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श्री संवेगरंगशाला
इत्यादि विविध दुःख को अपनी आँखों से देखकर और किसी के दुःखों को परोपदेश से जानकर भी अमूल्य बोधि को स्वीकार नहीं करता है । जैसे बड़े नगर में मनुष्य गया हो और धन होते हुए भी मूढ़ता के कारण वहाँ का लाभ नहीं लेता, वैसे ही नर जन्म को प्राप्त कर भी जीव मूढ़ता से बोधि को प्राप्त नहीं करता । तथा सत्य की परीक्षा को नहीं जानने वाला चिन्तामणी को फेंक देने वाले मूढात्मा के समान मूढ़ मनुष्य मुश्किल से मिला उत्तम बोधि को भी शीघ्र छोड़ देता है, और अन्य व्यापारियों को रत्न दे देने के बाद व्यापारी के पुत्र के समान पुनः उन रत्नों को प्राप्त नहीं कर सका, उस तरह बोधिज्ञान से भ्रष्ट हुआ पुनः खोज करने पर भी उसे प्राप्त नहीं कर सकता है । यह विषय कथा इस प्रकार :
वणिक पुत्र की कथा
महान् धनाढ्य से पूर्ण भरे हुए एक बड़े नगर में कलाओं में 'कुशल, उत्तम प्रशान्त वेषधारी, शिवदत्त नाम का सेठ रहता था । उसके पास ज्वर, भूत, पिशाच, और शाकिनी आदि के उपद्रव को नाश करने वाले प्रगट प्रभाव से शोभित विविध रत्न थे । उन रत्नों को वह प्राण के समान अथवा महानिधान समान हमेशा रखता था, अपने पुत्र आदि को भी किसी तरह नहीं दिखाता था । एक समय उस नगर में एक उत्सव में जिसको जितना करोड़ धन था वह धनाढ्य उतनी चन्द्र समान उज्जवल ध्वजा ( कोटि ध्वजा ) अपनेअपने मकान के ऊपर चढ़ाने लगे । उसे देखकर उस सेठ के पुत्रों ने कहा कि'हे तात ! रत्नों को बेच दो ! धन नकद करो ! इन रत्नों का क्या काम है ? कोटि ध्वजाओं से अपना धन भी शोभायमान होता है' इससे रूष्ट हुए सेठ ने 'कहा कि - अरे ! मेरे सामने फिर ऐसा कभी भी नहीं बोलना किसी तरह भी इन रत्नों को नहीं बेचूंगा । इस तरह पिता को निश्चल जानकर पुत्रों ने मौन धारण किया और विश्वरत मन वाले सेठ भी एक समय कार्यवश अन्य गाँव में गया । फिर एकान्त पिता की अनुपस्थिति जानकर अन्य प्रयोजनों का विचार किए बिना पुत्रों ने दूर देश आए व्यापारियों को वे रत्न बेच दिए । फिर उस बिक्री से प्राप्त हुए धन से अनेक करोड़ संख्या की शंख समान उज्जवल ध्वजापटों को घर के ऊपर चढ़ाया । फिर कुछ काल में सेठ आया और घर को देखकर सहसा विस्मय प्राप्त कर पुत्रों से पूछा कि - यह क्या है ? उन्होंने सारा वृत्तान्त कहा, इससे अति गाढ़ क्रोध वाले सेठ ने अनेक कठोर शब्दों से बहुत समय तक उनका तिरस्कार किया और 'उन रत्नों को लेकर