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श्री संवेगरंगशाला
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अशुचि के प्रति दुर्गछा के पाप विस्तार से अनेक बार नीच योनियों में जन्म आदि प्राप्त करता है। इसलिए हे क्षपक मुनि ! देह की अशुचित्व को सर्व प्रकार से भी जानकर आत्मा को परम पवित्र बनाने के लिए धर्म में ही विशेष उद्यम करो।
अन्य आचार्य महाराज प्रस्तुत अशुचित्व भावना के स्थान पर इसी तरह असुख भावना का उपदेश देते हैं, इसलिए उसे भी कहते हैं। श्री जैनेश्वर के धर्म को छोड़कर तीन जगत में भी अन्य सुखकारण-अथवा शुभ-कृत्य या स्थान मृत्यु लोक में या स्वर्ग में कहीं पर भी नहीं है। धर्म, अर्थ और काम के भेद से तीन प्रकार का कार्य जीव को प्रिय है, उसमें धर्म एक ही सुख का कार्य है जबकि अर्थ और काम पुनः असुखकारक हैं। जैसे कि धन, वैर भाव की राजधानी, परिश्रम, झगड़ा और शोकरूपी दुःखों की खान, पापारम्भ का स्थान और पाप की परम जन्मदात्री है । कुल और शील की मर्यादा को विडम्बना कारक स्वजनों के साथ भी विरोधकारक, कुमति का कारक और अनेक अनर्थों का मार्ग है काम-विषयेच्छाएँ भी इच्छा करने मात्र से भी लज्जाकारी, निन्दाकारी, नीरस और परिश्रम से साध्य हैं। प्रारम्भ में कुछ मधुर होते हुए भी अति वीभत्स वह कामभोग निश्चय ही अन्त में दुःखदायी, धर्म गुणों की हानि करने वाला, अनेक भयदायी, अल्पकाल रहने वाला क्रूर और संसार की वृद्धि करने वाला है। इस संसार में नरक सहित तिर्यंच समूह में और मनुष्य सहित देवों में जीवों को उपद्रव-दुःख रहित अल्प भी स्थान नहीं है। अनेक प्रकार के दुःखों की व्याकुलता से, पराधीनता से और अत्यन्त मूढ़ता से तिर्यंचों में भी सुख जीवन नहीं है, तो फिर नरक में वह सुख कहाँ से हो सकता है ? तथा गर्भ, जन्म, दरिद्रता, रोग, जरा, मरण और वियोग से पराभव होते मनुष्यों में भी अल्पमात्र सुखी जीवन नहीं है । मांस, चरबी, स्नायु, रुधिर, हड्डी, विष्टा, मूत्र, आंतरडे स्वभाव से कलुषित और नौ छिद्रों से अशुचि बहते मनुष्य के शरीर में भी क्या सुखत्व है ? और देवों में भी प्रिय का वियोग, सन्ताप, च्यवन, भय और गर्भ में उत्पत्ति की चिन्ता इत्यादि विविध दुःखों से प्रतिक्षण खेद करता है और ईर्ष्या, विवाद, मद, लोभादि जोरदार भाव शत्रुओं से भी नित्य पीड़ित है ? तो देव को भी किस प्रकार सुख जीवन है ? अर्थात् वह भी दुःखी ही है।
७. आश्रव भावना :-इस प्रकार दुःखरूप संसार में यह जीव सर्व अवस्थाओं में भी जो कुछ भी दुःख को प्राप्त करता है वह उसके बन्धन किए