से मनोहर अंकुश बिना का सकल सम्पत्ति का स्वामी और विषय आसक्त राजा इसके वश से पराधीन कैसे नहीं बनेगा ? और राजा परवश होते राज्य अति तितर-बितर हो जायेगा और राज्य की