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श्री संवेगरंगशाला
उसे अपना हित स्वयं को ही करना योग्य है । इसी लिए ही नरक जन्य तीक्ष्ण दुःखों से पीड़ित अंग वाले सुलस नामक बड़े भाई को शिवकुमार ने दीक्षा दी थी। वह इस प्रकार :
सुलस और शिवकुमार की कथा दशार्णपुर नामक नगर में परस्पर अति स्नेह से प्रतिबद्ध दृढ़ चित्त वाला सुलस और शिव दो भाई रहते थे, परन्तु प्रथम सुलस अति कठोर कर्म बन्धन करने वाला था, अतः उसे हेतु दृष्टान्त और युक्तियों से समझाया फिर भी वह श्री जैन धर्म में श्रद्धावान नहीं हुआ। दूसरा शिवकुमार अतीव लघुकर्मी होने से श्री जैनेश्वर भगवान के धर्म को प्राप्त कर साधु सेवा आदि शिष्टाचार में प्रवृत्ति करता था। और पाप में अति मन लगाने वाले बड़े भाई को हमेशा प्रेरणा देता कि-हे भाई ! तू अयोग्य कार्यों को क्यों करता है ? छिद्र वाली हथेली में रहे पानी के समान हमेशा आयुष्य खतम होते और क्षण-क्षण में नाश होते शरीर की सुन्दरता को तू क्यों नहीं देखता है ? अथवा शरदऋतु के बादल की शोभा, बिखरती लक्ष्मी को तथा नदी के तरंगों के समान नाश होते प्रियजन के संगम को भी क्यों नहीं देखता? अथवा प्रतिदिन स्वयं मरते भाव समूह को और बड़े समुद्र के समान विविध आपदाओं में डूबते जीवों को क्या नहीं देखता ? कि जिससे यह नरक निवास का कारणभूत घोर पापों का आचरण कर रहा है। और तप, दान, दया आदि धर्म में अल्प भी उद्यम नहीं करता है ? तब सुलभ ने कहा कि-भोले ! तुम धूर्त लोगों से ठगे गये हो कि जिसके कारण तुम दुःख का कारण भूत तप के द्वारा अपनी काया को शोष रहे हो। और अनेक दुःख से प्राप्त हई धन को हमेशा तीर्थ आदि में देते हो और जीव दया में रसिक मन वाले तुम पैर भी पृथ्वी ऊपर नहीं रखते। ऐसी तेरी शिक्षा मुझे देने की अल्प भी जरूरत नहीं है । कौन प्रत्यक्ष सुख को छोड़कर आत्मा में गिरे ? इस तरह हांसी युक्त भाई के वचन सुनकर दुःखी हुआ और शिवकुमार ने वैराग्य धारण करते सद्गुरु के पास दीक्षा ग्रहण की,
और अति चिरकाल तक उग्र तप का आचरण कर काल धर्म प्राप्त कर कृत पुण्य वह अच्युत कल्प में देव रूप उत्पन्न हुआ।
सुलभ भी विस्तारपूर्वक पाप करके अत्यन्त कर्मों का बन्धन कर मर कर तीसरी नरक में नारकी का जीव हुआ, और वहाँ कैद में डाला हो वैसे करूण विलाप करते परमाधामी देवों द्वारा हमेशा जलना, मारना, बांधना इत्यादि अनेक दुःखों को सहन करने लगा। फिर अवधि ज्ञान से उसको इस