________________
श्री संवेगरंगशाला
५४७
मेरे घर में आना' ऐसा कहकर जोर से गले से पकड़कर अपने घर में से निकाल दिया । फिर वे बिचारे बहुत काल तक भ्रमण करने में भी दूर देशों में पहुँचे उन व्यापारियों के पास से अपने असली रत्नों को पुनः किस तरह प्राप्त करें ? अथवा किसी तरह देव आदि की सहायता से उनको वे रत्न मिल जाएँ, फिर भी नाश हुआ अत्यन्त दुर्लभ बोधि वह पुनः प्राप्त नहीं होता है ।
,
और जब इस लोक परलोक में सुख को प्राप्त करता है तब ही श्री जिन कथित धर्म को भाव से स्वीकार करता है । जैसे-जैसे दोष घटते हैं और जैसे-जैसे विषयों में वैराग्य उत्पन्न होता है, वैसे-वैसे जानना कि बोधि लाभ नजदीक है | दुर्गम संसार अटवी में चिरकाल से परिभ्रमण करते भूले हुए जीवों को इष्ट श्री जिन कथित सद्गति का मार्ग अति दुर्लभ है । मनुष्य जीवन मिलने पर भी मोह के उदय से कुमार्ग अनेक होने से और विषय सुख के लोभ से जीवों को मोक्ष मार्ग दुलर्भ है । इस कारण से महामूल्य वाले रत्नों के भंडार की प्राप्ति तुल्य बोधिलाभ प्राप्त कर तुच्छ सुखों के लिए तू उसे ही निष्फल गवाना नहीं । इस प्रकार दुलर्भ भी बोधिलाभ मुश्किल से मिलने पर भी इस संसार में धर्माचार्य की प्राप्ति भी दुर्लभ है, इस कारण से तू इसका भी विचार कर जैसे कि :--
कष,
१२. धर्माचार्य दुर्लभ भावना :- जैसे जगत में रत्न का अर्थी और उसके दातार भी थोड़े होते हैं, वैसे शुद्ध धर्म के अर्थी और उसके दाता भी बहुत ही अल्प होते हैं । और यथोक्त साधुता होने पर शास्त्र कथित, छेद आदि से विशुद्ध शुद्ध धर्म को देने वाले हैं वे गुरू सद्गुरू में गिने जाते हैं । इसीलिये ही इन विशिष्ट दृष्टि वाले ज्ञानियों ने प्रमाण से सिद्ध अर्थ वाले को निश्चय से भाव साधु कहा है । इस प्रमाण से अनुमान प्रमाण की पद्धति से अपना कथन सिद्ध करते हैं कि 'शास्त्रोक्त गुण वाले वह साधु होते हैं दूसरे प्रतिज्ञा और गुण वाले नहीं होने से साधु नहीं होते हैं यह हेतु है' । सुवर्ण के समान यह दृष्टान्त है जैसे (१) विष घातक, (२) रसायण, (३) मंगल रूप, (४) विनीत, (५) प्रदक्षिणा वर्त, (६) भारी, (७) अदाह्य, और ( ८ ) अकुत्सित ये आठ गुण सुवर्ण में होते हैं वैसे भाव साधु भी ( १ ) मोहरूपी विष का घात करने वाले होते हैं, (२) मोक्ष का उपदेश करने से रसायण है, (३) गुणों से वह मंगल स्वरूप है, (४) मन, वचन, काया के योग से विनित होते हैं, (५) मार्गानुसारी होने से प्रदक्षिणावर्त होते हैं, (६) गम्भीर होने से गुरू रूप होते हैं, (७) क्रोध रूपी अग्नि से नहीं जलने वाले और, (८) शील वाले होने से सदा पवित्र होते हैं । इस तरह यहाँ सोने के गुण दृष्टान्त से साधु में भी जानने योग्य हैं, क्योंकि