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श्री संवेगरंगशाला
माता के 'तुल्य और करुणा के एक रस वाले को गुरू कहा है । विषय रूपी मांस में आसक्त हो वह पुरुष अन्य जीवों को ठगने की इच्छा करता है और यदि इस विषय से विरक्त हो वही परमार्थ से गुरू है । नित्य, बाल, ग्याल आदि का यथायोग्य संविभाग देकर वह भी स्वयं किया, करवाया या अनुमोदन किया न हो, सकल दोष रहित, वह भी वैयावच्चादि कारण से ही और राग, द्वेष आदि दोषों से रहित अल्प - अल्प प्राप्त किया भोजन करता है उसे ही सत्य साधु कहते हैं । सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रित जो हमेशा राग का त्यागी है, अर्थात् द्रव्यादि की ममता नहीं है, उसे ही सत्य गुरू कहा है । तप से सूखे शरीर वाले भी व्यास आदि महामुनि यदि ब्रह्मचर्य में पराजित हुये हैं, अतः उस घोर ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले ही भाव गुरू हैं। यदि नित्य अति उछलते स्व-पर उभय के कषाय रूपी अग्नि को प्रशम के उपदेश रूप जल से शान्त करने में समर्थ है और क्षमादि दस प्रकार के यति धर्म के निर्मल गुण रूप मणिओं को प्रगट कराने में रोहणाचल पर्वत की भूमि समान हो, उसे श्री जैनेश्वर भगवान इष्ट गुरू कहा है ।
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यदि पाँच समिति वाले, तीन गुप्ति वाले, यम नियम में तत्पर महासात्विक और आगम रूप अमृत रस से तृप्त है, उसे भाव गुरू कहा है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देशी भाषा के विशिष्ट वचन द्वारा शिष्य को पढ़ाने में कुशल जो प्रियभाषी है वह भाव गुरू है । जिस तरह राजा को उसी तरह रंक को भी प्रशम जन्य चित्त वृत्ति से सद्धर्म को कहे, वह भाव प्रधान गुरू है । सुख और दुःख में, तृण 'और मणि में, तथा कनक और कथिर में भी समान है, अपमान और सन्मान भी समान है तथा मित्र शत्रु में भी समान है, राग, द्वेष रहित धीर है वह गुरू होता है । शरीर और मन के अनेक दुःखों के ताप से दुःखी संसारी जीवों को चन्द्र के समान यदि शीतलकारी हो, उसका गुरुत्व है । जिसका हृदय संवेगमय हो, वचन सम्यक् संवेगमय हो और उसकी क्रिया भी संवेगमय हो, वह तत्त्वतः सद्गुरू है । यदि सावद्य, निरवद्य भाषा को जाने और सावद्य का त्याग करे, निरवद्य वचन भी कारण से ही बोले, उस गुरू का आश्रय करे। क्योंकि सावद्य, निरवद्य वचनों के भेद को जो नहीं जानता, उसे बोलना भी योग्य नहीं है, तो उपदेश देने के लिये तो कहना ही क्या ? इसलिए जो हेतुवाद पक्ष में- युक्तिगम्य भावों में हेतु से और शास्त्र ग्राह्य, श्रद्धेय भावों में आगम से समझाने वाला वह तेरा गुरू है । इससे विपरीत उपदेश देने वाला श्री जैन वचन का विराधक है । क्योंकि अपनी मति कल्पना से असंगत भावों का पोषण करने वाला मूढ़ वह दूसरों के लिए 'मृषावादी सर्वज्ञ है ।' वह मिथ्या